________________
विटामिन अपूर्ण ! कहीं-न-कहीं कोई मिलावट है। कोई व्यक्ति धर्मस्थल पर जाए और उसका प्रभाव प्रेक्टीकल लाइफ में न आ पाए तो उसका धर्मस्थान पर जाना अधूरा ही कहलाएगा कि जीवन में उसका कुछ प्रकाश न आ पाया। दीप जला और उसकी रोशनी में कुछ दिखाई न दिया तो दीप का जलना क्या हुआ । किसी बगीचे में गए और तुम्हें फूलों की खुशबू मिले पर उसका अहसास न हो पाया तो बगीचे में जाना क्या हुआ ?
काया
सब
प्रत्येक व्यक्ति के लिए सामायिक की मानसिकता तैयार हो जानी चाहिए कि अड़तालीस मिनिट अनिवार्य रूप से, अपनी घर-गृहस्थी के जंजालों से मुक्त होकर, जगत की आपाधापी से मुक्त होकर, आत्म-आराधना के लिए, मन की शांति के लिए, प्रभु भक्ति के लिए बैठेंगे और मन, वचन, से समत्व-भाव में स्थित होने का प्रयास करेंगे । विद्यार्थी के समान अभ्यास करेंगे । घर में किसी एकांत स्थान पर आसन लगाकर मन-वचन काया से सामायिक, ध्यान-साधना, आराधना करें । जहाँ शोर-शराबा हो, आवागमन अधिक हो उस स्थान पर साधना नहीं की जा सकती । तब असुविधा महसूस होगी, ध्यान खंडित होगा, उस ओर बार-बार ध्यान आकर्षित होगा । इसलिए एकांत का चयन करें। प्रभु तो सर्वव्यापक हैं । वे केवल मंदिर-मस्जिद में ही नहीं हैं, जगह हैं। वह निराकार, सिद्धस्वरूप अखिल विश्व में, चराचर जगत में व्याप्त हैं । इसलिए हम जहाँ रहेंगे, उसके साथ लय- योग साधेंगे, वह हमारे साथ होगा । ये मंदिर-मस्जिद तो पहली सीढ़ी है, अंतिम नहीं। अंतिम सीढ़ी तो यही है कि एकांत में बैठकर प्रभु से लय-ताल लगाई, लय- योग साधा, मन उनके साथ अ-मन हुआ । मन उनके साथ उन्मन हुआ, मन उनके साथ लगा । 'ऐसी लागी लगन मीरा हो गई मगन, वो तो गली-गली हरि गुण गाने लगी ।' यह तो लगन लगने की बात है । सामायिक भी हमें एकांत में बैठकर करनी चाहिए न कि ऐसे स्थान पर बैठकर जहाँ चारों ओर आवागमन हो । हम लोगों का मन कोई सिद्ध मन तो है नहीं जो बाह्य बातों से या बाहरी वातावरण से प्रभावित न हो । मन डगमगाए इसके पहले ही हम ऐसे स्थान का चयन करें जहाँ शांति हो, किसी प्रकार की बातचीत सुनाई न दे।
T
तब संकल्प लें - ‘मैं एक घंटे की सामायिक आराधना कर रहा हूँ अर्थात्
२४४
Jain Education International
-
For Personal & Private Use Only
-
www.jainelibrary.org