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________________ होकर जीव और शरीर को एक मानता है इसलिए वह बहिआत्मा है। जो तत्त्वविचार के अनुसार नहीं चलता उससे बड़ा मिथ्या दृष्टि कौन हो सकता है। वह दूसरों को शंकाशील बनाकर अपने मिथ्यात्व को बढ़ाता रहता है।' महावीर बात तो मुक्ति की कर रहे हैं, पर शुरुआत मुक्ति से नहीं करवाना चाहते । वे पहले हमें हमारे ज्ञान का बोध करवाना चाहते हैं। वे कहते हैं - जीवन का पहला सत्य यह है कि व्यक्ति मिथ्यात्व से घिरा हुआ है, माया, अविद्या और अज्ञान से घिरा हुआ है। हम सभी पर अज्ञान ही तो हावी है। ज्ञान की रोशनी थोड़ी-सी उपलब्ध होती है और अज्ञान का अँधेरा छाया रहता है। इस दुनिया में ज्ञान कम और अज्ञान अधिक है। साक्षरता और पढ़ाई का स्तर बढ़ा है, लेकिन ज्ञान की रोशनी अब भी नहीं हो पा रही है। बड़ी-बड़ी डिग्रियों से संस्कार नहीं पनप रहे हैं। ज्ञानी होने का दावा करने वाले भी दुर्व्यसनों से ग्रस्त हैं। यहाँ तक कि वैधानिक चेतावनियों का भी खुल्लमखुल्ला उल्लंघन करते हुए पाए जाते हैं। हम लोग तो वे हैं जो बिना अतिक्रमण किए जीते ही नहीं हैं। जीवन में अतिक्रमण, मर्यादाओं में अतिक्रमण । स्वयं को हम आर्य और धार्मिक कहते हैं फिर भी हर चीज में अतिक्रमण । इस देश के अतीत ने मर्यादा में रहना सीखा था, पर वर्तमान ने नहीं सीखा । राम ने मर्यादा को सीखा लेकिन राम के अनुयायी इसे भूल गए। महावीर तो मुक्त हो गए पर उनके अनुयायी मुक्त न हो पाए। वे अब भी बँधे हुए हैं। कोई पंथ से, कोई परम्परा से, कोई गुरु-व्यामोह से, कोई धन, सम्पत्ति, जायदाद से, बस बँधे हुए हैं। हम मुक्ति को कैसे जी रहे हैं ? इस तरह कि माता-पिता को छोड़कर अलग घर बसाने लगे हैं। भाई से भाई अलग हो गया है यह मुक्ति तो सीखी, पर आध्यात्मिक मुक्ति, सांसारिक प्रपंचों से मुक्ति को नहीं जी पा रहे हैं। हमें अज्ञान से मुक्ति चाहिए। जो ज्ञान पाया है उसे जीवन के साथ जोड़ा जाए। हमारी प्रवृत्ति ज्ञान को जीने की कम और बाँटने की अधिक है। मिट्टी के माधो बनने से या मंदिर की मूरत बन जाने से काम न चलेगा। व्यक्ति को परमात्मा होने के लिए स्वयं का पुरुषार्थ जगाना होगा। आत्म-जागरण का शंखनाद स्वयं के जीवन में करना होगा। अज्ञान मोह का, माया का अज्ञान टूटे । रिद्धि-सिद्धि के दाता गणपति से, ज्ञान की दाता सरस्वती से यही प्रार्थना है कि हम इन्सानों २६८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003880
Book TitleMahavir Aapki aur Aajki Har Samasya ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages342
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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