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________________ संन्यास भी हो। अगर केवल संन्यास ही है तो यह अति उत्तम है, सर्वश्रेष्ठ है, पर केवल संसार ही है तो विचारणीय है। संसार में संन्यास हो तो चलेगा, पर संन्यास में संसार हो तो कम चलेगा। व्यक्ति को ऊपर उठना चाहिए। जो गृहस्थ हैं उनके दो धर्म दान और पूजा हैं। दान देने का अर्थ है उसने अपने स्वार्थों का त्याग किया, अपनी परिग्रह-बुद्धि को कम किया, संसार के प्रति रहने वाली आसक्तियों को छोड़ने को तत्पर हुआ। इसके साथ ही ईश्वर की पूजा, उपासना उसे संसार से बाहर निकलने में मदद करेगी। संसार के साथ ही संन्यास का फूल उसके भीतर रहना चाहिए। संतों, संन्यासियों के सान्निध्य में सद्गृहस्थ लोग आते हैं, उनकी अमृतवाणी सुनकर उसे अपने जीवन में ढालने का प्रयत्न भी करते हैं। तब उनका जीवन उस आईने की तरह हो जाता है जो निर्लिप्त रहता है। कोई आए तो तस्वीर है, नहीं तो कोरा का कोरा। कुछ सद्गृहस्थ पताका के समान होते हैं। जैसे - पताका कभी टिकती नहीं है, घड़ी का पेंडुलम टिकता नहीं है, इस तरह जो डोलता रहता है वह महापुरुषों की वाणी का श्रवण तो करता है पर श्रद्धा नहीं कर पाता, अपने जीवन में ढाल नहीं पाता। वह संदेहशील, सशंकित आत्मा बना हुआ अस्थिरचित्त रहता है। वह मंसूबे तो बनाता है, पर क्रियान्वित नहीं कर पाता। ___ तीसरे प्रकार के सद्गृहस्थ ऐसे होते हैं जैसे काठ की मोटी लकड़ी। जिस तरह काठ पर किसी चीज़ का जल्दी असर नहीं हो पाता उसी तरह वे रोज-रोज पढ़-सुनकर भी चिकने घड़े बन जाते हैं। उनके भीतर कुछ नहीं उतर पाता केवल एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देते हैं। ऐसे लोग अपने साथ-साथ गुरुओं का, संतों-मुनियों का समय ख़राब करते हैं। अगर डॉक्टर की दवा नहीं लेनी है तो डॉक्टर के पास बार-बार जाने से क्या लाभ ? । चौथे प्रकार के सद्गृहस्थ को मैं काँटें की संज्ञा देता हूँ। क्योंकि उन्हें जो बात कह दी जाए तो वे काँटे की तरह अपने ऊपर लेते हैं और सीधे सिर चढ़ जाते हैं और हमारे लिए भी दर्द का कारण बन जाते हैं। संतों की बात को कैसे काटा जाए वे यही सोचते रहते हैं, न कि ग्रहण कैसे करें, इस पर विचार करते हैं। एक ग्राहक होता है दूसरा आक्रामक । ग्राहक ग्रहण करता है और आक्रामक झपटता है। जब संतों के पास जाएँ तो तार्किक नहीं ग्राहक बनकर जाएँ, सत्पात्र १६४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003880
Book TitleMahavir Aapki aur Aajki Har Samasya ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages342
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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