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________________ चाहिए। पहले चरण को ब्रह्मचर्य आश्रम कहा गया, दूसरा चरण है - गृहस्थ आश्रम, तीसरे को वानप्रस्थ और चौथे को संन्यास आश्रम कहा गया। हजारों में कोई विरला होता है जो पहले चरण में ही अंतिम चरण को जी लिया करते हैं। अर्थात् वे बचपन में ही संन्यास आश्रम को स्वीकार कर लेते हैं। लेकिन धर्म की व्यवस्था किसी एक के लिए नहीं, प्राणि मात्र के लिए होती है, आम इन्सान के लिए होती है। जब हम आम इन्सान की बात करते हैं तो पहला चरण ब्रह्मचर्य आश्रम का है अर्थात् मर्यादा और पवित्रतापूर्वक ज्ञानार्जन का है। दूसरा चरण गृहस्थ आश्रम का है अर्थात् व्यक्ति पढ़-लिखकर संसार में प्रवेश करे, आजीविका का प्रबंध करते हुए संसार का आनंद ले। मर्यादा और पवित्रतापूर्वक गृहस्थ-जीवन से जुड़े हुए समस्त कर्त्तव्य और कर्मों का पालन करते हुए जिए । गृहस्थ-जीवन जीना भी धर्म का ही एक अंग और चरण है। कोई यह न समझे कि जो व्यक्ति गृहस्थ-जीवन में प्रवेश कर रहा है वह किसी पाप-पथ का अनुगमन कर रहा है। यह भी जीवन का एक अनिवार्य चरण है। यह अवश्य है कि कुछ लोग गृहस्थ-जीवन में प्रवेश करने के बाद भी उसमें लिप्त नहीं होते और कमल की पंखुरियों की भांति जीवन जीने में सफल हो जाते हैं। शेष तो कीचड़ के कीड़े की तरह संसार के कीचड़ में धंसते चले जाते हैं। गृहस्थ-जीवन धर्म का एक अंग है, लेकिन सारे जीवन भर के लिए गृहस्थ ही बने रहना व्यक्ति के लिए डुबाने का काम करता है । तब जीवन की नौका वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम को पार नहीं कर पाती है। जो भी गृहस्थ-आश्रम में प्रविष्ट हो रहा है उसे यह लक्ष्य भी बनाना चाहिए कि वह संसार में रहते हुए भी उससे ऊपर उठे या संसार से अलग रहे। ज़रूरी नहीं है कि हर व्यक्ति घरबार छोड़कर ही निकल जाए। यूँ भी जिसने घरबार छोड़ दिया है वह भी रहता तो संसार में ही है। हाँ, वह अपने बनाए हुए मोह-माया के संसार में नहीं रहता। हम कहाँ हैं, किन लोगों के बीच में हैं, यह महत्त्वपूर्ण ज़रूर है लेकिन मुख्य यह है कि सब लोगों के बीच में रहते हुए भी कितने अनासक्त , निर्मोही, वीतमोह, वीतद्वेष या वीतराग होकर जी सकते हैं। मेरी दृष्टि में व्यक्ति के जीवन में संसार भी हो लेकिन केवल संसार ही न हो, Jain Education International For Personal & Private Use Only १६३ www.jainelibrary.org
SR No.003880
Book TitleMahavir Aapki aur Aajki Har Samasya ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages342
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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