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________________ वही व्यक्ति सच्चा संत होता है। सच्चा संन्यास भी यही है। पर होता यह है कि संन्यास लेने के बाद कई तरह की मोह-माया तो छोड़ आया पर अन्य कई तरह की मोह-माया अपने साथ जोड़ बैठा । जब संन्यास लिया तब तो बहुत उन्नत भाव थे लेकिन बाद में ढीले पड़ गए । मन से ढीले हो गए, अध्यात्म दशा में ढीले हो गए और दुनियादारी के प्रपंच में ही उलझकर रह गए। अब संन्यास अध्यात्म का आराधक कम रहा है, समाज का आराधक ज़्यादा हो गया है। अब तो संत लोग भी अमीरों से जुड़ गए हैं और अमीर लोग अपनी इज्जत बढ़ाने के लिए संतों से जुड़ गए हैं। मुझे लगता है दुनिया में जितने भी संत बने हुए हैं उन्हें फिर से एक बार और संन्यास लेना चाहिए, मुझे भी और अन्य सभी को भी । एक संन्यास वो लिया जब हमारे भीतर संयम के भाव बने । अब अध्यात्म के, निर्वाण के ऐसे परम उत्कृष्ट भावदशा के साथ पुनः संन्यास होना चाहिए। यह संन्यास किसी के कहने से नहीं स्वयं की अन्तःप्रेरणा से होना चाहिए । जन्म-जन्मांतर के बाद किसी भव्य प्राणी में यह भव्य पराक्रम करने के भाव जगते हैं कि वास्तव में मैं ईश्वरीय ध्यान के लिए स्वयं को समर्पित करता हूँ। __इससे कुछ फ़र्क नहीं पड़ता है कि हमने क्या किया या क्या नहीं किया, किस तरह से किया। इन सब व्यवस्थाओं का अधिक मूल्य नहीं है, ये सब जीवन जीने के साधन हैं। साधनों में परिवर्तन करना महत्त्वपूर्ण नहीं है, ज़रूरी है अन्तर् दशा, भाव-दशा, भीतर की सजगता, भीतर की जागरूकता में परिवर्तन हो। सभी अपना-अपना उद्धार करेंगे, हम सहयोगी हो सकते हैं पर किसी का उद्धार नहीं कर सकते । कोई माता-पिता नहीं चाहते कि उनका बेटा बिगड़ा हुआ निकले फिर भी निकल जाता है यह भी अपना-अपना प्रारब्ध है । हम कितने भी अच्छे संस्कार दे दें तब भी शिकायतें मिलती रहती हैं। कुछ लोग पूर्व जन्म के विकृत संस्कारों के साथ ही जन्म लेते हैं जो पुनः पुनः उदय में आते हैं। यह तो भव्य लोगों में भव्य पराक्रम करने के सत्वशील भाव पैदा होते हैं तब ही कोई व्यक्ति बाहर निकल पाता है। जो बाहर निकल पाता है वे ही लोग सातवें धरातल पर पहुंचते हैं। यह धरातल ‘अप्रमत्त दशा' का है। अर्थात् व्यक्ति अब अपने लिए जग गया। उसे अपने दायित्वों का बोध हो गया, उसे स्वयं से प्यार हो गया। हमें दूसरों से तो १९१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003880
Book TitleMahavir Aapki aur Aajki Har Samasya ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages342
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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