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त्रैमासिक शोध-पत्रिका
अनेकान्त
वर्ष ३३ : किरण १
जनवरी-मार्च १९८०
विषयानुक्रमणिका
क.
विषय
N
सम्पादन-मण्डल डा. ज्योतिप्रसाद जैन हा०प्रेमसागर जैन बी गोकुलप्रसाद जैन
सम्पादक श्री गोकुलप्रसाद जैन एम.ए., एल-एल. बी.
साहित्यरत्न
१. केवलज्ञान का स्वरूप २. भगवान महावीर की अध्यात्म-देशना
-डा. पन्नालाल जैन साहित्याचार्य, सागर ३. भागवत मे भगवान ऋषभदेव ४. प्राकृत साहित्य मे समता के स्वर
-डा. प्रेम सुमन जैन ५. सम्राट मुहम्मद तुगलक और महान जैन शासन-प्रभावक श्री जिनप्रभसूरि
-श्री अगरचन्द नाहटा, बीकानेर ६.जन कर्मसिद्धान्त-श्री श्यामलाल पाण्डवीय १८ ७. जयपुर पोथोखाने का सस्कृत जैन साहित्य
-डा. प्रेमचन्द रावका, मनोहरपुर ८. ऋषभदेव : सिन्धु-सभ्यता के माराध्य
-श्री ज्ञानस्वरूप गुप्ता जन पत्र : एक अध्ययन -श्रीलक्ष्मीचन्द्र 'सरोज'
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वार्षिक मूल्य १) रुपये इस अंक का मूल्य।
१ रुपये ५० पैसे
प्रकाशक
वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
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वीर सेवा मन्दिर का एक महत्वपूर्ण प्रकाशन : जैन लक्षणावली
Dो प्रगरचन्द नाहटा, बोकानेर
बनधर्म एक वैज्ञानिक मौर विश्वकल्याणकारी धर्म है। का प्रयत्न किया गया, पर वो तक एकनिष्ठ होकर उसे तीर्थंकरों ने महान साधना करके केवल ज्ञान प्राप्त किया पूरा कर पाना । दूसरों से संभव नहीं हो पाया किन्तु उसे पौर उसके द्वारा शान्ति व कल्याण का मार्ग जो कुछ भी पूरा करने का श्रेय प. बालचन्द्र जी सिद्धान्त शास्त्री को उनके ज्ञान में झलका, प्राणीमात्र के कल्याण के लिए ही, मिला। वर्षों से (वीर सेवा मन्दिर जब से स्थापित हमा जगह-जगह घमकर लोक भाषा में प्रचारित किया। अपने तभी से) मैं जब भी दिल्ली जाता है तो वीर सेवा मन्दिर शान को दूसरों तक पहुंचाने के लिए शब्दों का सहारा भी पहुंचता हूं। प्रतः पं० बालचन्द जी के काम का ममें
अनुभव भी है। अब वह काम पूरा हो गया, इससे मुझे लेना ही पड़ता है। बहुत-से नथे-नये शब्द गढने भी पड़ते
व उन्हे दोनों को सन्तोष है। हैं। फिर भी सर्वज्ञ का ज्ञान बहुत थोडे रूप में ही प्रचारित
जैन लक्षणावली ग्रन्थ के निर्माण में सबसे बड़ी हो पाता है, क्योकि वह शब्दातीत व अनन्त होता है।
उल्लेखनीय विशेषता तो यह रही है कि दि. पौर श्वे. शब्द सीमित हैं। ज्ञान असीम है। जैन धर्म की अपनी
दोनों सम्प्रदायों के करीब ४०० ग्रन्यों के माधार, मे यह मौलिक विशेषताएं हैं जो वह उसके पारिभाषिक शब्दों से
महान ग्रन्थ तैयार किया गया है। एक-एक जैनपारिभाषिक प्रकट है। बहुत-से शन्द जैन अभ्यो मे ऐसे प्रयुक्त हुये हैं
शब्द की व्याख्या किस प्राचार्य ने किस अन्य में किस रूप जो अन्य किम्ही ग्रन्थों व कोष ग्रन्थों मे नही पाये जाते। मे की है. इसकी खोज करके उन ग्रन्थों का प्रावश्यक कई पाब्द मिलते भी हैं तो उनका भर्थ वहाँ जैन ग्रन्थो मे
उद्धरण देते हुये हिन्दी मे उन व्याश्यामों का सार दे दिया प्रयुक्त पपों से भिन्न पाया जाता है। अतः जैन पारिभाषिक
गया है। इससे उन प्रन्धों के उद्धरणों के दाने का सारा शब्दों का अर्थ सहित कोश प्रकाशित होना बहुत ही
श्रम बच गया है और हिन्दी में उन व्यस्यामों का सार पावश्यक है, और अपेक्षित था और अब भी है। अग्रेजी लिख देने से
लिख देने से हिन्दी वालों के लिए यह अन्य बहुत उपयोगी भाषा माज विश्व मे विशिष्ट स्थान रखती है पर जैन
हो गया है। करीब ४०० ग्रन्थों का सार संक्षेप या मंत्रग्रंथों के बहुत से शब्दों के सही प्रथं व्यक्त करने वाले शब्द
दोहान इसी एक ही ग्रन्थ मे कर देना वास्तव में अत्यन्त उस भाषा मे नही हैं। यह जैन ग्रन्थों के अग्रेजी अनुवादको
महत्वपूर्ण कार्य है। पं० बालचन्दजी ने सो वर्षों तक प्रयक को प्रायः अनुभव होता है। अत: जैन पारिभाषिक शब्दों
श्रम करके जिज्ञासु के लिए बहुत बड़ी सुविधा उपस्थित कर के पर्यायवाची अग्रेजी शब्दों के एक बड़े कोश की पावश्य
दी इसके लिए ये बहुत ही धन्यवाद के पात्र हैं । बीर सेवा कता पाज भी अनुभव की जा रही है।
मन्दिर ने काफी खर्चा उठाकर बड़े अच्छे रूप में इस प्रन्य ___ ढाई हजार वर्षों मे शब्दों के रूप मौर मर्थ बदले हैं।
को प्रकाशित किया। इसके लिए संस्था व उसके परिवर्तन हो जाना स्वाभाविक है। अनेकों प्राचार्यो,
कार्यकर्ता भी धन्यवाद के पात्र हैं। मनियो पौर विद्वानो ने एक-एक पारिभाषिक शब्द की
जैन लक्षणावली इसका दूसरा नाम जैन पारिभाषिक व्याख्या अपने-अपने ढंग से की है। प्रतः एक ही शब्द के शब्दकोश रखा गया है। इसके तीन भाग हैं, जिनमें पर्थ प्रर्थान्तर पाया जाता है। किस-किस ने किस पारि.
१२२० पृष्ठों में पारिभाषिक शब्दों के लक्षण और पर्ष भाषिक शब्द को किस तरह व्याख्यात किया है उसका प्रकारादि क्रम से दिये गये हैं। पहले के दो भागों में, जिनपता लगाने का कोई साधन नही था। इस कमी की जिन ग्रन्थों का उपयोग इस प्रन्य में हपा है उनका विवरण पूर्ति पौर ऐसे ही एक कोष की पावश्यकता का अनुभव भी दिया गया था। तीसरे भाग के४४ पृष्ठों की प्रस्तावना स्व. श्री जगलकिशोर जी मुतार को हुमा पोर उन्होने में बहुत से शब्दों सम्बन्धी विशेष बातें देकर ग्रन्थ की इस काम को अपने ढग से प्रारम्भ किया। पर वह काम मांशिक पूर्ति कर दी गयी है। प्रत्येक भाग का मूल्य ४० बहुत बड़ा था और वे अन्य दूसरे कामों में लगे रहते थे रुपया भोर तीनों भागों का मूल्य १२० रुपये है। यह प्रय इसलिए इसे पूरा करना उनके लिए सम्भव नही हो पाया। संग्रहणीय तो है ही, बहुत काम का है, इसलिए सभी जैन कुछ व्यक्तियो के सहयोग से इस प्रयत्न को मागे बढ़ाने अन्यालयों को खरीदना ही चाहिये।
On
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प्रोम् महंस
परमागमस्य बीज निषिद्धनात्यग्प सिन्धरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमपनं नमाम्यनेकान्तम् ।। वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर-
निर्वाण संवत २५०६, वि० सं० २०३६
वर्ष ३३ किरण १
जनवरी-मार्च १९८०
केवलज्ञान का स्वरूप गाथा-केवलणाणं साई अपज्जवसियं ति दाइयं सुत्ते ।
तेत्तियमितोत्तूणा केइ विसेसं ण इच्छंति ॥३४॥ छाया-केवलज्ञानं साद्यपर्यवसितमिति शितं सत्र।
तावन्मात्रेण दप्ता: केचन विशेषं न इच्छति ॥३४॥ गाथा-जे संघयणाईया भवत्यकेलि बिसेसपज्जाया।
ते सिज्झमाणसमये ण होति विगय तम्रो होइ॥३५॥ छाया-ये संहननादयः भवस्थकेवलोविशेषपर्यायाः । ते सिद्धमानसमये न भवन्ति विगतं ततो भवति ॥३५॥
एक बार होने पर केवलज्ञान सतत केवलज्ञान उत्पन्न होता है, यह एकान्त मान्यता भेद-दष्टि को लेकर है। नवर्शन में गुण पौर गुणी में न सर्वथा भेद है और न सर्वथा अभेद । किन्तु इन दोनों में कथंचित् भेदाभेद
या है। केवलज्ञान और केवलदर्शन प्रात्मा के निज गुण है, प्रात्मस्वरूप है। द्रव्यदष्टि से ये दोनों पनादि अनन्त हैं। परन्तु अनादि काल से प्रात्मा कमों से मलिन हो रही है, इसलिए इसके निज गुण भी मलिन हैं, परन्तु जब पात्मा से केवलज्ञानावरण तथा दर्शनावरण कर्मों का विलय हो जाता है, तब प्रात्मा में केवलदर्शन और केवलज्ञान का प्रकाश हो जाता है । इस दृष्टि से केवलज्ञान उत्पन्न होता है और फिर सतत बना रहता है। एक बार केवलज्ञान के हो जाने पर यह त्रिकाल में भी अपने प्रतिपक्षी कर्म से पाक्रान्त नहीं होता। इस दष्टि में यह प्रपर्यवसित है। किन्तु यह एकान्त नहीं है। किसी अपेक्षा से इसे पर्यवसित भी कहा गया है ।
शाश्वत होने पर भी किसी अपेक्षा से नश्वर जो तेरहवे गुणस्थानवर्ती भवस्यकेवली वज्रवषभनाराचसंहनन, केवलदर्शन, केवलज्ञान प्रादि से सम्पन्न हैं, जिनके प्रात्मप्रदेशो का एकक्षेत्रावगाह रूप सम्बन्ध है तथा प्रघातिया कर्मों का नाश कर जो सिद्ध पर्याय को प्राप्त करने वाले हैं, उनके शरीरादि प्रात्मप्रदेशों का एवं केवलज्ञान-दर्शनादि का सम्बन्ध छट जाता है पौर सिद्ध अवस्था रूप नवीन सम्बन्ध होता है, इसलिए उन्हें पर्यवसित कहा जाता है।
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भगवान महावीर को अध्यात्म-देशना
Cडा. पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य, सागर
लोक व्यवस्था
मूतिक हो अथवा प्रमूतिक, जीव के ज्ञान से बाहर नहीं जीव, पुद्गल, धर्म, अधम, प्राकाश और काल इन रहता। पुद्गल द्रव्य के माध्यम होने की बात परोक्ष छह द्रव्यों के समूह को लोक कहते हैं। इनमें सुख-दुःख ज्ञान-इन्द्रियाधीन ज्ञान में ही रहती है, प्रत्यक्ष ज्ञान में का अनुभव करने वाला, प्रतीत घटनापो का स्मरण करने नही। वाला तथा प्रागामी कार्यो का मकल्प करने वाला द्रव्य, प्रसख्यात प्रदेशी लोकाकाश के भीतर सब द्रव्यों का जीव द्रव्य कहलाता है। जीवद्रव्य मे ज्ञान, दर्शन, सुख, निवास है, इसलिए सब द्रव्यों का परस्पर सयोग तो हो वीर्य प्रादि अनेक गुण विद्यमान है। उन गुणों के द्वारा रहा है पर सबका मस्तित्व अपना-अपना स्वतन्त्र रहता इमका बोध म्बय होता रहता है। पुद्गल द्रव्य स्पष्ट ही है। एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य मे प्रत्यन्ताभाव रहता है, दिखाई देता है। यद्यपि सूक्ष्म पुद्गल दृष्टिगोचर नही इसलिए सयोग होने पर भी एक द्रव्य दूसरे द्रव्य रूप होता तथापि उनके सयोग से निर्मित स्कन्ध पर्याय उनके परिणमन त्रिकाल मे भी नहीं करता है। अनुभव में प्राता है और उसके माध्यम से सूक्ष्म पुद्गल यह लोक की व्यवस्था प्रनादि अनन्त है । न इसे का भी अनुमान कर लिया जाता है। जीव और पुद्गल के किसी ने उत्पन्न किया है और न कोई इसे नष्ट कर चलने में जो सहायक होता है उसे धर्म द्रव्य कहा गया है
व्य कहा गया है सकता है । धर्म, अधर्म, माकाश, काल और घटपटादि और जो उक्त दोनों द्रव्यों के ठहरने में सहायक होता है
रूप पुद्गल द्रव्य, जीव द्रव्य से पृथक है, इसमे किसी को वह प्रधम द्रव्य कहलाता है। पुद्गल द्रव्य मोर उसके सन्देह नही, परन्तु कर्म नौकर्म रूप जो पुद्गल वन्य जीव साथ मम्बद्ध जीव द्रव्य की गति तथा स्थिति को देखकर के साथ प्रनादिकाल से लग रहा है, उसमें अज्ञानी जीव उनके कारणभत धर्म प्रधर्म द्रव्य का पस्तित्व अनुभव मे
स्तित्व मनुभव म भ्रम में पड़ जाता है। वह इस पुद्गल द्रव्य मोर जीव पाता है। समस्त द्रव्यों के पर्यायों के परिवर्तन में जो
को पृथक्-पृथक् अनुभव न कर एक रूप ही मानता हैसहायक होता है उसे काल द्रव्य कहते है । पुद्गल के परि
जो शरीर है वही जीव है । पृथ्वी, जल, अग्नि पौर वायु वर्तित पर्याय दृष्टिगोचर होते है, इससे काल द्रव्य का । इन चार पदार्थों के संयोग से उत्पन्न हुई एक विशिष्ट पस्तित्व जाना जाता है। जो सब द्रव्यों को निवास देता प्रकार की शक्ति ही जीव कहलाती है। जीव नाम का है वह प्राकाश कहलाता है । इस तरह प्राकाश का भी
पदार्थ, इन पृथ्वी प्रादि पदार्थों से भिन्न पदार्थ नहीं है। मस्तित्व सिद्ध हो जाता है।
शरीर के उत्पन्न होने से जीव उत्पन्न होता है और जीवादि छह द्रव्यों में एक पुद्गल द्रव्य ही मूर्तिक शरीर के नष्ट हो जाने से जीव नष्ट हो जाता है। है-स्पर्श, रस, गन्ध पोर वर्ण से सहित होने के कारण जब जीव नाम का कोई पृथक पदार्थ ही नहीं है इन्द्रियग्राह्य-दृश्य है । शेष पांच द्रव्य प्रमूर्तिक है-रूपादि तब परलोक का अस्तित्व स्वतः समाप्त हो जाता है। से रहित होने के कारण इन्द्रियग्राह्य नहीं है। जीवद्रव्य, यह जीव विषयक भज्ञान का सबसे बृहद् रूप है । यह अपने ज्ञानगुण से सबको जानता है और पुद्गल द्रव्य चार्वाक का सिद्धान्त है। तथा दर्शनकारों ने इसे नास्तिक उनके जानने में माध्यम बनता है, इसलिए कोई द्रव्य दर्शनों में परिगणित किया है।
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भगवान महावीर को अग्यात्म-वेशना
मात्मा का स्वस्थ
जिसके साथ नौकर्म, द्रव्य कर्म, पौर भावकम प पर भनेक पदार्थों से भरे हुए विश्व मे पात्मा का पृथक् पदार्थ का संसर्ग हो रहा है ऐसा संसारी जीव अस्तित्व स्वीकृत करना प्रास्तिक दर्शनो की प्रथम भयिका अशुद्ध जीव कहलाता है और जिसके साथ उपर्युक्त परहै । प्रात्मा का अस्तित्व स्वीकृत करने पर ही अच्छे पदार्थ का ससर्ग नही है ऐसा सिद्ध परमेष्ठी शुद्ध जीव बरे कार्यो का फल तथा परलोक का अस्तित्व सिद्ध हो कहलाता है। प्रशुद्ध जीव उस सुवर्ण के समान है जिसमे सकता है। अमृतचन्द्र प्राचार्य ने प्रात्मा का अस्तित्व मन्य धातुमो के समिश्रण से प्रशुद्धता पा गई है पोर प्रदर्शित करते हुए कहा है
शुद्ध जोव उस सुवर्ण के समान है जिसमे से अन्य धातुओं प्रस्ति पुरुषश्चिदात्मा विवजित: स्पर्शगन्धरसवर्णः। का समिश्रण अलग हो गया है। जिस प्रकार चतुर गुणपर्य यसमवेतः समाहितः समृदयव्ययध्रौव्यः ।। स्वर्णकार की दृष्टि में यह बात अनायास मा जाती है
पुरुष-प्रात्मा है और वह चैतन्यस्वरूप है, स्पर्श, कि इस स्वर्ण मे अन्य द्रव्य का समिश्रण कितना है, उसी रस, गन्ध तथा वर्ण नामक पौद्गलिक गुणो से रहित है, प्रकार ज्ञानी जीव को दृष्टि में यह बात अनायास मा गुण और पर्यायो से तन्मय है तथा उत्पाद, व्यय पोर जाती है कि प्रात्मा में अन्य द्रव्य का संमिश्रण कितना ध्रौव्य से सहित है।
है और स्वद्रव्य का अस्तित्व कितना है। जिस पुरुष ने किसी भी पदार्थ का वर्णन करते समय प्राचार्यों ने
स्वद्रव्य-पात्मद्रव्य में मिले हए पर द्रव्य का अस्तित्व दो दृष्टियाँ अंगीकृत की है--एक दृष्टि स्वरूपोपादान प्रथक समझ लिया वह एक दिन स्वद्रव्य की सत्ता की है और दूसरी दृष्टि पररूपापोहन की। स्वरूपोपादान
से परद्रव्य की सत्ता को नियम से निरस्त कर देगा, यह की दृष्टि मे पदार्थ का अपना स्वरूप बताया जाता है
निश्चित है। मौर पररूपापोहन की दृष्टि मे पर पदार्थ से उसका
स्वभाव-विभाव पृथक्करण किया जाता है । पुरुष-मात्म चैतन्य रूप है,
शरीर को नौकम कहते हैं। यह नौ कर्म स्पष्ट हो यह स्वरूपोपादान दृष्टि का कथन है और स्पर्शादि से
पुद्गल द्रव्य को परिणति है, इसीलिए तो स्पर्श, रस, रहित है, यह पररूपापोहन दृष्टि का कथन है । देख,
गन्ध प्रौर वर्ण से सहित है। इससे प्रात्मा को पृथक तेरा मात्मा का चैतन्य स्वरूप है, ज्ञाता दृष्टा है और
अनुभव करना यह अध्यात्म की पहली सीढी है। उसके साथ जो शरीर लग रहा है वह पौद्गलिक पर्याय
ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्म, पोद्गलिक होने पर भी इतने है। यह जो स्पर्श रस, गन्ध तथा वर्ण अनुभव में प्राते
सूक्ष्म है कि वे इन्द्रियो के द्वारा जाने नहीं जा सकते । है वे उसी शरीर के धर्म है, उन्हे तू प्रात्मा नही समझ
साथ ही प्रात्मा के साथ इतने धुले-मिले हुए है। कि एक बैठना । यह तेरा मात्मा सामान्य विशेष रूप अनेक गुण
भव से दूसरे भव मे भी उसके साथ चले जाते है तथा स्वभाव भोर विभावरूप पर्यायो से सहित है। साथ उन द्रव्यकर्मों को प्रात्मा से पृथक् अनुभव करना यह ही परिणमनशील होने से उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से
अध्यात्म की दूसरी सीढी है। युक्त है।
द्रव्य कर्म के उदय से होने वाला विकार प्रात्मा के अध्यात्म शम का अर्थ
साथ इस प्रकार तन्मयीभाव को प्राप्त होता है कि अच्छे उपर्यक्त प्रकार से परपदार्थों से भिन्न प्रात्मा का प्रच्छे ज्ञानी जीव भी भ्रान्ति मे पर जाते है। अग्नि का अस्तित्व स्वीकृत करना अध्यात्म की प्रथम भूमिका है। स्पर्श उष्ण है तथा रूप भास्वर है, पर जब वह अग्नि 'मात्मनि इनि अध्यात्म' इस प्रकार प्रव्ययीभाव समास पानी में प्रवेश करती है तब अपने भास्वररूप को छोड. के द्वारा प्रध्यात्म शब्द निष्पन्न होता है और उसका अर्थ कर पानी के साथ इस प्रकार मिलती है कि सब लोग होता है प्रात्मा मे अथवा प्रात्मा के विषय में । प्रशुद्ध और उस उष्णता को पग्नि न मानकर पानी की मानने शुद्ध के मैद से जीव का परिणमन दो प्रकार का होता हैं। लगते है । 'पानी उष्ण है' यह व्यवहार उसी मान्यतामूलक
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४ वर्ष ३३, ०२
होने वाले
रागा
के
खूबी से
मिलते
है । इसी प्रकार द्रव्यकर्म के दिक विकारी भाव, प्रात्मा हैं कि अलग से उनका अस्तित्व अनुभव मे नहीं घाता तन्मयीभाव से म्रात्मा के साथ मिले हुए रागादिक विकारी मावों को आत्मा मे पृथक अनुभव करना अध्यात्म की तीसरी मीठी है ।
उदय में
साथ इस
धनेकान्त
ज्ञानी जीव स्वभाव और विभाव के अन्तर को समझता वह समझना है कि स्वभाव कही बाहर से नहीं आता, यह स्व मे सदा विद्यमान रहता है। दूसरे शब्दों में वह कहा जा सकता है कि स्वभाव का द्रव्य के साथ कालिक तन्मयीभाव रहता है और विभाव, वह कहलाता है जो स्व मे पर के निमित्त से उत्पन्न होता है। जब तक पर का संसर्ग रहता है तब तक वह विभाव रहना है और जब पर संगं छूट जाता है तब वह विभाव भी दूर हो जाता है । जैसे शीतलता पानी का स्वभाव है, वह कही बाहर से नही घानी परन्तु उष्णता पानी का विभाव है क्योंकि वह अग्नि के संसर्ग से भाती है। जब तक प्रग्नि का ससगं रहता है तब तक पानी में उष्णता रहती है और जब अग्नि का समर्ग दूर हो जाता है, तब उष्णता भी दूर हो जाती है। ज्ञान दर्शन प्रात्मा का स्वभाव है, यह कही बाहर से नही आता, परन्तु रागादिक विभाव है, क्योकि द्रव्यकम की उदयावल्या से उत्पन्न होते है मीर उसके नष्ट होत ही नष्ट हो जाते है । इसलिए उनके श्रात्मा के साथ कालिक तन्मयीभावना नहीं है। इस प्रकार परपदार्थ से भिन्न अपनी प्रात्मा के प्रस्तित्व का अनुभव करना अध्यात्म का प्रयोजन है । अध्यात्म बोर स्वरूप निर्भरता
परियति मानकर बाह्य पदार्थों में इष्ट-प्रनिष्ट की कल्पना
से दूर रहता है।
बुरा
ज्ञानी जीव विचार करता है कि मैंने जो भी अच्छाकर्म किया है उसी का फल मुझे प्राप्त होता है । दूसरे का दिया हुआ सुख-दुःख यदि प्राप्त होने लगे तो अपना किया हुआ कर्म व्यर्थ हो जाय । पर ऐसा होता नहीं है।
जानो जीव की यह बद्धा रहती है कि मैं पर पदार्थ से भिन्न मोर स्वकीय गुणपर्यायों से अभिन्न धात्मतत्व हू तथा उसी की उपलब्धि के लिए प्रयत्नशील हूं। इसकी उपलब्धि धनादि काल मे श्रुत परिचित घोर अनुभूत काम भोगबन्ध की कथा से नहीं हो सकती उसकी प्राप्ति तो पर पदार्थों से लक्ष्य हटाकर स्वरूपाविनिवेश
उपयोग अपने बाप में ही स्थिर करने से हो सकती है । अध्यात्म के सुन्दर उपवन मे विहार करने वाला पुरुष, बाह्य जगत से पराङ्मुख रहता है । वह पने ज्ञाता दृष्टा स्वभाव का हो बार-बार चिन्तन कर उनमें बाधा डालने वाले रागादि विकीर भावो को दूर करने का प्रबल प्रयत्न करता है । द्रव्यकर्म की उदयावस्था का निमित्त पाकर यद्यपि उसकी म्रात्मा में रागादि विकारभाव प्रगट हो रहे है, तथापि उसकी श्रद्धा रहती है कि यह तो एक प्रकार का तूफान है, मेरा स्वभाव नहीं है, मेरा स्वभाव तो प्रत्यन्तान्त पूर्ण वीतराग है, उसमें इष्ट-प्रनिष्टकी कल्पना करना मेरा काम नहीं है, मैं तो अस्पृष्ट तथा पर से सयुक्त हूं। प्रप्यात्म इसी आत्मनिर्भरता के मार्ग को स्वीकृत करता है ।
यद्यपि जीव की वर्तमनान मे बद्धस्पृष्टं दशा है और उसके कारण रागादि विकारी भाव उनके प्रस्तित्व में प्राप्त हो रहे हैं तथापि, अध्यात्म जीव के स्पृष्ट और उसके फलस्वरूप रागादिरहित - वीतराग स्वभाव की ही अनुभूति करता है स्वरूप की धनुभूति करना ही अध्यात्म का उद्देश्य है । प्रतः संयोगज दक्षा घोर संयोगज भावों की घोर से वह मुमुक्षु का लक्ष्य हटा देना चाहता है। उसका उद्घोष है कि हे मुमुक्षु प्राणी ! यदि शुभाशुभम् ।
ज्ञानी जीव अपने चिन्तन का लक्ष्य बाह्यपदार्थों को न बनाकर मात्मा को ही बनाता है। वह प्रत्येक कारणकलाप को प्रात्मा मे ही खोजता है। सुख-दुख हानि-लाभ संयोग-वियोग प्रादि के प्रसंग इस जीव को निरन्तर प्राप्त होते रहते हैं। मशानी जीव ऐसे प्रसग पर सुख-दुख का कारण अन्य पदार्थों को मानकर उनमें इष्ट घनिष्ट बुद्धि करता है, जबकि ज्ञानी जीव उन सभी का कारण अपनी १. स्वयं कृत कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते
परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा । प्रमितगति ।
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भगवान महावीर को मध्यात्म-देशना
तू अपने स्वभाव की पोर लक्ष्य नहीं करता है तो इस को प्रमुख तथा दूसरे को गौण कर विवक्षानुसार क्रम से सयोगज दशा भोर तज्जन्य विकारो को दूर करने का तेरा ग्रहण करता है । नयों का विवेचन करने वाले पाचार्यों ने पुरुषार्थ कैसे जागृत होगा?
उनका शास्त्रीय -मागमिक मोर प्राध्यास्मिक दृष्टि से ज्ञानी जीव, कर्म नौकर्म मोर भावकर्म से तो
विबेचन किया है। शास्त्रीय दृष्टि की नय विवेचन में मात्मा को पृथक् अनुभव करता ही है, परन्तु ज्ञेय ज्ञायक
नय के द्रव्याथिक तथा उनके नंगमादि सात भेद निरूपित भोर भव्य भावक भाव की अपेक्षा भी भात्मा को ज्ञेय
किये गये हैं और माध्यात्मिक दृष्टि को नय विवेचना में तथा भव्य से पृथक अनुभव करता है। जिस प्रकार दर्पण
उसके निश्चय तथा व्यवहार भेदों का निरूपण है। इस अपने मे प्रतिबिम्बित मयूर से भिन्न है उसी प्रकार मात्मा,
विवेचना मे द्रव्याथिक मोर पर्यायापिक, दोनों ही निश्चय अपने ज्ञान मे माये हए घट पटादि ज्ञेयो से भिन्न है मौर
मे समा जाते हैं और व्यवहार में उपचार कथन रह जिस प्रकार दर्पण ज्वालामो के प्रतिबिम्ब से संयुक्त होने
__ जाता है। पर भी तज्जन्य ताप से उन्मुक्त रहता है इसी प्रकार
शास्त्रीय दृष्टि में वस्तुरूप की विवेचना का लक्ष्य भात्मा, अपने मस्तित्व में रहने वाले सुख-दुःख रूप कर्म
रहता है और पाध्यात्मिक दृष्टि मे उस नय-विवेचना के के फलानुभव से रहित है। ज्ञानी जीव मानता है कि मैं'
द्वारा प्रात्मा के शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करने का अभिप्राय निश्चय से एक हूं, शुद्ध हू दर्शन ज्ञान से तन्मय हू, सदा
रहता है। जिस प्रकार वेदान्ती ब्रह्म को केन्द्र में रखकर मरूपी ह, अन्य परमाणु मात्र भी मेरा नही है। ज्ञानी
जगत् के स्वरूप का विचार करते हैं उसी प्रकार यह भी मानता है कि ज्ञान दर्शन लक्षण वाला एक
प्रध्यात्मिक दृष्टि प्रात्मा को केन्द्र में रखकर विचार शाश्वत प्रात्मा ही मेरा है, संयोग लक्षण वाले शेष समस्त
करती है। इस दृष्टि में शुद्ध-बुद्ध एक पात्मा ही परमार्थ भाव मुझसे बाह्य हैं।
सत् है भोर उसकी अन्य सब दशाएं व्यवहार सत्य है। इस प्रकार के भेद विज्ञान की महिमा बतलाते हुए इसलिए उस शुद्ध-बुद्ध प्रात्मा का विवेचन करने वाली भी प्रमुतचन्द्र सूरि ने समयसार कलश मे कहा है- दृष्टि को परमार्थ भोर व्यवहार दृष्टि को अपरमार्थ कहा
भेदविज्ञानत: सिद्धा सिद्धाः ये किल केचन । जाता है। तात्पर्य यह है कि निश्चय दृष्टि प्रात्मा के घर तस्यैव भावतो बद्धा-बद्धा ये किल केचन ॥
स्वरूप को दिखलाती है भोर व्यवहारदृष्टि अशुद्ध माज तक जितने सिद्ध हए है वे भेदविज्ञान से ही स्वरूप को। सिद्ध हुए हैं और जितने संसार मे बद्ध है वे सब भेद
अध्यात्म का लक्ष्य शुद्ध प्रात्मस्वरूप को प्राप्त करने विज्ञान के प्रभाव से ही बद्ध है।
का है, इसलिए वह निश्चय दृष्टि को प्रधानता देता है। अध्यात्म और नय व्यवस्था
अपने गुण पर्यायों से प्रभिन्न प्रास्मा के कालिक स्वभाव वस्तुस्वरूप का अधिगम-शान,प्रमाण पोर नय के को ग्रहण करना निश्चय वृष्टि का कार्य है और कर्म के द्वारा होता है। प्रमाण वह है जो पदार्थ में रहने वाले मिमित्त से होने वाली मात्मा की परिणति को ग्रहण परस्पर विरोधी दो धर्मों को एक साथ ग्रहण करता है करना व्यवहार दृष्टि का विषय है। निश्चय दृष्टि, प्रास्मा पौर नय वह है जो परस्पर विरोधी दो धर्मों में से एक मैं काम, क्रोध, मान माया, लोम, प्रादि विकारों को
-समयमार, कुन्दकुन्द
१. महमिक्को खुल सुद्धो दसणणाणमइमो सदा रूती।
विपत्ति मज्म किंचि वि अण्णं परमाणु मित्तपि ॥३।। २. एगो मे सासदो पप्पा णाणदंसणलक्षणों।
सेसा बहिरभवा भावा सम्बे संजोगलक्खणा ॥२॥
-मियमसार, कुन्दकुश्व
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अनेकान्त
स्वीकृत नही करतीं। चूंकि वे पुदगल के निमित्त से होते उससे घट का निर्माण नहीं हो सकता। फयितार्थ यह है हैं, प्रतः उन्हें पुद्गल मानती है, इसी तरह गुणस्थान कि घट की उत्पत्ति में मिट्टी रूप उपादान और कुन्भमार्गणा प्रादि के विकल्प को जीव के स्वभाव नही कहती। कारादि रूप निमित्त दोनों कारणों की मावश्यकता है। इन सब को प्रात्मा कहना व्यवहार दटि का कार्य है। इस अनुभवसिद्ध और लोकसंमत कार्य-कारण भाव का
अध्यात्म निश्चयष्टि-निश्चयनय को प्रधानता देता निषेध न करते हुए अध्यात्म, ममक्ष प्राणी के लिए यह है, इसका यह अर्थ ग्राह्य नही है कि वह व्यवहार दृष्टि देशना भी देता है कि तू प्रात्मशक्ति को सबसे पहले को सर्वथा उपेक्षित कर देता है। प्रात्मतत्व की वर्तमान में मभाल, यदि तू मात्र निमित्त कारणो की खोज-बीन मे जी प्रशुद्ध दशा चल रही है यदि उसका सर्वया निषेध किया उलझा रहा और अपनी प्रात्मशक्ति की ओर लक्ष्य नहीं जाता है तो उसे दूर करने के लिए मोक्षमार्गरूप पुरुषार्य किया तो उन निमित्त कारणो से तेरा कौन-सा कार्य सिद्ध व्यर्थ सिद्ध होता है। अध्यात्म की निश्चय दष्टि का अभि. हो जायेगा? जो किसान, खेत की भमि को तो खब प्राय इतना ही है कि हे प्राणी । तू इस प्रशुद्ध दशा को सभालता है परन्तु बीज की अोर दृष्टिपात नहीं करता, मात्मा का स्वभाव मत समझ। यदि स्वभाव समझ लेगा उम सभाली हुई खेत की भूमि मे यदि सड़ा घुना बीज तो उसे दूर करने का तेरा पुरुषार्थ समाप्त हो जायगा। डालता है उसमे क्या अंकुर उत्पन्न हो सकेंगे ? कार्यरूप प्रास्मद्रव्य शुद्धाशुद्ध पर्यायो का समूह है, उसे मात्र शुद्ध परिणति उपादान की होने वाली है इसलिए उसकी पोर पर्याय रूप मानना सगत नही है। जिस पुरुष ने वस्त्र की दृष्टि देना प्रावश्यक है। यद्यपि उपादान निमित्त नही मलिन पर्याय को ही वस्त्र का वास्तविक रूप समझ लिया बनता और निमित्त उपादान नही बनता यह निश्चित है, है वह उसे दूर करने का पुरुषार्थ क्यो करेगा? वस्तु तथापि कार्य की सिद्धि के लिए दोनो की अनुकूलता स्वरूप के विवेचन मे अनेकान्त का प्राश्रय ही स्व-पर अपेक्षित है इसका निषेध नही किया जा सकता। का अधिकारी है, प्रतः प्रध्यात्मवादी की दृष्टि उस पर अध्यात्म और मोक्ष मार्ग होना अनिवार्य है।
___ "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग" :-(तत्वार्थ अध्यात्म और कार्यकारण भाव
सूत्र) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र की एकता कार्य की सिद्धि मे उपादान मोर निमित्त इन दो मोक्ष का मार्ग है। इस मान्यता को अध्यात्म भी स्वीकृत कारणो को प्रावश्यकता रहती है। उपादान वह कहलाता करता है, परन्तु वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक है जो स्वय कार्यरूप परिणत होता है पौर निमित्त वह चारित्र की व्याख्या को निश्चयनय के साँचे में ढाल कर कहलाता है जो उपादान की कार्य रूप ररिणति मे सहायक स्वीकृत करता है उसको व्याख्या है-पर पदार्थों से भिन्न होता है। मिट्टी, घट का उपादान कारण है और ज्ञाता द्रष्टा मात्मा का निश्चय होना सम्यग्दर्शन है। पर कुम्भकार, चक्र, चीवर प्रादि निमित्त कारण है । पदार्थों से भिन्न ज्ञाता का ज्ञान होना सम्यग्ज्ञान है और
जिस मिट्टी मे बाल के कणो की प्रचुरता होने से पर पदार्थो से भिन्न ज्ञाता दृष्टा प्रात्मा मे लीन होना घटाकार परिणत होने की प्रावश्यकता नही है उसके लिए सम्यक चारित्र है। इस निश्चय अथवा प्रभेद रत्नत्रय की कुम्भकारादि निमित्त कारण मिलने पर भी उसे घट का की प्राप्त कर सकता है अन्यथा नहीं। इसलिये मोक्ष का निर्माण नही हो सकता । इसी प्रकार जिस स्निग्ध मिट्टी साक्षात् मागं यह निश्चय रत्नत्रय ही है। देवशास्त्र गुरु मे घटाकार परिणत होने की योग्यता है, उसके लिए यदि की प्रतीति अथवा सप्त तत्व के श्रद्धान रूप सम्यग्दर्शन, कुन्भकारादि निमित्त कारणों का योग नही मिलता है तो जीवादि तत्वों को जानने रूप सम्यग्ज्ञान और व्रत, समिति १. एए सम्वे भावा पुग्गलदम्बपरिणामणिप्पणा । केवलजिणेहि भणिया कह ते जीवो ति बच्चंति ॥४॥ २. व य जीवटाणा ण गुणट्ठाणा य अस्थि जीवस्स । जेण दु एदे सम्वे पुग्गलदम्बस्स परिणामा ॥५॥
-समयसार, कुन्दकुन्द
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भगवान महाबोर को मध्यात्म-देशमा
गुप्ति मादि पाचरण रूप सम्यक चरित्र-यह व्यवहार खास बात नहींहै किन्तु जो अजीवाश्रित परिणमन जीव के रत्नत्रय, यदि निश्चय रत्नत्रय की प्राप्ति में सहायक है साय बुलमिलकर भनित्य सम्बन्धी भाव से तादात्म्य तो वह परम्परा से मोक्षमार्ग होता है । व्यवहार रलत्रय जैसी प्रवस्था को प्राप्त हो रहे हैं उन्हें प्रजीब मानना की प्राप्ति भनेक बार हई परन्तु निश्चय रत्नत्रय की प्राप्ति सम्यक्त्व की प्राप्ति मे साधक है। रागादिक भाव अजीर के बिना वह मोक्ष का साधक नही बन सकी।
हैं, यह बात यहां तक सिद्ध की गई है। निश्चय रत्नत्रय प्रात्मा से सम्बन्ध रखता है। इसका यहाँ 'मजीव है इसका इतना ही तात्पर्य है कि वे अर्थ यह नहीं है कि वह मोक्षमार्ग में प्रयोजन भूत जीवा- जीव की स्वाभाविक परिणति नहीं। यदि जीव की जीवादि पदार्थों के श्रद्धान और ज्ञान को नथा व्रत समिति स्वभाव परिणति होती तो त्रिकाल मे भी इनका प्रभाव गुप्ति रूप पाचरण को हेय मानता है। उसका अभिप्राय नही होता, परन्तु जिस पौदगलिक कर्म की सवस्था में ये इतना ही है कि इन सब का प्रयोजन प्रात्मश्रद्धान, ज्ञान भाव होते है उसका प्रभाव होने पर स्वयं विलीन हो पौर प्राचरण मे ही सनिहित है अन्यथा नही। इसलिये जाते है। सबको करते हुए मूल लक्ष्य की पोर दृष्टि ररखना चाहिये। संसारचक्र से निकल कर मोक्ष प्राप्त करने के प्रभि
नव पदार्थों के अस्तित्व को स्वीकृत करते हुए लाषी प्राणी को पुण्य का प्रलोभन अपने लक्ष्य से भ्रष्ट कर कुन्दकुन्द स्वामी ने सम्यग्दर्शन की परिभाषा इस प्रकार देता है, इसलिये पानव पदार्थ के विवेचन के पूर्व ही इसे की है
सचेत करते हुए कहा गया है कि "हे ममक्ष प्राणी! तू भयत्येणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपार्व च। मोक्ष रूपी महानगर की यात्रा के लिये निकला है। देख, प्रासवसंवरणिज्जरबधो मोक्खो य सम्मत्त ॥१३॥ कही बीच मे पुण्य के प्रलोभन में नहीं पड़ जाना। यदि
मूलार्थ-निश्चय से जाने हुए जीव, मजीव, पुण्य, उसके प्रलोभन मे पड़ा तो एक झटके मे ऊपर से नीचे मा पाप, प्रास्रव, सवर, निर्जरा, बध मोर मोक्ष ये नो पदार्थ जायेगा पौर सागरो पर्यन्त के लिये उसी पुण्य महल में सम्यग्दर्शन हैं । यहाँ विषय और विषयी मे प्रभेद करते नजर कैद हो जायेगा । दया, दान, व्रताचरण पादि हुए नौ पदार्थों को ही सम्यग्दर्शन कह दिया है। वस्तुतः भाव लोक मे पुण्य कहे जाते है और हिंसादि पापों में ये मम्यग्दर्शन के विषय हैं।
प्रवृत्तिरूप भाव पाप कहे जाते है। पुण्य के फलस्वरूप __ जीव' चेतना गुण से सहित तथा स्पर्श, रस, गन्ध, पुण्य प्रकृतियो का बन्ध होता है और पाप के फलस्वरूप वर्ण मौर शब्द से रहित है। जीव के साथ प्रनादि काल पाप प्रकृतियो का। जब उन पुण्य पाप प्रकृतियो का उदयसे कर्म-नौकर्म रूप पुद्गल का सम्बन्ध चला भा रहा है। काल पाता है तब जीव को सुख-दुख का अनुभव होता मिथ्यात्वदशा मे यह जीव, शरीर रूप नो कर्म को परिणति है। परमाचं से विचार किया जाये तो पुण्य पोर पाप को प्रात्मा की परिणति मानकर उसमे अहंकार करता दोनों प्रकार की प्रकृतियों का बन्ध इस जीव को स है-"इस रूप में हूं' ऐसा मानता है। इसलिये सर्वप्रथम ही रोकने वाला है। स्वतन्त्रता की इच्छा करने वाला इसकी शरीर से पृथकता सिद्ध की जाती है। उसके बाद मनुष्य जिस प्रकार लोहशृंखला से दूर रहना चाहता है।" ज्ञानावरणादि द्रव्य कम और रागादि भाव कर्मों से सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के इच्छुक प्राणी को बन्धन इसका पृथकत्व दिखाया जाता है। कहा गया है-हे की अपेक्षा पुण्य और पाप को एक ममान मानना भावभाई ! ये सब पुद्गल द्रव्य के परिणमन से निष्पन्न हैं, तू श्यक है सम्यग्दर्शन, पुण्य रूप माचरण का निषेध नहीं इन्हे जीव क्यो मान रहा है ?
करता किन्तु उसे मोक्ष का साक्षात् कारण मानने का जो स्पष्ट ही मजीव है उनके पजीब कहने में कोई निषेध करता है। सम्यग्दष्टि जीव, अपने पद के अनुरूप १. परसमलवग, प्रवत्त चेदणामुणमसह ।
जाण पलिंगरगहणं जीवनणिट्ठि संठाण ॥४६॥ -समयसार, कुन्दकुन्द
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५, बर्ष १३, कि. १
अनेकान्त
पुण्याचरण करता है और उसके फलस्वरूप प्राप्त हुए इन्द्र, वृक्ष को उखाड़ना है तो उसके पत्ते नोंचने से काम नहीं चक्रवर्ती प्रादि के वैभव का उपभोग भी करता है, परन्तु चलेगा, किन्तु उसकी जड़ पर प्रहार करना होगा। रागश्रद्धा में यही भाव रखता है कि हमारा यह पुण्याचरण द्वेष की जड़ है भेद विज्ञान का प्रभाव । प्रतः भेदविज्ञान के मोक्ष का साक्षात् कारण नहीं है और उसके फलस्वरूप द्वारा उन्हे अपने स्वरूप से पृथक समझना, यही उनको जो वैभव प्राप्त होता है वह मेरा स्वपद नही है। नष्ट करने का वास्तविक उपाय है। मोक्षाभिलाषी जीव
संक्षेप में जीव द्रव्य की दो अवस्थायें है-एक ससारी को इस भेदविज्ञान की भावना तब तक करते रहना चाहिये भौर दूसरी मक्त। इनमे संसारी अवस्था अशुद्ध होने से जब तक कि ज्ञान, ज्ञान में प्रतिष्ठित नही हो जाता। हेय है और मक्त अवस्था शुद्ध होने में उपादेय है। ससार सिद्धों के प्रनन्तवें भाग और प्रभव्य राशि से अनन्त का कारण प्रास्रव और बन्ध तत्व है तथा मोक्ष प्रवस्था गुणित कर्म परमाणुगों की निर्जरा संसार के प्रत्येक प्राणी का कारण सवर और निर्जरा है। प्रात्मा के जिन भावों के प्रति समय हो रही है, पर ऐसी निर्जरा से किसी का से कम माते है उन्हे मानव कहते है। ऐसे भाव चार हैं कल्याण नहीं होता, क्योकि जितने कर्म पर परमाणुप्रो को १ मिथ्यात्व, २ अविरमण, ३ कषाय और ४ योग । इन निर्जरा होती है उतने ही कम परमाण मानवपूर्वक बन्ध भावों का यथार्थ रूप समझकर उन्हें पारमा से पृथक करने को प्राप्त हो जाते है। कल्याण, उस निर्जरा से होता है का पुरुषार्थ सम्यग्दृष्टि जीव के ही होता है।
जिसके होने पर नवीन कर्म परमाणु पो का प्रास्रव और प्रास्रवतत्व का विरोधी तत्व सबर है प्रत अध्यात्म बन्ध नहीं होता। ऐसी निर्जरा सम्यग्दर्शन होने पर ही ग्रन्थो मे प्रास्रव के प्रनन्तर संवर की चर्चा पाती है।' होती है। भास्रव का रुक जाना सवर है। जिन मिथ्यात्व, अविर- सम्यग्दर्शन होने पर सम्यग्दष्टि जीव का प्रत्येक मण, कषाय और योग रूप परिणामो से प्रास्रव होता है कार्य निजंरा का साधक हो जाता है। वास्तव मे सम्यग्दृष्टि उनके विपरीत सम्यक्त्व, सयम निष्कषाय वृत्ति और योग जीव के ज्ञान और वैराग्य को अदभुत सामर्थ्य है। जिस निग्रह रूप गुप्ति से संवर होता है मध्यात्म मे इस संवर प्रकार विष का उपभोग करता हा वंद्य मरण को प्राप्त का मूल कारण भेदविज्ञान को बताया है। कर्म और नो. नही होता और प्रतिभाव से मदिरा पान करने वाला कर्म तो स्पष्ट ही प्रात्मा से भिन्न है, अतः उनसे भेद- पुरुष मद को प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि विज्ञान प्राप्त करने मे महिमा नही है। महिमा तो उन जीव भोगोपभोग मे प्रवृत्ति करता हुमा भी बन्ध को रागादिक भाव कमो से अपने ज्ञानोपयोग को भिन्न करने प्राप्त नहीं होता। सुवर्णदतीचड़ मे पड़ा रहने पर भी में है, जो तन्मयी भाव को प्राप्त होकर एक दिख रहे है। जंग को प्राप्त नही होता और लोहा थोडी मी सदं पाकर मिथ्यादष्टि जीव, इस ज्ञानधारा पीर मोहवाग को भिन्न- जंग को प्राप्त नहीं हो जाता है। यह सुवर्ण और लोहा की भिन्न नहीं समझ पाता, इसलिये वह किसी पदार्थ का अपनी-अपनी विशेषता है। ज्ञान होने पर उसमे तत्काल राग-द्वेष करने लगता है, यद्यपि प्रात्मा और पौदगलिक कर्म दोनों ही स्वतन्त्र परन्तु सम्यग्दष्टि जीव उन दोनो पाराम्रो के अन्तर को द्रव्य है और दोनों में चेतन अचेतन की अपेक्षा पूर्व-पश्चिम समझता है इसलिए वह किसी पदार्थ को देखकर उमका । जैसा अन्तर है, फिर भी अनादिकाल से इनका एक क्षेत्रावगाह ज्ञाता द्रष्टा तो रहता है परन्तु रागी-द्वेषी नही होता। रूप संयोग बना रहा है। जिस पकार चुम्बक मे लोहा जहाँ यह जीव, रागादि को अपने ज्ञाता द्रष्टा स्वभाव मे को खींचने की और लोहा मे खिच जाने की योग्यता है अनुभव करने लगता है वही उनके सम्बन्ध से होने वाले उसी प्रकार प्रात्मा मे कर्म रूप पुद्गल को खीचने की राग-द्वेष से बच जाता है ।।
और कर्म रूप पुद्गल में खिचे जाने की योग्यता है। राग-द्वेष से बच जाना ही सच्चा संवर है। किसी अपनी अपनी योग्यता के कारण दोनों का एक क्षेत्रावगाह १. पाश्रवनिरोधः संवरः । तत्वार्थ सूत्र-गपिच्छाचार्य
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भगवान महावीर मध्यात्म-शाना
रूप बष हो रहा है। इस बांध का प्रमुल कारण स्नेह-माव कर्मबन्धन से मुक्त नही हो पाता, परन्तु उस बवान पौर रागभाव है। जिस प्रकार पुलिबल स्थान में व्यायाम शान के साथ जहाँ सम्यक चरित्र रूप पुरुषार्च को करने वाले पुरुष के शरीर के साथ जो धूलि का सम्बन्ध अंगीकृत करता है वहाँ तेरा काम बनने में बिलम्ब नहीं होता है उसमें प्रमुख कारण शरीर में लगा हुमा स्नेह है, लगता। यहां तक कि अन्तमहूर्त में भी काम बन जाता उसी प्रकार कार्मणवर्गणा से भरे हुए इस संसार में योग है। प्रज्ञा-भेदविज्ञान के द्वारा कर्म धौर भास्मा को अलगरूप व्यायाम को करने वाले बीब के साथ जो कर्मों का
अलग समझकर पात्मा को ग्रहण करना चाहिये पोर सम्बन्ध होता है उसमें प्रमुख कारण उसकी भात्मा में
कर्म को छेदना चाहिये।
ही विद्यमान स्नेह रागभाव ही है।
इस प्रकार प्रध्यात्म, जीवाजीवादि पदार्थों की व्याख्या सम्यग्दृष्टि जीव बग्ध के इस वास्तविक कारण को
अपन ढग से करता है। समझता है इसलिये वह उसे दूर कर निबंध अवस्था को
सम्यग्ज्ञान की व्याख्या में अध्यात्म, अनेक शास्त्रों प्राप्त होता है, परन्तु मिध्यादष्टि जीव इस वास्तविक
के ज्ञान को महत्व नहीं देता। उसका प्रमुख लक्ष्य पर कारण को नहीं समझ पाता इसलिये करोड़ो वर्ष की
पदार्थ से भिन्न पौर स्वकीय गुण पयर्यायों से भिन्न तपस्या के द्वारा भी वह निबंध प्रवस्था को प्राप्त नहीं
मात्मतत्व के ज्ञान पर निर्भर करता है। इसके होने पर कर पाता। मिथ्यादृष्टि जीव कर्म का माचरण तपश्चरण
प्रष्टप्रवचनमातृका जघन्य श्रुत लेकर भी यह जीव बारहवें मादि करता भी है परन्तु उसका वह धर्माचरण भोगोपभोग गुणस्थान तक पहुंच जाता है और अन्तर्मुहतं के भीतर की प्राप्ति के उद्देश्य से होता है, कर्मक्षय के लिये नहीं।। नियम से केवलज्ञानी बन जाता है। परन्तु पात्म ज्ञान.
समस्त कर्मों से रहित पात्मा की जो अवस्था है उसे के बिना ग्यारह भग और नो पूर्वो का पाठी होकर भी मोक्ष कहते हैं। मोक्ष शब्द ही इसकी पूर्व होने वाली बंध अनन्त काल तक संसार में भटकता रहता है । मन्य ज्ञानों पवस्था का प्रयत्न करता है। जिस प्रकार चिरकाल से की बात जाने दो, अध्यात्म तो केवलज्ञान के विषय में बन्धन में पडा हुमा पुरुष बन्ध के कारणों को जानता है भी यह पर्चा प्रस्तुत करता है कि केवलज्ञानी निश्चय से तथा बन्ध के भेद और उनकी तीव्र मन्द व मध्यम प्रात्मा को जानता है और व्यवहार से लोकालोक को। अवस्था की श्रद्धा भी करता है, पर इतने मात्र से वह यह ठीक है कि केवलज्ञानी की पात्मज्ञान मे ही सर्वज्ञता बन्धन से मुक्त नही हो सकता। बन्धन से मुक्त होने के निहित है, परन्तु यह भी निश्चित है कि केवलज्ञानी को लिये तो छैनी और हथौड़ा लेकर उसके छेदन का पुरुषार्थ अन्य पदार्थों को जानने की इच्छारूप कोई विकल्प नहीं करना पड़ता है। इसी प्रकार प्रनादि काल के कर्मबन्धन होता। 7 पड़ा हुमा यह जीव कर्मबन्धन के कारणों को जानता है पध्यात्म, यथास्यात चरित्र को ही मोक्ष का साक्षात् तथा उसके भेद और तीव्र मन्द व मध्यम अवस्था की कारण मानता है, क्योंकि उसके होने पर ही मोम होता श्रा भी करता है पर इतने मात्र से बह कर्मबन्धन से है। महाव्रत और समिति के विकल्परूप जो सामायिक तथा मुक्त नहीं हो सकता। उसके लिये तो सम्यग्दर्शन और छेदोपस्थाना प्रादि चारित्र है वे पहले ही निवत हो जाते सम्यग्ज्ञान के साथ होने वाला सम्यकरित्र रूप पुरुषार्थ हैं प्रौपशमिक यथास्यात चरित्र मोम का सामात् साधक करना पड़ता है। इस पुरुषार्थ को स्वीकृत किये बिना नहीं है। उसे धारण करने वाला उपशाम्त मोह गुणकर्मबन्धन से मुक्त होना दुर्लभ है।
स्थानवी जीव नियम से अपनी भूमिका से पतित होकर हे प्राणी! मात्र ज्ञान और श्रद्धा के लिये हुये बेरा नीचे पाता है, परन्तु भय से होने वाला यथास्यात चारित्र सागरों पर्यन्त का दीर्घकाल यों ही निकल जाता है परन्तु मोम का सापक नियम से है। उसके होने पर यह बीव १. सदहदि य पत्तेदिय रोदि य तह पुणो य फासे दि । धम्म मोगणिमित्तं ण दु सो कम्यक्खयर्याणमित्त ।२७५॥
-समयसार कुन्कुन्द
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१०,
३३, कि.२
अनेकान्त
उसी मब से मोक्ष को प्राप्त करता है : स्वरूप मे स्थिरता प्रस्तुत करते हुए पागम के व्यवहार पक्ष को भी प्रकट यथाश्यात चारित्र से ही होती है।
करते चलते हैं। इस प्रकार अध्यात्म की देशना में निश्चय रत्नत्रय
कुन्दकुन्द के बाद हम इस अध्यात्मदेशना को पूज्यपाद अथवा भमेदरस्नत्रय ही मोक्ष का साक्षात् मार्ग है। के समाधितन्त्र, इष्टोपदेश में पुष्कलता से पाते हैं। योगीन्द्र व्यवहार रत्नत्रय अथवा भेदरूप रत्नत्रय, निश्चय का देव का परमात्माप्रकाश और योगसार भी इस विषय के साधक होने के कारण उपचार से मोक्षमार्ग माना जाता है। महत्वपूर्ण ग्रन्थ हैं। प्रकीर्णक स्तम्भ के रूप में प्राचार्य __ महावीर स्वामी की प्रध्यात्मदेशना को सर्वप्रथम पद्मनन्दी तथा पण्डितप्रवर माशाधर जी ने भी इस धारा कन्दकन्द स्वामी ने अपने ग्रन्थों में महत्वपूर्ण स्थान दिया को समुचित प्रश्रय दिया है। प्रमतचन्द्रसूरि ने कुन्दकुन्द है। उनका समयसार तो अध्यात्म का ग्रन्थ माना ही स्वामी के अध्यात्म रूप उपवन की सुरभि से ससार को जाता है, पर प्रवचनसार, पचास्तिकाय, नियमसार तथा सुरभित किया है यशस्तिलकचम्पू तथा नीति-वाक्यामृत प्रष्ट पाहर मादि ग्रन्थों में भी यथाप्रसग अध्यात्म का के कर्ता सोमदेवाचार्य की प्रध्यात्मामततरंगिणी भी इस अच्छा समावेश हुमा है । कुन्कुन्द स्वामी की विशेषता यह विषय का एक उत्तम ग्रन्थ है। रही है कि वे अध्यात्म के निश्चयनर सम्बन्धी पक्ष को १. जाणदि पस्सदि सव्वं वबहारणयेण केवली भगवं । केवलणाणी जाणदि पस्सदि नियमेण पप्पाणं ।१५६।
नियमसार, कुन्दकुन्द भागवत में भगवान ऋषभदेव भारतीय रहस्यवाद के विकास की रूपरेखा देते हुए प्रार. वणित सुख की सभी अवस्थामों पर कैसे उन्होंने अंततोडी. रानाडे ने भागवत पुराण, (स्कंद ५ श्लोक ५-६) गत्वा संकल्प किया शरीर पर विजय पाने का ; जब से एक अन्य प्रकार के योगी का मनोरजन प्रसग उदघत उन्होंने भौतिक शरीर मे अपने सूक्ष्म शरीर को विलीन किया है जिसकी परम विहता हो उसकी प्रास्मानुभूति करने का निश्चय किया उस समय वे कर्नाटक तथा अन्य का स्पष्टतम प्रमाण था। उधरण यह है : 'हम पढ़ते
प्रदेशों में भ्रमण कर रहे थे ; वहाँ दिगम्बर, एकाकी है कि अपने पुत्र भरत को पृथ्वी का राज सौपकर किस
पोर उन्मत्तवत् भ्रमण करते समय वे बांस के झरमट से प्रकार उन्होंने संसार से निलिप्त भोर एकांत जीवन बिताने
उत्पन्न भीषण दावानल की लपटों मे जा फसे थे मौर का निश्चय किया ; कैसे उन्होंने एक अघ, बहरे या गूगे
तब किस प्रकार उन्होंने अपने शरीर का अंतिम समर्पण मनष्य का जीवन बिताना प्रारम्भ किया; किस प्रकार व प्रग्निदेव को कर दिया था। यह विवरण वस्तुतः जैन नगरों और प्रामो में, खानो और उद्यानो मे, वनों और पर्वतो मे समान मनोभाव से रहने लगे; किस प्रकार उन्होने
परम्परा के अनुरूप है जिसमें उनके प्रारंभिक जीवन के उन लोगों से घोर अपमानित होकर भी मन मे विकार न
अन्य विवरण भी विद्यमान हैं। कहा गया है कि उनकी पाने दिया जिन्होंने उन पर पत्थर और गोबर फेंका या दो हस्नियां थी-सुमगला मोर सुनन्दा; पहली ने भरत उन पर मत्र-स्याग किया या उन्हे सभी प्रकार से तिरस्कार मौर ब्राह्मी को जन्म दिया और दूसरी ने बाहुबली पोर का पात्र बनाया, यह सब होते हुए भी किस प्रकार उनका सन्दरी को। सुनन्दा ने और पढ़ानवें पुत्रों को जन्म दीप्त मुखमण्डल पोर पुष्ट सुगठित शरीर, उनके सबल दिया। इस परपरा से हमें यह भी ज्ञात होता है कि हस्त और मुस्कराते होठ राजकीय पन्त पुर की महिलापों ऋषभदेव बचपन मे जब एक बार पिता की गोद में बैठे को प्राकृष्ट करते थे ; वे अपने शरीर से किस सीमा तक सभी शव में दक्ष (गन्ना लि हो पाया। गाने को निर्मोह ये कि थे उसी स्थान पर मलत्याग कर देते जहाँ देखते ही ऋषमदेव ने उसे लेने के लिए अपना मांगलिक वे भोजन करते, तथापि, उनका मन कितना सुगधित था लक्षणों से युक्त हाथ फैला दिया, बालक की इनु के प्रति कि उसके दस मील पासपास का क्षेत्र उससे सुवासित हो पभिरुचि देखकर इन्द्र ने उस परिवार का नाम इक्ष्वाकु उठता; कितना पटल प्रषिकार था उनका उपनिषदों मे रख दिया।
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प्राकृत साहित्य में समता का स्वर
हा प्रेमसुमन जैन प्राकृत साहित्य कई दृष्टियों से सामाजिक और प्राकृतों के शब्द ही प्राकृत साहित्य में प्रयुक्त नहीं हुए हैं माध्यात्मिक क्षेत्र से समता का पोषक है। इस साहित्य प्रपितु लोक में प्रचलित उन देशज शब्दों की भी प्राकृत की प्राधार शिला ही समता है क्योंकि भाषागत, पात्रगत साहित्य मे भरमार है जो पाज एक शब-सम्पदा के रूप एवं चिन्तन के धरातल पर समत्वबोध के अनेक उदाहरण में विद्वानों का ध्यान पाकर्षित करते हैं। दक्षिण भारत प्राकृत साहित्य में उपलब्ध हैं।
की भाषामों में कन्नड़ तमिल प्रादि के अनेक शम्द प्राकृत बन-भाषामों का सम्मान:
साहित्य में प्रयुक्त हुए है । संस्कृत के कई शब्दो का प्राकृतीभारतीय साहित्य के इतिहास में प्रारम्भ से ही सस्कृत करण कर उन्हें अपनाया गया है। प्रतःप्राकत साहित्य में भाषा को प्राधिक महत्व मिलता रहा है । सस्कृत की शब्दो मे यह विषमता स्वीकार नही की गयी है कि कुछ प्रधानता के कारण जन सामान्य की भाषामों को प्रारम्भ विशिष्ट शब्द उच्च श्रेणी के है कुछ निम्न श्रेणी के कुछ ही मे वह स्थान नहीं मिल पाया जिसकी वे अधिकारिणी थी। शब्द परमार्थ का ज्ञान, करा सकते हैं कुछ नहीं। इत्यादि। प्रतः साहित्य-सृजन के क्षेत्र मे भाषागत विषमता ने कई शिष्ट और लोक का समम्पय:विषमतामों को जन्म दिया है। प्रबद्ध और लोक-मानस प्राकृत साहित्य कथावस्तु भोर पात्र-चित्रण की दृष्टि के बीच एक अन्तराल बनता जा रहा । प्राकृत सहित्य के से भी समता का पोषक है । इस साहित्य की विषय वस्तु मनीषियों ने प्राकृत भाषा को साहित्य मोर चिन्तन के में जितनी विविधता है, उतनी पोर कहीं उपलब्ध नहीं घगतल पर सस्कृत के समान प्रतिष्ठा प्रदान की। इससे है। सस्कृत मे वैदिक साहित्य की विषय वस्तु का एक भाषागत समानता का सूत्रपात्र हुमा और संस्कृत तथा निश्चित स्वरूप है । लौकिक सस्कृत साहित्य के ग्रन्थो मे प्राकृत, समान्तर रूप से भारतीय साहित्य और आध्यात्म आभिजात्य वर्ग के प्रतिनिधित्व का ही प्राधान्य है । महाकी संवाहक बनी।
भारत इसका अपवाद है, जिसमें लोक पोर शिष्ट दोनो प्राकृत साहित्य का क्षेत्र विस्तृत है। पालि, अर्घ- वर्गों के जीवन की झांकियां है किन्तु भागे चलकर संस्कृत मागधी, अपभ्रंश आदि विभिन्न विकास की दशामों से मे ऐसी रचनायें नहीं लिखी गयी। राजकीय जीवन पोर गुजरते हुए प्राकृत साहित्य पुष्ट हुमा है। प्राकृत भाषा के सुख समृद्धि के वर्णक ही इस साहित्य को भरते रहे, साहित्य में देश की उन सभी जन बोलियों का प्रतिनिधित्व कुछ अपवादों को छोड़कर। हमा है, जो अपने-अपने समय में प्रभाववाली थीं। प्रतः प्राकृत साहित्य का सम्पूर्ण इतिहास विषमता से समता प्रदेशगत एवं जातिगत सीमामों को तोड़कर प्राकृत की पोर प्रवाहित हमा है। उसमे राजापों को कपाएं है साहित्य ने पूर्व से मागषी उत्तर से शौरसेनी पश्चिम से तो लकड़हारों और छोटे-छोटे कर्म शिल्पियो की भी। बुद्धिपैशाची दक्षिण से महाराष्ट्री प्रादि प्राकृतों को सहर्ष मानों के ज्ञान की महिमा का प्रदर्शन है तो मोले पज्ञानी स्वीकार किया है.किसी साहित्य में भाषा की यह विविधता पात्रों की सरल भंगिमाएं भी हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय जाति उसके समत्वबोष को ही द्योतक कही जायेगी।
के पात्र कथानों के नायक है तो शुद्ध और वैश्य जाति के बामगत-समता:
__ साहसी युवकों की गौरवगापा भी इस साहित्य में वर्णित माषागत ही नहीं, अपितु शब्दगत समानता को भी है। ऐसा समन्वय प्राकृत के किसी भी अन्य में देखा जा प्राकृत साहित्य में पर्याप्त स्थान मिला है। केवल विभिन्न सकता है। 'कुवलयमालाकहा, और समराइन्धकहा, इस
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१२, बर्ष ३३, कि०१
अनेकान्त
प्रकार की प्रतिनिधि रचनाएं हैं। नारी और पुरुष पात्रों सामायमा तस्सो प्रयाण भएकसए। का विकास भी किसी विषमता से माकान्त नहीं है इस
-१-२-२-१७॥ साहित्य में मनेक ऐसे उदाहरण उपलब्ध हैं जिनमें पुत्र पतः अभय से समंता का सूत्र प्राकृत प्रन्यों ने हमें पौर पूत्रियों के बीच कोई दीवार नहीं खड़ी की गयी है। दिया है वस्तुतः जब तक हम अपने को भयमुक्त नहीं बेटी और बह को समानता का दर्जा प्राप्त रहा है । प्रतः करेंगे तब तक दूसरों को समानता का दर्जा नहीं दे सकते। सामाजिक पक्ष के जितने भी दृश्य प्राकृत साहित्य मे प्रतः पास्मा के स्वरूप को समझकर राग द्वेष से ऊपर उपस्थित किए हैं। उनमें निरन्तर यह भादशं सामने उठना ही अभय मे जीना है, समता की स्वीकृति है। रखा गया है कि समाज में समता ।
विषमता की जननी व्यक्ति का पहंकर भी है। पदापों प्राणीमात्रकी समता:
की प्रज्ञानता से पहंकार का जन्म होता है। हम मान में माध्यात्मिक क्षेत्र में समता के विकास के लिए प्राकृत प्रसन्न और पपमान में क्रोषित होने लगते हैं और हमारा साहित्य का अपूर्ण योगदान है। प्राणी मात्र को समता ससार दो खेमों में बंट जाता है। प्रिय और प्रप्रिय की की दृष्टि से देखने के लिए समस्त भास्मानों के स्वरूप प्रोलियन जा को क माना गया है। देहगत विषमता कोई अर्थ नही करते हैं। 'दसर्वकालिक का सूत्र है कि जो बन्दना न करें रखती है यदि जीवगत समानता की दिशा मे चिन्तन उस पर कोप मत करो और वन्दना करने पर उत्कर्ष करने लग जाए । सब जीव समान है इस महत्वपूर्ण तथ्य (धमड) में मत पामोको स्पष्ट करने के लिए प्राकृत साहित्य मे पनेक उदाहरण जैन बनेन से कुप्पे विमो न समुफ से। दिए गये हैं। परिमाण की दृष्टि से सब जीव समान हैं।
-५-२.३०। मान की शक्ति सब जीवो मे समान है जिसे जीव अपने- तो तुम सम धारण कर सकते हो।
ने प्रयत्नो से विकसित करता है । शारीरिक विषमता प्रप्रतिबद्धता : समता:पदगलो की बनावट के कारण हैं। जीव पोद्गलिक है समता के विकास में एक बाधा यह बहुत भाती है प्रतः सब जीव समान है। देह पोर जीव में भेद-दर्शन कि व्यक्ति स्वयं को दूसरों का प्रिय अथवा पप्रिय करने की दष्टि को विकसित कर इस साहित्य ने बंषम्य की वाला समझने बगता है। जिसे वह ममत्व की दृष्टि से समस्या को गहरायी से समाधित किया है । परमात्मप्रकाश देखता है उसे सुरक्षा प्रदान करने का प्रयत्न करता है में कहा गया है कि जो व्यक्ति देह भेद के माधार पर मोर जिसके प्रति उसे देष पैदा हो गया है, उसका वह जीवो मे भेद करता है, वह दर्शन ज्ञान, चारित्र को जीव मनिस्ट करना चाहता है । प्राकृत साहित्य में इस दृष्टि से का लक्षण नहीं मानता । यथा
बहुत सतर्क रहने को कहा गया है। किसी भी स्थिति या बेहिविभेदय जो कुणा जीवह भेट विचित् । व्यक्ति के प्रति प्रतिबद्धता समता का हनन करती है पता
सो विलपमण मणई तहसण-जाण-चरित ॥१.२॥ 'भगवती पाराधना' में कहा गया है कि सब वस्तुमो से अभय से समस्य:
जो मप्रतिबद्ध है (ममत्वहीन) वही सब जगह समता को विषमता की जननो मूल रूप से भय है। अपने शरीर प्राप्त करता हैपरिवार धन पादि सबकी रक्षा के लिए ही व्यक्ति पौरों सम्बस्म अपरिबयो उवि सम्बत्य समभा। की अपेक्षा अपनी पधिक सुरक्षा का प्रबन्ध करता है और
(म.पा. १६८१) धीरे-धीरे विषमता की खाई बढ़ती जाती है। इस तथ्य समता सर्वोपरि:को ध्यान में रखकर ही 'सूत्रकृताग' में कहा गया है कि समता की साधना को प्राकृत भाषा के मनीषियों ने समता उसी के होती है जो अपने को प्रत्येक भय से मलग ऊंचा स्थान प्रदान किया है। अभय की बात कहकर
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सम्राट्र मुहम्मद तुगलक और महान जैन शासन - प्रभावक श्री जिनप्रभ सूरि
जैन ग्रन्थों में जैन शासन की समय-समय पर महान् प्रभावना करने वाले माठ प्रकार के प्रभावक पुरुषों का उल्लेख मिलता है। ऐसे प्रभावक पुरुषों के सम्बन्ध में प्रभावक परित्रादि महत्वपूर्ण ग्रन्थ रचे गये हैं। घाठ प्रकार के प्रभावक पुरुष इस प्रकार माने गए है - प्रावचनिक धर्मकथी, वादी, नैमित्तिक, तपस्वी, विद्यावान्, सिद्ध पौर कवि । इन प्रभावक पुरुषों ने घपने असरबारण प्रभाव से प्रापति के समय जैन शासन की रक्षा की, राजा-महाराजा एवं जनता को जैन धर्म को प्रतिबोध द्वारा शासन की उन्नति की एव शोभा बढाई । धार्यरक्षित प्रमयदेवसूरि को प्रावनिक, पादलिप्तसूरि को कवि, विद्याबली पोर सिद्धविजयदेवसूरि व जीवदेवसूरि को सिद्ध, मल्लवादी वद्धवादी औौर देवसूरि को वादी, बप्पभट्टिसूरि, मानतुंगसूरि को कवि, सिद्धर्षि को धर्मकथी महेन्द्रसूरि को नैमित्तिक प्राचार्य हेमचन्द्र को प्रावचनिक धर्मकथी और कवि प्रभावक, 'प्रभावक चरित्र' को मुनि कल्याण विजय जी की महत्वपूर्ण प्रस्तावना मे बतलाया गया है ।
खरतरगच्छ मे भी जिनेश्वरसूरि प्रभयदेवसूरि, जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तमूरि, मणिबारी- जिन चन्द्रसूरि, मौर जिनपतिसूरि ने विविध प्रकार से जिन शासन की प्रभावना की है। जिनपतिसूरि के पट्टषर जिनेश्वरसूरि के दो महान् पट्टषर हुए- जिनप्रबोधसूरि तो घोसवाल और जिनसिंहरि श्रीमाल संघ मे विशेष धर्म प्रचार करते रहे। इसलिए इन दो प्राचायों से खरतरगच्छ की दो शाखाएं अलग हो गई। जिनसिंहसूरि की शाखा का नाम खरतर लघु प्राचार्य प्रसिद्ध हो गया, जिनके शिव्य एवं पट्टधर जिनप्रसूरि बहुत बड़े शासन प्रभावक हो गए हैं, जिनके सम्बन्ध में भारतीय इतिहासकारो व साधारणतया लोगों - को बहुत ही कम जानकारी है। इसलिए यहाँ उनका
श्री प्रगरचन्द नाहटा, बीकानेर
प्रावश्यक परिचय दिया जा रहा है ।
वृद्धाचायं प्रबम्बावली के जिनप्रभसूरि प्रबन्ध में प्राकृत भाषा मे जिनप्रभसूरि का प्रच्छा विवरण दिया गया है, उनके अनुसार ये मोहिल बाड़ी- लाडनू राजस्थान के श्रीमाल ताम्बी गोत्रीय श्रावक महाघर के पुत्र रत्नपाल की धर्म पत्नी खेतलदेवी की कुक्षि से उत्पन्न हुए थे। इनका नाम सुभटपाल था । सात माठ वर्ष को बाल्यावस्था में ही पद्मावती देवी के विशेष संकेत द्वारा श्री जिनसिहरि ने उनके निवास स्थान मे जाकर सुभटपाल को दीक्षित किया सूरि जी ने अपनी धायु प्रत्पज्ञात कर सं० १३४१ कढवाणा नगर में इन्हे प्राचार्य पद देकर अपने पट्टपर स्थापित कर दिया। 'उपदेश सप्ततिका' में जिनप्रभसुरि सं० १३३२ मे हुए लिखा है, यह सम्भवतः जन्म समय होगा। थोड़े ही समय में जिनसिंह सूरि जी ने जो पद्मावती प्राराधना की थी वह उनके शिष्य - जिनप्रभसूरि जी को फलवती हो गई और आप व्याकरण, कोश, छंद, लक्षण, साहित्य, न्याय, षट्दर्शन, मंत्र-तंत्र और जैन दर्शन के महान् विद्वान् बन गए। धापके रचित विशाल और महत्वपूर्ण विविध विषयक साहित्य से यह भली-भांति स्पष्ट है। धन्य गच्छीय मोर खरतरगच्छ की रुद्रपल्लीय शाखा के विद्वानों को मापने अध्ययन कराया एवं उनके ग्रथों का संशोधन किया ।
साधारण विद्वता के साथ-साथ पद्मावती देवी के सानिध्य द्वारा मापने बहुत से चमत्कार दिखाये हैं जिनका वर्णन खरतरगच्छ पट्टावलियों से भी अधिक तपागच्छीय ग्रन्थों मे मिलता है और यह बात विशेष उल्लेख योग्य है। स० १५०३ में सोमधर्म मे उपदेश-सप्ततिका नामक अपने महत्वपूर्ण ग्रन्थ के तृतीय गुरुत्वाधिकार के पंचम उपदेश में जिनप्रभसूरि के बादशाह को प्रतिबोध एवं कई
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१४,
०कि..
