________________
जिनसे उसने ज्ञान अर्जित किया है, जिसके पास बैठकर उसने भीतर की पंखुरियों को खिलाना सीखा है, जीवन जीना सीखा - उनका पूजन, उनका वंदन अवश्य करे। यह आभार समर्पित करने का एक तरीका है। प्रभु आपका शुक्रिया कि गुरुजनों की सद्प्रेरणा से हम आज इस मुकाम पर पहुँच सके। आपको प्रणाम है, वंदन है और उनकी चरणधूलि को अपने मस्तक पर लगाएँ। गुरुजनों को वंदन करने से जहाँ हमारा अहंभाव नष्ट होता है, जहाँ हमारे भीतर ज्ञान चेतना का विकास होता है वहीं हम शास्त्रों के मर्म को भी समझने लगते हैं, आत्म-ज्ञान की ओर बढ़ने लगते हैं और सांसारिक प्रपंचों से ऊपर उठकर अपने जीवन में आध्यात्मिक सौन्दर्य, आध्यात्मिक प्रकाश, आध्यात्मिक चेतना की ओर चार कदम बढ़ने लगते हैं। ____एक बात का और ख़याल रहे, गुरुओं को केवल उनके स्थान पर जाकर ही वंदन न करें बल्कि अगर वे सड़क पर चलते हुए नज़र आ जाएँ और आप कार या स्कूटर पर हों तो उन्हें नज़रअन्दाज़ न करें बल्कि उतर कर उनकी अभ्यर्थना करें। क्योंकि गुरु चाहे धर्मस्थान में रहें या कहीं आ-जा रहे हों, गुरु तो गुरु ही रहते हैं। माता-पिता घर में रहते हैं तब भी माता-पिता ही होते हैं और स्टेशन पर जा रहे हों तब भी माँ-बाप ही होते हैं। यहाँ तक कि वे नश्वर शरीर छोड़ दें तब भी माँ-बाप ही होते हैं। कहीं आने-जाने से मातृत्व और पितृत्व समाप्त नहीं हो जाता। कहीं इधर-उधर होने से उनका गुरुत्व ख़त्म नहीं हो जाता। इसलिए जब भी गुरुजन सामने आएँ हमें उनके सम्मान में खड़े होना चाहिए। जब मैं 'गुरु' शब्द का उपयोग कर रहा हूँ तो केवल ज्ञानदाता गुरु ही नहीं कह रहा हूँ - मेरे लिए तो माता भी गुरु है, पिता भी गुरु है, शिक्षक भी गुरु है, जिनसे कुछ सीखा जा सके वे भी गुरु हैं, और दीक्षा-संतत्व प्रदान करने वाले तो गुरु हैं ही।
धर्मशास्त्रों के अनुसार तो गुरुजन जैसे बैठे हैं उनसे ऊपर ऊँचे नहीं बैठना चाहिए नहीं तो दोष लगता है। उत्तराध्ययन सूत्र में बताया गया है कि गुरुजनों के बराबर में भी नहीं बैठना चाहिए । गुरुजनों के सामने बैठकर स्वयं को ज्ञानार्जन के लिए समर्पित करना चाहिए।
दीक्षा लेने के बाद जब हम आहार लेकर आते तो सबसे पहले अपने गुरु
२५४
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org