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दुनिया में संसार का सार धर्म है, धर्म का सार ज्ञान है, ज्ञान का सार संयम है और संयम का परिणाम मुक्ति है। अतः कोई व्यक्ति व्रत कर रहा है तो वह विरत हो रहा है, अलग हो रहा है और मुक्ति की ओर एक कदम बढ़ा रहा है। काया के संयम का अनुसरण कैसे किया जाए ? तो ज्ञानी भगवंत कहते हैं कि अगर भोजन कर रहे हो तो भोजन में यह विवेक रखें कि आपको कितना और क्या खाना है। एक सज्जन ने मुझे बताया कि उनकी शादी में अस्सी आइटम खाने-पीने के बने थे। मैंने पूछा - आपने इतने आइटम बनवाए थे तो खाने वाला कितना खाएगा ? उसने तुरंत कहा - मैंने कब कहा कि सारे आइटम खाए जाएँ। मैंने तो इसलिए इतने प्रकार के व्यंजन बनवाए कि जिसे जो पसंद हो वह अपनी रुचि के अनुसार चुन ले।
यह तो स्वभाव है कि खाने वाला कोई भी चीज छोड़ता नहीं है हर चीज़ को खाना चाहता है। अगर कहीं विविध प्रकार के पकवान हैं तो हमें अपनी पसंद के ही खाने चाहिए। अधिक खाना भी असंयम ही तो है।
दैहिक भोगों में भी संयम हो, इसका अर्थ यह नहीं है कि सभी संन्यास लेकर संत बन जाएँ । सरलता से भी संयम को जिया जा सकता है। छोटे-छोटे त्याग करके भी संयमित जीवन जी सकते हैं। माना कि भोजन में चार प्रकार की सब्जियाँ, तीन प्रकार के चावल, खिचड़ी, कढ़ी, दाल, पापड़, अचार, सलाद आदि हैं। आप क्या करें कि जो चीज आपको बहुत पसंद है, वे दो या एक आइटम हटा दें और शेष का प्रेम से भोजन कर लें। यह हो गया आपका आहार-संयम । ऐसा भी कर सकते हैं कि सप्ताह में दो दिन भोजन एक ही समय करेंगे या कि भोजन करने के बाद पानी के अलावा चार घंटे तक कुछ भी ग्रहण नहीं करेंगे। इसका अगर सख़्ती से पालन किया जाए तो यह भी देह- संयम हो जाएगा। अच्छे, सुस्वादु खाने को देखकर यह जीभ जो मचलती है उस पर नियंत्रण हो जाएगा। खाते-पीते भी हम संयमी हो जाएंगे। इसी तरह आँखों का संयम है। किसी रूपवान को देखकर अगर मन विचलित हो जाए, विचार दूषित हो जाएँ तो तुरंत इस पर लगाम लगाएँ। आँखों से, मन से कहें कि नहीं, ऐसा न सोचो, ये दूषित विचार मेरे लिए ठीक नहीं हैं। मन को वहाँ पलटा लें और नए काम में लग जाएँ।
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