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________________ साथ पुरुषार्थ करो। अप्रमत्तता का मार्ग हमें परम सत्य की ओर ले जाता है, कैवल्य और परम मुक्ति और निर्वाण की ओर ले जाता है। इस अप्रमाद दशा के आने पर ही हम अपूर्वकरण' गुणस्थान की ओर बढ़ पाते हैं। इसे ऐसे समझें - कहते हैं कि भगवान के पास बैठे हुए कुछ शिष्य अपने काष्ठ-पात्र पर रंग-रोगन लगा रहे थे। अलग-अलग तरह के बेल-बूटे बना रहे थे, आपस में बातें भी कर रहे थे। कोई कह रहा था - मैं अमुक गाँव गया था वहाँ का रास्ता बहुत सुंदर है, किसी ने कहा - उस गाँव के दाता बहुत सुन्दर हैं। किसी ने कहा - अमुक गाँव तो इतना गंदा है कि दुर्गंध ही दुर्गंध आती है। कोई बोला - मैं अमुक गाँव गया वहाँ के रास्ते बहुत कंकरीले और पथरीले हैं, कोई कह रहा था - उस गाँव में भूलकर भी न जाना वहाँ कोई रोटी भी नहीं देता है। एक बोला - अमुक गाँव के लोग भी बहुत अच्छे हैं, रास्ता भी अत्यधिक सुंदर है, वहाँ के लोग संतजनों का मान-सम्मान भी करते हैं। तुम लोग उस गाँव में पहुँच जाना। इस तरह अलग-अलग प्रकार की बातचीत में सब मशगूल थे। भगवान दूर बैठे हुए उन लोगों की बातें सुन रहे थे। सुनते हुए भगवान मुस्कुराए और इतना ही कहा - भाइयो, तुम किस गाँव की, किस सुन्दरता की, किस यात्रा की बात कर रहे हो, किस पर रंग-रोगन कर रहे हो, जरा सोचो यहाँ क्या करने आए थे और क्या करने लग गए। तुम यहाँ स्वयं के कल्याण के लिए, मुक्ति के लिए, परम सत्य की प्राप्ति के लिए, परमार्थ भाव से तुम यहाँ पर आए थे और यह कौनसी पगडंडियों की पथरीली सड़कों की बातें करने लग गए। भगवान की वाणी इतनी प्रभावी हुई कि वे सोचने लग गए कि वास्तव में वे यहाँ किसलिए आए थे और क्या करने लग गए। तब उन्होंने फिर से अपनी अन्तर्यात्रा प्रारम्भ की, प्रायश्चित्त के आँसू झरने लगे। काष्ठ-पात्रों का रंग-रोगन धुल गया। उनकी आत्मा धुल गई। वे निर्मल हो गए। प्रमाद क्या था ? यही कि वे दुनिया के रस-रंग में उलझ गए और अप्रमाद यह था कि आत्मा जग गई और वे अपने कल्याण के लिए तत्पर हो गए। आलसी व्यक्ति दरिद्रता को ही जन्म देगा। इसीलिए यह बहुत बड़ी फिजूलखर्ची है कि व्यक्ति अगर सुस्त है, लापरवाह है तो वह अपने जीवन में कुछ न पा सकेगा। व्यक्ति अगर अपने जीवन का प्रबंधन करना चाहता है तो ३०६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003880
Book TitleMahavir Aapki aur Aajki Har Samasya ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages342
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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