अनेकान्त
चमत्कारों का विवरण दिया है। प्रारम्भ में लिखा है कि कल्यानयनीय महावीर प्रतिमा कल्प के लिखने वाले इस कलियुग में कई प्राचार्य जिन शासन रूपी घर में जिनसिंहसूरि-शिष्य' बतलाये गये हैं मतः जिनप्रभसूरि दीपक के समान हए । इस सम्बन्ध में म्लेच्छ पति को या उनके किसी गुरु-भ्राता ने इस कल्प की रचना की है। प्रतिबोष को देने वाले श्री जिनप्रभसूरि का उदाहरण इसमे स्पष्ट लिखा है कि हमारे पूर्वाचार्य श्री जिनपतिसूरि खानने लायक है। अन्त में निम्न श्लोक द्वारा उनकी जी ने सं० १२३३ के प्राषाढ़ शुक्ल १० गुरुवार को इस स्तुति की गई है
प्रतिमा की प्रतिष्ठा की थी और इसका निर्माण जिनपतिस श्री जिनप्रभः सूरि रिताशेष तामसः। सूरि के चाचा मानदेव ने करवाया था। अन्तिम हिन्दू भद्रं करोत संघाय, शासनस्य प्रभावकः ।।१।। सम्राट पृथ्वीराज के निधन के बाद तुर्को के भय से सेठ
इसी प्रकार संवत् १५२१ में तपागच्छीय शुभशील रामदेव के सूचनानुसार इस प्रतिमा को कंयवास स्थल गणि में प्रबन्ध पचशती नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थ बनाया की विपुल बालू मे छिपा दिया गया था। स० १३११ के जिसके प्रारम्भ में ही श्री जिनप्रभसूरि जी के चमत्कारिक दारुण दुमिक्ष में जोज्जग नामक सूत्रधार को स्वप्न देकर १६ प्रबन्ध देते हुए अन्त में लिखा है
यह प्रतिमा प्रगट हुई और श्रावकों ने मन्दिर बनवाकर 'इति कियन्तो जिनप्रभसूरि प्रवदातसम्बन्धाः" विराजमान की। सं० १३८५ मे हासी के सिकदार ने
इस प्रम्य में जिनप्रभसूरि सम्बन्धी और भी कई श्रावको को बन्दी बनाया और इस महावीर बिम्ब को ज्ञातव्य प्रबन्ध हैं। उपरोक्त १६ के अतिरिक्त नं०२०, दिल्ली लाकर तुगलकाबाद के शाही खजाने मे रख ३०६, ३१४ तथा अन्य भी कई प्रबन्ध मापके सम्बन्धित दिया ।
जनपद विहार करते हुए जिनप्रभसूरि दिल्ली पधारे शित जिनप्रभसूरि उत्पत्ति प्रबन्ध व अन्य एक रविवर्द्धन और राज सभा मे पडितों की गोष्ठी के द्वारा सम्राट को लिखित विस्तृत प्रबन्ध है। खरतरगच्छ वहद-गुरुवावली. प्रभावित कर इस प्रभु-प्रतिमा को प्राप्त किया। मुहम्मद युगप्रधानाचार्य गुर्वावली के प्रत मे जो वताचार्य प्रबन्धावली तुगलक ने प्रख-रात्रि तक सूरिजी के साथ गोष्ठी की मोर नामक प्राकृत की रचना प्रकाशित हुई है । उसमें जिनसिंह उन्हे वही रखा। प्रातःकाल संतुष्ट सुलतान ने १००० सूरि परि जिनप्रभसूरि के प्रबन्ध खरतरगच्छीय विद्वानों के गायें, बहुत सा द्रव्य, वस्त्र-कबल, चदन, कर्पूरादि सुगधित लिखे हुए है। एवं खरतरगच्छ की पावली प्रादि मे भी पदार्थ सूरिजी को भेंट किया। पर गुरुश्री ने कहा ये सब कुछ विवरण मिलता है पर सबसे महत्वपूर्ण घटना या साधुनों को लेना प्रकल्प्य है । सुलतान के विशेष अनुरोध कार्य विशेष का समकालीन विवरण विविध तीर्थकल्प के से कुछ वस्त्र-कंबल उन्होने 'राजाभियोग' से स्वीकार कन्यानयनीप महावीर प्रतिमा कल्प और उसके कल्प किया और महम्मद तुगलक ने बड़े महोत्सव के साथ परिशेष में प्राप्त है। उसके अनुसार जिनप्रभसरि जी ने यह जिनप्रभसूरि मौर जिनदेवसूरि को हाधियों पर मारूढ़ कर मुहम्मद तुगलक से बहुत बड़ा सम्मान प्राप्त किया था। पौषधशाला पहुंचाया। समय-समय पर सूरिजी एव उनके उन्होने कन्नाणा की महावीर प्रतिमा सुलतान से प्राप्ता शिष्य जिनदेवसूरि की विद्वत्तादि से चमत्कृत होकर कर दिल्ली के जैन मन्दिर मे स्थापित करायी थी। पीछे से सुलतान ने शत्रुजय, गिरनार, फलौदी मादि तीयों की रक्षा मुहम्मद तुगलक ने जिनप्रभसूरि के शिष्य 'जिनदेवसूरिको के लिए फरमान दिए। कल्प के रचयिता ने अन्त में सुरत्तान सराइ दी थी' जिनमे चार सो श्रावकों के घर, लिखा है कि महम्मदशाह को प्रभावित करके जिनप्रभसूरिपौषषशालाब मन्दिर बनाया उसी में उक्त महावीर जी ने बड़ी शासन प्रभावना एव उन्नति की। इस प्रकार स्वामी को बिराजमान किया गया। इनकी पूजा व भक्ति पचमकाल मे चतुर्थ पारे का भास कराया। श्वेताम्बर समाज ही नहीं, दिगम्बर और अन्य मताव- उपयुक्त कम्नापय महावीर कल्प का परिवेष रूप सम्बो भी करते रहे हैं।
अन्य कल्प सिंहातिमकसूरि के पादेश से विवातिलक मुनि
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सबाट महम्मद तुगलक और महान् न शासन-प्रभावक भी बिनभरि ने लिखा है जिसमें जिनप्रभसूरि भोर जिनदेवसूरि को मिश्रित संग्रह प्रति हमारे संग्रह में है, पर वह अपूर्ण हो -शासन प्रभावना व मुहम्मद तुगलक को सविशेष प्रभावित प्राप्त हुई। हम उपदेश सप्तति, प्रबन्ध-पंचशती एवं प्रबन्ध करने का विवरण है। ये दा हा कल्प जिनप्रभसूरिजी की संग्रहादि प्रकाशित प्रबन्धों को देखने का पाठकों को विद्यमानता में रचे गए थे। इसी प्रकार उन्ही को सम- अनुरोध करते हैं जिससे उनके चामत्कारिक प्रभाव भोर कालीन रचित जिनप्रभसूरि गीत तथा जिनदेवसूरि गीत महान व्यक्तित्व का कुछ परिचय मिल जायगा। जिन हमें प्राप्त हुए जिन्हे हमने स. १६६४ मे प्रकाशित अपने प्रभसूरि जी का एक महत्वपूर्ण मंत्र-तंत्र संबंधी ग्रन्थ रहस्यऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह मे प्रकाशित कर दिया है। कल्पद्रम भी अभी पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं हुमा, उसकी उनमे स्टष्ट लिखा है सं० १३०५ के पौष शुक्ल ८ शनि- खोज जारी है। सोलहवीं शताब्दी की प्रति का प्राप्त बार को दिल्ली में महम्मदशाह से श्रोजिनप्रभसूरि मिले मन्तिम पत्र यहां प्रकाशित किया जा रहा है। 'रहस्य
ने उन्हें अपने पास बठा कर मादर दिया। कल्पद्रुम' का प्राप्त प्रशसुरिजी ने नवीन काव्यो द्वारा उसे प्रसन्न किया। सुलतान
त सघ प्रत्यनीकानां भयंकरादेशाः। करीयं जयः। ने इन्हें धन-कनक मादि बहुत सी चीजें दो मोर जो स्वदेशे जयः परदेशे पपराजितत्वं तीर्थाविप्रत्यनीकमध्ये चाहिए, मांगने को कहा पर निरीह सूरिजी ने उन एतस्वयमस्य महापीठस्य स्मरणेन भवति । ह्रां महमातंगे प्रकल्प्य वस्तुमो का ग्रहण नहीं किया। इससे विशेष शचि चंडाली अमुक दह २ प २ मथ २ उच्चाटय प्रभावित होकर उन्हें नई बस्ती मादि का फरमान दिया २ हंफट स्वाहा ॥ कृष्ण खडी खंड १०८ होमयेत् पौर वस्त्रादिद्वारा स्वहस्त से इनकी पूजा की।
उच्चाटनं विशेषतः । सपन्नी विषये । ॐ रक्त चामुंहेनर स. १९८६ मे पं० लालचन्द भ. गांधी का जिनप्रम- शिर तुड मुह मालिनी पम्की पाकर्षय २ ह्रीं नमः । सूरि पौर सुलतान मुहम्मद सम्बन्धी एक ऐतिहासिक प्राकृष्टि मत्र सहस्रत्रयजापात सिद्धिः सिद्धिः पश्चात् निबन्ध 'जन' के रौप्य महोत्सव अंक में प्रकाशित हमा। १०८ माकर्षयति । ॐ ह्रीं प्रत्यगिरे महाविधे येन जिसे श्री हरिसागर सूरिजी महाराज की प्रेरणा से परि. केनचित् पापं कृतं कारितं अनुमतं वा नश्यतु तत्पापं तत्रव बद्धित कर पंडितजी ने ग्रन्थ रूप मे तैयार कर दिया, जिसे गच्छतु" स. १८६५ में श्रीजिनहरिसागरसूरि ज्ञान भण्डार, लोहावट ॐ ह्रीं प्रत्यगिरे महाविधे स्वाहा वार २१ लवणडली से देवनागरी लिपि व गुजराती भाषा में प्रकाशित किया बच्चा पातुरस्योपरि भ्रामयित्वा कांजिके क्षिप्त्वा । तुरे गया।
ढास्यते कार्मण भद्रो भवति । प्रतिभासम्पन्न महान विद्वान जिमप्रभसरिजी की दो उभयलिंगी बीज ७ साठी चोखा ६ पली गोष, प्रधान रचनाएं विविधतीर्थकल्प पोर विधि मार्ग-प्रपा मुनि ऋतुस्नाताया: पान देयं स्निग्ध मधुरभोजनं । ऋतुगोंजिनविजयजी ने सम्पादित की है, उनमे से विधिप्रपा मे त्पत्तिप्रधानसूकडिदुवारन् वात् एकवर्णगोदुग्धेन पीयते हमने जिप्रभसूरि सम्बन्धी निबन्ध लिखा था। इसके बीच गर्भाधानाहिन ७५ प्रनंतर दिन ३ गर्भव्यत्ययः ॥७॥ हमारा कई वर्षों से यह प्रयत्न रहा कि सूरि महाराज संवत् १५४६ वर्षे धावण सुदि १३ त्रयोदशी दिने सम्बन्धी एक अध्ययनपूर्ण स्वतन्त्र वृहग्रह प्रकाशित गुरौ श्रीमहपमहादुर्गे श्री खरतरगच्छे श्री जिनभद्रसूरि किया जाय पोर महो० विनयसागर जी को यह काम पट्टालकार श्री जिनचन्द्रसूरि पट्टीदया चलचूला सहस्रकसौंपा गया। उन्होंने वह ग्रन्थ तयार भी कर दिया है, साथ रावताबतार श्री संप्रतिविजयमान श्रीजिन समुद्रसूरि विजयही सूरि जी के रचित स्तोत्रों का संग्रह भी संपादित कर राज्ये श्री वादीन्द्रचक्र चूणामणि श्री तपोरत्न महोपाध्याय रखा है। हम शीघ्र ही उस महत्वपूर्ण ग्रन्थ को प्रकाशन । विनेय वाचनाचार्य वर्थ श्री साधराज गणिवराणामाबेशेन करने में प्रयत्नशील हैं।
शिश्यलेश.. लेखि श्री रहस्य कल्पदममहाम्नाय: Unon सरि जी सम्बन्धी प्रबम्बों को एक सतरहवी शती की श्रेयोस्तु । ५० भक्तिवल्पम गणिसान्निध्येन ॥
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११ वर्ष ३३, कि..
अनेकान्त [पत्र ११वां प्राप्त किनारे त्रुटित]
इतिहास और स्थल भ्रमण से रचयिता को बड़ा प्रेममा उपर्युक्त ग्रन्थ का उल्लेख जिनप्रभसूरि जी ने व उनके इन्होंने अपने जीवन में भारत के बहुत से भागों में परि-- समकालीन रुद्रपल्लीय सोमतिलकसूरि रचित लघुत्सव भ्रमण किया था। गुजरात, राजपूताना, मालवा, मध्य टोकादि में प्राप्त है । यह टीका सं० १३९७ में रची गई प्रदेश, वराङ, दक्षिण, कर्णाटक, लंग, बिहार कोशल, पौर राजस्थान प्राध्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर से प्रकाशित अवध, युक्तप्रान्त और पंजाब प्रादि के कई पुरातन भोर है। बीकानेर में वृहद् ज्ञान भंडार में हमे बहुत वर्ष पूर्व प्रसिद्ध स्थलों की इन्होंने यात्रा की थी। इस यात्रा के इस ग्रन्थ का कुछ अंश प्राप्त हुमा था जिसे 'जैन सिद्धान्त समय उस स्थान के बारे में जो जो साहित्यगत और भास्कर' एवं 'जन सत्यप्रकाश' में प्रकाशित किया। उसके परम्पराश्रुत बातें उन्हे ज्ञात हुई। उनको उन्होंने शंक्षेप बार उपर्युक्त १३वीं शती की प्रति का मन्तिम पत्र प्राप्त में लिपिबद्ध कर लिया। इस तरह उस स्थान या तीर्थ हुमा। इस प्राप्त अंश की नकल ऊपर दी है। इस प्रन्थ का एक कल्प बना दिया और साथ ही ग्रन्थकार को राज की पूरी प्रति का पता लगाना प्रावश्यक है। किसी संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं में, गद्य पौर पद्य दोनों भी सम्जन को इसकी पूरी प्रति की जानकारी मिले तो ही प्रकार से ग्रन्थ रचना करने का एक सा अभ्यास होने हमें सूचित करने का अनुरोध करते हैं।
के कारण कभी कोई कल्प उन्होंने संस्कृत भाषा में लिख श्री जिनप्रभसूरि जी मोर उनके विविध तीर्थ कल्प के दिया तो कोई प्राकृत में। इसी तरह कभी किसी कल्प की संबंध मे मुनिजिनविजय जी ने लिखा है-ग्रन्थकार 'जिनप्रभ रचना गद्य मे कर लो तो किसी की पद्य मे। "प्रस्तुत सूरि' अपने समय के एक बड़े भारी विद्वान और प्रभावशाली विविध जीवकल्प का हमने हिन्दी अनुवाद प्रकाशित करवा थे। जिनप्रभसूरि ने जिस तरह विक्रम की सतरहीं शताब्दी दिया है। में गल व सम्राट अकबर बादशाह के दरबार मे जैन जिनप्रभसरि का विधिप्रपामन्य भी विधि-विद्वानों का जगद्गुरू हीरविजयसूरि (पौर युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि) बहत वडा और महत्वपूर्ण संग्रह है। जैन स्तोत्र मापने ने शाही सम्मान प्राप्त किया था उसी तरह जिनप्रभसूरि सात सौ बनाये कहे जाते हैं, पर अभी करीब सौ के लगभग ने भी चौदहवी शताब्दी में तुगलक सुल्तान मुहम्मदशाह के उपलब्ध हैं । इतने अधिक विविध प्रकार के मोर विशिष्ट दरबार में बड़ा गौरव प्राप्त किया। भारत के मुसलमान स्तोत्र अन्य किसी के भी प्राप्त नही है। कल्पसूत्र की बादशाहों के दरबार में जैन धर्म का महत्व बतलाने वाले "सन्देह विवोषि" टीका स. १३६४ में सबसे पहले
और उसका गौरव बढाने वाले शायद सबसे पहले ये ही प्रापने बनाई। स० १३५६ मे रचित द्वयाश्रयमहाकाव्य प्राचार्य हुए।
प्रापकी विशिष्ट काव्य प्रतिभा का परिचायक है। स० विविधतीर्थकल्प नामक प्रस्थ जैन साहित्य की एक १३५२ से १३६० तक की मापकी पचासो पचासो रचनायें विशिष्ट वस्तु है। ऐतिहासिक पौर भौगोलिक दोनों स्तोत्रों के अतिरिक्त भी प्राप्त हैं। सूरिमंत्रकल्प एवं प्रकार के विषयों की दृष्टि से इस ग्रन्थ का बहुत कुछ चलिका ह्रौंकारकल्प वर्द्धमानविद्या और रहस्यकल्पद्रुम महत्व है। जैन साहित्य मे ही नही, समग्र भारतीय साहित्य मापकी विद्यामों व मंत्र-तंत्र सम्बन्धी उल्लेखनीय रचनायें में भी इस प्रकार का कोई दूसरा ग्रन्थ ममी तक ज्ञात नहीं हैं। प्रजितशांति, उवसग्गहर, भयहर भनुयोग चतुष्टय, हमा। यह अन्य विक्रम की चौदहवीं शताब्दी मे जैनधर्म महावोर स्तब, षडावश्यक, साधु प्रतिकमण, विदग्ध मुख. के जितने पुरातन पौर विद्यमान तीर्थ स्थान थे उनके मंडन मादि अनेक प्रन्यों की महत्वपूर्ण टीकार्य माप ने सम्बन्ध में प्रायः एक प्रकार की "गाइड बुक" है इसमें बनाई। कातन्त्रविभ्रमवत्ति, हेमप्रनेकार्षशेषवृत्ति, बणित उन तीनों का सक्षिप्त रूप से स्थान वर्णन भी है रुचादिगण वृत्ति प्रादि पापको भ्याकरण विषयक रचनायें पौर यथाज्ञात इतिहास भी है।
हैं। कई प्रकरण पोर उनके विवरण भी मापने रचे हैं. प्रस्तुत रचना के अवलोकन से ज्ञात होता है कि उन सबका यहाँ विवरण देना संभव नहीं।
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सम्राट महम्मद तुगलक और महान जन शासन-प्रभावक श्री जिनप्रभसूरि
जिनप्रभसूरि जी को एक उल्लेखनीय प्रतिमा- कि वह एक विद्या प्रेमी और गुणमाही शासक था। मूर्ति महातीर्थ शत्रुजय की खरतर वसही में विराजमान
ऐतिहासिक जैन-काव्य-संग्रह में प्रकाशित श्री है जिसकी प्रतिकृति जिनप्रभसूरि ग्रन्थ मे दी गई है।
जिनप्रभसरि के एक गीत से श्री जिनप्रभसूरि जी ने प्रश्वपति जिनप्रभसूरि की शिल्प परम्परा या गावा सतरहवी
कुतुबद्दीन को भी रंजित व प्रभावित किया थाशताब्दी तक तो बराबर चलती रही जिसमे चरित्रवर्द्धन
मागम सिद्धतुपुराण बखाणीइए, पडिबोहाइ सव्वलोइए । मादि बहुत बडे-बडे विद्वान इस परम्परा मे हुए है।
जिणप्रभसरि गुरू सारिख उ हो, विरला दीसह कोइए। जिनप्रभसूरि का श्रेणिक द्वयाश्रय काव्य पालीताना से
पाठाही, पाठामिहि च उपि, तेडावइसुरिताणु ए। मपूर्ण प्रकाशित हुआ था उसे सुसम्पादित रूप से प्रकाशन
पुहसितु मुखजिनप्रभसूरि चलियउ जिमि ससि इदुविमाणि । करना मावश्यक है।
प्रसपति कुतुबदोनु मनिरजिउ, दीठेलि जिनप्रभसूरि ए ॥ हमारी राय मे श्री जिनप्रभसरि जी को यही गौरव
एकतिही मन सास उ पूछइ, राप मणारह पूरि ए ।। पूर्ण स्थान मिलना चाहिए जो अन्य खरतर गच्छीय चागे। दादा-गुरुषों का है। इनको इतिहास प्रकाशन द्वारा
तपागच्छीय जिनप्रभसूरि प्रान्धो मे पोरोजसाह को भारतीय इतिहास का एक नया अध्याय जड़ेगा । सुलतान
प्रतिबोध देने का उल्लेख मिलता है पर वे प्रबन्ध, सवा सो महम्मद तुगलक को इतिहासकारो ने प्रद्यावधि जिस
वर्ष वाद के होनेसे स्मृति-दोष से यह नाम लिखा जाना दृष्टिकोण से देखा है. वस्तुतः वह एकाङ्गी है। जिनप्रभसूरि सभव है सम्बन्धी समकालीन प्राप्त उल्लेखो से यह सिद्ध होता है
नाहटों को गवाड़, बीकानेर
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(पृष्ठ १२ का शेषाश) उन्होंने परिग्रह-सग्रह से मुक्ति का सकेत दिया है। भया- सामायिक का मुख्य लक्षण हो समता है। मन को तुर व्यक्ति ही मधिक परिग्रह करता है प्रतः वस्तुप्रो के स्थिरता को साधना समभाव से ही होती है । वण-कंचन, प्रति ममत्व के त्याग पर उन्होने बल दिया है, किन्तु शत्रु-मित्र प्रादि विषमतामो मे प्रासक्ति रहित हो कर ममता के लिए सरलता का जीवन जीना बहुत प्रावश्यक उचित प्रवृत्ति करना ही सामायिक है। यही समभाव बतलाया गया है। बनावटीपन से समता नही पायेगी, सामायिक का तात्पर्य है। यथाचाहे वह जीवन के किसी भी क्षेत्र मे हो। यदि ममता समभावो सामइयं तण-कंचण सत्तु-मित्त विसत्ति । नहीं है, तो तपस्या करना, शास्त्रों का अध्ययन करना, जिरभिसचित्तं चिय पवित्तिप्पहा ॥ मौन रखना मादि सब व्यर्थ है
इस तरह प्राकृत साहित्य में समता का स्वर कई कि काहदि वणवासो कायक्लेसो विचित्त उबवासो। क्षेत्रो में गंजित हुपा है । प्रावश्यकता इस बात की है कि मउभय मोणयही समवारहियस्स समणस्य। उसका वर्तमान जीवन में व्यवहार हो। बाज की विकट
(नियमसार० १२४) समस्यामों से जुझने के लिए समता दर्शन का व्यापक प्राकृत साहित्य मे सामायिक की बहुत प्रतिष्ठा है। उपयोग किया जाना पनिवार्य हो गया है।
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जैन कर्म-सिद्धान्त
- श्री श्यामलाल पाण्डवीय
भारतीय संस्कृति प्रारम्भ से ही माध्यात्मिकता के किये जाते है। अच्छा प्राचरण पुण्य प्रवृति है, जो धर्म अधिक निकट रही है। समय-समय पर अनेकों दिव्य को उत्पन्न करती है। धर्म करने से पुण्य तथा अधर्म एवं महान प्रास्मानो द्वारा विभूषित इम देश का इतिहाम करने से पाप उत्पन्न होता है। धर्माधर्म को अदृष्ट भी धर्म एवं दर्शन से प्रत्यधिक प्रभावित रहा है। कहते हैं। प्रदृष्ट कर्मफल के उत्पादन मे कारण होता भारतीय दर्शन के विविध पक्षों के रूप न्याय, है। किन्तु अदृष्ट जड़ है पोर जड मे फलोत्पादन शक्ति वैशेषिक, मांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त, जैन, बौद्ध तथा चेतना की प्रेरणा के बिना सम्भव नहीं है। प्रतः ईश्वर चार्वाक दर्शन मे हमे मानव जीवन के प्रति विविध मतो की प्रेरणा से ही प्रदृष्ट फल देने में सफल होता है।' के दर्शन होते है। इनमें से चार्वाक को छोडकर अन्य वैशेषिक दर्शन के अनुसार अयस्कान्तमणि को मोर समस्त भारतीय दर्शनों ने परलोक पुनर्जन्म, कर्म और सुई की स्वाभाविक गति, वृक्षो के भीतर रस का नीचे मोक्ष की धारणा को ग्रहण किया है। ये मभी मानते है से ऊपर की मोर चढ़ना' अग्नि की लपटो का ऊपर की कि मानव जैसे कर्म करता है, वैसा ही फल भोगता है। मोर उठना, वायु की तिरछी गति, मन तथा परमाणुओं
शाब्दिक दृष्टि से धर्म के तीन अर्थ प्रमुख है। की प्रथम परिस्पन्दात्मक क्रिया, ये सब कार्म प्रदृष्ट द्वारा पहला-कर्म कारक; कर्म का यह अर्थ जगत प्रसिद्ध है। होते हैं।' दूसरा अर्थ है--क्रिया । इसके अनेक प्रकार है। सामान्यत: विविध दानिको ने कर्म के द्वितीय प्रथं को प्राधार
सांख्य दर्शन के मत मे-“वलेश रूपी सलिल से मानकर ही अपने विचार प्रकट किये है। तीसरा अर्थ
सिक्त भूमि में कर्म बीज के अकुर उत्पन्न होते हैं, है-जीव के माय बघने वाले विशेष जाति के स्कन्ध ।
परन्तु तत्वज्ञान रूपी ग्रीष्म के कारण क्लेश जल के सूख यह पर्थ प्रसिद्ध है, केवल जैन सिद्धान्त ही इसका विशेष
जाने पर ऊपर जमीन में क्या कभी कर्म-बीज उत्पन्न हो प्रकार से निरूपण करता है।
सकते हैं।' भारतीय दर्शन में कम सिद्धान्त
योग दर्शन के अनुसार पातन्जल योगसूत्र में क्लेश का न्याय दयान के अनुसार मानव शरीर द्वारा सम्पन्न मूल कर्माशय वासना को बतलाया है। यह कर्माशय इस विविध कम; राग, द्वेष और मोह के वशीभत होकर लोक भौर परलोक में अनुभव मे पाता है।
१. जैन कम सिद्धान्त पोर भारतीय दर्शन, प्रो. उदय- ३. क्लेशसलिलावसिक्तायां हिं बुद्धिभूमो कर्म
चन्द्र जैन, जैन सिद्धान्त भास्कर किरण १.प्र. -वीजाडूरं प्रसुवते। श्री देवकुमार जैन मोरियन्ठल रिचर्च इन्सटीच्यू०
तत्वज्ञान निदाघणरीतसकलक्लेशसलिलायां ऊषरायां मारा । पृष्ठ ३८
कुतः कर्मवीजानामंकुरप्रसवः । २. मणि गमन सूच्चभिसर्पणमित्यदृष्ट कारणम् ।
-तत्व कौमुदी सांख्या का० ६७ वं..सू. २०१५ वृक्षामिसर्पणमित्यदृष्ट कारणम् । व०सू० ५।२७ ४. क्लेशमूलः कर्माशयः दृष्टादृष्टवेदनीयः । योगसूत्र २१॥
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जन कर्म सिवात
मोमासा दर्शन के अनुसार-प्रत्येक कर्म मे अपूर्व कि-प्राणी को कर्म का त्याग नही करना चाहिये, किन्तु (पदृष्ट) को उत्पन्न करने की शक्ति रहती है। कर्म से कर्म के फल का त्याग करना चाहिये । प्राणी का अधिकार मपूर्व उत्पन्न होता है और अपूर्व से फल उत्पन्न होता है। कर्म करने में ही है, फल मे नहीं।' महाभारत में भी मतः अपूर्व, कर्म और फल के बीच की अवस्था का मात्मा को बाधने वाली शक्ति को कर्म कहा है। बोतक है। कराचार्य ने इसीलिए भपूर्व को कर्म की गोस्वामी तुलसी दास ने भी रामचरित मानस मे कर्म को सूक्ष्मा उत्तरावस्था या फल की पूर्वावस्था माना है। प्रधान कहा है, वेदान्त दर्शन के अनुसार कर्म से वासना उत्पन्न होती
कम प्रधान विश्व करि राखा। है। और वासना से संसार का उदय होता है । विज्ञान
जो जस करहि सो तस फल चाखा ।। दीपिका मे यह बतलाया गया है कि जिस प्रकार घर मे
इस प्रकार भारतीय दर्शन में कर्म सिद्धान्त को तथा क्षेत्र में स्थित अन्न का विनाश विविध रूप से प्रमुखता दी गई है। लगभग सभी दर्शनिकों ने कर्म किया जा सकता है, किन्तु मक्त अन्न का विनाश पाचन । सिद्धान्त के विषय में अपने-अपने दष्टिकोण से विचार द्वारा ही होता है, परन्तु प्रारब्ध कर्म का क्षय भोग के प्रकट कर इसे जीवन दर्शन का प्रमुख माधार माना है। द्वारा ही होता है।
जैन कर्म दर्शनबौद्ध धर्म मे भी, जो कि प्रनात्मवादी है कर्मों की जैन दर्शन में कम सिद्धान्त का जितना सविस्तार विभिन्नता को ही प्राणियो में व्याप्त विविधता का कारण विवेचन किया गया है, वह अन्य दर्शनो मे कर्म सिद्धान्त माना है। अगृतर निकाय मे सम्राट मिलिन्द के प्रश्नो के के विवेचन से कई गुना है। जैन वाङमय मे इस सम्बन्ध उत्तर मे भिक्ष नागसेन कहते हैं-'राजन" ! कर्मो के मे विपुल साहित्य भण्डार उपलब्ध है । प्राकृत भाषा का नानात्व के कारण सभी मनुष्य समान नहीं होते। भगवान जैन ग्रन्थ 'महाबन्ध" कम सिद्धान्त पर विश्व का सबसे ने भी कहा है कि मानवो का सद्भाव कर्मों के अनुसार वहद ग्रन्थ है, जिसम चालीस हजार श्लोक है। इसके है। सभी प्राणी कर्मों के उत्ताधिकारी है । कर्मों के अनुसार अतिरिक्त षटखण्डागम गोम्मटसार कमकाण्ड, लब्धिसार ही योनियो में जाते है। अपना कर्म ही बन्धु है, प्राश्रय तथा क्षपणासार प्रादि कर्म सिद्धान्त विषयक वृहद ग्रन्थ है और वह जीव का उच्च और नीच रूप मे विभाग है। इस प्रकार जैन दशन मे कम को विशेष महत्व करता है।
दिया गया है, तथा उसकी सूक्ष्म विवेचना की गई है। यही नही भारत के लगभग सभी प्रमख धार्मिक 'कर्म' का अर्थअन्थों में कर्म सिद्धान्त की महत्ता तथा प्रकृति का यथा मौलिक अर्थ की दृष्टि से तो कर्म का अर्थ वास्तव सम्भव उल्लेख मिलता है। गीता का मान्य सिद्धान्त है मे क्रिया से ही सम्बन्धित है। मन, बचन एव काय के १. नचाप्यनुत्पाद्य किमपि अपूर्व कर्म विनश्यत
७. 'महाराज कम्मानं नानाकरणेन मनुस्सा नसत्वे कालान्तरितं फलं दातुं शक्नोति ।
समंका। भासितं एतं महाराज भगवता कम्मरस मतः कर्मणो व सूक्ष्मा काचिदुत्तरावस्था फलस्य
कारणेन माणवसत्ता, कम्मदायादा कम्मयोनी,
कम्मबन्धु कम्मपरिसरणा कर्म सत्तं विभजति वा पूर्वावस्था अपूर्वनामास्तीति तय॑ते ।
यदिदं होनप्पणीततायोति ।' -अगुस्सर निकाय शा. भा. २२।४. ८. कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूः मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥ ६. जैन कम सिद्धान्त और भारतीय दर्शन, पूर्वोक्त, पृ. ४.
-भगवद्गीता २७ ९. 'कर्मणा बध्यते जन्तुविद्यया तु विमुच्यते',
-महाभारत-शान्तिपर्व (२४०१७)
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२०, वर्ष ३३, कि०२
अनेकान्त
द्वारा जीव जो कुछ करता है, वह सब क्रिया या कर्म है। चूंकि परमाणु भौनिक तत्व है, प्रतः वस्तुमो के 'कारम' मन, वचन और काय ये तीन उसके माध्यम हैं । इसे जीव भी भोतिक तत्व है, इस सम्बन्ध में पानोचकों को इस कर्म या भावकर्म कहते हैं यहाँ तक कर्म को धारणा सभी भापत्ति का कि "अनेको क्रियाएं, यथा-सुख, दुःख, पीड़ा को स्वीकार है। यह धारणा केवल संसारी जोवों की भादि विशुद्ध रूप से मानसिक है, इसलिये उनके कारण भी क्रिया पर ही विचार करती है, अर्थात् केवल चेतन को मानसिक होने चाहिए, भौतिक नहीं।" उत्तर देते हुए क्रियाएं ही इसकी विषय वस्तु है, जड़ की क्रियामो अथवा कहा कि ये अनुभव शारीरिक कारणों से सर्वथा जड़ एवं चेतन की क्रियाओं मे सम्बन्धो पर अन्य घारणामो
स्वतत्र नहीं है, क्योंकि सुख-दुख इत्यादि अनुभव मे विचार नही किया जाता, जैन दर्शन इन दोनों के
उदाहरणार्थ-भोजन प्रादि से सम्बन्धित होते हैं। सम्बन्ध में भी गम्भीरता पूर्वक विचार करता है। इस
प्रभौतिक मत्ता के साथ सुख प्रादि का कोई अनुभव कारण उससे कम की व्याख्या अधिक व्यापक एव विस्तृत
नही होता, जैसे कि माकाश के साथ । अत: यह माना है। जैन दार्शनिक कम शब्द की भौतिक व्याख्या
गया है कि-इन अनुभवो के पीछे 'प्राकृतिक कारण' करते हैं।
है, और यही कर्म है। इसी प्रर्थ मे सभी मानवीय अनुभवों परिभाषा एवं व्याख्या
के लिये मुखद या दुखद तथा पसन्द या नापसंद कम श्री क्ष० जिनेन्द्र वर्णी के अनुमार" "भावकर्म से
जिम्मेदार है। प्रभावित होकर कुछ मूक्ष्म जड पुद्गल म्कन्ध जीव के प्रदेशो में प्रवेश पाते है और उसके माथ बंघते है, यह
इसी कारण विभिन्न जैन दार्शनिको ने जीव के बात केवल जैनागम ही बताता है। यह सुक्ष्म स्कन्ध रागद्वेषादिक परिणामो के निमित्त में जो कार्माणवर्गणा अजीव कर्म या द्रव्य कर्म कहलाते है और रूप रसादि रूप पुद्गल-स्कन्ध जीव के साथ बन्ध को प्राप्त होते हैं, धारक मूर्तीक होते है। जैसे कर्म, जीव करता है, वैसे ही उन्हे कर्म कहा है। प्राचार्य कुन्द-कुन्द के अनुसार-“जब स्वभाव को लेकर द्रव्य कर्म उमके साथ बधते है और कुछ रागद्वेष से युक्ता पात्मा प्रच्छे या बुरे कार्यों में प्रवृत्त काल पश्चात परिपक्व दशा को प्राप्त होकर उदय में प्राते होता है, तब कर्म रूपी रज. जानवरणादि रूप मे प्रात्महै उम ममय इनके प्रभाव से जीव के ज्ञानादि गुण प्रदेशो मे प्रविष्ट होकर स्थित हो जाना है। श्री प्रकलंक तिरोभन हो जाते है। यही उनका फलदान कहा जाता देव ने कम की सोदाहरण व्याख्या करते हुए कहा है है सूक्ष्मता के कारण वे दृष्ट नहीं है।
कि- 'जिम प्रकार पात्र विशेष मे रखे गए अनेक रस इस प्रकार जैन दार्शनिक यह मानते है कि यदि वाले बीज, पुष् पतथा फलों का मदिरा रूप में परिणमन 'कम' मोनिक स्वरूप का है, तो 'कारण' भी भौतिक होता है। उसी प्रकार, क्रोध, मान, माया मोर लोम रूपी स्वरूप का होगा। अर्थात् जैन धर्म यह मानता है कि कषायो तथा मन, वचन मोर काय योग के निमित्त से
कि विश्व की सभी वस्तुयें मूक्ष्म स्कन्धो या परमाणमो प्रात्मप्रदेशो मे स्थित पुदगल परमाणुमो का कर्मरूप में से बनी है, अतः परमाणु ही वस्तु का कारण है और परिणमन होता है।" १०. जैनन्द्र सिद्धान्त कोप, भाग १ जिनेन्द्रवर्णी,
१३. परिणदि जदा प्रप्पा महम्मि प्रसुहम्मि रागदोस भारतीय ज्ञानपीठ, पृ. २५ जदी। त पविसदि कम्मरय णाणावरणादिभावेहि ।।
-प्रवचनासार ६५ ११. 'कर्म ग्रन्थ' ३
१४. यथा भोजन विशेषं प्रक्षिप्ताना
विविधरसबीज पूष्पलतानामदिराभावेन
परिमाणः तथा पूदगलानामपि पात्मनि १२. जैन दर्शन की रूपरेखा, एस. गोपालन, वाईली
स्थितानां योगकषायवशात परिणामो वेदितव्यः । ईस्टर्न लि. पृ० १५२
-तत्वार्यवार्तिक, पृ. २४६
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जनकर्म सिद्धान्त
इस प्रकार जैन दशं निको ने कर्म की विशद ए जाने पर प्रकुर नही उत्पन्न होता, उसी प्रकार कर्मबीज सूक्ष्म व्याख्या को है जो अन्य दर्शनो में की गई व्याख्यानों के भस्म हो जाने पर भवांकुर उत्पन्न नहीं होता। से नितान्त भिन्न है। जहाँ अन्य दर्शन परिणमन-रूप यही कारण है कि जैन दार्शनिकों ने पाल्मा के भावात्मक पर्याय को कम न कह कर केवल परिस्पदन स्वभाव को सकारात्मक व्याख्या करते हुए उसे विशुद्ध रूप क्रियात्मक पर्याय को ही कर्म कहते हैं, वहा जैन कर्म एवं प्रमीम क्षमतामों वाली कहा है। उनके अनुसार कर्म सिद्धान्त इन दोनो को ही कर्म कहता है। जैन दर्शन मे के दुष्ट प्रभाव के कारण वह अपने को सीमित अनुभव कर्म की यह व्याख्या अत्यन्त व्यापक है ।
करती है। कर्म के इम दुष्ट प्रभाव से प्रास्मा को मुक्त कर्म और प्रात्मा
करा पाने पर ही सद्कर्मों की उत्पत्ति होती है, सदको लगभग सभी दर्शन, जो कर्म की धारणा पर विचार से कर्मबध टूटते है और कर्मबन्धों से पूर्ण मुक्ति पर हो करते है। कर्म को प्रात्मा से सम्बन्धित अवश्य मानते मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस प्रकार जैन दर्शन में है। जैन दार्शनिको के अनुसार प्रात्मा अनादिकाल से मोक्ष की धारणा का विकास, कर्म दर्शन के विकास पर कर्म बंधन से युक्त है कम बधन जन्म-जन्मान्तर मे प्रात्मा ही प्राधारित है। को बांधे रहते है, इम दष्टि में मात्मा और कर्म का कर्म के मेदसम्बन्ध अनादि है। परन्तु एक दष्टि में वह मादि भी जैन दार्शनिको ने कम की वहद व्याख्या करते हुए है; जिम प्रकार वृक्ष मौर बीज का सम्बन्ध मन्तति की कहा है कि-मिथ्यारव, मज्ञान, अविरति, योग, मोह दृष्टि से अनादि है, और पर्याय को अपेक्षा मे वर मादि तथा क्रोधादि कषाय ये माव जीव और अजीव के है, इसी प्रकार कर्मबघन सन्तान या उत्पनि को दष्टि से भेद से दो-दो प्रकार के हैं। इस प्रकार कर्म को दो प्रनादि और पर्याय की दष्टि से मादि है। जैनदर्शन माघारो भौतिक तथा मानसिक के माघार पर दो भेद मे कम और प्रात्मा के सम्बन्ध में इस व्याख्या के कारण किये गये है-'द्रव्य कर्म' एवं 'भाव कम'। द्रव्य कर्म ही मागे चलकर उसे वैज्ञानिक रूप दिया है जिस कारण का अर्थ है। जहा द्रव्य का प्रात्मा मे प्रवेश हो गया हो वह अन्य दर्शनो मे अलग है। जैन दर्शन कर्मबघन को प्रर्थान् जहां रागद्वेषादि रूप भावो का निमित पाकर प्रनादि और पर्याय की दृष्टि मे मादि मानबर ही मागे जो कार्माण वर्गणारूप पुदगल परमाण मात्मा के माथ बंध यह और व्याख्या करता है कि-- पर्याय की दृष्टि से जाते है उन्हें द्रव्य कर्म कहते है। यह पौदगलिक है, पौर सादि होने के कारण पूर्व के कर्मबंधनो को तोडा भी जा इनके प्रोर भी भेद किये गए है। सकता है। कोई भी सम्बन्ध प्रनादि होने से प्रनन्त नही भावकम प्रात्मा के चैतन्य परिणामात्मक है। इनमें हो जाते, विरोधी कारणो का समागम होने पर पनादि इच्छा तथा अनिच्छा जैसी मानसिक क्रियानों का समावेश सम्बन्ध टूट भी जाते हैं, जिस प्रकार बीज और वृक्ष का होता है। प्रथात् ज्ञानारणादि रूप द्रव्य कर्म के निमित्त सम्बन्ध अनादि होते हुए भी, पर्याय विशेष मे सादि होता से होने वाले जीव के राग द्वेषादि रूप भावों को भावकर्म है, और पर्याय विशेष मे किमी बीज विशेष के जल जाने कहते हैं । पर, मर्थात विरोधी कारणों से समागम के कारण उसमे द्रव्य कम भोर भाव कम को पारस्परिक कार्यकारणप्रकुर उत्पन्न नही होता। इस विषय में प्राचार्य प्रकलंक परम्परा अनादिकाल से चली पा रही है। इन दोनो मे देव तत्वार्थ राजवातिक (२/७) मे ऐमा ही दृष्टान्त नैमित्तिक सम्बन्ध है। भावकर्म का निमित्त द्रव्य कम है देकर समझाया गया है कि जिम प्रकार बीज के जल और द्रव्य कर्म का निमित्त मावकम है। रागद्वेषादिरूप १५. मिच्छन पुण दुविह जीवमजीवं तहेव अण्णाण ।
पविरदि जोगो मोहो कोहादीया मे भावा । समयसार-मूल। ८७ प्र० प्रहिंसा मंदिर प्रकाशन, दिल्ली
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२२, वर्ष २३,कि.१
अनेकान्त
भावों का निमित्त पाकर द्रव्यकम प्रात्मा से बंधता है कर्मफल-ईश्वरवादी दर्शन ईश्वर को कर्म का फल मोर द्रव्यकर्म के निमित्त से पारमा मे रागद्वेषादि भावों दाता मानते है। उसके अनुसार यह भज्ञ प्राणी अपने की उत्पत्ति होती है।
सुख और दुःख में असमर्थ है। यह जीव ईश्वर की कर्म बन्ध
प्रेरणा से स्वर्ग में या नरक में जाता है।" जैन दर्शन के जैन दर्शन के अनुसार दोनो ही प्रकार के कर्मों से अनुसार कर्म स्वय प्रपना फल देते है, किसी के माध्यम उत्पन्न कर्माण विभिन्न कालावधियों के लिए मनुष्य को से नही। इसी कारण कहा है कि उस कर्म से उत्पन्न बांधकर रखते है। इस प्रकार कमंबन्धन कर्म भोर प्रात्मा किया जाने वाला सुख दुःख कर्मफल है। कर्मफल के सम्बन्ध के परिणामस्वरूप उत्पन्न अवस्था में है। यह कर्म की प्रकृति से प्रभावित होता है। जैन दर्शन के अवस्था कषाय एवं योग के कारण उत्पन्न होती है अनुसार शुभ एवं अशुभ भावो से किये गए, कर्मों मे जीव प्राचार्य गद्धपिच्छ ने कहा है कि" "जीव कषाय सहित पर अच्छा और बुरा प्रभाव डालने की शक्ति होती है, होने के कारण कम योग्य पुदगलों को ग्रहण करता है। अत: इन भावो का प्रभाव कम परमाणु पो पर ही होता है इसी का नाम बन्ध है। शुद्ध प्रात्मा मे कर्म का बंध नही और इमी के अनुसार वे कर्म अपने उदय के अवसर पर होता है, किन्तु कषायवान प्रात्मा ही कर्म का बंध करता तदनुरूप सुख और दुःख प्रदान करते हैं । है। प्राचार्य जिनसेनाचार्य ने भी कर्मबंध की लगभग ऐसी ही व्याख्या करते हुए कहा है कि-'यह प्रज्ञानी इस प्रकार जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त की प्रत्यन्त जीव इष्ट और अनिष्ट सकल्प द्वारा वस्तु मे प्रिय और सूक्ष्म एवं विषद तथा वैज्ञानिक विवेचना की गई है जो पप्रिय की कल्पना करता है, इससे रागद्वेष उत्पन्न होता यह बतलाती है कि मनुष्य स्वय अपने कर्म का सृष्टा है और रागद्वेष से कर्म का बन्ध होता है, इस प्रकार व भाग्य विधाता है। ईश्वर या अन्य कोई शक्ति न रागद्वष के निमित्त से ससार का चक्र चलता रहता तो उसके कर्म को निर्धारित करती है न ही उसके फल
को। यही नही ईश्वरीय या अन्य कोई ऐसी शक्ति उसे इस प्रकार रागद्वेष रूप भावकम का निमित्त पाकर बुरे कामों के उदय या फल भोगने से मक्त भी नही करा द्रव्यकर्म प्रात्मा से बंधता है और द्रव्यकम के निमिन से सकती। कमों से मुक्ति के लिए कर्ता द्वारा स्वय कर्मक्षय मात्मा मे रागद्वेष रूपी भावकर्म उत्पन्न होता है। इन
करना प्रावश्यक है। कर्मक्षय से कोई भी जीव शुद्ध को से उत्पन्न परमाण प्रत्येक समय बंधते रहने से
अवस्था अर्थात् मुक्ति या मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। मनन्तानन्त होते है। यह बंध केवल जीवप्रदेश के क्षेत्रवर्ती इसी कारण स्वामी कार्तिकेय ने कहा है कि न तो कोई कर्म परमाणमों का होता है, बाहर के क्षेत्र में स्थित लक्ष्मी देता है और न कोई इसका उपकार करता है। कर्म परमाणुषों का नही । प्रात्म-प्रदेशों में होने वाला बघ शुभ मोर अशुभ कर्म ही जीव का उपकार भोर अपकार यह सम्भव नहीं हैं कि किसी समय किन्ही पात्म प्रदेशों करते हैं। के साथ बन्ध हो भोर किसी समय अन्य भात्म प्रदेशो णय को बि देदि लच्छी ण को बि जीवस्य कुणई उवयारं के साथ।
प्रवयार कम्म पि सुहासुह कुणदि ॥ १६. जैन कर्म सिद्धांत पोर मारतीय दर्शन,
१६. प्रज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुख दुःखयो।
पूर्वोक्त पृ० ४७ ईश्वर प्रेरितो गच्छेत स्गं वाश्वभ्रमेव वा॥ १७. सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान पुदगलानादसे
महाभारत वन पर्व ३०१२८ स बन्धः ।
-तत्वार्थसूत्र कार १८. संकल्पवशो मूढः वस्त्विष्टानिष्टता नयते रागद्वेषोंततस्ताम्यां बन्ध दुर्मोचिमश्नुते ।
२०. तस्य कर्मणो याग्निष्पायं सुख दुःख तत्कर्म फलम। -महापुराण २४१२१
-प्रवचनसार त..प्र.। १२४
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जयपुर पोथीखाने का संस्कृत जैन साहित्य
0 डा. प्रेमचन्द राषका, मनोहरपुर
विद्वानो मे इस विषय पर मतभेद है कि भारत मे से लेकर अन्तिम महाराजा मानसिंह द्वितीय (वि० सं० सस्कृत गजकाज को अथवा बोलचाल की भाषा थी। १९७९-२०२७) तक के समय में रचित साहित्य परन्तु यह निर्विवाद मत्य है कि इसकी दोनो ही वर्गों में सुरक्षित है। सम्मानित स्थिति रही है। वेद-वेदाग, श्रुति-स्मति, अपने पूर्वजों द्वारा निर्मित महत्वपूर्ण ग्रन्थ संग्रह को पुराणादि विविध विषयक ग्रन्थो की प्रतिया लिपिबद्ध सुव्यवस्थित एवं पृथक् विभाग का रूप देने का श्रेय महाकराकर मगृहीत और सुरक्षित करने मे मध्ययुगीन और राजा सवाई जयसिंह (मन् १७०० से १६४३ ई०) को है। मध्यान्तर कालीन नरेशों का बहुत बड़ा योगदान रहा है। प्रपनी नवीन राजधानी मवाई जयनगर की स्थापना साथ ही उन्होंने नवीन माहित्य के सजन में भी विद्वानो, के पश्चात विद्या, कला पौर राजकीय उपकरणों पण्डितो कवियो भोर लेखको को प्रश्रय एव प्रोत्माहन देने के सग्रह, सुरक्षा एवं वृद्धि के लिये ही उन्होंने ३६ कारखाने की परम्परा निभाई है। उन्ही के अनुकरण मे मामन्त वर्ग स्थापित किये थे । उनमें पोथीवाना अनन्यतम एव गणनीय तथा अन्य सम्पन्न लोगो ने भी इस प्रवनि को अपनाया है। इसके तुरन्त बाद ही महाराजा ने देश-विदेश से हस्तहै। फलत: हमारे देश का बहुत-मा साहित्य इस घरानों मे लिग्वित एवं मद्रित दुर्लभ ग्रंथ उपलब्ध किये एवं प्राचीन किसी प्रकार बचा रहा। जबकि अन्यान्य मामान्य ग्रहो मे जीर्ण एव उपयोजी ग्रन्थो की प्रतिलिपियाँ करवाने, उन्हे उपेक्षा एव प्रज्ञान के कारण इसमे भी अधिक सामग्री नाश मुरक्षित रखे जाने तथा कुछ को चित्रित करने के लिये को प्राप्त हुई। इस ग्रथ-सूरक्षा दष्टि से जैन मन्दिरो के प्रावश्यक पंण्डितों, मुलेखकी और चतुर चित्रकारो की शास्त्र-भण्डागे का योगदान स्तुत्य एव भविस्मरणीय है। नियुक्तियां की। तब से यह प्रवृति जयपुर राज घराने मे
जयपुर नगर की स्थापना से बहन पूर्व प्रामेर किमी न किसी रूप मे मक्रिय है। राजधानी मे ही यहा के राजवश मे विद्वानुगग और विद्वत पोथीग्वाने मे सस्कृत भाषा में लिखे ग्रन्थ सर्वाधिक हैं। समादर की भावना विद्यमान थी। जयपूर गजवश का जो प्राय: मभी विषयों से सम्बद्ध हैं । यह विपुल अन्य राशि पोथीखाना इस तथ्य का माक्षी है। यह पोथीवाना' जयपूर संस्कृत-क्षेत्र मे एक उज्ज्वल कीर्तिमान के रूप में विद्यमान राजघराने के शामको द्वारा अपने गज्य की प्रान्तरिक है। महाराजा मवाई जयसिंह, रामसिंह, प्रतापमिह प्रादि शासन व्यवस्था के मम्यक मचालन को दष्टि मे विभिन्न स्वयं संस्कृत के अच्छे विद्वान मोर स्वथ सवाई प्रतापसिंह ने विभागो के रूप में स्थापित ३६ कारखानों में से एक है। जो बनिधि के नाम से विख्यात है, भतृहरि के शतकत्रय इसमे भामेर एवं जयपुर गज्य के तत्कालीन शासकों द्वारा का ने हिन्दी पद्य अनुवाद किया है । समय-समय पर सगहीत भिन्न-भिन्न भाषामो मे लिखित पोथीवाने की सामग्री निम्न तीन सग्रहो मे विभक्त भिन्न-भिन्न विषयो को पाण्डुलिपिया मुरक्षित है। है:-(१) खास मोहर सग्रह, (२) पोषोखाना सग्रह, पोर
जयपुर राजवश का पोथीवाना विगत मान मो वर्षों (३) पुण्डरीक सग्रह । एक और अन्य संग्रह प्राचीन मुद्रित मे सृजित एव लिपिवद्ध अमूल्य माहित्य को अपने मे समा. ग्रन्थो का है। खास मोहर सग्रह मे ७५०० ग्रन्थ है। यह विष्ट करता है, जो उक्त शासकों के साहित्यानाराग का संग्रह मामेर के शासको का निजी संग्रह है। इस मग्रह मे प्रतीक है। इसमें प्रामेर एव जयपुर राज्य के भू. पू. महत्वपूर्ण प्रतिप्राचीन पाडुलिपिया है। यह राजाम्रो के शाशको मे मिर्जा राजा जयमिह (वि.म. १६७८.१७२४) निजी अधिकार में रहता था। पोथीखाना संग्रह के ग्रन्थों
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२४,
शकि. १
अनकान्त
की संख्या २३५० है। इस संग्रह के कुछ अन्य तो खास १०. अनेकार्थ संग्रह टीका मोहर संग्रह से स्थानान्तरित हये है । इसके अलावा इममे ११. अभिधान नाममाला. हेमचन्द्र पोथीखाने के कर्मचारियों द्वारा लिखित, अन्य लेखको, १२. पभिधान चिन्तामणि नाममाला पण्डितों, कवियों प्रादि द्वारा भेंट में प्राप्त एव अभ्य श्रोतों १३. अर्जुन पनाका से उपलब्ध ग्रन्थ हैं। तृतीय पुण्डरीक संग्रह में २८५१ १४. प्राचाराग सूत्र प्रदीपिका जिनहस मूरि प्रन्थ है जो सवाई जयसिंह प्रथम (वि०म० १७५६-१८००) १५. प्रादि पुराणम् के गुरु रत्नाकर पुण्डरीक और उसके विद्वान उत्तरा- १६. प्राप्त मीमासाल कृति धिकारियों द्वारा सकलित है। चतुर्थ मुद्रित ग्रन्थों को १७. एकाक्षरी नाममाला कोश, वररुचि संख्या ३,००० के लगभग है। इस प्रकार पोथीखाने के १८. एकीभाव स्तोत्रम् वादिराज विभिन्न सग्रहो मे कुल १६००० ग्रन्थ है जो सस्कृत, १६. भौचित्य विचार चर्चा, क्षेमेन्द्र प्राकृत, अपभ्रश, ब्रज, बंगला, मराठी, राजस्थानी और २०. कर्म ग्रन्थ (कर्म विपाक व्याख्या), देवेन्द्र सूरि गुजराती भादि भाषामो मे वेद, स्मृति, पुराण, धर्मशास्त्र, २१. कर्म विपाक इतिहास, वेदान्त, न्याय, योग, मीमासा, बौद्ध, जैन, स्त्रोत्र, २२. कल्याण मन्दिर स्तोत्रम तंत्र, भागम, मत्र-शास्त्र, काव्य, नाटक, चम्पू, व्याकरण, २३. कल्याण मन्दिर, कुमुदचन्द्राचार्य निघण्ट, कोष, छन्द-शास्त्र, रस, अलकार, आयुर्वेद, २४. कल्याण मन्दिर सभाष्यम्, प्रवराज श्रीमाल ज्योतिष, कामशास्त्र प्रादि से सम्बद्ध है।
२५. कैवल्य कल्पद्रुम (स्वराज्य सिद्धि व्याख्या) 'खास मोहर सग्रह' के ग्रन्थों की सूची का प्रकाशन २६. ग्रह भाव प्रकाश (भुवन दीपक पद्मप्रभ सुरि) "Literay Heritage of tbe Rulers of Amber २७. चतुविशति जिनस्तोत्रम् & jaipur" नामक पुस्तक मे श्री गोपालनारायण बहरा २८. चतुर्विशति तीर्थकर स्तोत्रम् के मम्पादकत्व में हो चुका है। जैन संस्कृत प्रन्यो को २६. चन्द्रप्रभ स्तोत्रम् सूची इसी के प्राधार पर यहाँ दी जा रही है :-- ३०. चिन्तामणि पाश्वनाथ स्तोत्रम्
पोथीलाने के 'खास मोहर सग्रह' मे २५० के लगभग ३१. छन्दोऽनुशारनम्, हेमचन्द्राचार्य जैन ग्रन्थ उपलब्ध होते है; जिनमे १२२ हिन्दी भाषा के ३२. जिन तीर्थक गः और शेष सस्कृत के है। हिन्दी ग्रन्थो की सूची वीरवाणी ३३. जिन पजर स्तोत्रम् एवं महावीर जयन्ती स्मारिका १९७८ मे मेरे प्रकाशित लेख ३४. जिनराज स्तव "जयपूर पोथीखान का हिन्दी जैन साहित्य" में दी जा ३५. जिन सहस्रनाम स्तोत्रम, ग्राशाघर चुकी है । सस्कृत ग्रन्थों की सूची इस प्रकार है:- ३६. जिन स्तवन सग्रह १. प्रकलक स्तोत्रम्
३७. जिन स्तुति (समाचारि) २. अनेकार्थ कोश
३८. जिन स्तुति, अभय मूरि ३. अनेकार्थ ध्वनि मंजरी, क्षपणक
३६. जिन स्तोत्र संग्रह , वनि मजरी हेमचन्द्र
४०. जैन मंत्र पाठ ५. नाम माला, हेमचन्द्र
४१. जैन मंत्र सग्रह , नामवृत्ति
४२. जैन यंत्र लेखन विधि ,, मजरी-प्रटीक
४३. जैन स्तोत्रादि संग्रह ,, शब्द सख्या कोश
४४. ज्ञाता धर्म कथा सूत्रम् , संग्रह, हेमचन्द्र
४५. ज्ञाता धर्म कथा सूत्रम् सटम्बार्थम्
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४६. ज्ञानार्णव (नित्यातंत्र ) ४७. विश्वलोमचकोश मुक्तावली, श्रीधरसेन ४८. ज्योतिष सारोहार, हर्षकीति ४९. तत्वाचिगम मोक्षसूत्रम्
५०. तत्वार्थागम सूत्र टिप्पणक: प्रभाकर
५१. तीर्थंकर चरित्रम्
५२. कर्म ग्रन्थ : कुन्दकुन्दाचार्य
५३. देवागमस्तोत्रवृत्ति, वसुनन्दाचार्य
५४. देशी नाम महन्त कोश
५५. धर्म रसायन सूत्रम्
५६. धर्मशर्माभ्युदय-काव्यम् ५७. धर्मोपदेश माला पद्मनन्दि ५८. धातु पाठ: (सारस्वत व्याकरण)
५९. धातु-पाठ: (हेमचन्द्र )
६०. नमस्कार महात्म्यम् ६१. नमस्कार स्तोत्रादया:
६२. नवतत्व प्रकरणम्
६३. पचाक्षर महामंत्र
६४. पद्मपुराणम् ६५. पद्मावती स्तोत्रम्
६६. पानाथ स्तोष म्
६७. प्रतिक्रमण सूत्रम्
६५. प्रत्याख्यान विवरणम् ६६. प्रव्रज्या विधि:
७०. मक्तामर स्तोत्रम्, मानतुंगाचार्य
७१. भक्तामर स्तोत्रम् सटीका ७२. भक्तामर स्तोत्रम् समाध्यम् ७३. भक्तामर स्तोत्रम् भाषार्थ सहितम्
७४. भुवन दीपकम् पद्मप्रभरि ७५. भुवन दीपकम् वृत्ति, सितिलक सूरि ७६. भूपाल चतुविशतिका
७७. भूपाल जिन स्तोत्रम्
७८. महावीर स्वामी स्तोत्रम्
मपुर दोबीसाने का संस्कृत
७६. मृत्यु महोत्सव स्तोत्रम्
८०. योग चिन्तामणि (धायुर्वेद)
८१. रामचन्द्र स्तोत्रम्
साहित्य
८२. विवेक विलास, जिनदतमूरि
८३. विषापहार स्तोत्रम्
८४ विहार नोम् समाध्यम
८५. विहरमान स्तोत्रम्
८६. वीतराग स्तोत्रम्
८७. शान्तिनाय परिश्रम् सकलकोति
८८. शांतिनाथ स्तोत्रम्
८६. श्रावकाचार, सकलकीर्ति
१०. षट्पद-काव्य वृति, जिनप्रभसूरि
११.
पाहुन्य कुन्दकुन्दाचार्य
२. पदर्शनसमुचय हरिभद्र
६३. सज्जन- चित्त बल्लम-स्तोत्रम्
,
१४. साधु-ग्रहणी प्रकरणम्
१५. मामधिकाप्रकरणम्
२६. सारस्वत चन्द्रिका चन्द्रकीतिरि
२५
६७ सारस्वत व्याकरणम्
८. सिन्दूरप्रकरस्तव सटीकम्, सोमप्रभाचाय
६१. सुप्रभात स्तोत्रम्
१००. सूक्तिमकाल सोमप्रभाचार्य
१०१. सोमनाथ स्तोत्रम्
१०२. स्नान विधि (जंगपुराण)
उक्त संग्रह मे जैन व्याकरण, स्तात्र एवं सुभाषित
ग्रन्थो का संकलन अधिक है ।
O
चतुर्थ विश्व पुस्तक मेले
में
वीर सेवा मन्दिर के प्रकाशनों
की प्रदर्शनी
वीर सेवा मन्दिर ने नई दिल्ली में २६ फरवरी, १९८० मे ११ मार्च, १९८० तक हुए चतुर्थ विश्व मेले में जैन तत्वज्ञान विषयक अपने प्रकाशनों का स्टाक लगाया था जो जैन धर्म विषयक पुस्तकों का एक मात्र स्टाक था । पुस्तकों को पर्याप्त विक्री हुई एवं इस कार्य की सर्वत्र सराहना की गयी।
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ऋषभदेव : सिन्धु-सभ्यता के प्राराध्य ?
0 श्री ज्ञानस्वरूप गुप्ता
मोहनजोदडो व हडप्पा, विश्व के सबसे प्राचीन इन दोनो धर्मों को छठी शताब्दी ईसा पूर्व से अधिक नगर, विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता मिन्धुघाटी सभ्यता प्राचीन न मानते हुए उन्होंने मिन्धु घाटी सभ्यता के के पादि केन्द्र थे। ईमा से ३००० वर्ष से भी अधिक माराध्य देव शिव या कद्र को माना है। परन्तु इन मद्रामों पहले ये समृद्धिशाली थे। इनके नागिरिको को सस्कृति
पर अन्य कोई चित्र शिव या रुद्र से सम्बन्धित नही पाया धम, राजनीतिक रूप क्या था यह भाज भी रहस्य मेहुबा गया व इस तरह एक सूत्र में मम्बद्ध नही हो पाया। अब हुपा है यद्यपि पुरातत्त्ववेत्तानो के ग्राह्वान पर इन्होने । जो तथ्य सामने प्राये है जिनमे उपरोक्त मद्रायें भी शामिल लगभग ढाई हजार मिट्टी की बनी हुई पाग में तपो हुई है, यह पता चलता है कि कदाचित् ऋषभदेव उपादेय मद्रायें उपलब्ध की है जिन पर तरह-तरह के चित्र व दृश्य
व उनको पाराधना ही प्राचीन भारत का धर्म था जो बने हुए है। इन मद्रामों से भारतीय जीवन में रम हुए धर्म ईमा पूर्व छठी शताब्दी में महावीर व गौतम बुद्ध के धार्मिक चिह्न प्रोम्, स्वस्तिक, नवग्रह व वह चिह्न जिस अनुयायियों में बँट गया, व मौर्य साम्राज्य के पतन के साथ दशहर या दीवाली पर सम्पूर्ण उत्तरी भारत में प्राट या
ही वह भी ममाप्त हो गया। उसका स्थान लिया वैष्णव गोबर से बनाकर पूजा जाता है और जिसे अयोध्या का
धर्म ने, जिम पूज्य देवता वामनावतार अदिति के पुत्र प्रतीक माना जाता है, प्रचुरता से पाये जाते है। त्रिविक्रम विष्ण थे जो जन भाषा मे विक्रमादित्य कहे जाते
इतना होते हुए भी इतिहासज्ञ इम सभ्यता का है। इस प्रकार इन धर्मों का क्रम उल्टा मानने से जैन धर्म भारतीय सस्कृति, धर्म व मभ्यता का मूल माधार मानन प्राचीन हो जाता है और उसके मूल सिद्धान्तो की झलके को इसलिय तयार नहो थे क्योकि इन मुद्रामो पर प्रकित मिन्धघाटी मभ्यता की उत्खनित मद्राओं पर एक ही सूत्र चिह्न व दष्य एक-दूसरे से सम्बद्ध प्रतीत नहीं होते थे। मे सम्बद्ध पाई जाती है। प्राइये, इन मद्रामों पर चित्रण उनका मानना है कि यह सभ्यता कोई अन्य मभ्यता थी, का अध्ययन करें। जिमे १८वी शताब्दी ईमा पूर्व में बाहर से पान वाली सिन्धुघाटी सभ्यता के क्षेत्र से निकली हुई मुद्रामो में प्राय जानि न समाप्त कर दिया। परन्तु अब कुछ एम नथ्य स मोहनजोदडीस निकली मुद्रा नम्बर ४२० (फरदर सामने गाये है व इन मद्रानी के चिह्नो का पुनः अध्ययन एक्सकॅवेशन गट मोहन जोदडो) इस रहस्य की कुजो है। करने में पता लगता है कि इन मुद्रामा पर प्रनको चित्र प्रतः इसी को प्राधार मानना उचित रहेगा। इस मद्रा पर भगवान विष्णु के अवतार व जैनधर्म क प्रथम तीथकर एक देवी पुरुष को प्राकृति है जिसके सिर पर सिगो के ऋषभदेवकी के कथानक की मुख्य घटनायें-श्री ऋषभदेव।
प्राकार का एक मकुट है। शरीर के ऊपरी भाग में कोई का चित्र, उनक ज्ञान प्राप्ति के बाद का प्रथम भाषण
वस्त्र या कवच पहना हुमा है जो ताड़ के पत्ते का भी (समवसरण), उनके पुत्र मम्राट भरत का बाल्यकाल का
प्राभाम देता है। देखने से इसका मुख कुछ विचित्र प्रकार चित्र भी इसमें पाया जाता है। इस कयानक का देखने
का नजर पाता है। सर जोन मार्शल,(जिनकी देखरेख मे. से यह मभ्यता न केवल रहस्यमय युग से बाहर मा जाती हडप्पा और मोहनजोदडो का उत्खनन हुमा था) का है, परन्तु भारतीय इतिहास के पन्धकारमय युग को भी
विचार है कि इस चित्रण मे वह व्यक्ति है जिसके तीन मुख मालोकित कर देती है ।
है। केदारनाथ शास्त्री, जो हड़प्पा के उत्खनक रहे है, का ऋषभदेव का चित्रण
विचार है कि यह एक पशु मुख है, शायद भैसे का । देखने भारतीय इतिहासज्ञ इस बात को मानकर चलते थे से यह पशु मुख नजर पाता है परन्तु भैसे का न होकर कि वैदिक युग की हिंसामो को देखकर व उनसे दया से बल का मुख प्रतीत होता है। यह व्यक्ति एक मासन पर प्रेरित होकर जैन धर्म बौद्ध धर्म का प्रादुर्भाव हुमा, प्रतः बैठाया गया है जिसके तीन या चार पाये हो सकते हैं।
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ऋषभदेष : सिन्धु-सभ्यताकेधाराध्य ?
इस पासन के नीचे दो हिरनों को मामने-सामने खडे हुए केवल दो ही हैं । संकरक्षण बलराम पौर ऋषभ । संकरक्षण पोछे की तरफ मुड़कर देखते हुए दिखाया गया है। इस बलराम का चिह्न हल है और ऋषभ का मतलब बैल है मूर्ति के एक तरफ गंण्डा और भैसा बने हुए है मोर दूसरी व इनका चिह्न बल है, प्रतः यह निश्चित करना होगा कि तरफ एक हाथी और शेर और मानव का भी प्रतीकात्मक इन दोनो मे स यह व्यक्ति कौन हो सकता है। दोनों ही चित्रण किया हुमा है। इस व्यक्ति को सर जोन मार्शल ने प्राचीन पौराणिक व्यक्ति है। अगर हम इस मुद्रा को देखें पशुपति नाथ शिव बताया है जबकि केदारनाथ शास्त्री के इस व्यक्ति के नीचे दो हिरनो की जोड़ी पायी जाती है। अगर अनुसार यह शिव न होकर वेदो मे वणित रुद्र का रूप गौतम बद्ध की मूर्तियों को देखा जाय तो उसमे भी उनके प्रासन होना चाहिये।
के नीचे दो हिरनो की जोड़ी पायी जाती है। जैन तीर्थंकर इस मूर्ति को, जो इस सभ्यता की प्राण है, जानने के
२४ हुये है और सबकी मूर्तियों के नीचे हिरनों की जोड़ी लिये एक बार पुन: प्रकाश में लाना उचित रहेगा। सबसे
एक विशिष्ट प्रतीक है। दिगम्बर रहना और ससार के पहले इस मूर्ति के सिंगाकार मकुट को देखा जाय व
__ समस्त जीवो से दया और मित्रता का व्यवहार रखना उसका अध्ययन किया जावे । प्रगर हम इसक मुकूट को
जैन धर्म का मूल विचार है । अतः यह मूर्ति ऋषभ देव जो मद्रा नम्बर ४२० मे बना है, देखें और अन्य मुद्रामो
जो विष्णु के पाठवें अवतार व जैनियो के प्रथम तीर्थकर को भी देखे तब हम पायेंगे इसमे बना हुमा यह मुकुट
है, की हो सकती है। दूसरी तरफ इस मुद्रा में बैठा अधुरा है । मोहनजोदडो से उत्सवनित मुद्रा नम्बर ४३०
व्यक्ति एक ऊपरी भाग में एक ऐसा वस्त्र पहने हुए है जो (फरदर एक्स के वेशन एट मोहनजोदड़ो-मके) को देखें तो
ताड़ के पत्ते की तरह से नजर पाता है। ताड़ का पता उसके अन्दर इस मुकुट का पूर्ण रूप पाया है जिससे इस
बलराम का प्रतीक है, जिसे तालध्वज भी कहा जाता त्रिशलाकार मुकुट के नीचे एक पूछ लटक रही है जो
है । इसके अतिरिक्त मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक सील में मूर्ति के बायो तरफ प्रौर देखने वाले के दायी तरफ झकी इसी तरह का एक व्यक्ति बैठा हुमा दिखाया गया है हुई है। अगर इस मुकुट को पूरे को ही निकाल कर अलग जिसके प्रासन के नीचे दो हिरन है और मोम का मकूट रख लिया जाय तो यह एक अनूठा दृश्य दिखाता है है और उसके दोनो तरफ दोनो घुटनो के बल बैठे हुए क्योकि बाहर निकालकर प्रगर इसे १० डिग्री के कोण पर व्यक्ति उमे दो प्रतीक भेट कर रह है। उनके पीछे एक-एक बांयी तरफ मोड दिया जाय तो यह हिन्दूषो के सबसे बड़े मर्प फन फैलाये हुये खड़े है। बलराम को शेषावतार पवित्र चित्र ॐ [प्रोम् का प्राकार ले लेता है, क्योकि माना जाता है और अगर यह दोनो व्यक्ति जो उसे हिन्दुप्रो व अन्य धर्मावलम्बियों के समस्त धार्मिक चिह नमस्कार कर रहे है, वाम्बव में सपं है, तब यह व्यक्ति सिन्धु घाटी सभ्यतामों की मुद्रानो पर पाये जाते है इमलिए बलराम हो सकता है। भारतीय पौराणिक गाथा के इसे पोम् मानने में हमे झिझक नही होनी चाहिए । मोम्
चाहिए। माम् अनुसार, प्रगर साप किसी व्यक्ति के ऊपर छत्री की तरह रूपी चिह्न को मुकुट रूप मे पहनने के कारण यह व्यक्ति से फन फैलाता है तो वह राजा माना जाता है। प्रतः दवा माना जाना चाहिये । इस पूणरूप से समझने के लिये अगर यह दोनो व्यक्ति राजा हैं तब यह प्रतीत होता है हमे पौराणिक कथाम्रो का अध्ययन कर उनकी सहायता कि यह उन स्थानो के राजा होगे जो माज के दिन हड़प्पा से इस व्यक्ति की जानकारी लेना उचित रहेगा। हमारी प्रौर मोहनजोदड़ो के नाम से जाने जाते हैं और वह एक पौराणिक गाथाम्रो मे प्रोम् सदा ही विष्णु से सम्बन्धित धार्मिक अध्यक्ष को नमस्कार कर रहे है। अगर हम रहा है शिव और रुद्र से नही, प्रतः यह व्यक्ति वह होना मोहनजोदडो से प्राप्त मद्रा का अध्ययन करें, तो इसके अन्दर चाहिए जो कालान्तर मे विष्णु का अवतार माना।
एक तरफ एक विचित्र प्रतीक बना हुप्रा है और दूसरी तरफ गया हो।
एक घटनों के बल बैठा हमा व्यक्ति एक वृक्ष को प्रतीक भेंट विष्णु के अवतारो मे सोलह मानवावतार है जिनमे कर रहा है । यह विचित्र प्रतीक इस प्रकार का चिह्न है ऐसे व्यक्ति जो ऋषि हों और जिनका बल से सम्बन्ध रहा हो जिस प्रकार का प्रतीक समम्त उत्तरी भारत मे लोम
पाहा।
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२८, बर्ष ३३, कि.१
भनेकान्त
दशहरे या दिवालो के दिन माटे या गोबर से बनाकर पूजा की तरफ देखता खड़ा है। यह दृश्य बहुत अधिक मुद्रामों करते हैं। यह प्रतीक अयोध्या का है, जैसा अथर्ववेद पर पाया जाता है। मोहनजोदड़ो से प्राप्त मुद्रा नम्बर से भी पता लगता है। इसमे दूसरी तरफ घुटनो के बल १४ में भी तीन दिशायें हैं, एक दिशा पर वृक्ष है जिसके बैठा हुमा व्यक्ति एक दूसरा प्रतीक का वृक्ष को भेंट कर रहा दोनों तरफ हिरनों का जोड़ा है और एक तीन सिर वाला है। वह इस प्रकार का प्रतीक भेंटकर रहा है, जैसा प्रतीक जानवर है, इसकी अन्य दोनो दिशामों पर १० जानवरों पूर्व मुद्रा में देवी व्यक्ति को भेंट कर रहा था । एकमा ही का एक जलस मे है । इस जलम दो मगर भी हैं जो अपने प्रतीक एक देवी व्यक्ति को और एक वृक्ष को मेंट करना मुंह में एक-एक मछली लिये जा रहे है । ऐसा प्रतीत होता महत्वपूर्ण विशिष्टता है । यह यही दिग्याता है कि यह वृक्ष है कि मछलियां क्योकि पृथ्वी पर नहीं चल सकती है इससिन्धघाटी सभ्यता के देवी पुरुष का भी प्रतीक है और लिये मगर के द्वारा ले जाई जा रही है। इस प्रकार मोहनअलग-अलग मुद्रामों पर वहा हम इस तरह से वृक्ष को जोदड़ो से प्राप्त मद्रा नम्बर ४८८ मे चार पशुधों का, तीन पाते हैं, हमे यह मानना चाहिये कि यह इमी पुरुष को मगर व तीन पशुप्रों का जुलम है, मगर मछलियां मुंह में बता रहे हैं।
लिये जा रहा है और यह जुलूस बहुत प्रादरपूर्वक जा निर्वाण अयोध्या में
रहा है। इन तीन मुद्रामों पर जानवरो के जुलूस को इस बात से इसकी भोर पुष्टि होती है कि मुद्रामों मे देवी पुरुष की तरफ श्रद्धापूर्वक जाते हुए दिखाया गया इस वृक्ष के साथ दोनों तरफ वही हिरनो का जोड़ा है। इसका क्या निष्कर्ष निकाला जा सकता है? इससे मिलता है जो इस देवी पुरुष के मासन के नीचे पूर्व यही प्रतीत होता है कि यह उस देवी पुरुष के जीवन का मद्रामों पर देखा गया था। इन मुद्रामो पर क्योकि इस देवी कोई ऐसा विशिष्ट क्षण है जब समस्त जीव जिनमे पशु पुरुष के प्रतीक है, इसलिए यह माना जा सकता है कि मोर पक्षी भी सम्मिलित थे, उसे नमस्कार करने के लिए इस देवी पुरुष का प्रयोध्या से भी सम्बन्ध है। हम यह पोर उसे सुनने के लिए भी जा रहे थे। हिन्दू पौराणिक देखते हैं कि जैन पौराणिक गाथाम्रो के अन्दर ऋषम का गाधामों में कोई ऐसा जिक्र नहीं पाता है जबकि पशु पौर निर्वाण अयोध्या में हुमा था। हम यह भी पाते है कि पक्षी किसी देवी पुरुष के पास गये थे, परन्तु जैन कयामों महान पुरुषों को वृक्षो से प्रतीकात्मक रूप मे सदा ही में ऐसी कहानी पायी जाती है। ऋषभ, जो पहले बताया जाता रहा है। हम यह पाते है कि प्रारम्भिक काल तीर्थकर थे, को जब केवल ज्ञान प्राप्त हुमा तब उन्हें में गोतम बुद्ध को बोधि वृक्ष से ही मूर्तियो पर बताया भाषण देना आवश्यक हुपा। एक बहुत विशाल भाषण जाता था व केवल बाद मे ही उनकी मूर्ति बनने लगी। देने का स्थान बन गया जिसे जैन मान्यता के अनुसार इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि यह वैवी चित्रण बलराम । समवसरण कहते हैं व समस्त देवता मौर समस्त बीवका न होकर ऋषभ का ही है।
जन्तु सुनने गये थे। इन उपरोक्त मुद्रामों पर कदाचित जैन समवसरण का संकेत
इन घटनामों को प्रदर्शित किया गया है और अगर यह इस सबके बाद अन्य मद्रामो को देखना उचित होगा। सत्य है तब यह देवी पुरुष ऋषभदेव होना चाहिये पर मोहनजोदड़ो से प्राप्त मुद्रा नम्बर १३ मे मद्रा की तीन सिन्धुघाटी सभ्यता जैन सभ्यता होना चाहिये । दिशायें है । उस दिशा पर एक पेड़ है जिसक दोनो तरफ
ऋषभदेवके पुत्र सम्राट भरत हिरन है जो इस बात को बनाते है कि यह वृक्ष देवी ह ड़प्पा से प्राप्त मुद्रा नम्बर ३०८ मे एक पुरुष पुरुष का प्रतीक है। दूसरी तरफ तीन जानवरों का-एक दिखाया हमा है, जिसके दोनो तरफ एक-एक शेर बड़े शृग, हाथी मोर गण्डा का जलस है जो देवी वृक्ष की है। इसी दृश्य का चित्र मोहनजोदड़ो को प्राप्त पार तरफ जा रहा है। तीसरी तरफ एक पेड़ है, माखिरी डाली मुद्रामो पर भी पाया जाता है । हिन्दू पुराणों मे भरत को पर एक व्यक्ति बैठा हुमा है जिसके नीचे एक शेर पोछे बचपन से ही शेरों के साथ दिखाया गया है परन्तु यह
६ विद्वान् लेखक ने अयोध्या को ऋषभदेव की निर्वाण-भूमि माना है किन्तु जन मान्यतानुसार प्रयोध्या उमकी जन्मभूमि है तथा निर्वाण भूमि तो अष्टापद है।
-सम्पादक
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ऋषभदेव-सिम्पु : सम्यता के माराध्य ?
