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शृंगारित करना कौन-सा धर्म और कौन-सी अहिंसा हुई। वह धर्म कैसा धर्म जिसमें हिंसा का दोष लगता हो। जिसमें अहिंसा को नहीं जिया जा सके वह धर्म कैसे कहला सकता है। यह अहिंसा का अतिक्रमण और अमर्यादा है। सम्मान देने लेने के लिए फूलों की माला की बजाय मूर्ति, शास्त्र, शॉल, साहित्य आदि भेंट दिए जा सकते हैं। शादी-विवाह में भी फूलों के बुके भेंट दिए जाते हैं और दूसरे दिन फेंक दिए जाते हैं। इसकी बजाय भजन की सी.डी., प्रवचनों की सी.डी., पुस्तकों के सेट देंगे तो वह दीर्घकाल तक याद रखेगा। ऐसा सार्थक प्रयास किया जाए जिससे अहिंसा का सम्मान हो और हिंसा का दोष कम-से-कम लगे।
साम्प्रदायिक समन्वय बना रहे इसके लिए हम एक-दूसरे के प्रति टिप्पणियाँ न करें। भगवान महावीर ने इसीलिए तो अनेकान्त का सिद्धान्त दिया कि तुम्हारा उसूल भी ठीक हो सकता है और दूसरे का उसूल भी ठीक हो सकता है। हम अगर स्वयं को ही सही समझते हैं तो यहीं ग़लत हो जाते हैं। दूसरे की बात भी सुनें, उसके भी कुछ उसूल हैं। हमें एक-दूसरे के धर्मों का सम्मान करना चाहिए। हिन्दू को मस्जिद के सामने और मुसलमान को मंदिर के सामने अकड़कर नहीं, सिर झुकाकर चलना चाहिए क्योंकि दोनों ही स्थान इबादत के हैं। यही तो अहिंसा
और मोहब्बत है कि दोनों ही आदरणीय हैं। हमें एक-दूसरे की परम्परा का सम्मान करना चाहिए। तभी परस्पर प्रेम, सौहार्द और समन्वय स्थापित हो सकेगा।
जब तक हम अहिंसा का वातावरण नहीं बनाएँगे तो ख़तरा हमेशा बना रहेगा। इसलिए आज महावीर की, राम की, मोहम्मद साहब की, जीसस की अहिंसा की आवश्यकता है। मतलब न राम से है, न रहीम से, न ही महावीर से, न ही बुद्ध से है। मतलब केवल अहिंसा से है जिसके ऊपर दुनिया टिकी रह सकती है, सुरक्षित और एक-दूसरे के करीब रह सकती है।
ये वे बातें हैं जो हमारे लिए देश, दुनिया और समाज के लिए कल्याणकारी बन सकती हैं।
आप सभी को अमृत प्रेम।
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