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अपने आपको जानने से बड़ा व्रत क्या होगा? इससे बड़ी तपस्या क्या होगी? साधना क्या होगी? कि व्यक्ति स्वयं को जानने में लगा हुआ है। हमारा फ़र्ज़ है कि शरीर है तो हम शरीर को भी जानें, वाणी है तो वाणी के मर्म को भी समझें, मन है तो मन के तत्त्व को भी समझें। इसी को समझने के लिए ही तो हम ध्यान करते हैं कि हम धैर्यपूर्वक अपनी वाणी को समझें और इसे मौन रखें। धैर्यपूर्वक अपने चित्त के संस्कारों को समझें और उनकी निर्जरा करें। ध्यान का मतलब ही है धैर्यपूर्वक स्वयं को जानना। अधीरता और जल्दबाजी में कभी ध्यान नहीं होता। न ही स्वयं को जान सकता है। धैर्यपूर्वक ही वह अपनी अनुपश्यना और विपश्यना कर सकेगा। सही-सही सुंदर-सुंदर जानो। हर चीज़ को जानने का प्रयत्न मत करो। कचरे के बारे में ज्ञान अर्जित करके क्या कर लोगे? सही तत्त्व को जानने का प्रयत्न करो। शास्त्र कहते हैं
जेण तच्चं विबुझेज, जेण चित्तं णिरुज्झति।
जेण अत्ता विसुझेज्झ, तं नाणं जिण सासणे। भगवान कहते हैं सच्चा ज्ञान वही है जिससे तत्त्व का बोध होता है, जिससे चित्त का निरोध होता हो, जिससे आत्मा शुद्ध होती हो उसी का नाम ज्ञान है। सच्चा ज्ञान वही है जिससे हम आत्मा को निर्मल कर सकें, अपने चित्त की विकार-वासनाओं का निरोध कर सकें और जिसके द्वारा हम यह बोध कर सकें कि सत्य और असत्य क्या है, ग्राह्य और अग्राह्य क्या है, करणीय और अकरणीय क्या है। जो बताए कि क्या भोग्य और क्या त्याज्य है। हम लोग मुक्तिसूत्र में गुनगुनाते हैं
चिंतन करें मैं कौन हूँ, आया यहाँ किस लोक से।
क्या है यथार्थ स्वरूप मेरा, जान निज आलोक से।। श्रीमद् राजचन्द्र ने भी कहा है - हूं कौण छू क्या थी थयो, शुं स्वरूप छे म्हारो खरो, कोणा संबंधे वळगणुं छे, राखुं के हूं परिहरूं- मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, मैं यहाँ से कहाँ जाऊँगा, मेरा वास्तविक स्वरूप क्या है, मुझे किन संबंधों को बनाए रखना चाहिए और किन संबंधों का त्याग कर देना चाहिए - इन बातों का पुनः पुनः चिंतन करना ही राजचन्द्र की भाषा में आत्म-सिद्धि को उपलब्ध होने का मार्ग है।
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