भरत शकुन्तला का पत्र था । हमें यह ध्यान रखना चाहिये उदाहरणार्थ नर-नारायण, कृष्ण-बलराम या ऋषभ पौर कि भरत जो चक्रवर्ती मम्राट थे वे ऋशभ के पुत्र थे। उनके पुत्र भरत जो ऋषभ के जीवन काल में ही सम्राट ऐसा प्रतीत होता है कि मिन्धु सम्पना के पतन के बाद बना दिये गये थे। एक और दृश्य जो बहुत अधिक मुद्रामों जब छठी शताब्दी ईसा पूर्व मे जैन धर्म समाप्तप्राय पर पाया गया है वह एक ऐसे जानवर का है जिसके हो गया और वैष्णव धर्म प्रारम्भ हवा तब भी जनमानस शरीर के प्रग विभिन्न जानवरों के शरीरों के अगों से मे भरत पोर शेरो मे माथ बराबर बना रहा, परन्तु क्योकि मिलकर दिखाये गये है, परन्तु हर मुद्रा पर अलग-अलग जनमानस जैन राजामो को भुलाना चाहता था इसलिये रूप में दिखाये गये है । यह कदाचित् सब जन्तुओं में शकुन्तला के पुत्र भरन के साथ गलती से इन शेरो का एक ही प्रात्मा का चित्रण है जो कि जैन धर्म का एक सम्बन्ध बना दिया गया। प्रतः हमे यह मा नकर चलना प्रमुख प्रग है। चाहिये कि यह राजा ऋषभ के पुत्र भरत होगे।
सिन्ध घाटी सभ्यता का जनधर्म नर्म?' अन्य चित्र
इस प्रकार हम देखते है कि सिन्धु घाटी सभ्यता जो कुछ अन्य मुद्रामो पर कुछ और दृश्य काफी संख्या कि माज स ५००० वर्ष पूर्व फली-फूली थी पोर जो माज से मिलते है, परन्तु उनका पर्थ वर्तमान समय मे समझ मे तक समझ मे नही पा पाई है, वह भारतीय संस्कृति और नही पाता है। एक दृश्य बहुत प्राता है। वह है देवी पुरुष इतिहास की प्राधार के रूप मे दखी जाये तो स्पष्ट रूप से के प्रतीक वृक्ष की सबसे नीचे की शाखा पर एक मनुष्य प्रकट होने लगती है। हम यह भी देखते है कि भारत का बंठा हुमा दिखाया है जिसके नीचे एक शेर पीछे की तरफ प्राचीनतम धर्म जैनधर्म इस सभ्यता में प्रारम्भ होकर देखता हुमा खहा है। यह अकेला मोहनजोदड़ो से प्राप्त फला-फुला और उसके मुख्य माधार इस सभ्यता की मुद्रा ३५७ भोर ५२२ (फरदर एक्स केवेशन एट मोहन- मुद्रामों पर प्रतिबिम्बित होते हैं। गौतम बुद्ध के समजोदडो-मैके) और हडप्पा से प्राप्त मुद्रा न० २४८ ३०८ कालीन, ईसा पूर्व छठी शताब्दी मे महावीर स्वामी जैनियों (एक्सकेवेशन एट हडप्पा-वन्स) मे पाया जाता है। अन्य के चौबीसवें तीर्थकर हुए थे। मगर दो तीचंकरों के बीच मुद्रामों पर अन्य दृश्य के साथ पायी जाने वाली मद्रायें में प्रोसतन १५० वर्ष का समय माना जाए तो ऋषमदेव नम्बर १, १३, २३ पोर हरप्पा से प्राप्त मुद्रा न० ३०३ का समय ईसा पूर्व ४००० वर्ष का हो जाएगा जो कि पर पाया गया है। वह एक दंवी पुरुष मोम् रूप का सिम्घ घाटी सभ्यता का लगभग मादि काल था। इसलिए मुकुट पहने हुए पीपल के पेड़ की भूमि से निकली दो यह पुष्टि हो जाती है कि ऋषभदेव जी मिन्ध घाटी शाखामों के बीच मे खडा है । उसके सामने एक अन्य देवी सभ्यता के पूजनीय पुरुष थे पोर उनके जीवन की महत्व. पुरुष प्रोम् रूपी मुकुट पहने एक पैर पर बैठा है पोर पूर्ण घटनाए सिन्धु घाटी से उत्खनित मुद्रामो पर चित्रित उसकी पूजा कर रहा है और उस बैठे हुए व्यक्ति दश्यो में प्रतिबिम्बित हो रही है। जो दृश्य प्रभी समझ मे के पीछे या पागे एक अजीब सा जन्तु दिखाया गया है नही पा रहे है वे कदाचिन उनके या उनसे सम्बन्धित जिसके शरीर के प्रग अलग-अलग जानवरो के शरीर के व्यक्तियो के जीवन की उन घटनामो को चित्रित करते हैं अंगों से मिलकर बने हैं। इनके साथ किसी मुद्रा पर मात जिन्हे हम इतने युग बीत जाने पर भूल गए। इससे यह व्यक्ति, किसो मे पाच, किमी में एक भी नहीं दिखाया भी स्पष्ट होता है कि सिन्धु घाटी सभ्यता का धर्म जैन गया है । यह दव्य मोहनजोदड़ो से प्राप्त मुद्रा न. ४३. धर्म या और मिन्ध घाटी सभ्यता जैन मभ्यता थी। यही (फरदर एक्स केवेशन-मके) भोर हड़प्पा से प्राप्त मुद्रा न. कारण था कि जब जैन धर्म को हटाकर ईमा से ५६ वर्ष ३१६ और ३१० (एक्म केवेशन एट हहप्पा-वत्स) मे पाया पूर्व वैष्णव धर्म, नवीन भारत के धर्म के रूप में प्रतिष्ठित जाता है। यह उन देवी पुरुषो के जोई हो सकते है जो हुमा तो उसने भी ऋषभदेव जी को भगवान विष्णु का कि पौराणिक गाथामो में अक्सर साप पाये जाते हैं। माठवा अवतार माना ।
D00
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जैन पत्र : एक अध्ययन
0 श्री लक्ष्मीचन्द्र 'सरोग' एम. ए.
[पत्र को भाँति समस्यायें मिला करती हैं।
मौत बैरंग लिफाफे की तरह पाती है ।। सुश्री ज्ञानवती सक्सेना की ये पंक्तियां जैन पत्रों पर भी चरितार्थ होती हैं।
सामाजिक धार्मिक और कभी-कभी राष्ट्रीय जीवन हो जाते है। कभी-कभी देश काल भूल जाते हैं। की झलक देने वाले अन्य माध्यमों की तरह जैन पत्र भी साप्ताहिक से मासिक, मासिक से त्रैमासिक तक हो जाते एक सशक्त माध्यम हैं। वे हमारे पठन-पाठन, मनन- हैं। जैन पत्रों के सभी सहयोगी प्राय: कबीर के शब्दों में चिन्तन और सूचना तथा मनोरजन के भी श्रेष्ठ साधन 'जो घर के पापना होह हमारे साथ' सदृश होते हैं, है परन्तु दुःख का विषय यह है कि प्रविकाश जैन पत्र, उनमें कार्य करने की क्षमता का प्रादुर्भाव हो नही पाता धर्म और समाज का न तो मही चित्र प्रस्तुत करते है और है। जैन पत्रो के सम्पादक ही जब अवैतनिक होते है तब न समचित सामयिक दिग्दर्शन ही करते है केवल इतना लेखको/कवियो के लिए रचना वाले पत्र की प्रति भिजवा ही नही बल्कि रचना पोर समाचार मूलक स्वस्थ स्वच्छ दे तो बहुत समझो। जो पत्र कुछ लेखकों कवियो को पठनीय मननीय सामग्री भी अपने पाठको ग्राहको को निःशुल्क पत्र भेजते हैं वे उन्हें अपने वर्ग की परिधि में नही दे पाते है।
ही देखना चाहते है। यदि वे कृत्रिम लक्ष्मण रेखा का पत्र प्रकाशन के नाम पर घटिया छपाई मामान्य
उलघन करते हैं तो पत्र और पत्र व्यवहार तक बन्द कर कागज साधारण रचनायें अस्वस्थ सामाजिक दृष्टिकोण देते है। कोई धूर्त कुशल पत्रकार तो पुरस्कार देने की संकुचित साम्प्रदायिक दृष्टि प्रदूरदर्शी सम्पादकीय धिसी घोषणा करके भी स्वयं ही पचा जाते है और पुरस्कार साफ पिटी नवीनता विहीन बातें अनाकर्षक समाचार लगभग बचा जाते हैं। ऐसे पत्र पाठको को भ्रम मे डाले रहते हैं सब बेकार और बेगार मा लगता है। जंन पत्र समाज- कि वे लेखको/कवियों को उनको रचनामों का पारिश्रमिक सुधार की अपेक्षा प्रात्म उद्धार की चर्चा में विशेष रस दे रहे है इस प्रमोष उपाय द्वारा वे समाज से सम्पत्ति लेते है। कभी-कभी सिर-पर के समाचार और प्रवश्य बटोर लेते है। सम्बाददाता को तो शायद ही पत्र निबन्ध भी छाप देते है। कालान्तर में पूर्वापर विचारक को प्रति मिलती हो । महाममिति के बलेटिन मे भी स्वय प्रौढ़ विद्वानो के प्रतिवादात्मक वृत्त-निबन्ध भी प्रकाशित कर सेवा भावी संवाददाता चाहे गये थे। प्रोसतन जातीय देते है। एक से अधिक बार जो नही छापना चाहिए, जिससे पत्रों की संख्या अधिक होने पर भी स्तर अतनत ही पत्र/पत्रिका की छवि बिगडती है, वह छप जाता है और जो रहता है। छपना चाहिए, यह पत्र की फाइल मे वर्षों दबा रहता है या नवोपकार -, व्यनित. रद्दी की टोकरी में फेंक दिया जाता है।
गत । समाज दोनों में कोई भेदभाव नहीं करती है। जैन पत्र प्रायः 'चले चलन दो ढला चला' वाली समान रूप से सहायता देती है, ग्राहक बनती है। जो नीति लिये रहते हैं। जैन पत्रो का निकलना पोर बन्द व्यक्तिगत पत्र हैं वे सामाजिक की भपेक्षा व्यवसायिक होना एक साधारण-सी बात है । वे बिजली की अनियमितता अधिक हैं। कारण उनसे सम्पादक का नाम ही नहीं बल्कि मुद्रणालय के कर्मचारियो को प्रकृपा, प्राकृतिक प्रकोप दाम भी जुड़ा है और जो संस्थागत पत्र हैं, वे भी नीति बाढ़, सम्पादक के प्रयास से परेशान होकर नियमित भी के नैतिक बन्धन में तो हैं ही। जब समान स्वार्थ में भी
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बैन पत्र : एक अध्ययन
धार्मिक-सामाजिक सस्थायें एक नहीं हो पाती है तब उनके मंदिर-वेदी-पंचकल्याणक प्रतिष्ठा पौर गजरप-सम्मेलनपत्रों और सम्पादकों-लेखकों-कवियों का एक मेक होना अधिवेशन के सीमित अवसर पर ही समन्तभद्राचार्य के कैसे सम्भव है ? प्रतीत मे एक दो बार सम्पादक लखक शब्दो में 'न धर्मो घामिबिना' की भावना को इतिश्री को प्रखबारी चर्चा हुई। सम्मेलन हो भी जाता तो वह हो जाती है। जो जैन दरिद्रता की परिधि मे है, जो न सभानों के सम्मेलन सदश सकस बन कर रह जाता। पिता अपनी कन्यानो के विवाह की चिन्तायें लिए हुए हैं, व्यक्तिगत पत्रकार तो समाज के सम्पर्क में रहकर भी जो जन युवक काम-नाम-दाम के लिए अधीर प्रातुर है ? उससे सूदूर रहते है, शायद उन्हें भय है कि कहीं कोई अन्य उनके लिये भी जैन पत्र क्या व्यवस्था मूलक सहयोग देते है? हस्तक्षेप न करने लगे या उन पर छा जावे । कोई प्रचारको कोई नेतर हमारे जैन पत्रो को देख-देख कर क्या धारणा द्वारा, कोई लाटरी द्वारा ग्राहक मख्या बढाना चाहते या बनावेगा? यही कि जैन परस्पर लडाकू है, पात्म प्रशंसा जो ग्राहक है, उन्हे बनाये रखना चाहते है । चूकि मभी प्रिय है, प्रीति भोजो के इतने शोकीन हैं कि प्रतिष्ठानों पत्रकार अपने लिए बहुत बडा मानते है । 'हम किमी से मे भी नही भूलते है । वे कार्य की सफलता, प्रस्ताव और कम नहीं समझते है। प्रतएव वे पत्रकारिता की दिशा में प्रतिक्रिया तथा परिणाम से नही, जमाव से मानने लगे है। विशेष परिश्रम करना तो दूर रहा, कोई ममझदार उन्हे जैसे रामानन्द मिह ने खण्डवा में कहा था-हिन्दी सकेत करें तो वे उसकी अवहेलना करते है। सुझाव- साहित्य को समृद्ध बनाने में प्राज का साहित्यकार सम्पत्ति मांगते है पर छापते वही है जो उनके अनुकूल समुचित योगदान देने में लगभग असफल रहा है। अध्ययन हो। प्रतिकूल छापकर प्रतिवाद करना जैन पत्रो को एक चिन्तन की कमी स माहित्यकारो मे कल्पना एव लगभग नही पाता है।
मृजन शक्ति का क्रमिक हाम होता जा रहा है वैसे हो जैन पत्रो में धार्मिक-सामाजिक चर्चा की माह में जन पत्र : एक अध्ययन निबन्ध क पाठको से कभी-कभी व्यक्तिगत प्राक्षेप मूलक बातें भी बिना पूर्वा
करना है कि जैन धर्म मोर समाज को समुन्नत बनाने मे पर विचार किये छार दी जाती है। जैन पत्र परायो की
जैन पत्र पत्रकार, लेखक-कवि-कहानीकार भी प्रसफल रहे
जन पत्र• पत्रकार, लग्नकनिन्दा और अपनो की प्रशसा करने मे कुशल है। किसी भी है। जन ममाज ममृद्ध सम्पन्न है भोर जैन साहित्यकारो में विरोधी की ही बात को छापने के लिए न तो वे साहस ।
प्रतिभा का प्रभाव नही है पर सुयोग्य मंयोजक मोर जुटा पाते हैं और न छापकर तत्काल उमका मतकं मटीक माथिक प्रोत्माहन के प्रभाव में जन माहित्यकार प्रागे बढ़ उत्तर भी दे पात है। कानजी प्रकानजी, तेरहबास पन्थ, नही पाने है और स्वर्गीय भगवत्स्वरूप भगवत के शब्दो म महासभा । सिद्धान्त मक्षिणी। परिषद जातीय सज्ञक सोचना पड़ना है-माज कड़ानो के इस युग में जैन कथाजैसे विविध वर्ग रहते है। प्रत्येक पत्र प्रपन लिए मर्वोपरि उपवन मूना क्यो' जैन पत्री को मख्या अधिक है शीर्षस्थ समझता है। नवादित पत्रकार तक पूर्वाग्रह लिए पर उनमे "अनान" जैसे उच्च कोटि के प्रोर तीर्थकर' मन्य अनुभवियो के अनुभवों से लाभान्वित होने के लिए सदा मजग कितन है ? जबकि जैन पत्रा के सपादन कोई विशेष प्रयत्न नहीं करते है। सामयिक सुझाव ग्रान म कुशलता का पोर प्रकाशन में सुरुचिपूर्णता का समावेश पर भी नही मानते है । नवीन प्रान्दोलन तब तक नही नही होता है, जब तक उनक कवि-लखक ममचित पारिछेरते हैं जब तक वह सिर पर पा हा न पड़े। क्या जैन श्रमिक तो दूर रहा । सामान्य पाष्टज भी नही पात है पत्रो में वास्तब मे जन जन की झाकी मिलती है ? जनत्व और मवाददाता पत्र की प्रति को प्रताक्षा म अपनी माँखें की झलक पत्र के नाम पथवा उद्देश्य को उक्ति तक हो तो पथरा रहे है जब तक पाठको की स्थिति से न पत्र सन्तुष्ट सीमित नही है? जैन संस्कृति के माघार सदृश होते है और न सामान्य पाठक क लिए वे सन्तुष्टि देत सहधर्मी बन्धुषों के सहयोग बाबत कोई सूचना भी निकलती है तब तक जैन पत्र मेरी दृष्टि में उस वर्षा क समान है है? या पर्युषण पर्व मौर अष्टान्हिका के अवसर पर, जो न हो तो अनावृष्टि का सकट मोर हा तो अतिवृष्टि
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३२, बर्ष २३, कि.१
अनेकान्त
का संकट, दोनों ही स्थितियां सुखद नहीं होकर दुःखद हैं। के सभी सदस्य इस विषय में गम्भीरता पूर्वक विचार बन पत्र मी दैनिक जीवन धारा में जुड़ें। प्रादर्शवादी बिनिमय करेंगे। जैन पत्र-पत्रिकामों के संबंध में निष्कर्ष धार्मिक चर्चा मे इतने तन्मय नहीं हो जायें कि यथार्थ की स्वरूप कहा जा सकेगा किबसुधा के जीवन की इतिश्री ही हो जावे। वे हल्के सस्ते
(१) न पत्र पत्रिकायें कम निकलती हैं. कार्यों में छिछले उबाऊ, वातावरण से बचें। अपनी ही रंगीन सपनीली रूबे हुए समाज के लिए निकलती है, अविकसित पाठकों दुनियां में विचरण नहीं करते रहें बल्कि वास्तविक जैन के लिए निकलती है, एकरूपता के लिए निकलती है, बन की झांकी प्रस्तुत करें। जिनका दुश्चरित्र विख्यात प्रतएव उन्हें बाहर से ही देखकर पहचाना जा सकता है। है, जो सट्टा जुमा शराबखोरी तस्करी वृत्ति के लिए हैं।
(२) जैसे कुछ लोग बगीचा लगाते, ग्रन्थालय बनाते, जो मांसाहारी भोग विलासी हैं, ऐसे व्यक्ति भले तीर्थकर
कार खरीदते, सट्टा लगाते-प्रतिष्ठा बढ़ाते वैसे ही जैन के माता-पिता भी पचकल्याणक प्रतीष्ठा मे क्यों न बने
पत्र शौक लिए निकलते, शौक पूर्ण होते ही शोक लिए पर उनके वृत्त-चित्र न छापे तो जैन पत्र सार्थक हो । यदि
समाप्त होते है। व्यक्ति-सभा-सस्थागत सभी पत्रो का वे भाषिक प्रलोभन मे फंसे तो पग-पग पर खतरा है।
लगभग यही हाल है कि वे बेहाल होकर निहाल होने सेवा भोर मेवा दोनो पृथक है । यदि जैन पत्र ऐसे लोगों
करने का दम्भ करते है।
(३) जैन पत्रों के प्रकाशन का उद्देश्य व्यावसायिक के चरित्र-चित्र निकालते है, जो समाज के लिए सत्य
मार्थिक लाम प्रत्यल्प रहता है पर साहित्य और समाज प्रेरणा नही देते है तो कहना होगा कि वे हाथो के दाँत
में प्रतिष्ठित होने का भाव अधिक रहता है । जो कविताहैं। उनके प्रासू मगर के पास है, वे अपनों का भले भला
कहानी-निबन्ध-नाटक लेखन में निपुण नही हो पाते वे कर लें पर समाज का नही कर सकते है।
सम्पादक बन जाते है, प्रवैतनिक सम्पादक होकर पत्र को 'जैन पत्र : एक अध्ययन' निबन्ध का उद्देश्य जैन पत्रों को
मिली धनराशि से अपना कार्य-व्यापार बढ़ाते है और समीक्षा मात्र करना नही है बल्कि उनकी प्रत्यक्ष दुर्बलतायें
लेखकों व कवियों को पत्र का घाटा बतलाते हैं।' बतलाकर उन्हें उन्नात का पार जान क लिए प्ररणा दना (४) पत्र-पत्रिका निकालने या मालोचना-प्रत्याहै। जैन पत्र जिस स्थिति में निकल रहे हैं पोर उनके लोचना में उलझने से भी उतनी अराजकता नहीं फैलती सम्पादक-प्रकाशक उन्हे जिम स्थिति में निकाल रहे है, है, जितनी अराजकता व्यक्तिगत राग-द्वेष और ईर्ष्यावह तो स्तुत्य प्ररि श्लाघ्य काय है पर दोषकाल तक असहिष्णता के प्रदर्शन से फैलती है। इसलिए जैन पत्र परानी ही परम्परा का निर्वाह किये जाना पोर बोसवी- बातें वीतरागता की करते है परन्तु अपना प्राध्यात्मिक कोष सताब्दी मे भी अठारवी सदी जैसी बातें करना कोई नही छोड़ते हैं। बुद्धिमानी नही हैं। जैन समाज ममृद्ध सम्पन्न समाज है, (५) जो लोग बाहर से जैनत्व के लिए मर-मिटने उसके पत्र माथिक दृष्टि से विपन्न हो, यह बड़ी विडम्बना की प्रेरणा देते हैं, वे ही लोग भीतर से अपने पाचरण से का विषय है। जैन कवि-लेखक भी प्रतिभा सम्पन्न है सिद्ध करते है कि धर्म सस्कृति नहीं है बल्कि गन्दी परन्तु माथिक सामाजिक प्रोत्साहन के प्रभाव में उनकी खतरनाक राजनीति है। इसलिए दूसरों को उल्लू बनाकर प्रतिमा को प्रतिभा बन नही पाती है। माशा है समाज अपना उल्लू सीधा करना ही धर्म पौर समाज, साहित्य १."दिगम्बर जैन पत्र तो बहुधा घाटे में चलते है। जून, जुलाई के अंकों मे नही दिखाई दी। लाटरी पारिश्रमिक देने की स्थिति मे नही है। एक ही पत्र निकालकर ग्राहकों को प्रतिवर्ष रुपये देते हैं उसमे फर्क सम्पन्न है सन्मति सन्देश, क्योंकि उसके बारह हजार नहीं पड़ता और लेखको को एक वर्ष भी नहीं दे सके।' ग्राहक है और स्थायी सदस्य बनाकर एक लाख रुपया एक स्वर्गीय मित्र के २२ जुलाई १९७१ के पत्र का प्राप्त कर लिया गया है। लेखक ने पुरस्कार योजना प्रश, जिन्होंने मेरी तरह सम्मति सन्देश में काफी बाल की पो सो वह मात्र प्रल तक चली। फिर मई, लिखा था।
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पंन पत्र । एक अध्ययन
और संस्कृति की सेवा करना समझा जाता है ।
(६) जैसे कुछ कवि और अभिभूत पंडित भी कविता सुनाने या धार्मिक प्रवचन देने की बात सुन कर सब कुछ भूल जाता है, वैसे ही जैन पत्र रचना युग की बात भुलाकर वक्तव्य युग मे फूल जाता है। पत्र से पाठक को भने असन्तोष हो पर कवि-लेखक-सम्पादक को तो सन्तोष रहता है कि रचना छप गई ।
(७) जैन- पत्र सहयोगी, पारिश्रमिक पर दृष्टि नहीं डालते हैं। निःशुल्क सम्पादन लेखन मे निःशुल्क - धन होता रहता है। जैन-पत्र शब्द की गेंद को चाहे जब चाहे जैसा उछालते हैं। इसलिए कभी लालवहादुर बालबहादुर, तेजकुमारी तेजकुमारी, कापड़िया कीपड़िया, जयपुर जमपुर होकर हास्य रस की सृष्टि करता है। वैसे किसी भी जैन पत्र ने कभी भूले मटके भी हंसो की रचना छापो हो, मुझे स्मरण नही प्राता ।
(८) मतभेद भुला कर एक होना चाहिए, सभी दलों सहयोगी को होना चाहिए। यह कहने वाले भी दिगम्बर श्वेताम्बर कानजी मकानजी, तेरह-बीस पन्थ की बातें मूलभुला नहीं पाते है और ऐसे लोग शायद कहना चाह रहे हैं कि हम मतभेद कर रहे है पर मतभेद और मन भेद मत करो तो जानें।
(६) अधिकाश जैन पत्र-पत्रिकायें धर्म प्रधान होती हैं ये प्रथम धौर चतुर्थ (धर्म और मोक्ष) पुरुषार्थ को आशा से भी अधिक महत्व देती है पर द्वितीय और तृतीव ( अर्थ मोर काम) पुरुषार्थ को अतीव नगण्य समझती है, इसलिए समाज के युवक समुचित काम और गृहिणी नही पाते हैं तथा समाज मे पनिक वर्ग दहेज-दस्त से ही अपने गौरव की परम्परा को प्रांकने मे लगा है। एक वाक्य में धन देव हो गये और धर्म दास हो गया है ।
(१०) जैन पत्र महिसा अपरिग्रह पर घकार के गोठ वर्षों से गाते भा रहे पर विस्मय का विषय यही है कि वे बिल समाज को सही प्रयों में एकता का सन्देश नहीं दे सके, वे मन्दिरों और मूर्तियों को पूर्णतया पह नहीं बना सके, वे अनेकान्तवाद की सूक्ष्म व्याख्या- विवेचन प्रस्तुतीकरण भले कर सकें हों पर जीवन में समन्वयवादी अनेकान्तवादी अस्तित्ववादी नहीं बन सके।
३३
(११) अंनपत्र आदर्शवादी घासमान में चाहे जितनी देर तक रहे हों परम्गु यथार्थ की धरती पर वे निष्क्रिय हो रहे हैं। जैसे प्राज के युवक भूखे होकर भी गहले के गोदाम पर छापा नहीं मारेंगे बल्कि सिनेमा घर में या रेलगाड़ी अथवा मोटर में मुफ्त यात्रा करना चाहेंगे वैसे ही जैन पत्र औसतन जन-जीवन से दूर रहे हैं और अपने लिए तीसमारला समझते रहे हैं।
जंन पत्र बहुत बड़ी शक्ति हैं। अनुबन्ध इतना है कि वे अपना दायित्व समझें समाज को समता-ममता- क्षमता सिखायें समय श्रम सम्पति का सही दिशा में सदुपयोग करना वे ही सिखा सकते हैं । OOO
'अनेकान्त' के स्वामित्व सम्बन्धी विवरण
प्रकाशन स्थान- वीरसेवामन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली मुद्रक प्रकाशन - वीर सेवा मन्दिर के निमित्त प्रकाशन अवधि - मासिक श्री सोमप्रकाश जैन राष्ट्रिकता - भारतीय पता - २३, दरियागंज दिल्ली-२ सम्पादक श्री गोकुलप्रसाद जैन
राष्ट्रिकता - भारतीय पता वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागज, नई दिल्ली-२ स्वामित्व - वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ मैं धोम प्रकाश जैन, एतद्वारा घोषित करता हूं कि मेरी पूर्ण जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपर्युक्त विवरण सत्य है ।
--
- प्रोम प्रकाश जैन प्रकाशक
लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं । यह प्रावश्यक नहीं कि सम्पादकमण्डल लेखक के सभी विचारों से सहमत हो ।
- सम्पादक
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बीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन
पुशलभ जनवाक्य-सूची प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-धन्यों की पश्चानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादि ग्रन्थों में उद्घृत दूसरे पक्षों को भी नुमरी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्मवाक्यों की सूची संपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्त्व की ७ पृष्ठ की प्रस्तावना से प्रलंकृत, डा० कालीदास नाग, एम. ए., डी.लिट्. के प्राक्कथन ( Foreword) पौर डा० ए. एन. उपाध्ये, एम. ए. डी. लिट्. की भूमिका (Introduction) से भूषित है। शोध-खोज के विद्वानों के लिए अतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द 1 २२-०० स्वयम्भू स्तोत्र : समन्तभद्र भारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद तथा महत्त्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित ।
स्तुतिविद्या स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद और श्री जुगलकिशोर मुख्तार की महत्त्व की प्रस्तावनादि से अलंकृत, सुन्दर, जिल्द -सहित । मुबश्यनुशासन तत्वज्ञान से परिपूर्ण, समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं हुआ था। मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलकृत सजिल्द समीचीन धर्मशास्त्र स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ मुक्तार श्रीजुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य धौर गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द
1
:
प्रशस्ति संग्रह, भाग १ संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों को प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहित पूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं० परमानन्द शास्त्रो की इतिहास विषयक साहित्यपरिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द ।
समातिन्त्र और इष्टोपदेश : प्रध्यात्मकृति, प० परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित
भावणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जन तो श्री राजकृष्ण जंन
:
R. N. 10591/62
...
न्य प्रशस्ति संग्रह, भाग २ : अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्त्वपूर्ण संग्रह | पचपन ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित सं. पं. परमानन्द शास्त्री । सजिल्द । न्याय दीपिका : मा० अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० डा० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा स० अनु० । न साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४, सजिल्द ।
...
कलायपास मूल ग्रन्थ की रचना माज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर भी यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूर्णिसूत्र लिखे। सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त - शास्त्री | उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द।
Reality : मा० पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अंग्रेजी में अनुवाद । बडे माकार के ३०० पू., पक्की जिल्द न निबन्ध-रत्नावली श्री मिलापचन्द्र तथा श्री रतनलाल कटारिया
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ध्यानशतक (ध्यानस्तव सहित ) संपादक पं० बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री
...
३.००
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६-००
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१४-००
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७-००
२५-००
८-००
७-०० १२-०० ५-००
प्रत्येक भाग ४०-००
भावक धर्म संहिता भी दरयावसिंह सोधिया
:
न लक्षणावली (तीन भागों में) : स० प० बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री
Jain Bibliography (Universal Encyclopaedia of Jain References) (Pagcs 2500 ) ( Under print)
प्रकाशक - वीर सेवा मन्दिर के लिए रूपवाणी प्रिंटिंग हाउस, दरियागंज, नई दिल्ली-२ से मुद्रित ।
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त्रैमासिक शोध-पत्रिका
बर्ष ३३ : किरण २
अप्रैल-जून १९६०
विषयानुक्रमणिका
.
विषय
सम्पादन-मण्डल १० ज्योतिप्रसाद जैन डा०प्रेमसागर जैन श्री पद्म चन्द्र शास्त्री श्री गोकुलप्रसाद जैन
सम्पादक धो गोकुलप्रसाद जैन एम.ए., एल-एल. बी.,
साहित्यरत्न
१.नमः समयसाराय २. पात्मा सर्वथा असंख्यात प्रदेशी है
---श्री पद्मचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली ३. श्री प्रगरचन्द नाहटा और उनको साहित्य
साधना-डा. मनोहर शर्मा ४. जागरण- श्री बाबूलाल जैन, नई दिल्ली ५. नाट्योत्पत्ति सम्बन्धी जैन परम्परा
-श्री कपूरचन्द जैन, खतौली ६. प्राचार्य कुन्दकुन्द को प्राकृत
-श्री पद्मचन्द्र शास्त्री नई दिल्ली ७. क्या तिलोयपण्णत्ति में वर्णित विजया ही
वर्तमान विन्ध्य प्रदेश है --डा. राजाराम जैन १६ ८. पचगई और गूडर के महत्वपूर्ण जैन लेख
-कु० उषा जैन जबलपुर ६. प्रागम सूत्रों की कथायें इतिहास नहीं है
-श्री श्रीचन्द गोलेछा | १०.जैन दर्शन का अनेकान्तवाद
-डा. रामनन्दन मिश्र | ११. हुंबड जैन जाति की उत्पत्ति एवं प्राचीन
___ जनगणना-श्री प्रगरचन्द नाहटा, बीकानेर २४ १२. सीता जन्म के विविध कथानक
-श्री गणेश प्रसाद जैन, वाराणसी १३. भारतीय विश्वविद्यालयों में जन शोध
-प्रा०प्र०२३ प्रकाशक
वार्षिक मूल्य ६) रुपये इस अंक का मूल्य:
१ रुपया ५०पैसे
२७
वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
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भारतीय विश्वविद्यालयों में जैन शोध
संस्था का नाम
निर्देशक का नाम
क. संख्या शोध स्नातक का नाम
विषय
प्रयुक्ति
डा० कमलकुमारी सिंह अध्यक्ष-संस्कृत विभाग म० म० महिला महा विश्वविद्यालय द्वारा
संस्कृत वराङ्ग चरितम् फरवरी ७८ मे महाकाव्य का काव्य- उपाधि प्राप्त शास्त्रीय एवं सांस्कृतिक
अध्ययन
श्री देवेन्द्रकुमार डा० राजाराम जैन मानद जैन पोरियंटल निर्देशक, श्री देवकुमार रिसर्च इंस्टी- जैन श्रोरियंटल रिसर्च, क्यूट, धारा इंस्टीच्यूट, भारा बिहार (मगध विश्व तथा रोडर एवं प्रध्यक्ष विद्यालय गया संस्कृत प्राकृत विभाग से मान्यता ० दा० जैन कालेज प्राप्त) (भारा )
33
11
"1
"
11
१
२ श्री नेमिचन्द जैन एम० ए० माचार्य, शोष स्नातक द्वारा
३ प्रो० (श्रीमती) विद्याबती प्राध्यापिका हिन्दी विभाग, म० म० महिला महाविद्यालय द्वारा
४ श्री रामकृष्ण तिवारी, एम० ए० शोध स्नातक
द्वारा
५
६ श्रीराय हनुमानप्रसाद एम. ए. शोध स्नातक प्रारा
७
श्री सुरेन्द्रकुमार जैन एम. ए. शोध स्नातक द्वारा
५
श्री बाबूलाल जेनएम. ए. प्राचार्य शोध स्नातक,
द्वारा
श्री प्रो० वाल्मीकि प्र० सिंह हिन्दी विभाग, हर प्रसाद दि० जनालेज,
धारा
श्रीमती प्रमिला श्रीवा वास्तव शोध स्नातक, भारा
१० प्रो० द्वारिकाप्रसाद श्रीवास्तव
( शेष भावरण पृष्ठ ३ पर)
प्राचार्य समन्तभद्र व्यक्तित्व एवं कृतिश्व
महाकवि सिंह एवं उनके पद्यावधि प्रकाशित प्रद्युम्नचरित का सभी
क्षात्मक अध्ययन
अभिमान मेरु पुष्पदन्त उनके साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन महाराष्ट्री प्राकृत कथा साहित्य का सांस्कृतिक अध्ययन
महाकवि स्वयम्भू एव उनके पउम चरिउ का काव्यशास्त्रीय एवं सांस्कृ तिक अध्ययन
जीवम्पर चम्पू काव्य का काव्यशास्त्रीय एवं सांस्कृतिक प्रध्ययन
महाकवि बनारसी दास व्यक्तित्व एवं कृतिस्थ
मुगल कालीन कुछ हिंदी जैन काव्यों का समीक्षात्मक अध्ययन
ज्ञाता धर्म कथा साहित्य का सांस्कृतिक मध्ययन
दोष कार्य चल रहा है।
टंकण कार्य चल
रहा है। परीक्षणार्थं शीघ्र ही प्रस्तुत किया जाने वाला है । शोध कार्य चल रहा है ।
शोध कार्य चल रहा है।
शोधकार्य प्रगति कर रहा है ।
शोधकार्य समाप्त हो चुका है। अंतिम संशोधन
चल रहा है । रूपरेखा तैयार कर स्वीकृत हेतु विश्वविद्यालय को प्रेषित
"
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ग्रो मम्
अनेकान्त
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्ध सिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वर्ष ३३ किरण २
वीर - सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर - निर्वाण संवत् २५०६, वि० सं० २०३७
नमः समयसाराय
सम्यक् त्रिकालावच्छिन्नतया स्वगुरुपर्यायान् प्रयन्ति प्राप्नुवन्ति ते समयाः पदार्थाः तेषु मध्ये सारः परम श्रात्मा तस्मै नमः ।'-
{
घप्रैल-जून १६८०
जा त्रिकालावच्छिन्न स्वगुण और पर्यायों को प्राप्त होते है-उन्ही में विचरण करते हैं, वे समय कहलाते है. अर्थात् पदार्थ । उन पदार्थो में - समयों में जो सारभूत पदार्थ है आत्मा-परम आत्मा । ऐसे समयसार युद्ध आत्मा को मेरा नमस्कार है ।
ये सम्यक् स्याद्वादात्मकं वस्तु प्रयन्ति जानन्ति सा तिशय सम्यग्दृष्टिप्रभृतिक्षीणकषायपर्यन्ता जीवाः तेषां पूज्यत्वेन सारो जिनस्तस्मै नमः ।'
चा सम्यक् म्याद्वादात्मक वस्तु को जानते है ऐसे सातिशय सम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक के जीव, उन जीवां में जा पूज्यपने से सारभूत हैं ऐसे 'जिन' भगवान है। ऐसे जिन भगवान का मेरा नमस्कार है ।
'समं साम्यं यान्ति प्राप्नुवन्ति ते समयाः योगिनः तेषां मध्ये ध्येययतया सारः सिद्धपरमेष्ठी तस्मै नमः ।'
जो माम्यभाव को प्राप्त होते है व समय है-अर्थात् योगी है । उन योगियों में ध्येय होने से सिद्धपरमेष्ठी सार हे (यतः योगियों के ध्येय सिद्धपरमेष्ठी हैं ) उन सिद्धपरमेष्ठी को मेरा नमस्कार है । 'सम्यक् प्रयनं गमनं यतं चरेदित्यादिलक्षणं चरणं येषां ते समयाः योगिनः तेषु मध्येसार प्राचार्यः । तस्मैनमः ।'
जा सम्यक् यत्नाचा पूर्वक आचरण करते है वे समय-योगीगण हैं, उन योगियों में सारभूतउत्तम आचार्य हैं । उन आचार्य परमेष्ठी को मेरा नमस्कार है ।
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समयः सिद्धान्तः स्त्रियते प्राप्यते यैस्ते समयाः -- तेषु मध्ये सारः - उपाध्यायः । तस्मं नमः ।जिनके द्वारा समय अर्थात् सिद्धान्त प्राप्त किया जाता है वे समय है। उन समयों मे जो सारभूत हैं वे है उपाध्याय परमेष्ठी । उन उपाध्याय परमेष्ठी को मेरा नमस्कार है ।
'समयेषु कालावलिषु सारः साधुः । -
कालावलियों में जो सार हैं वे है साधु । उन साधु परमेष्ठी को मेरा नमस्कार है ।
' स सम्यक्त्वं, प्रयो ज्ञानं, सरणं सारः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि इत्यर्थः तेम्योनमः ।'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र समयसार हैं। इन्हे मेरा नमस्कार है ॥
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मात्मा सर्वथा असंख्यात प्रदेशी है
श्री पप्रचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली
प्राचाय कुन्दकुद के समयसार की {५वी गाथा में सुण्ण जाण तमत्थ · · । प्रवचनसार २/५२ ॥ गहीत 'पदेस' शब्द के अर्थ को लेकर चर्चा उठ खड़ी हुई 'उत्पाद-व्ययधोव्ययुक्त मत्' । है और इस शब्द को प्रात्मा का विशेषण मानकर इसका
सद्व्य लक्षणम् ॥'--तत्वार्थ सूत्र ३ प्रर्य प्रप्रदेश यानी पात्मा प्रदेशी है ऐसा भी किया जा ५. यदि येन केन प्रकारेण प्रात्मा का अस्तित्व सिर रहा है। जो सर्वथा-सभी नयो से भी किसी भांति उचित करने के लिए उसे एक प्रदेशी (कालवत) भी माना नहीं है। मारमा तो सर्वथा असंख्यात प्रदेशी ही है। जायगा तो प्रात्मा को सिद्धावस्था में परमाणु प्रवगाहमात्र तथाहि
प्राकाश प्रदेश को अवगाह करके ही रहना पड़ेगा और १. विवि केवलणाणं, केवलमौक्व च केवलंविरिय। जैसा कि सिद्धान्त है-सिद्धात्माए 'किचूणा चरमदेहदो केवलदिट्ठि प्रमृत्त, पत्थित सप्पसत्त ।। सिद्धाः' धनुषो क्षेत्र परिमाण प्राकाश को घेरकर विराजमान
---नियमसार १५१ है--का व्याघात होगा। सप्रदेशत्वावि स्वभावगुणा भवन्ति इति' -- टीक।। ६. प्रात्मा में प्रदेशत्व गुण नही बनेगा, जबकि
सिद्ध भगवान के केवलज्ञान, केवलदर्शन, कवलसुख, प्रदेशत्वगुण का होना अनिवार्य है --'प्रदेशवत्त्व तु लोकाकेवलवीर्य, केवलदर्शन, प्रतिकपना, अस्तित्वभाव तथा काशप्रदेश परिमापप्रवेश एक मात्मा भवति ।'-अर्थात् सप्रवेशीयता अर्थात मसरूपात प्रदेशोपना है। ये सभी एक प्रात्मा लाकाकाश जितने (असंख्यात) प्रदेश वाला स्वाभाविक गुण होते है-- जो पृथक नही हो मरते है। होता है।'..-10 भा० सि० व. २/८
२. पात्मा की गणना मस्तिकाओं में है और प्रस्तिकाय । ७ प्रदेशत्व शक्ति की सिद्धि नहीं होगी, जबकि में एक से अधिक प्रदेश माने गए है। काल द्रव्य जो मान्मा के इस शक्ति की अनिवार्यता है-... स्तिकाय नही है उसे भी किसी अपेक्षा, कम से कम एक ___'पासमार सहरण-विस्तरणलक्षिकि निदूनचरमशरीर. प्रदेशी तो माना ही गया है।
परिमाण वस्थितलोकाकाशसम्मितास्मावयवत्वलक्षणानियत. प्रसंख्येया. प्रदेशाः धर्माधर्म कजीवानाम् ।
प्रदेशत्वशक्तिः ।' माकाशस्थाऽनताः।
-- समयसार कलश स्थाढावाधिकार/२६३ टीका सख्ये यासख्येयाश्च पुद्गलानाम् ।।" -- तत्वार्थसूत्र ५ ८. प्रवचनमार में 'तिर्यकरचय' और 'ऊर्ध्व-प्रचय
.. प्रवचनसार मे प्राचाय कुन्दकुन्द ने शुद्धजीव का नामक दो प्रचय बतलाए है और कहा है कि, प्रदेशो के मस्तिकाय और सप्रदेशी कहा है। गाथा १/४१ की टीका समूह का नाम 'तिर्यकप्रचय' है। वह 'तिर्यकप्रचय' काल मे जयसेनाचार्य स्पष्ट करते है-'प्रपदेस मप्रदेश-- के अतिरिक्त सभी द्रव्यो मोर मुक्तात्मद्रव्य मे भी है । क..लाणु परमाण्वादि, सपदेस शुद्धजीवास्तिकायादि पचास्ति. इससे शुद्धनय से भी शुद्ध प्रात्मा बहुप्रदेशी ही ठहरता है । कायस्वरूपम् ।'-प्रर्थात् कालाणु परमाणु प्रादि प्रप्रदेश प्रदेशप्रचयो हि तिर्यप्रचयः' -अमृतचन्द्राचार्य । है, शुद्धजीवास्तिकायादि सप्रदेश हैं।
'स च प्रदेशप्रचयलक्षणास्तियंक्प्रचयो प्रारम को प्रप्रदेशी मानने पर उसका अस्तित्व ही यथा मुक्तात्म द्रव्थे भणितस्तथा काल नही रह सकेगा--वह शून्य-ख रविषाणवत् ठहरेगा- विहाय स्वकीय-स्वकीयप्रदेशसख्याउस्माद-व्यय-ध्रौव्य का प्रभाव होने से भी सत्ता का सर्वथा नुसारेण शेषद्रव्याणां स सभवतीति प्रभाव होगा। कहा भी है
तिर्यकचयो व्याख्याता।' 'जस्स ण सति पदेसा पदेस मेत्त तु तच्चदो णादं।
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श्री अगरचन्द नाहटा और उनकी साहित्य साधना
D. मनोहर शर्मा
सिद्धान्ताचार्य, संघ रत्न, जैन इतिहास रल. पोर अनुसन्धान हो पब जीवन का मुख्य ध्येय बन गया। राजस्थानी साहित्य वाचस्पति, विद्यावारिधि, साहित्य इस क्षेत्र में भी प्राप सफलता की चोटी पर पहुंचने में समर्थ वाचस्पति (हि. सा०) श्री अगरचद नाहटा देश के हए । चार मो (४००) से ऊपर पत्र पत्रिकामों में ४००० प्रतिभासम्पन्न विद्वान् है । उनका व्यक्तित्व बहुमखी है। वे से ऊपर लेख लिखकर एक कीर्तिमान स्थापित किया। कला के महान प्रमोव मर्मज्ञ परातत्व और इतिहास के मापने सहप्रण: प्रन्यों का तया शाश: प्राचीन साहित्यकारों गभीर अनुसंधानकर्ता, प्राचीन साहित्य और प्राचीन प्रन्यो का अन्धकार से उद्धार किया। के अध्यवसायी अन्वेषक, सग्राहक एव उद्धारक, मातृभाषा नाहटा को कुछ उल्लेखनीय उपलब्धियों का उल्लेख राजस्थानी और राष्ट्रभाषा हिन्दी के श्रेष्ठ सेवक प्रौर इस प्रकार किया जा सकता है - अग्रणी साहित्यकार; मननशील विचारक, विशिष्ट सावक, १. हर लिखित प्रन्धों की खोज सफल व्यापारी और कर्मठ कार्यकर्ता है। उनका जीवन
पिछले पचास वर्षों में नाहाटा जी ने सेकडों ज्ञात 'सादा जीवन पोर उच्च विचार' इम उक्ति का श्रेष्ठ निदर्शन है। वे भारत के गौरव है ऐसे विषिष्ट महापुरुष
और प्रज्ञात हस्तलिखित प्रथ-भडारों की छानबीन की और भी यह अभिनदन ग्रन्थ समपित करने हप हमे गर्व का
महसूश प्राचीन, नये और महत्वपूर्ण ग्रन्थों का पता लगा
कर उनका उद्धार किया है। इनमें पज्ञात प्रम्य भी है ज्ञात अनुभा हो रहा है।
ग्रन्थो की विशेष महत्त्वपूर्ण प्रतियाँ भी, जिनमें पृथ्वीराज श्री नाहटाजी का जन्म प्राज से ६७ वर्ष पूर्व वि०
गमो, वीमलदेव-गस ढोलामारू राहा, बेलि किस स. १९६७ सन् (१९११ ई.) की चत्र वदि को
कमणी गै जमे पूर्व जान पन्थो की पनेक महत्वपूर्ण नय राजस्थान के बीकानेर नगर मे मम्पन्न जैन परिवार मे
प्रतिवो, मुरमागर, पदमावत, बिहारी सतसई जैसे अन्य हुमा था। पारिवारिक परिपाटी के अनुसार प्रापको
की प्राचीनतम प्रतिको तथा चंदायन, हम्मीगषण क्यामव स्कूली शिक्षा अधिक नहीं हुई। पाँचवी कक्षा की शिक्षा
गसो एव छिनाईचरित जैसे अभी तक प्रज्ञात अथवा क पूर्ण होने के पश्चात् सं० १९८१ में जब पापको अवस्था
जात ग्रन्थों की विशेष रूप से उल्लेखनीय प्रतियो के नाम १४ वर्ष की थी, पैत्रिक व्यवसाय-व्यापार मे दीक्षित होने
गिनाये जा सकते है। के लिए प्रापको बेलपुर कलकत्ते भेज दिया गया। स्कूलो शिक्षा अधिक न होने पर भी अपनी अद्भुत लगन और
नाहटाजी जब यात्रा में जाने हैं तो गतब्य स्थानों पर अपने अध्यवसायपूर्वक निरन्तर अध्ययन के फलस्वरूप जहाँ किसी हस्तलिखित ग्रन्य-भडार की सूचना उन्हें मिलत प्रापने अपने ज्ञान की परिधि को बहुत विस्तृत कर लिया। है वहाँ पहु नकर उसको अवश्य देखते हैं और वहां विद्यमान
स. १९८४ मे, १० वर्ष की अवस्था मे, प्राप श्री महत्त्वपूर्ण ग्रन्यों का विवरण सकलित करके उसको प्रकाशित प्राचार्यप्रवर श्री कृपाचन्द्रसूरि के सम्पर्क में ग्राये। यह करवाते है । प्रापके जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड साबित हया। उसने हस्तलिखित प्रन्यभंडारों की सूचियों का निर्माण प्रापके सामने पात्म शोध भौर साहित्य शांव का नया क्षेत्र नाहटा जी ने अन्य भण्डारों की वितरण 'त्मक मचि खोल दिया। व्यापार से आपने मह नही मोड़ा पर अध्ययन भी प्रस्तुत की।
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५कि.२
प्रवेकान्त
1. अमवन प्रम्यालय नाम से हस्तलिखित पम्पों के इसमें प्राचीन चित्र, मूर्तियाँ, सिक्के मादि छोटी-बड़ी कलाविशाल भंडार की स्थापना
कृतियों तथा अन्यान्य संग्रहणीय वस्तुणों का अच्छा संग्रह अपने स्वर्गीय बई माता अभयराजजी नाहटा को किया गया है। व्यक्तिगत संग्राहलयों में यह बहुत ही म्मति में प्रमयजन ग्रंथालय पौर अभय जैन ग्रंथमाला की महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय है। स्थापना की गई।
७. विविध विषयों पर ४००० से ऊपर शोधपरक एवं अपने साहित्यिक जीवन के प्रारंभ से ही नाहटा जी अन्यान्य निबंधों का लेखन और प्रकाशनमे हस्तलिखित प्रतियों की खोज पोर संग्रह के काम का इन निबंधों की क्षेत्र-सीमा बहुत विस्तृत है। उनमे बीगणेश कर दिया था। धीरे-धीरे उन के ग्रंथालय में विभिन्न भाषामों के विभिन्न ग्रन्थकारो और उनके ग्रन्थों, लगभग पैसठ हजार हस्तप्रतियों का संग्रह हो गया। ग्रंथ तथा पुरातत्व, कला, इतिहास साहित्य, लोक साहित्य, संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, राजस्थानी गुजराती, लोक-संस्कृति आदि विविध विषयो के विभिन्न पक्षों पर पंजाबी, कश्मीरी, कन्नड़, तमिल, अरबी, फारसी, बंगला, नयी-से-ययी जानकारी दी गयी है। इन निबंधों को अंग्रेजी, उडिया मादि विविध भाषामों के पोर विविध मुख्यतया चार विभागो मे बाँटा जा सकता हैविषयों के हैं। अनेक ग्रन्थ ऐसे हैं जो अत्यन्त महत्वपूर्ण होने १. पुरातत्व, कला इतिहास । के साथ-साथ दुर्लभ भी हैं। पनेक ग्रंथ तो अन्यत्र प्रलम्य २. साहित्य- संस्कृतसाहित्य, अपभ्रश साहित्य,
। इनके अतिरिक्त मध्यकालीन पोर उत्तरकालीन प्राचीन राजस्थानी, गुजराती एवं हिन्दी साहित्य, ग्रंथकार पुरालेखों (विविध प्रकार के दस्तावेज, पत्र, व्यापारिक पत्र, और उनके ग्रंथ । पट्ट-परवाने, बहियाँ मादि कागजपत्रों) का बड़ा भारी
इन निवन्धों की सूची शीघ्र ही प्रकाशित की जायेगी। संग्रह भी पंथालय में एकत्रित है।
३. लोकजीवन, लोक-संस्कृति, लोक-साहित्य । ४. प्रभय जन प्रग्यालय के अन्तर्गत मुद्रित पुस्तकों का संग्रह
४. धर्म, दर्शन, अध्यात्म, प्राचार-विचार, लोक इसमें शोधकार्य के लिए भावश्यक सन्दर्म-ग्रन्थों, मोर व्यवहार । शोषोपयोगी प्राचीन इतिहास, पुरातत्त्व, कला, साहित्य ये निबंध देश के विभिन्न स्थानो से प्रकाशित होने पादि विविध विषयों की पुस्तकों का बृहत् सग्रह है । ग्रन्थों वाली ४०० से ऊपर पत्र-पत्रिकामो में प्रकाशित हए है। की संख्या ४५ हजार से ऊपर है।
इतने अधिक एवं विविध विषयक शोध-निबंध विश्व मे उक्त दोनों ही लक्षादिक ग्रन्थों के संग्रहो से शोष
शायद ही किसी दूसरे विद्वान ने लिखे हो। विद्वान् भोर शोष-छात्र भरपूर लाभ उठाते हैं ।
८. बीकानेर राज्य भर के जैन अभिलेखो (शिलालेखो, ५. पत्र-पत्रिकामों की पुरानी फाइलों का संग्रह
मूर्तिलेखों, घातुलेखो) का विशाल सग्रह और प्रकाशन । घभय जैन-ग्रन्यालय में विविध विषयो को पत्र. ६. अनेक महत्त्वपूष ग्रन्थो का विस्तृत प्रस्तावनामों के पत्रिकामों की विशेषतः शोधपत्रिकामों की, पुरानो माइलें साथ संपादन ! बड़े परिश्रम के साथ प्राप्त करके संग्रहीत की गयी है। ये १०. शोधाथियों का तीर्थस्थान फारसे शोष-विद्वानों के बडे काम की हैं क्योंकि नाहटा जी का स्थान शोधविद्वानो और शोधछात्रो के साधारणतया पत्रिकामों के पुराने अक सहज ही प्राप्त नही लिए मानो कल्पवृक्ष ही है । यही कारण है कि उनके यहाँ होते।
शोधार्थी लोग बराबर माते रहते हैं। शोधापियो को जो १.शंकरवान नाहटा कलाभवन की स्थापना
सहायक सामग्री, ग्रथ प्रादि चाहिए वह अधिकतर उनके नाहटा जी पद्धितीय संग्राहक हैं, उन्होने अपने पिताजी पुस्तकालय में उपलब्ध हो जाती है। यदि नही होती है की स्मृति में एक महत्वपूर्ण कलाभवन की स्थापना की। तो ज्ञान के विश्वकोश-रूप नाहटाजी से सहज ही पता लग १. इन निबन्धों की सूची शीघ्र ही प्रकाशित की जायेगी।
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अगरचन्द नाहटा और उनकी साहित्य साधना
पाता है कि कहां-कहाँ उपलब्ध हो सकती है। वे स्वयं भी ही प्राप्त होती है। अनेक बार प्रन्यान्य स्थानों से शोषार्थी के लिए व्यवस्था १३. जन-जन के प्रेरणास्त्रोत कर देते हैं। कोई मुद्रित पुस्तक प्राप्त नही होती है तो श्री नाहटाजी ने स्वयं तो अपनी कर्मठता और पुस्तक को अपने पुस्तकालय में मंगवाकर उसे सुलभ कर मध्यवसाय से प्रतुलनीय उपलब्धि की ही है पर साथ ही देते हैं। अनेक बार नाहटा जी अपनी निजी प्रतियां भी सम्पर्क में प्राने वाले सभी व्यक्तियों को नानाविषि प्रेरणा उपयोग के लिए शोधार्थियों को भेज देते हैं। शोधार्थी देकर चिन्तन, अध्ययन, लेखन, शोष प्रादि किसी न किस विद्वानों और छात्रों को उनके यहाँ शोध-सामग्री ही नही विशिष्ट कार्य की पोर प्रवृत्त किया है। प्राप्त होती किन्तु निवास और भोजन की व्यवस्था भी व १४ सरस्वती एवं लक्ष्मी बोनों के लाख सपूत प्रायः स्वयं ही अपने यहाँ कर देते है ।
प्राय यही देख पाया जाता है कि सरस्वती के शोध-छात्रों के साए नाहटा का व्यवहार अतीव प्राराधको पर लक्ष्मी की कृपा कम ही रहती है एवं लक्ष्मी उदारतापूर्ण भौर सहानुभूति पूर्ण होता है। वे उनकी सब के उपासको पर सरस्वती का वरद हस्त मूक ही रहता है प्रकार की सहायता करने को सदा तत्पर रहते हैं। नाहटा पर नाहटा जो इसके विरल प्रवादी है, माप दोनों देवियो जी से उन्हें शोध-सामग्री और आवश्यक पुस्तकें ही प्राप्त के समान रूप से लाडले सपूत हे । साहित्य तपस्वी के साथनहीं होती किन्तु विषय-निर्वाचन से लेकर अन्त तक साथ कुशल व्यापारी भी हैं। निर्देशन भी मिलता है। छात्रों के घर चले जाने के बाद १५. इधर माहित्य सेवियों मे पाध्यात्मिक साधक भी अनेक बार पत्र द्वारा उनकी प्रगति का हाल पूछते हैं विरल होते है पर नाहडाजी दोनों क्षेत्रों मे समान हचि, पौर यदि नयी जानकारी ज्ञात होती है तो उसकी सूचना गति एवं प्रधिकार रखते हैं। धर्म और दर्शन भी भी तरम्त देते है। शोधविद्वान पोर शोधछात्र नाहटा के उनके जीवन-प्राण हैं। प्रात: २-३ बजे से सामायिक पुस्तकालय को इच्छाफल-दाता तीर्थस्थान मानते हैं । ऋषि
ग्वाध्याय, भजन-पूजन, व्रत-नियम की धाराषना-साधना तुल्य डा. वासुदेवशरण अग्रवाल और श्री हजारीप्रमादजी
का प्रवाह चाल होता है। साथ ही साहित्य सेवा भी द्विवेदी ने उन्हे प्रौढरदानी बतलाया है।
चलती रहती है। नाहटा जी लेखक के साथ-साथ गंभीर ११. मद्भुत स्मृति कोष
चिन्तक एव मनीषी है । निरन्तर स्वाध्यायशील, अन्वेषक अदभत म्मरण शक्ति के धनी थी नाहटाजी जिस ग्रथ एवं माधक है। का भी एक बार अवलोकन कर लते है उगके वाक्याशों तक १६. नाहटा जी को विद्यावारिधि, सिद्धान्ताचार्य का सदर्भ उनके मानस पलट पर स्थायी रूप से अकित हो माहित्य वाचसपति जैसी सर्वोच्च उपाधियां सस्थानों की जाता है। फलस्वरूप शो नाहटा जी ने जहाँ अलम्य ग्रथों पोर में स्वयं प्रदान है। पर प्राप प्रपने नाम के साथ का संग्रहालय स्थापित किया है। वहाँ वे स्वयं भी एक किसी भी उपाधि का उपयोग नही करते। यह बहत ही चलते-फिरते ज्ञान भंडार, ज्ञान काष बने हुए है। यह उल्लेखनीय एव महत्त्वपूर्ण विशेषता है। इस प्रकार १६ प्रकृति की ग्रापको अनुपम देन है ।
कलायो वाले पूर्णचन्द्र प्रकाशित हो रहे हैं। १२. महान प्रात्मसाधक
ऐमा विरल एवं विलक्षणव्यक्तित्व, बहमुखी प्रतिमा, साहित्य शोध के साथ-साथ श्री नाहटाजी बात्मानुभूति अनेकानेक विशेषतामों का सृभग मंयोग बहुत ही कम पाया के क्षेत्र में भी सतवत् ऋषितुल्य महान् साधक है। प्रतिदिन
जाता है।
ऐसे साहित्य तपस्वी, प्रात्मनदी साधक का अभिनवन प्रात: २-३ बजे से पापका स्वाध्याय, ध्यान, मनन, चिन्तन
एक गुणपुज विभूति का अभिनन्दन है। का साधनापरक कम प्रारम्भ होता है जो दिनचर्या की
पिता सेठ शकर दास जी नाहटा। माता-चुन्नी देवी मन्य गतिविधियों के साथ निर्बाध रूप से रात्रि शयन नक
जन्मति० मं० १९६७ चैत्रबदी ४ बीकानेर (सन् १९११) चाल रहता है। अनुभतिको यह स्थिति विरल साधको को
(शेष पृ० ६ पन)
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जागरण
0 श्री बाबूलाल जैन, नई दिल्ली
प्रज्ञान ही हार है और ज्ञान ही विजय है। नीद में परमात्मा को जानने के लिए स्वयं को जानना जरूरी हाँख को कभी पता नहीं लगता कि पार कब मोये। यह है पोर सत्य को जानने के लिए पहले स्वय को पहखानना तो जागकर ही पता चलता है कि प्राप कब सोये पोर जरूरी है। वस्तु से जो परिचय है वह विज्ञान नीद का अनुभव जागने पर ही होता है। जो लोग सोये है और स्वय से जो परिचय है वह ज्ञान है। हुए हैं। मूर्या में पड़े हुए है, उनको अवस्था का तब पता जो स्त्रय को नही जानता उसके लिए ईश्वर मृत लगेगा जब वे जान जायेंगे कि वे सोये थे अथवा मूछित थे है। चाहे वह कितनी ही पूजा करे और कितना ही वास्तव में व्यक्ति कभी-कभी ही जागना है। वह कोई दान करें। अगर उसने स्वयं को जानने का काम नही खाम क्षण होता है। मान लो अचानक किसी की छाती पर किया तो एक क्षण के लिए भी उसका परमात्मा से सबंध छुरा रख दिया जाए तो उस क्षण वह जाग जाएगा, उस नही हो सकता। परन्तु स्वय का जानने का पुरुषार्थ कर भण वह सोया नही रह सकता। छूरे का एक-एक क्षण पाने के लिए भी अपने प्रज्ञान का बोध चाहिए । यह नीचे सरकना उनको जानकारी मे हो रहा होगा परन्तु समझ मे माना चाहिए कि मैं कुछ भी नही हू, मैं कुछ उस समय भी वह उसी क्रिया मात्र के लिए जाग रहा नही जानता है। लेकिन उसका बहकार कहता है कि मैं होगा। वह मपने पाप मे जागा नही है। अपने प्रापद बहुत कुछ जानता है। धन छोड़ देना बहुत मासान है, जागना तब कहलाएगा जब उसको यह अनुभव हो जाए परन्तु ज्ञान का प्रहार छोडना बहुत कठिन है । इसलिए कि वह जानने वाला है और दुनिया के पार पदाथ सारी जो लोग घन छोडकर भाग जाते है वे लोग भी ज्ञान का चीजे जो है वे उसके समक्ष दृश्य है। ज्ञानी कहते है ग्रहकार नही छोड पाते । प्रादमी मब घर-बार छोड देता विवेक से चलो। उसका मतलब है कि जो क्रिया हो रही है लेकिन अपनी जाति को नही छोडता । अगर वह जाति है. उसी मे ज.गो, प्रमाद न करो। ज्ञानी किसको कहा है विशेष को नही छोड़ सकता तो स्पष्ट है कि अभी भी जो किसी खास प्रकार की किया करता है उसका ज्ञाना, उसने कल पकड रखा है जो प्रात्मा की अपनी चीजनही नही कहते य जो नग्न साधु वेष धारण करता है उसको
है। धन बाहर की चीज है। उसे छोड़ा जाए तो जो ज्ञानी नही कहते । ज्ञानी वह है जो सोया हुमा नहीं है। जो
उपलब्धि होगी वह भी केवल बाहर की होगी। ज्ञान का सोया हमा है वह प्रज्ञानी है। कोई जागकर जी रहा है,
प्रहकार भीतर है अगर वह छोड़ दिया जाता है तो जो कोई सो कर जी रहा है। अगर वह जागा हुप्रा है। कम
उपलब्धि होगी नह भीतर की होगी। सम्पूर्ण दुनिया मे दो से-कम अपने पाप मे, तो उसके जीवन में ज्ञानीपना उतर
ही मध्य चीजे है -- ज्ञान तथा धन । और दो ही तरह के पाएगा। अगर वह अपने पाप में सा रहा ह ता उसका लोग है--जान को इकट्ठा करने वाले प्रथवा धन को जिन्दगी में प्रसाधुता के सिवाय और कुछ भी नहीं हो इकट्रा करने वाले धन के संग्रह से तथा पद और सम्मान से सकता। गर भीनर अपने आप मे मोया हुमा है तो बाहर यह भाव होता है कि मैं कुछ हू । ज्ञान का भी महकार से साधु बना रह सकता है परन्तु वह बना हुप्रा साधु ही होता है कि मैं कुछ हूं। क्या यह नहीं हो सकता कि 'मैं' होगा। प्रोर जो बने हए सा है वे असाध से भी वदर चला जाए? यह हो सकता है। यह जो मैं है वह लत में होते हैं ।
परमात्मा और मनुष्य के बीच रुकावट है। जब जीव अपने
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પરબ
प्राप को जानने लगेगा, अपने पाप मे जागृत हो जाएगा, एक-एक कदम को भावाज तक उसको सुनाई देगी। उससे तो यह दूसरा नकली 'मैं' एक दिन विलीन हो पूछा जाए कि वह नाला जिसको तुमने पार किया कितना जाएगा। इसे छोड़ना नहीं पड़ेगा, वह अपने माप छूट लम्बा या तो वह बता सकता है कि इतने कदम लम्बा जाएगा। ऐसा लगेगा 'मैं' तो था ही नही। जिस था। जबकि शायद वह नहीं बता पाए कि उसके अपने दन यह दिखाई पड़ेगा कि वह 'मैं' नही हूँ, मकान में कितनी सीढी है जिन पर वह संकड़ों दफा चढ़उसी दिन दिखाई पड़ेगा कि वह जो है उसका नाम ही उतर चुका होगा। उस भाति का जागरण अपने माप मे परमात्मा है।
होना चाहिए, केवल किसी एक क्रिया विशेष के लिए नहीं। जब जीव जागरण को प्राप्त होता है तो वह धर्म का सत्य की अनुभूति एक बात है मौर उसकी अभिव्यक्ति भी प्रापस होता है। जा जागरण का मार्ग है बही ज्ञान का दसरी बात । व्यक्ति यदि मात्र तप मोर सयम करता है तो मार्ग है। दमन का मार्ग ज्ञान का मार्ग नही। जागरण उसमें कोई प्रान्तरिक फर्क नही पड़ता केवल बाहरी भोगों के दमन का, मिथ्या माडम्बर का मार्ग नहा, व्यवस्था बदल जाती है। सवाल संयम मोर तप का नहीं वास्तविक जीवन का, ज्ञान का, मार्ग है। उसके प्रवर्तन है। सवाल है चेतना के रूपान्तरण का, चेतना के बदल मे सदाचरण के फूल खिलते है। अचेतन वासनामों का जाने का। चेतना के बदलने के लिए बाहरी कार्यक्रमो का प्रभाव होने से मक्ति होता है। सदाचरण सम्बन्धी भय कोई भी प्रर्थ नहो है। चेतना को बदलने के लिए भीतर नही, वास्तविक जीवन पैदा होता है। जाग्रत व्यक्ति किसी की मूछो का भागना पावश्यक है। प्रश्न उसी का है। प्रावरण को प्रोता नही है। उसमे अन्तर को क्रान्ति है। चतना क दो रूप है । एक मूछ पौर दूसरा पमूछ। वैसे उसके बाहर-भीतर अपने प्राप परिवर्तन हो जाता है। ही क्रिया के दो रूप है : सयम पोर प्रसयम । एक बाहरी जागरण से ज्ञान हो नहीं होता परिवतन भी होता है। दृष्टि है एक अतरग। ज्ञान की प्रवस्था अतरंग बात है असल में निरीक्षण ज्ञान लाता है और ज्ञान से परिवतन पोर माचरण की अवस्था बाहगे। जीव हर एक कार्य में, भाता है। उसो निरीक्षण स, जागरण से वासना की मृत्यु प्रत्येक स्थिति मे, चेन हो, जागृत हो, मूछित नही, इसी हो जाती है। पत. जागरण हो क्रान्ति है। इसलिए को अप्रमाद कहा गया है और जागते हुए भी, सोते हुए जागरण ही शुभ है। मूछित अवस्था प्रशुभ है क्रोध या भी भीतर जो एक मूछित प्रवस्था चल रही है, उसको काम मूर्छा ये ही जीव को पकहते है। असल मे तो मूर्छा प्रमाद कहा गया है। ही पाप है। शुभ और अशुभ का निर्णय न करें, बस दृष्टा इसकी फिक्र नहीं कि पाप का पुण्य मे कैसे बदलें, बन जायें, साक्षी बन जाएँ, देखने वाले बन जाएं । जैसे मैं हिंसा को अहिंसा मे कैस बदले, प्रसयम को सयम मे कैसे दूर खडा ह, जानने देखने के अतिरिक्त मेग और कोई बदलें, कठोरता को कोमलता म कैसे बदलें। सवाल यह प्रयोजन नही है। जैसे ही प्रयोजन प्रा जाता है, वंम ही नही है कि हम क्रिया को कैसे बदले। यदि कर्ता बदल निरीक्षण बन्द हो जाता है। जब कोई ऐसी जगह से जाता है तो क्रिया अपने प्राप बदल जाएगी क्योकि कर्ता गुजरता है जहाँ मरने का डर है, सकट का क्षण है तो उम हो तो क्रिया को करता है। कर्ता ही क्रिया करने में समर्थ भय के प्रति वह पूण जावत होता है। उसको अपने एक होता है। भीतर से कर्ता बदला, चेतना बदली। पाप बह एक कदम का ज्ञान बना रहता है। कोई व्यक्कि ऐमो है जो सजग व्यक्ति नहीं कर सकता। पुण्य वह है जो एक सकरी सड़क से पार हो रहा हो जिम के दोनो तरफ ग्वाई सजग व्यक्ति का करना पड़ता है। कम को बदलने पर है। बर्फ जमी हुई है, पोह का महीना है, वह जानता है विचार नही करना है बल्कि कोशिश करनी है। चेतना कि अगर एक भी कदम टेढ़ा रखा गया तो नाल में चला को बदलन की। चेतना बदल जाती है तो कम भी बदल जाएगा और वर्फ से ठंडा हो जाएगा। वह जो भी कदम जाता है। जब जीव चेतना में जाग्रत होता है तो सयम रखेगा वह बड़ी सावधानी से रखेगा, जागते हुए रखेगा भोर के, दया के, करुणा के फूल खिलने लगते हैं और वास्तविक,
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८, व ३३ कि०२
अनेकान्त
स्वाभाविक परियन भाता है, मोढ़ा हुमा प्राचरण नही। सोचना नहीं पड़ता कि मैं कुछ करूं परन्तु जहां मूछा गयी
अपने चेतन स्वभाव में जागरण किसी की अपेक्षा वहाँ अपनापना भी गया। नहीं रखता। जैसे एक दिया जल रहा है मोर उससे
अगर कोई स्वय मे जाग जाता है तो उस द्वार पर रोशनी चारों तरफ फैल रही है। उसके पास से कोई भी
पहुच जाता है जहाँ से ज्ञान की शुरूमात होती है। स्वयं गुजरता हो वह दिया अपनी रोशनी कम या ज्यादा नही
में जाग जाना पहला बिन्दु है। वहीं से यात्रा भीतर की करता। उसे इस बात को फिक्र नही कि उसके पास से मोती
भोर हो सकती है। व्यक्ति या तो राग में होता है या द्वेष कौन गुजर रहा है : सम्राट या गरीब भिखारी । कोई भी
मे होता है और स्वय के बाहर होता है। रागद्वेष होने का उसके पास से होकर जाए उसकी रोशनी निरन्तर बिखरती
मर्थ है स्वयं के बाहर होना। चाहे मित्र पर हो चाहे शत्रु रहती है। सच तो यह है कि दिए का जलाना दूसरे पर
पर, लेकिन चेतना कहीं भौर होगी राग में भी द्वेष में भी। निर्भर नहीं करता । दिए का जलना उसकी अन्तर्वस्तु है।
जो प्रादमी धन इकट्ठा करने मे पागल है उसका ध्यान वह स्वय में जागृत है।
भो धन पर होगा और जो मादमी धन को अनिष्ट मान
रहा है उसका ध्यान भी धन पर ही होगा। धन पर ही धर्म की साधना भी जागरण सहा मातो है। धम
दृष्टि बिन्दु होगा उन दोनो का और अपने प्रति सोए साधा नही जाता, वह तो जागरण से क्रियानो मे रूपान्तर
होगे। परन्तु जो स्वय में जागत हो जाता है उसकी सब होता है।
बिन्दुमो में दृष्टि धूम कर अपने पाप पर खड़ी हो जाती मूळ टूटन का मतलब यह नही कि चीजे हट जायगा है। वह चुपचाप देखने लगता है। यह रहा त्याग, यह रहा मूर्छा टूटने का मतलब है कि चीज तो रहेंगी लेकिन उनसे क्रोध । न मैं भोग करता हू, न मैं त्याग करता है। मैं लगाव छूट जाएगा। चीजें हो या न हों, सवाल यह नही पलग खड़ा देखता हूँ ऐसी स्थिति में स्वयं का द्वार खुल है जो परिग्रह या अपरिग्रह का सवाल है वह बाहरी चाजो जाता है जहाँ से ज्ञान की प्रथम भूमिका में जाया जा सके। का है बह भीतर नहीं है। जहाँ विवेक होगा वहाँ पाचरण तब वासना की डार टूट जाती है। कर्मकृत खेल फिर भी स्वय उपस्थित हो जाएगा, करना नही पड़ेगा। अगर चलता रहता है। परन्तु फिर उस खेल से क्या बिगड़ता करना पड़ रहा है तो वह इस बात की खबर दे रहा है कि
३ बम बात की खबर दे रहा है कि है ? साक्षी उसमे अलग खड़ा हो जाता है। वहाँ अन्तर-विवेक नही है । मन्तर विवेक की अनुपस्थिति जागृति दा तरह से हो सकती है, बहिर्मुखी भौर मे पाचरण अन्धा है, चाहे वह कितना ही नैतिक क्यो न अन्तर्मुखी। बहिर्मुखी जागति होगी तो अन्तर पन्धकारहो। वह समाज के लिए ठीक हो सकता है परन्तु पात्म- पूर्ण हो जाएगा। ऐसा व्यक्ति मूछित हो जाएगा मगर कल्याण के लिए नहीं।
आगति पन्तर्मुखी है तो बाहर की तरफ मूर्छा हो जाएगी।
अन्तर्मुखता का प्रगर विकास हा तो जो तीसरी स्थिति फिक इसकी करनी चाहिए कि जीव जा भी है उसम
होगी वह भी जागति की उपलब्धि होगी जहां अन्धकार जागे, इसको नही कि उसे क्या करना है और क्या होना
मिट जाता है और सिर्फ प्रकाश रह जाता है। वह पूर्ण है। होने की चिन्ता छोड़ दें। वह जो जागना है वही
जागृत स्थिति है लेकिन बहिर्मुखता से कभी कोई एक वीतरागता मे ले जाएगा पौर वीतरागता एक बिल्कुल
तीसरी स्थिति में नही पहुंच सकता। तीसरी स्थिति में भिन्न बात है।
पहुचने के लिए अन्तर्मुखता जरूरी है। बाहर से लौट व्यक्ति सोकर स्वप्न में सब कुछ ग्रहण कर लेता है। माना है और फिर अपने से भी ऊपर चले जाना है। मूर्छा लेकिन सुबह हँसता है क्योकि वह जाग गया है। स्वप्न में का अर्थ है कि बाहर है। बाहर का मतलब है कि स्वयं जिसको ग्रहण किया था वह जाग्रत होने पर नही रहा। अपना ध्यान बाहर है। भोर जहां अपना ध्यान है वहां
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वर्ष ३३, कि० २
का
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शक्ति है और जहाँ अपना ध्यान नही है वहां मू है।। ऐसी अन्तर्मुखता का नाम ही जागरण है । जो पूरी तरह
वीर सेवा मंदिर जग गया वह साधु है जो सो रहा है वह प्रसाधु है जागरण इतना गहन हो जाए कि न केवल बाहर की पावाज
२१, दरियागंज, नई दिल्ली-२ सुनाई पड़े, बल्कि अपना श्वास और हृदय की धड़कन भी वोर सेवा मन्दिर उत्तर भारत का अग्रणी जैन सुनाई पड़ने लगे और अपनी प्रांख की पलक का हिलना संस्कृति, साहित्य, इतिहास, पुरातत्त्व एवं दर्शन शोध
संस्थान है जो १९२६ से अनवरत प्रपने पुनीत उद्देश्यों की भी पता चलने लगे। भीतर के विचार भी पता चलने
सम्पूति में संलग्न रहा है। इसके पावन उद्देश्य इस लगें, जो भी हो रहा है वह सब चेतना में प्रतिफलित होने
प्रकार हैं :लगे।
0 जैन-जनेतर पुरातत्त्व सामग्री का संग्रह, संकलन मोर
प्रकाशन ।
0 प्राचीन जैन-जनेतर ग्रन्थों का उदार । (पृ० ५ का शेषांश)
9 लाक हितार्थ नव साहित्य का सृजन, प्रकटीकरण पोर नाहटाजी के प्रेरणा-स्रोत जीवनसत्र
प्रचार ।
9 भनेकान्त' पत्रादि द्वारा जनता के प्राचार-विचार को १. करत-करत अम्पास के जड़मति होत सुजान ।
ऊँचा उठाने का प्रयत्न । रसरी पावत-जात ते, सिल पर परत निसान ।
" जैन साहित्य, इतिहास और तत्त्वज्ञान विषयक अनु२. काल कर सो भाज कर, पाज कर सो प्रम्ब । सघानादि कार्यों का प्रसाधन और उनके प्रोत्तेजनार्थ __ पल में परल होयगी, बहुरि करंगो कम्य ॥ वत्तियों का विधान तथा पुरस्कारादि कामायोजन । ३. एक साधे सब सघ, सब साधे सब जाय ।
विविध उपयोगी सस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी एवं
अंग्रेजी प्रकाशन ; जैन साहित्य, इतिहास और तत्त्वज्ञान ४. रे मन । अप्पड खंच करि, चिन्ता-जालि म पाडि ।
विषयक शोध अनुसंधान, सुविशाल और निरन्तर प्रवर्षफल तित्तउ हिज मामिसह, जित्तउ लिहिउ लिलाडि ।। मान ग्रन्यागार; जैन संस्कृति, साहित्य, इतिहास एवं पुरा
(श्रीपाल चरित्र) | तत्त्व के समर्थ अग्रदूत 'अनेकान्त' के निरन्तर प्रकाशन नरोत्तमदास स्वामी
एव अभ्य भनेकानेक विविध साहित्य और सास्कृतिक गति
विधियो द्वारा बीर सेवा मन्दिर गत ४६ वर्ष स निरन्तर डा. मनोहर शर्मा
सेवारत रहा है एवं उत्तरोत्तर विकासमान है। 'प्रनेकान्त के स्वामित्व सम्बन्धी विवरण यह सस्था अपने विविध क्रिया-कलापो में हर प्रकार
से प्रापसे महत्त्वपूर्ण प्रोत्साहन एव पूर्ण सहयोग पाने की प्रकाशन स्थान-वीरसेवामन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली |
नई दिल्ला अधिकारिणी है । अतः प्राप से सानुरोध निवेदन है कि:मुद्रक-प्रकाशन वीरसेवामन्दिर के निमित्त
१. बीर सेवा मन्दिर के सदस्य बनकर धर्म प्रभावनात्मक प्रकाशन प्रवधि-मासिक श्री मोमप्रकाश जैन | कार्यक्रमों में सक्रिय योगदान करें। राष्ट्रिकता--भारतीय पता-२३, दरियागज, दिल्ली-२ | २. वीर सेवा मन्दिर के प्रकाशनों को स्वयं अपने उपयोग मम्पादक-श्री गोकुलप्रसाद जैन
के लिए तथा विविध मांगलिक अवसरों पर अपने राष्ट्रिकता-भारतीय पता-वीर सेवा मन्दिर २१, |
प्रियजनों को मेंट में देने के लिए खरीदें। दरियागज, नई दिल्ली-२
" | ३. मामिक शोध पत्रिका 'अनेकान्त के ग्राहक बनकर । ३.
