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________________ 1 - भर नहीं जी पाया । यह युधिष्ठिर के पुण्य का उदय था कि वह जी गया और यह दुर्योधन के पाप का उदय था कि वह जी न पाया जबकि दोनों एक ही खानदान के व्यक्ति थे । 'क' से कृष्ण और 'क' से ही कंस होता है, 'र' से ही राम और रावण होता है, 'भ' से भारत और भ्रष्टाचार दोनों होते हैं राशि दोनों में एक ही है, पर परिणाम जुदा-जुदा हो जाते हैं। हमें अपनी ओर से यह जागरूकता रखनी चाहिए, यह सजगता बरतनी चाहिए कि हम अपने जीवन में जितना अधिक मर्यादाओं को सम्मान दे सकते हैं देने का प्रयत्न करें और जीवन में नैतिकता का सम्मान करते हुए नैतिकता के पथ पर चलते रहना चाहिए। नैतिक व्यक्ति की आत्मा सदा प्रसन्न होती है, संतोष बना रहता है और जो जीवन उसने जिया है उस पर वह गौरव कर सकता है । तब उसे बुढ़ापे में रोना नहीं पड़ेगा । जिसने अनैतिकता को प्रश्रय दिया है वही जीवन में आने वाले दुःखों को देखकर विचलित होता है और आँसू बहाता है । परीक्षा आने पर वही बच्चा टेंशन में आता है जिसने साल भर पढ़ाई नहीं की । इन्कम टैक्स वालों की रेड पड़ने पर वही व्यक्ति घबराता है जिसने कर नहीं चुकाया है। मेरे विचार से मृत्यु I आने पर वही व्यक्ति रोता है जिसने जीवन में किसी तरह का धर्म-कर्म नहीं किया है। नैतिक जीवन जीने वाला व्यक्ति तो खुद ही एक चलता-फिरता मंदिर होता है। अहिंसक, सत्यव्रती, अचौर्यव्रत का पालन करने वाले, सीमित परिग्रह में जो अपना जीवन चला रहा है, वह मंदिर में जाए तो ठीक और न भी जाए तो भी ठीक है। एक पापी व्यक्ति मंदिर में जाता है तो उसके पाप कटेंगे और पुण्यात्मा मंदिर जाता है तो उसके पुण्य में बढ़ोतरी ज़रूर होगी, पर अगर वह मंदिर नहीं भी जाता है तब भी कोई पुण्य कम न हो जाएँगे । पापी व्यक्ति को अगर मंदिर जाने में सुकून मिलता है तो ऐसे नैतिक और सत्यनिष्ठ व्यक्ति को कोई देखेगा तो उसके मन को भी मंदिर जाने जैसा सुकून मिलेगा । इसीलिए तो धर्मशास्त्रों में संतों को चलता-फिरता तीर्थ कहा गया है। कपड़े बदलने से ही कोई संत नहीं हो जाता। संत का अर्थ स्वभाव से संत होना है, शांत होना है । जो सज्जन हो गया, जो भलाई करता है, सबसे प्रेम रखता है, सहनशील है, समदर्शी है वही संत है। ऐसा संत आदमी चलता-फिरता तीर्थ है। तभी तो माना जाता है कि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainel 144.org
SR No.003880
Book TitleMahavir Aapki aur Aajki Har Samasya ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages342
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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