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हम लोग भी गुरु के बराबर नहीं बैठते थे । गुरु अगर पाट पर बैठते तो हम या तो ज़मीन पर बैठते या उनसे निचले पाट पर बैठते । बराबर बैठना अमर्यादा कहलाता है। पहले के ज़माने में भी घर के बड़े-बुजुर्ग अगर ज़मीन पर बैठे हों या ऊँचे बैठे हों तो उनके बराबर या उनके सामने पलंग, सोफा या कुर्सी पर नहीं बैठते थे, उनके सामने ज़मीन पर बैठते थे ।
गुरुजनों को वंदन करने का केवल यह अर्थ नहीं है कि उनके पाँव छुएँ, उन्हें सिर झुका कर प्रणाम करें बल्कि उनकी मान-मर्यादा का भी ख़याल रखें, वे जो कहते हैं उसका पालन करना भी हमारा धर्म है । हम लोगों ने पाठ्यपुस्तकों में कहानी पढ़ी है कि किसी गुरु ने अपने शिष्य को गायें चराने के लिए भेजा और ताक़ीद की कि वह गायों का दूध न पिए । शिष्य गाएँ लेकर जंगल में चला गया। भूख लग आई लेकिन गुरु आज्ञा, दूध तो पी नहीं सकता, भूखा क्या करे ? आकड़े के पत्ते ही खा लिए, अंधा हो गया। शाम को जब गायों को वापस लाने लगा तो कुएँ में गिर गया। गायें तो आश्रम में पहुँच गईं पर गुरु ने देखा कि शिष्य वापस नहीं आया है । खोजबीन हुई तो कुएँ में मिला । गुरु आज्ञा की पालना हुई यह देख गुरु प्रसन्न हो गए और उसका अंधत्व दूर कर दिया तथा उसे जीवन के वास्तविक अध्यात्म का ज्ञान भी प्रदान किया ।
हमने वह कहानी भी पढ़ी है जिसमें तेज बारिश हो रही थी और गुरुजी ने शिष्य को आज्ञा दी कि जाओ खेत में और देखो कि बरसात का पानी हमारे खेत को तहस-नहस न कर दे, जाकर खेत की रक्षा करो। शिष्य जाता है और वहाँ मिट्टी की पाल बाँधने की कोशिश करता है लेकिन पाल बँध नहीं पाती । गुरुआज्ञा थी लेकिन पाल बँध ही नहीं पा रही थी, क्या किया जाए ? जब कोई विकल्प नहीं बचा तो शिष्य खुद ही वहाँ लेट जाता है। रात भर वहीं पड़ा रहता है, उसका शरीर अकड़ जाता है। दूसरे दिन सुबह गुरुजी वहाँ पहुँचते हैं और देखकर प्रसन्न हो जाते हैं कि गुरु की आज्ञा मानने के लिए शिष्य ने जीने-मरने की परवाह न करते हुए स्वयं को समर्पित कर दिया । यही सब तरीके होते हैं जब गुरुजी अपने जीवन के रहस्य अपने शिष्यों को प्रदान किया करते हैं ।
एक गुरु पास सौ-सौ शिष्य आते हैं लेकिन ज़रूरी नहीं है कि वे सभी को अपना रहस्यमयी ज्ञान दें। जब शिष्य कसौटी पर खरे उतर जाते हैं, उनकी
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