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________________ और मेरे ससुरजी जिस दिन आते हैं उस दिन से अपने पोते-पोती की सार-सँभाल में जुट जाते हैं और हमें निर्देश मिल जाता है कि उन दोनों को खिलाना, स्कूल पहुँचाना, घर में किराने का सामान, साग-सब्जी लाना उनकी जिम्मेदारी है। दस महीने तक हम ऑफिस और घर दोनों सँभालते रहे इसलिए वे कहते हैं - हम तो फ्री हैं, रिटायर्ड हैं, मंदिर, महाराज हैं नहीं यहाँ । इसलिए पोते-पोती के लाड़-दुलार में ही अपना समय बिताएँगे। बताइए महाराजजी, हमारे सास-ससुर देवी-देवता के समान हैं या नहीं। यह केवल इसलिए है कि व्यक्ति के भाव इतने अच्छे हैं कि वाणी और व्यवहार भी अच्छे हो ही जाएँगे। मन के भाव अगर दूषित होंगे तो कौन सासबहू एक-दूसरे से पानी माँगेंगे और कौन पानी लाकर देगा। सास माँगेगी तो बहू लाकर देगी यह पूरे देश की संस्कृति की व्यवस्था है लेकिन जहाँ बहू को बेटी ही समझा जाता है वहाँ सास कहती है - बेटा तू बैठ, पानी मैं लाकर देती हूँ। तुमने तो दिन भर काम किया हुआ है, बैठ जा बेटा, तेरे बच्चे को खाना मैं खिला देती हूँ। यह शुभ-भाव धारा ही धर्म है। मैं धर्म को बहुत सीधा और सरल समझता हूँ। क्योंकि इसके स्वरूप को अगर अख्तियार कर लिया जाए तो यह घरपरिवार को, व्यक्ति के जीवन को स्वर्ग बनाता है। मन अगर तनावमुक्त है, बेहतर, शानदार, शांत और आनन्दपूर्ण बन चुका है तो उस स्वर्ग की ख़्वाहिश किसे होगी जो मरने के बाद मिलता है। उनका स्वर्ग तो यहीं धरती पर होगा। हम ध्यान करते हुए यही भावना करते हैं कि - हम अपने देह-पिंड को पवित्र कर रहे हैं, मन को पवित्र कर रहे हैं, देह पिंड के विकारों को, मनोविकारों को शांतिमय बना रहे हैं। वर्तमान को जिसने स्वर्ग जाना, वर्तमान क्षण को जिसने स्वर्ग बनाया उसका भविष्य भी स्वर्गमय हुआ करता है। जब हम एक-दूसरे के प्रति शुभ-भाव रखते हैं तो कर्मों के अनुबंध भी वैसे ही होंगे । हमें भविष्य में वही मिलेगा जैसे आज हम बीज बोएँगे। ___ कहते हैं - एक बूढ़ी माताजी को तहखाने में छोड़ दिया गया। वहीं एक मिट्टी की थाली रख दी गई, उसी में उन्हें भोजन दे दिया जाता था। एक दिन Jain Education International For Personal & Private Use Only ११९ www.jainelibrary.org
SR No.003880
Book TitleMahavir Aapki aur Aajki Har Samasya ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages342
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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