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और गंगा - किनारे मेरी अंत्येष्टि करके मेरी अस्थियों को गंगा जी में विसर्जित कर दिया जाए। अगर ऐसा अवसर न बन पाए, क्योंकि यह ज़रूरी नहीं है कि गंगा जी पास में हो, तब ऐसे स्थान पर अंतिम संस्कार किया जाए जहाँ पर सौ-पचास गौमाताएँ चरती हों, बैठती हों, रहती हों। जहाँ गौमाताएँ रहेंगी वहाँ स्वयं गोविंद का निवास होगा।
जब उनकी मृत्यु हुई तो गंगा जी पास में ही थीं। लेकिन यह मुख्य बात नहीं है, मूल भाव यह है कि उनकी मृत्यु कैसे हो। ऐसे लोग निर्भय होकर मृत्यु के करीब जाते हैं और उनके भाव होते हैं या तो गंगा जी बगल में हो या ऐसा स्थान हो जहाँ गौएँ चर रही हों।
श्री भगवान चाहते हैं अपने जीवन में निर्वाण की ज्योति जले, मोक्ष का अखण्ड स्वरूप उजागर हो। निर्वाण की ज्योति के लिए, मोक्ष के लिए भी तो हमें तैयारी कर लेनी चाहिए। हमारे हाथ में जो वर्तमान है इसे इतना धन्य करें कि अगर मृत्यु आज ही आ जाए तो हमें यह प्रार्थना करने की ज़रूरत न पड़े कि हे प्रभु, हमें चार दिन और जी लेने दें। प्रभु मंदिर में जाएँ तो यह तमन्ना न करें कि दस वर्ष की उम्र और दे। बस यही चाहें जितना जिएँ स्वस्थ रहें, आनन्दपूर्वक तुम्हारा नाम लेते हुएँ तुम्हारा नाम लेते हु ही मर जाएँ ।
मृत्यु के बारे में चर्चा इसलिए प्रासंगिक है ताकि हम लोग इस स्वार्थ भरे संसार में आसक्त न हों, न इसमें उलझें और अनासक्ति के फूल अपने जीवन में ज़रूर खिला सकें। श्रीमद् राजचन्द्र के पड़ोस में किसी की मृत्यु हो गई थी। राजचन्द्र उस समय बालक ही थे अतः उनको वहाँ से हटा दिया गया। लोग वहाँ रो रहे थे। राजचन्द्र ने अपने पिता से पूछा- ये क्या हो गया है। पिताजी ने कहा- कुछ नहीं, कुछ नहीं, ऐसे ही कुछ हो गया है। राजचन्द्र कहने लगे- नहीं, नहीं, बताइये क्या हो गया है ? बच्चा जब जिद करने लगा तो पिता ने कहा- वह व्यक्ति चल बसा है, उसकी मृत्यु हो गई है। राजचन्द्र ने पूछा- मृत्यु क्या होती है ? उसे समझाया गया एक-न-एक दिन सभी को शरीर छोड़ना पड़ता है, अब वे
चले गए हैं। अब कभी वापस नहीं आएँगे ।
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राजचन्द्र उस समय आठ-नौ वर्ष के बालक थे, उनको ये सारी बातें समझ में नहीं आईं। बच्चे को घर में रखकर सभी लोग दाह-संस्कार के लिए चल
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