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लेने से क्या वह जपैया हो जाता है ? भीतर में लगन चाहिए, आत्म-भाव, अन्तरात्मा का भाव, अन्तर में प्रगाढ़ होना चाहिए । श्रमण, संत, संन्यासी वह होता है जो सचेतनता से जीता है।
श्रमण का पहला धर्म ही है जागरूकता । सचेतनतापूर्वक, जागरूकता से, अवेयरनेस के साथ वह अपने जीवन को सम्पादित करे । संत सोने के लिए नहीं बनता। नींद लेना या सोना शरीर की व्यवस्था हो सकती है, पर संत सोने के लिए संन्यास में नहीं आया है। संत का सुस्ती से कैसा सम्बन्ध ! संत अप्रमत्त होता है। भोजन शरीर की आवश्यकता हो सकती है, पर वह खाना खाने के लिए संत नहीं बना । सचेतनतापूर्वक अपने कार्यों का सम्पादन करना संत का पहला दायित्व है। वह पानी भी पिएगा तो छानकर, बोलेगा तो विवेकपूर्वक
और सोचेगा तो सकारात्मक । कहीं ऐसा न हो जाए कि हमारा चोला तो संत का हो जाए, पर भीतर का खोला मैला और गंदला रह जाए । इसीलिए महावीर दो शब्दों का प्रयोग करते हैं - समिति और गुप्ति । विवेकपूर्वक, यतनापूर्वक, जतन से चलो, जतन से बैठो, जतन से खाओ, जतन से बोलो, जतन से ही मल-मूत्र का विसर्जन करो, जतन से ही किसी भी वस्तु को उठाओ और रखो - यह संत-जीवन का लाइफ मैनेजमेंट है। लापरवाही संत जीवन के साथ शोभा नहीं देती। लापरवाही का ही दूसरा नाम प्रमाद है और प्रमाद संन्यास का शत्रु है।
महावीर अपने संतों से यही अपेक्षा रखते हैं कि अपने कार्य को सम्पादित करते समय पूर्ण होश और बोध रखो। संत-जीवन को जीने का दूसरा चरण यह है कि संसार में रहते हुए समत्वभाव को, समता को अधिक से अधिक स्वीकार करने की जागरूकता रखें। प्रयत्न करें क्योंकि संत समत्वशील होता है। हानि
और लाभ दोनों तरह की संभावनाएँ हैं, मान और अपमान की संभावना तो निश्चित ही है, संयोग और वियोग भी मिलेंगे लेकिन संत को ऊँच-नीच का भेद नहीं करना चाहिए, जात-पाँत से भी ऊपर उठना चाहिए। उसे तो समदर्शी, समत्वशील दृष्टि वाला होना चाहिए । कबीर ने कहा है -
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार को, पड़ी रहन दो म्यान ।। तलवार का मूल्य करो, म्यान सुंदर है कि असुंदर इसका मोल मत करो,
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