जन सस्कृति, साहित्य, इतिहास एव पुरातत्त्व के शोषास्वामित्व-वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
नुसंधान मे योग दें। 'मैं, प्रोमप्रकाश जैन, एतद्द्वारा घोषित करता हूं कि . विविध धार्मिक, सांस्कृतिक पो एव दानादि के मरी पूर्ण जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपर्युक्त अवसरो पर महत् उद्देश्यों की पूर्ति मे वीर सेवा विवरण सत्य है। -मोमप्रकाश जैन, प्रकाशक
मन्दिर की प्राधिक सहायता करें।
-गोकुल प्रसाद जैन (महासचिव)
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नाट्योत्पत्ति सम्बन्धी जैन परम्परा
0 श्री कपूरचन्द जैन, खतौली
भारतीय काव्यशास्त्रीय परम्मत मे काव्य के दो भेद केवल द्विजातियो की ईा सम्पत्ति न हो अपितु शूद्र भी किये गये हैं। पहला श्रव्य काव्य जिसे पढ़ने अथवा मुनने जिसके अभागी हो सके। ब्रह्मा ने देवताओं की प्रार्थना से पाठको तथा श्रोताग्रो के हृदय में प्रानन्दानुभूति होती मनकः ऋग्वेद से पाव्य (संवाद) सामदेव से गीत यजुर्वेद हैं। दूसरा दृश्य काव्य' जिसमे श्रवणातिरिक्त पात्रो का से अभिनय मोर अथर्ववेद से रस ग्रहण कर पंचम वेद का अभिनय, उनकी वेषभूषा, प्राकृति, भाव भंगिमा प्रादि नाट्यवेद की रचना की। के द्वारा सहृदय सामाजिको के हृदय मे पानंद का संचार रचनान्तर देव वास्तुशिल्पी विश्वकर्मा को प्रेक्षागृह के होता है। चूंकि दृश्य प्रभिनेय होता है। पौर उसमे निर्माग को तथा भरत को अपने शतपुत्रों के साथ उसमे प्राचीन या काल्पनिक रागादि का नटादि पर प्रारोप अभि य की प्राना दी। पाशतोष भगवान शकर ने रोद्र किया जाता है प्रतः उसे रूपक कहा जाता है 'रूपा- व्यजक ताण्डव तथा पार्वती ने सूकूमार एव शृंगारिक रोपात्तुरूपकम्' रूपक क नाटक प्रकरण प्रादि लास्य नत्य द्वारा इस नाट्य मे योगदान किया और सर्वप्रमुखतः दस भेद है। किन्तु रूपक का प्रथम और प्रथम ब्रह्मा द्वारा निर्मित 'अमृतमन्थन' समवकार एव प्रमुख भेद होने के कारण सम्प्रति रूपक का स्थान नाटक त्रिपुर हाह' बामक डिम को प्रस्तुत किया। ने ले लिया है और सामान्यत. दृश्य काव्य नाटक--
नाट्य के भूतल पर स्थानान्तरित होने के सम्बन्ध में वाध्य हो गया है। प्रस्तुत निबन्ध मे भी रूपक के स्थान
दो कथाय भी नाट्यशास्त्र के प्रतिम अध्याय मे दी गई पर नाटक शब्द का प्रयोग किया गया है।
है तदनुमार भरतपुत्रो को अपने नाट्य प्रयोग पर अभिमान नाटक का उदभव कब हुमा इम सम्बन्ध मे न केवल हो गया और एक बार उन्होने मुनियो के माक्षेपपूर्ण व्यग्य भारतीय अपितु पाश्चात्य विचारको ने भी भरपूर गवेषणा का अभिनय किया जिससे क्रुद्ध हो मुनियो ने शाप दिया की है। भारतीय परम्परानुसार विश्व के सम्पूर्ण ज्ञान, कि ऐमा नाट्य समाप्त हो जाये भोर भरत पुत्र शूद्र हो विज्ञान, कला, कौशल के उत्पत्ति स्थान वेद है। नाटको जायें। देवों के प्रार्थना करने पर मनियो ने शाप मे की उत्पत्ति भी वेदो से हुई इसी कारण उसे 'चतुर्वेदाग- सशोधन किया कि नाट्यविद्या नष्ट तो नही होगी किन्तु सम्भवम्' कहा जाता है। पाद्य कव्याचार्य भरतमनिप्रणीत ___ भरत पुत्रो को शूद्र अवश्य होना पड़ेगा। शास्त्र के नाट्शास्त्रानुसार-देवतामो ने जगत पिता ब्रह्मा के पास चरितार्थ होने में दूसरी कथा दी गयी है। तदनुसार जब जाकर उनसे ऐसी वस्तु के निर्माण की प्रार्थना की जो इन्द्र का पद सम्राट नहष को मिला तो भरत पुत्रो का कानों तथा नत्रो को समान रूप से भानन्द दे सका। जो अभिनय देखकर नहष न भूलोक पर अपने घर मे वह! १,२. दृश्यश्रव्यत्वभेदन पुनः काव्यं द्विधा मतम् । ४. नाट्य शास्त्र १/१६ दृश्य तत्राभिनेय तदरूपारोपान्तुरूपकम् ।।
विश्वनाथ साहित्यदर्पण ६.१ ३. नाटकमयप्रकरणं भाणण्यायोगसमवकारडिमाः।
५. वही १/४-१७ ईहामृगायोप्यः प्रहसनमिति रूपकाणि दश ॥
साहित्यदर्पण ६/३
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नाट्योत्पत्ति सम्बन्धी जैन परम्परा अभिनय करने का अनुरोध किया। भरतपुत्र तैयार नही प्रो. रिजवे का मत है कि नाटकों का उद्भव हये, काफी विचार-विमर्श के बाद भरत ने अपने पुत्रों को मृतात्मा के प्रति श्रद्धा प्रकट करने की परम्परा से हुमा समझाया कि ऐसा करने से ऋषि का शाप भी छूट जायेगा मतास्मामों के प्रति श्रद्धा प्रकट करने की परम्परा सभी तब भरत पुत्र पृथ्वी पर पाये । और नहुष के अन्तःपुर में संस्कृतियों में हैं भाज भी ऐसे विभिन्न अभिनयात्मक नाटय-प्रयोग किया तथा गृहस्थ होकर कुछ समय पृथ्वी प्रायोजन (श्राद्ध) प्रचलित है। पर बिताया। पौर स्वर्गलोक लोट गये, किन्तु वे अपनी डा० पिशेल का कथन है कि नाटकों की उत्पत्ति में मन्तति को नाट्य प्रयोग की शिक्षा दे गये थे। जिससे
पुसलिका नत्य का महत्वपूर्ण योगदान है प्रतः उसे ही पृथ्वी पर नाट्य प्राया।
नाट्योत्पत्ति का मूल माना जाना चाहिये । उनका कहना पाश्चात्य विद्वानो जिनमे, श्री मैक्स मूलर, प्रो० है कि पुलिका नत्य सर्वप्रथम भारत में ही प्रारम्भ हुमा मिल्वा लेवी, मोल्डेन वर्ग, डा. हर्टल प्रादि प्रमुख है- महाभारत तथा, कथा सरित्सागर में पुत्तलिकामों का का मत है कि ऋग्वेद के सवादात्मक सूक्तों से नाट्योत्पत्ति वर्णन है। इस नत्य में एक सूत्रधार होता है जो पीछे से हुई है ऋग्वेद में यम यमी सवाद, सरमापणि सवाद, इन्द्र वृत्तालिकामो को नचाता है उनका कथन है कि नाटक के महत सवाद, अगस्त्य लोपा मुद्रा सवाद, विश्वामित्र नदी उपस्थापक के लिये इसी कारण प्राज भी सूत्रधार शब्द सवाद प्रादि अनेकों ऐसे सवादमूक्त हैं जिनमे नाटको का का प्रयोग होता है। बीज विद्यमान है। मैक्समूलर का कथन है कि ऋत्विकगण कुछ पाश्चात्य विद्वानों ने यूरोप में होने वाले मेपोल इन सुक्तो का अभिनयात्मक पाठ करते थे यही नाट्य का पर्व को नाट्योत्पत्ति का मूल माना है। यह पर्व मई मास बीज है डा० दिडिश, प्राल्डेन वर्ग तथा पिशेल का अनुमान में होना है। है कि ये सक्त पहले गद्यपद्यात्मक थे अधिक रोचक एवं प्रो. हिनबाण्ड का कथन है कि लोकप्रिय स्वांगो से कंठस्थ करने में सरल होने के कारण इनका पद्य भाग नाटका की उत्पत्ति हुई स्वागो के साथ रामायण और बच गया तथा गद्य भाग नष्ट हो गया। इसके अतिरिक्त महाभारत की कथानों ने मिलकर नाटकों को जन्म दिया ये पाख्यात्मक भी थे तथा इन्हो के अनुसरण पर पद्य पद्य । इसी प्रकार प्रो० त्यूहसं का कथन है कि छाया नाटकों में के संवादात्मक तत्व का नाट्य मे मिश्रण प्रा। ऐतरेय- जो छाया चित्रों का प्रदर्शन किया जाता है उससे नाटको ब्राह्मण का शुनःशेष पाख्यान तथा शतपथब्राह्मा का को उत्पत्ति हुई" प्रो० वेधर भारतीय नाटकों का जन्म पुरुरबा-उर्वशी पाख्यान इस प्रकार के ग्रंश के प्रमाणभूत युनानी प्रभाव से मानते है । अविष्ट रूप है । मतः इन्ही से नाट्य का उदभुव हुप्रा है डा. कोर के अनुसार नाटक का उद्भव प्राकृतिक भारतीय विद्वान् डा. दास गुप्ता भी इस मत से सहमत परिवर्तनो को प्रस्तुत करने की इच्छा की देन है। महाभाष्य है कि वेद मन्त्रो में नाटकीय तत्व प्रचुर मात्रा में विद्यमान में निर्दिष्ट क्सबध नामक नाटक का अभिनय कीथ के है और तत्कालीन जीवन के धार्मिक अवसरो, मगीत मतानुसार इस मत की पुष्टि करता है। समारोहों तथा नृत्योत्सवो से नाटकों का घनिष्ट जैन परम्मानुसार नाटकों की उत्पत्ति दैविक है किन्तु सम्बन्ध था।
बाद मे चलकर तीर्थंकरो के पंचकल्याणको के अभिनय से ६. दे०-हिन्दी नाट्यशास्त्र, व्या० बाबूलाल शुक्ल
दे०-मस्कृत साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास: शास्त्री चौखम्बा वाराणमी १९१२ मिका डा. कपिलदेव द्विवेदी पृ० २६६
पृष्ठ ४६ ७. वही पृष्ठ ४७
१०. वही ८. डा० एस० एन० दास गुप्ता ऐण्ड एस० के० डे० : १. दे० सं० सा. की रूपरेखा : व्यास तथा पाण्डेय
हिस्ट्री घाफ संस्कृत लिटरेचर वाल्यूम ६ पृष्ट ४४ १६७० पृ० १४
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१२, वर्ष ३३, कि०२
अनेकान्त
उसका विकास हुमा। जिनसेन कृत आदिपुराण में यहां वैदिक पोर जैन सिद्धान्त मे भनेक समानतायें उल्लिखित है कि भगवान ऋषभदेव के जन्म कल्याण मे दष्टव्य हैं। वैदिक सिद्धान्तानुसार नाटयोत्पत्ति, ब्रह्मा इन्द्र अनेक देवतागों के साथ माया और भगवान को (देव) ने की, उसका अभिनय भी भूतल पर सर्वप्रथम पाण्डुक शिला पर स्नान कराने के वाद अयोध्या नगरी मे देवो द्वारा हुप्रा । शंकर ने ताण्डव नृत्य से पोर पार्वती ने लोटा तदनन्तर उसने नगरवासियों का मानन्द देखकर लास्य से इसमें भारी योगदान दिया। जैन सिद्धान्त के मानन्द नाम के नाटक में अपना मन लगाया। पहले अनुसार भी इन्द्र (देव) ने नाट्योत्पत्ति की प्रथम अभिनय उसने नत्य किया इन्द्र स्वय प्रधान नृत्यकार था कुलाचलों देवों ने कल्याणकों पर किया इन्द्र ने ताण्डव प्रौर सहित पृथ्वी रंगभूमि नाभिराज प्रादि उत्तम-उत्तम पुरुष देवांगनारों ने लास्य नृत्य से इसमे योगदान किया।" दर्शक, ऋषभदेव प्राराध्य, धर्मार्थकाम तीन पुरुषार्थों की एक समानता मौर, उनके अनेक पाश्चात्य विद्वानो सिद्धि तथा परमानन्द मोक्ष की प्राप्ति होना ही उसका ने मेपोल पर्व से नाट्योत्पत्ति मानी है। यह उत्सव मई के फल थे।" पहले इन्द्र ने गर्भावतार सश्बन्धी, फिर जन्मा- महीने में होता है जिसमें एक स्तम्भ (पोल) गाडकर स्त्री भिषेक सम्बन्धी और फिर भगवान के पूर्व के महाबल पुरुष उमके चारों ओर नाचते हये उत्सव मनाते है। पाटि दशावतारी को लेकर नाटक किये। इन्द्र ने पहले भारतीय विद्वान प. गमावतार शर्मा ने भारतीय मंगलाचरण, फिर पूर्व रंग फिर ताण्डव नृत्य नान्दी मंगल इन्द्रध्वज उन्मन कोनी करने के बाद रंगभूमि में प्रवेश किया इन्द्र के साथ अनेक ।
सिद्धान्त मान लिया जाये तो जैन परम्पग में भी इन्द्रध्वज देवियों ने भी नत्य किया । इन्द्र उसका सूत्रधार जैसा विधान है जो सतत पानी का
विधान है जो सम्भवतः प्राचीन काल में भारी उत्सव के
सारी, प्रतीत हो रहा था।
साथ मनाया जाता था। इस विधान में भी एक विशाल पुरुदेवचम्पू में भी ऐसा ही वर्णन उपलब्ध होता है मण्डप बनवाकर उसके प्रांगण में एक चबूतरे पर ऊची वहाँ इन्द्र ने प्रानन्द नाम का नाटक उत्पन्न किया और विशाल ध्वजा का प्रारोहण किया जाता है " हिन्दी स्वयं उसका अभिनय देवतामों के साथ किया ।
इन्द्रध्वज विधान की रचना हाल में ही प्रायिकारत्न श्री ऐसा प्रतीत होता है कि तीर्थंकरो के कल्याणकों पर ज्ञानमती जी ने की है। ग्रन्थ सम्पादक थी रवीन्द्र कुमार जो इन्द्रादि देवता पाते थे वे गाजे-बाजे के साथ भूनल पर जैन की सूचनानुसार यह ग्रन्थ मूलत: संस्कृत मे है जिसके कल्याणक मानकर पौर नृत्योत्सव करके चले जाते थे बाद रचयिता भट्टारक विश्वभूषण जी हैं। इसकी प्रतियां में साधारण जन भी समय-समय पर मनोरजनार्थ कल्याणकों झालरापाटन, इन्दौर, सरधना, दिल्ली, टीकमगढ मादि को मानते थे और वैसा ही अभिनयादि किया करते थे के भण्डारों मे हैं हमारी दष्टि में अभी यह ग्रन्थ नहीं धीरे-धीरे इसी परम्परा ने माधुनिक नाटक का रूप ले माया है। हो सकता है इस ग्रन्थ से इस विषय पर कुछ लिया। प्राज भी जैन परम्परा में 'पचकल्याणक नाटक, विशेष प्रकाश पड़े। प्रवक्ता, संस्कृति विभाग (पंचकल्याणक नृत्य)' मादि नाटक स्थान-स्थान पर किये
श्री के. के. जैन डिग्री कालेज, जाते हैं।
खतौली (मुजफ्फर नगर) १२. मादिपुराण : भारतीय ज्ञानपीट १४१६५
१८. " "एकललेखाः सहर्षमानन्दनाटकं संभूय संपाद्य १३. वही १४।१००-१०१
स्वभावनमभजन्त।" वही गद्य १०६५ पृष्ठ ३७१ १४. वही १४११०३-१.७
१६. प्रादि पुराण १४११५५ १५. बही १४।१३२-१५६
२३. स० सा की रूपरेखा : व्यास तथा पाण्डेय पृष्ठ ९४ १६. वही १४११५४
२१. इन्द्रध्वज विधान, हस्तिनापुर १९७८ भूमिका पृ. २५ १७. पुरुदेवचम्पु: भारतीय ज्ञानपाठ, पचन स्तबक गए २२ वही गापादकीय पृष्ठ ७
संख्या ३४ से ४१ तक पर ००.२१२
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प्राचार्य कुन्द-कुन्द को प्राकृत
। श्री पत्रचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली प्रायः सभी मानते है कि प्राचार्य कुन्न कुन्द ने जैन विचारपूर्ण मोर पंनी है - उससे सिद्धान्त के समझने में गोरसेनी प्राकृत को माध्यम बनाकर ग्रन्थ निर्माण किए। सभी को प्रामानी अनुभव हुई होगी पोर सिद्धान्त सहज कुछ समय से उनके ग्रन्थों मे भाषा की दृष्टि से सशोधन हो प्रचार में प्राता रहा होगा । यत: इस भाषा में सभी कार्य प्रारम्भ हो गया है और कहा जा रहा है कि इसमे प्राकृतो के शब्दो का समावेश रहता है ----शा के किसी लिपिकारों की सदिग्धता या प्रमावगानी रही है। ये ॥क रूप को ही शुद्ध नहीं माना जाता पपितु सुविधानुसार कारण कदाचित हो सकते है पोर इनके फलस्वरूप अनेक सभी रूप प्रयोगो में लाए जाते है-जैसा कि प्राचार्य हस्तलिखित या मुद्रित प्रतियों में एक-एक शब्द के कद-क-द ने भी किया है। विभिन्न रूप भी हो सकते हैं। ऐसी स्थिति मे जबकि जनशौरसेनी के सम्बन्ध मे निम्न विचार दृष्टव्य पाचार्य कन्द-कन्द की स्वयं की लिखित किसी अन्य की है और ये अधिकारी विद्वानो के विचार हैंकोई मूल प्रति उपलब्ध न हो, यह कहना बड़ा कठिन है In his observation on the Digamber test कि प्रमक शब्द का अमक रूप ही प्राचाय कुन्द-कुन्द ने Dr. Denecke discusses various points abont अपनी रचना में लिखा था। तथा इसकी वास्तविकता में
some Diganber Prakirit works . He remarks किसी प्राचीन प्रति क) भी प्रमाण नही माना जा सकता,
that the language of there works is influenced यन ---'पुराणमित्येव न माधुसर्वम ।'
by Ardbamagdhi, Jain Maharastrı weich जहाँ तक जैनणीरगनी प्राकृत भाषा के नियम का Approaches it and Saurseni.' प्रश्न है और कुन्दकुन्द की रचनामो का प्रश्न है --उनकी
-Dr. AN. Upadhye पाकृत मे उन सभी प्राकृतो के रूप मिलते है जो जैन
(Introduction of Pravachansara) शौरसेनी को परिधि मे पाते हैं। उन्होन मवधा न तो "I be Praksit of the sutras, the Gathas as महाराष्ट्री को अपनाया और न सर्वधा शौरसेनी अथवा
well as of the commentary, is Saurseni अर्धमागधी को ही अपनाया। अपितु उन्होने उन तीनो influenced by the order Ardhamagdhi on the प्राकृतों के मिले-जुले रूपो को अपनाया जो (प्राकृत) जैन one hand and the Maharashtra on the other, गौरसेनी में सहयोगी है-जैनोरमेनी प्राकृत का रूप and this in exectly the nature of the language निश्चय करने के लिए हम भाषा-विशेषज्ञों के अभिमत called 'Jain Saurseni.'
-Dr. Hiralal जान लें ताकि निर्णय मे सुविधा हो
(Introduction of षट् खंडागम P. IV) 'मागध्यवन्तिजा प्राच्या मरसेन्यर्धमागधी।
'जैन महाराष्ट्री का नाम चुनाव समुचित न होने पर बाल्हीका दाक्षिणात्या च सप्तभाषा प्रकीतिताः॥' भी काम चलाऊ है। वही बात जैन शोरसेनी के बारे में
यद्यपि प्राकृत वैयाकरणों ने जैन शौरसेनी को पोर जोर देकर कही जा सकती है। इस विषय में सभी प्राकृत के मूल भेदों में नही गिनाया, तथापि जैन साहित्य तक जो थोड़ी-सी शोध हुई है, उससे यह बात विदित हुई में उसका अस्तित्व प्रचुरता से पाया जाता है। दिगम्बर है कि इस भाषा मे ऐसे रूप और शब्द है जो शौरसेनी मे साहित्य इस भाषा से वंसे ही मोत-प्रोत है। जैसे बिल्कुल नही मिलते बल्कि इसके विपरीत वे रूप पौर पागम श्वेताम्बरमान्य अर्धमागधी से । सम्भवतः उत्तर शब्द कुछ महाराष्ट्रो और कुछ प्रर्धमागधी में व्यवहृत से दक्षिण मे जाने के कारण दिगम्बराचार्यों ने इस (जैन होते हैं।' शोर सेनी) को जन्म दिया हो---प्रचार की दृष्टि में भी --पिशल, प्राकृत भाषामो का व्याकरण पु. ३८ ऐसा किया जा सकता है। जो भी हो, पर यह दृष्टि बड़ी प्राचीन भागमों और प्राचार्य कुन्द-कुन्द की रचनाओं
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१४, वर्ष ३३ कि. २
अनेकान्त में इसी माधार पर विविध शब्द रूपों के प्रयोग मिलते हैं-दिगम्बर प्राचार्य किसी एक प्राकृत नियम को लेकर नहीं चले अपितु उन्होंने अन्य प्राकृतों के शब्द रूपों को भी अपनाया। अत: उनकी रचनामों में भाषा की दृष्टि से संशोधन की बात सर्वथा निराधार प्रतीत होती है। प्राचार्यों के द्वारा अपनाए गए विविध शब्दरूपों की झलक पाठकों की जानकारी के लिए प्रस्तुत है
हमें प्राशा है कि पाठक तथ्य तक पहुंचेंगे।
दि० जैन पागमों में एक ही प्राचार्य द्वारा प्रयुक्त विविध प्रयोग :षट्खं डागम [१,१,१]
(महाराष्ट्रो के नियमानुसार '' को हटाया)---
उपजा (दि) पृ० ११०, कुणइपृ० ११०, वणंह पृ० १८, परुवेइ पृ० ६६, उच्च पृ० १७१, गच्छह पृ० १७१ दुक्का १७१, भणइ पृ. २६६, संभव पृ० ७४
मिच्छाइट्रिपृ० २०, वारिसकालो कम्रो पृ० ७१-...इत्यादि । (शौरसेनी के अनुसार 'व' को रहन विया)सुबपारगा पृ० ६५, वर्ण दि पृ० ६६, उच्चदि पृ० ७६, परुवेदि पृ० १०५, उपक्कमोगदो पृ० ८२, सबं
(तं) पृ० १२२, णिग्गदो प० १२७, ('' लोप के स्थान में 'य" सभी प्राकृतों के पनसार)
सुयसायरपारया पृ० ६६. भणिया पृ० ६५, सुयदेवया पृ० ६, सुयदेवदा पृ० ६८, वरिसाकालोको'०७१, णवयसया (ता) पृ० १२२ कायात्रा पृ० १२५, गिगया १२७, सूयणाणाञ्च (तिलोय पण्णत्ति) पृ०३५ लोप में 'य' और प्रलोप (दोनो)
कुन्द-कुन्द 'अष्टपाहर के विविध प्रयोगप्रम्य नाम
शब्द पौर गाथा का क्रम-निर्देशदर्शनपार होदि
हवाह
हवादि २६
२० सूत्रपाहुड
११,१४,१७
२०,२४ चरित्रपाहूड
३४३६ बोवपाहुड
११.२६ भावपाहुड
८८,६५,७३ १२७,१४० .४३,१५१
५१,२८,७६ मोक्षपाहुड ७०,८३
५२,६० हवई १४,१८,३८ ५१,८४ ८७,१०० १०१,
४७ लिंगपाहुड
२,१३,१४ शीलपाहुड नियमसार १८,२६,५४
१०,१७२ ५५,५८६४ ५६.५७ १७३,१७६
११३,१४१ ८२,८३,६४
१६१,१६२ १०७,१४२ १६६१७१
१७४,१७५ १. 'जन महाराष्ट्री मे लुप्त वर्ण के स्थान पर 'य' श्रुति का उपयोग हुपा है जैसा जैन शौरसेनो मे भी होता है
षट्खडागम भूमिका पृ० ८६ २. 'द' का लोप है 'य' नहीं किया।
होइ
५,२० १५०
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प्राचार्य कुन्च-कुन्द की प्राकृत
इसी प्राकार मन्य बहुत से शब्द है जो विभिन्न रूपों लोए या लोगेमे दि० जन मागमों में प्रयुक्त किये गए हैं । जैसे--- षखंडागम मंगलाचरण-मूलमंत्र णमोकार में 'लोए'
'गइ, गदि । होइ, होदि, हवदि । णामो, णादो। पक्षुण्णरूप में लिखा गया है जो मावाल-बद्ध में बिना किसी भूयस्थो, भूदत्थो। सुयकेवली, सुदकेवली। णायल्यो, भ्रांति के श्रद्धास्पद बना हुमा है। पिशल ने स्वयं लिखा णादवो। पुग्गल, पोंग्गल । लोए, लोगे । मादि: है-प्राकृत में निम्न उदाहरण मिलते है-'एति' के स्थान
में 'एई' बोला जाता है, 'लोके' को 'लोए कहते हैं।'-- उक्त प्रयोगों में 'द' का लोप और मलोप तथा लोप
परा १७६ । के स्थान में 'य' भी दिखाई देता है। स्मरण रहे केवल शौर.
पैरा १७६ हो- जैन शौरसेनी की प्राचीनतम सेनी को ही 'द' का लोप मान्य है-दूसरी प्राकृतो मे 'क
हस्त-लिपियां प, प्रा से पहले और सभी स्वरों के बाव ग च ज त द यब' इन ब्यन्जनों का विकल्प से लोप होने के
पर्थात् इनके बीच में 'य' लिखती है'--- कारण-दोनों ही रूप चलते है। जैन शोरसनी मे अवश्य
___'वोत्त' रूप जैन महाराष्ट्री का है भोर 'बत्तु' ही महाराष्ट्री, अर्धमागधी भोरशोर सेनी के मिले-जले
शौरसेनी का। पिशल ने लिखा है 'शौरसेनी मे 'वच' की रूपों का प्रयोग होता है।
सामान्य क्रिया का रूप कभी 'वोत्तु नही बोला जाता। पुग्गल और पोंग्गल--
किन्तु सदा वत्तुं ही रहता है।'-परा ५७० प्रवचनसार मादि में उक्त दोनो रूप मिलते है। जैसे
उक्त पूरी स्थिति के प्रकाश में ऐसा ही प्रतीत होता गाषा-२.७६, २-६३ भोर गाथा २-७८, २-६३
है कि 'जैन शौरसेनी' में प्रमागधी, जन महाराष्ट्री मोर
शौरसेनी इन तीनो प्राकृतो के प्रयोग होते रहे है, मतः पिशल व्याकरण में उल्लेख है-- 'जैन शौरसेनी मे
मागमों गे पाए (उक्त नियम से सबषित) सभी रूप ठीक पुग्गल रूप भी मिलता है" -परा १२४ । इमी पंग मे
है। यदि हम किसी एक को ठीक पोर माय को गलत पिशल ने लिखा है "संयुक्त व्यजनों से पहले 'उ' को 'प्रो'
मानकर चलें तब हमें पूरे प्रागम पोर कुन्दाकुन्द के सभी हो जाता है........ ....."। मारकण्डेय के पृष्ट ६६ के
पग्यों के शब्दों को (भाषावष्टि से) बदलना पड़ेगा यानी अनुसार शौरसेनो में यह नियम केवल 'मक्ता' पौर
हमारी दृष्टि मे सभी गलत होगे-जैसा कि हमें इष्ट 'पुष्कर' में लागू होता है। इस तथ्य की पुष्टि सब प्रथ
नही और न जैन शौरसेनी प्राकृत को ही ऐसा इष्ट होगा। करते है।"-पैरा १२४.
इसी मन्दर्भ मे यदि सभी जगह शौरसेनी के नियमानुसार दूसरी बात यह भी है कि 'मात-सयोगे वाला (उ को 'द' रखना इष्ट होगा ता-- श्रा करने का) नियम मभी जगह इष्ट होता तो 'चुक्केज' 'पढम होई' या 'पटम हवाइ मंगल' के स्थान पर भी (गाथा ५) पुवकालशि (गाथा २१) वुच्चदि, दुक्ख 'हवदि' पढ़ना होगा जमा कि चलन जैन के किसी भी (गापा ४५ समयसार) पादि मे भी उकार को मोकार मम्प्रदाय मे नही है, भादि । पाठक विचारें। होना चाहिए। पर,ऐसा न करके दोनो ही रूपों को स्वीकार
वीर सेवा मन्दिर किया गया है-'क्वचित् प्रवृत्ति क्वचिदप्रवृत्तिः।
२१, दरियागज नई दिल्ली
000
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क्या तिलोयपण्णत्ती में वणित विजयार्थ ही वर्तमान
विन्ध्य प्रदेश है ?
0 डा. राजाराम जैन यतिबषभ कृत तिलोयपण्णत्ती शौरसेनी प्राकृत का २५ योजन ऊंचा, ५० योजन प्रमाण मूल में विस्तार युक्त प्रदभुत काव्य ग्रन्थ है। उसका रचनाकाल विक्रम को तया ६१ योजन को नोव सहित है। वह पूर्वापर समुद्र ५वीं-६वी सदी के पासपास माना गया है। उसमे तीनो को स्पर्श करने वाला नया ३ थणियो मे विभक्त है। लोको सम्बन्धी भूगोल एव खगोल-विद्या का सुन्दर वर्णन प्राचार्य जिनसेन एव हेमचन्द्र ने भी इसी से मिलतामिलता है। यद्यपि उसमे विन्ध्य का नाम स्पष्टरूपेण जुलता वर्णन किया है। जिनसेन के अनुसार वह गगा एव नहीं मिलता। वह विजया प्रदेश प्रथवा विजयाचं सिन्य नदियों के नीचे स्थित है।' पर्वत के रूप में उल्लिखित है । किन्तु यदि
वर्तमान विन्ध्यपर्वत को स्थिति भी विजयाई जैसा वर्तमान विध्य प्रदेश का विविध परिस्थितियो
ही है। वह अपनी लम्बाई, चौडाई एवं ऊचाई के लिए को ध्यान में रखकर उमका अध्ययन किया जाय ता।
नो प्रसिद्ध है हो। यह विशाा ३ श्रेणियों में विभक्त है। तिलोयपणती का विजयाधं ही विन्ध्य प्रतीत होता है।
इन धणियो क नाम है, मकाल, मतपुडा एव पारियात्र। इस दिशा मे सम्भवतः कोई कार्य नही हुया है। प्रतः ।
पारियात्र वि यमाला का पश्चिमी छोर है, जो चम्बल के शोष-प्रजो का ध्यान भाषित करने के लिए यहाँ कुछ
उद्गम स्थल से लेकर खम्भात की खाड़ो तक फैलता तथ्य प्रस्तुत किए जा रहे है :
तिलाय पण्णत्ती में बताया गया है कि भरतक्षत्रक
तिलोयपणती में चालाया गया है कि विजया के बहमध्यभाग मे रजतमय पोर नाना प्रकार के उत्तम पर्व पश्चिम दिशा की और दक्षिणी सीमा पर ५० एवं रत्नों से मणीक विजयाचं नामक एक उन्नत पर्वत है, जो उत्तरी सीमा पर ६. नगर बसे हुए है। १. भरहग्विविवहमज्झे विजय द्धोणाम भूधरो तुंगो।
पुरोत्तम, चित्रकूट, महाकुट, स्वर्णकूट, त्रिकूट, २ जदम मो चे?दि हु जाणावर ग्यण रमणिजो॥
विचित्रकूट, मधकूट, वधवकूणट, सूर्यपुर. चन्द्र, रणवीस जोयणदनो वत्तो तदुगुणमूलविक्खमो।
नित्योद्योन, विमखी, नित्यवाहिनी एव मुमुखी। उदयतुरिमसगढी जलणिहि पट्टो तिसढिगयो।।
उत्तर श्रेणी के ६० नगर---अर्जनी, प्राणी, कैलाश तिलाय०४/१०७-१०८
वारुणी, विद्युत्प्रभ, किलकिल, चूड़ामणि, शशिप्रभ, २-४. दे० प्रादिपुराण में भारत - पृ० ११०
वशाल, पुष्षचूल, हंसगभ. बलाहक, शिवशंकर, ५.६. दे० प्राचीन भारत का ऐतिहासिक भूगोल (वा० सी०
श्रीमौष, चमर शिवमन्दिर, वसुमत्का, वसुमती, ला द्वारा लिखित) (लखनऊ, १६७३) पृ० ५०२.३
सर्वार्थपुर (सिद्धार्थपुर), शत्रुजय, केतुमाल, ७. दक्षिण श्रेणी के ५० नगर-किनामित, किन्नर
सुरपतिकान्त, गगननन्दन, अशोक, विशाक, वीतशोक, गीत, नरगीत, बहुकेतु, पुण्डरीक, सिंहध्वज, अलका, तिलक, प्रवरतिलक, मन्दर, कुमद, कुन्द, श्वेतकेतु, गरुडध्वज, श्रीप्रभ, श्रीधर, लोहार्गल,
गगनवल्लभ, दिव्यतिलक, भूमितिलक, गन्धर्वपुर, परिजय वजार्गल, बलाढ्य, विमोचिता, जयपुरो, मुक्ताहर, नैमिष, मग्निज्वाल, महाज्वाल, श्रीनिकेत, शकटमुखी, चतर्मुख, बहुमुख, परजस्का, विरजस्का, जयावह, श्रीनिवास, मणिवत्र, भद्रवश्व, धनजय, रचनपुर, मेखलान, क्षेमपुर, अपराजित, कामापुष्प, माहेन्द्र, विजयनगर, सुगन्धिनी, बजार्द्धतर, गगनचरी, विजयचरी, शुक्रपुरी, संजयन्त नगरी, गोक्षीरफेन, प्रक्षोभ, गिरिशिखर, घरणी, वारिणी जयन्त, विजम, वैजयन्त, क्षेमंकर, चन्द्राभ, सूर्याम, (धारिणी), दुर्ग दुर्दर, सुदर्शन, रत्नाकर एवं रत्नपुर।
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क्या तिसोमपणती में वर्णित विभवार्थ हो वर्तमान विध्य प्रदेश है ?
काल के प्रभाव से यद्यपि वर्तमान विन्ध्य प्रदेश में नेक प्रकार के भौगोलिक परिवर्तन हो गए हैं। नगरीयविकास, संख्या परिवर्धन एवं नाम-परिवर्तन भी क्रमशः होता रहा फिर भी कुछ नगरों में नाम साम्य भभी भी दृष्टिगोचर होता है। यथा :
ति० प० में उल्लिखित नगर वि० प्र० के वर्तमान नगर अपने जिलों के साथ
मेखला - मंकाल (शहडोल) सूर्यपुर-सुरजपुर ( टीकमगढ़)
पलका कला (पन्ना)
लोहार्गल - लोध या लोघरी (शहडोल) चित्रकूट -- चित्रकूट
अग्निज्वाल - ज्वालामुखी (उमरिया, शहडोल ) प्रक्षोभ - खोह ( शहडोल ) दुर्ग दुगावर (शहडोल) सर्वार्थपुर - सिद्धार्थपुर ( सोधी) जयावह जियावन (सीधी ) श्री सोध - सिरमौर (रीवाँ) तिलोपणसी में वियार्थ भूमि को उत्तम एवं पद्मराग मणियों से समृद्ध बताया गया है। उसमें वज्रागंल, वज्राढ्य, चन्द्राभ सूर्याभ, चूड़ामणि, मणिवा, वस्त्रार्द्धतर, रत्नाकर, रत्नपुर जैसे मणिनामान्त या रहनमणि नाम वाले अनेक नगर उत्पन्न होते हैं। इससे उस भूमि को रत्नगर्भा होने के संकेत मिलते हैं ।
रत्नों
वर्तमान विन्ध्य प्रदेश के पन्ना एवं विजावर प्रक्षेत्रों में निस्सन्देह रूप में विविध प्रकार के रत्न प्राजकल भी उपलब्ध हो रहे हैं। पन्ना, विजावर, हीरापुर एवं मास-पास की अनेक खदानें स्वयं बतला रही हैं कि यह प्रदेश पन्ना ८. द० Dawn of freedom. IV. P. Rewa, Ang. 1953] P.P. 66-68.
६. बहु दिव्यगामसहिदा दिग्बमहापट्टणेहि रमणि कब्दोमुहेहि संवाह मंडव एहि परिणा ॥ रमणाणयायहि विभूसिवा विभूसिया पउमराय पहूदीनं । दिवणारेहिपुष्णा घणघण्णसमिद्धिरम्मेहि ॥
वि० प०४ / १३४०१२४
१७
हीरा एवं वज्रमणियों का प्रक्षय भण्डार है ।" प्राकृत व्याकरण की दृष्टि से विजावर तो शुद्ध प्राकृत नाम ही है। उसका संस्कृत नामान्तर 'बखपुर' रहा होगा, जिसका तात्पर्य श्रेष्ठ मणि वज्रमणि प्रथवा श्रेष्ठ वज्रमणि उत्पन्न करने वाला नगर रहा होगा। शताब्दियों की वर्ण-परिवर्तन की यात्रा के बाद यह वज्रपुर- वज्जठर-विजाउरविजाउर - विजावर बन गया ।
तिलोषपण्णत्ती में विजयार्थ के नगरों के विषय में बताया गया है कि वे दिव्यग्रामों से युक्त, महापट्टनों से रमणीक तथा कट द्रोणमुख संवाह एवं महम्बों से परिपूर्ण दे
वर्तमान विन्ध्य प्रदेश की नगरीय स्थिति का अध्ययन करने से तिलोयपणती के उक्त कथन का प्रायः समर्थन होता है। उत्तराध्ययन सूत्र की टीका के अनुसार ग्राम वह कहा जाता है, जहाँ काँटों की वाडी से घिरे हुए प्रावासों मे लोग निवास करते हैं। यथा- कण्टकवाटका वृतो जनानां निवासो ग्रामः ।" विन्ध्य प्रदेश में ऐसे नगरों
की कमी नही, जो उक्त परिभाषा वाले ग्रामों से घिरे हुए न हों। प्राचार्य जिनसेन के अनुसार बड़ागांव वह कहलाता हा जिसमें ५०० परिवार रहते हों तथा छोटा गाँव वह कहलाता था, जिसमे १०० कुटुब निवास करते हों ।" ग्रामों का नामकरण वस्तुतः अपनी-अपनी विशेषताओं के प्राधार पर किया जाता था, जैसे निश्चित परिधि से कुछ बड़ा होने अथवा किसी दृष्टि से बड़े लोगों के निवास करने के कारण बड़ा गाँव, नया बसाए जाने के कारण नया गाँव, मणियों अथवा मनको की भूमि वाला गाँव मनग मोर प्रचुर धन, धान्य बाला गाँव घनगव या सतग प्रादि । विन्ध्य प्रदेश में इस प्रकार के प्रनेक ग्राम
१०. Otto Stein - Jinist Studies. Page 4 ११. मादिपुराण २६०१६५
१२. यत्र सर्व दिगम्योजनाः पयागच्छन्तीति पत्तनमथवा
पत्तनं रानरवनिरति लक्षणं तदपि द्विविध जलमध्यवति च Jinist Studiea Page 9.
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१८ वर्ष ३३, कि०२
अनेकाने मिलते हैं।
सिन्धुवेलावलयितम् ।" यहाँ समद्र का अर्थ वस्तुतः जेल पट्टन अथवा महापट्टन वह कहलाता है जहां सभी बाहुल्य प्रदेश लेना चाहिए। तात्पर्य यह है कि जल बाहल्य दिशामों से लोग जल एवं स्थल मार्गों से पाकर एकत्रित प्रदेश से घिरा हुमा स्थल द्रोण या द्रोणमुख कहलाता था। होते हों तथा जहाँ के पाश्र्ववर्ती प्रदेशों में रहनादि खनिज यह पाश्ववर्ती ४०० ग्रामो के मध्य में रहता था।" और पदार्थ प्राप्त होते हो।" प्राचार्य मलय गिरि के अनुसार उनके जीवन की प्रावश्यक वस्तुपों की पूर्ति करता था। गाड़ी, षोड़े भादि के द्वारा व्यापारिक सामग्रियो के मायात इस दृष्टि से वर्तमान विन्ध्य प्रदेश में द्रोणनामधारी वाले स्थान को पत्तन तथा नौका भादि के द्वारा व्यापारिक द्रोणगिरि का नाम द्रोणमुख के रूप में विशेषरूप से लिया सामग्रियों के प्रायात वाले स्थान को पट्टन माना जाता था। जा सकता है। अन्य द्रोणमुखों में रीवा, सतना, विजावर, ___ उक्त सन्दर्भ के अध्ययन करने से यद्यपि यह स्पष्ट केवटो, शहडोल केनाम लिए जा सकते है। ज्ञात नहीं होता कि तिलोयपण्णत्ती काल मे विन्ध्य प्रदेश कल्पसूत्र के अनुसार सवाह वह कहलाता है जहाँ में कौन-कौन से पट्टन अथवा पनन थे। फिर भी बिन्ध्य समतल भूमि में कृषि कार्य कर के कृषक लोग दुगंभमियो प्रदेश मे प्रवाहमान नदियों के किनारे पर बसे हए विशेषत. में रक्षा हेतु धान्य को सुरक्षित रखते थे । यथा-समभमो वर्तमान पन्ना, विजावर एव शहडोल के प्रक्षेत्रों की नदियों कृषि कुन्वा येष दुर्गभूमिषु धान्यानि कृषिवला. संवहन्ति के किनारे पर बसे हुए कुछ नगर पटन अथवा पत्तन के रक्षार्थम् ।
अवश्य प्रति रहे होंगे। बतमान में पटन वर्तमान विन्ध्य प्रदेश में सवाह नामान्त नगरो के नाम नामधारी अमरपाटन (सतना) एव पटनाफला (शहडोल) नहीं मिलते । फिर भी उसमे ऐसे नगर उक्त श्रेणी में मान ही ऐसे नगर हैं, जो प्राचीन युग को अपनी व्यापारिक जा सकते है, जो गढ गढ़ो या वाड़ी नामन्त मिलते है। समृद्धि की स्मृति दिलाते है।
यथा-निवाडी, दिगोड़ा, (दिग्वाड़ा) अजयगढ मादि । कर्वट अथवा खवंट वह स्थान कहलाता है जो चारों उत्तराध्ययन मुत्र की टीका के अनुसार मडम्ब उस मोर पर्वतों से घिरा रहता है।" यह स्थान अधिक विस्तृत कहत है, जिसकी मभी दिशाचो मे ३. योजन की दूरी नहीं होता। चारों पोर पर्वतों से घिरे रहने के कारण वह तक कोई भी ग्राम न हो ।“ तात्पर्य यह है कि मडम्ब दुर्ग का कार्य करता है इसी लिए कोटिल्य " ने इस दुर्ग एक ऐसा ग्राम अथवा नगर था जिसके पास-पास ३३ के समान सुरक्षित कहा है। अनेक ग्रामो के व्यापार केन्द्र योजन अर्थात १७-१८ मील के पाम पास कोई भी ग्राम त के रूप में इसकी स्थापना की जाती थी।
हो। विन्ध्य प्रदेश मे ऐसे मडम्बो की कमी नही है। वर्तमान नागरिक सभ्यता के विकास-क्रम में वर्तमान विध्यप्रदेश विकासकालोन युग में यद्यपि यह स्थिति लगभग बदल में कर्बट या खवंट नगरी में परिवर्तन होता गया, फिरभी चुकी है, फिर भी खोज करने पर पन्ना, सीधी एवं शहडोल प्रवस्थितियों के प्राधार पर प्रतीत होता है कि मानिक के जिलों में ऐसे अनेक स्थान मिल सकते है। अमरकटक (शहडोल), ककरेहटी (पन्ना), खडबडा तिलोयपण्णता के अनुसार विजयार्घ अथवा वैताढ्य (सीधी), सिरमौर (रीवा). चचाई, वरद्वार (उमरिया) पर्वत के भमिताल पर दोनो पाश्र्वभागो में दो गम्यूति प्रमाण प्रजयगढ़ प्रादि के नाम लिए जा गकते है।
विस्तीर्ण प्रौर पर्वत के बराबर लम्बे लम्बे वनखण्ड है।" ___ द्रोण अथवा द्रोणमुख वह कहलाता है, जो स्थल उक्त तथ्य का समर्थन प्रयाग-प्रशस्ति के 'परिचायिकी समद्री किनारों से घिरा होता है। यथा-द्रोणारण्य
(शेष पृ० २४ पर) १३. दे० व्यवहार सूत्र ३।१२७.
१७. मादिपुराण १६६१७५. १४.३० बृहत्कथाकोष ६४।१७.
१८.दे० Jinist Studies P. 17. १५. दे० कौटिल्य अर्थशास्त्र २७।१।३.
१६. P. 8. १६. Jainist Studies P. 11
२०. तिलोयपण्णत्ती ४११७१.
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पचराई और गूडर के महत्वपूर्ण जैन लेख
प्रस्तुत लेख मे पथराई और गूटर के दो महत्वपूर्ण नेमों का विवरण दिया जा रहा है। पचराई का लेख विक्रम संवत् ११२२ का है और गूडर का मूर्तिलेख विक्रम संवत् १२०६ का है। दोनों ही लेख उन स्थानों की शांतिनाथ प्रतिमानो से सबंधित है । इन लेखो मे लम्बकक और परवाट प्रत्ययो का उसनेस है। हर के मूर्तिलेख में किसी राजवंश का उल्लेख नहीं है किन्तु पचराई का लेख प्रतीहार वंश के हरिराज के पौत्र रथपान के राज्यकाल मे लिखा गया था । पचराई का लेख
यह लेख पचराई के शांतिनाथ मंदिर मे है। इसकी लम्बाई साठ सेंटीमीटर मौर चौहाई बीस मंटोमीटर है। लेख की लिपि नागरी और भाषा संस्कृत है। इसकी पाठ पक्तियों में सात श्लोक है। अतिम पक्ति में (विक्रम) संवत् १९२२ का उल्लेख है। प्रथम लोकस तीर्थंकर भगवान शांतिनाथ की स्तुति की गई है और उन्हें चक्रवर्ती तथा रति धौर मुक्ति दोनों का स्वामी (कामदेव पर तीर्थंकर) कहा गया है। द्वितीय लोक में श्री कुंदकुंद श्रन्वय के देशी गण मे हुए शुभनन्दि प्राचार्य के शिष्य श्री लीलचन्द्रसूरि का उल्लेख है । तृतीय श्लोक में रणपालके राज्य का उल्लेख है । उनके पिता भीम की तुलना पांडव भीम से की गई है और भीम के पिता हरिराजदेव को हरि (विष्णु) के समान बताया गया है। चतुर्थ श्लोक मे परपाट धन्वय के साधु महेश्वर का है, जो महेश्वर (शिव) के समान विख्यात था। उसके पुत्र का नाम बोध था । पञ्चम श्लोक में बताया गया है। कि बोध के पुत्र राजन की शुभ कीर्ति जिनेन्द्र के समान तीनों भुवनो मे प्रसिद्धि प्राप्त कर चुकी थी। छठवें श्लोक मे उसी प्रन्वय के दो अन्य गोष्ठिको का उल्लेख है, जिनमे
१. ओम् को चिह्न द्वारा श्रकित किया गया है। २. धनावश्यक है ।
[D] कु० उषा जैन एम० ए०, जबलपुर
से प्रथम पचमास मे और द्वितीय दशमांश में स्थित था । स्पष्ट है कि यहाँ पचराई ग्राम के नाम को संस्कृत भाषा के शब्द मे परिवर्तित कर पंचमास लिखा गया है। तत्कालीन कुछ ग्रभ्य लेखों में पचराई का तत्कालीन नाम पचलाई मिलता है। सातवें और प्रतिम पलोक में प्रथम गोष्ठिक का नाम जसहड़ था, जो समस्त यशों का निषि था एव जिन शासन मे विख्यात था। अंतिम पंक्ति मे मङ्गल महाधी तथा भद्रमस्तु जिनशासनाय उत्कीर्ण है तथा प्रत मे संवत् ११२२ लिखा हुआ है । राजा हरिराज बुन्देलखण्ड के प्रतीहार वंश के प्रथम शासक थे। इस का सुप्रसिद्ध गुर्जर प्रतीहार बस से क्या संबध है, यह अभी तक स्पष्ट नही हो सका है । हरिराज के समय का विक्रम संवत् १०५५ का एक शिलालेख चन्देरी के निकट सीन में प्राप्त हुआ है पोर उनका विक्रम संवत् १०४० का ताम्रपत्र लेख भारत कला भवन काशी म जमा है । रणपालदेव के समय का विक्रम संवत् ११०० का एक शिलालेख बूढ़ी चन्देरी मे मिला है। प्रस्तुत लेख उस नरेश का द्वितीय तिथियुक्त लेख है। पचराई के इस लेख का मूलपाठ निम्न प्रकार है : ---
मूल पाठ
१. श्री श्री मा (शा) तिनाथो रतिमुक्तिनाथः ' यवती भुवनाच पसे । (1) सोभाग्य सिरि भाग्यरासिस्ताने वि
२. भूत्यं नमा विमूल्य || श्रीकूं (कु) दकूं (कु.) व मनाने गणं देनि (शि) के सक्षिके सु (शु)
३.
भनदिगुरा सि (शि) ब्य सूरिः श्रीलीहरी व भूया इरिराजदेव वभूव भीमेव हि तस्य भीमः सुतस्तदीयां रणपालनाम ॥
३. अनावश्यक है ।
४. अनावश्यक है ।
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२०, वर्ष ३३, कि०२
अनेकान्त
एतद्धिरा
परनाथ (रत्नत्रय) की प्रतिमामों की प्रतिष्ठा कराई ४. ज्ये कृतिराजनस्य ॥ परपाटान्वये सु (शु) द्धे साधु- पौर वे प्रतिदिन उनकी भक्तिपूर्वक पूजा करते थे। इन
नम्निा महेस (१) बरः। महेस (श) वरेव विख्यातस्त- मूत्तियों की प्रतिष्ठा कर्मों के क्षय हेतु कराई गई थी। सुतो वो (बो) ध
रत्ने की पत्नी का नाम गल्हा था। रत्ने के पिता सूपट ५. संज्ञकः। (1) तत्पुत्रोराजनोज्ञेयः कीत्तिस्तस्ये- थे, वे मनियों के सेवक थे, सम्यक्त्व प्राप्त थे, तथा
मद्भुता । जिनेंदुवत्सुभात्यंतं । राजते भवनत्र चविषदान दिया करते थे। सूपट के पिता का नाम ६. ये। तस्मिन्नेवान्वये दित्ये गोष्ठिकावपरौ सु (शु) गणचन्द्र था पोर वे लम्बकञ्चक (माधुनिक लमेचु) भो। पंचमांसे (शे) स्थितो होको द्वितीयो द
अन्वय के थे। इस लेख का मूल पाठ निम्न प्रकार है:७. म (श) मांसके ।। पाद्यो जसहडो ज्ञेयः समस्त जससा निधिः । भक्तो जिनवरस्चायो विख्यातो
मूलपाठ ५. जिनसा (शा) सने ।। मङ्गलं महाश्रीः ॥ भद्रमस्तु १. ---|| जीयात्री (श्री) सो (शा)ति:--- जिनशासनाय || संवत ११२२
पस्सघातपातकः। -----द्रतिर -----
२. -पदद्वयः ।। संवत् १२०६ ।। अषाढ़ व (ब) दि ___ गूडर का मूर्ति लेख
नवम्यां व (बु) धे। श्रीमस्वंव (ब) कंचुकान्वयगृहर, खनियाधाना से दक्षिण में लगभग पाठ किलो- ३. साधुगुणचद्र तत्सुत: साधुसूपट जिनमुनिपाद प्रणतो मीटर की दूरी पर स्थित छोटा-सा गांव है। यहां के (तो)तमागः। सम्यकत्वर--- माधुनिक जैन मन्दिर को विपरीत दिशा में एक खेत मे ४. लाकरः चतुर्विधदानचितामणिस्तत्पुत्रसाधुरत्ने सति तीन विशाल तीर्थकर मूत्तियां स्थित है, जो शांतिनाथ, (ती) त्व व्रतोपेत (ता) तस्य भाकुन्युनाथ और परनाथ की हैं। इनमें सबसे बड़ी प्रतिमा ५. र्या गल्हा तयी पुत्री मामेधर्मतेदेवो (वी) । तेन विसि लगभग नौ फुट ऊंची है। इस प्रतिमा की चरण-चौकी (शि) ष्टतर पुन्या (ज्या) वाप्ती (प्तये) निजपर विक्रम संवत् १२०६ का लेख उत्कीर्ण है । लेख की ६. कम्म (म) क्षयार्थं च पंचमहाकल्याणोपेतं देवश्रीसां लंबाई चौतीस सेंटीमीटर एव चौड़ाई इक्कीस सेंटीमीटर (शां) तिकुथंपरनाथ रत्न है। सात पंक्तियों का लेख नागरी लिपि एवं संस्कृत ७. अयं प्रतिष्ठापित तथाऽहन्निसं (शं) पादो प्रणमत्युत्त भाषा में है।
मागेन भक्त्याः (त्या)।000 लेख के प्रारभ में श्री शांतिनाथ की स्तुति की गई उपर्युक्त लेखों के अलावा अन्य कई लेख पचराई में है । मागे बताया गया है कि (विक्रम) सवत् १२०६ में उपलब्ध हैं, जिनमे देशोगण के पंडिताचार्य श्री श्रुतकीति पाषाढ बदि नवमी बुधवार को, लम्बकचुक मन्वय के के शिष्य प्राचार्य शुभनन्दि और उनके शिष्य श्री मामे पौर धर्मदेव के पिता रत्ने ने पञ्चमहाकल्याणक लीलचन्दसूरि मादि के उल्लेख मिलते हैं । महोत्सव का प्रायोजन कर शांतिनाथ, कुन्धुनाथ पौर २३५५/१, राइटटाउन, जबलपुर-२ (मध्य प्रदेश)
५. अनावश्यक है।
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आगम सूत्रों की कथाएं इतिहास नहीं है ।
'धनेकान्त' वर्ष ३२ किरण ३-४ जुलाई-दिसम्बर, १६७६ के अंक में डा० देवसहाय त्रिवेद का बुद्ध और महावीर' लेख प्रकाशित हुआ है उसमे जैन और बौद्ध साहित्य में भागत कथामो मे व्यक्तियों के नाम, गोत्र, राजपानी युद्ध आदि के वर्णन कर मिलान किया है और उनके माघार पर यह निष्कर्ष निकालने का प्रयत्न किया गया है कि इस वर्णन मे विसंगति है अतः दोनो पाचयं बुद्ध धर महावीर एक समय नहीं हुए ।
किन्तु उपयुक्त ग्राधार पर यह निष्कर्ष निकालना उचित नहीं क्योंकि जैन साहित्य में वर्णित कथाए इतिहास नहीं है ये भाव कथाए है, इन कथाओं में उल्लिखित नाम, गोत्र राजधानी, माता-पिता के नाम भी जातिवाचक या व्यक्तिवाचक संज्ञाएं न होकर गुणवाचक भाववाचक सज्ञाएं है। उदाहरण के रूप में गौशालक की कथा मे प्रयुक्त सर्वानुभूति, सुदर्शन सिंह अणगार, हालाहाला, का लिया जा सकता है यह कथाए कर्म सिद्धान्त से संबंधित नियमों व सापको के जीवन से सम्बन्धित प्रान्तरिक स्थितियो का रूपकात्मक व प्रतीकात्मक वर्णन है। यदि इन कथाओंों को रूपकेन समझा जावे तो समाज मे बहु मान्यताप्राप्त भगवती सूत्र में आये हुए कथानक, घोड़ा खूं खूं क्यों करता है, दिशा क्या है, सूर्य क्या है, शालि वृक्ष किस गति मे जायेगा आदि अनेक प्रश्नोत्तर ऐसे है जिनका श्री महावीर व गौतम स्वामी के नाम के साथ जोड़ना अटपटा लगता है। ऐसे ही शिलाकम्टक सग्राम में हाथी घोर घोड़ों के नरक मे जाने की बात किसी भी प्रकार बुद्धि गाह्य नहीं हो सकती।
इसी तरह उपासक दशांग मे देवो द्वारा बायको को दिया गया उपसर्ग और अनुत्तरोपपातिक में वर्णित श्रेणिक के सभी पुत्रो की दीक्षा पर्याय और अनशन पर्याय २-३ समानकाल में बंधी होना ऐतिहासिक रूप मे बुद्धिप्रा नहीं हो सकती । यहीं यह कहना अनुपयुक्त नही होगा कि उपासक दशाग सूज का देव देव है, पूर्वकमोंदय का द्योतक है' धनुतरोपातिक का श्रेमिक, श्रेणिक करण करने वाला साधक हैं न कि श्रेणिक नाम का कोई व्यक्ति । द्वीप प्रज्ञप्ति मे भी कथित पर्वत, नदी, कुण्ट,
जम्बू
श्री श्रीचन्द गोलेछा
चैत्य, दो सूर्य, दोन्द्रादि का वर्णन भाज भूगोल के साधारण विद्यार्थी के गले नहीं उतरता । वास्तव में यह भी सब साधक के जीवन से सम्बन्धित माध्यात्मिक स्थितियों के प्रतीक है।
यही कारण है जो हमे ऐतिहासिक व भौगोलिक दृष्टि छोड़कर दूसरी दृष्टि से विचार करने को बाध्य करते हैं।
अभी तक विद्वद्वगं पूर्व से चली भा रही परम्परा व धारणा के बहाव में बहते हुए व पश्चिमी विद्वानों का अनुकरण करते हुए शास्त्रो मे बागत कथायों को ऐतिहासिक मानकर इनकी संगति बैठाने मे लगे रहे। इस बात पर विचार ही नहीं किया कि ये साध्यात्मिक साधना परकतों व कर्म सिद्धान्त को प्रतीक भी हो सकती है। उन्होने इस पर भी ध्यान नहीं दिया कि नन्दी सूत्र मे धागमो को शादवत कहा है तथा जिनमणि ने भी धागमो को शाश्वत सत्य कहा है । ऐतिहासिक घटनायें शाश्वत हो नही सकती है, प्राकृतिक नियम ही शाश्वत हो सकते हैं। इस घोर ध्यान न देने के कारण ही संगति नहीं बैठ पाई और अनेक भ्रान्तियाँ उत्पन्न हुई हैं।
पूर्वाचार्यों ने टीकाओं में इन कथाम्रो का भावात्मक निरूपण नही किया । इसका कारण कुछ भी रहा हो किन्तु यह तो निश्चित ही है कि श्वेताम्बर मूल अंग सूत्रो की कथाओ में कम सिद्धान्त व साधना की प्रक्रिया के जीवन को प्रेरणा देने वाले सिद्धान्त सम्मत व बुद्धिग्राह्य अर्थ प्रकट होते है वास्तविकता तो यह है कि कर्म सिद्धान्त सीधे शब्दो मे समझ सकना सरल न था प्रतः उन्हे दृश्यमान जगत के प्राथय से प्रतीकात्मक सांकेतिक भाषा द्वारा प्रस्तुत किया ताकि अन्य साधक भी उन्हें समझ सकें । इस दल मे जैन धर्म के धौर भी घनेक ग्रन्थ रचे
हुए है।
सिद्धषि का उपमिति भव प्रपंच कथा ऐसा ही एक ग्रंथ है जिसमे उपन्यास के रूप मे भनेक उपाख्यानों द्वारा जैन दर्शन का सुन्दर वर्णन किया गया है। समयसार नाटक भी इसी प्रकार का ग्रन्थ है ।
पौराणिक
कथाए भी इसी मे लिखी गई है। (शेष पृष्ठ २४ पर)
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जैन दर्शन का अनेकान्तवाद
0डा. रामनन्दन मिष
(१)
कहते हैं। पुद्गल (जड़) तथा जीव (प्रात्मा) अलगप्रत्येक दर्शन के प्रवर्तक की एक विशेष दृष्टि होती अलग और स्वतंत्र तथा निरपेक्ष तथ्व हैं। प्रत्येक परमाणु है जैसी भगवान बुद्ध की मध्यम-मार्ग दृष्टि, शकराचार्य तथा प्रत्येक प्रात्मा के असंख्य पक्ष हैं । भनेकान्तवाद की की पर्वतष्टि, रामानुजाच यं की विशिष्टाद्वैन दृष्टि, मान्यता है कि प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मक होती है। भिन्नपादि । जनदर्शन के प्रवर्तक महापुरुषों की भी उसके मूल भिन्न दृष्टियों से विचार करने पर मालूम होता है कि में एक विशेष दृष्टि रही है। उसे ही अनेकान्तवाद कहते एक ही वस्तु के अनेक धर्म है। प्रसिद्ध जैन बार्शनिक हैं। जनदर्शन का समस्त पाचार-विचार अनेकान्तवाद हरिभद्र ने लिखा है-"मनन्त धर्मक वस्तु"।' वस्तु पर पाधारित है। इसी से जैनदर्शन भनेकान्तवादी दर्शन अनेकान्तात्मक है। अन्त कहते हैं अश या धर्म को। जैन कहलाता है और अनेकान्तवाद तथा जैन दर्शन शब्द परस्पर दर्शन की दष्टि में प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मात्मक या भनेक में पर्यायवाची जैसे हो गये है। वस्तु सत् ही है या असत् धर्मवाली है। प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मों का समूह है। ही है या नित्य ही है, अथवा भनित्य ही है, इस प्रकार प्रत्येक वस्तु का स्वतंत्र अस्तित्व है। इसे द्रव्य कहते है। की मान्यता को एकान्त कहते है और उसका निराकरण द्रव्य वह है जिसमे गुण और पर्याय हैं। उमा स्वामि ने करके वस्तु को अपेक्षा-भेद से सत्-प्रसत, नित्य-अनित्य
द्रव्य की परिभाषा इस प्रकार की है-'गुण पर्ययवद् पादि मानना अनेकान्त है। अन्य दर्शनो ने किसी को नित्य
द्रव्यम् ।' वस्तु न मर्वथा सत् ही है और न सर्वथा असत् ही और किसी को प्रनित्य माना है। किन्तु जनदर्शन को है. न वह सर्वथा नित्य ही है और न वह सर्वथा अनिस्य मान्यता है कि द्रव्यद्रष्टि से प्रत्येक वस्तु नित्य है योर ही है। किन्त किसी अपेक्षा से वस्तु सत् है तो क्सिी पर्याय द्रष्टि से अनित्य है। मल्लिषेण ने लिखा है .... अपेक्षा से प्रसत् है किसी अपेक्षा से नित्य है तो किसी 'मादीपमाव्योमसमस्वभावः स्यादवादमुद्रानतिभदिवस्तु ।
अपेक्षा से अनित्य है । प्रत' सर्वथा सत, सर्वथा असत्, सर्वथा तन्निव्यमेव कमनित्य मन्यदिति त्वदाज्ञा द्विषतांप्रलापा ।'' नित्य, सर्वथा प्रनित्य इत्यादि एकान्तो का त्याग करके वस्तु
अर्थात् दीपक से लेकर प्राकाश तक सभी द्रव्य "क का कथचित् मत् कथचित् असत्, कथचित् नित्य, कथंचित् स्वभाव वाले है । यहबात नहीं है कि प्राकाश नित्य हो मोर अनित्य प्रादि रूप होना अनेकान्त है-.-'सदसन्नित्यानित्यादि दीपक अनित्य । प्रत्येक वस्तु नित्य तथा अनित्य दोनो है। -सर्वथकान्त प्रतिक्षेपलक्षणोऽनेकान्तः ।' इस तरह वह द्रव्यदष्टि से नित्य है तथा पर्याय दृष्टि से अनित्य। अनेकान्तवाद के अनुसार प्रत्येक बस्तु परस्पर मे विरुद्ध कोई भी बात इम स्वभाव का अतिक्रमण नहीं करती प्रतीत होने वाले मापेक्ष अनेक धर्मों का समूह है। क्योंकि सब पर स्याद्वाद या भनेकान्त स्वभाव की छाप लगी हुई है। जिन-माज्ञा के द्वेषी ही ऐसा कहते है कि
भगवान् महावीर एक परम अहिंसावादी महापुरुष प्रमक वस्तु केवल नित्य ही है मोर भमक केवल अनित्य थे । अहिंसा की सर्वांगीण प्रतिष्ठा-मनसा, वाचा तथा
कर्नणा, वस्तु स्वरूप के यथार्थदर्शन के लिए सम्भव न (२)
थी। उन्होंने विश्व के तत्त्वों का साक्षात्कार किया और अनेकान्तवाद जैन दर्शन का एक मौलिक सिद्धान्त बताया कि विश्व का प्रत्येक चेतन और जड़तत्त्व अनन्त है। जैन दर्शन वस्तुवादी तथा सापेक्षवादी अनेकवाद है। धो का समूह है। उसके विराट स्वरूप को साधारण इसे अनेकान्तवाद या यथार्थता को अनेकता का सिद्धान्त मानव पूर्ण रूप में नही जान सकता। वह वस्तु के एक१. मल्लिषेण स्याद्वादमंजरी, श्लोक ५ ।
३. उमश्वामिः तत्वार्थसूत्र, ५/३८ । २. हरिभद्रः षड्दर्शनसमच्चय, पृ० ५५ ।
४. अष्टशती-प्रष्टसहस्त्री के अन्तर्गत, पृ० २८३ ।
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जनवर्शन का मकान्तवाद
एक अंश को जानता है। प्रत्येक वस्तु मनन्त धर्मों का पर भाषारित समन्वय दष्टि ही समुचित परिष्कृत दृष्टि प्रखण्ड पिण्ड है । वह नित्य भी है और अनित्य भी। वह है । यथार्थ ज्ञान का परिणाम है। अपनी अनादि मनन्त सन्तान स्थिति को दृष्टि से निर
.) है। किन्तु उसकी पर्याय प्रतिक्षण में बदल रही है मन. जैनाचार्य वस्तु की अनेक धर्मकता को सूचित करने वह प्रनित्य भी है । भगवान बुद्ध की तरह भगवान महावीर के लिए 'स्यात् शब्द के प्रयोग की भावश्यकता बतलाते ने प्रात्मा के नित्यत्व-प्रनित्यत्व प्रादि प्रश्नो को अव्याकृत है। शब्दों मे यह सामर्थ्य नहीं है कि वह नस्तु के पूर्ण कह कर बौद्धिक निराशा की सृष्टि नही की बल्कि उन्होने रूप को युगपत् कह सके । बह एक समय में एक ही धर्म सभी सत्त्वो का यथार्थ-स्वरूप बताकर शिष्यो को प्रकाशित को कह सकता है। प्रत. उसी समय वस्तु मे विद्यमान किया। उन्होने बताया कि वस्तु को हम जिस दृष्टिकोण शेष धर्मों को सूचित करने के लिए स्यात्' शब्द का प्रयोग से देख रहे हैं, वस्तु उतनी ही नही है । उममें ऐसे अनन्न ।
किया जाता है। इस सिद्धान्त को 'स्यावाद' कहते है। दष्टि कोणो से देखे जाने की क्षमता है। उसका विराट
जाने की है। उसका विराट 'स्थाद्वाद' में 'स्यात' शब्द अनेकान्त रूप प्रर्थ का वाचक स्वरूप प्रनन्त धर्मात्मक है। हमे जो दष्टिकोण विरोधो
अध्यय है । अतएव स्याद्वाट का प्रथं अनेकान्नवाद कहा माल म पड़ता है उसका विषयभूत धर्म भी वस्तु म जाता है । यह म्याद्वाद जैन दर्शन की विशेषता है। इसीसे विद्यमान है। किन्तु वस्तु की सीमा और मर्यादा का समन्तभद्र स्वामी ने कहा है – 'रथाच्छन्दस्तावके न्याय उलघन नही होना चाहिए। यदि हम जड में चेतनत्व । नान्येषामात्मविद्विषाम्'।' अर्थात् स्यात्' शब्द केवल जैन खोजे या चेतन मे जडत्व, तो वह नहीं मिल सकता, क्योकि न्याय में है, अन्य एकान्तबादी दर्शनी में नही है । पनेकान्त प्रत्येक पदार्थ के अपने-अपने निजी धर्म सुनिश्चित है। दशन का ठीक-ठीक प्रतिवादन करने वाली भाषा शंली वस्तु अनन्त धर्मात्मक है न कि सर्वधर्मा-मक । अनन्त धर्मों ___ का स्याद्वाद कहते है । 'स्यावाद' भाषा की वह निर्दोष में चेतन के सम्भव अनन्त धर्म चतन में मिलेंगे पौर प्रणाली है जो वस्तुतत्व का सम्यक प्रतिपादन करती है। प्रचेतनगत मनन्तघम अचेतन मे। चतन के धर्म प्रचेतन 'स्यात्'शब्द प्रत्येक वाक्य के सापेक्ष होने की सूचना देता है। मे नही पाये जा सकते और न अचेतन के धर्म चेतन में। अनेकान्तवाद के दो फलिनवाद है - स्याद्वाद तथा कुछ ऐसे सादृश्यमूलक वस्तुत्व आदि सामान्य धर्म है जो नयवाद । सर्वज्ञ या केवली कवल ज्ञान द्वारा वस्तुमो के चेतन और अवेतन में पाये जा सकते है किन्तु मबको भत्ता अनन्त धर्मों का अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त करता है। किन्तु प्रलग-मलम है।
__ साधारण मनुष्य किसी वस्तु को किसी समय एक ही दृष्टि इस तरह जैन दर्शन के अनुसार वस्तु इतनी विराट से देख सकता है। इसलिए उस समय वह वस्तु का एक है कि अनन्त दष्टि कोणो से देखी और जानी जा सकती ही धर्म जान सकता है। वस्तूमो के इस पाशिक ज्ञान को है । एक विशिष्ट दृष्टि का प्राग्रह कर के दूसरे की दृष्टि जैन दर्शन में 'नय' कहा गया है । सिबसेन ने लिखा हैका तिरस्कार करना वस्तु-स्वरूप के अज्ञान का परिणाम 'एक देश विशिष्टोऽयों नयस्य विषया मत:।" इस पाशिक है। मानसममता के लिए इस प्रकार का वस्तु स्थितिमूलक ज्ञान के प्राचार पर जा परामशं होता है। उसे भो 'नय' अनेकान्त तत्त्वज्ञान आवश्यक है । इस अनेकान्त दर्शन से कहत है। किमो भा विषय के सम्बन्ध मे जो हमारा परामवं विचारो या दष्टि कोणो मे वस्तु स्वरूप के आधार से होता है वह सभी दृष्टियो से सत्य नही होता। उसकी यथार्थ तत्त्वज्ञानमूलक समन्वय दृष्टि प्राप्त होती है। सत्यता उसके 'नय' पर निर्भर करती है। अर्थात् जिस वही समुचित दृष्टि है। सकुचित विरोधयुक्त दृष्टि दृष्टि से किसी विषय का परामर्श होता है, उसकी सस्पता अनुचित दृष्टि है; यह स्वल्पज्ञान का सूचक है । व्यापक उसी दृष्टि पर निर्भर करती है। जैन दर्शन के इस सिवान्त या समन्वय दृष्टि ही समचित दृष्टि है। अनेकान्त दर्शन को नयवाद कहत है । अधे मनुष्यों तथा हाथी की प्रसिव ५. समन्तभद्र स्वयभस्तोत्र, श्लोक १०२।
६. सिद्धसेनः न्यायावतार, श्लोक २६ ।
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२४, वर्ष ३३, कि०२
अनेकान्तं कथा इस बात का संकेत करती है कि हम दष्टि-भेद अत: जैन दार्शनिक कहते हैं कि प्रत्येक नय के भूल कर अपने विचारों को सर्वथा सत्य मानने लगते हैं. प्रारम्भ मे 'स्यात्' शब्द का प्रयोग करना चाहिए। स्यात् एक प्रघा हाथी का पर, दूसरा कान, तोसरा पूंछ भोर शब्द से संकेत मिलता है कि उसके साथ के प्रमुख वाक्य चौथा सूंड पकड़ता है। उनमे हाथी के भाकार के की सत्यता प्रसंग-विशेष पर ही निर्भर करती है। अन्य सम्बन्ध में पूरा मत भेद हो जाता है । प्रत्येक अघा सोचता प्रसंगो मे वह मिथ्या भी हो सकता है। किसी घड़े को देख है कि उसी का ज्ञान ठीक है और दूसरो का गलत । किन्तु कर यदि हम कहे-'घड़ा है'-तो इससे अनेक प्रकार का जैसे-ही उन्हे यह बताया जाता है कि प्रत्येक ने हाथी का भ्रान्त ज्ञान हो सकता है। लेकिन यदि हम कहें-'स्थात् एक-एक अग ही स्पर्श किया है, उनका मत भेद दूर हो पड़ा है'--तो इससे यह ज्ञात होगा कि घड़े का मस्तित्व जाता है। दार्शनिको के बीच भी मतभेद इसीलिए होता काल-विशेष, स्थान-विशेष तथा गुण-विशेष के अनुसार है। है। कि वे किसी विषय को भिन्न-भिन्न दृष्टियो से स्यात् शब्द से यह भ्रम नहीं होगा कि घड़ा नित्य है, तथा मौकते है। इसी कारण भिन्न-भिन्न दर्शनो मे संसार के सर्वव्यापी है । साथ-साथ हमे यह भी संकेत मिलेगा कि भिन्न-भिन्न वर्णन पाये जाते है । जिस तरह प्रत्येक अधे का किसी विशेष रंग तथा रूप का धडा किसी विशेष काल हाथी सम्बन्धी ज्ञान उसके अपने ढग से बिलकुल ठीक है और स्थान में है। जैन दर्शन का यह सिद्धान्त स्याद्वाद उसी तरह भिन्न-भिन्न दार्शनिक मत अपनी-पपनी दृष्टि कहलाता है। से सत्य हो सकते है। दृष्टिसाम्य होने पर मत भेद की उपर्यक विवेचन से स्पष्ट है कि अनेकान्तवाद सम्भावना नही रह जाती है।
ममुचित दृष्टि का परिष्कृत स्वरूप है। COM
(पृष्ठ २१ का शेषाश) इस सम्बन्ध में प्रसिद्ध विद्वान श्री वासुदेव शरण का कथन प्रागमो की कथानो पर विचार करें और वास्तविक व इस प्रकार है - 'विश्व रचना के मूलभूत नियम ही वेदो बुद्धिग्राह्य अर्थ प्रकट करने का प्रयत्न करे जिससे नई पीढ़ी की प्रतीकात्मक भाषा में कहे गये है। इन्द्र और वृत्त के लोगों को सन्तोष हो भौर उनका मागम पर विश्वास किसी इतिहास विशेष के प्राणी नही है वे तो विश्व की हो। यदि ऐसा नहीं किया गया तो वैज्ञानिक युग मे प्राणमयी भोर भूतमयी रचना के दृष्टान्त ही है। प्रागम सूत्र प्रत्यक्ष ज्ञान प्रमाण के विरोधी कपोलकल्पित
विद्वानो से निवेदन है कि शब्दो की व्युत्पत्ति और ग्रन्थ मात्र रह जायेगे और लोग उनमे वणित अपूर्व सत्य नियुक्तियो पर ध्यान रखते हुए इस विचारधारा से भी ज्ञान से वचित रह जायेंगे।
[000 (पृष्ठ १८ का शेषांश)
तिलोयपण्णत्ती के अनुसार विजयार्द्ध प्रदेश की विशेष कृत सर्वाटविकराण्यस्य' उल्लेख से होता है, जिसके माधार पैदावार यवनाल (जवार) बल्ल, तूबर (परहर), तिल पर डा. फ्लीट ने मध्य भारत को (जिसमें विन्ध्य प्रदेश जौ, गेहू पोर उड़द है। भी सम्मिलित है), पाटविक राज्य माना है। पार्यावर्त यथा-जमणाल बल्ल तुवरी तिल जव घुम्ममास पहुदीहि । एवं दक्षिण विजय के बाद दोनों के बीच मावागमन की सम्वेहि सुधणेहिं पूराइ सोहति भूमीहिं ॥ ४॥१३३ सुविधा के लिए समुद्रगुप्त (विक्रम की पूर्वी मदी का वर्तमान विन्ध्य प्रदेश की भी मुख्य पैदावार उक्त अनाजों प्रारम्भ) ने प्राविक राज्यों को जीता था।
वर्तमान विध्य प्रदेश का प्रपर नाम डाहल" या उक्त भौगोलिक नथ्यो के माधार पर यह प्रतीत होता माल भी मिलता है । परिव्राजक हस्ती के ताम्रपत्र में है कि वर्तमान विन्ध्य प्रदेश तिलोयपण्णत्तो काल में रमाल राज्य को १८ माविक राज्यों में सम्मिलित माना विजयाद्ध के नाम से भी प्रसिद्ध था। गया है।"
महाजन टोली नं० २, पारा (बिहार) २१. अभिलेखमाला-[समुद्रगुप्त का प्रयागस्तम्भलेख] Chandhury) P. 252. पृ० ६६.
