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ऐसा कर सकीं, पर सत्य को किनारे कर दिया। आजकल अहिंसा पर भाषण दिये जा सकते हैं, पर अहिंसा को पूर्ण रूप से जिया नहीं जाता । चोरी की आदत जाती नहीं है क्योंकि व्यक्ति को लगता है कि बिना मेहनत किए यूँ ही मिल जाता है फिर उसके लिए मेहनत कौन करे। जो काम एक दिन में हो जाता है उसके लिए लंबा इन्तज़ार कौन करे । जो लोग कर्मयोग नहीं करना चाहते, मेहनत नहीं करना चाहते और शीघ्र ही पैसा पा जाना चाहते हैं वे ही चोरी-चकारी करते हैं। फिर तो इस कहावत के अनुसार तय है कि चोरी का धन मोरी में । उनका धन जैसे आता है वैसे ही व्यर्थ चला जाता है। बहुत समय तक सुरक्षित नहीं रहता। ईमान का, साँची कमाई का पैसा कोई भी व्यर्थ नहीं करना चाहता । वह व्यर्थ हो भी नहीं सकता क्योंकि जब कुछ बहुमूल्य खो जाए और पुनः वापस मिल जाए तो यही कहते हैं - सच्ची कमाई का था, खो कैसे सकता है।
इन्सान सत्य को अपने जन्म के साथ लेकर आता है लेकिन झूठ तो बाद में अर्जित होता है। एक बालक झूठ बोलना नहीं जानता क्योंकि प्रकृति सत्य रूप में ही पैदा करके भेजती है लेकिन समाज के, झूठे लोगों के सम्पर्क में रहकर, माँ-बाप को झूठ बोलते हुए देखकर, भाई या दादा-दादी को झूठ बोलते हुए देखकर वह झूठ बोलना सीख जाता है। झूठ तो बाहर से आया हुआ दुर्गुण है और सत्य भीतर से सहज स्वाभाविक रूप में पैदा होने वाला गुण है। सत्य के प्रति हमें जागरूकता रखनी चाहिए कि हम झूठ न बोलें, झूठे कार्य न करें, घपलेबाजी न करें। बिना कोई धर्म-क्रिया किए, बिना मंदिर-मस्जिद गए अगर हम केवल सत्य को ही अपने जीवन में जी लेते हैं तो निचित ही हम सब धार्मिक हो जाएंगे। सत्य को जीना अपने आप में धर्म का आचरण करने के समान है।
जो व्यक्ति झूठ बोलने का आदी होता है वह किसी भी रूप में झूठ बोलेगा, लेकिन जो सत्य बोलने का आदी है वह किसी भी प्रकार के निमित्त क्यों न आ जाए, वह मौन रह लेगा, बात घुमा-फिराकर कह देगा, पर झूठ को स्थापित नहीं करेगा । व्यवस्थाएँ भी बदलनी चाहिए और व्यक्ति की आदत भी। अगर कोई सत्यनिष्ठ होने का व्रत लेता है तो व्यवस्थाएँ चाहे अनुकूल बनें या प्रतिकूल वह सत्य पर ही कायम रहेगा। मेरा मानना है व्यक्ति को झूठ तब ही
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