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बदलना पड़ेगा और अगर नहीं बदलते हैं तो ये धर्म-कर्म बहुत पीछे छूट जाएँगे और दुनिया बहुत आगे निकल जाएगी। घर में भी अगर बड़े-बुजुर्ग, दादा-दादी, नाना-नानी हैं और वे युग को नहीं समझेंगे और युग के अनुसार चलना पसंद नहीं करेंगे तो उनके बच्चे बहुत आगे बढ़ जाएँगे और वे घर में अकेले पड़े रह जाएँगे या वृद्धाश्रम में जाकर उन्हें अपनी ज़िंदगी गुज़ारनी पड़ेगी । उन्हें युग को समझना पड़ेगा क्योंकि जो नई पौध आ रही है वह जन्म से ही विकसित दिमाग के साथ विकसित युग में पैदा हो रही है। हम पचास साल या पच्चीस सौ साल पुराना धर्म या परम्परा या इस तरह की प्रवृत्ति उन पर नहीं थोप सकते। अच्छा है परिवर्तन होना चाहिए। हाँ, जो व्यक्ति पहला परिवर्तन करेगा वह आलोचना का शिकार बनेगा ।
इन्सान को केवल दूसरों की बनाई लकीरों पर ही नहीं चलना चाहिए वरन् खुद भी इतनी हिम्मत बटोरनी चाहिए कि वह भी नई लकीर का निर्माण कर सके। प्रवर्तक वही कहलाता है जो नई लकीर का निर्माण करता है और दूसरे उसका अनुगमन या अनुसरण करते हैं। ऐसा भी है कि जब नया काम किया जाता है तो कभी सफलता मिलती है और कभी असफलता भी मिलती है । जीवन तो रिस्क है। सारी दुनिया रिस्क पर ही तो टिकी है। कुल मिलाकर बात वहीं आ जाती है कि सावधानी से चलो। पैदल चलने वाले को अपनी नज़र सात हाथ तक रखनी चाहिए और वाहन में चलने पर हमें सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव को भी बचाने की कोशिश करनी चाहिए। अतिसूक्ष्म जीवों को तो हम वाहन के द्वारा नहीं बचा सकते, पर सामान्य जीवों को अवश्य ही बचा सकते हैं ।
अहिंसा का दूसरा पाठ है - सावधानीपूर्वक बोलो जब हम वाणी का उपयोग करते हैं तब ध्यान रखें कि गलत भाषा का प्रयोग न करें, अभद्र शब्द न बोलें। चाहे क्रोध पैदा हुआ, कोई उपेक्षा हुई, टेढ़ा शब्द निकल गया - कोई भी वज़ह बन रही हो, संयम रखेंगे। हमारी बोली से अगर किसी को गुस्सा भी आ गया हो तब हम अपनी सावधानीपूर्ण बोली के द्वारा, अच्छी भाषा के जरिए दूसरे का गुस्सा ठंडा कर सकते हैं ।
किसी मुस्लिम सम्राट् की प्यारी सी कहानी है कि बादशाह हारून रशीद के साथ उनका बेटा भी राजसभा में उपस्थित
हुआ
और कहा कि
अमुक
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