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________________ अन्तर्यात्रा, कभी आत्मबोध और आत्मतत्त्व कहलाता है । इसकी आखिरी ऊँचाइयों को छू लेने पर यही कैवल्य और सम्बोधि कहलाता है सामान्यतः प्रत्येक व्यक्ति, हमारे देश में, यह कहते हु मिल जाएगा कि हमारे भीतर आत्मा है, तो हम जीवित हैं । प्राण पखेरू उड़ गया कि इन्सान मर गया। इसके उपरान्त व्यक्ति जीवन भर अपनी आत्मा, अपने प्राणों की परवाह नहीं करता । वह केवल अपने शरीर की ही फिक्र करता है । शरीर के पोषण पर ध्यान देता है, शरीर से पैदा होने वाली संतान, शरीर को सुख पहुँचाने वाली पत्नी, शरीर को सुख देने वाले भौतिक पदार्थ ही उसे रास आते हैं । यद्यपि वह शरीर का ही पोषण करता है तथापि किसी शव को देखकर उसे पल भर के लिए ही सही, यह ख़याल अवश्य आता होगा कि आत्मा ही जीवन का आधार है । व्यक्ति अपनी आत्मा की परवाह नहीं करता, न उसके दर्शन की, न उसे जानने की और न ही उसे सही मार्ग पर लगाने की । 1 सच्चाई यह है कि व्यक्ति की आत्मा ही व्यक्ति का 'स्व' है । ज्ञानी कहते हैं कि आत्मा ही व्यक्ति का शत्रु है और आत्मा ही व्यक्ति का मित्र है 1 सही रास्ते पर गतिशील रहने वाली आत्मा ही व्यक्ति की मित्र है, जबकि गलत रास्ते पर चलने वाले व्यक्ति की आत्मा ही व्यक्ति की शत्रु है। सही-गलत दोनों की ज़वाबदेह व्यक्ति की अपनी आत्मा है । शरीर और आत्मा दोनों को एक मानना अज्ञान है, जबकि दोनों को भिन्न-भिन्न मानना ज्ञान का पर्याय है । शरीर का परिणाम तो संसार है और आत्म-भाव का परिणाम निर्वाण है। मातापिता, संतान, पत्नी सभी शरीर के संबंध हैं और जब कोई व्यक्ति शरीर से उपरत हो जाता है, देहभाव से ऊपर उठ जाता है वह आत्मवादी होने की राह पर चल पड़ता है। Jain Education International अपने आत्म-तत्त्व को जानने के लिए, अपने अस्तित्व को समझने के लिए, स्वयं को दुःखों से मुक्त करने के लिए, कर्म - संस्कारों से मुक्त होने के लिए ही महावीर और बुद्ध जैसे लोगों ने संन्यास लिया । उस परम तत्त्व को जानने के लिए वे वर्षों वर्ष जंगलों में रहे, ध्यान करते रहे, नितांत एकांत में रहे, परम मौन की अवस्था में रहकर समाधिस्थ रहे। स्वयं की घंटों-घंटों विपश्यनाअनुपश्यना करते रहे । स्वयं को निर्मल करते रहे । क्यों ? क्योंकि वे अपने For Personal & Private Use Only २७९ www.jainelibrary.org
SR No.003880
Book TitleMahavir Aapki aur Aajki Har Samasya ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages342
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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