२३. अभिलेखमाला पृ० ८५. २२. Political History of Northern India (G.C. २४. बही.
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हुबड जैन जाति की उत्पत्ति एवं प्राचीन जन गणना
0 श्री अगरचन्द नाहटा, बीकानेर
जैनधर्म मूलत: जातिवाद को नहीं मानता। भ० श्वे. थे, वे दिगम्बर बन गये मोर दिगम्बर से श्वेताम्बर महावीर के समय सभी वर्ण और जाति वाले धर्मानुयायी बन गये। इस तरह पल्लीवाल प्रादि कई जातियों के थे, यह प्राचीन जैन प्रागमों से भलीभांति विदित है। योग दोनों सम्प्रदायों के अनुयायी मब भी पाए जाते है। पर मागे चलकर एक घर मे परिवार के लोग कई धमों जैन जातियों मे हुबड जाति भी एक है। जो दोनों के मानने वाले होने से खान-पान, व्यवहार में बड़ी अड़- सम्प्रदायो के अनुयायी है। इस जाति को उत्पत्ति कब, चनें पड़ने लगीं। घर का कोई व्यक्ति मांसाहारी है तो कहा, किसके द्वारा हई। इस सम्बन्ध में कोई प्राचीन शाकाहारी के साथ निभाव नही हो सकता। एक वैदिक प्रमाण नही मिला । पर मुझ स. २००३ मे खतरगच्छ धर्म को मानता है, दूसरा बौद्ध और तीसरा जैन धर्म को। के जिन रत्नसूरि जी के प्रतापगढ में लिखा हुआ एक पत्र तो उनके देवगुरू पौर धर्म तीनो की मान्यताप्रो में अन्तर मिला। जो उन्होन हुबड पुराण नामक किसी ग्रन्थ का होने से परस्पर मे विवाद-वैमनस्य हए बिना नही रहेगा। आवश्यक अश नकल कर लिया भेजा था। हुंबड पुराण अत. जैनाचार्यों ने युग को माग व दिव्य दोघं दष्टि से कब किमने लिखा पता नही। अत: उनकी खोज करके जैन धर्म को मानने वाले सब जैनी है, स्वधर्मी भाई है, उममे और क्या-क्या बात लिखी हुई है ? उन्हें भी प्रकाश उनके खान-पान और रोटी-बेटी के व्यवहार में कोई भेद- मे लाना चाहिए। प्राप्त पत्र के अनुसार इस जाति की भाव या अलगाव नहो रहना चाहिए । चाहे वे किसी वर्ण उत्पत्ति स० ८२० में घनेश्वर सूरि के प्रतिबोध से हुई या जाति के हो। इस तरह का जाति और धार्मिक सग. और स० ११२१ मे जिनवल्लभगणि ने पुनः प्रतिबोध ठन बनाया। इससे बहुत बड़ा लाभ हुमा। याचार- दिया है । लिखित पत्र की नकल दम प्रकार है :--- विचार मे एक मूत्रता प्राई, भाई चारे का भाव और "हंबड वणोक जाति उत्पत्ति संक्षेपे लिख्यते" व्यवहार पुष्ट हुप्रा । परिवार में सभी एक धर्म के मानन
"पूर्व कोई ग्रामे चैत्यावागो संघ धनेश्वरने मूरिपद वाले होने से बहुत सी अड़चनें मिट गयी।
गुरू पासे थी। पपाव्यो, ते स्वतत्र रई, गुरूविमुखोया। बहुत से जातियो के नाम स्थानो के नाम से प्रसिद्ध
प्रावर गुरू एनिज मघ कबजे करी धनेश्वर प्रणाबार हुए मुख्य प्राजीविका खेती और व्यापारी हो जाने से
कयों, स्वच्छ दपणे विचरणा लागा। इम ममे ८२० वैश्य वर्ण वाले बन । चाहे पहले वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र भिन्नमालवासी क्षेत्री दो भाई परस्पर वैमनस्य थी लड़वा कोई भी रहे हों। एक स्थान वाले जब व्यापार प्रादि के
लागा। प्रतापसिंह १ भाणमिह नाम रखापतना न भोटो लिए दूसरे स्थानो मे गये, तो उन्हे उनके मूल निवास
हतो, कब्जा ने घड़ी मूतपतसिंह हार्यो, निज लस्कर लई स्थान के निवासी के रूप मे उन स्थानों के नाम से बतलाने
पाटण पोतो, भाणसिहनी, पाराचेल मारीए मपतसिह नो व पहचानने लगे। जैसे प्रोसियां से जो व्यक्ति अन्यत्र गये, लस्कर पीड़ित करयो । ए समय वि० ८२० धनेश्वर मूरि वे भोसवाल के नाम से प्रसिद्ध हो गये। खण्डेल के मूल पारण मा भूपतसिंह पासे उपाश्रय माग्यु । भपतसिंह निज निवासी खण्डेलवाल, पाली के पल्लीवाल, प्रग्रोवा से कामे प्रापि, लस्कर मारी नो उपाश्रय दूर करवा घनेम्बर अग्रवाल, इस तरह ८४ जातियां प्रसिद्धि मे प्रायो। ते जाताया स्वार्थहा भणी, शेजा उपर ना सूरज-कुण्ड नो
जैनधर्म के दो प्रधान सम्प्रदाय है, श्वे० पोर जल तथा रायण ना पता थी मागे निवारी २७ हजार दिगम्बर जिम सम्प्रदाय के प्राचार्यों और विद्वानो ने जहा जाप करी ते मभवाली थावक कर्या । क्षेत्री ब्राह्मण मली के क्षेत्रियो प्रादि को प्रतिबोध देकर जैनी बनाया, वे उम १८ हजार जैन धर्म मा दाखिल करघा। भूपतसिंह मोर सम्प्रदाय के अनुयायी हो गये। संयोगवश दूसरे सम्प्रदाय ये हमारी जाति स्यापो, त्यारे धनेश्वरे निज मान रहो वाले के सग या प्रभाव से कई जातियों वाले जो मूल हंबडो, हुबड जाति स्यापि । गुरू ने खबरि पड़ो न सघ
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२६, वर्ष ३ कि. २
अनेकान्त
मां लिया । चैत्य वास खुलो थयो। पाछल थी धनेश्वर भक्तामरस्य सद्वत्ती, रलचन्द्रेण हरिणा ॥ संमात मांज स्थीर वास रहया ।
कथा रूपीकृतं चेदं, भक्तामर प्ररूपणम । हंबड जाति प्राजिवी कार्ये भिन्न भिन्न जगहाए गया। श्लोका सहस्त्रमिद, रत्नचन्द्रेण जल्पितम || मेवाड़. बागड़, गुजरात प्रादि अनेक राज्यो मा ३ भक्तामर की यही टीका ब्र. रायमलकृत भी मानी दीवीयो ने भोम देता, तेनमेल्यो देवी कोपी, घणा नष्ट जाती है। इस टीका का सार 'भक्तामरकथा' के नाम की पया, शेष होना चारी थया। नाथग प्रमुख थी भ्रष्ट श्री उदयलाल जैन ने हिन्दी साहित्य कार्यालय बम्बई से थया ।
सन् १९१४ मे प्रकाशिन करवाया था। उसमे इस टीका ए समए ११२१ जिनवल्लभ गणि ना सर्द्ध शिष्य को प्रशस्ति का हिन्दी में सार इस प्रकार दिया है :पाछा प्रतिबोधि जैन धर्म स्थिरकरिया तथा घनेश्वर मूरि जैसे कि प्रेमवश हो, मैंने यह श्रेष्ठ और संक्षिप्त ना पापला चार्यों ए संभाल लीधी। ५ हजार स्व श्रावक भक्तामर की कथा लिखी है। कर्या । से मांधी पण बाकी दिगम्बरी ए स्व धर्म दाखिल श्री हुंबड वशतिलक मह्यनाम के एक अच्छे धनी हुए कर्या, जे यी थोड़ा श्वे० छ।
है। उनको विदुषी भार्या का नाम चम्पा बाई था। वे दशा बीसा यया वस्तुपाल तेजपाल न संगे । इति बड़ी धर्मात्मा और श्रावक व्रत को धारक यों। उनके पुत्र लेखन प्रकाशित वो २००३ प्रताबगढ़े लि० हुंबड पुराण जिनचरण कमल के भ्रमरपूर्ण जिन भक्त, मुझ रायमल्ल ने पी जैन रत्न सूरिणा।
वादिचन्द्र मुनि को नमस्कार कर उनकी कृपा से, यह भक्ता"पत्र एक अभय जैन ग्रंथालय प्रति नम्बर ७७७०” मर की छोटी सी पर मरल पोर सुबोध कथा लिखी है।
धनेश्वर सूरि नाम के तो कई प्राचार्य हो गये है। ग्रीवापुर मे एक मही नाम की नदी है। उसके किनारे मत: सं०८२० वाले किम गच्छ के किसके शिष्य थ ? पर चन्द्रप्रभ भगवान वा बहुत विशाल मन्दिर है। उसमें नहीं कहा जा सकता पर १९२१ वाले जिनवल्लभ गणि एक ब्रह्मचारी रहत है। उनका नाम है कर्मसी। उन्होंने तो नवाग वत्तिकार "अभय देव मूरि" के पट्टघर थे और मुझे भक्तामर की कथा लिख देने को कहा, उनके अनुरोध खरतरगच्छ परम्परा के प्रसिद्ध विद्वानहरा है। हबड से मैने यह कथा लिखी है। जाति सम्बन्धी और किसी को जो भी विवरण ज्ञात हो, यह कथा के पूर्ण करने का सं० १६६७ पौर दिन प्रकाश मे लायें।
मासाढ़ सुदी ५ बुधवार था। हुंबड जाति वाले दिग० भाई गुजरात प्रादि मे काफी बड जाति के मबसे वडे कवि ब्र० जिनदास है भोर बसते है । डूंगरपुर प्रादि मे कुछ हुंबड के घर श्वे० प्रादि उनके भ्राता सकलकीति भट्टारक भी अच्छे विद्वान थे। के भी हैं। हरड जाति के कुछ ग्रंथकार भी हुए हैं। जनगणना-सन १९१४ में प्रकाशित भारतवर्षीय जिनमे से भक्तामर वत्ति को प्रशस्ति रतनचन्द्र या राय- दिग० जन डायरेक्टरी' के पृष्ठ १४२० के अनुसार दशा मल की नीचे एक दी जा रही है :
हंबड मध्यप्रदेश मे ४५, राजपूताना मालवा में १०६४५, "सालन्दोगुरो भ्रातुः, जस्ये तिवणिनः मतः । बंगाल बिहार में ३, गुजरात महाराष्ट्र में ७३९२ कुल पादस्नेहन सिद्ध य, वृतिसारसमुच्चया ।।३।। जनगणना १८०७६ और बीसा हुंबड राजस्थान मालवा चक्र तिमिमां स्तवम्य नितरा नत्वाऽप वादीन्दुकम ॥५ ८४६, गुजरात महाराष्ट्र में १७०६ कुल २५५५ जन सत्तवृष्णयदि ते वर्ष, षोडशारुये हि सवते ।
सख्या थी। अर्थात कुल २०६३४ जनसंख्या थी। इस प्राषाढ श्वेतपक्षस्य पञ्च मया बुधवार के ॥६॥ जाति के विशिष्ट व्यक्तियों पोर महत्व का इतिहास ग्रीवापुरे महासिंहो-सत्ष (१) भागं समाश्रिते । प्रकाश में माना चाहिए। प्रोतुङ्गा दुगं सयुक्ते, श्री चन्द्रप्रभसनि ।।७।।
जैन जातियों में एक-एकजाति के हजारों-लाखों व्यक्ति वणिनः कर्मसीनाम्नो, वचनाम्मय काऽरचि ।
(शेष पृ० ३२ पर)
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सीता-जन्म के विविध-कथानक
श्री गणेणप्रसार जंग, वाराणसी
भारतीय वाङमय में 'सीता' का प्रमख-स्थान है, है। इनके कार्य-क्षेत्रों के अनुसार ये तीन वगो में विभाजित किन्तु उसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रतिप्राचीन काल से हैं १.धुलोक के, २. अन्तरिक्ष के और ३ पृथ्वी के इनके बहुत अधिक विवाद है।
पतिरिक्त अन्य प्रकार के देवतामों की कल्पना भी की वैदिक-साहित्य में हमें दो भिन्न 'सोतानों' का गयी है, जिनका कार्यक्षेत्र बहुत सीमित माना गया है। विवरण प्राप्त होता है, जिनका उल्लेख ऋग्वेद से लेकर इनमे क्षेत्रपति, वास्तोपति (घर का देवता), सीता, और सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में बिखरा हुप्रा है। 'लागल-पद्धति उर्वरा (उपजाऊ भूमि) प्रधान है। ऋग्वेद के सबसे की चर्चा तो अनेक स्थानों पर है ही; किन्तु उनमे सीता प्राचीन अश (२.७ मण्डल) मे केवल एक ही सूक्त में कृषि का मनुष्य रूप में चित्रण नहीं किया गया है। 'ऋग्वेद' से सम्बन्धी शब्दो का प्रयोग है और वह सूक्त दसवें मणल लेकर 'गृह्यसूत्रो' तक 'सीता' सम्बन्धी सामग्री का अध्ययन के समय का माना जाता है (४.५७) यही "ऋग्वेद" का कर हम निःसंकोच कह सकते है कि 'सीता' का व्यक्तित्व
एक मात्र स्थल है जहाँ सोता मे व्यक्तित्व और देवत्व का शताब्दियों तक कृषि करनेवाले प्रायों की धार्मिक चेतना मारोप किया गया है। में जीता रहा।
दूसरी 'सीता' का परिचय हमे केवल तत्तिरीय-ब्राह्मण 'ऋग्वेद' का सूक्त प्राय: एक ही देवता से सम्बन्ध । से प्राप्त होता है, जहाँ सीता सावित्री, 'सूर्य-युत्री" और रखता है, किन्तु जिस सूक्त मे 'सीता' का उल्लेख है, उसमे 'सोम' राजा का प्रारूयान विस्तार पूर्वक दिया गया है। कृषि सम्बन्धी अनेक देवतापो से प्रार्थना की जाती है। कृष्णयजुर्वेद' में भी यह कथा-प्राप्त होती है। बहुत सम्भव है कि प्रार्थनायें अनेक स्वतन्त्र-मन्त्री का 'कृषि' की अधिष्ठात्री देवी सीता' और सावित्री का अवशेष हों जो किसी एक सूत्र मे सकलित हो जाने के अन्तर यह है कि एक तो उसमे देवत्व का प्रारोप है और पश्चात् चोथे मण्डल के अन्तर्गत रख गयी हो। उक्त ठे दूसग उसका उल्लेख धागे चलकर बराबर होता रहा है। मण्डल के सातवें छन्द मे देवी सीता की प्रार्थना की कोपकारी ने 'सीता' शब्द का प्रथं किया है :-(क) गयी है:
वह रेखा जो जमीन जोतते समय हल की फाल से पड़ती 'हे सौभाग्यवती (कृपादृष्टि में) हमागे पोर उन्मुख जाती है (कूड) । (ख) हल के नीचे जो लाहे का फल हो। हे सीते । तेगे हम बन्दना करते है, जिसम तू हमारे लगा रहता है, उसे 'मोना' कहा जाता है। (ग) मिथिला लिये सुन्दर फल और धन देनेवाली होवे ।(६)
क. राजा 'सीरध्वज' जनक की कन्या, जो रामचन्द्र की _ 'इन्द्र' सीता को ग्रहण करे, पूषा (सूर्य) उसका पत्नी थी। (ग) दही, जानकी। संचालन करे। वह पानी से भरी (सीता) प्रत्येक वर्ष हमे वैदिक-ग्रन्थो के अनुमार "सीता' वस्तुतः 'जनक'(धान्य) प्रदान करती रहे ।। (७)।
पुत्री नही थी उन्हे वह चाहे जिस रूप में भी प्राप्त हुई ऋग्वेदीय (तीनों) सूक्तों में भी 'कृषि कर्मारिप' हो मंयोग बगही प्रान हुई थी। जैन-कयाकार उन्हें परिच्छेद के अन्तर्गत उक्त सूतो का उल्लेख हुश्रा है। 'जनय' को मोरम-पुत्री मानत है। बोद्ध जातक में वह 'सीता' के नाम जो दूमरी प्रार्थना वैदिक माहित्य में दशा-पुणे और मम' की मगो बहिन और पत्नी मानी मिलती है वह 'सोता पुजति' मत्र का अंश है। यह मत्र गयी। यजर्वेदीय सहितामों में भी है और अथर्ववेद मे भी।
'डा. रेवरेंफादर कामिल बल्के' ने अपने शोध वैदिक साहित्य में जिन देवतामों का उल्लेख है. वे न्ध राम कथा' में 'सीता' की जन्मकथाप्रो को चार अधिकतर प्रकृति देवता हैं अर्थात् प्रभावशाली प्राकृतिक- भागों में विभकन किया 2-१. जनकात्मजा २ भूमित्रा, शक्तियों में देवतामों के स्वरूप को कल्पना कर ली गयो ३. गवणात्मजा पोर ४. दशरथात्मजा। ये मभी विभाजन
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२८ वर्ष ३३०२
सीता के जन्म परम्परा सम्बन्धी प्रारम्भिक तथ्यो के प्रभाव के कारण नाना प्रकार की कथाओंों की सर्जना के आधार पर ही किये हैं, जनक, रावण प्रोर टशरथ, तीनों को कथाकारों ने सीता का पिता मान लिया है। डा० साहब ने 'सीता जन्म' के कथा-ग्रन्थों का विभाजन निम्न प्रकार से किया है :
१. जनकात्मजा महाभारत, हरिवश, पउमचरिय, घादिरामायण | २. भूमिना (क) वास्गीकि रामायण तथा अधिकाश राम-कच यें ।
(ख) दशरथ व मेनका की मानसी पुत्री (वाल्मीकि है :केसरीपाठ)
(ग) वेदवती' तथा लक्ष्मी का अवतार ।
३. रावणात्मजा - (क) गुणभद्राचार्य कृत- उत्तर-पुराण (थ्वी ई० शती) महाभागवत पुराण
(ख) कमीरी- रामायण ।
प्रनेकान्त
(4) तिब्बती रामायण ।
(घ) मेरतकण्ड मेरी समपानी पाठ (ड) राम कियेन (रे ग्रामकेर ?)
सोता व लका सम्बन्धित पद्मजा रखना निजा (क) 'पद्मा' दशावतार चरित (११ वी० ई० शती)
गोविन्दराज का वाल्मकि रामायण पाठ |
(ख) रक्ताद्भुतरामायण (१५ बी० ई० हती) । सिंहलद्वीप की रामरुथा, तथा अन्य विवि भारतीयय बुसान्त
(ग) 'प्रग्निजा ' - श्रानन्द- रामायण ( १५ वी० ई० शती) पाश्चात्य वृत्तान्त |
४. दशरथात्मजा दशरथ जातक । जावा के राम कलिंग । मलय के मेरी राम तथा हिकायतराम महाराज
रावण ।
"जनकात्मजा" को चार राम-स्थायें पायी जाती है। किन्तु 'अयोनिजा 'सीता' के अलोकिक जन्म की धार कही भी निर्देश नहीं किया गया है, सर्वत्र ही वह विशुद्ध जनकात्मजा ही है । 'रामोपाख्यान' के प्रारम्भ मे लिखा है कि "विदेहराज जनक: सीता तस्यात्मजा विभो । 'हरिवंश' की राम कथा में भी सीता की अलौकिक
उत्पत्ति का कोई भी उल्लेख नहीं है। पउमचरिय में हो स्पष्ट ही जनक की भोरस पुत्री मानी गयी है। प्राचीनगायाधों तथा चादि रामायण में भी जनक की पुत्री ही भोरस पुत्री मानी गयी है । "जनकस्य कुले जाता देवमायेव निमिता मनसम्पन्ना नारीणामुत्तमा वधू ।
" (बालकाण्ड ) तथा वायु पुराण' मे यज्ञ को तीन नवजात शिशु
'विष्णु पुराण' (४.५-३० ) का क्षेत्र ठीक करते समय जनक दो पुत्र एक पुत्री प्राप्त होने का उल्लेख है । 'पउमचरिय' मे 'मीता' की जन्म कथा इस प्रकार
- यह ग्रन्थ विस० ६० का प्राचार्य विमल सूरि रचित प्राकृत भाषा का है। इस ग्रन्थ के अनुसार महाराज 'जनक' की 'सीता' धोरस पुत्री है महाराज जनक की भार्या 'पृथ्वी देवी' रानी के गर्भ से युगल-सन्तान एक पुशी व एक पुत्र- उत्पन्न होती है । पुत्र को पूर्व जन्म का वंरी सौरगृह से हरण कर ले जाता है । कन्या का लालनपालन पृथ्वी देवी करती है। कन्या के युवती होने पर उसका विवाह दशरथ-पुत्र 'राम' के साथ होता है।
भूमिजाः प्रचलित वाल्मीकि रामायण में भूमिजा सीता के जन्म का वर्णन दो बार मे कुछ विस्तार से मिलता है। एक दिन राजा 'जनक' जब यज्ञ भूमि तैयार करने के लिये 'हम' चला रहे थे तो एक छोटी कन्या मिट्टी से निकली, उसे उन्होने उठा लिया और पुत्री रूप में उसका लालन-पालन हुआ तथा 'सीता का नाम रक्खा ।
'विष्णु पुराण' के अनुसार 'जनक' पुत्रार्थ- पश-भूमि तैयार कर रहे थे । 'पद्म पुराण के उत्तर खण्ड के बंगीय - पाठ में भी 'जनक' द्वारा पुत्र कामेष्टि यज्ञ की भूमि तैयार करने का लेख है । इस पाठ में यह भी है कि उस भूमि से उन्हें एक स्वर्ण धनुष भी मिला था, जिसे खोलने पर 'जनक' को एक शिशु-कन्या मिली जिसका नाम 'सीता'
रक्वा गया।
गौड़ीय और पश्चिमी पाठो मे भूमिजा सीता की जन्मकथा इस प्रकार है कि- "राजा जनक को कोई सन्तान न थी । एक दिन जब वह यज्ञ भूमि के लिये 'हल' चला रहे थे तो उन्होने प्राकाश में लावण्यमयी प्रहरा 'मेनका' को देखा और मन मे सन्तानार्थ उसके साहचार्य की
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सीता-जन्म के विविध कथानक
afone की तब इस प्रकार प्राकाशवाणी हुई कि "मेनका के द्वारा उन्हें एक पुत्री प्राप्त होगी, जो सौम्यं में अपनी माता मेनका सरीखी होगी। धागे बढ़ने पर भूमि से निकली कन्या को 'जनक' ने देखा । पुनः प्राकाश-वाणी हुई " मेनकायाः समुत्पन्ना कन्येयं मानती तब" प्रर्थात् मेनका से उत्पन्न यह 'कन्या तुम्हारी मानस पुत्री है।
वाल्मीकि उत्तरकाण्ड मे 'सीता' के पूर्व जन्म से सम्बन्ध जोड़ती एक कथा इस प्रकार से है:- ऋषि 'कुशध्वज की पुत्री 'वेदवती' नारायण को पति रूप में प्राप्त करने के लिये हिमालय पर तप कर रही थी। उसके पिता की भी यही अभिलाषा थी कि 'नारायण को वह 'वर' रूप मे प्राप्त करे। किसी राजा ने ऋषि से पत्नी रूप मे कन्या की मांग की। ऋषि के इन्कार करने पर क्रोधित हो राज ने ऋषि की हत्या कर दी। एक दिन 'रावण' तप करती 'वेदवती' को देख कर उस पर मोहित हो गया और उसे अपने साथ ले जाने के लिये उसका फोटा (वेद) पा वेदवती का हाथ कृपाण बन गया और बहू उस कृपाण से अपना झोंटा काट बेती है। और अपने को रावण से मुक्त कर लेती है। वह 'रावण' को शाप देती है कि मैं तुम्ह रे नाश के लिये अयोनिजा के रूप में पुनः जम्म लूंगी। इतना कह यह अग्नि में प्रवेशकर मृत्यु प्राप्त करती है। यही वेदवती जनक की यज्ञ भूमि की जमीन से उत्पन्न होती है । उपर्युक्त कथानक कुछ ही परिवर्तन के साथ श्रीमद्देवी भागवत पुराण (९-१६) तथा ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृत खण्ड (प्र० १४ ) में भी हैं। यह कथा इस प्रकार है किकुशध्वज धौर उनकी पत्नी मालवती लक्ष्मी की उपासना कर उन्हें पुत्री रूप में प्राप्त करने का वर प्राप्त कर लेते है। जन्म लेते ही नवजात कन्या (लक्ष्मी) वैदिक मन्त्रों का गान करती है, इसीलिये शिशु कन्या का नाम वेदवती रक्खा जाता है। युवती होने पर नारायण के रूप को 'वर' (पति) रूप में प्राप्त करने के लिये वेदवती तपस्या करती है, रावण द्वारा अपमानित होने पर वह उसे 'शाप' देती है और भूमि से उत्पन्न हो 'सीता के रूप मे वह पापपूर्ण करती है।
'रावणात्मजा' :- 'सोता' जन्म की कथाओं में सर्वाधिक - प्राचीन कथा में सीता को रावण की पुत्री माना गया है।
Re
भारत, तिब्बत, खोतान (पूर्वी तुर्किस्तान) हिन्दएशिया और क्याम में हुये यह कथा मिलती है। भारत में हमें इस कथा का प्राचीनतमरूप गुणभद्राचार्य कृत उत्तरपुरान मे प्राप्त होता है । कथा इस प्रकार है:
1
" मलकापुरी के राजा 'प्रमितवेग की पुत्री मणिमती' विजय पर्व (विषय) पर तपस्या कर रही थी। 'राजन' उसे प्राप्त करने का प्रयास करता है । सिद्धि में विघ्न होने से मणिमती हो निदान सहित (मरण समय की इच्छा) करती है कि मैं रावण की पुत्री उत्पन्न होकर उसका नाश करू ।' मन्दोदरी के गर्भ से उसका जन्म होता है । नका मे भूम्यादि अनेक उपद्रव होते हैं ज्योतिषियों के अनुसार नवजात कन्या भविष्य में रावण की मृत्यु का कारण बनेगी ।" सुन रावण 'मारीच' मंत्री को उसे दूर देश मे पृथ्वी में गाड़ प्राने का प्रादेश देता है । मन्दोदरी परिचयात्मक एक पत्र व कुछ घन तथा कन्या को एक मया मे रस 'मारोच' को सौंप देती है। मारीच वह मञ्जूषा मजुवा मिथिला की भूमि में गाड़ जाता है। कृषकों को मञ्जूषा उसी दिन मिलती है और वह उसे राजा जनक के पास ने जाते है। पृथ्वी से प्राप्त वस्तु सदा से नियमतः राजा की होती पायी है। मञ्जूषा से जनक को कन्या प्राप्त होती है जिसे जनक की रानी वसुधा अपनी कन्या जान उसका लालन-पालन करती है। (उत्तर-पुराण- पर्व ६८ )
महाभागवत - देवीपुराण (१०वीं - ११वीं श० ई०) मे भी इस कथा का उल्लेख इस प्रकार से है :- सीता मन्दोदरीगर्भे सभूता चारुरूपिणी, क्षेत्रजा तनयाप्यस्य रावणस्य रघुतम (०४२०६२ ।)
सोमसेन कृत जैन रामपुराण में सीता को रावण की चौरस पुत्री माना गया है। मिथिला में गाड़ी गयी। जनक की रानी के नव प्रसूत बालक को एक देव जिस दिन हरण करता है उसी दिन कृषकों द्वारा यह मा (जिसमे नवजात रावण पुत्री थी) जनक को प्राप्त होती है।
'सीता' की कुछ अन्य कथायें ऐसी भी प्राप्त होती हैं जिनके धनुसार मन्दोदरी के गर्भ से उत्पन्न होने के बाद हो वह नदी में फेंकी जाती है। कश्मीरी रामायणानुसार रावण की अनुपस्थिति में मंदोदरी को एक पुत्री उत्पन्न होती है । जन्म- पत्रानुसार वह विवाहित होने पर वनवासी
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३०, बर्ष ३३, कि.२
अनेकान्त
होकर पिता के कुल का नाश करेगी, ऐसा सुनने पर प्राप्त हो जाता है । घड़े के कमल पर एक रूपवती युवती मन्दोदरी नवजात शिशु बालिका को गले में पत्थर बांध प्राप्त होती है। हल की नोक से प्राप्त होने के कारण नदी में फिकवा देती है।
उस युवती का नाम सीता रखा गया। दूसरी एक कथानुसार 'रावण' स्वयं ही कन्या को रक्तजा-प्रदभत रामायण की कथा इस प्रकार हैमजषा में बन्द करवा कर समुद्र मे फिकवा देता है।
दण्डकारण्य में गृत्समद नाम के ऋषि थे, उनकी पत्नी का जनक उसे समुद्र-तट पर पाते हैं।
प्राग्रह था कि उसके कुक्ष से स्वयं लक्ष्मी अवतरित हों, जावा के 'सरेतकण्ड' की कथा इस प्रकार से है :- प्रतएव ऋषि पत्नी की अभिलाषा पूर्ण करने के लिए प्रति मन्दोदरी के गर्भ से श्री (देवी) का अवतार कन्या रूप मे दिन थोड़े से दूध को अभिमन्त्रित कर उसे एक घड़े मे होता है। मन्दोदरी को ज्योतिषियों ने पूर्व मे ही प्रागाह इकट्ठा करने लगे । एक दिन रावण राजस्व उगाहने ऋषि कर दिया था कि इस गर्भ से जिस कन्या का जन्म होगा के प्राश्रम में प्राता है। राजस्व के रूप में वह ऋषि के उस पर रावण भविष्य में प्रासक्त होगा। मन्दोदरी नव. शरीर में बाण की नोक च भो-चुभोकर रक्त की बूंद उसी जात को समुद्र मे बहवा देती है। मतिली निवासी 'कल'
घर्ड में भर कर ले जाता है। घड़ा मन्दोदरी को सौंप नामक ऋषि को वह मिलती है और वह उसका लालन
बतला देता है कि घड़े का रस विष से भी तीब है। वह पालन करते हैं।
सावधानी बरते। रावण से किसी कारण प्रसन्तुष्ट होकर 'पना'-'श्याम' देश की 'राम जियेन' कथा इस प्रकार
मन्दोदरी उस घड़े का दूध मिश्रित रक्त पान कर प्राण हैं-दशरथ के यज्ञ के 'पायस' का प्रष्टमांश भाग मदोदरी
देना चाहती है। वह मरती नहीं, बल्कि गर्भवती हो
सी खाकर एक कन्या को जन्म देती है। यह कन्या यथार्थतः
जाती है। पति की अनुपस्थिति में गर्भ धारण हो जाने से लक्ष्मी का अवतार थी। (भानन्द-रामायण अनुसार एक भयभीत हो वह उस गर्भ को कुरुक्षेत्र जाकर पृथ्वी में गाड गिद्ध (गोघ) कैकेयी के हाथ का पायस छीनकर उड़ गया पाती है, जोकि हल जोतते समय जनक को शिशु कन्या था और वह उस पायस को अजनी पर्वत पर फेंक देता रूप में प्राप्त होती है। जनक महिषी कन्या को पालता है है।) ज्योतिषियों की भविष्य वाणी सुन रावण भयभीत और सीता नाम रक्खा जाता है । (सर्ग ८) इस कथा का हो नवजात कन्या को घड़े में रख विभीषण से नदी में भाव भी सिंहलद्वीप राम-कथा के समान ही है। फिकवा देता है। नदी में कमल उत्पन्न हो घड़े का प्राधार एक भारतीय कथानमार-मन्दोदरी केवल जिज्ञासा बनाता है। लक्ष्मी प्रपनी दिव्य शक्ति के योग से उस घड़े वश ही घड़े का रक्त पान कर लेती है । प्रतिफल एक कन्या को जनक के पास, जो उस समय नदी-तट तपस्या-रत
को जन्म देती है । रावण के काम के भय से वह नवजात रहते हैं, पहुंचा देती है। जनक घड़े को वन मे ले जाकर
कन्या को उसी घड़े में रख समुद्र में डलवा देती है । घड़ा एक पेड़ के नीचे रखकर प्रार्थना करते हैं कि यदि यह जनक के राज्य में पहुंचकर कृषकों द्वारा जनक को प्राप्त कल्या नारायण के अवतार की पत्नी बनने वाली हो तो होता है। इस भूमि में एक कमल उत्पन्न हो प्रमाण दे। उसी क्षण अग्निजा:-'प्रानन्द' रामायणानुसार राजा 'पपाम' वहां एक कमल उत्पन्न हो जाता है। जनक कमल पर लक्ष्मी की उपासना कर उन्हें पुत्री रूप में प्राप्त करता है। घड़ा रख मिट्टी से ढककर पुनः तपस्या करने चले प्राते हैं। कन्या का नाम 'पजा' पड़ता है। कन्या के स्वयंवर में तपस्या से सन्तोष न प्राप्त होने पर १६ वषाँ के पश्चात् पिता यद में मारा जाता है। वह अग्नि में प्रवेश कर वह उसी वृक्ष के नीचे जाकर धड़ा खोजते हैं। घड़ा न जाती है । एक दिन वह अग्नि से बाहर निकलती है, उसी मिलने पर सेना बुला घड़े की खोज कराते है, फिर भी समय 'रावण' प्रा जाता है। रावण से साक्षात होते ही पड़ा नहीं मिलता प्रतः वह निराश हो लोट प्राते हैं। 'पद्मजा अविलम्ब मग्नि में प्रवेश कर जाती है। रावण प्र:एक दिन हल चलाते समय जनक को अपने पाप घड़ा तुरन्त पग्नि को बझा देता है। पग्नि की राख में युवती
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सीता-जन्म के विविध कथानक
तो मिलती नहीं, किन्तु पाँच रत्न उसे पब मिलते हैं । उन रहता है, कि जो कोई इस धनुष को तोड़ेगा उसी से इस रत्नों को एक पेटिका में रख रावण लंका में ले पाता है। कन्या-रत्न का विवाह होगा।" पेटिका बहुत ही भारी है, लंका के वीरों से वह नही उठ 'दशरथात्मजा:-'जातक' बौद्धधर्म का प्रसिद्ध अन्य पासी । पेटिका खोलने पर मन्दोदरी एक नारी को देख है। तीन जातको मे राम-कथा मिलती है । दशरथजातक, तुरन्त ढंक देती है और उस पेटिका को वह मिथिला की मनामक जातक मोर दशरथ कथानकम् । इसमे राम कथा भूमि में गड़वा देती है। वह पेटिका एक शूद्र को ब्राह्मण के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण 'दशरथजातक' ही है। उसके की जमीन जोतते समय प्राप्त होती है। ब्राह्मण पृथ्वी-धन अनुसार-महाराज दशरथ वाराणसी के राजा थे इनको को राजधन समझ उसे जनक को सौंप प्राता है। पेटिका ज्येष्ठ-महिषी को तीन सन्तानें थी। दो पुत्र और एक पुत्री। से जनक को एक युवती कन्या प्राप्त होती है और पुत्रोवत राम पंडित और लक्ष्मण नाम के पुत्र तथा सीता नाम की उसका पालन-पोषण करते है।
पुत्री थी। ज्येष्ठ महिषी को मृत्यु के पश्चात् द्वितीय रानी दक्षिण भारत की एक कथानुमार - लक्ष्मी एक फन से बालक गभं रहा, उससे भरतकुमार पुत्र हुमा। भरत से उत्पन्न होती है। वेदमनि (एक ऋषि) उस बालिका के जन्मोत्सव पर राजा दशरथ भरत की माता को दो को पाते है, और सीता नाम रखते है। कन्या समद्र-तट वग्दान देता है । जो राजा के पास धरोहर रूप मे रहता पर तपस्यारत रहती है । रावण उसके सौंदर्य की प्रशसा है। भरतकुमार जब ७ वर्ष के होते है, तो भरत की माता सुन वहां पाता है। कन्या उसे देख अग्नि मे प्रवेश कर भरत को युवराज पद पर मभिषिक्त करने को राजा से जाती है। (भस्म हो जाती है) वेदमनि राख बटोर कर आग्रह करती है । राजा मौन रहते है। रानी का भाग्रह एक स्वर्ण-यष्टि मे रखते हैं । यह यष्टि रावण के पास उग्रतर होने लगता है। राजा को षड्यन्त्र की सम्भावना पहुंच जाती है और बह (यष्टि) कोषागार मे रख दी का अनुमान होता है । राजा ने रामपरित व लक्ष्मण को जाती है। एक दिन यष्टि के अन्दर से प्रातो आवाज निकट बुला मम्पूर्ण वृत्तान्त बतलाया और साथ ही यह सुनकर उसे खोला जाता है, जिससे एक सुन्दर कन्या प्राप्त भी कहा कि तुम लोगो का जीवन निरापद नहीं लगता। होती है । ज्योतिषियों को भी वाणी सुन कि 'वन्या' लका उचित होगा कि तुम लोग यहा से किसी सुरक्षित स्थान के नाश का कारण होगी, रावण भयभीत हो उस कन्या मे चले जायो। मेरी मृत्यु के पश्चात् माकर राज्य पर को स्वर्ण-मञ्जषा में रखवा कर समुद्र मे बहवा देता है। अधिकार कर लेना। मजषा कृषकों को मिलती है और अपने राजा को उसे ज्योतिषियो की भविष्य-वाणी के अनुसार राजा का सौंप देते है । सम्भवतः जिम 'फल' से सीता का जन्म होता जीवन प्रभी १२ वर्षों का था, प्रतएव दोनो भाई बहिन है वह मीताफल रहा होगा और उमी कारण कन्या का सीता देवी वाराणसी छोड़ हिमालय की तलहटी मे माबम नाम ऋषि ने 'सीता' रखा था।
बना कर रहने लगते है नौवें वर्ष में राजा की मृत्युदक्षिण भारत के एक कथानुसार-"ईश्वर योगी का पश्चात् भी भरतकुमार राजदण्ड ग्रहण नहीं करते। रूप धारण कर लंका में बास कर अन्य प्रकार का उपःव प्रमात्य-पण् टुल भी गनी के विचार का विरोध करता है। करते है। पश्चात् वे नगर के एक फाटक पर पहरा देने भरतकुमार सेना सहित राम को लौटाने के लिये वन में लगते हैं । बहा वे बुझी हुई राख इकट्ठी करते हैं जिसमे जाते है। भरतकुमार जब राम के पाश्रम पर पहुंचते हैं, से एक बहुत बड़ा पेड़ उत्पन्न होता है । योगी चला जाता उस समय राम पडित वहाँ पहले ही होते हैं । भरतकुमार है। रावण पेड़ के चार टुकड़े कर समुद्र में प्रवाहित करा राम को पिता की मृत्यु का दुख समाचार सुनाते हैं। देता है। पेड़ का एक टुकड़ा जनक के राज्य में पहुंचता सायकाल लक्ष्मण पौर सीता देवी प्राश्रम मे लौटने पर है। मंत्री उसे यश की प्रग्नि में जलवा देते है। प्रग्नि से पिता की मृत्यु सुन अधीर हो उठते है। तब रामपंडित 'सीता' एक धनुष के साथ प्रगट होती है। धनुष पर लिखा उन्हें संसार की प्रनित्यता का उपदेश सुनाते हैं। परिवार
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३२,
३३,०२
अनेकान्त
परिवार को मोह विघटित होता है।
समाधान :-महाराज शुद्धोधन का जीव (उस समय) भरतकुमार रामपंडित से वाराणसी लोट पाने और राजा दशरथ बुद्ध की माता माया देवी का जीव रामपंडित राज्यदण्ड सम्हालने का प्राग्रह करते हैं। तब रामपंडित की माता, यशोधरा का जीव (बद्ध-पत्नी) 'सीता देवी' भरतकुमार को बतलाते हैं कि पिता ने १२ वर्षों तक और प्रानन्द का जीव भरतकुमार और स्वयं बुद्ध का जीव वाराणसी में उन्हें प्रवेश के लिये निषेध किया था। अभी रामपंडित था। तीन वर्ष अवधि मे बाकी है। तीन वर्षों के बाद ही मैं तथागत बद्ध यह राम-कथा (जातक) जोतवन मे पाऊंगा। भरतकुमार रामपंडित की तृण-पादुका लेकर किसी गहस्थ को "जव उसका पिता मर गया था पौर मक्ष्मण पौर सीता देवी सहित वाराणसी वापस लौट पाते
शोक के वशीभत हो उसने सम्पूर्ण कार्य करना बन्द कर
दिया था तो उसे उपदेश देने के लिये ही उपरोक्त जातक सिंहासन पर पादुका प्रतिष्ठित कर के मत्री के रूप
कहा कि प्राचीनकाल मे जब पिता के मरण पर किञ्चित. में भरतकुमार शासन की बागडोर सम्हाल कर शासन की
मात्र भी शोक नही करते थे । वाराणसी के राजा दशरथ व्यवस्था करते है। मनुचित कार्य या न्याय पर पदुकाये
के मरने पर राम ने धंय्यं धारण किया था। उपरोक्त पापस मे पात-प्रतिघात करने लगती। तीन वर्षों के
प्रकार से बहलता से मीता जन्प के विविध कथानक प्राप्त पश्चात् भवधि पूर्ण होने पर रामपंडित वाराणसी लोट
होते है । यहाँ उदाहरण रूप में प्रस्तुत किये गये है । माते हैं, पोर शासन सम्हालते है। सीतादेवी (बहिन) से उनका विवाह होता है, भोर १६००० सोलह हजार वर्षों
ठठेरी बाजार (वसन्ती कटरा) तक शासन कर अन्त में स्वर्ग को प्रस्थान करते है।
वाराणसी-१ (पृष्ठ २६ का शेषाश) हैं, उनमें कई तो काफी सम्पन्न भी हैं, उन्हे जातीय यद्यपि प्रमाणिक इतिहास की सामग्री कम ही मिलती इतिहास तैयार कराने में प्रयत्नशील होना चाहिये । प्रत्येक है फिर भी खोज करने पर बहत-सी ज्ञातव्य बातें प्रकाश व्यक्ति को अपने जातीय- गौरव को सुरक्षित रखने एव में पायेंगी ही। उपेक्षा करने पर जो कुछ सामग्री अभी प्रकाश में लाने में सचेत होना चाहिये । डूगरपुर के हृवड प्राप्त है, वह भी नष्ट हो जायगी। प्रत्येक जाति वालों के जैनमन्दिर व वहाँ के हुंवडों सम्बन्धी मेरे लेख प्रकाशित हो वही बंचे कुलगुरु भी रहे हैं उनके पास भी ऐतिहासिक
सामग्री मिल सकती है। जिन खोजा तिन पाइयाँ ।"
00
(मावरण पृष्ठ ३ का शेषांश) University of
BE Sushma Mishra Evalution of the Concept Lucknow
of No-violence in India up
to 2nd Century B.C. भोपाल विश्ववि. भोपाल
३० मार० सी० जन जैनदर्शन के निश्चय और व्यवहार University of
३१ Rajni Rani A Comparatiue study of Lucknow
Godd eses with similar Characteristics in Hindu
Buddhist and Jain pantb-Snoe Jabalpur university Dr. P.C. Jain ३२ Prup Dr. C. D. Jaln sristividya evam १९७१ में Deptt. of
Sharma Pauranik sristividya Ka 391fa Philosophy
vikasa veda Ke sandarbh प्राप्त
men Tulsatmak adhyayana 000
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पूना
यूनिवसिटी माफ पूमा डा. न. वि.जोगलेकर ११ डा. एस.के.शाह जैन परम्परा का राम १९७१ में उपाधि डिपार्टमेंट माफ हिंदी
कथा साहित्य एक मनु- प्राप्त
शोलन हिंदी विभाग पुणे डा. मानन्दप्रसाद १२ भी उ०भा०कोठारी जैन तीर्थंकर नेमिनाए १९७४ में उपाधि विद्यापीठ दीक्षित
विषयक हिन्दी काव्य डा० न. चि. जोग- १३ श्री एम.बी. मध्य कानोपरागत हिन्दी लेकर
कडारकर जंन साहित्य का साहित्यिक
एवं सांस्कृतिक अनुशीलन
(सं० १९०१-२०१०) यूनिवसिटी पाफ राज- प्रो० पी० सी. जैन १४ श्री श्यामशंकर १०वी १४ीं पाताब्दीका १९५१में स्थान डिपार्टमेंट माफ
दीमित
जैन संस्कृत महाकाव्य निवन्धन संस्कृत जयपुर स०एस०के० गुप्ता १५ श्री सत्यव्रत जन संस्कृत महाकाम्य १९७२ ।
१६ श्री सीताराम शर्मा न परंपरा में राम कपा डा० पी० सी० जैन १७ श्री एम. एम. धर्म- Jaina Mahapuran ka
राज जैन Bk. Adhyayan is the
cotaxt of Kannada
Jain Sahitya. डा० एस० के० गुप्ता १८ श्री पी० सी० जैन जन हरिवंशपुराण का
सास्कृतिक अध्ययन श्री पी० सी० जैन १६ श्रीमती कोकिला जैन तीर्थकर मादिनाप पोर उनका
मानवीय संस्कृति के उन्नयन में योग डा. पी. सी. जैन २० श्री घनश्याम गुप्ता राजस्थान के मध्यकालीन
दिग० जैन भद्रारकों का
संस्कृत साहित्य को योगदान मराठावाडा यूनिवसिटी Dr. T. V. Pathy २१ V. 1. Dharurkar Yha Art and Icono- १०-१-७१ को डिपार्टमेंट माफ हिस्ट्री
graphy of the Jain उपाधि प्राप्त एंड ऐनसियेन्ट इंडियन
Caves in Ellora. कल्चर बड़ौदा विश्वविद्यालय,
२२ Shri Vishnu Kar, Religious & Philoso. बड़ोदा
Bhatta Keshaulal phical foundation of
Indian Art 33 Jadhav Rajave The Art of medievael Bapu Shele
Gujarat लखनऊ विश्वविद्यालय
PY Rekha Nagar Dance and music in लखनऊ
Ancient Indian Art & Literature (from ear.
liest times to c. 600 AD) २५ संघमित्रा शंकर राज्य संग्रहालय लखनमें बुद्धता
नमूर्ति का प्रतिमाशास्त्र अध्ययन .
लल्लूप्रसाद पपपुराण कालीन समाज University of
सुरेन्द्र शर्मा ACritical and comparative Kurukshetra
study of jain Kumarsambhave University of
25 Nilima Chaudhary A Critical study of Allahabad
Chaturmasya' (शेष पृष्ठ १२पर)
२७
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R. N. 10591/82
वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन
नगवालय-तची प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थों की पचानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादि ग्रन्थों में बत सरेपों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची। संपादक मुख्तार श्री जगमकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्त्व की ७ पृष्ठ की प्रस्तावना से अलंकृत, डा. कालीदास माय, एम. ए.,ग. लिट. के प्राक्कथन (Foreword) और ग० ए. एन. उपाध्ये, एम. ए.,डी. लिट् की भूमिका Introduction) से भूषित है। शोष-खोज के विद्वानों के लिए प्रतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द । २२.. पवन स्तोत्र : समन्तभद्र भारती का प्रपूर्व ग्रन्थ, मुस्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद तथा महत्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित। मासिविधा:स्वामी समन्तभद्र की मनोखी कृति, पापों के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद मौर श्री जुगल
किशोर मुक्तार की महत्व की प्रस्तावनादि से अलंकृत, सुन्दर, जिल्द-सहित । पत्त्यनुसासन : तत्वज्ञान से परिपूर्ण, समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं हमा पा । मुस्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलंकृत, सजिल्द । ...
... २-५. समीचीनबर्मशास्त्र: स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर
जीके विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । बैंगसम्ब-प्रशास्ति संग्रह, भाग १: संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की शस्तियों का मंगलाचरण
पहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों मोर पं० परमानन्द शास्त्रो इतिहास-विषयक साहित्यपीमालक प्रस्तावना से प्रमंकत, सजिल्द । ...
६.०० समापितोरामोपदेश : प्रध्यात्मकृति, पं० परमानन्द शास्त्री को हिन्दी टीका सहित
५-५० बाबवेलगोलौर दक्षिण के प्रम्य जन तीर्ष : श्री राजकृष्ण जैन ...
२.०० माय-मस्तिसंबह, भाग २: अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्त्वपूर्ण संग्रह । विपन
पकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित । सं.पं. परमानन्द शास्त्री। सजिल्द। १०.०० बाप-बीपिका : मा० अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० डा० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा स० अनु०। १०.००
साहित्य और इतिहास पर विशव प्रकाशा : पृष्ठ संख्या ७४, सजिल्द । बसावपात:मूल पन्थ की रचना माज से दो हजार वर्ष पूर्व धी गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
पतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण पूणिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त-शास्त्री। उपयोगी परिशिष्टों मोर हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक
पृष्ठों में। पुष्ट कागज मौर कपड़े की पक्की जिल्द । Reality :मा. पूज्यपाद की सर्विसिद्धि का अंग्रेजी में अनुवाद बरेमाकार के ३०.प., पक्की जिल्द न नियम्य-रलावली : श्री मिलापचन्द्र तथा श्री रतनलाल कटारिया माना (यानस्तव सहित) : संपादक पं. बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री
१२-०० पापकबहाबीरवासिंह सोषिया नसानाचती (तीन भागों में):सं.पं. बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री
प्रत्येक भाग ४.... Jain Bibliography (Universal Bacyclopaedia of Jain References) (Pagca 2500) (Under print)
पिकवीर सेवा मन्दिर के लिए रूपवाजी प्रिटिंग हाउस, दरियागंज, नई दिल्ली-२ से मुद्रित।
८...
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त्रैमासिक शोध-पत्रिका
अनकान्त
वर्ष ३३: किरण ३
जलाई-सितम्बर १९८०
विषयानुक्रमणिका सम्पावन-मण्डल डा.ज्योतिप्रसाद जैन
विषय डा०प्रेमसागर जैन
१. जिनवाणी श्री पन चन्द्र शास्त्री
२. वैदिक बौद्ध तथा जैन वाङ्मय में सत्य का स्वरूप । श्री गोकुलप्रसाद जैन
--श्री राजीव प्रचंडिया, अलीगढ़ ३. अपदेससत्तमझ ___-श्री पद्यचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली ४. ज्ञानानद श्रायकाचार : एक परिचय ___ --५० बशीघर शास्त्री, जयपुर ५ जैन तीर्थंकरों का जन्म क्षत्रिय कुल मे ही क्यों?
-श्री गणेश प्रसाद जैन, वाराणसी सम्पादक श्री गोकूलप्रसाद जैन । ६. रामगुप्त और जैनधर्म शीर्षक लेख पर कुछ एम.ए., एल-एल. बी. विचार-श्री वेदप्रकाश गर्ग साहित्यरत्न ७. महात्मा प्रानन्दघन: काध्य समीक्षा
--डा. प्रेमसागर जैन, बड़ोत ८. महाकवि हरिचन्द्र का समय और प्राचार्य बलदेव
उपाध्याय का मत-श्री अशोक पाराशर, जयपुर २० ९. जैन संस्कृति का प्राचीन-केन्द्र काम्पित्य
-विद्यावारिधि डा. ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ २२
१०. पाटण के श्वेताम्बर ज्ञान भण्डारों में दिगम्बर वार्षिक मूल्य ६) रूपये
ग्रन्थों की प्राचीनतम ताडपत्रीय प्रतियां इस अंक का मूल्या
-श्री अगरचन्द नाहटा, वीकानेर रुपया ५० पैसे ।११.वैदिक और जैनधर्म : एक तुलनात्मक अध्ययन
-पं० के० मुजवली शास्त्री १२. महान विद्वान् हपंकीति को परम्परा
-श्री अमरचन्द नाहटा, बीकानेर
प्रकाशक
वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
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जैन विज्ञान
D० हरिसत्य भट्टाचार्य चिन्ता
तथ्य की खोज करता है उसे स्वार्थानुमान और जिस वचन. साधारतः चिन्ता को तकं या ऊह कहा जाता है। विन्यास द्वारा उक्त अनुमापक अन्य को यह तथ्य समझाता प्रत्यभिज्ञान प्राप्त दोनों विषयों में अच्छेध सम्बन्ध की उसे परार्थानुमान कहते हैं। ग्रीक दार्शनिक Aristotle खोज करना तर्क काम है। पाश्चात्य मनोविज्ञान अनुमान के तीन अवयव बतलाता है-(१) जो-जो इसे (Induction) कहता है। यूरोपीय पण्डित कहते हैं धूमदान हैं वह वह्निमान् है, (२) यह पर्वत धूमवान् है, कि Induction observation या भूयोदर्शन का फल है। (२) यह पर्वत घमवान् है (३) मतएव यह पर्वत वह्निमान जैन नयायिक उपसम्म और अनुपलम्म द्वारा तर्क की है। बौद्ध अनुमान के तीन अवयव इस प्रकार बतलाते प्रतिष्ठा मानते हैं। दोनों के कथन का तात्पर्य एक ही है। है-(१) जो घुमवान् है वह वह्निमान् है, (२) यथा पाश्चात्य साकिक Inductive truth को एक Invariable महानस, (३) यह पर्वत घुमवान है। मीमांसक भी अनुपषवा Unconditional relationship कहते हैं। मान के तीन अवयव मानते हैं। इनके मतानुसार अनुमान जैनाचार्यों में कितनी ही शताब्दी पूर्व यही बात कह दी के ये दो रूप हो सकते हैं। प्रथम रूप-(१) यह पर्वत यो। उनके मतानुसार तलब्ध सम्बन्ध का नाम अविना- बतिमान है, (२) क्योंकि यह घूमवान् है, (३) जो भाव अथवा अन्यथानुपपत्ति है।
घूमवान् होता है वह वह्निमान् होता है यथा महानस ।
वितीय रूप-(१) जोघूमवान् है वह वह्निमान है, (२) अभिनिबोध
यथा महानस, (३) यह पर्वत हिमान है। नंयायिक तकलब्ध विषय की सहायता से होने वाले अन्य विषय अनुमान को पञ्चावयव मानते हैं। उनके मतानुसार के ज्ञान को अभिनियोष कहते हैं साधारणतः अभिनिधोष अनुमान का पाकार यह होगा-(१) यह पर्वत वह्निमान् को प्रनमान माना जाता है। इसी को पाश्चात्य प्रन्थों में है, (२) क्योंकि यह धूमयान है, (३) जो धूमवान् है, मनुमान Deduction, Retiocianation अथवा (३) जो घुमवान होता है वह वहिमान होता है यथा syllogism नाम दिया गया है। घुमा देखकर यह कहना महानस, (४) यह पर्वत घुमवान् है, (५) इसलिए यह कि पर्वतो वह्निमान्' (पर्वत में अग्नि है)-इस प्रकार वह्निमान है। अनुमान के ये पांच अवयव क्रमशः प्रतिज्ञा, के बोध का नाम अनुमान है। इसमें पर्वत 'धर्मी', किवा हेतु, उदाहरण, उपनयन पौर निगमन के नाम से प्रसिद्ध 'पक्ष' ; वह्नि 'साध्य' मोर घूम 'हेतु', "लिंग', प्रथवा हैं। जैन दर्शन के नैयायिक कहते है कि उदाहरण, उपनय 'व्यपदेश' है। पाश्चात्य न्यायग्रन्थों में Syllogism के और निगमन निरर्थक है। जैन अनुमान के दो अवयव अन्तर्गत इन्हीं तीन विषयों की विद्यमानता दिखती है। मानते है-(१) यह पर्वत वह्निमान् है, (२) क्योंकि यह इनके नाम Minor term, Major term भोर Middle धुमवान है । जैन कहते है कि कोई भी बुद्धिमान प्राणो इन term हैं। अनुमान व्याप्तिज्ञान पर-पर्थात् अग्नि मोर दो भवयवों से ही अनुमान के विषय को समझ सकता है। धुम में जैसा भविनाभाव सम्बन्ध है उस पर-प्रतिष्ठित प्रतएव अनुमान के मश्य अवयव बेकार हैं। परन्तु यदि है। यह व्याप्ति तत्व पाश्चात्य न्याय के Distribution श्रोता अल्पबुद्धि हो तो उसके लिए जन लोग नवायिकों के of the middle term के अन्तर्गत है। जैन दृष्टि से पांच अवयवो का स्वीकार करते ही है, इतना ही नही अनुमान के दो भेद हैं- (१) स्वार्थानुमान पोर (२) इसके अतिरिक्त प्रतिशाशुद्धि, हेतुशुद्धि जैसे पौर मी पाच परार्थानुमान । जिस मनुमान द्वारा मनुमापक स्वयं किसी अवयव बनाते हैं।
यह मावश्यक नहीं कि सम्बावग मंशल लेखकों के सभी विचारों से सहमत हो।
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भीम पहम्
Jনকান
परमागमस्य बीज निषिद्धजात्याध सिन्धविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमपनं नमाम्यनेकान्तम् ।।
वर्ष ३३ किरण ३
वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
वीर-निर्वाण संवत् २५०६, वि० सं० २०३७
जुलाई-सितम्बर
१९८०
।
जिनवाणी
अनंतधर्मरणस्तत्त्वं पश्यंती प्रत्यगात्मनः । अनेकान्तमयोमूर्तिनित्यमेव प्रकाशताम् ॥
अर्थ-अनन्तधर्मा परम-आत्मा अर्थात् चैतन्य के परम-अर्थ को, पृथक-रूप में-परद्रव्यो से भिन्न,
दर्शाने वाली अनेकान्तमयीमति-जिनवाणी, त्रिकाल-प्रतिसमय तत्त्व को प्रकाशित करे।
अध्या० तरं०-(अनेकान्तमयी मूर्ति) अनेकान्त अर्थात् स्याद्वादमयी मूर्ति -जिनवाणी। यहां जिनवाणी
शब्द प्रयोग न किए जाने पर भी अनेकान्लात्मक होने से सामर्थ्य से जिनवाणी अर्थ फलित होता है। (नित्य) सदा-त्रिकाल । (प्रकाशताम् ) प्रकाशित अर्थात् उद्योतित करे। कैसो है जिनवाणी ? (प्रत्यगात्मन) परम-आत्मा अर्थात् चैतन्य रूप के (प्रत्यकतत्त्वं पश्यन्ती) भिन्नतत्त्व अर्थात् स्व-स्वरूप को प्रकाशित करती है। कैसा है आत्मतत्त्व ? (अनन्तधर्मण ) दो बार अनन्त अर्थात् अनन्तानन्त धर्मप्रमाण, अस्तित्व, नास्तित्व, नित्यत्व, अनेकत्व आदि धर्मवाला है। यद्यपि धर्म शब्द पुण्य, समन्याय, स्वभाव, आचार आदि अनेक अर्थो वाला है, तथापि यहां धर्म शब्द स्वभाव वाचक है।
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वैदिक बौद्ध तथा जैन वाङ्मय में सत्य का स्वरूप
- श्री राजीव प्रचंडिया, अलीगढ़
वैदिक, बौद्ध तथा जैन बाहमय मिलकर भारतीय हटते ही सत्य उद्घाटित हमा करता है। प्रज्ञान पोर वाहमय का रूप स्थिर करते हैं । वैदिक वाङ्मय में वेद- माया का सम्बन्ध अन्योन्याश्रित है । मज्ञान में सस्य प्रछन्न पाणी, बौद्ध साहित्य में भ० गौतम बुद्ध के सिद्धान्त, उप- रहा करता है । जो ज्ञान से प्राप्लावित है वह निश्चय ही देश, तथा शिक्षात्मक निर्देश पोर जैन मागम में तीर्थ- सत्य से प्रभावित होता है। वास्तव में ज्ञानी सदा सत्य. पुरों की दिव्य वाणी के प्रभिदर्शन होते हैं । वेद, उपनिषद् वादी होता है। ज्ञान-शक्ति सत्य को प्रेरित एवं उद्रामायण, महाभारत, गीता प्रादि वैदिक ग्रन्ध, त्रिपिटक घाटित किया करती है और बुद्धिशील प्राणियों को अर्थात् सुत्तपिटक, विनमयपिटक तथा अभिधम्मपिटक बौद्ध यथावसर योग्य कर्मो की चेतना भी देती है। ज्ञान-प्रभाव साहित्य तथा जैन पागम में तिलोयपण्णति, तत्वार्थसूत्र, में सत्य की अपेक्षा भाग्रह की प्रधानता रहती है। प्राग्रही सूत्रकृतांग, स्थानाङ्गसूत्र, दशवकालिकसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र प्रति प्रज्ञानी सत्य को समझने-पहिचानने में प्रायः मूलाचार, अमितगतिश्रावकाचार, प्रष्टपाहुड़, भगवतो असमर्थ होते हैं। उनकी दृष्टि प्रज्ञान के प्रभाव में स्थल माराधना, प्रनगार तथा सागरधर्मामृत प्रादि ग्रन्थ मान्य रहती है । प्रज्ञान शक्ति के माध्यम से हो सत्य को विभिन्न हैं जिनके द्वारा भारतीय जीवन-दर्शन, पाचार-विचार, रूपों मे अभिव्यक्त किया जाता है। वस्तुतः सत्य तो एक धमं साधना-पाराधना तथा ज्ञान-विज्ञान मादि उपयोगी ही है। वह एक मात्र ब्रह्म है।' इन्द्र है। सत्य में ही मौर कल्याणकारी बातों का सम्यक परिचय मिलता है। धर्म निवास करता है। सत्य ही सब पच्छाइयों की जढ़
वैदिक, बौद्ध तथा जैन बाङ्मय मे व्यवहृत सत्य के है तथा सत्य से बढ़कर संसार में और कुछ नहीं है। सत्य स्वरूपका विवेचन करना हमारा यहा मूलाभिप्रेत है। से प्राणी सबके ऊपर तपता है तथा ज्ञान से मनुष्य नीचे
वैदिक वाङमय में सत्य के स्वरूप को स्थिर करते देखता है तथा नम्र होकर चलता है। सत्य की प्रतिष्ठा हए कहा गया है कि मन, वाणी और कर्म की प्रमायिकता पर सत्यवादी का वचन क्रिया फलाश्रयत्व गुण से युक्त एवं प्रकृटिलता का नाम ही सत्य है।' ज्ञानप्रकाश में हो जाता है अर्थात सत्य प्रतिष्ठित व्यक्ति के वचन प्रमोष मायादि सशक्त शत्रुओं को कटना-छंटना होता है। इनके होते है।" १- सत्यमिति प्रमायिता, प्रकोटिल्यं वाङ्मनः कायानाम् ६. 'सत्यमेव ब्रह्म'। -शतपथ ब्राह्मण, काण्ड २, -केन उपनिषद्, शांकरभाष्य, ४८
मध्याय १, ब्राह्मण ४, कण्डिका ४. २. 'नाऽविजानन सत्यं वदति, विजान्नेव सत्यं वदति ।' ७. 'सत्यं हि इन्द्रः'। -शायायन मारण्यक, -छान्दोग्य उपनिषद्, प्रपाठक ७, खण्ड १७,
अध्याय ५, कण्डिका १.
८. 'सत्यमेवेश्वरो लोके, सत्ये धर्मः सदाश्रितः । ३. 'चोदमिती सून्तानां चेतन्ती सुमतीनाम् ।'
सत्यमूलानि सर्वाणि, सत्यान्नास्ति परं पदम् ॥' -ऋग्वेद, मण्डल १, सूक्त ३ मन्त ११.
-वाल्मीकि रामायण, अयोध्याकाण्ड, सर्ग ११०, ४. 'नावगतो उपरुध्यते, मापदों उ वगछति ।'
श्लोक १३. -ताण्डय महा ब्राह्मण, अध्याय २, वण १ . सत्येनोवस्तपति, ब्रह्मणाडवाङ् विपश्यति।'
कण्डिका ४.
--अथर्ववेद, काण्ड १०, सूक्त ८, मन्त्र १६. ५. 'एक सद् विप्रा बहुधा वदन्ति' ।
१०. 'सत्य प्रतिष्ठाया क्रियाफलाश्रयत्वम् ।' -ऋग्वेद, मण्डल १, सूक्त १६४, मन्त्र ४६.
-योगदर्शन २३६.
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विक, बोरसपानवाइमय में सत्य का स्वरूप
सत्य की महिमा का वर्णन करते हुए वैदिक वाङ- सम्बन्ध में 'भंगत्तर निकाय' में स्पष्ट कहा कि 'हे पुरुष मय में स्पष्ट उल्लेख है कि सत्य स्वर्ग का सोपान है। तेरी प्रास्मा तो जानती है कि क्या सत्य है और क्या सत्य का पाचरण करने वाला प्राणी स्वर्ग-लोक से च्यूत प्रसत्य है । प्रतः पाप करने वाले के लिए एकान्तगुप्त नहीं होता है। वास्तव में देवत्व की मोर जाने वाला (छिपाव) जैसी कोई स्थिति नहीं है। रागादि पाप कर्म मार्ग ही सत्य से बना है। सत्य के प्राचार पर ही हटते ही प्राणी सत्य तक पहुंच जाता है। रागासक्त प्राणी प्राकाश टिका है, समग्र संसार और प्राणीगण सत्य के ही प्रबोध में रहता है। सोचने समझने की शक्ति उसमें प्रायः माश्रित हैं। सत्य से ही दिन प्रकाशित होते हैं, सूर्य उदय समाप्त सो हो जाती है। ऐसे प्राणी सत्य का केवल एक होता है तथा जल भी निरन्तर प्रवाहित रहता है। ही पहल देख पाते है। उनका दृष्टिकोण सर्वागीण नहीं लोक में सत्य के द्वारा ही साक्षी को पवित्र किया जाता है। होता। वे अपने विचारो के पतिरिक्त दूसरोके विचारों सत्य से ही धर्म की अभिवृद्धि भी हुमा करती है। प्रतः को प्रसत्य मानते है। जबकि बुद्ध-मान्यता है कि न सत्य सत्य सर्व प्रकार से कल्याणकारी है जिस प्रकार वृक्ष मूल अनेक है और न एक दूसरे से पथक है ।" सत्य तो वस्तुतः (जड़) के उखड जाने से सूख जाता है और अन्ततः नष्ट एक ही है।" उसका रस सब रसों से श्रेष्ठ है।" सत्य हो जाता है उसी प्रकार असत्य बोलने वाला व्यक्ति भी द्वारा प्राणी सहज मे ही जन-जन में समाहित हो जाता है। अपने पाप को उखाड़ देता है, जन समाज में प्रतिष्ठाहीन सत्यवादी को यश कीर्ति दिग-दिगन्त फैलती जाती है।" हो जाता है। निन्दित होने से सूख जाता है - श्रीहीन हो जबकि प्रसत्यवादी नरकोन्मुखी होता है। इतना ही नहीं जाता है और मन्ततः नरकादि दुर्गति पाकर नष्ट हो जो करके-- नही किया- ऐसा कहने बाला भो नरक में जाता है।
जाता है।" यह शाश्वत धर्म है कि सत्य वचन ही अमृत बौद्धधारा के प्रवर्तक भ. गौतम बुद्ध ने भी सत्य के बचन है । १५ १. 'सत्यं स्वर्गस्य सोपानाम् ।'
७. 'नत्यिलोके रहोनाम, पापकम्मं पकुम्वतो । -महाभारत, प्रादिपर्व, सर्ग ७४, श्लोक १०५ मन्ता ते पुरिस जानाति सच्च वा यदि वापुसा ।' २. 'सत्यं परं, परं सत्य, सत्येन न सुवर्गाल्लोकाच्च्य
--अगुतर निकाय ३।४।१० वन्ते कदाचन ।'
८. रागस्ता न दक्खति, तमोखधेन भावुटा।' -ततिरीय पारण्डयक,नरागणोपनिषद् १०१६२
-दीघनिकाय, २०१६ ३. 'सत्येन पन्था विततो देवयानः।'
९. 'एकङ्गदस्सी दुम्मेधो, सतदस्सी च पण्डितो।' -मुद्रक उपनिषद्, मण्डक ३, खण्ड १, इलोक ६
--थेरगाथा, ११०६. ४. 'सामासस्योक्तः परिपातु विश्वतो, द्यावाचयनतन्न
१०. न हेव सच्चा नि बहूनि नाना।' हानि च ।
-महानि मपालि, ११२।१२।१२१ विश्वमन्यन्निविशतेयदेजति, विश्वाहाथो विशाहो
देति सूर्यः ।" ११. 'एक हि सच्च न दुतिय मस्थि ।' -ऋग्वेद, मण्डल १०, सूक्त ३७, मन्त २.
-सुत्तनिपात, ४१५०७ ५. "सस्येन पूयते साक्षी धर्मः सत्येन वर्धते ।" १२. 'सच्च हवे सादुतर रसाने।' -सुत्तनिपात १।१०:२.
__ - मनुस्मृति, अध्याय ८, श्लोक ८३. १३. 'सच्चेन किति पप्पोति ।' --सुत्तनिपात १।१०७. ६. "पचाक्षः माविलः शुष्यति स उदवर्तते, एवमेवानत
'प्रभूतवादो निरय उपेति, योवाविकस्वा न करोबदन्नामलमात्मानं करोति, सथुष्यति, सउवर्तते, तस्मादनतं न वदेत् ।"
मोति नाह।
-सुतनिपात, ३३६॥५. -ऐतरेय मारण्यक, प्रारण्यक २, अध्याय ३, १४ सच्चं वे प्रमतावाचा, एस धम्मो सनन्तनो।'
-सुत्तनिपात, ३३२९।४.
