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________________ मर्म को समझने की कोशिश की और इतनी गहराई से समझा कि वे लोग राजकुमार न रहकर संन्यासी और श्रमण बन गए । केवल हक़ीक़त को समझने से काम नहीं चलता। उसकी वज़ह जानना भी ज़रूरी है । मैं दुःखी, आप दुःखी यह कहने से कुछ न होगा । दुःख को मिटाने के लिए उसके कारणों को ढूँढ़ना होगा। मैं बीमार, मैं बीमार - यह कहने से कुछ हासिल न होगा, बीमारी की वज़ह ढूँढ़नी होगी। स्वस्थ होने के लिए दवा की तलाश करनी होगी। दवा लेने से भी कुछ काम न चलेगा। पहले हमें स्वयं को उस वातावरण से अलग करना होगा, जिस वातावरण की वज़ह से हम बीमार पड़ते हैं - तन से, मन से । हम जानते हैं बुद्ध ने प्रसूतिग्रस्त महिला को देखा तो दुःख को समझा और इसकी वज़ह को भी समझा तो उन्हें लगा कि जन्म भी एक दुःख है । बूढ़े आदमी को लाठी टेककर चलते हुए देखा तो उन्हें बुढ़ापा भी एक दुःख महसूस हुआ । वमन करते हुए इन्सान को देखकर जाना कि रोग भी एक दुःख है और जब शवयात्रा में अर्थी को देखा तो उसे देखकर भी दुःख तत्त्व का बोध हुआ । तब वे गहराई तक उतरे, दुःख की वज़ह ढूँढ़ी, तब उन्होंने यह निर्णय लिया कि दुःख को मिटाया जा सकता है, दुःख को मिटाने का मार्ग अवश्य है और तब बुद्ध ने चार आर्य सत्य स्थापित किए । चार आर्य सत्य यही हैं। (१) दुःख है, (२) दुःख का कारण है, (३) दुःख को मिटाने का मार्ग है और (४) दुःख को मिटाया जा सकता है। T महावीर ने भी अपनी तरह से दुःख को और इसकी वज़ह को समझा । महावीर ने इन्सान के मूलभूत तत्त्व और कारण को राग और द्वेष कहा । इसलिए महावीर ने अपना प्रसिद्ध वचन कहा राग और द्वेष कर्म के बीज हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है। वह जन्म-मरण का मूल है । और जन्म-मरण को ही दुःख का कारण कहा गया है । वे कहते हैं कि इन्सान के भव में भ्रमण करने का कारण उसके कर्म हैं। कर्म- जो हमसे कुछ करवाए। जिससे प्रेरित होकर हम कुछ करते हैं वह कर्म । कर्म अर्थात् हम जो कुछ खुद करते हैं । इस तरह इन्सान का प्रारब्ध भी उसका कर्म है। चाहे पाप हो या पुण्य, शुभ हो या अशुभ, मंगल हो या अमंगल सबके पीछे उसके कर्मों की ही भूमिका होती है । जो किया सो पाया। मैं करूँगा मुझे मिलेगा, आप करेंगे आपको मिलेगा । कर्म कर्ता का I ९० Jain Education International — - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003880
Book TitleMahavir Aapki aur Aajki Har Samasya ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages342
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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