________________
धन्य कर ही लेगा। कुछ ही लोग होते हैं जो बुढ़ापे को धन्य कर पाते हैं और अपने सारे पापों को धो जाते हैं। हर व्यक्ति के लिए ऐसी उम्मीद नहीं की जानी चाहिए।
हमें स्वीकार करना चाहिए कि जिसने भी मनुष्य के रूप में जन्म लिया है उसमें कुछ-न-कुछ कमी अवश्य होती है। कोई भी दूध का धुला नहीं है। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि हर व्यक्ति अपनी-अपनी कमियों को समझे। फिर इन कमियों को कैसे ठीक किया जाए इसके लिए चिंतन करना होगा। अभी तक हमने कितनी ही धार्मिक किताबें पढ़ीं, कितने ही सत्संग किए लेकिन स्वभाव में कुछ परिवर्तन आया या नहीं अथवा अपन में जो कमियाँ हैं उन्हें दूर कर पाने में सफल हुए या नहीं। अथवा जैसे थे वैसे ही हैं। स्वयं को स्वयं का मूल्यांकन करते रहना चाहिए। अगर मूल्यांकन करेंगे तो धीरे-धीरे थोड़ा बदलाव आता रहेगा। सायंकाल में जो संध्यावंदन या प्रतिक्रमण करते हैं उसमें अगर केवल पाठ ही बोलना है, सूत्र ही बोलने हैं तो उससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कल प्रतिक्रमण किया या नहीं और आज करोगे या नहीं, इससे कुछ फ़र्क नहीं पड़ जाएगा। असली बात यह है कि हम मूल्यांकन करते हैं या नहीं कि हमारे पापों में कुछ कमी आ रही है या स्वयं को सुधारने के लिए संकल्पित हो रहे हैं या जो संकल्प लेते हैं उन्हें निभा पाते हैं या नहीं।
जो भी अपने जीवन का आध्यात्मिक विकास पाना चाहता है वह मूल्यांकन करता रहे । यदि किसी को धर्म-कर्म में आस्था नहीं हो तब भी उसे मूल्यांकन करना ही चाहिए। केवल धर्म को सुनें नहीं, आत्म-मंथन भी करें। हमारे अंदर जो मानवीय कमजोरियाँ हैं उन्हें दूर करने के लिए संकल्प भी करने होंगे, इच्छाशक्ति को भी जगाना होगा, नियम-व्रत भी लेने होंगे, मर्यादाओं का भी सम्मान करना होगा, स्वयं पर अंकुश भी लगाना होगा, मन को दबाना और तपाना भी होगा। पुनः-पुनः हमें अपने मन को समझाना होगा, इसी तरह तो व्यक्ति सुधरता है। तभी वह सही रास्ते पर आ पाता है। अच्छी चीज़ों को जीवन से जोड़ने की कोशिश और बुरी चीज़ों को जीवन से हटाने की जागरूकता भी बनानी होगी।
पहला संकल्प तो यह हमें लेना होगा कि हम गलत काम नहीं करेंगे।
१५७ www.jainelibrary.org
Jain Education International
For Personal & Private Use Only