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हमारे देश में एक सुन्दर परम्परा है कि दीपावली के पूर्व घरों में साफ-सफाई होती है, यह अच्छी परम्परा है। और यह परिग्रह को हटाने का, अपरिग्रह व्रत को जीने का सीधा-सरल तरीका है कि साल में एक बार सफाई की जाए और घर में जितनी भी अनावश्यक वस्तुएँ हैं उन्हें निकाल दिया जाए । यह परिग्रह को सीमित करने का आसान-सा नुस्खा है। घर का अटाला कम करने से घर की दरिद्रता दूर होती है। साफ-सुथरे घर से वास्तु-दोष भी दूर रहता है। इससे वास्तु की पवित्रता होती है। पवित्र घर एक मंदिर है। आज के भौतिक युग में परिग्रह बहुत बढ़ गया है लेकिन आवश्यकतानुसार ही परिग्रह उपयोगी होता है, शेष तो सब दिखावा है। परिग्रह इन्सान की आवश्यकता भी है, समृद्धि उसकी जरूरत भी है, लेकिन हमें इस पर एक अंकुश ज़रूर रखना चाहिए। संतोषी सदा सुखी ! कितना कमाएँ, कितना इकट्ठा करें, कितना खाएँ - इसकी कोई सीमा तो है नहीं, ये सब चीजें अनलिमिटेड हैं। अंततः व्यक्ति को भोग-परिभोग पर एक अंकुश लगाना होगा।
हमारी परिग्रह-बुद्धि के चलते ही झूठ-चोरी-रिश्वतखोरी में इजाफा हुआ है। अभी हाल ही मेडिकल लाइन से जुड़े एक व्यक्ति के घर पर १८०० करोड़ रुपये नगद और डेढ़ टन सोने के आभूषण उपलब्ध हुए। अब कोई उस बेवकूफ से पूछे कि भाई माल तो तूने इतना इकट्ठा कर लिया, पर उम्र को तू घटा-बढ़ा सकता है क्या ? जब सभी यहीं छोड़ जाना है, साथ में एक मुट्ठी
आटा और नीम की छाया भी नहीं ले जा सकता, फिर किसके लिए इतने झूठसाँच कर रहा है ? अम्बानी बंधुओं के पास इतना अनाप-शनाप पैसा है फिर वे शांति से क्यों नहीं जीते। भाई-भाई आपस में क्यों थूक-फ़ज़ीती करते हैं।
महावीर कहते हैं अपनी परिग्रह-बुद्धि पर नियंत्रण लाओ और जीवन में इज़्ज़त के साथ ज़रूरतें पूरी हो सकें, बस, इतना ही परिग्रह बटोरो । कहीं ऐसा न हो जाए कि हम परिग्रह को इतना बढ़ाते रहें कि महावीर के अपरिग्रह सिद्धान्त का ही चीर-हरण हो जाए । महावीर ने बड़ी पराकाष्ठा से अपरिग्रह को जिया, गांधी ने अपरिग्रह को फिर चरितार्थ किया । अब फिर से गांधी की ज़रूरत आ पड़ी है, जो गरीबों की, ज़रूरतमंदों की पीड़ा को समझे और देश के चरित्र को अपरिग्रह का चरित्र बनाए।
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