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गृहस्थ भी अपने लिए जीता है और एक संत अथवा साधक भी अपने लिए जीता है। उसे दुनिया से कोई प्रयोजन नहीं होता, लेकिन फ़र्क है। व्यक्तिगत चेतना तो दोनों की है पर फ़र्क यह है कि परिवार के स्वार्थ में रहकर कोई भी कार्य करना व्यक्ति की चेतना का अधःपतन कहलाएगा और गुफावास स्वीकार करके स्वयं के जीवन के लिए संसार से मोहमाया छोड़ देना ऊपर उठभा कहलाएगा। दोनों के कार्य व्यक्तिगत स्तर पर हो रहे हैं, पर एक में व्यक्ति नीचे गिरता है दूसरे में ऊपर उठता है।
हर व्यक्ति आध्यात्मिक चेतना का स्वामी बने, आध्यात्मिक सौन्दर्य से दीप्त हो, उसका आभामंडल आध्यात्मिक हो, यह ज़रूरी है, पर हर व्यक्ति जो स्वार्थों में रत है उसकी चेतना में कहीं भी अध्यात्म की हवा, अध्यात्म की आभा देखने को नहीं मिल सकती। महावीर चाहते हैं कि व्यक्ति भले ही पत्नी और बच्चों के साथ रहता हो, पर उसकी आध्यात्मिक चेतना का निर्माण हो । उसका आध्यात्मिक सौन्दर्य बढ़ सके, आध्यात्मिक आभामंडल निर्मित हो सके, उसकी सामाजिक चेतना बेहतर बन सके, इसके लिए ज़रूरी है कि जिस समाज के मध्य वह रहता है वहाँ वह कुछ सामाजिक नियमों को, सामाजिक मूल्यों को अपने जीवन में स्वीकार करे। ऐसा करने के लिए उन्होंने खास संदेश दिया है - व्रत।
व्रत का अर्थ है विरत होना, अलग होना। किनसे अलग होना ? गलत कार्यों से, अंधविश्वासों से, बुराइयों से स्वयं को अलग करने का नाम व्रत है। सामान्यतः हम व्रत का अर्थ भूखे रहने से लगा लेते हैं कि आज संतोषी माता का व्रत है, कि आज एकादशी है, कि आज शिवजी या महावीर जी का व्रत है। व्रत यानी कि आज एक समय ही खाना खाएँगे और दिन में दूध, चाय और फल आदि ग्रहण कर लेंगे। यह तो आहार का व्रत हआ। महावीर ऐसे व्यक्ति हैं जो आहार को ही केवल व्रत के रूप में नहीं ढालते वरन् इन्सान के आचरण, वाणी, व्यवहार अर्थात् उसके पूरे जीवन को ही व्रत की परिधि में लेना चाहते हैं। ___महावीर ने - अहिंसा, सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य - ये पाँच व्रत दिए। देखा जाए तो ये व्रत मानवजाति के लिए पंचामृत हैं। व्यक्ति अगर शांतिमूलक, स्नेहपूर्ण, स्वयं के द्वारा दूसरों के प्रति, दूसरों के द्वारा स्वयं के प्रति सौम्य व्यवहार, कोमल और मृदु व्यवहार चाहता है तो उसे स्वयं भी ये पाँच व्रत
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