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४ वर्ष ३३, कि
३
अनेकान्त
जैन मागम में सत्य विषय पर विषद चर्चा की गई व्यक्ति या पदार्थ का कोई नाम रख लेना 'नाम सत्य है। है। पार्षग्रन्थ 'मूलाचार' मे स्पष्ट उल्लेख है कि राग, उदाहरणार्थ कुल को वृद्धि न होने पर भी कुलबर्द्धन नाम द्वेष, मोह के कारण असत्यवचन तथा दूसरों को सनाप रखा । पुदगल के रूप प्रादि अनेक गुणों में रूप को मान्यता करने वाले ऐसे सत्यवचन को छोड़ना मोर द्वादशांग क से जो वचन कहा जाय, उसे 'रूप सत्य' कहा जाता है। अर्थ कहने मे अपेक्षा रहित वचन को छोड़ना सत्य कहलाता उदाहरणार्थ केवल रूप प्राधार से कहना कि बगुला की है। अर्थात् हास्य, भय, कोष तथा लोभ से मन-वचन- पंकि सफेद होती है। अन्य की अपेक्षा से जो कहा जाय कायकर किसी समय मे भी विश्वास- घातर, दूसरे को सो वह 'प्रतीत्य सत्य' है। उदाहरणार्थ 'यह दीर्घ है' यहाँ पीडाकारक बचन न वोलना ही सत्य है।' सत्य का सीधा हस्व की अपेक्षा से प्रतीत्य सत्य है । व्यवहार में प्रचलित सम्बन्ध चारित्र की शुचिता से हुप्रा करता है । जो कुछ अर्थ की अपेक्षा से जो वचन बोला जाय, वह व्यवहार कहा जाय चाहे वह सत्य हो या प्रसत्य-चारित्र की उससे सत्य' है। उदाहरणार्थ-लोक मे 'भात पकता है। ऐसा यदि शुद्धि होती है तो निश्चय ही वह सत्य है तथा जिस वचन व्यवहार सत्य है। इच्छानुसार कार्य कर सकना कथन से चारित्र की शुद्धि नहीं होती-- चाहे वह सत्य हो 'सम्भावना सत्य' है। उदाहरणार्थ-इन्द्र इच्छा करें तो क्यों न हो, प्रसत्य ही होता है। जैनाचार्यों ने तो सत्य जम्बूद्वीप को उलट सकते है । हिंसादि दोष रहित प्रयोग्य के स्वरूप को और अधिक स्पष्ट करने के लिए उसे दस वचन का प्रयोग 'भावसत्य' की कोटि मे पाता है। उदाहभागों में विभाजित किया है। यथा-जनपद, सम्मति, रणार्थ-किसी ने पूछा कि चोर देखा, उसने कहा कि नही स्थापना, नाम, रूप, प्रतीति, सम्भावना, व्यवहार, भाव देखा, यह भाव सत्य है। उपमामय वचन 'उपमा सत्य' तथा उपमा सत्य ।' जिस देश के लिए जो शब्द जिस कहलाता है। उदाहरणार्थ-पल्योम सागरोपम मादि। पर्थ मे रूढ होता है, उस देश में उस प्रथं के लिए उमी पल्योपम काल मे पल्य शब्द गड्डे का वाचक है। काल शब्द का प्रयोग करना 'देशसत्य' या 'जनपद सत्य' को गड्डे की उपमा देकर बताया गया कि एक योजन कहलाता है। उदाहरणार्थ-विभिन्न प्रान्तीय भाषाप्रो म लम्बे-चौड़े यौगिलिकों के बालों से साठस भरे हुए गड्डे चावल या भात के नाम पथक-पथक बोले जाते है। जे के समान काल पल्योपम काल है। इन सब मे अनबद्य चोरु, कल प्रादि। बहजन की सम्मति से जो शब्द जिम सत्य (हिसा रहित सत्य वचन) श्रेष्ठ होता है। किन्त का वाचक मान लिया जाता है, उसे सम्मति सत्य कहा जनागम में यह भी स्पष्ट है कि यदि कदाचित सत्य वचन जाता है। उदाहरणार्थ-लोक मे राजा की स्त्री को देवी बोलने में बाधा प्रतीत होती है तो मौन धारण भी किया कामा किसी मति मादि मे किसी व्यक्ति विशेष की कल्पना जा सकता है। मूलरूप मे सत्यवचन वह है जो प्रशस्त. कर लेना 'स्थापना' सत्य' है। उदाहरणार्थ- महन्त का कल्याण कारक, सुनने वाले को माहाद उत्पन्न करने पवाण मे कल्पना करना । गणकी अपेक्षा न रखकर किसी बाला तथा उपकारी हो। किन्तु जो बचन अप्रिय प्रौर
१. मूलाचार, गाथा स० ६,२६०, अनन्तकोतिग्रन्थमाला
वि० सं० १६५६. २. जभास भास तस्य सच्च मोसं वा चस्तिं विसुज्झह,
सम्वा विसा सच्चाभवति । ज पुण भासमाणस्स चरिन न सुज्झति सा मोसा भवति ॥
-दशवकालिकचूणि, अध्ययन ७. ३. 'अणवद संमदिठवणा गामें रूवे पडुच्चववहारे ।
सभावणववहारे भावेणोपम्म सच्चेण ॥" --भगवती माराधना, मूलगाथा स० ११६३,
सखागमदोशी, शोलापुर, सं० ई० १६३५. ४. मूलाचार, गाथा सं० ३०६-३१३, अनन्तकोति
ग्रथ माला, वि० स. १६७६. ५. 'सच्चेसु वा प्रणवज्जं वयंति ।' -सूत्रकृतांग १।६।२३. ६. वक्तव्यंचन मथविध यं धोधनमोनम् ।
-पद्मनम्दि पंचविंशतिका, १६१.
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बंदिक, बौद्ध तथा जैन वाडमय में सत्य का स्वरूप
५
अहितकर होता है, वह सत्य नहीं हुमा करता ।' क्योंकि महाप्रज्ञ (श्री मनि नथमली) का यह कथन निश्चय ही मत्य के लिए यह मावश्यक है कि काया की सरलता भावों सार्थक प्रतीक होता है कि "जिसने अपनी धारणा की को सरलता तथा मन, वचन और काय रूप योग को खिड़को को सत्य से देखा, वह सत्य से दूर भागा है। एकरूपता हो।
जिसने तथ्यों की खिड़की से सत्य को देखन का प्रयत्न किया सत्य की विशिष्टता का वर्णन करते हुए जैनाचार्यों वह सत्य के निकट पहचा है। यदि संमार में अपनेपन का ने बताया कि सत्य की साधना करनेवाला मेधावी साधक प्राग्रह न होता तो सत्य का मह प्रावरणो से ढका नही दुःखो से घिरा रह कर भी घबराता नहीं है। वह मृत्यु होता।" के प्रवाह को भी निर्वाधरूप से सहज में ही तैर जाता
--पीली कोठी, मागरा रोड, है।' वास्तव में सत्य को अग्नि जलाती नहीं, पानी
मलीगढ (उ० प्र०) उसको डुबोने में असमर्थ होता है। सत्य के प्रभाव से पिशाच तक भाग जाते है तथा देवगण उसका
'अनेकान्त' के स्वामित्व सम्बन्धी विवरण रक्षण करते है, बदन करते है। निश्चय ही सत्य हो समार मे सारभूत है । वह महा समद्र से भी अधिक गम्भीर
प्रकाशन स्थान-वीरसेवामन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली है। वह चन्द्र मण्डल से अधिक सौम्य है तथा सूर्यमण्डल
महक-प्रकाशन वीरसेवामन्दिर के निमित्त मे भी अधिक तेजस्वी है ।' प्रस्तु विश्व के सभी सत्पुरुषो
प्रकाशन अवधि - त्रैमासिक श्री सोमप्रकाश जैन ने मृषावाद अर्थात् असत्यवचन को निन्दा की है। असत्य |
राष्ट्रि कता--भारतीय पता-२३, दरियागंज दिल्ली-२ का प्ररूपण करने वाला प्राणी ससार-सागर को पार करने
सम्पादक-श्री गोकुलप्रसाद जैन मे सदा असमर्थ रहता है। अतः यह कहा जा सकता है
राष्ट्रिक ता भारतीय पता-- वीर सेवा मन्दिर २१, कि सत्य सदा उपयोगी तथा कल्याणकारी होता है। ऐसे हितकारी सत्यवचन का बोलना श्रेयस्कर है।
दरियागंज, नई दिल्ली-२ उपर्यकित विवेचन के प्राधार पर यह निष्कर्ष | स्वामित्व-वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ निकलता है कि सत्य की प्राघार शिला ज्ञान पुंज है । ज्ञान ।
| मैं प्रोम प्रकाश जैन, एतदद्वारा घोषित करता है कि के प्रभाव मे सत्य अप्रकट रहता है । ऐसी स्थिति में तथ्य | मेरी पूर्ण जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपयुक्त की अपेक्षा प्राग्रह की प्रधानता रहती है। पाग्रही-माहौल
विवरण सत्य है। --प्रोमनकाशन प्रकाशक मे प्रात्मगवेषणा असंदिग्ध ही कही जाएगी। युवाचार्य १. 'सत्यप्रियं हित चाहुः सूनत ब्रता:।
५. "सच्च. 'लोगम्मिसारभयं, गंभीरतरं महासमुदायों। तत्सत्यमपि नो सत्यमप्रिय वाहित च यत ।'
--प्रश्न व्याकरणसूत्र २।२ -प्रनगारधर्मामृत, अधिकार स०४, श्लोक सं० ६. "सच्च सोमतर चन्द मंडलामो, तितरं सर
४२, पं. खबचन्द, शोलापुर सं० ई० १६२७. मडलामो।" --प्रश्न न्यायकरणमा 0 २. "सहिमो दुक्ख मत्ताएपुछो नो झंझाए।"
७. 'ममावायो उ लोगम्मि, सव्व साहहिं गरहिमो।" --प्राचागग सूत्र १।३।३
--दशवकालिक ६१३ ३. "सच्चस्स प्राणाए उठ्ठिए मोहावीमारंतरह।" ८. "जेते उ वाइणो एवं, नते मंसार पारगा।" -- प्राचारांग सूत्र १३।३
--सूत्रकृतांग, १।११।२१. ४. "भगवती पाराघना, मूल गाथा स० ८३५.८५२ "भामियव्य हियं सच्चं।" सखारामदोशी, शोलपुर, स० ई० १६३५.
-- उत्तराध्ययन सूत्र, अध्याय १६, गापा २७.
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अपदेस सत्तमज्झं
श्री 'समयसार' की १५वीं गाथा के तृतीय चरण के दो रूप मिलते हैं- (१) 'श्रवदेससुत्तमम्भ' धोर (२) 'प्रपदेश संतमज्' । प्रोर इस पर संस्कृत टीकाएँ भी दो प्राचायों को मिलती हैं- श्री जयसेनाचार्य पौर श्री मृतचन्द्राचार्य को ।
प्राचार्य जयसेन की टीका के देखने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि उनके समक्ष 'प्रपदेससुत्तमज्झ' पद रहा भोर उन्होंने इसी पद को प्राश्रय कर टीका लिखी । टीका मे पूरे पद को जिन शासन का विशेषण माना गया है और 'सुत्त' शब्द को दृष्टि में रख कर तदनुसार ही 'प्रपदेस' शब्द का व्युत्पत्तिपरक घर्थ विठाया गया है। उक्त अर्थ 'सुत्त' शब्द के सन्दर्भ में पूरा-पूरा सही और विधिपूर्ण बैठ रहा है । कदाचित यदि 'सत' शब्द किन्हीं प्रतियो मे न होता तो पूरे पद के प्रथं मे संभवतः प्रवश्य ही विवाद न उठता । प्राचार्य जयसेन अपनी टीका मे लिखते है -
'प्रदेससुत्त मज्भ' प्रपदेशसूत्रमध्य प्रपदिश्यतेऽर्थो येन स भवत्यपदेशः शब्दो द्रव्यश्रुतम् इति यावत् सूत्र परिच्छित्तिरूपं भावश्रुतं ज्ञानसमयइति तेन शब्दसमयेन वाच्यं ज्ञान समयेन परिच्छेद्यमपदेशसूत्रमध्यं भाष्यत इति ।'
जिससे पदार्थ बताया- दर्शाया जाता है वह 'प्रपदेस' होता है अर्थात् शब्द | यानी द्रव्यश्रुत । 'सुत्तं' का भाव है ज्ञान समय प्रर्थात् भावश्रुत। ये भाव उक्त टीका से स्पष्ट फलित होता है । इन प्राचार्य ने 'संत' शब्द का अपनी टीका में कही कोई भो उल्लेख नही किया ।
जहाँ तक श्री प्रमृतचन्द्राचार्य की टीका का संबंध है, उन्होंने १५वी गाथा को पूर्व प्रसंग मे भाई १४वी गाथा के प्रकाश मे देखा है। उनके समक्ष 'सुत्त' शब्द रहा प्रतीत नहीं होता अन्यथा कोई कारण नहीं कि वे टीका में उसे न छूते । उनकी दोनों गाथाओंों को (दोनों की टीकामों मे )
[] श्री पद्मचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली
समता तो है ही साथ ही प्रात्मा और जिनशासन में अभेदमूलक भाव (गाथाओं के अनुरूप ) भी है पर उन्होंने गाथा के तृतीय चरण को श्री जयसेनाचार्य की भाँति, जिनवाणी का विशेषण नही बनाया भोर तृतीय चरण की टीका भरमा का विशेषण बना कर ही लिखी । ऐसा प्रतीत होता है कि अवश्य ही उनके समक्ष 'सुत' के स्थान पर कोई ऐसा अन्य शब्द रहा होगा जो १४वीं गाथा में गुहीत श्रात्मा के सभी (पाच) विशेषणों की संख्या पूर्ति करता हो । वह शब्द क्या हो सकता है ? क्या 'संत' सत्त' या 'मत्त' जैसा कोई अन्य शब्द भी हो सकता है ? यह विचारणीय है ।
हमारे समक्ष १४बों व १५वीं दोनों गाथाएँ श्रौर दोनों पर श्री प्रमृतचन्द्राचार्य की टीकाएँ उपस्थित हैंगाथा १४ - जो परसदि श्रप्पाण प्रबद्धपुट्ठे भ्रणण्णयणियद । प्रविसे समजुत्त ।। १४ ।। समयसार टीका- 'या खलु प्रबद्धस्पृष्टस्यानन्यस्य नियतस्याविशेषस्यासंयुक्तस्य चात्मनोऽनुभूतिः सात्वनुभूतिरात्मव ।'
गाथा १५- 'जो पस्सदि प्रप्पाणं प्रबद्धपुट्ठे घणण्णम विसेसं । प्रपदेस संत मज्भं... ।।१५।। समयसार टोका-येयमबद्धस्पृष्टस्यानन्यस्य नियतस्याविशेषस्थासंयुक्तस्य चात्मनोऽनुभूतिः शासनस्यानुभूतिः ।---
उक्त दोनो गाथाएँ और उनकी टीकाएँ भ्रात्मानुभूति व जिनशासन धनुभूति (दोनों) मे प्रभेदपन दर्शाती हैं प्रर्थात् जो प्रात्मानुभूति है घोर जो जिनशासन की अनुभूति है वही प्रात्मानुभूति है ।
प्रथम गाथा नम्बर १४ में मात्मा के पांच विशेषण हैं- ( १ ) प्रबद्धस्पृष्ट (२) अनन्य ( ३ ) नियत (४)
जिन
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प्रवेस सलम
प्रविशेष धौर (५) संयुक्त दोनों गाथाओं की टीका के अनुसार ये पाँचों ही विशेषण गाथा (मूल) १५ में भी बंठने चाहिए। स्थूल दृष्टि से देखने पर गाथा १५ में प्रबद्धस्पृष्ट, अनम्य भोर भविशेष ये तीन विशेषण स्पष्ट समझ में पा जाते हैं तथा 'नियत' मोर 'प्रसंयुक्त' दो विशेषण दृष्टि से श्रोत रहते हैं जबकि टीका में पाँचों विशेषणों का उल्लेख है। पाठकों को ये ऐसी पहेली बन गए हैं जैसी पहेलियां पत्रिकायों में प्रायः चित्रों के माध्यम से प्रकाशित होती रहती है। जैसे यहाँ इस चित्र मे दो पुरुष एक कुला एक चिड़िया छिपे है - उन्हें ढूढो । उनके ढूंढने मे मे दृष्टि घोर बुद्धि का व्यायाम होता है और वे तब कहीं मिल पाते हैं । इसी प्रकार गाथा के तृतीय चरण में ऐसा धौर ऐसे से भी अधिक व्यायाम किया जाय तब कहीं विशेषणों का भाव बुद्धि में फलित हो । पाठक विचारों कि कहीं ऐसा तो नही है ?
प्राचार्य कुन्दकुन्द मूल और प्राचार्य प्रमृतचन्द्र की टीकाओं के अनुसार 'नियत' और 'प्रसयुक्त' विशेषण इस भाति ठीक बैठ जाते हो -
(१) 'नियत' अर्थात् सभी भाँति निश्चित, एकरूप, अचल, जो अपने स्थान - स्वरूप प्रादि से चल न हो, भन्य स्थान से जिसका संबंध ही न हो - प्रपने मे ही होप्रर्थात् 'भपगता:' ( दूरीभूताः ) धन्ये देशाः यस्मात् सः पदेशः तं देशं नियतं म्रात्मानम् अथवा देवेभ्यः ( श्रभ्य स्थानेभ्यः) प्रपगतः अपदेशः त नियत मात्मानम् ।' यह अर्थ टीका में धाए नियत विशेषण को विधिवत् बिठा देता है घोर टीका की प्रामाणिता भी सिद्ध हो जाती है तथा यह मानने का अवसर भी नही प्राता कि श्री प्रमृतचन्द्राचार्य ने इसकी टीका छोड़ दी है।
—
(२) दुसरा विशेषण है 'प्रसयुक्त' । प्रसंयुक्त का भाव होता है - संयोग रहित - एकाकी - सत्वरूप या स्वत्व में विद्यमान जो स्व मे होगा उसमें संयोग कैसा ? अर्थात संयोग नहीं ही होगा जो संयोग में नहीं होगा उसमें पर कैसा ? ये 'संयुक्त' पर्थ 'सत्तमम् (सत्यमध्य) से घटित हो जाता है। क्योंकि -सत ( सत्त्व) का अर्थ 'चेतन' भी है और मारमा चेतन है-चेतन चेतन के मध्य अर्थात् म्रात्मा को म्रात्माके मध्य, जो देखता वह जिनशासन
को देखता है। 'पाइयसद महण्णव' कोष में लिखा हैसत [ सत्व] प्राणी, जीव-चेतन पृ० १०७६ संस्कृत में सत्य का पर्थ जीव है ही। यदि 'सल' के स्थान पर 'मत्त' माना जाय तब भी 'अपदेसमसमभं इस स्थिति में 'प्रपदे + प्रत + मज्भ' खंड करके 'मत्त' शब्द से आत्मा अर्थ कर सकते है । प्राचार्य कुन्दकुन्द ने स्वयं भी 'स' शब्दात्मा के लिए प्रयोग किया है। तथाहि'कत्तातस्तुव भोगस्स होइ सो प्रभावस्स २४|
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-समयसार
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इस प्रकार संभावना है कि 'संत शब्द का मूल रूप 'सत्त' या 'मत्त' ही रहा हो भौर जो यदा-कदा सकार के ऊपर बिन्दु ले बैठा हो या मकार का सकार हो गया हो जैसा कि प्रायः लिपिकारों से हो जाता है। यह बात तो बिल्कुल ठीक है कि प्राचार्य प्रमृतन्य जी की टीका देखते हुए 'अपदेस पद का यही रूप होना चाहिए जो नियत और संयुक्त विशेषणों की पुष्टि करता हो। 'सुत्त' शब्द मी विचारणीय है । कदाचित इसका संस्कृत रूप 'स्व' होता हो। क्योंकि 'स्वत्व' का अर्थ स्वपन स्वरूप प्रात्मा मे होता है । मेरी दृष्टि मे प्रभी 'स्वत्त्व' की प्राकृत 'सुत' देखने में नहीं भाई । विद्वज्जन विचारें ।
एक बात और प्राचार्य कुन्दकुन्द की यह परिपाटी भी रही है कि वे एक ही गाथा को यदा-कदा भल्प परिवर्तनों के साथ दुहरा देते रहे हैं-गाथा मे कुछ ही शब्द परिवर्तन करते रहे है। यहाँ भी यही बात हुई हैउदाहरणार्थ जैसे
"
'यहि व दोसवि कसायकम्मे चैव जे माया । तेहि परिणमतो शयाई बंधदि पुणो वि ।। २६१ ।। * 3 'रायम्हि य दोसम्हि य कसायकम्मेसु चैव जे भावा । तेहि परिणमतो शयाई बंदे देवा ।। २६२ ।' 'पण्णाए बिल जो बेवा सो यहं तु णिडयो। प्रवसेसा जे भावा ते मज्झ परेति णायग्वा ॥ २६७॥ पाए घितवो जो बहुत सो मह तु पिच्छयदो ।
दु
बसेमा जे भाषा ते मम परेति णावया ॥२९८॥ पण्णाए घिसन्बो जो जावा सो महंतु णिच्छय दो । (शेष पृष्ठ ८ पर)
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ज्ञानानंद श्रावकाचार : एक परिचय
पं०बंशीधर शास्त्री, जयपुर
राजस्थान के कुछ मंदिरो में ढूंढारी में गद्य में लिखित ज्ञात हुमा कि यह समाधिमरण 'ज्ञानानंद प्रावकाचार' का समाधिमरण की प्रतियां मिलती हैं जिन पर लेखक का अश है। तत्पश्चात मैंने इस श्रावकाचार को पढ़ा। भाज नाम या परिचय नहीं मिलता है। चौमूं में इस समाधि- से ५१ वर्ष पूर्व श्री ईश्वरलाल किसनदास कापड़िया सूरत मरण का वाचन दशलक्षण के दिनों में किया जाता था। ने इसे मुद्रित किया था इसका दूसरा संस्करण देखने में मझे इसकी भाषा, शैली व भाव बहुत ही रुचिकर लगे। नहीं पाया। मैंने इसका हिन्दी अनुवाद भी किया था। कुछ वर्षों पूर्व इसके लेम्बक पं० रायमल्ल जो है जो पंडित प्रवर (पृष्ठ ७ का शेषांश)
टोडरमलजी के समकालीन ही नही अपितु उनके प्रेरक भी प्रवसेसा जे भावा ते मा परेत्ति णायब्बा ॥२६६॥' थे जैसा कि म्वयं पडित टोडरमल जी ने लिखा है
-समयसार (कुन्दकुन्दाचार्य) रायमल साधर्मी एक, धर्म सवैया सहित विवेक । सो उक्त सदर्भ से भी इसी बात की पुष्टि होती है कि नानाविध प्रेरक भयो, तब यह उत्तम कारज थयो। प्राचार्य ने प्रात्मानुभति और जिनशासनानुभूति मे अभेद पंडित दौलतराम जी ने पद्मपुराण की प्रशस्ति मे दर्शाने के लिए १४वी गाथा को थोड़े फेर बदल के साथ इनके लिए इस प्रकार लिखा है : १५वी गाथा में भी प्रात्मा के वे सभी विशेषण दुहराए है रायमल्ल साधर्मी एक, जाके घट मे स्वपर विवेक जो कि गाथा १४वी मे है।
दयावंत गुणवान सुजान, पर उपगारी परम निधान । इसे 'संत' शब्द मानकर, उसका शान्त प्रर्थ करना
दौलतराम सुताको मित्र, तासो भाष्यों वचन पवित्र, उचित नही जंचता। यत: जिस प्रात्मस्वरूप को यहाँ
पद्मपुराण महाशुभ प्रथ, तामे लोक शिखर को पन्थ । चर्चा है बह शान्त पोर प्रशान्त दोनो ही अवस्थामों से
भाषारूप होय जो यह बहुजन बाचे कर पति नेह, ताके रहित-परमपारणामिक भाव रूप है।
वचन हिए मे घार, भाषा कीनी मति अनुमार। इसी प्रकार अपदेश शब्द का प्रप्रदेशी मथं भी प्रागम
पडित दौलतराम जी ने हरिवंश पुगण में भी रचना विरुद्ध है यत: मात्मा निश्चय से प्रसंख्यातप्रदेशी व्यवहार
के लिए प्रेरक के रूप में श्री रायमल्ल जी के लिए से शरीर प्रमाणरूप प्रसख्यात प्रदेशी है । शरीरज्माणरूप प्रसंख्यात:।
लिखा है। उक्त सभी विचारों में मेरा प्राग्रह नही पाठक पं० रायमल्ल जी यावज्जीवन ब्रह्मचारी रहे मोर विचारें । ओ युक्ति-युक्त हो उसे ही ग्रहण करें।
सदा धर्म प्रचार शास्त्र स्वाध्याय, तत्त्व चर्चा, चितन-मनन 'मज्झ' का प्रथं मध्य होता हो ऐसा ही नहीं है। मे लीन रहने वाले थे। वे अन्य विद्वानों को शास्त्र रचना माचार्य कुन्दकुन्द ने इस शब्द का प्रयोग 'मेरा' पर्थ मे भी की प्रेरणा देते रहते थे। उनकी प्रेरणा से गोम्मटसार, किया है। प्रसंग मे 'मेरा' अर्थ से भी पूर्ण संगति बेठ लषिसार, क्षपणासार त्रिलोकसार, पद्मपुराण, हरिवश जाती है। 'मेरा' अर्थ में प्राचार्य के प्रयोग
पुराण मादि महान ग्रंथों की हिन्दी टीकाएँ लिखी गई। 'होहिदि पुणो वि मज्झ'-२१ 'ज भास मज्झमिण'-२४
उन्होंने स्वयं भी दो ग्रंथ लिखे, ज्ञानानन्द श्रावकाचार एवं 'मज्झमिणं पोग्गलं दव्वं'-२५ --समयसार चर्चा साराश । प्रथम अथ एक बार प्रकाशित हो चुका है
0 जबकि दूसरा अभी भी मप्रकाशित ही है।
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जानानंद बावकाचार : एक परिचय
इस प्रथम ग्रंथ की ख्याति पहले पं० टोडरमल जी किया गया है। इसमें मंगलाचरण के रूप में पंच परमेष्ठी द्वारा रचित के रूप में भी रही है। कई हस्तलिखित का स्वरूप भी प्रकाशित प्रथ के २६ पृष्ठों में दिया गया प्रतियों में लेखक के रूप में पडित टोडरमल जी का नाम है। वस्तुतः पच परमेष्ठी के सच्चे स्वरूप को श्रद्धा व रहा है इसलिए ऐसा भ्रम होना स्वाभाविक है; किन्तु समझ करने वाला ही अपना कल्याण कर सकता है। ऐसा इसकी भाषा एवं शैली पंडित टोडरमल जी जैसी नही है। व्यक्ति कुदेव, कुगुरु की श्रद्धा रूप गहीत मिथ्यात्व में नहीं प्रतः पं० मिलापचंदजी कटारिया ने जन सन्देश के फंसेगा यह तो निश्चित है उन्होने भगवान के उपदेश का शोधांक ८-७-६० में सिद्ध किया है कि पंडित टोडरमलजी इस प्रकार वर्णन किया है :कृत कोई श्रावकाचार नहीं है, फिर भी यह जरूर है रे भव्य जीवो! कुदेवों को पाने से अनंत संसार कि, ज्ञानानंद श्रावकाचार शब्दशः टोडरमलजी कृत न होने में भ्रमण करोगे और नरकाविक के दुःख भोगोगे और पर भी प्रर्थशः उनका माना जा सकता है क्योंकि प०
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unified गयमल्ल जी दोनों धार्मिक और साहित्यिक कार्यों में न
काया में सहोगे निज स्वरूप को वाराधना करोगे तो नियम करि परस्पर एक-दूसरे के साथी थे।
मोक्ष सुख को पावोगे।" २६२ पृष्ठ के प्रकाशित ग्रंथ में इसका नाम 'ज्ञानानद पाठक देखेंगे कि लेखक ने
स्व के । श्रावकाचार' दिया गया है जबकि लेखक ने इसके न बताकर मंद क्लेश ही बताया है और मोक्ष सुख मंगलाचरण के बाद इसका पूरा नाम इस प्रकार लिखा को ही सुख कहा है जो लोग सामारिक सुखों के प्राकर्षण है-'ज्ञानानन्द पूरित निरभर निजरस श्रावकाचार ।' में पडकर कुदेवादि की भक्ति मे या अन्य देवों की भक्ति लोक मे इस बड़े नाम के बजाय ज्ञानानंद श्रावकाचार' मे ही लीन रह कर सन्तोष करते है वे वास्तविक सुख नाम ही अधिक प्रचलित है। पद्य श्लोक मे अनेक नही पाते। लेखक ने भक्ति व्रतादि में भी निज स्वरूप श्रावकाचार मिलते हैं किन्तु गद्य मे यह पहला श्रावकाचार एवं वीतरागता की महिमा को ही मुरूपता दी है। वस्तुत: देखने मे पाया है । लेखक प्रपने बाल्यकाल से ही विद्वानों प्रत्येक सम्यग्दृष्टि अपने गुणस्थानानुसार सच्चेदेव, शास्त्र के साथ चर्चा वार्ता एवं स्वाध्याय के द्वारा ज्ञानार्जन करते गुरु की भक्ति एव व्रतादि का पालन करता है किन्तु रहे है। उन्होने उसी ज्ञान पोर अनुभव का इस ग्रंथ को उसका मूल लक्ष्य निज स्वरूप को प्राप्ति ही है। इसमे रचना में उपयोग किया है, वे इस रचना में भी अपने श्रावकाचारों के पारंपरिक वर्णनों-प्रष्टमूलगुण. सप्तव्यसन अनुभव ही का वर्णन करते हैं। इसीलिए उन्होंने ६ दोहो त्याग, बारह व्रत एव ग्यारह प्रतिमा प्रादि के सिवा अन्य मे मंगलाचरण कर प्रथम वाक्य इस प्रकार लिखा है, "इस उपयोगी, विवेकपूर्ण विषयों का विवेचन किया गया है जो प्रकार मंगलाचरण पूर्वक अपने इष्टदेव को नमस्कार कर अन्य श्रावकाचारों में सुलभ नहीं है किन्तु उसका ज्ञान ज्ञानानन्द पूरित निजरस नाम शास्त्र ताका अनुभव श्रावक के प्राचरणों में सुधार के लिए पावश्यक है। करूंगा।"
इसमे जहा रात्रि भोजन का स्वरूप व दोष बताया इन्होंने पंडित टोडरमलजी को तरह विभिन्न प्रश्न गया है वहां रात मे चूल्हा भी जलाने के दोष बताये गये स्वयं उठाकर पाठकों के लिए उनका समाधान भी किया है। इसमे अनछने पानी को प्रयोग में लेने के दोष भी है। उन्होंने प्राचीन मान्य श्रावकाचारो एव प्रागम ग्रन्थों बताए गए हैं। सप्त व्यसनो मे प्रमुख व्यसन जुमा के का रहस्य साधारण पाठको के लिए प्रस्तुत कर वीतराग विशेष दोनों का वर्णन किया गया है। रसाई करन को धर्म प्राप्त करने की प्रेरणा दी है।
सावधानीपूर्ण विधि भी बताई गई है ताकि कम-स कम इस ग्रन्थ मे श्रावकाचारो की मान्य परम्परा के हिसा हो; इसमे निम्न वसायो एव क्रिपामो में मनुसार प्रष्ट मूलगुण, ग्यारह प्रतिमानों, बारह व्रतों, प्रसावधानी या सहज होने वाले दोषो का विवेचन किया सप्त व्यसन त्याग का पूर्ण विवरण सरल भाषा में प्रस्तुत गया है ताकि श्रावक इन दोषों से बचें :
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१०, वर्ष ३३, कि०३
अनेकान्त
खेती, काड़े धोने व रणने में दोष, हलवाई का भोजन पडित प्रवर टोडरमलजी द्वारा जैन शास्त्रो के करने में दोष, कांजी, पाचार, जलेबी, शहद खाने व अन्य सिद्धांतो के प्रचार से भट्टारक परम्परा को स्वत. जबरदस्त व्यक्तियों के माथ बामिल जीमने मे दोष, रजस्वला स्त्री धक्का लगा किन्तु यह भट्रारक परम्परा क्या थी भोर के साहचर्य प्रादि में दोप।
क्यो बुरी थी इसका विस्तृत वर्णन १० टोडरमलजी के इममे दूध, घी, छाल व घृत को किस प्रकार मर्यादित ग्रंथों में भी नहीं मिलता। पं० टोडरमलजी के ही प्रेरक प से रखना चाहिए इसका भी वर्णन है। इन्होने दूध की पं० रायमल जी ने अपने इस ग्रथ मे भट्रारको की शास्त्र मर्या। दो घडी बताई है, दूध निकालने के दो घडी भीतर विरुद्ध चर्चामों का यथावसर विस्तृत वर्णन किया है इसमे पी लेना चाहिए या गरम कर लेना चाहिए, नही तो उसमे हमें उनके सम्बन्ध में प्रामाणिक जानकारी मिलती है। उसकाय के जीवो की उत्पत्ति होना लिखी है। इसी प्रकार भट्टारकों एवं उनके प्राश्रित 'पाण्डे' लोगो की दही का उपयोग पाठ प्रहर मे कर लेना चाहिए। प्राहार रचनाओं में भट्टारक का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन मिलता के विभिन्न पदार्थों के उपयोग की अवधि के सबध में है। उन्हें प्राचार्यों उपाध्यायों, मुनियों का प्रमुख उल्लेग अठारहवी शताब्दि के अन्य दो क्रियाकोषो में भी प्राध्यात्मिक मण्डलाचार्य, पूर्ण सयमी साघु, महाव्रती मादि मिलते है, इनका प्राचीन प्राधार क्या रहा है यह प्रादि बताया गवा है । संभवत: उस समय उनसे प्रभावित देखने मे नही पाया फिर भी इन मर्यादानों को सत्यता व प्राश्रित लोग उन्हे उमी रूप में मानते भी हों, किन्तु माज वैज्ञानिक परीक्षणो से सिद्ध की जा सकती है। जैनागम के शास्त्रीय माधार पर वे साधु तो दूर क्षुल्लक मनल ने पानी, रात्रि मे भोजन या मर्यादा काल के बाद ऐलक भी नही ठहरते। उन पाचरणों के प्राधार पर तो के भोजनो के वैज्ञानिक परीक्षण कर सिद्ध करना प्रावश्यक उन्हें सच्चा श्रावक कहने में भी संकोच होगा। माज के है कि इनमे क्या-क्यादोष हैं। प्राज मेलों, मदिरो के नाम इतिहासकार को इन अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णनो का उल्लेख पर ऐसे स्थान पर भी लाखो रुपए खर्च किए जाते है जहाँ करने के साथ इनको शास्त्रीय स्थिति का उल्लेख अवश्य इनकी कतई भावश्यकता नही है। यदि यही रुपया इन करना चाहिए ताकि पाठक को सही जानकारी मिले वैज्ञानिक परीक्षणो मे लगाया जाय तो जैन धर्म की सच्ची अन्यथा इनके मात्र प्रतिशयोक्ति पूर्ण वर्णनो एक विशेषणों प्रभावना होगी एव उससे समस्त विश्व को जैन पाहार के उल्लेग्व मे दिगम्बर साधु चर्या के सम्बन्ध मे लोगों की चर्या की वैज्ञानिकता ज्ञात होगी। हमारी प्रखिल गलत धारणा होगी। इस प्रसग मे 'वीर शासन के भारतीय संस्थानों को इस पोर ध्यान देना चाहिए। प्रभावक गाचार्य' शीर्षक पुस्तक उल्लेखनीय है जिसके भारतीय एवं विदेशी वैज्ञानिको का ध्यान भी इस सम्बन्ध वर्णनो के अनुसार भट्टारक को पूर्णतः सयमी (पृष्ठ ११७) मे भाकर्षित करना चाहिए । साहित्य के शोध के साथ- महाव्रतियो के नायक (पृष्ठ ११८) साधु (पृ० १२०) साथ जैन पाहार चर्या को वैज्ञानिकता सिद्ध किए जाने बताया गया है । कुंदकुद उमास्वामी, समंतभद्र, प्रकलकादि को प्रावश्यकता हम भुला नही सकते।
महान प्राचार्यों को कोटि में ही रखकर इनका वर्णन जैन मंदिरों में प्रज्ञान व कषाय के कारण होने वाले किया गया है । भट्टारक के परिग्रह मादि का कोई उल्लेख ८४ म.सातना के दोषों का विस्तृत उल्लेख किया गया नहीं किया गया है। इससे भविष्य मे भट्टारक दिगम्बर है। इससे लगता है कि लोग उनके काल मे मंदिरों का साधु ही समझे जायेगे।। दुरूपयोग करने लगे थे और उनको वैयक्तिक निवास के इस प्रथ के भट्टारको सम्बन्धी कुछ उदरण माधुनिक रूप में मानने लगे थे। इसलिए वहां रहने, सोने व अन्य हिन्दी में परिवर्तित कर पाठकों की जानकारी के लिए कार्यो के करने का पूर्ण निषेध किया गया। इसमें कुलिगो, प्रस्तुत किए जाते है :श्वेताबर, भष्ट्रारको प्रादि के मत व चर्चा बता कर उनकी सत्पुरुष जिनधर्म की माराधना द्वारा एक मोक्ष को शास्त्र विरुद्धता सिद्ध की गई है।
ही चाहते हैं। वे स्वर्गादि भी नहीं चाहते तब उससे
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मानानंद बावकाचार : एक परिचय
प्राजीविका की क्या बात ? सो हाय ! हाय ! हंडाव. कौन पुरुष मग्न नहीं हो। पृ० (६४.६७) भट्टारकों की सर्पणी काज्ञ के दोष से पचम काल मे कैसी विपरीतता ऐसी स्थिति होते हुए भी उनको प्रशंसा के गीत कहीं कहीं फैली है ? काल या दुकाल मे कोई गरीब लड़का भूखे सुनने को मिलते थे उसके सम्बन्ध में इस प्रथ मे निम्न मरने की स्थिति प्राने पर चार रुपये में नौकर रखा पंक्तियां मिलती है: जाता है। फिर भी वह दास की तरह निर्माल्य खाकर उनकी (भट्टारको को) श्रावक प्रशंसा करते है कि बडा हा। उसने जिन मंदिर में ही रहने का घर क्यिा माप हमारे सतगुरु हैं प्रोर भट्टारक उन्हें 'पुण्यात्मा धावक' पौर उसके शुद्ध देव गुरु धर्म के विनय का प्रभाव हुमा बताते है। इस कएन पर 'ऊंट का व्याह भौर गधे गीत
और वह कुगुरादि सेवन का अधिकारी हुआ, उसने ऐसा गाने वाला' दष्टात लाग होता है। मधे गीत गाते हैं कि पोरों को उपदेश भी दिया। (जययुर के एक मदिर मे वर का स्वरूप कामदेव जैसा है पौर ऊँट कहता है कि ऐसे पत्र मिले है जिनमे किसी पाण्डे द्वाग किसी के लडके गधे किन्नर जाति के देवों के मधुर कंठ के जंता राग को खरीदने का विवरण है) अधे जीव उसी का प्राश्रय गाते हैं इस प्रकार इन श्रावक और उनके गुरुषों की शोभा लेकर धर्म साधना चाहते है। वह अपने को पुजाकर महत जाननी (पृष्ठ १८) इममे ज्ञात होता है कि भट्टारकों के मानने लगा और वह स्वयं अपने मुख से कहता है कि हम प्रतिशयोक्तिपूर्ण विशेषणों को सत्यता स्वीकार करने में भट्टारक दिगम्बर गुरु हैं, हमे पूजो नही पूजोगे ता दण्ड कितनी सावधानी की पावश्यकता है। नया मिरा भरो...
वकी को ग्रंथ मे अन्यत्र भट्टारको को लिगी बताने हुए लिखा साथ लिए फिरते हैं। वस्तुतः भट्रारक नाम तो तीर्थकर गया है ---"कुलिंगी मंदिर को अपने घर की तरह बनाकर केवली का है। जितना-जितना परिग्रह कम हो उतना- गादी तकिये लगाकर ऊँची चोकी पर बैठकर बड़े महत उतना संयम बहना जाय । जबकि वह हजागे रुपए की पुरुषों की तरह अपने पापको पुजाते हैं, इसका फल उन्हे सम्पदा, चढने के लिए हाथी, घोडा, रथ पालकी, नौकर- कैसे मिलेगा यह हम नहीं जानते । • वे गहस्थों को चाकर रखता है, मोती कड़ा पहनता है मानो वह नरक जबरदस्ती बुलाकर माहार लेते है। (पृ० ६६) वे उनसे लक्ष्मी के पाणिग्रहण की तैयारी करता है। वह चेला पाहार और भेंट स्वरूप भंवर-नगदी लेते थे। प्रादि की फौज रखता है वह ऐसी विभूति रखता हा भट्टारकों की इन व अन्य शास्त्र विरुद्ध चर्चायो को राजा के सदृश्य बन कर रहता है, फिर भी अपने पापको देखकर धर्मात्मामो की प्रतिक्रिया का उल्लेख प्रय में इस दिगम्बर (नग्न) मानता है। सो है दिगम्बर, हम कैसे प्रकार किया गया है:-"प्रब क्या करना? केवली उमे दिगम्बर जाने ? वह एक दिगम्बर नही है, वह तो श्रुतकेवली का तो प्रभाव हो गया और गहस्थाचार्य पहले मानो हंडासर्पनी की पंचम काल के विधाता द्वारा घड़ी ही भ्रष्ट हो गए थे प्रब राजा और मुनि भी (भट्रारक हई मूर्ति है.या मानो सान पसनो की मूर्ति ही है या मानों उस समय अपने पापको मुनि रुप में ही पुजत थे) भ्रष्ट पाप का पहाड़ ही है था मानो जगत को डबोने के लिए हो गए सो प्रब धर्म किम के प्राथय रहे? अब चकि प्रपन पत्थर की नाव है। कलिकाल के ये गूरु प्रतिदिन पाहार को धर्म रखना है सो प्रब श्रीजी की स्वय ही पूजा करा ग्रहण करने को नग्नता अपनाते है और स्त्री के लक्षण और स्वय ही शास्त्र पढ़ा पार कुवषियो का जिन मदिर देखने के बहाने उनका स्पर्श करते है। वे स्त्री के मुख में बाहर निकाल दो। वे भगवान का नहुत प्रविनय करने कमल को भ्रमर की तरह देखकर मग्न होते है एव प्राने हैं, अपने पापको पुजाने है, और मदिर का घर सदश बना प्रापको कृत्य-कृत्य हुमा मानने हैं, सो यह बात न्याय ही लिया। १० १११ (उग समय जिन पूजा, शास्त्र पढने है - नित्य इन्हे नाना प्रकार का गरिष्ठ भोजन मिले मौर का अधिकार भी भट्टारको के पादमियो तक था जिसका नित्य नई स्त्री मिले उनके सुख का क्या कहना? ऐसा वे रुपए से लेते थे)। । सुख राजा को भी दुर्लभ होता है सो ऐमा सुख पाकर जब रक्षक पौर धर्मापवेक्षक, धर्म गुरु ही भ्रष्ट हो
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१२, बर्ष ३३, किरण
ममेकाम्स
जाय तो प्रास्म कस्याण का मार्ग यही है कि स्वयं शास्त्र को उद्बोधन माज भी प्रत्येक पाठक क पढ़ो और उस के अनुसार चलो। इसमें तेरापंथी की भी को प्रेरणा देता हमाराग्य की मोर अग्रसर करता है। यह परिभाषा दी है - हे भगवान हो थाका वचना के पाठकों से मेरा अनुरोध है कि वे इस 'श्रावकाचार' को अनुसार चला तात तेरापंथी हों, तो सिवाय मोर पूरा न पढ़ सके तो इसके समाधिमरण अंश को अवश्य कुदेवादिक को हम नाही सेवे है।।
पढ़ें। इसके कुछ भावपूर्ण उद्धरण यहाँ देना मावश्यक भट्टारको का यह ऐतिहासिक एवं प्रामाणिक वर्णन समझता हूं ताकि पाठकों को लेखक के ज्ञान एव वैराग्य हमें सावधान करने के लिए पर्याप्त है। परिग्रहधारी साधु तथा पारमानुभव का सही बोध होरूप में पूजा जावे यह दिगम्बर जैन परम्परा में मान्य "तीन लोक मे जितने पदार्थ हैं वे सब अपने स्वभावनहीं हो सकता फिर भी लोगो के प्रज्ञानवश ऐसे व्यक्ति रूप परिणमन करते हैं। कोई किसी का कत्ता नहीं कोई साध माने जाते है। किन्तु पाश्चर्य और द ख साथ ही किसी का भोक्ता नही । सत्य ही उत्पन्न होता है, स्वयं ही करुणा तब होती हैं जब शास्त्रों के जानकार भी परिग्रही नष्ट होता है, स्वय ही मिलता है, स्वयं ही विछहता है, सवस्त्र भट्रारकों का समर्थन करते हैं। ऐसी स्थिति में स्वयं ही गलता है तो मैं इस शरीर का कर्ता भोर भोक्ता लेखक का यह मत ही कल्याणकारी है कि स्वय शास्त्र कैसे?" पढो, स्वय पूजा करो। कुछ लोग यह कह सकते है कि मैं ज्ञायक स्वभाव ही का कर्ता प्रौर भोक्ता हूं और यह वर्णन भट्रारकों के विरोधियों द्वारा लिखा गया है उसी का वेदन एवं अनुभव करता हूं । इम शरीर के जाने इसलिए प्रामाणिक नही माना जा सकता, किन्तु यह वर्णन से मेरा कुछ भी बिगाड़ नही और इसके रहने से कुछ अन्य प्रामाणिक व प्रत्यक्ष साधनो से भी मही सिद्ध होता सुधार नहीं। यह तो प्रत्यक्ष ही काष्ठ या पापाण की है। भट्रारक पंच महावत लेकर परिग्रह रखते है, वस्त्रादि तरह प्रचेतन द्रव्य है।" रखते है. नग्न भी कभी-कभी होते है, पाहार के साथ भेंट "काल (मृत्य) भी दीड-दौड़ कर शरीर ही को प्रादि लेते हैं, मंत्र-तत्र के द्वारा लोगो को प्राकर्षित पकड़ता है और मेरे से दूर भागता है।" करते हैं।
"ब मेरा मोह कर्म नष्ट हो गया इसलिए जैसा इस अन्य में श्रावको के तत्त्व चितन के लिए सोलह वस्तु का स्वभाव है वंसा हो मुझे दृष्टिगोचर होता है। कारण भावना, दश लेक्षण, रत्नत्रय, सप्त तत्त्व, नव उसमें जन्म-मरण, सुख-दुःख दिखाई नहीं देते। अब मैं पटवारह अनुप्रेक्षा, बारह तप, बारह संयम, सामधिक किम बात का सोच-विचार करूं?" पालिका भी सुन्दर विवेचन किया गया है। श्रावक के मैं तो चैतन्य शक्ति वाला शाश्वत बना रहने वाला अन्तिम कर्म-समाधिमरण का इतना भावात्मक विवेचन हूँ उसका अवलोकन करते हुए दुःख का अनुभव कैसे हो?" किया गया है कि उसका स्वाध्याय प्रेमियो मे स्वतत्र "अब मेरे यथार्थ ज्ञान का भाव हुमा है, मुझे स्व-पर अस्तित्व स्वीकार किया जाता रहा जैसा कि मैंने प्रारम्भ का विवेक हो गया है। अब मुझे ठगने मे कोन समर्थ है ?" म उल्लेख किया है।
'मैं सिद्ध समान मात्मा द्रव्य मे पर्याय मे" नाना श्री जिनदर्शन-स्तुति का फल स्वर्ग बताते हुए स्वर्ग प्रकार को चेष्टा करता हुमा भी अपनी मोक्ष लक्ष्मी को का वर्णन किया गया है। और समाधिमरण का वर्णन नही भूलता हूं तब मैं लोक मे किसका भय करू ?" कर माक्ष सुख का वर्णन किया गया है। श्रावक कुगुरु- "शरीर जड़ पौर मात्मा चैतन्य-ऊट-बैल का सा इन भूदेव सब इसलिए उसका स्वरूप भी बताया गया है। दोनों का संयोग कैसे बने ?"
ग्रन्थ क 'समाधिमरण' में प्रयुक्त समाधिमरण करने "समाधिमरण करने वाला कुटुम्बियों से कहता हैवाले की विचारधारा लेखक के 'शास्त्रीय चितन' की माप हमसे किसी बात का राग न करें। मापके पौर महत्ता सिद्ध करती है, वह विचारधारा एवं परिवार वालों
(शेष पृष्ठ १५ पर)
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जैन तीर्थंकरों का जन्म क्षत्रिय कुल में ही क्यों ?
0 श्री गणेशप्रसाद जैन
यह प्राज का नहीं, एक प्राचीन प्रश्न है कि जैन. सिद्धार्थ की पत्नी क्षत्राणी त्रिश ना देवी के गर्भ में परिवर्तित तीर्थंकरों का जन्म क्षत्रिय-कुलों में ही क्यों होता है ? जब कराने का निर्णय किया। इस कल्पना के समर्थन में श्वेताम्बर मागम ग्रन्थों मे तीर्थकर का जन्म क्षत्रिय-कूल के अतिरिक्त अन्यत्र भगवान महावीर के गर्भ परिवर्तन को कथा प्रस्तुत की और कही तो हो नही सकता, इसी नियम की पूर्ति के लिए जाती है, तब यह भौर भी विस्मयपूर्ण-जिज्ञासा तर्क रूप इन्द्र ने अपने सेनापति नंगमेष देय को महावीर के भ्रूण ग्रहण कर लेती है। परन्तु दिगम्बर परम्परा इस मान्यता
को परिवर्तित करने का भार सौंपा। नंगमेष ने क्षत्रियको पूर्णरूपेण अम्वीकार करती है, इससे यह और भी
कुण्ड मे त्रिशला देवी की कन्या के भ्रूण को ब्राह्मणो देवा. विचारणीय विषय बन गया है ।
नन्दा के गर्भ में पोर वेवानन्दा के गर्भ में स्थित भावी कहा जाता है कि भगवान महावीर के गर्भ-परिवर्तन तीर्थंकर महावीर के भ्रूण को त्रिशला रानी के गर्भ में को कथा श्रीमद्भागवल के दशम् म्वन्ध (१०२ श्लोक परिवर्तित कर दिया। गर्भ-परिवर्तन-काल मे दोनो मातामो १.१३, तथा प्र० २ श्लोक ४६ ५०) के श्रीकृष्ण की कथा को नंगमेष ने मोह-निदा मे सुला दिया था। इस कारण से पूर्ण प्रभावित है। भक्तिकाल में अपने प्राराध्यो की दोनो में से किसी को भी प्राभास तक नही हमा। चमत्कार पूर्ण कथाम्रो का प्रचार कर उन पर जन-श्रद्धा
श्वेताम्बर-माम्नाय के प्रमुख ग्रन्थ फल्पसूत्र की प्रोत्साहित करने का युग था। इसके लिए विविध ढंग
सुबोधिनी-टीका में उल्लिखित है कि 'महावीर का जीव' अपनाए गये।
जब प्रथम तीर्थंकर श्री वृषभनाथ का पौत्र और चक्रवर्ती सक्षेप मे कथासार इस प्रकार से है-जम्बूद्वीप के भरत का पुत्र मारीच था, तब उसने कुल का गर्व करके भरतक्षेत्र में वैशाली गणतन्त्र के उपनगर ब्राह्मण-कुण्ड नोच गोत्र का बन्ध कर लिया था, प्रतः उसके प्रतिफल के वृषभदत नाम के ब्राह्मण की पत्नी देवानन्दा के गर्भ मे स्वरूप उसे ब्राह्मणी के गर्भ मे ८२ दिन भ्रूण रूप में नन्दन मनि का जीव (महावीर का जीव) दसवें देवलोक निवास करना पड़ा। से च्युत होकर पाया । इमी रात्रि को पिछले प्रहर में स्वामी कर्मानन्द ने लिखा है कि "इतिहास के पर्यावब्राह्मणी देवानन्दा ने भावी तीर्थकर की माता के सूचक लोचन से ज्ञात होता है कि पूर्व काल में प्रास्मविया केवल चौदह (१४) स्वप्न देखे। यह गर्भ ८३ (तेरासी) दिनों मात्र क्षत्रियों के पास ही थी। ब्राह्मण जन इससे नितान्त तक ब्राह्मणी देवानन्या के गर्म में वृद्धि पाता र
अनभिज्ञ रहे। ब्राह्मणों ने मंत्रियों का शिष्यत्व स्वीकार बब इन्द्र का सिंहासन कम्पित हपा, तब उसने कर इस विद्या को प्राप्त किया है। बहदारण्यक उपनिषद विचारा कि मेरे सिंहासन के कम्पित होने का कारण क्या ११-१३) में वर्णित है कि "महाराजा जनक । प्रताप होना चाहिए? उसे ज्ञात हा कि भावी तीर्थकर महावीर इस विद्या के कारण इतना फैला कि काशीराज प्रजातशत्रु का जीव जिसे क्षत्रिय कुल मे ही जन्म लेना चाहिए था, ने निराश होकर कहा था कि सचमुच ही सब लोग यह वह वंशाली के सनगर ब्राह्मणकुण्ड के ब्राह्मण वृषभदत्त कह कर भाग जाते है कि हमारा रक्षक महाराजा जनक की पत्नी देवावमा के गर्भ म स्थित हा पोषण पा रहा है। ही है। काशीराज प्रजातपात्र स्वयं भी प्रध्यात्म विद्या के ब उसने महावीर के उस भ्रूण को क्षत्रियकुण्ड के शासक महान प्राचार्य थे। वह प्रात्मतत्त्वेता थे।
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१४,
३३, कि०३
अनेकान्त
शतपथब्राह्मण में लिखित है कि महाराजा जनक की राय (प्रश्वपति) के पास ले गये। कैकेयराज ने उन्हे मेंट तीन उद्भट विद्वान ब्राह्मणो से हुई। महाराजा जनक शिष्यवत देख कर प्रात्मज्ञान प्राप्त करने की विधियाँ ने उनसे 'मग्निहोत्र' विषय के प्रश्न किये जिसका उत्तर वे बतला दी और उपदेश देकर उनकी शकाओं का निवारण न दे सके। महाराजा जनक ने जब उनके उत्तरो को भूल कर दिया। उन्हें समझाई, तब कोषित होकर कहने लगे कि जनक कौषितकी उपनिषद की कथानुसार चित्रगगायिनीने हम सबको अपमानित किया है। महाराजा जनक सभा राजा के पास दो ब्राह्मण समितपाणि गये और उन्होने से चले गये उनमे से एक याज्ञवल्क्य नाम का विद्वान् उनसे प्रात्मज्ञान प्राप्त किया। उसी उपनिषद् मे कथित है (ब्राह्मण) महाराजा जनक के गुणों (विद्वत्ता) को पहिचान कि भारतवर्ष के माने हए विद्वान् गाग्यबालामी पौर गया, और वह उनके पीछे पीछेगया। मार्ग में महाराज
काशीराज गजातशत्रु को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा था।
का जाना जनक से मननय-विनय कर उन में अपनी शंकाम्रो का किन्त पराजित बालामो ने काशीराजका शिष्यत्व स्वीकार समाधान किया।
किया और काशीराज ने उसे उसी प्रकार से प्रात्म-विद्या पाजबल्क्य' ने महाराजा जनक को यह कह कर कि का रहस्य बतला दिया। जो ब्रह्म को जाने वह ब्राह्मण से महाराजा जनक ब्रह्मण
इसी राजा प्रजातशत्रु (काशीराज) के पुत्र थे भद्रसेन । है इसका प्रचार और प्रसार किया विश्वामित्र जस क्षत्रिय
हो सकता है कि यही भद्रसेन २३वें जैन तीर्थंकर श्री ऋषि मान्य हो गए थे, उसी प्रकार महाराजा जनक भी
पाशर्वनाथ के पिता हो। जैन शास्त्रों में इनका नाम ब्रह्म-विद्याविशारद ब्राह्मण के विरुद से प्रख्यात हो गये । प्रश्वमैन मिलना है। शतपथ (५.५५) के अनुसार इन्ही यही याज्ञवल्क्य यजुर्वेद के सकलनकर्ता है ।
गजा भद्रसेन परप्रारुणी ऋषि ने मभिचार कर्म किया था। छन्दोग्योपनिषद् (५.३) में वर्णित है कि श्वेतकेतु 'मारुणि' (पारुणेय) पंचालो की एक सभा मे गया, वहाँ
उपर्युक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त ब्राह्मण बहल-प्रन्यों से क्षत्रिय प्रवाहन जयवली ने उससे कुछ प्रश्न पूछे। उन प्रश्नो ऐसे उदाहरण दिए जा सकते है कि 'मात्मविद्या के पारंगत में से एक का भी उत्तर वह न दे पाया। वह उदास मन क्षत्रिय जन ही थे, ब्राह्मण नही । ब्राह्मणों का धर्म क्रियाअपने पिता के पास लौटा, और ऋषि पिता से उन किये काण्ड वाला यज्ञ ज्ञान का था। उपनिषद् शास्त्र अवश्य प्रश्नों का उत्तर मांगा। पिता गोतम भी प्रश्न के उत्तर से ही मध्यात्म विद्या से सम्बन्धित है। उनमे स्थान-स्थान मनभिज्ञ थे, प्रतएव वह पुत्र सहित जयवली के समक्ष गये पर यज्ञादि क्रिया-काण्ड का विरोध किया गया है। लिखा और उसका शिष्यत्व स्वीकार कर उस पात्मविद्या को है-'प्लवा एते प्रदृष्टा यज्ञरूपा' (मण्डकोपनिषद)। प्राप्त कर लिया।
पर्थात यज्ञ रूपी क्रियाकाण्ड उस जीर्ण नौका के समान है उस समय जयवली ने ब्राह्मण गौतम और श्वेतकेतु जिस पर चढ कर पार उतरने की इच्छा रखने वाला जीव भरुणेय को इतना संकेत अवश्य दिया था कि प्राज यह अवश्य डूब जाता है। अत्रियों को इस निधि अध्यात्म (पास्म) विद्या को माप इतिहासकार पार० सी० दत्त की पुस्तक 'सभ्यता का ब्राह्मण जन हमसे प्राप्त कर रहे हैं !
इतिहास' मे लिखा है कि प्रवश्यमेव भत्रियों ने ही इस छन्दोग्योपनिषद् (५.२) भोर शतपथ ब्राह्मण प्रात्मविद्या के उत्तम विचारों को प्रसारित किया। जहां (१०.६.१) मे लिखा है कि पाँच देवज्ञ ब्राह्मणो ने इस अध्यात्म विद्या के विषय मे क्षत्रियों का महत्व था वहाँ जिज्ञासा के साथ कि 'मात्मा क्या है ?' उद्दालक पाहणी पुर्व देश को ही यह गौरव प्राप्त था। पूर्व देश के क्षत्रिय के चरणों में पाणिपात किया। परन्तु भारुणि स्वयं ही राजा विदेह (जनक) एवं काशीराज के अतिरिक्त मगध, प्रास्मा के विषय में संशययुक्त थे, प्रतः उन्होने उन पांचो पांचाल, कैकेय ग्रादि के राजा भी भात्म-विद्या विशारद देवजों के हाथ में समिधा थमाकर उन्हें साथ लेकर कैकेय. थे।
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जैन तीर्थंकरों का जन्म क्षत्रिय कुल में ही क्यों ?
