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सकता, जीवन का आनन्द नहीं लिया जा सकता। कोई भी क्यों न हो महावीर या ऋषि-मुनि, सबका एक ही संदेश है कि आनन्द से जियो | आनन्द से जीने के लिए सब रंगों का आनन्द लिया जाना चाहिए। तभी तो जीवन का एक हिस्सा ज्ञानार्जन के लिए, दूसरा हिस्सा गृहस्थाश्रम के लिए । यद्यपि संत लोग यही प्रेरणा देते हैं कि व्यक्ति जीवन भर ब्रह्मचर्य का निर्वाह करे लेकिन यह प्रकृति के अनुरूप नहीं है। प्रकृति के अनुरूप यही है कि व्यक्ति गृहस्थाश्रम का भी निर्माण करे। क्योंकि हर व्यक्ति के लिए संत बनना आसान नहीं होता। इसलिए जीवन का एक हिस्सा गृहस्थाश्रम के लिए समर्पित हो ताकि व्यक्ति जीवन का एक और रंग, एक और स्वाद भी ले सके। तीसरा हिस्सा तो हम जीते ही नहीं हैं उसमें भी गृहस्थाश्रम को प्रविष्ट करा देते हैं ।
आज के युग में तो गृहस्थाश्रम की पवित्रताएँ और मर्यादाएँ, शील रहे नहीं हैं। सेक्स को बहुत अधिक बढ़ावा दिया जा रहा है। यौन-शिक्षा के प्रचार-प्रसार ने सारी वर्जनाएँ समाप्त कर दी हैं । गृहस्थ आश्रम के नाम पर भोग ही शेष रहा है । पत्नी भी भोग्या बन गई है इसीलिए पत्नी के लिए पति पति नहीं रहा है। उसने भी पति की कमजोरियों को समझ लिया है और उसे भोग्य बनाकर अपनी सारी ज़रूरतों को पूरा करने का ज़रिया और माध्यम समझ लिया है। दोनों एक-दूसरे को निचोड़ने में लगे हैं। जिसने भी चार आश्रमों की व्यवस्था के अनुसार अपने जीवन को लय दी है, मेरे अनुसार यह उसके जीवन का आध्यात्मिक प्रबंधन है । पर हम जीवन चार हिस्सों में बाँटने के बजाय अल्पवय में ही गृहस्थाश्रम प्रवेश करने की शुरुआत कर देते हैं । सामाजिक मर्यादा न हो तो नब्बे वर्ष का व्यक्ति भी गृहस्थाश्रम की कल्पना संजोता रहेगा । वेदों की चार आश्रम की ख़ूबसूरत व्यवस्था को हमें अपने जीवन के साथ जोड़ना ही चाहिए। पचास वर्ष की आयु तक तो गृहस्थ रहूँगा, धनोपार्जन करूँगा लेकिन इसके बाद वानप्रस्थ के लिए पूर्णरूपेण समर्पित हो जाएँगे । या तो व्यक्ति जीवन भर धर्म और मोक्ष का पुरुषार्थ करे लेकिन ऐसा न कर पाए तो ढलती उम्र में तो मोक्ष का पुरुषार्थ अवश्य कर ले। प्रबल व भव्य पराक्रम होना चाहिए । केवल मृत्यु - शैय्या पर भगवान का नाम ले लेने से काम नहीं चलने वाला ।
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