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________________ आदमी हरिद्वार में ही रहता है लेकिन गंगा-स्नान के लिए नहीं जाता उसके लिए क्या कहा जाए । संत, मंदिर, ग्रंथ कुछ भी क्यों न हो अगर हम वहाँ जाते हैं, उसके प्रति आदर भाव है तो ज़रूर जाना चाहिए। ___मैं तो देखा करता हूँ कि अगर दूसरी परम्परा का संत आए और मैं हाथ जोड़कर अभिवादन करूँ, अगर वह विनम्र व्यक्ति होगा, उसके भीतर इन्सानियत होगी तो ज़रूर हाथ जोड़ेगा, नहीं तो केवल हालचाल पूछ लेगा, अभिवादन नहीं करेगा। तब लगता है कि ये लोग साधुता का, समकित का यह अर्थ क्यों लगाते हैं कि उनकी परम्परा के संतों का आदर करना, उन्हें गुरु मानना ही सम्यक्त्व है। यह साधुता और सम्यक्त्व बहुत संकीर्ण हो गया। सम्यक्त्व का तो अर्थ ही यह है कि सारे भेद गिर गए और अब वह सबका सम्मान कर रहा है। मैंने एक मुस्लिम फ़क़ीर की कहानी पढ़ी है जिसका नाम मोहम्मद अल्तवी था। एक दफा वे किसी नगर में पहुँचे। वहाँ के मौलवियों ने उनसे पूछा कि आपने तो बहुत भ्रमण किया है, जगह-जगह गए हैं, आपको सबसे महान संत कहाँ दिखाई दिए । कहने लगे कि घूमा तो बहुत हूँ लेकिन जब कुंभ के मेले में गया तो वहाँ मुझे कई महान संतों के दर्शन हुए। मौलवियों ने कहा - आप मुसलमान होकर कुंभ मेले की तारीफ़ कर रहे हैं ? हिंदू संतों की तारीफ़ कर रहे हैं ? तब मोहम्मद अल्तवी ने कहा - एक बात बताएँ, ज़मीन पर खड़े होकर पेड़ देखेंगे तो अलग-अलग किस्म के दिखाई देंगे लेकिन हवाई जहाज या हेलीकॉप्टर में उड़कर जमीन पर लगे पेड़ों को देखना चाहोगे तो क्या कोई भेद दिखाई देगा ? मौलवियों ने कहा - नहीं दिखाई देगा, ऊपर से तो सिर्फ हरे-हरे पेड़ ही दिखाई देंगे। तब अल्तवी ने कहा - भाई जो संत ज़मीन से थोड़ा ऊपर उठ चुका है और आकाश में रहने वाले खुदा से मोहब्बत करता है उसे ज़मीन पर रहने वाले संतों में कोई हिंदू, कोई मुसलमान का भेद दिखाई नहीं देता। उसे तो जहाँ अच्छाई दिखती है, वहाँ उसका सम्मान करता है। सार-सार को गहि रहे, थोथा देइ उड़ाय - काम की बातों से मतलब रखें। अपनी ओर से जितनी संतों की सेवा बन पाए ज़रूर करें । यह तो नहीं कह सकते कि उनके लिए कुर्बान हो ही जाएँ पर जितनी संभव हो उतनी मोहासक्तियाँ कम करें और अपनी ओर से हर परम्परा के संत का सम्मान करने का भाव रखें। Jain Education International For Personal & Private Use Only १७१ www.jainelibrary.org
SR No.003880
Book TitleMahavir Aapki aur Aajki Har Samasya ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages342
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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