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________________ जीते-जी जीवन का बोध नहीं हो पाता उस व्यक्ति को मृत्यु जीवन का और सत्य का बोध करा देती है। जिसे जीते-जी भगवान का अहसास हो जाता है वह जीवन भर परमात्मा का आनन्द लेता है। लेकिन जो मृत्यु की पदचाप सुनकर ईश्वर के प्रति अनुराग पैदा करता है वह भी मुक्ति की ओर चार कदम तो बढ़ा ही लेता है। 'मैं मृत्यु की नहीं जीवन की बात कर रहा हूँ इसलिए जीते-जी ही मृत्यु का आस्वाद लेने का आग्रह और अनुरोध भी कर रहा हूँ कि व्यक्ति जीते-जी मृत्यु का आनन्द ले, जीते-जी मुक्ति का कमल बन जाए । परिवार, पत्नी, बच्चे हों तब भी अगर हम चाहें तो अपनी अन्तरात्मा में उतरकर, उसे जीकर मुक्ति के करीब पहुँच सकते हैं। जो दुनियां में जिया वह क्या जिया। जो अन्तरात्मा में जिया उसी का जीना सार्थक हुआ। जो दुनिया में जिया वह मिट्टी का दीप बनकर रह गया लेकिन जो अन्तरात्मा में जिया वह स्वयं ज्योतिर्मय हो गया। हमारी जड़ें मिट्टी में हैं या ज्योति में ? यह हमें ढूँढ़ना होगा । हम कौन हैं यह तो बाद में ढूँढेंगे, मैं कौन हूँ यह भी बाद में जानेंगे, उससे पहले हम यह ढूंढेंगे कि हमारी चेतना कहाँ है, किसमें उलझी हुई है। किस राग-द्वेष में, किस अनुराग में, किस वैमनस्य में फंसी हुई है। हम लेश्याओं के घेरे में घिरे हुए हैं या हमारे लिए कहीं मुक्ति का स्वर भी है। हमें अपनी जड़ों को ढूँढ़ना होगा । कहीं ऐसा तो नहीं कि हम अपने मन के विकारों से, उसकी वासना की जड़ों से जकड़े हुए हों। भले ही बातें मुक्ति की कर रहे हों, नाम मुक्ति का ले रहे हों लेकिन अपने मन की तमस भरी जड़ों से उलझे हुए हों। होता ऐसा ही है कि हम प्रार्थना तो योग की करते हैं लेकिन भावना और कामना भोग की भाते रहते हैं। योग और भोग के विरोधाभास की जड़ों को हिलाना होगा और उस दृष्टि को उपलब्ध करना होगा जो हंसदृष्टि बनकर सत्य और असत्य का भेद बता सके, करणीय और अकरणीय में अन्तर बता सके । क्या अनुराग-योग्य है और क्या त्याज्य है इसका फ़र्क कर सकें। वेदों की चार आश्रम - व्यवस्था में व्यक्ति जीवन के हर रंग को जी सकता है। एकरंगी न हो जाएं क्योंकि एकरंग से जीवन को रंगीन नहीं बनाया जा २६४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003880
Book TitleMahavir Aapki aur Aajki Har Samasya ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages342
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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