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कोई चन्दनबाला, कोई मीरा, कोई चैतन्य महाप्रभु ही होते हैं। उस किनारे पर उन्हें पंडे पुजारी मिलते हैं, इस किनारे के भगवान नहीं मिलते हैं। उस किनारे के भगवान को पाने के लिए व्यक्ति को जप-तप करना पड़ता है, सब कुछ त्यागकर भगवान के भजन में लयलीन होना पड़ता है, ज्योत से ज्योत जलानी
और मिलानी होती है तब कहीं वह उस किनारे के भगवान से एकाकार और तदाकार हो पाता है।
प्रभु से मिलना तो प्रकाश की ओर कदम बढ़ाने की तरह है। अगर उल्लू से कहा जाए कि दिन में उड़ान भरनी है तो वह कैसे भरेगा ? उसको अंधेरा ही अच्छा लगेगा। हम तो प्रकाश-पुंज के पथिक हैं और जिनके भीतर प्रकाश की ललक होती है, जिन्हें अपने अंधकार का बोध हो गया है, जो अपने मनोविकारों से मुक्त होना चाहते हैं, जो संसार के स्वरूप को समझ चुके हैं, विद्या को विद्या और अविद्या को अविद्या जान चुके हैं, जिन्होंने जड़ को जड़ और चेतन को चेतन समझ लिया है, वे ही लोग प्रभु की तरफ अपने क़दम बढ़ा पाते हैं। उन्हीं लोगों के भीतर प्रभु से मिलने का, प्रभु के साथ एकाकार होने का, निर्वाण और मोक्षपद प्राप्त करने के लिए प्रबल पुरुषार्थ, सत्त्वशील पराक्रम जग पाता है। यह भी एक तपस्या है।
महावीर ने भी तपस्या पर बहुत बल दिया, लेकिन लोग भूल गए कि वे किस तपस्या की बात कर रहे थे। लोगों ने उपवास को ही तपस्या समझ लिया। उपवास को महावीर ने उतना ही महत्त्व दिया जितना रुपये में दस पैसे को दिया जाता है। उनकी तपस्या में उपवास के अतिरिक्त विनय रखना, सेवा करना, अच्छे शास्त्र और सत्साहित्य पढ़ना, आत्म-चिंतन करना भी तपस्या है। उनकी दृष्टि में तो भूख से दो कौर कम खाना भी तपस्या है। शीलव्रत का पालन, रूई के गद्दों का त्याग कर घास के बिछौने पर एकान्त शयन करना भी तपस्या है। इसलिए राम को, भरत को तपस्वी कहा गया क्योंकि उनके पास सब कुछ था फिर भी राम वचन की आन रखने के लिए और भरत भाई के दुःखों में उनके दुःखों का साथ देने के लिए घास के बिछौने पर सोने को तैयार हो गए। यह प्रेक्टीकल तपस्या है। उपवास रखते हुए अगर कोई दिन भर शांति, समता रखता है तो यह समता भी तपस्या है। लेकिन व्रत-उपवास में हो-हल्ला,
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