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कैकेय पंजाब में नहीं, नेपाल की तलहटी में श्रावस्ती उपयुक्त घटपामो पौर तथ्यों से सिख है कि भारतसे उत्तर-पूरब (पूर्व) में स्थित था, इसकी राजधानी देश निवासी क्षत्रिय जन हो पात्म धर्म विशारद थे मोर श्वेताम्बिका थी। ईसा से एक हजार वर्ष पूर्व (पनुमानित) विशेषकर मगध के। इसलिए ब्राह्मणों ने मगध का सदा श्वेताम्बिका का शासक 'प्रदेशी श्रमणोपासक' (जिन धर्मी) तिरस्कार किया और भाज भी कर रहे हैं। कहते है था। सम्भवतः वर्तमान सीतामढ़ी ही श्वेताम्बिका है। 'ममघ मरे सो गदहा होय' और इसी भय से रूढ़िवादी जन
ऋग्वेद में 'कुर्वन्ति कीकटेषु गांव' लिखकर मगध को मरने से पूर्ण वृद्धावस्था में ही काशीवास के लिए मगष निन्दा की गई है। इससे यह सिद्ध होता है कि वैदिक काल प्रदेश का त्याग कर देते हैं । मे मगध देश में वैदिक क्रिया काण्डों का भारी विरोध होता
उपर्युक्त तथ्यों से सिद्ध है कि मगध प्रदेश 'मात्मधर्म' था। जन-तीर्थकरों का जन्म तथा अन्य कल्याणक विशेष
का प्रमुख स्थल था, वहाँ ब्राह्मणों के यशयाग को सवा हेय कर मोक्ष कल्याणक (२४ मे से २२ ३1) इसी प्रदेश
माना गया, उसे प्रश्रद्धा से देखा गया। बारम्बार उनके बिहार के हजारीबाग जिले के सम्मेदशिखर-पर्वत (वर्तमान
प्रयत्न निष्फल रहे । प्रतएव उन्होने प्रदेश की बुराई की। नाम पार्श्वनाथ पर्वत) पर हुमा है। कोटाकोटि मनियो ने इस भूमि पर मोक्ष प्राप्त किया है। इस प्रकार से पर्वत तीर्थकर माध्यात्मविद्यानुरागी होते है। त्रियों के का कण-कण पवित्र और तीर्थ क्षेत्र है। जैन धर्मी श्रमणजन यहाँ शिशुकाल मे उन्हे यह प्रात्मविद्या घटी में मिलती वैदिक यज्ञादि का कट्टर विरोध सदा करते रहे । रही, इसीलिए वे क्षत्रिय कुन में ही उत्पन्न होते रहे।
CD
(पृष्ठ १२ का शेषांश) हमारे चार दिन का संयोग था, कोई तल्लीनता तो थी लोगों ने समयसार के साथ मोक्षमार्ग प्रकाश से भी नहीं। जैसे सराय मे अलग-अलग स्थानों के राहो दो दिशाबोध पाया है, यही कारण है कि अनेक प्रबुटों न इन रात ठहरें और फिर बिछुड़ते समय वे दुःखो हों इसमे दोनो प्रग्थों को घर-घर पहुंचाने में नैमित्तिक योगदान कोन सयानापन है, इसी प्रकार हमे बिछुडते समय दुख दिया है। इन दिनों अनेक प्रमुख सस्थाएँ अध्यात्म प्रचार एवं नही है।"
शिक्षण का प्रमुख केन्द्र बन गई है। इन संस्थामो की भोर इस प्रकार हम देखते हैं कि उक्त श्रावकाचार पडित से प० टोडरमल जी एवं उनके प्रेरक पं० राजमल जी, जी की महत्त्वपूर्ण एव ऐतिहासिक रचना है इसके ५० जयचन्द जी जैसे विद्वानों के पाध्यात्मिक एवं वैराग्यअधिकाधिक प्रचार को प्रावश्यकता है। इसके नवीन पूर्ण साहित्य को प्रकाश में लाने का भी प्रयास होना संस्करण के प्रकाशन की आवश्यकता है। पहित जी के पाहिए । पन्य प्रन्य चर्चा-सग्रह अन्य का भी प्रकाशन होना चाहिए
११५२, चाणक्य मार्ग, ताकि उसमें विभिन्न सैद्धांतिक प्रश्नों का उचित समाधान
जयपुर (राजस्थान) पाठको को मिल सके। यह बात ठीक है कि इस युग मे
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रामगुप्त और जैनधर्म शीर्षक लेख पर कुछ विचार
0 वेदप्रकाश गर्ग 'मोकान्त' के 'साह शान्तिप्रसाद जैन स्मृति-प्रक' में के सामने दो ही विकल्प थे। या तो वह शत्र की प्रपमानजोधपुर विश्वविद्य लय के इतिहास-विभाग के प्राध्यापक पूर्ण शर्त को स्वीकार कर अपनी प्राण रक्षा करले या डा० सोहन कृष्ण पुरोहित का 'रामगुप्त और जैन धर्म' फिर युद्ध कर पात्मोत्सर्ग कर दे। रामगुप्त ने प्राणरक्षाशीर्षक एक लेख प्रकाशित हुमा है, जिसमें उन्होंने रामगुप्त हित शत्रु की शतं के अनुसार अपनी पत्नी ध्रवदेवी को के कार्य को उचित ठहराते हुए उसे जैन धर्मानुकूल सिद्ध शकाधिपति को देना स्वीकार किया। इस प्रकार उसने करने की चेष्टा को है, किन्तु लेखक का यह प्रयास प्रथम विकल्प को चुनकर कायरता का ही परिचय दिया। मनोचित्य पूर्ण है। प्रतीत होता है कि उन्होंने जैन धर्म के कोई भी स्वाभिमानी व्यक्ति केवल हिंसा से बचने हेतु सिद्धान्तों को ठीक प्रकार से नहीं समझा है।
किसी अन्य को अपनी पत्नी देकर अपनी रक्षा नहीं करना इतिहास-साक्ष्यो से ज्ञात है कि शक नरेश द्वारा घर चाहेगा । प्रतीत होता है कि लेखक महोदय ने जैनधर्म के लिए जाने पर रामगुप्त ने अपनी पत्नी ध्रुवदेवी को सिद्धान्तों को समझा ही नही है। इसीलिए तो उन्होंने शकाधिपति को देना स्वीकार कर लिया था। अपने इस गमगुप्त की कायरता की जैन धर्म के सिद्धान्तों की प्राड़ कुकृत्य के कारण ही उसकी गुप्त राजवंशावली मे एक मे गलत वकालत की है। जैनधर्म के किसी भी सिद्धान्त कुलकलंकतुल्य की स्थिति स्वीकृत है पौर विशाखदत्त ने से रामगुप्त के कार्य का अनुमोदन नहीं होता। अपने नाटक देवीचन्द्रगुप्तम्' मे इसीलिए उसे एक कायर अहिंसा एक विशिष्ट आचरण है। अहिमा का अर्थ के रूप में चित्रित किया है। डा० पुरोहित ने उक्त कायरता नही है। कायरता तथा उचित हिंसा मे विकल ऐतिहासिक निष्कर्षों से असहमति व्यक्त करते हुए यह होने पर व्यक्ति को उचित हिंसा का अनुसरण करना बतलाने की चेष्टा की है कि रामगुप्त कायर नही था, चाहिए। भन्याय के विरुद्ध उचित हिंसा कायरता से उत्तम अपितु एक कट्टर जैन धर्मावलम्बी नरेश था। इसीलिए है। यह एक प्रकार से हिंसा का ही रूप है। जैन धर्माउसने हिंसा से बचने हेतु अर्थात् जैन धर्म के सिद्धान्तो को नुसार तो अहिंसा वीरो का प्राभूषण है। इसमे कयरत। रक्षा-हेतु अपनी पत्नी ध्रुवदेवी को शकाधिपति को देना को स्थान नहीं है। यह वीर-कृत्य है। इतिहास में ऐसा स्वीकार किया था। लेखक का यह विचार जैनधर्म की कोई उदाहरण नही मिलता, जहाँ किसी जैन धर्मावलम्बी भावना के विपरीत तथा हास्यास्पद है। उनको ऐति- राजा ने अपने धर्म के सिद्धान्तों की रक्षार्थ इस प्रकार का हासिक तथ्यो की यह व्याख्या गलत है।
कदाचरण किया हो। ऐसे सभी राजामो ने जैन धर्मानुयह सही है कि जैन धर्म में अहिंसा को परमधर्म माना यायी होकर हिंसा का समुचित रीति से पालन करते हुए गया है किन्तु पहिसा का जो रूप लेखक ने ग्रहण किया भी अपने देश, धर्म एव स्वाभिमान मादि की रक्षा की। है, उसके लिए जैनधर्म मे कोई स्थान नही है । मतः वह जैसा प्राप्त जन प्रतिमा लेखों से प्रकट है कि रामअग्राह्य है। यदि ऐसी ही बात थी तो रामगुप्त को पहले गुप्त का झुकाव जैनधर्म की भोर रहा समव प्रतीत ही ससैन्य जाकर शत्रु का प्रवरोध करते हुए युद्ध नहीं होता है किन्तु इसका प्राशय यह नहीं है कि जैन धर्मावकरना चाहिए था, क्या इसमे हिंसा नही थी ? जब हिसा लम्बी होने मात्र से उसको कायरता पर पर्दा पड़ जायेगा की इस स्थिति को ग्रहण किया जा सकता था तो क्या और उसका कदाचरण उचित मान लिया जायेगा। ऐसा उस दशा में हिंसा का वरण नही किया जा सकता था विचारना तो जैन धर्म के सिद्धान्तों का मखौल बनाना है। जबकि पूरे साम्राज्य का सम्मान दाव पर लगा हुआ था। मेरे विचारानुसार डा. पुरोहित का ऐसा सोचना यदि उस समय वह शत्रु से युद्ध करते हुए प्रात्म-बलिदान पनुचित है। रामगुप्त का निकृष्ट माचरण निश्चय ही के लिए तत्पर हाता तो निश्चय ही इस कार्य से वह कायरतापूर्ण एवं निन्दनीय है। उसको उचित सिद्ध करना वीरता का पात्र होता मोर उसको कीति में चार चांद इतिहास के तथ्यों को सत्यात्मकता पर हरताल फेरना है। लगते । हलके से प्रबरोष के बाद घिर जाने पर रामगुप्त
१४ खटीकान, मुजफ्फर नगर, उ० प्र०
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महात्मा मानन्दघन : काव्य-समीक्षा
D डा. प्रेमसागर जैन, बड़ोत महात्मा मानन्दधन ने कबीर प्रादि संत कवियो की पोकर मतवाला हपा चेतन हो परमात्मा को सुगम्धि को भांति ज्योति में विश्वास किया, दीपो में नही, दीपों को पाता है, और फिर ऐसा खेल खेलता है कि सारा संसार बनावट में नहीं, दीपों की भिन्नता मे नही । भांति-भांति तमाशा देखता है । यह प्याला ब्रह्मरूपी पग्नि पर तय्यार के दीप एक ही स्मृति के नाना रूप है। ठीक ऐसे ही एक किया जाता है, जो तन की भट्टी में प्रज्ज्वलित हुई है और ही प्रात्मा में नाना कल्पनामो का प्रारोपण किया जाता जिसमे से अनुभव की कालिमा सदैव फटती रहती हैहै। यह जीव जब निज पर मे रमे तब राम, दूसरो पर
मनसा प्याला प्रेम मसाला, ब्रह्म अग्नि परजाली। रहम करे तब रहीम, करमो करशे तब कृष्ण मोर जब
___तन माटी भवटाई पिये कस, प्राग अनुभव लाली । निर्वाग प्राप्त करे तव महादेव की सज्ञा को प्राप्त होता
प्रगम प्याला पीयो मतवाला, चिह्नो प्रध्यातमवासा । है। अपने शुद्ध प्रात्म-स्वरूप को स्पर्श करने से पारस
मानन्दघन चेतन ह खेल, देख लोक तमासा ॥ और ब्रह्माण्ड की रचना करने से इसे ब्रह्म कहते है। इस प्रेम के प्याले को यह बेहोशी मूर्छा नहीं है, अपितु भौति यह प्रात्मा स्वय नेतनमय और निरुकम है ऐसी मस्ती है, जिसमें प्रेमास्पद अधिक स्पष्ट दिखाई देता भानन्द पन ने ऐसा माना है। प्रानन्दधन की भांति ही है। यह प्रेमी का जागरण है. जागत प्रवस्था है। जायसी कबीर ने भी एक ही मन को गोरख, गोविन्द और औघड़ के प्याले मे तो ऐसो बेहोशी थी कि रत्नसेन पद्मावती पादि नामों से अभिहित किया है। सन्त सुन्दरदास का को पहचानना तो दूर, देख भी न सका, फिर भी वह कथन तो महात्मा प्रानन्दधन से बिल्कुल मिलता-जुलता
इतना जागृत था कि शुन्य दृष्टि के मार्ग से ही प्राणों को है। उनके अनुसार एक ही प्रखण्ड ब्रह्म को भेद-बुद्धि से समर्पित कर दिया। उसकी अधिक बेहोशी ही अधिक नाना संज्ञाएं होती है, जैसे एक ही जल वापी, तडाग पौर
जागरण था। जायसी का कथन है - कूप के नाम से, तथा एक ही पावक-दीप, चिराग और
जोगी दृष्टि सों लीना, मसाल मादि नामों से पुकारा जाता है। सन्त दादूदयाल
नैन रोपि नैनाहि जिउ दीन्हा । ने एक ही मूलतत्त्व को प्रलह पोर राम सज्ञाएं दी हैं।
जाहि मद चढ़ा परातेहि पाले उन्होने यहाँ तक लिखा है कि जो इनके मूल मे भैद की
सुधि न रही प्रोहि एक प्याले । कल्पना करता है, वह. झूठा है।
प्रेम का तीर तो ऐसा पैना है कि वह जिसके लगा भगवद्विषयक प्रेम के क्षेत्र मे 'प्रेम के प्याले' और चाहे वह जैन हो या अन्य सन्त, जहाँ का तहाँ रह गया । 'भचक तीरो' की बात जानी पहचानी है। वह केवल महात्मा पानन्दधन की दृष्टि मे, "कहा दिखावू मोर कू, जायसी पोर कवीर में ही नहीं, अपितु जैन कवियो में भी।
कहा समझाऊँ भोर । तीर पचुक है प्रेम का लाग सो रहै देखने को मिलती है। कवि भूधरदास ने सच्चा ममलो
ठोर ॥" कबीर ने सबद को ही तीर मान कर लिखा है, उसी को माना है, जिसने प्रेम का प्याला पिया है,
"सारा बहुत पुकारिया पीड़ पुकार मौर । लगी चोट सबद गांजारू भाग प्रफीम है, दारू शराब पोशना। को, रह्या कबीरा ठौर ॥" जायसी ने प्रेम वाण के घाव प्याला न पीया प्रेम का, अमली हुमा तो क्या हुमा ॥ को प्रत्यधिक दुखदायी माना है। जिसके लगता है, वह न
महात्मा मानन्दधन ने लिखा है कि प्रेम के प्याले को तो मर ही पाता है और न जीवित ही रहता है। बड़ी
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१८ ३३, किरण
अनेकान्त बेचनी सहता है।
कबीर की विरहिणी में वह स्थिरता नहीं है, जो योगी की परमात्मा के विरह में खिलवाड़ नही पा सकती समाधि में होती है। यहां प्रानन्दधन मौर कबीर की विन्तु फिर भी निसुनिए सतों की अपेक्षा जैन कवियों में विरहिणी में अन्तर है। कबीर की विरहिणी हैसंवेदनात्मक अनुभूति अधिक है । कबीर के 'विरह भुवगम विरहिन ऊभी पथ सिर पथी बुझे घाय । पैसि कर किया कलेजे घाव, साधु अंग न मोड़ ही, ज्यो एक सबद कहि पोव का कबरु मिलेंगे प्राय ।। भाव त्यों खाय।' से प्रानन्दधन का 'पोवा बीन सुबबुध बहुत दिनन की जोवती बाट तुम्हारी राम । बूंदी हो विरह भुग निशासमे, मेरी सेजही खूदी हो।' जिब तरस तुझ मिलन कू, मन नाही विश्राम ।। मधिक हृदय के समीप है। इसी भाँति कबीर के “जैसे विरहिणियाँ सदैव दूरस्थ पतियों के पास जाने की चाहना जल बिन मीन तलफ ऐसे हरि बिनु मेरा जिया कलपं।" करती रही है। प्रानन्दघन की विरहिणी भी जाना से बनारसीदास के 'मैं विरहिन पिय के प्राचीन, यों तलफो चाहती है। रात अवेरी है, घटाएं छाई हुई है, हाथ को ज्यों जल बिन मीन ।' मे अधिक सबलता है।
हाथ नही सूझता और पति तक जाने का मार्ग दुर्गम है। मानन्दधन की विरहिणी की अग्वेिं पिय का मार्ग विरहिणी की प्रार्थना है कि यदि करुणा करके सुधाकर निहारते-निहारते स्थिर हो गई हैं, जैसे कि योगी ममाधि निकल पावे तो मार्ग प्रशस्त हो जावे, और यदि चन्द्र में और मनि ध्यान में होता है। वियोगी और योगी दोनो प्रियतम का मन हो, तब तो वह घर बैठे ही कृत्कृत्य हो की चेतना बाहर से सिमट पर अपने प्रिय पर केन्द्रित हो जायेगीजाती है, और इस दृष्टि से दोनों में कोई अन्तर नही है। "निसि अघियागे घन घटारे, पाउ न बाट के फन्द । प्रिय पर टिकी चेतना भी समाधिष्ठ है और योगी का मन करुणा करहु तो निरवहु प्यारे, देखु तुम मुख चन्द ।। भी ध्यानस्थ है। एक का माध्यम प्रेम है और दूसरे का जायसी के पद्मावत की नागमती भी, दिल्ली में बन्दी ज्ञान । मागे चल कर, रत्नाकर ने 'उद्धवशतक' में रत्नसन के पास तक जाने को तैयार है, किन्तु वह केवल वियोगिनी गोरी के भोग को योगी के योग से कम नही सुधाकर के निकलने से ही मार्ग के पेनों को नही सुलझा माना । दोनों ही केन्द्रस्थ हैं। जिस वियोगिनी में यह पायेगी, उसे एक मार्ग-दर्शक चाहिए। प्रानन्दधन की तन्मयता है, वही श्रेष्ठ है। मानन्दघन को वियोगिनी इसी विरहिणी को ऐसे किसी पालम्बन की प्राकांक्षा नही है। स्थिर दशा में है, वह अपने वियोग की बात किसी से वह वह सुधाकर के उर मात्र से तृप्त है। वह सुधाकर मे नहीं पाती। उसके मन का चोला प्रिय का मुख देखने पर प्रिय मुख-दर्शन की प्राकांक्षा करती है । ऐसा वह कर भी ही हिल सकता है. अन्यथा डगमगाने का या किसी प्रकार लेगी--प्रिय की तन्मयता से । यदि तन्मयता हो तो प्रिया को चपलता का प्रश्न ही नहीं है
कही भी प्रिय को देख सकती है, अपितु वह स्वय प्रिय रूप "पंथ निहारत लोलणे, दुग लागी मंडोला। हो सकती है, ऐसा कुछ इशारा प्रानन्दधन का है । जोगी सुरत समाधि मे, मुनिध्यान झकोना। नागमनी को गुरु की प्रावश्यकता है; किन्तु मानन्दधन की कौन सुन किनकुं कहु, किम भाड़ मैं खोना ।। विरहिणी पे स्वय सामर्थ्य है, वहां तक पहुंचने की। हरे मुख दीठे हले, मेरे मन का चोला ।" नागमती सखी से कहती है
पत्य निहारने की बात कबीर ने भी कही है। उन्होने "को गुरु प्रगुवा होइ सखि, मोहि लाव पथ माह । लिखा है कि विरहिणी मार्ग के दोनों सिरों पर दौड़-दौड़ तन मन-धन बलि-बलि करों, जो रे मिलावे नाह॥ कर जाती है और रास्तागीरो से अपने पति के माने की विरह में खान-पान छट जाता है, इसे सभी कवियों ने बात पूछती है। उसमे बेचनी है। माध्यमिक विरह मे दिखाया है-चाहे वह जैन हो या मजन । मन मानन्दबेचनी सात्विकता का चिह्न तो है, किन्तु जब तक उसमे धन को विरहिणी में भी भोजन पोर पान की रञ्चमात्र तन्मयता नहीं पाती, चपलता नही छुटेगी। इसी कारण भी रुचि नहीं है। उसने प्रिय की याद मे सब कुछ त्याग
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महात्मा मानवधन काव्य-समीक्षा
दिया है । घरबार में मन नहीं लगता पौर जीवन से राग वर्षा का जल पोर सर, सरिता तथा सुरविन्दुमबल छटता जा रहा है। विरह को वेदना प्रथाह है, कोई थाह किसी की उष्णता मिटाता हो, विरहिणी का विरह-ताप नहीं ले सकता ऐसा कौन हवीब तवीब है, जो उस वेदना कम करने में असमर्थ है। ताप का कम होना दूर, इसके को मिटा सके। कलेजे में गहरा घाव है, जो तभी पुरेगा, उलटे वह पौर अधिक सूख जाती है। जब दुनिया हरीजव प्रिय मिलन हो
भरी होती है, उसका घट-सर सूख जाता"भोयन पान कथा मिटी, किसकुं कहुं मूषो हो।
गाल लगाय के, सुर-सिन्धु समेली हो। प्राज काल घर पान की, जीव मास विलुद्धि हो। असुपन नं.र बहाय के, सिन्षु कर ली हो। वेदन विरह अथाह है, पाणी नव नेजा हो।
श्रामण भादं धन घटा, बिच बीच झबला हो। कौन हबीब तवीब है, टार कर घाव करेजा हो।"
सरिता सरवर सब भरे, मेरा घट सर सुका हो। कबीर की विरहिणी को भी दिन में चैन नही, तो रात को
जायसी का कथन है-"अब मघा नक्षत्र मकोरनीद नही । तडफ-तड़फ कर ही सबेरा हो जाता है । तन
झकोर कर बरस रहा था, सब कुछ हरा-भरा ही गवावा, मन रहंट की भांति घमता है। सुनी सेज है, जीवन मे तब विरहिणी भरे भादो मे सूख रही पी। 'पुरवा' नमन कोई प्रास नही । नन थक गये है, रास्ता दिखाई नही
के लगने से पृथ्वी जल से भर गई, किन्तु वह पनि पाक देता। सांई बेदरदी है, उसने कोई सुध नहीं ली। दुख
भौर जवास की भांति झुलस रही थीबह रहा है कैसे कम हो--
"बरसा मघा झकोरि-मकोरी। तलफ बिन बालम मोर त्रिया,
मोर दुइ नन चुवै जस मोरी॥ दिन नहिं चन गन नहिं निदिया,
धनि सूख भरे भावो माह | तलफ-तलफ के भोर किया।
प्रबहुं न प्रारम्हि न सीचिन्हि नाहाँ ।। तन-मन मोर रहट-जम डोलं,
पुरबा लागि भूमि जल पूरी। सून मेज पर जनम छिया ।
प्राक-जवास भई तस री॥" नैन किन भये पथ न सूझ,
महात्मा प्रानन्दघन मध्ययुगीन हिन्दी के उत्तम कोट साँई बेदरदी सुध न लिया।
के कवि थे 'मामपद सग्रह' मे संकलित उनकी रचनाएं कहत कबीर सुनो भाई साधो,
अध्यात्ममूला भक्ति की निदशन है। वह केवल धर्मग्रन्थ हगे पीर दुख जोर किया।
नही है उसमें साहित्य रस है। भाषा प्रौढ है, तो काव्यपानी बरसता है तो हरियाली फैलना स्वाभाविक है, प्रतिभा जन्मजात । हिन्दी साहित्य में उनका अपना एक किन्तु विरहिणी भोर अधिक सूख जाती है, ऐसा सभी न स्थान है, इस स्वीकार करना हो होगा -माज या कल। लिखा है। जायसी ने लिखा तो यानन्दघन ने भी। दोनों
प्रध्यक्ष, हिन्दी विभाग, मे समानता है। मानन्दघन का कथन है कि श्रावण-भादो
दिगम्बर जैन कालेज, बड़ौत (मेरठ)
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महाकवि हरिचन्द्र का समय और प्राचार्य बलदेव उपाध्याय का मत
0 श्री अशोक पाराशर, जयपुर
"धर्मशर्माभ्यूदय" और "जीवन्धरचम्पू" के रचयिता कर लिये गये हैं। फलतः इन्हे वादीभसिंह से प्रकि. महाकवि हरिचन्द्र की गणना कालिदास भारवि भोर कालीन होना चाहिए। श्रीहर्ष के "नैषध के अनेक पद्यो माघ जैसे महान् एवं उच्चकोटि के कवियों की श्रेणी में
का प्रभाव 'धर्मशर्माभ्युदय" की रचना पर स्पष्टत. लक्षित । लेकिन खेद का विषय है कि हरिचन्द्र के होता है। प्रतएव हरिचन्द्र का समय वादीमसिंह (११ शती) जीवन विषयज्ञान के लिये ऐसा कोई ठोस प्रमाण हमारे तथा श्रीहर्ष (१२ शती का उत्तरार्ष) के अनन्तर होना पास नहीं है जो कि उनके समस्त जीवन-चरित्र का चाहिये। विवरण उपलब्ध करा सकें। इनके माता-पिता एवं भाई
२. पाप कवि के समय के विषय में एक अन्य स्थान मादि की सूचना तो हमें 'धर्मशर्माभ्युदय' महाकाव्य की
पर लिखते हैं कि "कविवर हरिचन्द्र के ऊपर नैषधचरित प्रशस्ति से प्राप्त होती है लेकिन जन्मस्थान एव समयादि ।
के प्रणेता श्रीहर्ष का प्रचर प्रभाव लक्षित होता है। की कोई जानकारी इनके ग्रन्थों से नहीं मिलती है। यही
हरिचन्द्र की अनेक सरस मूक्तियों का उद्गम स्थल नैषध कारण है कि भारतीय एव पाश्चात्य विद्वान इनके समय
काव्य है । जीवघर चम्पू (३/५१) का यह पद्य नैषध की का निर्धारण विभिन्न तो एव प्रमाणो के प्राधार पर
एक प्रख्यात सूक्ति (२/३८) से निःसन्देह प्रभावित है - हवीं शती से लेकर १२वी शती के उत्तराघं तक सिद्ध
सरोजयुग्म बहुधा तपः स्थितं करने का प्रयास करते हैं। इनके समय-विषयक प्रश्न पर
बभूव तस्यश्चरणद्वय ध्रुवम् । जिन विद्वानो ने अपने मतो की स्थापना के लिये प्रत्यधिक
न चेत् कथ तत्र च हंसकाविमो प्रयत्न किया है उनमे भारतीय विद्वान् प्राचार्य बलदेव
समेत्य हृद्यं तनुतां कलस्वनम् उपाध्याय भी उनमे से एक हैं।
हरिचन्द्र का समय निःसन्देह श्रीहर्ष से पीछे तथा माचार्य बलदेव उपाध्याय महाकवि हरिचन्द का
१२३० ई० से पूर्व है जब इनके महाकाव्य 'धर्मशर्माभ्युदय' समय लगभग १०७५ ई. से स्वीकार करते है। मापने
का पाटन में उपलब्ध हस्तलेख लिखा गया है। प्रतः कवि का समय निर्धारण करते समय दो प्रमाण प्रस्तुत
इनका समय एकादश शती का अन्तिम चरण तथा द्वादश किपे है और उन प्रमाणो के प्राधार पर प्रापने अपने मत
शती का पूर्वाधं है (लगभग १०७५ ई.--११५० ई.)।'' की स्थापना की है। उपाध्याय जी द्वारा दिये गये प्रमाण---
उपयुक्त दोनों प्रमाणों के प्राचार सस्कृत साहित्य के १. उपाध्याय जी अपने मत के समर्थन मे एक स्थान दो प्रसिद्ध काव्यकार है जिनके वादीभसिंह काव्यकार है पर लिखते है कि "जीवंधर चापू की कथाबस्तु का प्राधार तथा श्री हर्ष हिन्दू धर्मावलम्बी है। प्रथम प्रमाण मे बादीभसिंह के "गाचतामणि' तथा 'क्षत्रचूड़ामणि" को उपाध्याय जी ने वादीभसिंह तथा श्री हर्ष तथा द्वितीय बनाया है। इतना ही नही 'क्षत्रचूडामणि' के अनेक पद्य प्रमाण मे उन्होने कवि को श्रीहर्ष से उत्तरवर्ती कहा है। बहत ही कम परिवर्तनो के साथ जीवधर चम्पू में स्वीकृत वादीभसिंह का समय "१०वी शतो" तथा "११वी शती"" १. ग्र, भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी से सन् १९१७ मे ४. सस्कृत साहित्य का इतिहास, प्राचार्य बलदेव प्रकाशित हो च का है।
उपाध्याय, पृ० २४८।। २. ग्रथ भारतीय ज्ञानपीठ वाराणसी से सन १९७१ में ५ वही पृ० २४६
६. संस्कृत साहित्य का इतिहास, प्राचार्य बलदेव प्रकाशित हो चुका है।
उपाध्याय, पृ० २५६ ३. सस्कृत साहित्य का इतिहास, भाचार्य बलदेव
७. सस्कृत साहित्य का इतिहास, प्राचार्य बलदेव उपाध्याय, पृ०२४६
उपाध्याय, पृ० २४८ तथा ४०६
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प्राचार्य बलदेव उपाध्यायके मत की समीक्षा
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माना जाता है। और श्री हर्ष का समय ११५६ ई० से है कि श्रीहर्ष की प्रतिभा देख कर जयचन्द्र ने अपना राज्य११६३ ई. तक माना जाता है।
कवि बना लिया था और नैषध की रचना भी राज्य की उपाध्याय जी के मत की समीक्षा---
प्रेरणा से हुई॥"। इमसे सिद्ध होता है कि नैषध की उपाध्याय जी ने हरिचन्द्र को वादीसिंह तथा श्रीहर्ष रचना ११५६ई. से पूर्व किसी भी स्थिति में नहीं हुई थी। का उत्तरवर्ती कषि ठहराया है । मैं उपाध्याय जी के इस निष्कर्ष-उपर्युक्त प्रवतरणों में मैंने भाचार्य बलदेव मत से तो सहमत हूं कि हरिचन्द्र बादीभसिंह के उतरवर्ती उपाध्याय जी द्वारा मान्य कवि हरिचन्द्र के समय और कवि हैं लेकिन श्रीहर्ष से उत्तरवर्ती होने के विषय में मैं उनके द्वारा अपने मत की पुष्टि में दिये गये प्रमाणों की उनके मत से असहमत हूं। जिसका कारण उपाध्याय जी का समीक्षा की। उन्ही के दिये गये प्रमाणों के फलस्वरूप कथन (विचार) ही है। क्योंकि श्रीहर्ष का समय में निम्नलिखित निष्कर्ष पर पहुंचा हंइन्होंने ११५६-११६३ ई० माना है और हरिचन्द्र का १: यदि प्राचार्य बलदेव उपाध्याय द्वारा स्वीकृत १०७५-११०५ ई० । इसलिये हरिचन्द्र श्रीहर्ष से पूर्ववर्ती महाकवि हरिचन्द्र का समय १०७५ ई० से ११५० ई० कवि होने चाहिये लेकिन बलदेव उपाध्याय जी ने हरिचन्द्र स्वीकार करें तो नषव काल की रचना ११५० ई. से पूर्व को श्रीहर्ष का उन रवर्ती कवि ठहराया है जो कि एक होनी चाहिये लेकिन विद्वानो का मत (प्राचार्य बलदेव म्रम ही कहा जा सकता है। क्योकि समय के अनुसार जो उपाध्याय का भी यही मन) है कि श्रीहर्ष ११५६ ई. से कवि उत्तरवर्ती है उसका अपने पूर्ववर्ती किसी भी कवि ११६३ के बीच कभी हुए थे जो कि कान्यकुब्ज राजापों के पर प्रभाव होना कठिन ही नही असभव भी है। इसलिये प्राश्रय प्राप्त थे प्रत: नषध का प्रभाव धर्मशर्माभ्युक्य हरिचन्द्र के काव्य पर श्री हर्ष का प्रमाव बतलाकर हरि चन्द्र महाकाव्य पर मान कर हरिचन्द्र को श्रीहर्ष का उत्तरवर्ती को श्रीहर्ष का उत्तरवर्ती कहना उपाध्याय जी का कवि कहना ठीक नही है। विरोधाभासपूर्ण मत है।
२. यदि उपाध्याय जी के मतानुसार नैषध काल का हो, मैं एक निवेदन प्रौर करना चाहँगा कि इस विषय ।
प्रभाव धर्मशर्माभ्युदय तथा जीवंधरचम्पू पर स्वीकार कर में उपाध्याय जी तथा उनके मत से सहमति रखने वाल
लें तब ऐसी स्थिति में उनके द्वारा स्वीकृत कवि हरिचन्द्र अनुसंधाता एवं इतिहासकार यह कह सकते है कि श्रीहर्ष
का समय (१०६५--११५० ई.) ठीक नहीं बैठता है। ने अपने काव्य नैषध की रचना जचचन्द एवं विजय चन्द्र,
कारण यह है कि श्रीहर्ष का समय हरिचन्द्र से बाद जो कि कान्यकुब्जाधिपति थे और जिन्होंने १५५६ ई० से
(११५६ -११९३ ई०) है। अतः उपाध्याय जी के मत
का खण्डन उन्ही के तकं से हो जाता है। ११६३ ई० तक राज्य किया था, के राजाश्रय प्राप्त होने
३. यदि महाकवि हरिचन्द्र का उपाध्याय जी द्वारा से पूर्व की थी। इस प्रकार की थी। इस प्रकार की
स्वीकृत समय हो माना जाये तो सिद्ध होता है कि धर्मअवधारणा उन विद्वानों की मात्र कल्पना ही कही जा
शर्माभ्युदय काव्य का प्रभाव नषधचरित्र पर निःसन्देह रूप सकती है क्योंकि स्वय कवि श्रीहर्ष ने नैषध में कान्यकुब्जाघिपति के प्राथय प्राप्ति की बात कही है। जो कि इस ४. हरिचन्द्र के वादीसिह के उत्तरवर्ती कवि होने में बात का स्पष्ट प्रमाण है कि नषध ११५६ ई. से बाद को किसी प्रकार का सदेह नहीं होना चाहिये। रचना है। नैषध की रचना के विषय मे श्री सत्यनारायण एम० ए०, एम. फिल. एक शोध छात्र (संस्कृत) जी शास्त्री लिखते हैं कि "किंवदन्ती से ही यह पता चलता
राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर-४ ८. सस्कृत साहित्य का इतिहास, भाचार्य बलदेव १०. ताम्बलढयमासन च लभते यः कान्यकुब्जेश्वरातउपाध्याय, पृ० २२८
नंषध चरित, २२।१५५ ६. संस्कृत साहित्य का इतिहास, प्राचार्य बलदेव ११. सस्कृत साहित्य का नवीन इतिहास, बी सत्यउपाध्याय, पृ० २२८
नारायण शास्त्री, पृ.१७०
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जन संस्कृति का प्राचीन केन्द्र काम्पिल्य
प्राचीन भारत की महानगरी काम्पिल्य' को पहिचान उत्तर प्रदेश के फखाबाद जिले की कायमगंज तहसील में, कायमगंज रेलवे स्टेशन से लगभग ८ कि० मी० की दूरी पर, पक्की सड़क के किनारे वर्तमान कंपिल नामक ग्राम से की जाती है। किसी समय गंगा को एक घारा इस स्थान के पास से बहती थी ।
काम्पिल्य चिरकाल से पाऊचाल देश (जनपद, विषय या राज्य की राजधानी रही, प्रोर जब पाञ्चाल उत्तर एवं दक्षिण, दो भागों में विभक्त हो गया, तो काम्पिल्य दक्षिण पाञ्चाल की राजधानी रही, जबकि उत्तर पाञ्चाल की राजधानी महिला बनी भारतीय धर्म एवं संस्कृति की अनेक पुराणगाथाओं तथा ऐतिहासिक व्यक्तियों एवं घट नामों के तथ्यों से काम्पिल्य का नाम जुड़ा है। यही कारण है कि जैन, बौद्ध एवं ब्राह्मण, तीनों ही परम्पराम्रो के साहित्य में नगर या प्रदेश के अनेक उल्लेख प्राप्त होते है। क्या यजुर्वेद (०२३ म० १०) को उवट एवं महीपर कुल टीका है, महाभारत, पाणिनीय की काशिकावृत्ति (४-२-१२१), चरक संहिता ( श्र० ३ सू० ३), अमरु शृंगारशतक की भाव चिन्तामणि टोका पादि ब्राह्मणीय ग्रन्थों में, बौद्धमहा उम्मग्गजातक ( २-३२६ ) मे, मोर तिलीय पण्यति, भगवती पारापना उनामगदसाधो बादिपुराण, उत्तर पुराण, पद्मपुराण, हरिवशपुराण, पुष्पदन्तकृत अपभ्रंण महापुराण, त्रिषष्टिस्मृति शास्त्र हेमाचार्यकृत १. साहित्य में कापिल्य के नामरूप कापिल्यनगर, कांपित्यपुर कंपिल या कंपिलपुरी, कंपिल्य, कपिला प्रादि प्राप्त होते हैं, और इसके प्रपर नाम माकन्दी पांचालपुरी या पंचाल्यपुरी मिलते है। महाभारत मादि १२३ (७३) तथा जैन इरिवंशपुराण (३५ / १२९) में माकन्दी नाम से कांपिल्य का उल्लेख हुमा है।
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विद्यावारिधि डा० ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ
त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित, विमलनाथ पुराण, पांडव पुराण, हरिषेणीय बृहत्कथाकोष, प्रभाचन्द्रीय धाराधनासरकथा प्रवन्ध ब्रह्मनेमिदत कृत धाराथना कथा कोष, विविध कल्प, धनेश्वरसूरि कृत शत्रुजय महाभ्य मध्यकालीन तीर्थ मालाए, मादि जैन ग्रन्थो में
वस्तुतः कंपिलाजी (काम्पिल्य) जैन धर्मावलम्बियों का एक परम पावन तीर्थक्षेत्र प्रत्यन्त प्राचीन काल से रहता पाया है। इसमे कोई पतियायोक्ति नहीं है कि उत्तर प्रदेश के हस्तिनापुर, कोशाम्यो, काकन्दी, गौरीपुर, अहिछत्रा प्रादि कई प्राचीन स्थानों की भांति काम्पिल्य की स्मृति एवं प्रस्तित्व को अनेक प्रशो मे तीर्थं भक्त जंगे ने ही सुरक्षित रखा है इस तीर्थ की बन्दना के लिए मध्यकाल की विषम परिस्थितियों में भी बराबर भ्राते रहे और स्थान के अपने धर्मावर्तनों का संरक्षण, जीर्णोद्वार आदि भी करते रहे। आज भी यहाँ तीन जिनमंदिर व दो धर्मशालाए है। इनमे से एक मंदिर तो अति प्राचीन है। जो मूलतः वि०स० ५४९ मे निर्मित हुआ बताया जाता है । इस मन्दिर मे मूलनायक के स्थान पर प्रतिष्ठित श्यामल-मंगिया पाषाण की प्रति मनोश एवं चमत्कारिक प्रतिमा कम्पियनगर में अतेरहवे तीर्थंकर विमलनाथ की है, जो गुनी एवं मूल जिनालय जितनी प्राचीन धनुमान की जाती है। यह प्रतिमा गगा की रेती से निकली थी। इसके अतिरिक्त इन मंदिरों मे धन्य धनेक
२. ज्योतिप्रसाद जैन, 'उत्तरप्रदेश भोर जैन धर्म' लखनऊ १९७६ पृ० ४१
३. कामताप्रसाद जैन कृत - 'कांपिल्यकीर्ति', प्रलीगंज १२५२ पृ० ४६, बलभद्र जैन भारत के दिन तीर्थ', भारतीय ज्ञानपीठ १९७४ भाग–१, १०१०१ ४. वही पृ० १०८
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जैन संस्कृति का प्राचीन केन्द्र काम्पित्य
जिन प्रतिमाएं स्थापित हैं जो ११वी से १६वी शती ई० भरत के अनुज महाबाह भजलि ने मुनि दीक्षा ले ली तो पर्यन्त विभिन्न समयों की प्रतिष्ठित है।' किन्हो दिगम्बर उन्हीं के अन्य भाई पाञ्चाल नरेश ने भी राज्य का भट्टारकों द्वारा स्थापित दो चरण-चिह्न पट्ट भी प्राचीन परित्याग करके जिन दीक्षा ले ली थी।" मंदिर में है। प्रास-पास के क्षेत्र व गगा नदी के खाली से
इस काम्पिल्य नगरी में पुरुदेव भगवान ऋषभ की अनेक खंडित प्रखडित जिनमूर्तियाँ एवं जैन कलाकृतियाँ
सन्तति में उत्पन्न इक्ष्वाकुवंशी महाराज कृतवर्मा की भी प्राप्त होती रही है। चैत्र और अश्विन मे प्रतिवर्ष
महादेवी जयश्यामा ने माघ शुक्ल चतुदंशी के शुभ दिन यहां दो जैन मेने, मस्तकाभिषेक, रथयात्रा, जलयात्रा
१३वे तीर्थकर बराह लाछन भगवान विमलनाथ प्रपरनाम प्रादि होते है । सन् १८३० ई. का चंत्री रथोत्सव विशेष
विमल वाहन को जन्म दिया था।" भगवान के जन्मोपलक्ष्य महत्वपूर्ण था क्योंकि माधुनिक युग मे इस तीर्थ की सार
में देवराज शक के भादेश से यक्षाधिप एवं घनाधिप कुबेर सम्हाल की भोर समाज की विशेष रुचि तभी सहई
ने इस नगरी को इतना शोभायमान बना दिया था कि, लगती है।' भोगाव निवासी कवि सदानन्द ने वि० सं०
महाकवि पृष्पदत के शब्दो में वह ऐसी लगती थी मानों १८८७ के इस मेले का माखो देखा वर्णन कविता बद्ध
स्वगं हो पृथ्वी पर उतर पाया है। अन्य प्राचार्यों ने भी किया था।
प्राचीन काम्पिल्य के मौन्दर्य एव वैभव का ऐसा ही वर्णन जैन परम्परा के अनुसार कर्मभूमि का सभ्ययुग के किया है। जिनप्रभसूरि ने तो यह भी लिखा है कि प्रारम्भ में प्रथम तीर्थकर मादिपुरुष भगवान ऋषभदेव ने क्योकि इस नगर में भगवान के च्यवन, जन्म, राज्याभिषेक, विभिन्न राज्यों एवं जनपदो को स्थापना की थी तो दीक्षा और केवल ज्ञान ऐसे पाच कल्याणक हुए थे, इसका पाञ्चाल देश भी उनमे से एक था और उसक शासन भार नाम पंचकल्याणकनगर अर्थात् पञ्चालपुरी रूढ़ ही हो गया, उन्होने अपने एक सौ पुत्रों में से एक को सोपा था।" और क्योकि भगवान शंकरलाञ्छन थे लोक में यह स्थान केवलज्ञान प्राप्ति के उपरान्त तीर्य कर वृषभदेव का विहार शकरक्षेत्र नाम से प्रसिद्ध हया। वर्तमान में सोरों जो भी इस जनपद मे हुमा " और उनका समवसरण कपिला से नानिदूर पश्चिम में है, सूकर क्षेत्र कहलाता काम्पित्य मे पाया था। उनके ज्येष्ठ पुत्र भरत चक्रवर्ती है।"सभव है, जिनप्रभ के समय (१४वी शती में) कंपिला की दिग्विजय के प्रसग में भी पाञ्चाल का उल्लेख हुमा के प्रासपास का क्षेत्र ही सूकर क्षेत्र कहलाता है मौर है।" जब भरतचक्रवर्ती की पराधीनता अस्वीकार करके मूलतः ती. विमल के लाञ्छन के कारण हो । स्व.
५. कांपिल्य वही पृ०५०.५१
१४. कपिलपुरे विमलो ज० दे० कदम्ब तपस्तामा हि. ६. वही पृष्ठ ५०
माघसिदि चोददसिए-पूधामोह पदे १विलोय७. कामताप्रसाद जैन, 'जंन विवरण पत्रिका' जि.
पण्णत्ति ४.५३८ उत्तरपुराण भा० ज्ञानपीठ पृ० ६८. __ फर्म खाबाद, पलीगंज १६४६ पृ० १३
६६, पुष्षदतीयमहापु० ५५॥३-४ मा० २ पृ०२०४ ८. 'कम्पिलाकीति' पृ० ८२
प्रशाघरीय त्रिषष्ठिस्मृतिशास्त्र १३॥३-४ ६. यथा-विमलनाथ जिनको पारिभाव पाती चहुदिशि १५. तदेवकंपिलानाम्ना विष परमापुरी। लिखीचित में पाठों चाव । कम्पिला रथयात्रावर्णन
दोषमुक्ता गुणयुक्ता धनाढ्या स्वर्णस ग्रहा । पृ० १५, कामताप्रसाद वही पृ० ५२
विमलनाथपुराण ॥ १०. प्रादिपुराण, भा० ज्ञा०पीठ सस्करण १८/१५१-१५६ 'कापिल्यनगराभिषं पुर सुरपुरोपमम् ।' ११. वही २५५२६७, हरिवंगपुराण मा० ज्ञा० पी० ३।३७
हरिषेणीय ब.क. कोष ।। १२. प्रादिपुराण २६।४०
१६. विविध तीर्थकल्प पृ० ५०, कम्पिलापुरी कल्प० १३. हरिवंशपुराण १११६४
१७. कामताप्रसाद जैन वही पृ० ५५
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२४, बम, कि०३
बनेकान्त
कामता प्रसाद जी ने कम्पिल्य क्षेत्र के संकिशा, प्रगहत अन्ततः सम्मेदाचल से निर्वाण प्राप्त किया। वाराहाछन (अषत), कपित्थक (केषिया), पिप्लग्राम (पिपरगांव), तीर्थकर विमलावाहन के जम्म, लौकिक शासन एवं दिव्यपिटीपरि (पटियाली), कान्यकुब्ज (कन्नौज प्रादि कई ध्वनि की गुजार से कम्पिल्यनगर धन्य हुपा। अन्य मन्य अनुभूतिगम्य स्थलों की भी वर्तमान स्थानों से तीर्थंकरो विशेषकर भगवान पाश्र्वनाथ एवं महावीर के पहिचान की है।
समवसरण भी कम्पिल्य में पाए, पोर पाञ्चाल देश में भाचार्य हेमचन्द्र ने तीर्थकर विमलनाथ के चरित्र
उनका विहार हुमा। के प्रसंग में उनकी गभिणी जननी द्वारा एक प्रमत न्याय
२०वें तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ के तीर्थ मे इमी कम्पिल्य की रोचक कथा दी है, जिसका हेतु गर्भस्थ शिशु की नगर में महाराज सिंहध्वज की धर्मप्राणा महिलारत्न वप्रा विमलबुद्धि बताया है और उसी कारण उनका नाम ,
कार की कुक्षि से मातृभक्त हरिषेण चक्रवर्ती का जन्म हुमा, 'विमल' हपा बताया है। पुराणकारों ने भगवान के जिसने दिग्विजय कर के नगर को पनेक जिनालयो से जन्मोत्सव, बाललीला, विवाह एवं राज्याभिषेक का वर्णन
का वर्णन अलकृन किया।" महाभारत काल मे काम्पिल्य मे करने के उपरान्त बताया है कि चिरकाल पर्यन्त गहस्थ पाञ्चालेश्वर महाराज द्रुपद का राज्य था और यही उनकी सुख एवं राज्य वैभव का उपभोग करके माघ शुक्ला दुहिता महावती द्रोपदी का जन्म एवं प्रसिद्ध स्वयवर हमा चतुर्थी के दिन भगवान ने महाभिनिष्क्रमण किया और था। एक अनुश्रुति के अनुसार मन्तिम चक्रवती ब्रह्मदत्त निकटवर्ती सहेतुक वन मे जिन दीक्षा ली तथा तपश्वरण
तथा तपाचरण की राजधानी भी काम्मिल्य ही थी। ग्यारह कोटि स्वर्ण में लीन हो गये। उसी वन मे उन्होने पौष शक्ला दशमी मद्राप्रो एवं विशाल गोकुल का स्वामी काम्पिल्य का के दिन चार धातिया कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान त्मिा श्रेष्ठ कुन्दकोलिय भगवान महावीर के दश प्रमख प्राप्त किया भोर महंत तीर्थकर हो गए।" भगवान की एव प्रादर्श गृहस्थ उपासको मे से एक था।' इस तपोभूमि एवं केवलज्ञान प्राप्ति स्थल की पहचान जैन कथामों मे अन्य अनेक विशिष्ट व्यक्तियों के संकिभाले मषत (अधहत) या अघतिया टोले से की उल्लेख मिलते है, जिनका काम्पिल्य नगरी से सम्बन्ध था। जाती है। इस टोले से १९२७ मे भगवान विमल के काम्पिल्य नगर मे पिण्याकगन्ध नाम का एक सेठ था जो समवसरण की प्रतीक एक प्राचीन सर्वतोभद्र प्रतिमा तथा बत्तीस कोटि द्रव्य का स्वामी था किन्तु अत्यन्त लोभी एव कतिपय पन्य कलाकृतियां प्राप्त हुयो थी, जो राजकीय परिग्रहासक्त था और फलस्वरूप दुर्गति को प्राप्त हुप्रा। संग्रहालय लखननऊ मे सूरक्षित हैं।" चिरकाल पर्यन्त उस समय राजा रत्नप्रभ का यहां शासन था और राज्यलोकहितार्थ धर्मामृत की वर्षा करके भ० विमलनाथ ने श्रेष्ठ जिनदत्त नाम का उदार एवं धर्मात्मा श्रावक था। १८. देखिये-कामताप्रसाद जैन को पूर्वोक्त दोनों पुस्तके। २४ पद्मपुराण २०११८६-१८७, वृहत्कथाकोष कथाक १९.त्रिशष्टि शलाकापुरुष चरित्र के अन्तर्गत विमलनाथ ३३ उत्तरपुराण पृ० २४८, महापुराण भाग २ पृ. चरित्र ।
३६५, हरिवशपुराण ३.३.७,माराधना सत्कथा २०. तिलोयपण्णत्ति, ४१६५६, उत्तरपुराण, महापुराण प्रादि
प्रबध, अराधना कथा कोष मादि।
२५. उत्तरपुराण ७२११६८ पृ० ४२०, त्रिषष्ठिस्मृति२१. ४.६६०, , , .
शास्त्र २२१७०, हरिवंशपुराण ४५३१२०-१२१ पृ० २२. ज्योतिप्रसाद जैन, उत्तर प्रदेश भोर जैनधर्म पृ० ४७
५४६-५४७ तुलनीय महाभारत (१।१२८१७३) (संहिता) कामताप्रसाद जैन, काम्पिल्य कोति ।
२६. पाराधनाकथाप्रबं २०,१० (२८) पृ. ३८, १३५, पृ० २६-३०
पुष्पदन्त महापुराण भाग ३ पृ० १८४ २३. वही पृ. ३० फुटनोट
२७. उवासयदसामो (उपासकदशांग) ६
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जैन संस्कृति का प्राचीन केन्द्र काम्पिल्य
उसने निकटवर्ती पिप्पलग्राम (वर्तमान पिपरगांव) में जन धर्म में दीक्षित किया जाना पौर मुनि बन कर मारमराजा रत्मप्रभ द्वारा निर्मापित सरोवर के तट पर एक कल्याण करना, कम्पिल्य के जिनधर्मी विद्वान राजा धर्मरुचि सुन्दर जिनालय बनवाया था। पिण्याकगन्ध का पुत्र विष्णु का काशि नरेश को शास्त्रार्थ में पराजित करना मादि।" दत्त कला-विज्ञान-पराग था जिसने एक ऐसे दर्पण का धनेश्वरसरि के अनुसार काम्पिल्य नगर में महाराज पाविष्कार किया था। जिसमें देखने वाले को दो मुख विक्रमादित्य के समय में भावड़ नाम के लोथ्याधिपति जैन दीखते थे। इसी नगर में राजा नरसिंह के शासन काल श्रेष्ठ रहते थे जो बडे पुरुषार्थी थे। जल भोर थल दोनों में राज्यष्ठि कुबेरदत्त था जो महाधनवान था और गार्गों में विदेशो मे उनका व्यापार होता था। वह एक जिसका व्यापार जलमार्ग द्वारा द्वीपान्तरो मे भी फैला बार सर्वथा निर्धन हो गए और पुन: धनकुबेर तथा राज्य हना था । वह धर्मकार्यों में भी अपनी लक्ष्मी का सदुपयोग मान्य बन गए भावर ने अनेक जिनवंदिर बनवाए तथा करता था। उसकी सेठानी प्रिय सुन्दरी अतिशय भवद्रूप- शत्रुजय तीर्थ का उद्धार किया बताया जाता है। लावण्य-यौवन-युक्त थी जिसपर मत्रीपुत्र नरस्त्री लम्पट १५८६ ई० मे यति जयविजयने कपिल की यात्रा की कडारिपिंड प्रासक्त हो गया। उसका पिता सुमति मत्री और लिखा "पिटापारिपूरि कपिल, विमल जम्म बन्देश, भी उसके षडयन्त्र में सम्मिलित हो गया, किन्तु ये लोग चलणी चरित्र सभालियो ब्रह्मदत परवेस । केसर धनराथ विफल मनोरथ हापौर राजा द्वारा दंडित हुए। काम्पिल्य सजतीगर्दभिलगुरुपासि, गगातटवन उबरई, द्रुपदी पीहर का भीम नामक एक राज कुमार मनुष्य-मास भक्षी हो गया वासि ।" प्रादि।" था जिसके कारण उसे राज्यभ्रष्ट, स्वदेश से निर्वाचित १८०७ ई० में विजयसागर जी ने कंपिल की यात्रा और दुर्गति का पात्र होना पड़ा। प्राचार्य जिनप्रभसूरि की पौर लिखाने १४वीं शती ई० के प्रथम पाद में कंपिल की यात्रा की कंपिलपुर वर मडणोपूनई विमल विहार रे । थी पोर उन्होंने इस स्थान का तात्कालिक वर्णन करने के विमल पादुका वदीया लीजई विमल अवतार रे॥" अतिरिक्त तत्सम्बन्धी कतिपय प्राचीन अनुश्रुतियों का भी कवि सदानंद जी कपिल-रथयात्रावर्णन (१८३० उल्लेख किया है, यथा कम्पिल्प नरेश संजय का नगर के ई०) का पहले ही उल्लेख कर पाए हैं । इस प्रकार पवित्र केसर उद्यान मे गर्दभिल्ल श्रमण से उपदेश ग्रहण करना, क्षेत्र कंपिला (कम्पिल्प) के जैन साहित्य में प्रचर उल्लेख काम्पिल्य के राजकूमार मागली का गोतम गणधर द्वारा प्राप्त हैं।
--चारबाग, लखनऊ
२८. भगवती माराधना ११४०, वृहत्कथाकोष पृ० २५५. ३१. विविधतीथंकल्प मिषी प्र. भा०) पृ० ५०
२५६, पारावना सत्कथाप्रबध, न० ३१ पृ० ५२, ३२. देखिए-धनेश्वरमूरिक्त शत्रु जय माहात्म्य बृहत्कथाकोष न० ८२ पृ० २०३
३३. काम्पिल्यकीर्ति, पृ० ३१ ३०. भगवती प्राराधना १३५७, पाराधनाकथाप्रबंध नं. ३४. वही
५५ पृ० ७६ वृहत्कथा कोष नं० ११५ पृ० २८७ ३५. वी पृष्ठ ५२
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पाटण के.श्वेताम्बर ज्ञान भण्डारों में दिगम्बर ग्रन्थों को
प्राचीनतम ताडपत्रीय प्रतियां
श्री अगरचन्द नाहटा, बीकानेर यद्यपि भारत के कोने-कोने मे जैन निवास करते हैं हो चुके हैं। जिनसे स्पष्ट है कि दिगम्बर शास्त्र भण्डारों पौर साधू-साध्वी भी धर्म प्रचार प्रादि के निमित्त से अनेक में कई ऐसे श्वेताम्बर ग्रन्थ हैं, जिनकी प्रति श्वेताम्बर स्थानों में पहुंचते हैं। पर उनका ध्यान जैन मन्दिरों को शास्त्र-भण्डारों में नहीं मिलती। इसी तरह श्वेताम्बरपोर जितना जाता है. हस्तलिखित ग्रन्थभण्डारों की पोर भण्डारों में भी कई ऐसे दिगम्बर प्रस्थ एवं उनकी पानी प्रायः नही चाता, जबकि दोनों का समान महत्व है। प्रतियाँ हैं जिनको जानकारी दिगम्बर विद्वानों को भी नही मूर्तियां जितनी उपयोगी हैं जिन वाणी के संग्रह या भण्डार है। कुछ वर्ष पहले पूज्य पुण्यविजयजी को सुप्रसिद्ध दिगम्बर
स्तलिखित प्रतियां भी उतनी ही उपयोगी हैं। प्राचार्य अमृतचन्द्र के एक प्रज्ञात एवं महत्वपूर्ण अन्य
वहत-से ज्ञान-भण्डारों की प्रभी सूची भी नहीं बन पायी की एकमात्र प्रति अहमदाबाद के श्वेताम्बर भण्डार में तथा कई तो सर्वथा प्रज्ञात अवस्था में पड़े हैं। मुसलमानी मिली थी, जिसे प्रब प्रकाशित भी किया जा चका है। शासन और सरक्षण के प्रति हमारी उपेक्षा के कारण इससे पहले भी और कई दिगम्बर ग्रन्थ श्वेताम्बर भण्डारों अनेकों महत्वपूर्ण प्रश्य नष्ट व लुप्त हो चुके हैं। जिनका में ही मिले। लिनमें कई प्रस्थ तो अलभ्य व लुप्त मान उल्लेख अन्य ग्रन्थों में पाया जाता है। जिन ग्रन्थों लिए गये थे, वे भी मिल गये। को अधिक प्रतिलिपियां नहीं हुयी उनकी प्रतियां अभी-अभी मैं पाटण के श्वेताम्बर ताडपत्रीय अन्ध
सात और बिना सूची वाले ग्रन्थ भण्डारी में मिलनी भण्डार की सूची जो कि बड़ौदा से सन ३६ में प्रकाशित है, संभव है। दक्षिण के अनेक स्थानों मे ताडपत्रीय उस सूची को देख रहा था तो उसमें चार दिगम्बर अम्पों प्रतियो मन्दिरों में व व्यक्तिगत संग्रह मे है। उनमे भी की प्राचीनतम ताडपत्रीय प्रतियां पटण के श्वेताम्बर बहुत से प्रज्ञात एवं महत्वपूर्ण प्रश्य मिलने सम्भव है। भण्डार मे है। उन अन्यों के पुन सम्पादन में वे बहुत प्रत: कोई भी संस्था ऐसी स्थापित हो जिसके भेजे हुए उपयोगी सिद्ध हो सकती है। साथ ही 'प्राध्यात्मतरंगिनी' व्यक्ति जन हस्तलिखित प्रतियो को खोज करें पौर जिन- नामक दिगम्बर ग्रन्थ की टीका जो मेरी जानकारी के शास्त्र भण्डारों की सूची नही बनी है, उनकी बना कर अनुसार दिगम्बर भण्डारों में कहीं भी नहीं मिली है, प्रकाश में लावें।
उसको तारपत्रीय प्रति पाटण के सबवीरगंडे के श्वेताम्बर साह शान्तिप्रसाद जी जैन ने अपने वक्तव्य में कहा था। ज्ञान भण्डार में प्राप्त है ११७ पत्रों की इस प्रति का कुछ कि इसके लिए पैसे की कमी नहीं रहेगी। काम जोरो से प्रश वण्डित लगता है। यह प्रारम्भ के उद्धत इलोकों से होना चाहिये। तो उन्ही की सस्था भारतीय ज्ञानपीठ भी विदित होता है तथा प्रत के श्लोक से भी। अभी तक यह सर्वाधिक साधन सम्पन्न है, उसे इस कार्य की पोर शीघ्र टोका अन्यत्र कही भी ज्ञात नहीं है, इसलिए इसकी जानध्यान देना चाहिये।
कारी दिगम्बर समाज व विद्वानों को इस लेख बारावी दिगम्बर श्वेताम्बर दोनों के अलग-अलग प्रन्यभण्डार, जा रही है। अलग प्रग स्थानों मे हैं पर एक-दूसरे को उनको समुचित मूल माध्यात्मिक तरंगिनी अन्य माणिक-बमप्रथमाला जानकारी नहीं है। कई भण्डारो के सूचीपत्र भी प्रकाशित के प्रन्या. न. १३ मे सवत् १९७५ मे प्रकाशित हो चुका
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पाटण श्वेताम्बर ज्ञान भण्डारों में विनम्बर प्रचों की प्राचीनतम ताडपत्रीय प्रतिया
है, ऐसा 'श्री जिन रत्नकोश' के पृष्ठ ५ में उल्लेख है । पाटण में जो इसकी टीका की प्रति मिली है उसका उल्लेख वह टिप्पणिका नामक प्राचीन ग्रन्थ सूची में होने से यह टीका और प्रति काफी प्राचीन सिट होती है। अब इस टोका के मादि और अन्त का कुछ प्रावश्यक प्रश यहाँ दिया जा रहा है। मादि:-ॐ नमो वीतरागाय । गुरुं प्रणम्य लोकेशंशिशूनामल ।।
............... ......॥१॥ ... . ........कोरिण्योथिजनासर्व पुरुषार्थसिद्धिनिमित्तं प्रमाणमनुसरंत...
अन्तः:-की सोमदेव मुनिनोदितयोगमागों,
व्याख्यात एवहिमयाऽऽत्ममते बलेन । संशोध्य शुद्धविषयोहदये नियो, योगीश्वरत्वमधिरायसमाप्तुकामः ॥१॥ श्री सोमसेन प्रतिबोधनार्था धर्मत्रिधानोरुयशः स्थिरात्मा। गढ़ार्थसदेहहरा प्रशस्ता, टीका कृताध्यात्मतरगिणीय ॥२॥ जिनेश सिद्धाः शिवभावभावाः, सुसूरयो देशक-साधुनाथा: । मनाथनाथा मथितोदोषा, भवंतु ते शाश्वतशर्मदानः ॥३॥ चंरच्चंद्रमरीचिवीविरुचिरे यच्चाहरोचिश्चये मनांगः सुरनायकः सुररुवेर्देवाधिमध्यरिव । शुक्लध्यानसितासिशातितमहाकर्मारिकक्षभयो देयानोत्रवसंभवा शुभतमा चापुत्रः संपदां ॥१॥ त्रिदर्शवसतितुटयो गूर्जरात्राभिधानो, धन कनकसमृद्धो देशनायोस्ति देशः। पसुर-सुर-सुरामाशोभिभामाभिरामोड, परदिगवनिनारीवकामाले ललाम ॥२॥ शाश्वच्छीमतुंगदेववसति: संपूर्णपण्यापणा शौंडीर्योद्मटबीरधीरवितता श्रीमाभ्यखेटोपमा। पंचकांचन कुंभकर्णविसर, जैनालय जिता संकेवास्ति विशालसालमिलया, मंदोदरोधोभिता ॥३॥
वरवटवटपल्लो तत्रविख्यातनामा, वरविनुषसुधामा देववासोरुधामा । शुभसुरभितरंभारामशोभाभिरामा, सुभसतिरिवोच्य रप्सरासम्पभामा ॥४॥ सूरस्थोचगणेभवद् यतिपतिर्वाचंयमः संयमी जज्ञेजन्मवतां सुपोतममलं योजम्मया बोषितः । जन्ये यो विजयो मनोजन पतेजिष्णोजगजन्मिनां श्रीमत्सागर मंदिमाम विदितः सिद्धांतवाधिविधुः ॥५॥ ............"तपोयतिः ललायो भव्यानिशम्य परिवर्धननीरघो। माक्ष्यसल्ल.""क: विकर्तनसत्कुठार स्तस्मादिलोभवनतोजनि स्वर्णनंदिः॥६॥
माध्यात्मतरंगिनी के कर्ता सोमदेव मुनि है। जो योगमार्ग के अच्छे ज्ञाता थे। प्रस्तुत टीका गुजरात के वटपल्ली नगर या ग्राम मे सागर नन्दी के शिष्य स्वर्णनन्दी ने बनायी लगती है। पद्याक तीन मे माग्यवेट पौर शुभतुंगदेववसति का भी उल्लेख है।
पाटण भण्डार सूची के पृष्ठ ३१ में सोमदेवसूरिचित 'नीतिवाक्यामृत' की ९५ पत्रों की प्रति संवत १२९० लि. का विवरण छपा है। लेखन प्रशस्ति इस प्रकार है'सवत १२६० वर्षे प्रथम श्रावणव दि १० शनावोह श्रीमद्देवपत्तने गडधोत्रिनेत्रप्रभृतिपंचकुलप्रतिपत्तो मह सोहकेन नीतिवाक्यामृत सस्कपुस्तिका लिखापिता। मगल महाश्रोः शुभ भवतु लेखक-पाठकयोः । भवष्टि कटि etc. यादृशं etc. पाटणके भंडार मे ये महाकवि हरिचन्द्र के धर्मशम्र्माभ्युदयं काव्य की २ ताडपत्रीय प्रतियां है। जिनमे से पहली प्रति १६५ पत्रों की संवत १२ ७ को लिखी हुई है। लेखन प्रसस्ति इस प्रकार है-संवत १२८७ वर्षे हरिचंदकवि विरचित धम्मंशर्माभ्युदय काव्यपुस्तिका श्रीरलाकरसरि (२) मादेशेन कोत्तिचनगणिना लिखितमिति भद्रं ।
इसी धर्मशर्माभ्युदय की दूसरी प्रति १४८ पत्रों की है। पतः वह भी यहाँ दी जा रही है।
अपास्ति गज्वरो देशो, विस्यातो भवनत्रये धर्मचक्रभूता तीर्घनादयनिवरपि ॥१॥ विसापरं पुरं तत्र, विद्याविभवसंभवं ।
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२८, बर्ष १३, कि..
पपः शऱ्या ख्यातः, कुले 'हंबर्ड' संज्ञके ॥२॥ तस्मिनवंशे दादनामा प्रसिद्धो, भ्राता जातो निर्मलाख्यस्तदीयः। सर्वज्ञेम्यो यो दो सुप्रतिष्ठा, तं दातारं को भवेत् स्तोतुमीश ? ॥३॥ बावस्य पत्नी भूमिमोक्लाल्या, शोलाम्बुराशेः शुचिचंदरेखा । तंत्रदनचाहणिदेविभर्ता, पालनामा महिमधाम ॥४॥ ताम्यां प्रसूतो नयनाभिरामो, मंडाकनामा तनयोविनीतः । श्रीजनधर्मेण पवित्रदेहो, दानेन लक्ष्मी सफलां करोति ॥५॥ हान-जासलसंज्ञकेस्य सुभगे भायें भवेता द्वये मिथ्यात्वमदाहपावकशिखे, सद्धर्ममार्गे रते । सागारव्रतरक्षणकनिपुणे, रत्नत्रयोद्भासके कद्रस्येवनभोनदी-गिरिसुते लावलीलायुते ॥६।। श्रीकंदकुंवस्य बभूव वशे, श्री रामचन्द्रः (व:) प्रथितप्रभावः ।।७।। प्रद्योतते संप्रति तस्य पट्ट, विद्याप्रमावेन विशालकीतिः । शिष्य रनेकै रुपसेव्यमान, एकांतवादाद्रिविनाशवजं ॥८॥ जयति विजयसिंहः श्रीविशालस्य शिष्यो जिनगुणमणिमाला, यस्य कंठे सदव । ममितमहिमशशेधर्मनाथस्य काव्यं
भनेकान्त
निजसुकृतनिमित्तं तेन तस्मै वितीर्णम् ॥४॥
पाटण भण्डार की ताडपत्रीयप्रति नं० ३६४ में 'प्रमेय. कमलमार्तण्ड' प्रथम खण्ड की (२७८ पत्रों की प्रति) है। उसके अन्त मे इतना सा ही लिखा हुमा है-प्रमेयकमलमार्तडः खडः हीवाभार्याश्रा० पौंच सरकः ।
पाटण के खरतरवमहि में शुभचन्द्र के 'ज्ञानार्णव' की २०७ पत्रो की ताडपत्रीय प्रति है जिनकी लेखन प्रशस्ति विस्तृत होने से यहा नही दी जा रही है। केवल अंतिम दो पक्तियां ही दी जा रही हैं. जिसमें लेखन संवत दिया हुया है-सवत १२८४ वर्षे वंशाप शुदि १० शुक्रे गोमडले दिगम्बर गन कुल सहस्रकीतिस्यार्थे प० केशरि सुनवोसलेन लिखितमिति ।
जहां तक मेरी जानकारी है इन दिगम्बर ग्रन्थों की इतनी प्राचीन प्रतियां दिगम्बर शास्त्र भण्डारी में भी नहीं है। प्राचीन ग्रन्थों के सम्पादन में प्राचीन व शुद्ध प्रतियों को अत्यन्त प्रावश्यकता होती है। बीच-बीच में मुझे कई प्राचीन ग्रन्थ सम्पादकों- दिगम्बर विद्वानो ने पूछा भी था कि प्रभुक ग्रन्य की कोई प्राचीन व शुद्ध प्रति ध्यान में हो तो सूचित करें बहुत बार प्रति के लेखकों की प्रसावधानी से गलन या अशुद्ध पाठ लिख दिया जाता है, कही पाठ छट जाता है। कही किसी के द्वारा जोड दिया जाता है। इमलिए ग्रन्थ सपादन के समय कई प्रतियो को सामने रख कर शुद्ध पाठ का निर्णय किया जाता है। पाटण भण्डार सूची को प्रकाशित हए ४३ वर्ष हो गये पर अभी तक उपरोक्त दि० ग्रन्थो की प्राचीनतम प्रतियो का किसी ने उपयोग नही किया।
. नाहटो की गधाड़, बीकानेर
अनकान्त
गोम्मटेश्वर बाहुबली विशेषांक 'अनेकान्त' का आगामी अक 'गोम्मटेश्वर बाहुबली विशेषाक' होगा। दो खण्डों में विभक्त इस विशेषाक के प्रथम खण्ड मे, भगवान बाहवली के अलीकिक दिव्य व्यक्तित्वके विविध पक्षो पर लेखादि तथा द्वितीय खण्ड मे जैन-साहित्य, सस्कृति एवं इतिहास पर मौलिक गवेषणापूर्ण सामग्री सम्मिलित होगी।
'अनेकान्त' को सदा आपके महत्त्वपूर्ण सहयोग का गौरव प्राप्त रहा है। अत आपसे सानुरोध निवेदन है कि इस विशेषाक के लिए कृपया शीघ्रातिशीघ्र अपने शोधपूर्ण लेख, चित्र आदि भेज कर अनुगृहीत करे ।
-सम्पादक
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वैदिक और जैन-धर्म एक तुलनात्मक विश्लेषण
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वैदिक धर्म और जेत-धर्म को तुलनात्मक दृष्टि से देखने पर प्राचीन जैन साहित्य मे प्राप्त जैन-धर्म का स्वरूप वेदों मे प्राप्त वैदिक धर्म से अत्यधिक सुसंस्कृत मालूम पडता है । वेदों मे प्रतिपादित इन्द्रादि देवताओं का स्वरूप और जैनों के प्राराध्य देव जिनेश्वर का स्वरूप- इन दोनों को विचार कर देखने पर वैदिक देवता सामान्य मनुष्यो से अधिक शक्तिशाली मालूम पड़ने पर भी वृत्ति को दृष्टि से हीन ही प्रतीत होते है ।
मानवों में घासानी से दृष्टिगोचर होनेवाले काम, क्रोध, राग पोर द्वेष प्रादि दोष वैदिक देवनाओं में प्रचुर परिणाम मे प्राप्त होते है, परन्तु जैनो के प्राराध्य देवों मे ये सब दोष बिल्कुल नहीं है। वैदिक देवनाओ का पूज्यश्व किसी भी प्रकार की प्राध्यात्मिक शक्ति से न होकर, नाना प्रकार के अनुग्रह-निग्रहो के कारण से ही प्राप्त है। जैनो के प्राराध्य जिनेश्वर इस प्रकार की किसी भी शक्ति के द्वारा पूज्य न होकर वीतराग गुण में ही निहित प्रदर भाव ही भाराधक को अपने आराध्य की पूजा के लिए प्रेरित करता है। वैदिक धर्म मे ऐसा नहीं है। उसमे वैदिक देवताओं का भय ही माराधक को उनकी प्राराधना में प्रेरित करता है । वैदिक लोगो ने यद्यपि भू-देवता अर्थात् ब्राह्मणों की कल्पना तो की है अवश्य, परन्तु कालक्रम से वे स्वार्थी हो गये। यह दोष जैन-धर्म मे मो दृष्टि गोचर होता है क्योकि बाद में ब्राह्मणो को अपन पौरोहित्य की रक्षा ही मुख्य रही।
वैदिक धर्म मे धार्मिक कर्म-काण्ड-रूपी यज्ञ ही प्रधान रहा ये बज प्राय पशु-हिंसा के बिना पूर्ण नहीं होता था। जैन धर्म मे धनशन आदि बाह्य भौर प्राभ्यन्तरत हो प्रधान कर्मकाण्ड है। इसमे अर्थात् जैन धर्म के हिसा का नाम ही नहीं है । वेदक यज्ञ देवताओ को सतुष्ट करने के लिए ही किया जाता था। जंगमं मे धार्मिक अनुष्ठान केवल ग्रात्मवर्ष के लिए ही किया जाता है। जैन लोग किसी भी देवता को सतुष्ट करने के लिए कुछ नहीं करत है, क्योंकि उनके द्वाराध्य देव शेतरागी है। वह केवल
1 पं० के० भुजबली, शास्त्री
अनुकरणीयरूप में ही धाराध्य है। जंनों मे इस समय प्रचलित कुछ कर्मकाण्ड बहुत बंदिक धर्म के धनुकरण मात्र है। ये सब जैन-धर्म के मूल सिद्धान्त के प्रति
कूल है ।
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वैदिक लोगों ने नाना प्रकार के इन्द्रादि देवताओं की कल्पना की थी, जो तीन लोकों मे ही विद्यमान है। देवता मनुष्य से भिन्न होकर मनुष्य वर्ग के लिए धाराध्य बने हुए थे परन्तु जंन लोग देव वर्ग को मनुष्य-वर्ग से मिल भिन्न मानन पर भी उन्हें पाराध्य नहीं मानते है, जंनों से भी कतिपय व्यक्ति कुछ देवताम्रों को अवश्य पूजते है, किन्तु वह केवल भौतिक उन्नति को ही दृष्टि से है, प्राध्यात्मिक उन्नति को दृष्टि से नहीं ।
जैन धर्म मे स्वीकृत वीतरागी मनुष्य की कल्पना देवताओंों को भी मान्य भौर प्राराध्य हैं। देवता भी उस मनुष्य की सेवा करते है सारांश यह है कि जैन-धर्म देवताओं की अपेक्षा मानव की प्रतिष्ठा को बढ़ाने के लिए भागे भाया है ।
वैदिक धर्म मे इस विश्व का निर्माण अथवा नियन्त्रण ईश्वर के द्वारा माना गया है। इसके प्रतिकूल जैन सिद्धान्त विश्व का निर्माण और नियंत्रण ककर्म के ि
किसी व्यक्ति को नहीं मानता है। इस मदाग को भगवद् गीता भादि कतिपय वैदिक ग्रन्थ भी मानते हैं ईश्वर को सृष्टिकर्ता मानने पर अनेक जटिल प्रश्न उपस्थित होते हैं, जिनका यद्यपि उत्तर नहीं मिलता है। यह विषय प्रादिपुराण' बादि पुराणकम्बो मे तथा सही प्रमेयकमलमार्तंड श्लोकवातिकादि पाय-यों मे विवाद में विति है।
बेदी के उपरान्त ब्राह्मण-काल मे देवताओ के लिए यज्ञ प्रधान कर्म बन गया । उस काम मे पुरोहित ने क्रिया के महत्व को बहुत बढ़ा दिया। इस इच्छा न होने पर भी देवलोग अनिवार्य रूप मे विधि युक्त यज्ञों मे परवड हो गये। एक प्रकार से यह देवताथी पर मनुष्यों को विजय थी। किन्तु इसमें एक शेष प्रवश्य था। वह यह कि
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३०,३३,०३
ब्राह्मण वर्ग यज्ञ-विधि को अपने एकाधिपत्य में रखना चाहता था। उस समय मंदिक मन्त्रराठ और विधि-विधान ब्राह्मण-वर्ग की अनिवार्यता को स्पष्ट सूचित करता है।
जैन धर्म इस मान्यता के विरुद्ध है। जैन-धर्म के धनुसार स्याग, तप प्रादि द्वारा ही उन्नत स्थान को प्राप्त किया जा सकता है। वस्तुतः यह मनुष्य का वास्तविक मार्ग-दर्शन करता है। वैदिक धर्म में को वेद पाठ करने के लिए मनाही है परन्तु जैन शास्त्र को सुनने-पढ़ते के लिए मनाही नहीं है। जैन धर्म में धर्मकार्य के माचरण मैं पुरुषोंकी ही तरह स्त्रियों को मो पूर्ण अधिकार प्राप्त है। वेदाध्ययन में शब्दों को महत्व प्राप्त होने से वेद-मन्त्र रक्षित होकर संस्कृत भाषा को महत्व प्राप्न हुधा पर जैनों में शब्दों की अपेक्षा पदार्थों को महत्व दिया गया । इसलिए जैनों में धर्म के मौलिक सिद्धान्त रक्षित होने पर भी शब्द रक्षित नहीं हुए। इसके अलावा जैन लोग सस्कृत भाषा को अधिक महत्व देते रहे। प्राकृत भाषा प्रपनी प्रकृति के अनुसार सदा एक ही रूप में नहीं रह सकती है। अर्थात यह बदलती रहती है।
वैदिक-संस्कृत उसी रूप मे बाज भी वेदों में उपलब्ध है उपनिषदों के पूर्व वैदिक धर्म मे ब्राह्मणों का प्रभुत्व स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है । जन-धमं मे प्रारम्भ से ही क्षत्रिय लोग प्रमुख स्थान प्राप्त किए हुए दृष्टिगोचर होते है परन्तु उपनिषद्कालीन वैदिक धर्म मे ब्राह्मणों की अपेक्षा क्षत्रियों को प्रमुख स्थान प्राप्त दृष्टिगोचर होता है । उपनिषदों में प्रात्म-विद्या को प्रमुख स्थान प्राप्त था । यहां पर वस्तुतः ब्राह्मणों पर क्षत्रियों का प्रभुत्व स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।
वैदिक धर्म और जैन धर्म में दृष्टिगोचर होने वाले इस विरोध को देखकर प्रारम्भ में कतिपय धाधुनिक पाश्चात्य विद्वानों ने बौद्ध धर्म की तरह जैन-धर्म को वैदिक-धर्म का विरोधी एक क्रांतिकारी नूतन धर्म लिखा है इतना ही नहीं, जैन-धर्म को बोद्ध-धर्म की शाखा के रूप में भी कहा। परन्तु जैन-धर्म पर बौद्ध-धर्म के मौलिक साहित्य का अध्ययन करने के उपरान्त उन पाश्चात्य विद्वानों ने ही इस भ्रांति को दूर कर दिया है। भाज अध्ययनशील दूरदर्शी पाश्चात्य और भारतीय विद्वान न धर्मको वैदिक धर्म से भिन्न एक स्वतन्त्र धर्म
अनेकान्त
मानने लगे हैं। हो, प्राज भी कतिपय विद्वान कभी-कभी उस पूर्वोक्त राग को प्रलापते हैं।
हम प्राचीनता के पक्षपाती नहीं है। क्योंकि वस्तु प्राचीन होने से हो निर्दोष नहीं होती है । उसका निरूपण यथार्थ रूप में होने पर ही वह निर्दोष होती है। बाहर से भारत में भागत पायें लोगों को जिस धर्म के साथ लड़ना पहा, उस धर्म का विकसित रूप ही जैन-धर्म है। यदि वेदों से हो जैन-धर्म विकसित हुआ होता प्रथवा वैदिकधर्म के विरोध में जैन-धर्म का जन्म हवा होता, तो वेद को प्रमाण मानकर वेद विरोधी बातों का प्रचार करने का कार्य अन्य वैदिक धर्मों की तरह जैन-धर्म भी करता रहता । परन्तु जैन धर्म ने ऐसा नही किया है। यह वेदनिन्दक कहलाकर नास्तिक धर्म कहलाया। जैन धर्म ने कभी भी वेद को प्रमाण रूप में स्वीकार नही किया । ऐसी परिस्थिति में जैन धर्म को वैदिक धर्म की शाखा मानना बिल्कुल भूल है । सत्य परिस्थिति इस प्रकार हैं- वैदिक पायें पूर्व की घोर बढ़ते हुए भोतिकस्व को त्यागकर माध्याम की घोर जाने लगे। इसके कारण को खोजने पर हमे यह बात विदित होती है कि प्रायं लोग संस्कारी प्रशामों के प्रभाव से प्रभावित होकर अपने पूर्व की रीति को स्वागने लगे यह विषय हमें उपनिषदों की रचना मे स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। उपनिषदों मे वेद के विरुद्ध मान्यताए दृष्टिगोचर होने पर भी वे वेदों के अंग होकर वेदांत के नाम से प्रसिद्ध हुए ।
उपनिषदों की रचना के बाद दार्शनिक वेदों को एक घोर रखकर उपनियों के द्वारा देव को प्रतिष्ठा को बढाते गये । उस समय वेदो मे भक्ति रहने पर भी निष्ठा मात्र उपनिषदों में ही रही । एक जमाने में वेद का भयं गौण होकर उसकी पनि ही रह गई। पूर्व भारत के प्रज्ञाओं का संस्कार ही वेदों के हस्र का कारण हुधा, यह कहना गलत नहीं होगा ।
जैन धर्म के सभी प्रवर्तकों ने प्रायः पूर्व भारत में हो जन्म लिया है। पूर्व भारत ही न धर्म का उद्गम स्थान रहा है। जैन धर्म ने ही वैदिक धर्म को नवीन रूप धारण करने के लिए विवश किया होगा तथा हिंसक घोर भौतिकधर्म के स्थान पर हिंसा घोर प्राध्यात्मिक का पाठ पढ़ाया होगा । (शेष घावरण पृ० ३ पर)
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महान् विद्वान् हर्षकोति को परम्परा
श्रीप्रगरचन्द नाहटा,बीकानेर
१७वीं शती के महान एवं नागपुरीय तपागच्छ के ४४. श्री वादिदेवसूरि ११७४ वर्ष ८४ बाद घेता विद्वान हर्षकीतिसूरि सम्बन्धी मेरा लेख पहले पनेकान्त में ३१ हजार श्रावक प्रतिबोधक छपा था, उसे काफी वर्ष हो गये। इधर 'श्रमण' के ४५. श्री पपप्रभ सूरि भुवन दीपक अन्यकर्ता अक्टूबर ७६ के अंक में हर्ष कीतिसूरि रचित घातु तरगिणी ४६. श्री प्रसन्नचन्द्र इतनागपुरी तपागच्छ शाला नामक मेरा लेख प्रकाशित हमा है। इसमे जो हर्षकीर्ति ४७. श्री गुण समृद्रसरि सूरि से पूर्ववर्ती प्राचार्यों में जयशेखर मूरि से परम्परा ४८. श्री जयशेखरसूरि स० १३०१ वर्ष १२ गोत्र भारम्भ की है. इस सम्बन्ध में खोज करके उनके पहले प्रतिबोषक लोढ़ागोत्र कर्मग्रन्यकर्ता पीछे की प्राचार्य परम्परा पर कुछ प्रकाश डालना ४६. श्री अजसेनसरि स. १३४२ वर्ष पाचार्य. पावश्यक समझता हूं। वैसे श्री नागपुरीय 'बहत-त । हजार प्रतिबोषक, सारग भूपेन देशनाजशो गुर्जर देशः । गच्छोय पट्टावली' नामक गुजराती प्राय सन १९३८ मे ५०. श्री रत्नशेख र सूरि १३८२ वर्ष महमदाबाद से प्रकाशित हुप्रा है, उसे देखा पर उसमें ठीक ५१. श्री हेमतिलक सूरि सं० १३६६ सिक से विवरण मिला नही । हैम हमसूरि के बाद तथा पट्टावली पेरोजशाहेन परिघापति ढिल्यालोदा गोत्र। इसमें परम्परा ही बदल जाती है। इसका सम्बन्ध वास्तव ५२. श्री हेमचन्द्राचार्य में पावचन्द्रसूरि व उनके बाद के प्राचार्यों से है। हर्षकीति ५३. बीपूर्णचन्द्र सूरि सं० १४२४ वर्ष होमणगोत्र सूरि ने भी 'धातुतरंगणी की प्रशस्ति में जो अपनी परंपरा ५४. श्री हेमहंसमरि स. १४५३ खण्डेलवाल जाती. के नाम दिये हैं, वे भी क्रमिक एवं पूरे नहीं हैं। बीच-बीच यतशिष्य गणि लोढ़ा गोत्र सं. जिणदेव संस्थापित में प्रसिद्ध उपाध्याय व प्राचार्यों का विवरण देना ही उन्हें ५५ श्री रत्नसागराचार्य दुगड गोत्र अधिक उचित प्रतीत हुमा लगता है। इसलिए मैंने अपने ५६. श्री हेम समुद्र सूरि १४९६ चित्र कटे संस्थापित प्रन्यालय को एक अन्य पट्टावली देखी तो उसमें हर्षकीति ५७, श्री हेमरत्नसूरि १५२६ वर्ष लोनी गोत्रीय सूरि पाचार्य परम्परा के ५७ श्लोक हैं. और इसके ५८. भगवान श्री सोमरस्नसरि स. १५४२ वर्षे बाद अन्य में मारकी परम्परा के प्राचार्यों के नाम एवं सेठिया सोनी गोत्र उनका संक्षिप्त विवरण गद्य रूप में लिखे हुये मिले। इस ५६. भगवान श्री राजरत्नमरि सं० १५७४ वर्षे पट्टावली के नामों से सुप्रसिद्ध वादिदेव मूरिका क्रमांक ४४ जेतवाल जातीय गोत्र सार एवन है। 'नागपुरीयतपाशाख।' उनके बाद से ही प्रसिद्ध हुई। ६०. भगवान श्री चन्द्रकीसिरि सं० १५८६ तिमी. क्योंकि सं १२०४ में जगतचन्द्र सूरि को तपा विरुद मिला रेचा बहतगोत्रि जब से उनकी परम्परा तपागच्छ के नाम से प्रसिद्ध होने ६१. भगवान श्रीमानकीति सरिसं० १६२४ वर्षे लपी। अतः देवसूरि और उनकी परम्परा का मुख्य निवास पोरवाह पद्यावती गो नागोर में होने से ही उनकी नागपुरीय गच्छीय का 'तपा- ६२. भगवान श्री हर्ष-कोति सरि पंड मिया, पउपरी गल्छीय' पसनवम्बसूरि से प्रसिद्ध हो गया। वादीदेव. सं. १६४३ वर्ष सरिसे इसकी पौर माचार्य नामावली प्राप्त हुई है, उसे ६३. भगवान श्री अमरकीतिसरि १६४३ वर्षे प्राचार्य हो वहां रियामा रहा। परम्परा
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३९, वर्ष ३३, कि० 1
इनमें से १४वें पटचर हेमहंससूर के बाद पार्श्व चन्द्र सूरि वाली शाखा मलग हो जाती है। उसका भी १७त्री शताब्दी तक का जो विवरण ६ पट्टावली में दिया है, उसे नीचे दे रहा हूं। क्योंकि पायचन्द्र गच्छ की पट्टावली मयो ममी निवास पुरन और साघुरन इन तीनों के धागे 'सूरि' शब्द लगा दिया गया है, वास्तव में मुझे प्राप्त पट्टावली के अनुसार ये तीनों ही प्राचार्य नहीं थे । इस पट्टावली में से पञ्चवड पट्टावली में तो हर्षकीर्तिपुर तक के नाम है। उसके बाद के नाम नहीं है और पाश्चन्द्र सूरि की परम्परा में भी विमलचन्द्र सूरि के स० १६६८ में प्राचार्य पद मिलने तक का ही उल्लेख है। इससे यह स्पष्ट है कि यह पट्टावली स० १६७४ से पहले की लिखी हुई है। नही तो इसमें १६७४ विमलचन्द्रसूरि का स्वर्गवास हथा, उसका भी उल्लेख अवश्य रहता । धतः इस पुरानी पट्टावली में लक्ष्मीनिवास पुण्य रत्न थोर साधुरश्न के नामो के धागे 'सूरि' पद नही दिया है, पर उन्हें 'प०' ही लिखा है। मतः वह ही प्रामाणिक है। पट्टावली में इसका विवरण इस प्रकार है
५५. श्री लक्ष्मीनिवास पंडित शिष्य ५६. श्री पूण्यरत्न 'सर्व' विद्या विशारद १७. भी साघुरन पण्डितोतयः
५८. श्री पाश्वं चन्द्र सूरि-पोरवाड़ जातीय सं० १५२७ जनक हमीर पुरे ० १५४६ महात्मा पोसालम. हि दीक्षा सं० १५६५ किया मघरी सं० १६१२ मागसिर सुबि ३ स्वर्ग जोधपुरे श्री पासवान द्याचार्य पद में १५७७ में संसणपूरे मुठ जातीया मंत्री विकई पद प्रतिष्ठा की थी ५६. श्री समरचन्द्रसूरि श्री श्री माली जातीय पिता दोसी भीमा माता वल्लावे सं० १५६० जन्म पाटनि पौराणि मार्गतिर सुदि इग्यारस दिने सं० १५७५ दीक्षा सं० २५९९ 116112 पद समखगपुरे मान वापरोद प्राचार्य पद सं० गीले महोछव की घोंस १६२६ जेठ वदी १ टीस्प
का
६०. श्री रामचन्द्र सूरि-सं० १९०६ भादवा वदी १ जन्म घाबू नपरे पिता दोशी जावड़ माता कमला दे सं० १६२६ दीक्षा स्तम्भ तीर्थ प्रथमाचार्य पद सं० १६६६ स्तंभ तो निर्वाण ।।
६१. श्री विमलचन्द सूरि-सं० १६४६ जम्म प्रसाठ सुदि ६ सं० १६५६ वर्षे ज्येष्ठ मासे दीक्षा वैसाख सुदि ३ सं०.१६६१ प्राचार्य पद स्तम्भ ती सा० इन्द्रचन्द्र जी पद प्रतिष्ठा श्री हर्षकीर्तिसूरि वैसे तो सारस्वत दीपिका के कर्ता चद्रकीतिरि के शिष्य थे पर चन्दकीर्तिसूरि के
पट्ट पर भानकीर्तिसूरि स्थापित हुये । उनके बाद स० १६४३ मे हर्ष कीर्तिसूरि प्रोर इसी स० में उनके पट्ट पर अमरकोतिसूरि श्राचार्य पद स्थापित हुये । यह उपरोक्त पट्टावली से मालूम होता है। हर्ष कोर्तिरि चंडालिया या चौधरी वंश के थे। यह भी इस पट्टावली से ही जानकारी मिली है। इनके पट्टधर भ्रमर कीर्तिसूरि ने कालिदास के सहार काव्य की टीका बनाई है। हर्षकीर्ति सूरि के सम्बन्ध मे मैंने एक खोजपूर्ण लेख (धनेकान्त) के मई जून सन् १९५० के अंक में प्रकाशित करवाया था। इसमें मैंने इनका जन्म सवत्, जैनदीक्षा उपाध्याय व सूरि पद के समय के सम्बन्ध मे लिखा था कि हकीर्ति के लिखी हुई सं० १६१३ की सप्तपदार्थों को प्रति उपलब्ध है । भ्रतः इनका जन्म सं० १५६० से १५६५ के बीच होना चाहिये और दीक्षा छोटी उम्र में ही हुई लगती है अतः सं० १६०५ से १० के बीच हुई होगी। सं०] १६२९ की प्रति में इनके नाम के साथ 'उपाध्याय' पद विशेषण पाया जाता है । अतः इससे पहले वे अच्छे विद्वान बन चुके थे । धतः उन्हे उपाध्याय पद दे दिया गया था। सं० १६४३ में इनको प्राचार्य पद मिला। यह उसके बाद की मिली पट्टावली से सिद्ध है । पर एक समस्या रह जाती है कि प्राप प्राचार्य बने उसी समय धमरकीतिरि को अपने पद पर उन्हें पट्टधर के रूप में कैसे प्रतिष्ठित कर दिया। क्योंकि आपके लिखवाई हुई प्रति सं० १६६० की उपलब्ध है और भापकी मम्तिम रचना 'सेड प्रनिट्कारिका वृत्ति' हमारे संग्रह में है । जिसकी प्रशस्तिः के अनुसार इसकी रचना सं० १९६३ के ज्येष्ठ सुदि में हुई है । यथा
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राम ऋतु-रस भूष ज्येष्ठ वल पक्ष तो सेनिकारिका कारि- हर्ष कीर्ति मुनीश्वरः ॥२१॥ इससे इकीतिसूरि सं० २६६३ तक विद्यमान थे, सिद्ध होता है। तब इससे २० वर्ष पहले ममरकीति को
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गरिका पद देने का जो पट्टावली में उल्लेख है, वह साँऽजनि प्रथम एषमपाभिरम्य: या ॥ विचारणीय हो जाता है। पर ऋतु संहार की टीका इति श्री अमरकोसिसूरि कृतायां टीकार्या प्रशस्ति से ऐसा लगता है कि वे वास्तव में मानकी तिमूरि श्री ग्रीष्मऋतु वर्णनो नाम प्रथमः सर्गः ॥ के पट्टधर होंगे। प्रतः हर्पकोति और प्रमरकीति दोनों को
नामपुरोयतपागच्छ को २ शाखायें होगई जिनमें से एक साथ या पास-पास में ही प्राचार्य पद भान कीतिसूरि ने पादचन्द्रसरि शाखा में प्रब कोई नहीं है। और इम दिया होगा। हर्षकोसिसूरि तो अपने को चन्द्र कीतिसूरि शाखा के विशेष विवरण वानी पट्रावली भी नहीं मिलती। के शिष्य ही लिखते रहे हैं। प्रतः चन्द्रकीरि के वृद्धा
हमें जो एकमात्र पट्टावली मिला है उसमें भी हर्ष कोनि वस्था या स्वर्गवास होने के बाद दीक्षा पद मे बड़े होने के मरि और प्रमर कीर्तिरि के नाम के बाद के नाम नहीं हैं। कारण मानकोतिसूरि को चन्द्र कीति गरि का पट्टधर ।
इम के बाद भी उनकी परम्परा कुछ बलजी तो रही है। बनाया होगा और हर्षकीतिसूरि उस समय उपाध्याय क्योंकि पाशवचन्द्र मरि शाखा की पट्टावली में बीच में अन्य पद पर होंगे, जब भानकीतिमूरि का स्वर्गवास हो गया
उमी परम्परा के प्राचार्य व ममियों के नाम पाये हैं । पर तब एक और चन्द्रकीलिमूरि के प्रधान और विद्वान शिष्य उमसे हर्षकीन परपरा में क्रमशः पट्टधर कौन से हुये ? हर्षकीन मूरि को दमरी और मानकीतिसूरि के शिष्य एवं कब तक इनकी परंपरा चली? यह ज्ञात नहीं होता। अमरकोति को भी प्राचार्य पद दे दिया गया होगा।
हपंकीतिसरि के बाद इस शाखा में कोई ऐसा विद्वान नहीं प्रमाणाभाव से वास्तविक स्थिति निश्चयरूप से तो बताई
हमा लगता, जिनके रचित ग्रन्थों को प्रशस्तियों से पीछे नही जा सकती पर सम्भावना पौर मेरा अनुमान यही है। को ,रपग को जानकारी मिल सके। अमरीतिसरिकी
अमरकी तिमूरि ऋतुसहार की टीका में अपने को भी ऋतुसंहार टोका के पलावा पोर कोई रचना ज्ञात मानकीतिसूरि को पट्टधर ही बतलाते है। यथा --- नहीं है। हर्षकीतिसरि को स्वयं को लिखी हई बहुत-सी श्री मानकीर्तिवरमूरि गुण करुणा
प्रतियां प्राप्त है। पनप संस्कृत लाईब्रगे, बीकानेर एव
ज्ञानभण्डारों में वे मेरे देखने में पाई है, संभवतः कुछ पट्रेऽणु वं अमरकीति विनिमिता
प्रतियां हमारे संग्रहालय या अन्यालय में भी है। श्रीमद्विशेष महान काव्यकृतो,
---नाहटों की गवाह, बीकानेर
(पृ० ३० का शेषांश) सिन्धु सस्कृति को प्रकाश में लाने के पूर्व पाश्चात्य पाया है और पनेक शाखा प्रशावापों में विभक्तहमा है। विद्वान भारतीय-सस्कृति के मूल को वेदों में मानते रहे। वेदों में भी हमें यही बात दृष्टिगोचर होती है। प्राचीन परन्तु वे ही मोहन जोदडों और हडप्पा के उत्खनन के बाद जैन और बौद्ध शास्त्रों में प्रमो के विविध प्रवाहों को अपने अभिप्राय को बदनकर वैदिककाल के प्वं मे वेदो सूत्रबद्ध करके श्रमण पौर ब्राह्मण इन दो भागों में विभक्त में भी प्रत्यधिक उजाल एक भारतीय-सात रही है, किए जाने की बात दष्टिगोचर होती है। इनमें ब्राह्मण पमा स्वीकार करने लगे। उधर उपर्युक्त मिन्यु सस्कृति वैदिक-सस्कृति में पोर शेष श्रमण सम्कृति में यभित किए के अवशेष हमें प्राय: उत्तर पश्चिम भारत में दाष्टगोचर गए है। ऋग्वेद १०.१३६.२ में बात रशना मुनियों का होते हैं। ऐसी परिस्थिति में पाश्चात्य तथा भारतीय उन्नेम्व है। इसका अर्थ नग्नमनि होना है। प्रारण्यक में विद्वान भारतीय धर्मों के इतिहास को नवीन दृष्टि मे तो श्रमण और वातरशना इन दोनों को एक ही प्रर्थ में देखने को तैयार हए हैं। अब अनेक विद्वान जन-धर्म को लिया गया है। उपनिषदों में तापम और श्रमण ये दोनों वैदिक-धर्म से भिन्न एक स्वतन्त्र धर्म मानकर जैन-घमं एक ही पंक्ति में लिये गये हैं। इन बातों पर सूक्ष्मता से को वैदिक धर्म को शाखा अथवा विरोधो धर्म मानने से विनार करने पर विदित होता है कि श्रमणों को तप भोर स्पष्ट इन्कार करते है।
योग अधिक प्रिय थे। ऋग्वेद में कथित यति पोर वात.. वेदों के कथनानुसार इन्द्र ने दास एवं दस्यों की रशना मुनि मी येही मालम होते है। इस दष्टि से भी यति-मुनियो की भी हत्या की थी (अथर्व २.५ ३.) । यति
त्या की थी ( २.
