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________________ जिएँ आनन्दपूर्वक जिएँ, शतायु होने को कह देने से कोई शतायु हो नहीं जाता । आनन्द से जिएँ और आनन्द के साथ ही इस शरीर का त्याग करें। बस इतना - सा भाव रखते हैं जब यह शरीर छूटे तब ध्यान और साधना की अवस्था हो, साथ अन्तर्मन का तार जुड़ा रहे, प्रभु के साथ एकलय रहें, शरीर तो नीचे छूट जाए और हम प्रभु तुममें समा जाएँ । जैसे ज्योति ज्योति में मिलती है वैसे ही हम इस नश्वर देह का त्याग करके परम ज्योति में समाविष्ट हो जाएँ । प्रभु के न मृत्यु का भय है, न मृत्यु की वांछा है लेकिन यह भावना तो रख ही सकते हैं। ज़रूरी नहीं है कि जैसा हम चाहें वैसा ही हो जाए और संभावना यह भी है कि हमारी चाहत पूरी हो जाए। चाहने से राह भी मिल जाती है इसलिए हम अपनी चाहत को इतना प्रगाढ़ कर लें कि समाधि की दशा घटित हो ही जाए। भावना पूरी न भी हो तो जो घटे उसका भी आनन्द है । मृत्यु तो निश्चित है और जो चीज़ निश्चित है उससे कभी डरना नहीं चाहिए वरन् जो होने वाला है उसे और अधिक बेहतर कैसे बनाया जा सकता है इसका प्रयत्न अवश्य करना चाहिए । माटी वही सार्थक है जो अपने परिणाम तक पहुँचती है। जैसे मैंने संन्यास लिया है और अगर संन्यास को अंतिम परिणाम तक नहीं पहुँचा पा रहा हूँ तो मेरा संन्यास व्यर्थ है। अगर आप ध्यान कर रहे हैं और परिणाम तक नहीं पहुँच रहे हैं तो आपकी ध्यान की बैठकें व्यर्थ हैं। हम कोई शास्त्र पढ़ रहे हैं और उस पर चिंतन कर रहे हैं और ज्ञान के परिणाम तक नहीं पहुँच पाए तो उस शास्त्र के बारे में सुनना, पढ़ना, पारायण करना सब बेकार है । कोई व्यक्ति फैक्ट्री खोलता है और लाभ के परिणाम तक न पहुँचा तो यह केवल फैक्ट्री में आना-जाना ही तो हुआ। परिणाम मिले तो ही सान्निध्य सार्थक है, सत्संग सार्थक है। कार्य-कारण का सिद्धान्त यही तो समझाता है कि अगर कोई कारण है तो उसे कार्य तक पहुँचाया जाए। माटी अगर असफल हो गई तो यह माटी का नहीं कुम्हार का दोष है कि उसने कलश नहीं बनाया । अगर कोई व्यक्ति नदी पार करने के लिए नौका पर चढ़ गया लेकिन पार न हो सका तो यह नाविक का ही दोष होगा। गुरु वही कहलाता है जो व्यक्ति को इस तट से उस तट तक पहुँचा दे, अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाए। ज्ञानपूर्वक शरीर का विसर्जन कैसे किया जाए गुरु हमें इसका ज्ञान देते हैं। अनासक्ति द्वार है । अन्तर आत्मा में जिओ और Jain Education International For Personal & Private Use Only ३२३ www.jainelibrary.org
SR No.003880
Book TitleMahavir Aapki aur Aajki Har Samasya ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages342
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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