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है। राजा ने जल्लादों से कहा- ठहरो। और संत से कहा- मृत्यु के समय तुमने यह नाच-गाना क्यों शुरू कर दिया है। लोग तो रोते हैं और तू नाच रहा है। संत ने कहा- राजन्, तेरी मेहरबानी पर नाच रहा हूँ। इसलिए नाच रहा हूँ कि अभी तक एकमात्र यह शरीर ही तो ईश्वर से मिलने में, परमात्मा से मिलने में बाधक बना हुआ था। तेरी कृपा कि तू इस शरीर को ले रहा है। अब मेरा सीधा ईश्वर से मिलन
होगा।
- यह बात कौन कह सकता है, वही जो मृत्यु से निर्भय होते हैं। और जो मृत्यु के प्रति निर्भय होते हैं वे ही अपने शरीर के प्रति अनासक्त हो सकते हैं। वरना शरीर नश्वर है यह बात तो हम सभी जानते हैं। इसके बाद भी हम शरीर से चिपके रहते हैं। इस शरीर का पोषण करते हैं, भोग करते हैं, श्रृंगार करते हैं। हमारा जीवन शरीर तक ही सीमित रह जाता है। जो जीवन के और मृत्यु के मर्म को समझ जाते हैं वे मृत्यु से कभी घबराते नहीं हैं। जीवन को जानने वाले मृत्यु से डरते नहीं हैं। वे मृत्यु का स्वागत करते हैं। __मैं कोई मरने का समर्थन नहीं कर रहा बल्कि कह रहा हूँ कि मृत्यु से घबराएँ नहीं क्योंकि मृत्यु अवश्यंभावी है, मृत्यु जीवन का उपसंहार है। जो जीवन के मर्म को ठीक से समझ नहीं पाते हैं वे ही किसी की मृत्यु हो जाने पर अश्रु बहाते हैं। हम शाम को स्वादिष्ट भोजन करते हैं लेकिन दूसरे दिन मल विसर्जन करते हुए क्या रोते हैं कि हाय, कितना सुस्वादु था भोजन, उसकी यह दशा? लेकिन हम नहीं रोते हैं क्योंकि यह तो प्रकृति की व्यवस्था है, सहज ले लेते हैं। खाते समय आनन्द ज़रूर लेते हैं, पर जाते समय कोई अफ़सोस नहीं करता। जिसने जीवन की, प्रकृति की व्यवस्थाओं को समझ लिया है वह किसी के जन्म लेने पर थालियाँ नहीं बजाता और किसी के मर जाने पर आँसू नहीं ढुलकाता। सम्मान मिलने पर अहंकार ग्रस्त नहीं होता और आलोचनाओं से खिन्न नहीं होता। Everything remains normal for him. हर स्थिति में सहजता, अनासक्ति की भावना। मृत्यु के बारे में चिंतन करने से यही परिणाम मिलता है कि व्यक्ति किसी की मोह-ममता में अंधा नहीं होता। वह समझता है कि हम सब अज्ञात लोक से आते हैं और वापस अज्ञात लोक की ओर लौट जाएँगे।
बहुत समय पहले मैंने एक कहानी पढ़ी थी जिसने मुझे जन्म और मृत्यु के
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