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ऐसा बनने का प्रयत्न करना चाहिए । धार्मिक बनने का मतलब यह नहीं है कि महावीर ही बना जाए। धार्मिक होने का मतलब है श्रेष्ठ, भला, नेक, सौम्य, प्रेम और क्षमा से भरा हुआ जीवन जीना ।
एक युवक सच्चे धर्म की तलाश में निकला । वह सबसे पहले हिन्दू संतों के पांडाल में गया। संतों ने उसका स्वागत किया। युवक ने पूछा - आप क्या बनाते हैं ? संतों ने कहा - हम तुम्हें एक अच्छा हिन्दू बनायेंगे। युवक पता नहीं क्यों, संतुष्ट न हुआ। वह अगले पांडाल में गया। वहाँ पादरी अपना प्रवचन दे रहे थे। वे कहने लगे - हम तुम्हें एक अच्छा ईसाई बनाएँगे। वह वहाँ से भी निकल पड़ा। अगले पांडाल में मौलवी जी उपदेश दे रहे थे। कहने लगे - खुदा की कसम ! हम तुम्हें एक सच्चा मुसलमान बनाएँगे । वह युवक इस तरह कई जगहों पर गया ! आखिर वह हमारे पास भी आया। उसने कहा - अमुक पांडाल में अच्छा हिन्दू बनाते हैं तो अमुक पांडाल में अच्छा मुसलमान । आप क्या बनाते हैं। मैंने कहा - एक अच्छा इन्सान । आओ, हम तुम्हें एक अच्छा इंसान बनना सिखाते हैं। पता नहीं क्यों, उस युवक के दिल में बात उतर गई। वह पांडाल में आकर बैठ गया।
हम आपको स्वर्ग देते हैं। स्वर्ग तो और संत भी देते हैं, पर उनमें और हममें फ़र्क यही है कि वे तुम्हें आसमान में बना स्वर्ग देते हैं जिसे उन्होंने खुद ने भी नहीं देखा और हम तुम्हें इसी जीवन को स्वर्ग बनाने का अनुभव देते हैं। अब यह तुम सोचो कि तुम्हें मृत्यु के बाद वाला स्वर्ग चाहिए या जीते-जी मिलने वाला स्वर्ग। धर्म का सम्बन्ध वर्तमान से है। वर्तमान ही शक्तिमान है। सत्संग भी वही सार्थक है जिसका परिणाम वर्तमान में मिले।
कुछ दिन पहले की बात है। एक दफा मैं सत्संग करके व्यासपीठ से नीचे उतर रहा था, उसकी ऊँचाई इतनी अधिक थी कि मैंने एक आदमी का हाथ पकड़ लिया ताकि आराम से नीचे उतर सकूँ। उतरकर मैं तो सहज रूप में आगे चला गया। लेकिन दोपहर में वह व्यक्ति आया और कहने लगा – महाराजश्री ! मुझे नियम दिला दीजिए कि भविष्य में मैं तम्बाकू, गुटखा, जर्दा या व्यसन का उपयोग न करूँ। मैंने कहा - यह तो अच्छी बात है, तुम्हें किससे प्रेरणा मिली। उन्होंने झट से कहा - क्या बताऊँ किससे प्रेरणा मिली। हकीकत यह है कि
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