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पूरे जीवन के साथ हमें धर्म की खुशबू को, मुक्ति के प्रकाश को, अनासक्ति के योग को जीना होगा। सरकार भी साठ वर्ष की आयु में रिटायर कर देती है फिर हम क्यों संसार से बँधे रहते हैं। हमें भी तो प्रभु के लिए, मुक्ति के लिए लग जाना चाहिए। उम्र जो ढल रही है, मृत्यु की ओर जा रही ज़िंदगी को प्रभु के लिए सार्थक कर लेना चाहिए । प्रभु की डोर थाम लेनी चाहिए । देखा तो यह जाता है कि व्यक्ति अंतिम क्षण तक केवल धन का..धन का अर्जन करता रहता है। वह धर्म का अर्जन नहीं करता। जिनके पास जीवन चलाने के लिए
अन्न की व्यवस्था नहीं है वे धनोपार्जन करें तो ठीक भी है लेकिन जो सम्पन्न हैं, जिनके जीवन जीने की व्यवस्था है वे बुढ़ापे में अर्जन छोड़ें और अन्तरात्मा के सर्जन का प्रयत्न शुरू करें। धन का अर्जन करना तो दुनिया में जीना है और धर्म का अर्जन करना अन्तरात्मा में जीना है। जो दुनिया में जिया वह क्या जिया, जो अन्तरात्मा में जिया वही वास्तव में जिया। धन ज़रूरी है इसलिए दुनिया को भी जी लो, दुनिया के सब रंगों का आनन्द ले लो। पर कहीं ऐसा न हो कि केवल बाहर के रंग का आनन्द लेते रहें और भीतर का रंग हम छ भी न पाएँ।
अन्तरात्मा को जिया जाना चाहिए । हम केवल पृथ्वी तक को ही न जीते रहें। यह आहार, मैथुन, देह-पोषण, देह-शृंगार पृथ्वी को जीना हुआ। हम इसी में उलझ कर न रह जाएँ वरन् अपनी जड़ों को, शाखाओं को आकाश तक भी फैलने दें। अन्तआत्मा के आकाश तक फैलने दें। ऐसा करने के लिए महावीर हमारे मार्गदर्शक बन रहे हैं, वे हमारे लिए मील के पत्थर का काम कर रहे हैं। वे दीपशिखा बनकर हमें मुक्ति का स्वाद चखाना चाहते हैं। वे चाहते हैं दुनियादारी से ऊपर उठकर अपनी तरफ आओ। दुनियादारी में ही पड़े रहे तो कभी पत्नी पति को खींचेगी या पति पत्नी को खींचेगा, कभी बच्चे तुम्हारे व्यामोह में रहेंगे तो कभी तुम बच्चों के व्यामोह में रहोगे - इस तरह कहीं-नकहीं उलझे हुए ही रह जाओगे।
ऐसा हुआ कि एक व्यक्ति जिस कुटिया में रह रहा था वहाँ का छप्पर ठीक कर रहा था। तभी नीचे एक भिखारी आया और उसने आवाज़ लगाई - ओ साहब, ओ साहब ज़रा नीचे तो आइए। उसने कहा - भाई, अभी मैं छप्पर ठीक कर रहा हूँ, नीचे नहीं आ सकता। भिखारी ने कहा - बहुत ज़रूरी काम है, नीचे
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