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उच्चारण किया जाए। यदि आधा घण्टा मन्त्र जाप करना चाहते हैं तो दस मिनिट तक लगातार मन्त्र का सबसे पहले उच्चारण करें, ताकि हमारा मन उसके साथ रमे। फिर भी लगता है कि मन नहीं लग रहा तो मन्त्र-उच्चारण के साथ ताली बजाओ। किसी मीरा की तरह इकतारा हाथ में थाम लो, किसी सूर की तरह करताल हाथ में ले लो, किसी तुलसीदास की तरह चंदन घिसना शुरू कर दो, किसी चैतन्य प्रभु की तरह नृत्य करना शुरू कर दो, पर मन का मन्त्र के साथ लगना ज़रूरी है। मन की लगन, मन की एकलयता और मन्त्र जब एक साथ मिलते हैं तो उसमें रहने वाली शक्ति स्वतः उभरकर आती है।
महावीर तो वीतराग हैं। फिर भी आम इन्सान को अगर धर्म में प्रवेश पाना है तो उनके लिए महावीर ने भी मंत्र को स्वीकार किया। महावीर के अनुयायी इस बात पर तो भेद खड़ा कर सकते हैं कि मंदिर को माना जाए या न माना जाए लेकिन उनके समस्त अनुयाइयों ने, समस्त परम्पराओं ने मन्त्र को तो अवश्यमेव स्वीकार किया। मंदिर से तो बच सकते हो पर मन्त्र से नहीं बच सकते । बिना मंदिर के चल सकता है पर बिना मंत्र के न चलेगा। मंदिर मन्त्र की पूर्व भूमिका है। मंदिर में भी मन्त्र की शरण तो आना ही होगा। मंदिर धर्म का पहला पगथिया है तो मन्त्र धर्म का दूसरा पगथिया है। केवल मंदिर जाने से ही काम न चलेगा, वहाँ मन्त्र की आवश्यकता होगी। गुरु की शरण में भी चले गए तो गुरु जो देंगे वह गुरुमन्त्र ही होगा। आखिर शरण तो मन्त्र की ही हुई। ध्यान का अपना उपयोग हो सकता है, योग के भी परिणाम हैं, तप और त्याग की भी उपयोगिता है लेकिन इन सबके परिणाम पाने से पहले ज़रूरी है हम मन के साथ तदाकार हो सकें और तदाकार होने के लिए ज़रूरी है मन्त्र की शरण स्वीकार
करना।
मंत्र संकट का मोचक है, मन्त्र मददगार है, मन्त्र माध्यम है। किसी परम्परा ने राम नाम का मन्त्र दिया, किसी ने कृष्ण के नाम का मन्त्र दिया, महावीर ने भी मंत्र दिया लेकिन वे नहीं कहते कि उनकी शरण में आएँ । महावीर तो महापुरुषों की शरण में जाने को कहते हैं। महावीर का मंत्र अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधुओं की शरण देता है। धर्म की शरण देता है, यही तो व्यक्ति की विनम्रता है। कृष्ण और महावीर में यही फ़र्क है। कृष्ण
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