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करते रहें वरन् दीन-दुःखियों के लिए भी उदारतापूर्वक दान देने का उपक्रम करें। जितनी भी बन सके दूसरों की मदद करने का प्रयास करें। अपनी क्षमता के अनुरूप मदद ज़रूर करें । प्रेम के साथ करुणा को भी स्थान दें। मैं किसी से भी द्वेष नहीं रखता, मैं प्रेम का पथिक हूँ, वीतराग नहीं हूँ लेकिन वीतद्वेष ज़रूर हूँ। मैं प्रेम का पुजारी हूँ, प्रेम ही मेरी प्रार्थना है, प्रेम ही मेरी साधना है, धर्म है, यही मेरा सद्गुण है, यही मेरा पंथ है। ध्यान के परिणाम ने मुझे प्रेम दिया और प्रेम ने मेरे हृदय में अनंत करुणा को साकार किया । इसलिए दीन-दुःखियों, जरूरतमंदों के प्रति जितना मुझसे बन पड़ता है उससे अधिक करने का प्रयत्न करता हूँ। मुझे तो लगता है वह दुःखी नहीं है, उसकी जगह मैं ही आ चुका हूँ और उतना ही दीन-दुःखी, अपाहिज़, करुणा का पात्र समझने लगता हूँ तब अपने-आप ही भीतर से सहानुभूति और करुणा बरसने लगती है। मैं मानता हूँ कि जितना बड़ा धर्म अहिंसा है उससे बड़ा धर्म करुणा है, मानवता और भाईचारा है। ऐसा तो नहीं कह सकता कि करुणा के बदले करुणा लौटकर आएगी लेकिन यह प्रकृति की व्यवस्था है कि अच्छे के बदले में अच्छा और बुरे के बदले में बुरा लौटकर मिलता है।
एक प्यारी-सी घटना है - एक बच्चा अपने माँ-पिता से बिछुड़ गया था और चलते-चलते किसी मकान की चौखट पर पहुँचा। वह बहुत भूखा था, उसने देखा कि एक महिला मकान से बाहर निकल कर आई है लेकिन वह खाना माँगने की हिम्मत न जुटा पाया, केवल इतना ही कहा - माताजी, क्या आप मुझे एक गिलास पानी पिलाएँगी, बहुत प्यास लगी है। उस महिला ने महसूस किया कि बच्चा भले ही पानी माँग रहा है लेकिन भूखा भी लगता है। वह अंदर जाकर पानी की बजाय एक गिलास दूध लाकर बच्चे को देती है। बच्चा दूध पी लेता है। महिला की इस करुणा भरी सद्भावना पर वह शुक्रिया अदा कर चलने लगता है तो महिला कहती है - फिर ज़रूरत हो तो आ जाना मैं तुम्हें दूध पिला दूंगी।
बच्चा चला गया। बात भुला दी जाती है। कोई बीस-पच्चीस वर्ष बाद वह महिला बीमार पड़ती है,अस्पताल में भर्ती किया जाता है। पता चलता है कि उसे हृदय-रोग हो गया है और ऑपरेशन किया जाता है। ऑपरेशन के बाद जब
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