SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 335
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एक दिन नश्वर देह का त्याग करके चले जाओ। जैन धर्म में एक परम्परा है ‘संलेखना' लेने की। संलेखना का अर्थ है- शरीर और मन को धैर्यपूर्वक समझते हुए तितिक्षापूर्वक उसका त्याग करना। जब जीवन के सारे उद्देश्य पूर्ण हो जाएँ, जितना जीना था जी चुके, जितना सार्थक करना था कर लिया और अब नश्वर देह का त्याग करना चाहता है ऐसा व्यक्ति संलेखना व्रत लेता है। इसमें वह अन्न-जल का त्याग करते हुए, बोध, समाधि और आत्मभाव में लीन होता हुआ धीरे-धीरे अपनी देह का विसर्जन करता है और अखण्ड समाधि में समाधिस्थ होता है। हममें से कई लोगों ने समाधि संलेखनापूर्ण मरण देखा है। ऐसे लोगों को अवश्य देखना चाहिए कि वह किस तरह मृत्युंजय बन रहा है ताकि हमारे भीतर भी अनासक्ति घटित हो सके। जीवन के प्रति अनासक्ति के फूल खिलाने के लिए हमें एक बार श्मशान ज़रूर जाना चाहिए। मेरा तो कहना है साधना-मार्ग पर आने से पहले व्यक्ति को कम-से-कम तीन माह तक श्मशान या कब्रिस्तान में ज़रूर जाना चाहिए । इससे वह या तो नश्वर देह के प्रति अनासक्त हो जाएगा या वह जीवन के प्रति निष्ठाशील हो जाएगा। तब उसे मौत एक खेल जैसी लगेगी, बिखर गया शरीर, ठीक है। तब वह खुशी और ग़म दोनों से मुक्त हो जाएगा। श्री भगवान कहते हैं - जब कोई व्यक्ति ज्ञानी की तरह अपने शरीर का विसर्जन करता है उस समय उसे अपने अन्तर्मन में किसी भी तरह की इच्छा, मोह-माया संग्रहित नहीं करनी चाहिए, अन्यथा यह संग्रह उसे पुनः जन्मधारा की ओर ले आएगा। क्योंकि अन्त मति सो गति। अंतिम समय में जैसी मति होगी उसकी गति, दुर्गति, सद्गति भी वैसी ही हो जाएगी। तभी तो हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि प्रभु तू मुझ पर इतना रहम कर कि जब तक हम जिएँ तब तक हमारी बुद्धि सद्बुद्धि रहे और जब हम मरें तो हमारी गति सद्गति हो। हमें प्रभु से इतनी-सी कृपा ही तो चाहिए। अंतिम समय में अगर हमारे भीतर किसी भी प्रकार की माया की गाँठ बँध गई फिर चाहे वह अनुरागमूलक हो या विद्वेषमूलक यह जन्म-जन्मांतर तक हमारा पीछा करती रहेगी। हम सभी महावीर के पूर्वभव के बारे में जानते हैं जब उन्होंने क्रोध में आकर अपने ही अंगरक्षक के कानों में खौलता हुआ शीशा डलवा दिया था क्योंकि अंगरक्षक ने उनकी आज्ञापालन में कोताही बरती थी। जब उसके कानों में ३२४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003880
Book TitleMahavir Aapki aur Aajki Har Samasya ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages342
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy