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मैं लात मारता हूँ। फ़क़ीर थे वे तो, उनके जवाब का क्या, वे तो लाज़वाब होते हैं। सिकंदर ने कहा - तुम जानते हो तुम किसके सामने बोल रहे हो ? मैं वह हूँ जिसे चाहूँ वह जिए और न चाहूँ वह नहीं जी सकता । मैं चाहूँ तो अभी तुम्हें मौत के घाट उतार सकता हूँ। डायोज़नीज़ ने सिकंदर से कहा – तू मार सकता है या नहीं यह तो पता नहीं, लेकिन मैं इतना ज़रूर जानता हूँ कि एक दिन मुझे मरना
कहते हैं सिकंदर उसके जवाब से इतना प्रभावित हुआ कि उसने कहा - डायोज़नीज़ माँगो, जो तुम माँगोगे वह मैं तुम्हें दूँगा। डायोज़नीज़ ने कहा - देना ही चाहते हो तो, जरा सामने से हटो, बहुत सर्दी पड़ रही है, सूरज की खुली धूप आने दो।
सिकंदर उस संत से इतना प्रभावित हुआ कि उसने कहा - अगर मैं सिकंदर न होता तो मैं जीवन में डायोज़नीज़ होना पसंद करता । जिस आदमी के पास कुछ भी नहीं है फिर भी वह सम्राट बना हुआ है। तन पर कपड़े नहीं हैं फिर भी इतनी औलियाई ! इसी को कहते हैं संतत्व, साधुता । धन्यभाग हैं वे जिन्हें ऐसे संतों के दर्शन होते हैं, उनका आनन्द मिलता है।
तुलसीदास, मानतुंगसूरि भी महान संत हो गए हैं। मानतुंगसूरि को कालकोठरी में कैद कर लिया जाता है और कहा जाता है कि चमत्कार दिखाओ। अड़तालीस तालों के अंदर बंद व्यक्ति कहता है चमत्कार मैं नहीं, चमत्कार तो ऊपर वाला दिखाता है। मैं तो केवल उनका भक्त हूँ। तब वे एक महान स्तोत्र की रचना करते हैं - भक्तामर स्तोत्र । बहुत प्रसिद्ध स्तोत्र है। कहा जाता है कि वे एक-एक पद गाते हैं और ताले टूटते चले जाते हैं। और वे स्वतंत्र हो जाते हैं।
कहते हैं कि तुलसीदास को भी अकबर ने कैद कर लिया था, लालकिले में बंद कर दिया और कहा गया कि तुम इतना राम-नाम जपते हो, अब आज़ाद होकर दिखाओ। बताया जाता है कि तुलसीदास को बंद किये कुछ समय ही बीता होगा कि बंदरों ने ऐसा आक्रमण किया कि सैनिक लालकिले को छोड़-छोड़कर भागने लगे। अकबर तुलसीदास के पास गए और माफी माँगी। क्योंकि तुलसीदासजी हनुमान-भक्त थे। चमत्कार यह हुआ कि सारे बंदरों का हुजूम वहाँ चला आया। यह महान संतों की महान व्यवस्थाएँ हैं।
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