________________
तलवार देखो कि उसमें धार है या नहीं। साधु की करनी देखो, उसकी कथनी देखो, उसका उपदेश, उसका ज्ञान देखो। वह किस जाति का है, इससे क्या फ़र्क पड़ता है। रैदास, जो इस देश के गौरव हैं, जाति से चमार थे। संत गोरा कुम्हार थे, हरिकेशबल चण्डाल जाति के थे। जाति से क्या मतलब है ? आदमी छोटी जाति का होकर भी बड़े काम कर सकता है। एक समय में हमारे देश के रक्षामंत्री और गृहमंत्री जगजीवनराम थे जो जाति से हरिजन थे। किसी की जाति छोटी या बड़ी है क्या फ़र्क पड़ता है। व्यक्ति के कर्म ऊँचे होने चाहिए, उसके ज्ञान की दशा उच्च होनी चाहिए। तब छोटी जाति का होकर भी व्यक्ति महान कहला सकता है। जीसस या सुकरात भी कोई बड़ी जाति के नहीं थे तब भी दुनिया के लिए महान आदर्श बन गए। इसलिए कहता हूँ पंथ-वंथ को मत देखो कि कौन संत किस पंथ का है। पंथ तो सामाजिक व्यवस्था है, इसके अतिरिक्त पंथ का कोई अर्थ नहीं है।
जब महावीर कहते हैं कि गृहस्थ तो देने मात्र से धन्य होता है, इसमें पात्र-अपात्र का क्या विचार ! तब हम संत के पाँव छूने मात्र से धन्य होते हैं फिर वह चाहे किसी भी पंथ का क्यों न हो। यह हमारी मूढ़ता व संकीर्णता है जो हम अपने पंथ के संत को संत स्वीकार करते हैं और अन्यों से कोई प्रयोजन नहीं रखते । यह हमारा मिथ्यात्व है। दूसरे पंथ के संतों के पाँव छूने से हमारा समकित खतरे में नहीं पड़ता है। अगर ऐसा हो जाए तो वह तथाकथित पंथ अप्रयोजनीय है जिसमें केवल विशिष्ट पंथ के संतों को ही मान्यता मिलती है। अरे उसके ज्ञान को देखो, उसकी मेधा को पहचानो, उसके जीवन को, दर्शन को जानो । दर्शन का मोल करो, प्रदर्शन का नहीं। कबीर का दोहा है -
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय ।
सार-सार को गहि रहे, थोथा देय उड़ाय ।। केवल काम की बात अपने पास रखें, शेष छोड़ दें। इसलिए समत्व/ समभाव किसी भी संत का अनिवार्य गुण है। सवाल यह नहीं है कि नगर में संत आए तो जाना चाहिए या नहीं, प्रश्न तो यह है कि संत अगर हमारे घर की दहलीज पर आकर खड़े हो जाते हैं तो भी हाथ जोड़ने को तैयार नहीं हो पाते। यदि कोई गंगा-स्नान करने को जाना चाहता है तो अच्छी बात है लेकिन जो
१७० Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org