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लक्ष्मी और दूसरे को ज़हर मिल रहा है । यह तो उनके कर्मों का भुगतान है जिसके कारण एक को अनुकूलताएँ और दूसरे को प्रतिकूलताएँ मिलती हैं। तभी तो एक ही माँ की कोख से जन्मे पाँच बेटों के भाग्य, विचार, जीवन-शैली और जीवन के परिणाम अलग-अलग होते हैं। आखिर कोई-न-कोई तो ऐसा कर्म है जिसके कारण विष्णु भगवान को बैकुंठ धाम में निवास करने के बावजूद दस-दस अवतार लेने पड़े। इतना ही नहीं, अवतार तो लिया ही, दुनिया के दुःखों का सामना भी करना पड़ा। क्या यह किसी भगवान का कर्म नहीं कहलाएगा कि किसी अवतार में उन्हें अपनी पत्नी सीता के लिए दर-दर भटकना पड़ता है तो दूसरे किसी जन्म में गोपियों से घिरे रहकर जीवन का आनन्द लेना पड़ता है। अलग-अलग रूप में अवतार लेकर अलग-अलग संकटों का सामना करना पड़े तो यह निश्चित ही अवतारों के, इन्सानों के, प्राणी मात्र के कर्मों का फल ही कहलाएगा । यहाँ तक कि त्रिकालदर्शी होने के बाद भी राम मायावी मृग को न पहचान पाए, स्वयं महालक्ष्मी का अवतार होते हुए भी सीता को रावण के चंगुल में जाकर फँसना पड़ा - ये कर्म ही हैं, जिसके चलते महादेव को हाथ में खोपड़ी लेकर भिक्षा माँगने को मज़बूर होना पड़ा।
जब कर्मों के फल भुगतने पड़ते हैं तब इन्सान यही कहता है कि उसने ऐसा कोई कर्म नहीं किया जिसका फल अस्पतालों में भोगना पड़ रहा है। यूँ तो हम प्रत्यक्ष वध नहीं करते हैं पर कड़वे वचन तो कह ही देते हैं, किसी का दिल दुखा ही देते हैं। हमें लगता है कि हमने कई तरह के पाप कर्म नहीं किए लेकिन पाप करने का पता नहीं चलता । कभी पाप काया के द्वारा, कभी वाणी से, तो कभी मन से पाप हो जाते हैं। अगर किसी के प्रति मन में भी बुरा सोचा तो पाप का अनुबंध हो जाएगा। और अगर मन में ही किसी के प्रति शुभ भावनाएँ की, कल्याण की कामना की, मंगल-मैत्री भाव रखा तो ऐसा करना भी पुण्योपार्जन का सबब बन जाएगा। महावीर का प्रसिद्ध वचन है कि जिस समय व्यक्ति जैसे भाव करता है उस समय वह वैसे ही शुभ या अशुभ कर्मों का बंध करता है। भावनाएँ व्यक्ति के कर्मों का आधार बनती हैं, क्रिया से भी ज़्यादा महत्त्वपूर्ण हमारे मन की भावनाएँ हैं। शुभ भाव - पुण्य हैं, अशुभ भाव - पाप हैं। व्यक्ति शादी तो एक ही से करता है पर मन में कई दफा कइयों से प्रेम कर लेता है।
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