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निराश हो जाते तो क्या वह राष्ट्रपति-पद तक पहुँच सकते थे? हर तक़दीर के पीछे तदबीर की कहानी होती है। कामयाबी और सफलता के पीछे कोशिश
और क़िस्मत दोनों जुड़ी रहती हैं। सफलता पाने के लिए तक़दीर, तदबीर और तकनीक तीनों को जोड़ना होता है। लेकिन अब तकनीक पहले, फिर तदबीर और तक़दीर, तब कहीं तरक्की मिलती है। तकनीक + तदबीर + तक़दीर = तरक्की।
जीतने का ज़ज़्बा हो तो इस मार्ग पर आएँ । बनिया बुद्धि से इस मार्ग को नहीं जिया जा सकता। बनिया बुद्धि से चलेंगे तो हम महावीर के मंदिर बना लेंगे, मूर्तियों की प्रतिष्ठाएँ करवा लेंगे, जीमणवारी करवा लेंगे, तब धर्म केवल ऊपर-ऊपर होता रहेगा। परिणाम शून्य रहेगा। मंदिर बन रहे हैं अच्छी बात है, मैं कोई मंदिरों का विरोधी नहीं हूँ लेकिन यह सब ऊपर-ऊपर है, गहराई तक इसका कोई असर नहीं आएगा । गहराई से असर तब होगा जब हम अपने कषायों को जीतेंगे, अपने अहम् भाव को जीतेंगे, तारीफ़ सुनने की तमन्ना से उपरत होंगे, अभिनन्दन-पत्र पाने की आकांक्षा से मुक्त होंगे तब शायद हम महावीर के क़रीब हो सकेंगे। अपनी प्रशंसा और फूलों के हार को खुद लेने के बजाय महावीर की तस्वीर या मूर्ति को समर्पित कर देंगे तो शायद महावीर के अधिक क़रीब होंगे।
मुझे आश्चर्य होता है कि लोग महावीर के नाम का चढ़ावा तो लेते हैं और माला महावीर को पहनाने की बजाय समाज से खुद पहन रहे हैं। ऐसे लगता है हम सारे लोग महावीर होने लग गए हैं । जो समर्पण महावीर के प्रति होना चाहिए वह समाज से खुद के लिए करवा रहे हैं। २५०० सालों में महावीर की पूजा बहुत हो गई। शायद पूजा करवाते-करवाते वे भी तृप्त हो गए होंगे। अब महावीर को पूजा की आवश्यकता नहीं है, वे चाहते हैं तुम खुद महावीर बनो। खुद के भीतर कुछ जीतने का ज़ज़्बा पैदा हो तो कह सकते हैं कि हम महावीर के क़रीब हए। नहीं तो महावीर हमसे बहुत दूर हैं। मैं सोचता हूँ या तो महावीर हमसे हजारों कोस पीछे छूट गए हैं या हम सब महावीर से हजारों कोस आगे आ गए हैं। अब न हम महावीर के साथ हैं और न महावीर हमारे साथ !
ऐसा लगता है हम हारे हुए जुआरी की तरह हैं, जीते हुए बाजीगर की तरह नहीं हैं। जीते हुए तेनसिंग-हिलेरी, एडीसन, अब्दुल कलाम, आज़ाद या
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