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पाप मूल अभिमान ।
दयाधर्म का मूल है, 'तुलसी' दया न छोड़िए, जब लग घट में प्रान ।।
जब तक इन्सान की देह में प्राण हैं तब तक उसे दया धर्म नहीं छोड़ना चाहिए। कौन कितना धार्मिक क्रियाओं में व्यस्त है यह मत देखो बल्कि यह देखो कि उसके दिल में कितनी दया, शांति और समता है । यह मत देखो कि कौन कितना बड़ा है, यह देखो कि वह छोटों को माफ़ करने के लिए अपने बड़प्पन का कितना उपयोग करता है। कौन संत पुराना है और किसने अभी-अभी संन्यास लिया है इस उम्र को मत देखो वरन् यह देखो कि वह संत अपने जीवन में कितनी अधिक सज्जनता रखता है । गुण के आधार पर उसकी पूजा होनी चाहिए। क्या हम उसे तपस्वी कहेंगे जो तीन दिन तो उपवास करता है लेकिन चौथे दिन ही अभद्र व्यवहार करता है । हम शायद उसे तपस्वी स्वीकार करने को तैयार न हो पाएँ । व्यक्ति की दया बताती है कि वह हिंसक है या अहिंसक । केवल कहने से अहिंसा नहीं होती। भले ही कहते रहें कि थप्पड़ नहीं मारा, पर प्यार भी तो नहीं किया। थप्पड़ नहीं मारने से हम अहिंसा के अनुयायी तो कहला सकते हैं, पर किसी को प्यार और मोहब्बत करके हम दया और मैत्री के उपासक बन सकते हैं ।
केवल हिंसा न करना ही अहिंसा का आचरण नहीं है बल्कि हिंसा से बचते हुए दिल में दया, करुणा, क्षमा की भावना को अधिक से अधिक स्थान देना अहिंसा को सकारात्मक रूप से जीने का प्रेक्टिकल तरीका है ।
आप जो यह जानना चाहते हैं कि मेडीकल की पढ़ाई के लिए, शोध कार्य और जाँच के लिए जो छोटे-छोटे जीवों की हिंसा होती है वह कहाँ तक दोष कहलाएगा? हालाँकि इन्सान के लिए जो चिकित्सा उपलब्ध करवानी है उसके लिए बेहतर है कि जो प्राणी मृत हो चुके हैं उनके शव पर प्रयोग किया जाए। आप जानते ही होंगे कि विद्यार्थियों को शवों पर ही कार्य करने को कहा जाता है। शव पर ही चीर-फाड़ करके सीखा जाता है। जब बंदर, चूहे, मेंढक, बिल्ली आदि पर प्रयोग किये जाते हैं तो निश्चित ही यह हिंसा है और विज्ञान को इसका विकल्प भी अवश्य ही ढूँढना चाहिए। हाँ, विज्ञान भी तभी विकल्प ढूँढेगा जब वह स्वीकार करेगा कि मांसाहार पाप है, अमानवीय है, दुराचार और
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