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दुनिया में हिंसा कम होनी चाहिए, इसके लिए हम सब लोगों का दायित्व है कि व्यक्तिगत हित समष्टिगत हित में बदल जाना चाहिए। 'वसुधैव कुटुम्बकं' - सारी वसुधा हमारा परिवार है का सिद्धांत देने वाला देश केवल व्यक्तिगत स्तर पर अपने आप को सीमित नहीं रख सकता । अगर ऐसा होता है तो यह हमारा स्वार्थ ही कहलाएगा। परमार्थ यही है कि हम भी सुख से जिएँ और औरों के लिए भी सुख से जीने का वातावरण निर्मित करें। विशेष रूप से जो इन्सानियत में आस्था रखते हैं और वे लोग जो धर्म के प्रचार और प्रसार में लगे हुए हैं, हैं, प्रेम व शांति के मार्ग को बढ़ाने में तत्पर हैं उन सभी का यह दायित्व है। हम सभी को चाहिए कि हम लोग शाकाहार को प्रोत्साहन दें और उग्रवाद तथा आतंकवाद पूरी दुनिया से कम हो सके इसके लिए अहिंसा के प्रचार और प्रसार को प्रोत्साहन दें। ऐसा पवित्र कार्य करते हुए अगर कुछ संतों की आहुतियाँ भी हो जाती हैं, वे आतंकवाद के काल के ग्रास भी बन जाते हैं तो यह कुर्बानी विश्व की, देश की सुरक्षा के लिए होगी । आखिर भगतसिंह बने बगैर देश या धर्म की सेवा नहीं की जा सकती ।
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हम विश्व की तरफ बढ़ेंगे तो हो सकता है कि हमारी आवाज़ को सुनकर, इन्सानियत और मोहब्बत के पैगाम को सुनकर यदि किसी के दिल को ठेस पहुँचती है और वह हमें गोली से उड़ा भी देते हैं तो संत वेलेन्टाइन की तरह हम भी कुर्बान हो जाएँगे । संत वेलेन्टाइन प्रेम के लिए कुर्बान हो गए तो हम भी अहिंसा के लिए कुर्बान हो जाएँगे। यह हमारे लिए गरिमा की बात होगी । शरीर तो सबका एक-न- एक दिन छूटना ही है, पर अहिंसा, धर्म और ईश्वरीय पैग़ामों को दुनिया में पहुँचाने के लिए यह शरीर काम आता है तो यह हमारा सौभाग्य कहलाएगा।
भगवान श्री महावीर अहिंसा के अवतार कहलाते हैं। उन्होंने व्यक्तिगत रूप से भी अहिंसा को जिया, सामाजिक तौर पर भी अहिंसा को स्थापित किया और सारे विश्व को अहिंसा का पैग़ाम देने के लिए वनवासी भी हो गए। उसके बाद भी इस मानसिकता के साथ वापस इन्सानियत के बीच में लौटकर आ गए कि अगर उनकी वजह से दस लाख लोग भी अहिंसा का मार्ग अपना लेते हैं, अहिंसापूर्वक जीवन जीने का संकल्प लेते हैं तो यह वनवासी का सौभाग्य ही
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