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प्रकृति तो परिवर्तनशील है। यहाँ तो हर क्षण, हर पल बदल रहा है। मौसम बदल रहे हैं, ऋतुएँ बदलती हैं, दिन-रात, घड़ियाँ बदलती हैं, तो निमित्त
और परिस्थितियाँ भी निश्चित रूप से बदलने वाले हैं। इस बदलाव में हमारे चित्त पर जो दुष्प्रभाव आते हैं, ये हमारे जीवन पर हावी न हो जाएँ, इसी के लिए मन का संयम है। __मैंने सुना है : एक संत हुए उस्मान हैरी । कहते हैं कि संत उस्मान रास्ते से जा रहे थे कि किसी विरोधी द्वारा उन पर छत से राख गिरा दी गई। वे ऊपर आसमान की ओर देखते हैं और केवल इतना ही कहते हैं - शुक्र है खुदा तेरा। और राख झाड़कर आगे बढ़ जाते हैं। उनके साथ चलने वाले व्यक्ति पर भी कुछ राख आ गिरी थी । वह गुस्से में भर गया लेकिन जब संत ने कुछ न कहा तो वह भी कुछ कहने की हिम्मत न जुटा सका कि राख फेंकने वाले को गाली दे सके। कुछ दूर आगे जाने के बाद उसने संत उस्मान से पूछा - गुरुजी ! एक बात बताइये । माना कि आप संत हैं और आपने गुस्सा नहीं किया, लेकिन यह समझ में न आया कि आपने आसमान की ओर नज़र उठाकर खुदा का शुकराना क्यों अदा किया ? इसका क्या मतलब है ? संत उस्मान मुस्कुराए और कहा - इसका मतलब साफ़ है कि उसने मुझ पर राख ही गिराई वरना मेरे जीवन में तो इतने दुर्गुण हैं कि खुदा मुझे आग में भी जलाता तो वह भी कम ही कहलाता ।
यह हुआ मन का संयम कि विपरीत निमित्त आए, विपरीत अवसर आया, विपरीत वातावरण बना तब भी मन को, मन के विचारों को सकारात्मक बनाए रखा। परिणामतः क्रोध उत्पन्न न हुआ । हाँ, अगर क्रोध आ जाता तो वह होता असंयम । खुद पर नियंत्रण रखना ही संयम है।
दूसरा है : वाणी पर संयम । वाणी पर संयम रखकर हम हमेशा मिठास भरी वाणी का उपयोग करें। मधुर, संयमित, मर्यादित भाषा का प्रयोग करें। इसके उपरांत भी अगर विपरीत निमित्तों के चलते असंयमित भाषा निकलने लगे, दूषित भाषा बोलने लगें, असंयमित हो जाएँ, अविवेकपूर्ण भाषा का प्रयोग कर लें तब जैसे ही इसका अहसास हो कि हम गलत बोल रहे हैं ऐसा नहीं बोलना चाहिए, उस समय अगला शब्द सोच-समझकर बोलना ही वाणी का संयम है। यह वचनों पर लगाया गया अंकुश वचन-संयम है। अपशब्द तो हर भाषा में होते
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