५ ल जैन धर्म का सम्बन्ध श्रमण-परम्परा से मिट होता है। और मुनि शब्द को भारत के मूल निवासियों को सस्कृति श्रमण-परम्परा और ब्राह्मण-परम्परा-इन दोनों में का सूचक मानना गलत नही होगा । इन शब्दों का विशेष प्रारम्भ से ही विरोध चला पा रहा था। इन्द्र के द्वारा प्रयोग और प्रतिष्ठा हम जैन-सस्कृति में प्रारम्भ से ही यति और मुनियो की हत्या किया जाना और पातंजलि के स्पष्ट देखते पा रहे हैं। इसलिए जन-धर्म का प्राचीन नाम द्वारा अपने महाभाध्य (५. ४. ६) में श्रमण और ब्राह्मणो यति-धर्म अथवा मुनि-धर्म करने पर विरोध नहीं होगा। के शाश्वन विरोध का उल्लेख किया जाना --ये दोनों यति पोर मनिधर्म दीर्घकाल से हो प्रभावित होता हुमा बाते इसके सुदृढ़ प्रमाण है।
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R.N. 10591/82 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन पुरातनवाक्य-सूची : प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थों को पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादि प्रन्थों में उद्धृत दूसरे पद्यों की भी अनुक्रमगी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची । मंपादक : मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषगापूर्ण महत्त्व को ७ पृष्ठ की प्रस्तावना से प्रलकृत, डा. कालीदास माग, एम. ए., डी. लिट. के प्राक्कथन (Foreword) और डा० ए. एन. उपाध्ये, एम. ए.,डी. लिट. की भूमिका (Introduction) से भूपित है। शोध-खोज के विद्वानों के लिए प्रतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द । २२.०० स्वयम्भू स्तोत्र : समन्तभद्र भारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद तथा महत्व
की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित । स्तुतिविद्या : स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापों के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद मौर श्री जुगल
किशोर मुख्तार की महत्त्व की प्रस्तावनादि से अलंकृत, सुन्दर, जिल्द-सहित। पश्त्यनुशासन : तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण, समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं
हमा था। मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलकृत, सजिल्द । समीचीन धर्मशास्त्र: स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोर
जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । नग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह, भाग १: संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थो की प्रशस्तियों का मगलाचरण
सहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं० परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक साहित्य.
परिचयात्मक प्रस्तावना से अलकृत, सजिल्द । ... जनप्रन्य-प्रशस्ति संग्रह, भाग २ : अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्त्वपूर्ण संग्रह । विपन
प्रथकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित । स. पं. परमानन्द शास्त्रो। सजिल्द। १५.०० समाधितन्त्र और इष्टोपवेश : अध्यात्मकृत्ति, प० परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित पावणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ : श्री राजकृष्ण जैन ... ग्याय-बीपिका : प्रा० अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रा. डा० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा स० अनु०। १०.०० जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४, सजिल्द । कत्तायपारसुत्त : मूल ग्रन्थ की रचना ग्राज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह मौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त-शास्त्री। उपयोगी परिशिष्टो और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पष्ठों में। पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द ।
२५-०० मंग निकष-रत्नावली: श्री मिलापचन्द्र तथा श्री रतनलाल कटारिया ध्यानातक (ध्यानस्तव सहित) : संपादक पं. बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री
१२-०० मायक धर्म संहिता : श्री दरयावसिंह सोषिया जंन लक्षाबलो (तीन भागों में) : सं०५० बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री
प्रत्येक माग ४.... Reality : प्रा० पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अंग्रेजी में मनुवाद । बड़े पाकार के ३००१., एक्को जिल्द Jain Bibliography (Universal Encyclopaedia of Jain References) (Pages 2500) (Under print)
प्रकाशक----वीर सेवा मन्दिर के लिए रूपवाणी प्रिटिंग हाउस, दरियागंज, नई दिल्ली-२ से मुद्रित।
७-००
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त्रैमासिक शोध-पत्रिका
गोम्मटेश्वर बाहुबली विशेषांक
वर्ष ३३ : किरण
अक्टूबर-दिसम्बर १९८०
सम्पादन-मण्डल डा. ज्योतिप्रसाद जैन डाप्रेमसागर जैन श्री पपचन्द्र शास्त्री श्री गोकुलप्रसाद जैन
RStes..
सम्पादक धो गोकुलप्रसाद जन २२ ए. एल-एल.बी,
साहित्यरत्न
बाविक मल्प ६) रुपये इस विशेषांक का मूल्प
१. रुपये
भगवान् गोम्मटेश बायली, श्रवणबेलगोल
वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
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विषयानुक्रमणिका
विषय
विषय प्रथम खण्ड
२४. बाहुबनि परिव विकास एवं तद्विषयक वाङ्मय भवणबेलगोल: बाइबलो
-डा. राजाराम जन १. गोम्मटेस-दि-श्री नेमिचन्द सिद्धान्त-चक्रवर्ती १ २५. महाकवि पुष्पदंत का बाहुबली पाख्यान २. गोम्मटेश्वर बाहुबली का सहस्राब्दि
-डा. देवेन्द्र कुमार जैन महामस्तकाभिषेक-श्री गणेशप्रसाद जैन २ २६. गोम्मटेश्वर बाहबली स्वामी और उनसे ३. प्रतिमा की पृष्ठभूमि-श्री लक्ष्मीचन्द 'सरोज' ५ संशति मारिता ४. बाहुबली बोले-श्री लक्ष्मीचन्द 'सरोज'
२७. बाहुबली : पुष्पदंत सृजन के माइने में ५. जे कम्मे सूरा ते धम्मे सूरा
-डा. देवेन्द्र कुमार जैन -श्री डा० मादित्य प्रचंख्यिा
६ २८. बाहुबली की कहानी : उनकी ही जुबानी ६. श्रवणबेलगोल के शिलालेख
-डा. शिवकुमार नामदेव -श्री सतीश कुमार जैन
२६. गोम्मटमूर्ति की कुण्डली-श्री गोविन्द पर ११५ ७. श्रवणबेलगोल-स्तवन
३०.अंतिम धुतकेवली महान् प्रभावक प्राचार्य -श्री कल्याण कुमार 'शशि'
भद्रबाहु-श्री सतीशकुमार जैन ८. करुणामूर्ति बाहुबली-उपाध्याय श्रीममर मुनि १८
३१. हिन्दी कवि उदयशंकर भट्ट की काव्य-सृष्टि में ६. बाहुबली और महामस्तकाभिषेक
बाहुबलि- श्री राजमल जैन -डा. महेन्द्र सागर प्रचरिया
३२. श्री पुण्यकुशल गणि और उनका 'भरत १०. उत्तर भारत में गोम्मटेश्वर बाहुबली
'बाहुबलि-महाकाव्यम्'-महामहोपाध्याय -डा. मारुतिनदन प्रसाद तिवारी
२२
ड. हरीन्द्र भूषण जैन ११. दिव्यचरित्र बाहुबली -श्री रतनलाल कटारिया २५
द्वितीय खण्ड १२. भ. बाहुबली के शस्य नही थी
जैन शोष और समीक्षा -माता श्री ज्ञानमती जी
३३ जैन परंपरा मे संत मोर उनकी साधना-पद्धति १३. बाहुबली स्तवन-श्री भगवत'जन
-डा. देवेन कुमार शास्त्री १४. नकाशो : मूडबिद्रो-श्री गोकुलप्रमाद जैन ३५
३४. षटद्रव्य मे कालद्रव्य १५. बाहबलि की प्रतिमा गोम्मटेश्वर क्यो कही
-मनि श्री विजयमनि शास्त्री जाती है?-डा. प्रेमचद जैन
३६
३५. विष्णुसहस्रनाम पोर जिनसहस्रनाम १६. मैं रहं पाप मे पाप लीन-बी पनचंद शास्त्री ४१
-श्री लक्ष्मीचद 'सरोज' १७. श्री गोम्मटेश संस्तव-श्री नाथराम डोगरीय ४४
३६ तीर्थंकर महावोर को निर्वाण भूमि 'पावा' १८. भगवान गोम्मटेश्वर की प्रतिमा का माप
-श्री गणेश प्रसाद जैन -श्री कुन्दनलाल जैन
३७. नागछत्र परंपरा मोर पार्श्वनाथ १९. बाहुबली स्वतंत्र चेतना का हस्ताक्षर
-डा. भगवतीलाल पुरोहित -प्राचार्य महाप्रज
४८
३८. पनागत चौबीसी : दो दुर्लभ कलाकृतिया २०. बाहुबली और दक्षिण को जैन परपरा
-श्री कुग्दनलाल जैन -टी० एन० रामचन्द्रन्
५. ३६. कुन्दकुन्द की कृतियों का संरचनात्मक अध्ययन २१. जपागद जय गुल्लिकायजिन-धीकम्पनलाल जैन ५४ -डा.बी. भट्ट २२. बाहुबली मूर्तियों की परपरा-श्री लक्ष्मीचद जैन ५७ ४. साहित्य-समीक्षा २३. इन्द्रगिरि के गोम्मटेश्वर-श्री रामकृष्ण जैन १०
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सम्पादकीय
सतत् वन्दनीय भगवान् बाहुबली
प्रथम तीर्थधर भादिषुरुष पुरुदेव भगवान ऋषम के सुपुत्र, माता सुनाया के लाडले, भरतक्षेत्र के प्रथम चक्रवर्ती सम्राट भरतेश्वर के पनुज, महासनीय बासी और सुन्दरी के प्रिय माता, वर्तमान भवसविणी के प्रथम कामदेव और प्रथम मोक्षगामी महापुरुष, महाबली बाहबलि अपरनाम भजाल एवं दौबंलि को अपने अप्रतिम रूप, बल, स्वाधीनता प्रेम, स्वाभिमान उच्चतत्व, उदारता, वैराग्य पोर दुदर तपश्चरण तथा सतत् प्रेरक व्यक्तित्व के लिए न पुराण पुरुषों में पद्वितीय एवं अविस्मरणीय स्थान प्राप्त है। जैनेश्वरी दीक्षा लेने के पूर्व मानवोत्तम महाराज ऋषम ने अपना विशाल राज्य अपने सौ पुत्रों में विभाजित कर दिया था। ज्येष्ठपुत्र भरत को प्रधान राजधानी एवं ऋषम तथा ऋषमपुत्रों की जन्मभूमि महानगरी अयोध्या का राज्य मिला। बाहुबलि को पोत्तनपुर का, मतान्तर से तक्षशिला का राज्य मिला। एकमत से श्रावकधर्मप्रवर्तक राजकुमार श्रेस और उनके प्रपन गजपुर (हस्तिनापुर) के मधीश्वर सोमयश बाहुबलि के ही पुत्र थे ।
महाराजा भरत को प्रायुषशाला में बकरन प्रकट हुमा तो वह अपना पक्रवतित्व सिद्ध करने के लिए दिग्विजय के लिए निकले । तत्कालीन प्राय: सभी नरेशों ने धर्मः धनः उनकी प्रवीनता स्वीकार कर ली। उनके स्वयं के भाइयों ने भी विरोध तो नही किया किन्तु अपने-अपन राज्य का परित्याग करके मनि दीक्षा ले ली। स्वतन्त्रचेता एवं स्वाभिमान-मूति महाबाहु बाहुबली ने चक्रवर्ती की चुनौती स्वीकार करली पोर युद्ध के लिए सन्न हो गये। दोनों की सेनाएँ रणक्षेत्र में सामने सामने प्रा डटी, किन्तु दोनों ही मादिदेव के सुपुत्र थे, चरम शरीरी पोर महिसा की संतति बोहोत मनस्वीही। उन्होंने प्रस्ताव किया कि विवाद उन दोनों के बीच है, सैनिकों को उसके तु हताहत कराना बायोमतएव दोनो के बलाबल का निर्णय दोनों के पारस्परिक द्वना से किया जाय । परिणामस्वरूप, इन दोनों महावीरों का दृष्टियुठ, मुष्टियुद्ध (या मल्लयुड) एवं जलमुख दोनों सेनामों के बीच खुले मैदान में हमारा देव-दानवो मे ईष्र्या उत्पन्न करने वाले युग के इस प्रथम भीषण राममीतिक को दोनों भोर के कोटि-कोटि सैनिकों एवं अपार जनसमूह ने प्राश्चर्याभिभूत होकर देखा। वह राजनीति में हिंसा के प्रयोग का सर्वप्रथम उदाहरण है और प्राचीन भारत में कालान्तर में होने वाले पदों के लिए पादर्श बना। रामायण और महाभारत का भी ध्यान से प्रध्ययन किया नाय तो यही प्रकट होता है कि अधिकामत: उक्त मुद्धों में दोनों पोर प्रमख नेतामों के बीच लड़े गये द्वन्द्वयुद्ध ही बिजय-पराजय के निर्णायक होते थे।
भरत-बाहुबलि द्वन्द में बाहुबली विजयी रहे, भोर पराजित भरत ने विवेक भूल कर उन पर बकरन बना दिया। किन्तु यह देवी सुदर्शनचक भी गोत्रपात नहीं करता, मत: बाइबलि को कोई भी क्षति पहुंचाये बिना उनकी प्रदक्षिणा करके वापस भर के हस्तगतहमा । घर तो मरत अपने विवेक. पूर्ण कृत्य की ग्लानि से मूछित प्राय हो रहे थे, और उबर बारबखि राम्यबभबबादि के लिए मानव की असीम लिप्सा तथा ससार-देह-मोगों को निस्सारता की पनुभूति करके संसार से विरक्त हो गये।
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पमुतप्त भरत की मनुहार पर भी ध्यान नहीं दिया और तत्काल वेशलाँच करके उन्होंने मनिदीक्षा लेली तथा एक वर्ष का कायोत्सर्ग योग धारण करके उसी स्थान मे मडिग-अचल तप:लीन हो गये। युद्ध पोत्तमपुर नगर के बाहर सीमान्त प्रदेश में हुमा था-वही योगिराज बाहुबलि पातापन पोमवारण करके स्थित हो गये।
भगवान बाहनिस अभूतपूर्व युवर तपश्चरण के रोमांचक वर्षन प्राचीन एवं मध्यकालीन साहित्य में प्रभूत मिलते हैं। इतना ही नहीं, उसकी स्मृति मे भ० बाहुबलि की जो मूतियो निमित हुई उनमें उन्हें ध्यानस्थ मुद्रा में अविचल खड्गासीन प्रदर्शित किया गया है। उनके इर्द गिर्द दीमकों ने ऊंची बाबिया बनाली, माधबीमादि लताएं उनके पैरों, हायों, कटि आदि के चहुंमोर लिपटती बढ़ती गई। शरीर पर सर्प, विच्छ, छिपकली मादि भनेक जन्तु रंगने लगे। मनुश्रुति है कि महाराज भरत ने ही उनकी इस रूप की सवा-पांच सो उत्तंग उस प्रतिमा उस तपः स्थान पर ही निर्मापित कराकर प्रतिष्ठित की थी। कलान्तर में उक्त मूर्ति को कुक्कुट सपो ने ऐसा प्राच्छादित कर दिया कि वह लोक के लिए प्रदश्य हो गई। भट्टारक बाहुबलि की मूर्तियां प्राय: इसी रूप एवं मुद्रा में निर्मित हुई और उन्ही से वे पहिचानी जाती है। ध्यानस्थमुद्रा भोर खड्गासीन तन पर लिपटी माधवी पादि लताएँ तो सर्वत्र प्रदर्शित हैं, कुछ मे बांबियां भी प्रदर्शित हैं, कुछ में शरीर पर रंगते सर्व, विच्छ मादि जन्तु भी अंकित हैं। एक मूति के साथ यक्ष-यक्षि अंकित किए गये प्रतीत होते हैं, यपि बाहुबलि तीर्थकर नही थे और यम-यक्षि अंकन तीर्थकर प्रतिमानों के परिकर मे किये जाने का विधान एव परम्परा है। कर्णाटक की चार प्राचीन मूर्तियों में श्रवणबेल्गोल वाली उत्तराभिमुखी है, कार्कल की पश्चिमाभिमुखो, वेणरु की पूर्वाभिमुखी पौर श्रवणप्पगिरि की दक्षिणाभिमुखी है। कुछ बाहुबलि मूर्तियों में उपासक-उपासिकाएं भी अंकित हैं, किन्तु चार मूतिया-श्रवणप्पगिरि, घुसई, देवगढ़ और महोबा की ऐसी है जिनमे बाहुबलि के दोनों पोर एक-एक स्त्री खड़ी है जो उनके मुख की पोर देखती, कुछ सम्बोधनसा करती हुई, तथा उनके शरीर पर लिपटी लता मादि हटाती हुई-सी लगती है। एक किंवदंती है कि जब एक वर्ष के प्रातापन योग से भी बाहुबलि के कैवल्य की प्राप्ति नहीं हुई तो समवसरण में भगवान ऋषभदेव की दिव्यध्वनि से उसका कारण जानकर महासती ब्राह्मी तथा सुन्दरी ने माकर भाईको सम्बोषापा और कहाया कि 'हे भ्रात् ! मानरूपी गज से नीचे उतरो और स्वकल्याण करो।' सभव है कि इसी घटना का वह मूतोकन हो । कहा जाता है कि योगिराज बाहुबलि के मन में यह विकल्प रहा कि में भरत की भूमि पर ही खड़ा हूं। जिनसमाचार्य के अनुसार उनके मन में यह विकल्प रहा कि मेरे कारण भरत को कष्ट पहुंचा है। भरत को जब यह तथ्य ज्ञात हुमा तो उन्होंने पाकर बाहबलि की पूजा की पौर उनका समाधान किया। इस विषय में प्राय: सभी लेखक एकमत हैं कि बाहबलि के मन में कोई मानकषायजन्य ऐसा शल्य या विकल्प बना रहा जो उनको सिद्धि मे बाधक बना। भरत प्रषवा ब्राह्मी एवं सन्दरी के सम्बोधन से वह उस विकल्प से मुक्त हुए मौर तत्क्षण अपकश्रेणी पर पारुढ़ हो उन्होंने केवल. ज्ञान प्राप्त किया।
भ. बाहबली की तप:स्थली तक्षशिला का बहिर्भाग पा या पोत्तनपुर का, इस विषय में मतभेद है। पोत्तनपूर की स्थिति का भी कोई पता नहीं है। बीरमार्तण्ड चामुण्डराय ने अपनी जननी कलालदेवी की वर्षामेछा की पूर्ति के लिए स्वगुरु प्रजितसेनाचार्य एवं नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के निर्देशन में शिल्पीष्ठ परिष्टनेमि द्वारा श्रवणबेलगोल की विग्यगिरि के शिखर पर जब वह विश्वविक्षत ५७ फीट उत्तुंग विशालबालि प्रतिमा निर्माणकराकर पषुक्ल पंचमी रविवार महावीर निर्वाण सं. १५०६
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(सन् १८१०) में प्रतिष्ठापित कराई तो उस समय यही कहा गया था कि क्योंकि पोसमपुर का मूल विषह (उत्तर कुक्कुटेश्वर जिम) अदृश्य एवं प्रप्राप्य हो चुका है, प्रतः उसके स्थानापन्न रूप से इस दक्षिण-कुमकुटेश्वर-जिन को स्थापना की गई है। यतः महाराज चामुणराय का पर नाम गोम्मट या गोम्मटराय था, यह मूर्ति कालान्तर मे गोम्मटेश या गोम्मटेश्वर बाहबलि के नाम से विख्यात हुई। फिर तो शनैः-शन: गोम्मट भी बाहुबलि का पर्यायवाची बन गया ।
चिरकाल तक यह समझा जाता रहा कि बाहुबली मूर्तियों में श्रवणबेल्गोलस्थ गोम्मटेश्वरही सर्वप्राचीन हैं और अन्य समस्त उपलब्ध बाहुबलि प्रतिमाएं उसके पश्चात् तथा उसी के अनुकरण पर निमित हई। किन्तु यह धारणा मिया मिद्ध हुई। उसके पूर्व की भी अनेक बाहुबलि मूर्तियाँ उपलब्ध है - चम्बल क्षेत्र में मन्दसौर जिले के घुस ई स्थान से प्राप्त बाहुबलि मूर्ति ४थी-५वी शती ई. को प्रनुमान की गई है, बादाम की ६ठी-७वी शती की, एलोरा को ८वी.वी शती की, मध्य की गुहरबसदि मे तोलपुरुष विक्रम सान्तर द्वारा प्रतिष्ठापित बाहुबलि मूति ८९८ ई० की है। महोबा, देवगढ़, श्रवणप्पगिरि पादि की कई मूर्तिया लगभग १०वीं शती की है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि विशिष्ट शैली मे बाहबली मतियों के निर्माण की परम्परा श्रवणबेल्गोल की मूर्ति के निर्माणकाल से पांच-छ: शताब्दियो पूर्व तक पहुंच जाती है।
उपलब्ध प्राचीन माहित्य मे भगवान बाहबली का सर्वप्रथम उल्लेख भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य के भावपाहह की गाथा ४ में प्राप्त होता है
बेहाविचससंगो माणफसायेण कलुसिमो पीर।
प्रसाषणेण जावो बाहवली कित्सियकालं ॥ जिससे स्पष्ट है कि देहादि समस्त परिग्रह से मुक्त हो जाने पौर दीर्घकाल तक भातापन योग से एक ही स्थान मे पचल खड़े रहने पर भी मानकषाय से मन के रबित होने के कारण बाहुबली को सिद्धि नही हो पा रही थी।
प्रथम शती ई० मे विमलसूरि द्वारा रचित प्राकृत पउमचरिउके उद्देशक-४, गाथा३६-५५ मे बाइबलोवत्त दिया है-उसमे उन्हें तक्षशिला का स्वामी बताया है। पराजित भरत ने बाहवलीको वैराग्य से विरत करने के लिए समस्त राज्य उन्हे सौंप देने का प्रस्ताव भी किया बताया है। वह एक वर्षका कायोत्सर्ग योग धारण करके स्थिर हुए थे, यह भी लिखा है, किन्तु उनके मन के किसी शल्य या विकल्प का उल्लेख नही किया।
रविषेणाचार्य ने पद्मपुराण (६७६ ई.) के पर्व ४, पद्य ६७-७७ में बाहुबलि को पौदनपूर का नरेश सचित किया है। उनके ग्रहम् भाव का भी संकेत किया है और उभय सैम्य को अलग रख कर परस्पर विविध द्वन्द्व युद्ध (दृष्टि-जल-बाहु) का तथा अन्त मे बाहुबलि के विरक्त होकर एक वर्ष तक मेह पर्वत के समान निकम्प खड़े रह कर प्रतिमायोग धारण करने का उल्लेख किया है। यह भी लिखा है जिनके पास अनेक बामियां लग गई जिनके बिलों से निकले बड़े-बड़े मपों पौर श्यामा प्रादि की लतामों ने उन्हें वेष्टित कर लिया था-इस दशा में उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हुपा तथा यह कि इस प्रवसपिणी मे उन्होने ही सर्वप्रथम मोक्षमार्ग विशुद्ध किया ।
जिनसेन पुण्नाट के हरिवशपुराण (७८३ ई.) के सर्ग ११ (पृ. २०२-२०५) में भी बाहबनीको पोदनपुर का स्वामी बताया है, बाहुबलीद्वारा भरत के प्रतिकूलता प्रकट करने पर दोनों का युद्ध के लिए
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( tv )
सन्नद्ध होना, मन्त्रियों के प्रस्ताव पर धर्मयुद्ध ( त्रिविध द्वन्द युद्ध) करना, भरत का पराजित होकर चक्र चलाना, बाहुबलि का वैराग्य, कैलाश पर्वत पर जाकर एक वर्ष का प्रतिमायोग लेकर निश्चल खड़े रहना, माघवी लत एवं बामियों से निकले मणि सर्पों द्वारा शरीर का प्रवेष्ठित होना, भरत द्वारा नमस्कार किये जाने पर कषायों से मुक्त होकर केवलि-जिन के रूप में भगवान ऋषभदेव के समवसरण में सभासद बनना वर्णित हुआ है। इस पुराण में एक विचित्र संकेत है ( श्लो० १०१ ) कि दो खेवरिया (विद्याधरियां) उनके शरीर पर लिपटी लता प्रादि को हटाती रहती थी -- यही वह रहस्य है जो कतिपय बाहुबलि मूर्तियों के साथ अंकित युगल स्त्री मूर्तियों द्वारा श्रमिव्यक्त हुमा है ।
जिनसेन स्वामि (ल० ८३७ ई०) ने अपने प्रादिपुराण (पवं ३५-३६, पृ० १७२-२२० ) में बाहुबली वृत्तान्त विस्तार से दिया है। स्थूलतः हरिवंश पुराण से अन्तर नही है सिवाब अधिक विस्तार के इसमें भी बाहुबली का पोदनपुर नरेश व स्वाभिमानी होना, भरत के दूत को तिरस्कृत लौटाना, त्रिविध द्वन्द्व रूपी धर्मयुद्ध, बाहुबलि का वैराग्य, बन में जाकर एक वर्ष का प्रतिमायोग धारण करना, लता एवं बामी से निकलते सर्पों द्वारा शरीर का वेष्टित होना, भरत को मेरे निमित्त से दु:ख पहुचा है, इस विकल्प का बना रहना, भरत द्वारा नमस्कार एवं स्तुति करने से विकल्पमुक्त होकर कैवल्य प्राप्त करने प्रादि का सुन्दर वर्णन है। इस पुराण में बाहुबली के पुत्र एवं उत्तराधिकारी का नाम महाबली दिया है ।
इन्ही जिनसेन के शिष्य, उत्तरपुराणकार गुणभद्राचार्य ने अपने ग्रात्मानुशासन ( दलो० २१७) में बाहुबली की मुक्ति में बाधक उनके मानरूपी शल्य का संकेत किया है
चक्रं विहाय निजदक्षिणबाहु संस्थं मत्प्राब्रजन्तुन न बंध स तेन मुचेत् । क्लेशं तमाप किल बाहुबली चिराय, मनो मनागपि अतिमहतो करोति ।।
महाकवि पुष्पदन्त ने अपने पत्र महापुराण (६६५ ई०) की सन्धि १६ १८ मे भी विस्तार के साथ बाहुबली का इतिवृत्त दिया है। इसी प्रकार चामुण्डराय के कन्नड महापुराण, मल्लिषेण के महापुराण, दामनंदि के पुराणमार, हेमचन्द्राचार्य के त्रिषष्टिशलाकापुरुषवरित मादि सभी जैन महापुराणों में बाहुबली का इतिवृत प्राप्त होता है। उत्तर काल में, विशेषकर कन्नड भाषा में कई स्वतन्त्र मुजबलचरित भी लिखे गये।
बाह्य एव प्राभ्यन्तर, लौकिक एवं प्रात्मीक स्वातन्त्र्य की साकार सजीव मूर्ति भगवान बाहुबली का पुण्य चरित्र और उनके अप्रतिम विग्रह के दर्शन लोक को सदैव धन्य करते रहेंगे ।
ज्योतिनिकुंज चारबाग, लखनऊ- १
तुभ्यं नमोऽस्तु निखिल - लोक बिलोचनाब,
सुबोधकाम ।
तुभ्यं नमोऽस्तु गुण प्रनन्त तुम्पं नमोऽस्तु परमार्थं तुभ्यं नमोऽस्तु विभयो
गुणाकराम, जिनगोम्मटाय !
ज्योतिप्रसाद जैन
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पोगवश्वर भगवान् बाहुबली फिरोजाबाद (जिला घागरा), उत्तर प्रदेश
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श्री गोमटेश्वर को ५७ फुट ऊची सुविशाल प्रतिमा
भवणबेलगोल (जिला हासन), कर्नाटक
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भीम महन
परमागमस्य बीज निषितजात्यन्धसिन्धर विधानम् । सकलनयविलसितानां विरोषमयनं नमाम्यनेकाम्तम् ॥
वर्ष ३३ किरण ४
वीर-सेवा-मन्दिर, २१दरियागंज, नई दिल्ली-२
वीर-निर्वाण सवत् २५०७, वि० सं० २०३७
र-दिसम्बर १९८०
गोम्मटेस-थुदि
(गोम्मटेश-स्तुति) (प्राचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त-चक्रवर्ती विरचित) विसट्ट-कंदोट्ट-दलारण यारं ।
लयासमक्कंत - महासरीरं । सुलोयरणं चंद-समारण-तुण्डं ।
भव्वावलीलद्ध-सुकप्परुक्खं ॥ घोणाजियं चम्पय-पुप्फसोहं ।
देविदविदच्चिय पायपॉम्म । तं गोम्मटेसं परणमामि रिपच्चं ॥१॥
तं गोम्मटेसं परणमामि रिणचं ॥५॥
अच्छाय-सच्छं-जलकंत-गडं। प्राबाहु-दोलंत सुकण्ण-पासं ॥ गइंद-सुण्डज्जल -बाहदण्डं । तं गोम्नटेसं परणमामि पिच्चं ॥२॥
दियंबरो यो ण च भीइ जुत्तुत्तो। ण चांबरे सत्तमरणो विसुद्धो॥ सप्पादि जंतुप्फुसदो रण कंपो। तं गोम्मटेसं परणमामि रिपच्चं ॥६॥
सुकण्ठ-सोहा जिय-दिव्व संखं ।
प्रासां ण ये पेक्खदि सच्छदिट्टि ॥ हिमालयुद्दाम - विसाल-कंध ॥
सॉक्खे ण वंछा हयदोसमूलं ।। सुपॉक्ख-रिणज्जायल-सुट्ठमझ ।
विरायभावं भरहे विसल्लं। तं गोम्मटेसं पणमामि रिपच्चं ॥३॥
तं गोम्मटेसं परणमामि रिपच्चं ॥७॥ विज्झायलग्गे पविभासमारणं ।
उपाहिमुत्तं धरण-धाम-वज्जियं । सिंहामरिण सव्व-सुचेदियारणं ॥
सुसम्मजुत्तं मयमोहहारयं ॥ तिलोय-संतोसय-पुण्णचंदं ।
वस्सेय पज्जतमुववास जुत्तं । तं गोम्मटेसं पणमामि रिपच्चं ॥४॥
तं गोम्मटेसं परणमामि पिच्चंद 000
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गोम्मटेश्वर बाहुबली का सहस्त्राब्दी महामस्तकाभिषेक
[] श्री गणेश प्रसाद जैन
भगवान गोम्मटेश्वर बाहुबली की श्रमणबेलगोला की चन्द्रगिरि पहाड़ी पर स्थित उत्तग प्रतिमा का महामस्तकाभिषेक २२ फरवरी १६८१ को होने जा रहा है। वर्षो पूर्व से इस महामस्तकाभिषेक की तैयारी श्री १०५ भट्टारक alonifa जी के निर्देशन में चल रही है । सम्पूर्ण धार्मिकमनुष्ठान एलाचार्य मुनि श्री १०८ विद्यानन्द जी महाराज के तत्वाधान में विधिपूर्वक सम्पन्न होगे । अनुमान है कि इस महोत्सव के अवसर पर कम-से-कम दस लाख भक्तजन जुड़ेंगें। उनके निवास के लिये अनेक उपनगर निर्माण कराये जा रहे है ।
उक्त मस्तकाभिषेक के निमित्त देश के अनेक भागो मे "जन मंगल महाकलश" का विहार होगा। इस " जनमगलमहाकलश' के विहार का शुभारंभ प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरागांधी के हाथों २६ सितम्बर १६८० के दिन दिल्ली मे | हुआ है। यह जनमगलमहाकलश देश की परिक्रमा करते हुए २१ फरवरी १६८१ तक 'श्रमणवेलगोला' पहुंचेगा ।
"गोम्मटेश्वर मोर श्रमणबेलगोला" दोनो ही शब्द कन्नड़ भाषा के है । गोम्मटेश्वर का अर्थ है 'कामदेव ' ( प्रतिसुन्दर ) धौर श्रमणबेलगोला का अर्थ है - "जैनमुनियों का घवल सरोवर । इस भूमि पर प्रसख्य साधकों ने तपस्या कर लक्ष्य प्राप्त किया है ।
विन्ध्यगिरि के दक्षिण विस्तार मे इन्द्रगिरि (दोडुवेट ) और चन्द्रगिरि (विवर वेट) नाम की पहाडियों की तलहटी में स्थित वसती ( वस्ती) का नाम श्रपणवेलगोला है । कोईकोई इसे श्रमणबेलगुल' भी कहते है । इसका शान्त वातावरण समशीतोष्ण ऋतुएं साधको के लिये प्रति अनुकूल हैं। इसे दक्षिणकाशी, जैनबद्री, देवलपुर भोर मोहम्मदपुर भी कहा जाता है ।
उत्तरभारत में जब महादुष्काल के १२ वर्षों की
सम्भावना श्रुतकेवली भद्रवाह को लगी तो १२००० बारह हजार मुनियों के संघ सहित वह दक्षिण भारत चले गये । मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त ने भी मुनि दीक्षा ग्रहण कर ली, और मुनि संघ के साथ वह दक्षिण चला गया ।
भद्रबाहु ने विशाल मुनि को मुनि संघ का श्राचार्य पद देकर मुनि संघ को घोलपाण्डय प्रादि राज्यो की यात्रा के निमित्त भेज दिया, और स्वयं नव प्रवजित मुनि चन्द्रगुप्त के साथ कटवत्र पर्वत पर रुक गये । वहाँ उन्होने तपस्याये तपी और प्रायू के प्रन्त में समाधिमरण पूर्वक प्राणविसर्जन किया। गुरु के पश्चात् भी चन्द्रमुनि उसी पहाड़ी पर १२ वर्षो तक कठिन तपस्यानों की साधना करते रहे। उन्होने भी समाधि मरण द्वारा मुक्ति लाभ लिया। जिस पहाड़ी पर श्रुतकेवली भद्रवाह घोर चन्द्रमुनि ने तपस्या की उसका नाम ग्राज चन्द्रगिरि और जिस गुफा में वे निवास करते थे । उसका नाम चन्द्रगुफा प्रख्यात है ।
श्रादि तीर्थकर श्री ऋषभदेव (प्रादिनाथ ) युवराज थे, तब उनका विवाह कच्छ और महाकच्छ राजा की राजकुमारियों यशस्वी और सुनन्दा से हुआ था । यशस्वी से भरतादि एक सौ पुत्र और ब्राह्मी नाम की कन्या, एव सुनन्दा से एक पुत्र बाहुबली और सुन्दरी नाम की एक कन्या थी । महाराज ऋषभदेव ने वैराग्य होने पर युवराज भरत को उत्तराखण्ड ( उत्तर-भारत) का, और राजकुमार बाहुबली को दक्षिणपथ का शासन सौप दिया। प्रोर स्वय मनि दीक्षा लेकर तपस्या करने वन खण्ड को चले गए ।
महाराजा भरत की प्रायुधशाला में चक्ररल प्रगट हुआ। उन्होंने चतुरंगिणी सेना के साथ छ: खण्ड पृथ्वी पर दिग्विजय किया। लौटने पर राजधानी प्रयोध्या के प्रवेश द्वार पर चरत्न अटक गया। एक भी शत्रु शेष रहने पर चक्र-रश्न राजधानी में प्रवेश नहीं करता । विचार-विमर्श पश्चात् ज्ञात हुआ कि महाराज भरत के
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गोम्मटेश्वर बाहुबली का सहस्राब्दी महामस्तकाभिषेक-महोत्सव
पनुज पोदनपुर के महाराज बाहुबली ने अभी तक महाराजा हो उन्द युद्ध किया। सामाजिक व्यवहार में भी अनुज भरतको प्राधीनता स्वीकार नहीं की है। जिससे उनका प्रग्रज का सेवक है। मझे उनके पक्रोस्व यज्ञ में सहायक चक्रीत्व पूर्ण न होने से 'चक्ररत्न' राजधानी में प्रवेश नहीं होना चाहिये था, किन्तु मैंने विघ्न डाला। मेरे पिता ने कर पा रहा है।
जिस राज्य सम्पदा को तृणवत् स्यागा या उपोका मैं भरत ने अनुज बाहुबली को कहलाया--बाहुबली लोभी बना । धिक्कार है मुझे मैं पर इस मायावी का प्राकर मेरे चक्रीत्व-यज्ञ का स्वय ममापन करें। महाराजा त्याग कर मुनि दीक्षा लगा। कठिन तपस्यामों की बाहबली को महाराजा भरत के इस सन्देश मे चुनौती का भाराधना साध मोक्ष सम्पदा को वरण करूंगा। प्राभास मिला। उन्होंने दूत से उत्तर मे कहला दिया। बाहवली प्रग्रज भरत के चरणों से लिपटे निवेदन पोदनपुर का शासन स्वतन्त्र है और रहेगा । उसे प्राधीनता कर रहे थे, अग्रज! पाप मुझे अमा प्रदान करें। मेरे स्वीकार नहीं है। वह अपनी महत्ता युद्धभूमि मे स्वीकार 'प्र'ने मभसे ये सारे ,
'अहं' ने मुझसे ये सारे प्रकृश्य कराये। पापको शारीरिक करायें।
पौर मानसिक क्लेश मैंने दिया। हमारे ६९ भाइयों मोर दोनों मोर की चतुरंगिणी सेनायें रण-भमि में प्रा दोनों बहिनों ने पिता के महान विचारो को समझा और जटी। मंत्रीपरिषद, सेनाध्यक्ष और सेनापतियों का मण्डल उनका पथ अनुसरण किया। उस प्रादर्श को मेरे अहंकार वहां एकत्रित हो गया युद्ध प्रारम्भ होने वाला ही था, तभी ने मझे भुलवा दिया था। पाज दृष्टि खुल गई है। मैं बन सेनापतियो ने कहा--सगे भाइयों के युद्ध मे हम सैनिक को जारहा हैं। निता धारण कर मोक्ष प्राप्त करूंगा। सम्मिलित नहीं होगे। द्वन्द्व युद्ध से वे लोग जय-विजय स्वयं निर्णय करें। मन्त्रीपरिषद सेनापतियों के बात से स्वयं चक्रवर्ती भरत, उपस्थित मन्त्रिपरिषद, सेमासमथित हो भाइयों ने द्वना-युद्ध की घोषणा कर दी। तीन
नायक, सैनिक उपस्थित प्रजा-मण सभी द्वारा वाहवली प्रकार के द्वन्द्वयुद्ध निश्चित हुए। जलयुद्ध, दृष्टियद्ध,
के जयकार से गगन गुजित हो उठा। पड़ोसी को बोली मल्लयुद्ध। तीनों युद्धों मे बाहुबली विजयी रहे। पराजित सुनना दुश्वार था। चारों भोर बाहुबली के त्यागकी भरत ने बाहुबली पर चक्र से घात कर दिया। चक्र चर्चायें चल रही थी। तीनो द्वन्द-युद्धों में विजय प्राप्त बाहबली की प्रदक्षिणा देकर भरत की पोर लौट रहा था।
करने के पश्चात भी सर्व का त्याग कर मनियत की चक्र परिवार का पात नहीं करता।
प्राकाक्षा ? पाश्चय्यं महान पाश्चर्य । उपस्थित जन समूह अनोति-नीति कह कह चिल्ला तभी वह कामदेव की माक्षात् प्रतिमूर्ति, माजामवाह उठा था। परन्तु जब चक्र बाहुबली की प्रदक्षिणा कर रहा सारे राजसी ठाठ-बाटो को वही छोड़ एकाकी निग्रंथ मन था, तभी सबने बाहुबली की जय जयकार में प्राकाश को से उतावलीपूर्वक कदम बढ़ाना वन-वण को प्रस्थान कर गुजरित कर दिया। भरत ग्लानि से क्षुब्ध मलीन मुख गया। गहन वन के मध्य पहुंच कर महाराजा बाहवली ने पृथ्वी को देखते खडे थे। वह चाह रहे थे कि पृथ्वी फट अपने राजसी वस्त्राभूषणो को उतार फेंका । दिगम्बर बन जाय और वह उसमें समा जाय।
कर एक बड़े शिलाखण्ड पर पालथी मार कर बैठ गये। दुसरी मीर बाहुबली के मष्तिष्क मे द्वन्द्व मचा था। हाथो की मट्टियो से बुन्तल केश राशि उखाड़ फेंकी। और ज्येष्ठ-भ्राता ने सत्ता के लोभ में विवेक को भुला दिया वहीं भूमि पर खड़ासन मे बडे हो गये। है। यही महत्त्वकाक्षा विनाश की मूल है। बनें भरत चक्र- तीन बार ॐ नम:
सिकहकर ध्यानस्थ हो गये। वर्ती, मेरा मार्ग तो पिता वाला है। मुनि दीक्षा लेकर दिन पर दिन, सप्ताह पर सप्ताह, पक्ष पर पक्ष, मास पर मोक्ष प्राप्त करने का। हमने भी इसी राज्य सम्पदा के मास बीतते रहे। ऋतूपों जाहा, गर्मी, वर्षा के झम बात लोभ में प्राकर प्रग्रज भरत का अपमान कर अपकीति ह। प्राये चले गये । परन्तु वह तपस्वी मचल-प्रटल बना उसी तो कमाया। अपने अहं, बाहुबल के महकार से वशीभूत भूमिखण्ड तपस्या में लीन बना रहा कटीली बन सतायें
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अनेकान्त
जापों से होती बाहों में लिपटती कानो तक पहुंच रही प्रतिमा का दर्शन न कर लंगी तब तक दूध मोर दूध से थीं। पावों के पजों के निकट विच्छ प्रों सपो पौर चीटिया निर्मित वस्तुणों का उपभोग न करूंगी। चामण्डराय को बिल बना बसेरा ले रही थीं। परन्तु वह पडिग तपस्वी माता की प्रतिज्ञा ज्ञात हई, उन्होने नगर और निकटवती उग्र साधना मे दत्तचित्त लगा था।
स्थलों में घोषणा करवा दी कि जो भगवान बाहुबली को तीर्थकर श्री ऋषभदेव के समवसरण में जाकर तीर्थ यात्रा को चलना चाहे नि:सकोच भाव से चल पक्रवर्ती भरत ने प्रगहन भगवान से जिज्ञासा प्रगट को- सकता है। भगवन् तपस्वी बाहुबली को इतनी कठोर तपस्या के बाद गगावंशीय नरेश राचमल के प्रधान सेनापति पौर भी मोक्ष क्यों नही हो रहा है? तीथंकर की वाणी मत्री वीरवर चामुण्डराय सघ सहित नित्य मागे बढते खिरी । वस्स । तपस्वी बाहबली के मन में एक भारी मंजिल पार कर रहे थे। एक दिन ऐसा माया, कि उस शल्य चुभ रही है, कि जितनी भूमि खण्ड पर खड़ा होकर दुर्गम षष पर अनेक प्रयासो के बाद भी भागे बढ़ना में तपस्या कर रहा हूं, वह भी पक्रवर्ती भरत की है। प्रसम्भव हो गया, तब वह इन्द्रगिरि पहाडी के तलहटी मे जिस समय उन्हे इस पाल्य का ममाधान मिल जायेगा, पड़ाव डाल कर भागे बढ़ने के कार्यक्रम पर विचार-विमर्श उसी समय उन्हे मोक्ष हो जायेगा।
के लिये रुक गये। दिन भर के विचार-विनिमय के पश्चात चक्रवर्ती भरत ने समवसरण से सीधे बाहुबली के भी कोई समाधान न निकला। तपस्या भूमि पर हुंच कर तपस्वी बाहुबली के चरणों मे तभी रात्रि में जब सब लोग निद्रा में मलमस्त थे, साष्टांग नमस्कार करते हुए कहा। भगवन् पाप कहा भूले शासन देवी ने प्राचार्य नेमिचन्द्र, चामडराय और उनकी जए हैं। यामापके मन में कसी शल्य लगी हुई है? मैं माता जी को एक साथ स्वप्न देकर कहा कि कल प्रातः तो पापके बरणों का सेवक । पृथ्वी न कभी किसी को काल उषाबेला से पूर्व प्रपने सब नित्य कर्मों से निवृत्त रही है, न कभी रहेगी। महामुने ! शल्प का त्याग करें। होकर इन्द्रगिरि की सबसे ऊंची चोटी पर चढ़ कर इतना सनते हो तपस्वी बाहुबली को मोक्ष प्राप्त हो गया। चामण्डराय सामने वाली बडी पहाड़ी की सबसे ऊँची चोटी इन्द्र ने देवपरिषद के साथ पाकर भगवान बाहुबली का की बड़ी शिला का छेदन स्वर्ण वाण से कर दें। भगवान मोक्ष कल्याणक महोत्सव उस भूमि पर मनाया। बाहुबली की प्रतिमा का सघ को दर्शन होगा।
चक्रवर्ती भरत ने उस महातपस्वी बाहबली की शासनदेवी के मादेशानुसार पुलकित मन मे चामुण्डउस तपस्या भूमि पर रश्नो से उनके कद की प्रतिमा राय ने स्वर्ण बाण से सामने वाली पहाड़ी की सव से ऊंची निर्माण करा कर उस भूमि पर उसकी स्थापना कर उस मोर बड़ो चट्टान को बोध दिया। दशो दिशायें प्रतिध्वनित स्थल को तीर्थधाम बना दिया। दूर पतिदूर से भक्त जन हो उठी। वीबी शिला को परतें करने का क्रम कुछ देर वहां की यात्रा के लिए पाने लगे। क्रम-क्रम काल ने इस तक चला, और उस शिला मे कामदेव सरीखा प्रति सुन्दर तीर्थ धाम पर अपनी काली छाया विखेरना प्रारम्भ कर एक मुख बाहुबली भगवान का प्रगट हो पड़ा। सघ ने दिया, और वह तो दुर्गम बन गया। वन-वृक्षों, कटीली भगवान बाहुबली की प्रतिमा के मुख का दर्शन कर अपने लतानों के मण्डपो से घिरा, कंकडीले प्रगम मार्ग पर जनों का सराहा। भगवान गोम्मटेश्वर के जयकार से दोनो पहाका जाना असम्भव हो गया। उस तीर्थ की यात्रा बन्द ड़िया गुजरित हो उठी । जय गोम्मटेश्वर, जय बाहब ली। हो गई और तमो एक दिन ....
शिपकारो की छनी उस बड़ी चट्टान को काट कर बी पाचार्य नमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने अपने शिष्य मानव प्राकृति के विधान में जुटी पहिनिग पूर्ण योग दे बीरबर चामराय को माता को उस तीर्थ की महानता रही है। चामुण्डराय शिल्पियो के निर्देशन पोर अन्य का वर्णन सुना दिया। माता प्रतिज्ञा ले बैठी कि मैं जब व्यवस्थाप्रो मे दत्तचित्त हो कार्य सम्पन्न कर रहे है। तक उस ती की यात्रा कर उस बाहवली भगवान की
(शेष पृ० १० पर)
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प्रतिमा की पृष्ठभूमि
॥ श्री लक्ष्मीचन्द्र सरोज, एम० ए०
प्रतिमा की सहलाम्बी :
हो। बाहवली का जीवन और चरित्र यथानाम नयोगुण; जिस पावन प्रतिमा ने एक सहस्र बसन्त, एक सहस्र का केन्द्रबिन्दु है। हेमन्त, एक सहस्र प्रीष्म, एक सहस्र शरद और एक सहस्र बाहुबली की प्रतिमा के विषय में सुप्रसिद्ध मूर्तिकार शिशिर काल देखे तथा मध्यग मे महस्र जीवन-मंघर्ष मूलचन्द्र रामचन्द्र नाठा ने अभिमत दिया-एक सहस्र उत्थान पतन, सुख-दुख मूलक परिसर-परिवेश देखे, उस वर्ष से भी अधिक प्राचीन प्रतिमायें सहस्रों को संख्या मे पुनीत प्रतिमा को प्राचार्य ने भीचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के प्राजाल उपलब्ध है जिनके दर्शन पोर पूजन करने के सान्निध्य मे सेनापति पौर अमात्य चामुण्डराय ने सन् लिए हम तीर्थ क्षेत्रो पर जाते हैं परन्तु उनमे वह सौन्दर्य, १८१ मे स्थापित किया था और इस पावन प्रतिमा का वह कला नहीं है, जो श्रवणबेलगोला के बाहुबली की सहस्राब्दी महोत्सव २२ फरवरी ८१ को अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिमा में है। शिल्पकला की दृष्टि में यह प्रतिमा स्तर पर मनाया जा रहा है।
मद्वितीय और अप्रतिम प्रतिद्वन्दी पौर प्रजातशत्र है। संघर्ष-प्राक्रमण-विग्रह, संस्कृति-जन्म-जीवन-मरण प्रतिमा की रूपरेखा : देखते और लेखते हुए महामानव भगवान बाहबली को मंसूर संस्थान के चीफ कमिश्नर मि० बोरिंग ने स्वयं जीवन्त प्रतिमा अदम्य उत्साहपूर्वक पाज भी गौरव से माप कर प्रतिमा की ऊँचाई ५७ फीट बतलाई। प्रतिमा मस्तक उन्नत किए खडी है, अपनी ऐतिहासिकता और के अवयवों का सक्षिप्त विवरण सप्रमाण निम्नलिखित :पावनता तप पोर त्याग, वीतरागता पोर विराटता की प्रमाण प्रतीक बनी है।
चरण से कर्ण के अधोभाग तक
कर्ण के प्रधोभाग से मस्तक तक जिस प्रकार बाहबली की प्रतिमा वस्तु कला मे
चरण की लम्बाई पप्रतिम है उसी प्रकार बाहुबली अपने मानवीय जीवन में
चरण के प्रयभाग की चौड़ाई भी प्रतिम थे। उनका बल, उनका भोग, उनका ध्यान,
चरण का अंगठा उनका योग उनकी स्वतन्त्रता, उनका स्वाभिमान, उनका
पाद पृष्ठ के ऊपर को गोलाई केवल ज्ञान, उनका मोक्ष-प्रस्थान उनका सारा जीवन हा जाप को आरी प्राधी गोलाई एक अप्रतिम था। वे जैसे पहले कामदेव थे वैसे सर्वप्रथम नितम्ब से कान तक मोक्षगामी भी थे। विस्मय की बात तो यह है कि तीर्थंकर रोहको मस्थि अधोभाग से कणं तक नही होकर भी वे तीर्थकर से पहले मोक्ष गये। वे अपने नाभि के नीचे उदर की चौडाई पिता श्री ऋषमदेव या महाप्रभु प्रादिनाथ, जो इस युग कटि भोर टेहुनी से कान तक के सर्वप्रथम तीर्थकर थे, उनसे भी पहले मोक्ष चले गए।
बहुमूल से कान तक बाहुबलि मे क्या गुण थे? प्रस्तुत प्रश्न के उत्तर मे
तर्जनी उंगली को लम्बाई
मध्यमा उँगली को लम्बाई यह प्रश्न पूछना ही समुचित समाधान कारक होगा कि
अनामिका की लम्बाई बाहुबली में क्या-क्या गुण नही थे ? पर्यात् वे सभी
कनिष्ठका की लम्बाई पुरुषोचित सदगुणों से सम्पन्न व्यक्ति थे। उनके विषय में तो यह भी जनश्रुति है कि प्रवज्या के उपरान्त पोर मूति की कुल ऊंचाई मोम के प्रस्थान तक उन्होंने एक प्रास पाहार भी ग्रहण गोमटेश्वर द्वार की बायी पोर जो शिला लेख है, नहीं किया। उनकी अद्वितीय क्षमता को देख कर लगता वह सन् १०६० का है, उसमें कन्नड़काव प० वोप्पण ने है कि जैसे उनमे सभी मानवों का साहस पुंजीभूत हो गया मूर्ति की महिमा का प्रतिपादक एक काव्य लिखा है,
Gwal !! | - am- I -
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३३, कि०४
बनेकात
जिसका हिन्दी भाषा में सरल अनुवाद निम्नलिखित है- भगवान बाहुबली को निरावर्णता को लक्ष्य कर भारत
जब मूति पाकार मे बहुत ऊँची और बड़ी होती है के सुप्रसिद्ध साहित्यकार काका कालेलकर ने अतीव ममं. तब उसमे प्रायः सौन्दर्य का प्रभाव रहता है। यदि मूर्ति स्पर्शी हृदयोद्गार व्यक्त किये हैं, जो अक्षरशः प्रविकल बड़ी और सौन्दर्य भी हपा तो उसमे देवी चमत्कार माननीय हैहोना असम्भव लगता है परन्तु गोम्मटेश्वर (कामदेव और सांसारिक शिष्टाचार में फंसे हुए हम मूर्ति की भोर चामुण्डराय के देवता) बाहुबली की मूर्ति ऊँची-बड़ी सुन्दर देखते हो सोचने लगते हैं कि यह नग्न है। क्या नग्नता साश्चर्य-चमत्कारिणी है। दूसरे शब्दों मे ५७ फूट ऊंची वास्तव मे हेय है ? अत्यन्त प्रशोभन है ? यदि ऐसा होता होने से बड़ी है, सौन्दर्य मे अद्वितीय है और देवी चमत्कार- तो प्रकृति को भी इसके लिए लज्जा पाती। फुल नंगे सम्पन्न है, प्रतएव यह प्रतिविम्ब सम्पूर्ण विश्व के व्यक्तियों रहते है। प्रकृति के साथ जिनकी एकता बनी हुई है. वे द्वारा दर्शनीय और पूजनीय है। इस तथ्य को समझ कर शिशु भी नंगे रहते है। उनको अपनी नग्नता मे लज्जा हो शायद कर्नाटक सरकार ने श्रवण बेलगोला को पर्यटन- नही लगती। स्थल बनाया।
मूनि मे कुछ भी बीभत्स जुगुप्सित प्रशोभन अनुचित बाहुबली को निराकरणता :
लगता है, ऐसा किसी भी दर्शक मनुष्य का अनुभव नही दिगम्बर जैन मूर्तियों को निरावरणता के रहस्य को है। कारण नग्नता एक प्राकृतिक स्थिति है। मनुष्य ने जो लोग नही समझते है, वे नग्नता के साथ अपनी प्रश्लील विकारो को प्रात्मसात करते करते अपने मन को इतना भावमायें भी जोड़ लेते हैं। शिवव्रतलाल वर्मन सदश अधिक विकृत कर लिया कि स्वभाव से सुन्दर नग्नता मण्य लोग भी चाहे तो दिगम्बर जैन मदिर मे जाकर उससे सहन नहीं होती। दोष नग्नता का नहीं अपने कृत्रिम 'छवि वीतरागी नग्न मुद्रा दृष्टि नासा पै घरै' तुल्य प्रतिमा जीवन का है। बीमार मनुष्य के मार्ग फल पौष्टिक मेवे के दर्शन करके भूल सुधार सकते है। हिन्दी वाङ्मय के या सात्विक पाहार भी स्वतन्त्रता पूर्वक नही रखा जा सुप्रसिद्ध साहित्यकार जैनेन्द्र कुमार के शब्दो में सूर्य सत्य सकता। दोष खाद्य पदार्थ का नही, बीमार को बीमारी तो यह है कि मनुष्य जब प्राता है तब वस्त्र साथ नही का है। यदि हम नग्नता को छिपाते हैं तो नग्नता के दोष लाता है और जब जाता है तब भी वस्त्र साथ नही ले के कारण नही बल्कि अपने मानसिक रोग के कारण । जाता है। वस्त्रों का उपयोग जग्म से मरण के मध्य नग्नता छिपाने मे नग्नता की सुरक्षा नही लज्जा हो है। सामाजिक जीवन के लिए ही है। निर्विकार होने से साधुः जैसे बालक के सामने नराधम भी शान्त पवित्र हो जन निर्वस्त्र भी रह सकते हैं इसलिए दिगम्बर साधुप्रो जाता है वैसे ही पुण्यात्मानों-वीतरागो के सम्मुख भी सदश परम हंस और मादर जात फकीर भी होते रहे है। मनुष्य शान्त गम्भीर हो जाता है। जहाँ भव्यता और
भगवान बाहुबली ने निराबरण होकर, वस्त्राभूषण दिव्यता है वहाँ मनुष्य विनम्र होकर शुद्ध हो जाता है। त्यागी होकर पुनीत साधना को यो पोर जब बाहर सदश मूर्तिकार चाहते तो माधवी लता की एक शाखा को लिंग भीतर से भी निरावरण राग द्वेष रहित हुए तब ही उन्हे के ऊपर से कमर तक ले जाते पौर नग्नता को ढकना केवल ज्ञान की महामणि मिली और मुक्ति श्री भी। उनकी प्रसम्भव नहीं होता पर तब तो बाहुबलो भी स्वय अपने प्रतिमा भी एक सहस्राब्दी से निरावरण ध्यानस्थ वीतराग जीवन-दर्शन के प्रति विद्रोह करते प्रतीत होते । जब मुद्रा में खड़ी है और पुरुषो को ही नही बल्कि पशु-पक्षियों निरावरणता ही उन्हें पवित्र करती है तब दूसरा भावरण को भी दिव्य शान्ति का सन्देश दे रही है। बाहुबली की उनके लिए किस काम का है ? प्रतिमा की निरावरणता से प्रभावित होकर अब तो जेनेतर निष्कर्ष यह निकला कि निर्विकार श्रमण की नग्नता विद्वान भी दिगम्बरता के प्रति द्वेष भाव को छोड़ कर निन्दा योग्य नहीं है बल्कि विकारग्रस्त परम प्रीति को प्राप्त होने लगें है।
प्रश्लीलता मूलक नग्नता हो प्रतीव निम्वनीय है, संशोधन
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प्रतिमा की पृष्ठभूमि
योग्य है।
बाहुबली सुमेरु सदृश सुदढ हो रहे पौर निकम्प प्रतिमा बाहवली की योग-साधना :
योग धारण किए है और प्रब पूर्णतया केवलज्ञानी हो गये प्रयम मुनि और प्रथम तीर्थकर महाप्रभु प्रादिनाथ ने है इसलिए चक्रवर्ती भरत उनको प्रशसा कर रहे हैछह माह के लिए प्रतिमा योग धारण किया था पर उनके पापकी एकाग्रता, पापका धर्य धन्य है। पापमे द्वितीय पुत्र बाहुबली ने एक वर्ष के लिए प्रतिमा योग माहारादि संज्ञायों सदश कोधादि चार कषायों को ही स्वीकार किया। इसके पहले भरत सम्राट ने छत खण्ड नही जीता बल्कि चार घातिया को को भी जीत लिया पृथ्वी जीत कर जो कीति उपाजित की, जिससे वे चक्रवर्ती और अनन्तदर्शन, शान, सुख और वीर्य के धनी हो गए। कहलाए, ऐसे भरतेश्वर की विजयलक्ष्मी दैदीप्यमान चक्र- स्वर्ग के देवता पोर मयंक के मनुष्य स्तुति कर रहेमूति के बहाने बाहुबलि के समीप या परन्तु वाहबलि ने पापने जमा धान किया वैसा ध्यान भला कौन कर उसे तणवत समझ कर छोड़ दिया। भरत क चक्र चलाने सकता, ध्यान-चक्रवर्ती योगीश्वर बाहबली तृतीय काल में का कारण यह था कि बाहुबली दृष्टि युद्ध जलयुद्ध और जन्मे, जीवन जिया, जोपन्मुक्त हुये पौर मुक्ति श्री का भल्ल युद्ध मे विजित हो चुके थे पोर उनके चक्र ने बाहुबली वरण भी किया । यद्यपि भगवान बाहबली तीर्थकर नही का बाल बांका भी नहीं किया था।
थे तणागि उनकी प्रतिमाएँ कारकल, मूबिद्री, बादामि बाहवेली योग-साधना में लीन है। एक स्थान एक पर्वत संग्रहालय बबई, जूनागत खजुराह, लखनऊ, देवगढ़, प्रासन पर खड़े रहने का नियम लिए है। न पाहार है न तिलहरी, फिरोजाबाद, हस्तिनापुर, एलोग प्रादि मे है। बिहार पोर न निहार, न निद्रा है और न तन्द्रा, केवल यह उनके पतिम त्याग और पदभत तपश्चरण का ही ज्ञान है और ध्यान । एक से अधिक माह यो ही बीते। प्रभाव है जो बाज भी उनकी मूति की स्थापना से ममीप का स्थान वन-वल्लरियो से व्याप्त हो गया, उनके दिगम्बरस्व गौरवान्वित हो रहा है। चरणो के समीप सो ने वानिया बना ली। वामियो से महाश्रमण गोमटेश्वर बाहबली की दिगम्बर मति सों के बच्चे निकल रहे. उनके लम्बे-लबे केश कन्यों तक युग-युग तक प्रसंख्य प्राणियों को सुख और शान्ति, सन्तोष लटक रहे, फूली हुई बासन्ती लता अपनी शाखा रूपी पोर समृद्धि बन्धन मोर मुक्ति, भोग और योग स्वतन्त्रता भजायो से उनका प्रालिगन कर रही।
और स्वामिभान का सन्देश देती रहेगी और मृष्टि को शिव बाहबदी महान अध्यात्म योगी है। इन्होंने शरीर से का मार्ग प्रणित करती रहेगी तथा प्रतीत की भांति पाज प्रात्मा को पृथक् समझ लिया है। ये अपनी आत्मा को भी अपने चरित्र और चारित्र का पुनरावलोकन करने के मनन्त दर्शन, ज्ञान, सुख पौर वीर्यमय देख रहे है। मनन्त लिए प्रेरणा देती रहेगी। गुणो के पुजस्वरूप अपनी प्रात्मा का श्रद्धान, उसी का जब तक मूर्य और चन्द्र प्रकाश देते है, सरितायें ज्ञान और उगी मे तन्मयरूप चारित्र, यो ये भी निश्चय बहती है, सरोवर लहराते है, समुद्र उलित होते हैं तब रत्नत्रय रूप में परिणमन कर शुद्धोपयोग में लीन हो रहे तक भारतीय संस्कृति को ज्वलन्त उदाहरण जैसी पर कालान्तर में कभी उत्कृष्टतम शुभोपयोगी भी हो जाते गामटेश्वर बाहुबली की प्रतिमा का पूजन-अर्चन-वन्दन है। इन्होने ध्यान मोर तपश्चरण के बल से मति, श्रत करते हुये भक्तजन विद्यदेव नेमोचन्द्र सिवान्त चक्रवर्ती प्रवधि भोर मनः पर्यय चार ज्ञान प्राप्त कर लिए। चंकि के स्वर मे स्वर मिला कर कहते रहेगेये तपस्यामूलक श्रम से प्रणु भर भी मन मे खेद बिन्न नहीं परम दिगम्बर ईतिभीति से रहित विधि विहारी। है अतएव मात्मिक प्रालाद की उज्जल झलक इनके नाग समूहों से प्रावत फिर भी स्थिर मा पारी॥ सुमुख पर है।
निर्भय निविकल्प प्रतिमायोगी को छविममताऊँ। शरीर पर लतायें चढ़ गई। मो ने वामियां बना गोमटेश के बोचरणों में पारावार झक बा।। ली। विरोधी वनचर प्रशान्त होकर विचरण कर रहे ।
२२, बजाजखाना, जावरा (म.प्र.)
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बाहुबली बोले
7 श्री लक्ष्मीचन्द्र 'सरोज', एम० ए० आदिनाथ का तनय बाहुबलि तुम सबको प्रेरित करता हूँ। यत्न करो, नीचे से ऊपर उठो नित्य यह कहता हूँ। सदियो से यद्यपि मौन खड़ा, देखा करता नित नील गगन । तथापि मेरे मानस पर शत अंकित जीवन के परिवर्तन ।। अगणित वर्षो से छत्र किये मेरे ऊपर नभ के बादल । श्रम-यूक्त हआ विहगों का दल मंडराता होकर कुछ चञ्चल।। रवि-शशि निशि-दिन प्रतिवेला, उपहार मुझ देते आला। पद-पूजा नित करती आकर, मन्ध्या-ऊपा रूपी बाला ।। सत्य अमावास्या में पाता, निम्तब्ध सरोवर शान्त हआ। देखा करता ज्योत्स्ना में, भूतल चांदी का कान्त हुआ ।। मेरी मुख मुद्रा पर अकित, शत मत्य त्याग क भाव सबल । मेरे चिर परिचित है जितने, उनके श्रद्धामय भाव प्रबल ।। मैने महलो की माया मे, मुख-दुख के देखे वातायन । जहाँ दिखा था गायन-नर्तन, मना वहाँ पर क्रन्दन-रोदन ।। मैंने देखे अपनी ऑखा व राजाओ के सेनानी। जो नगरो के रत्न लूटते, जिनके हमले थे तूफानी ।। देखी राज्यों में उलट-पुलट, सम्राटो को मिटते देखा। मानव के जीवन को मैने, दुख-भोगी में लूटते देखा ।। पर मै युग-युग से मौन खड़ा, हूँ आत्मध्यान मे सतत मगन । इससे ही मुझको प्राप्त हुआ अनन्त सुख वह जीवन दर्शन ।। मानव तू मुझसे पूछ नहीं किसने मरा निर्माण किया ? मैं कहता बिषयों में फंस कर तने जीवन निष्प्राण जिया। सीध मानव हो सावधान तू जड़ शरीर से ऊँचा । उतनी ऊंची तेरी आत्मा धरती से जितना नभ ऊँचा ।। यदि सचमुच ही यत्न करे तो नर से बन जावे नारायण । लग जावे आत्म साधना में हो सफल मन्त्र का पारायण । आदिनाथ का तनय बाहुबलि उद्धार तुम्हारा करता हूँ। यत्न करो नीचे से ऊपर उठो नित्य यह कहता हूँ।
२२, बजाजखाना, जावरा (रतलाम) म०प्र०
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जे कम्मे सूरा ते धम्मे सूरा
- डॉ० प्रादित्य प्रचण्डिया दोति'
सूर्योदय हपा । चक्रवती भग्त मौर पराक्रमी बाहु- भरत ने दहमष्टि से बाहबली की छाती पर प्रहार किया। वली पुष्पों से उपचित रणभूमि मे मा गये। सारा तारापय रोष प्राकाश में बाहुबली की प्रखि बिकगल हो गई। देवतामों से भर गया। भरत और बाहुबली के मस्तको नाका उच्छवास की वाय से भर गई। बाहवली तक्षक पर किरीट शोभित हो रहे थे। दोनो महान प्रतापी प्रपने की भाति फुफकारने लगे। उन्होने भरतको उठाकर शरीर पर कवन धारण किए हुए थे। दोनों एक ही प्राकाश में फेक दिया। भगत यावाश में इतनी दूर उछले जयलक्ष्मी का वरण करने को ममृत्सुक थे। देवताकुल कि दीखने बन्द हो गए। बाहुबली का मन अनुताप से परम्पर विजय मंभित वितकंणा कर रहे थे।
भर गया, नानाविध सकल्पों में उलझ गया। इतने में ही बिगुल बजा । 'दृष्टियुद्ध' प्रारम्भ हुमा। दोनो महाभरत प्राकाशमार्ग मे दीख पढ़। बाहबली ने उन्हें अपनी बलियों की उत्साह मे मगनोर प्रॉम्बै कहरि की भांति एक भुनामो से झल लिया । भरत क्रुद्ध हा गए। जीत बाह. दूसरे को घर रही थी। भीगी पलको के अन्तराल में बली की हई। तागयें उब रही थी। देवना, मनुष्य मोर किन्नर परस्पर मन मे 'मल्लयद्ध' की बारी थी। युद्ध प्रारम्भ हुमा। में प्राइवयं प्रशन कर रह थे । प्रहर बीत चला। जिस भरत के तीन प्रहारो से बाहबली टवने-घटने तक भमि में प्रकार दिवावसान मे भासार रश्मिया मंद हो जाती उसी
धंस गए । उन्होन पुन, प्रहार करना चाहा लकिन बाहु. प्रकार भरत की अग्वि धान्त हो गई। भगत हार गए।
बली सभल चके थे। उन्होने भरत पर प्रहार किया।
भरत गले तक भमि में चंस गए। भरत बड़ा गए। हस्तियों के मिहनादो म कुनर मृग-सदा सत्रम्त हो गए। भयभीत वल्लरिया वृक्षो से जा लिपटी और कान्तायें मन उनका विन्न हो गया। उन्होंने बार-बार सोचा किया अपने प्रियतमो से प्रालिगित हुई। मृगेन्द्र अपने गह्वर में कि यह मैंने क्या किया? शरद के चन्द्रमा मा निकलक जा छिपे। भुजगमो ने नागलोक का प्राश्रय ले लिया। पूज्य पिता का वश और मझ द्वारा किया गया कलंक सम्पूर्ण जगतीतल शब्दमय, अतिशय पातकमय हो गया। से पकिन कम । मैं जानता हम भी गद कोडापो में मेरी यद्यपि भरत का सिंहनाद चहु पोर ध्वन्यायित हुप्रा विजय हई है नथापि घरणी के लिए अग्रज को मारना तथापि बाहुबली के मिहनाद से वैसे ही ढका जा रहा था उचित नही है। इधर बाहुबको स्वात कथन में निमग्न. जैसे समुद्र में मिलने वाला नदी का प्रवाह उदधि-कल्लोलो मंलग्न थे उधर वातावरण म-विहम उठा। विजयी से पाच्छन्न हो जाता है। भरत श्रम में थक गए। क्षण- दुन्दुभि बज उठी। नकिन भरत पनी पगजप को भर मा बन्दकर वह विधामा विराज गए। बाहवली वीकार नहीं किया। वह बाहुबली मेल-- "अनुज मन ! विजयी हुए।
प्रभो भी प्रणिपात करना, अर्थ ही क्यो मरहा। अपन ___ तदनना मुष्टियुद्ध' हेतु दोनों भुजवलियों ने अपनी भुजबल क प्रहं का छोड दी। दखो, मरदानचक्रकी अपनी मट्ठियां तान ली। मदोन्मा हाथी की तरह क्षय- अग्नि मे नप्त-उत्तानहाकर राना कही भी मुख नहीं पा कालीन वारवाचक्र की तरह उछलते हुए एक दूसरे के मके, फिर तुम क्या हो?" सामने खड़े होकर परस्पर जायें उठा ली। कुपित हो भरन की वाणी सुन बाहबली कुपितहा और गोले
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१०, पर्व २३, किरण
अनेका
"भाईवर ! तुम अपने पापको ही प्रभु मान रहे हो? गये। भोगी से योगी बन गए। यह देख भरत की प्रांखें क्या मैं तुम्हारी इस प्रकार की बातो से डर जाऊँगा? डबडबा पाई। उन्होंने प्रेम प्रवण बचनों से मनीन्द्र बाहु . क्या मैं इस लोहे के कड़े चक्र से भयभीत हो जाऊँगा?" बली की बंदना की।
भरत से रहा न गया उन्होंने दीप्ति से जाज्ज्वल्यमान बाहुबली कायोत्सर्ग में लवलीन थे। शरीर उनका चक्र को जोर से फेंका। वह चक्र बाहुबली के पास प्राकर मोक्ष का हेतु बन गया था। एक नही बारह महीने बीत चक्रवर्ती भरत को मोर मुड-बढ गया। बाहुबली का रोष गए । प्रभीष्ट की प्राप्ति नहीं हुई। उनके मन में अहं का बढ़ा और वे मुष्टिप्रहार से भरत को मारने दौड़े। तभी प्रकुर जो विद्यमान था। विभु ऋषभदेव ने यह जाना। माकाशवाणो हई--"हे बाहुबलि ! व्यर्थ अपने बल को उन्होने अपनी प्रव्रजित दुहितापों ब्राह्मी और सुन्दरी को युद्ध में नष्ट-विनष्ट कर रहे हो ? यह भवितव्य हेतु शुभ- शका निवारणार्थ भेजा। उन्होने अपने बन्धु को प्रतिबोष कर नही । तुम्हे अपने क्रोध का सहरण करना पड़ेगा। दिया -"मनोन्द्र ! गज से उतरिए ।" बस फिर क्या था भरत द्वारा प्राचीणं चरित्र को विस्मरण करना होगा। प्रतिबद्ध बाहुबली ने अहं के अंकुर को समूल उखाड़ फेंका। तुम्हे प्रात्म कल्याणार्थ अग्रसर होना है। मुनिपद की विनय के प्रवाह मे वे निमग्न हो गये। प्रबुद्ध हो गए। साधना करना है।"
निरावरण ज्ञान की उपलब्धि हो गई। बाहुबली सर्वज्ञ. माकाशवाणी सुन बाहुबली का रोष-प्राक्रोश शमित- सर्वदर्शी बन गए। शांत हमा । बाहुबली ने अपने बल का प्रयोग हाथ से सिर
पोली कोठी, प्रागरा रोड, के केश लुचन में किया पौर वे महाव्रतधारी मुनि बन
अलीगढ़-२०२००१
१० ४ का शेषांश) सम्मयता ने ५७ फुट उन्नत कामदेव सरीखी मानव प्राकृति कल्कि संवत ६०० मे विभव संवतसर चैत्र शुक्ला ५ को सन्तुलित रूप में सर्जन कर दुनियाँ को पाठवा पाश्चर्य वार रविकुभ लग्न, सौ-मोयय्य योग, मृगाशिरा नक्षत्र में भेंट कर दिया। ५७ फूट उन्नत नग्न खडी बिना प्रावार प्रतिमा की प्रतिष्ठा और प्रयम मस्तकाभिषेक हुमा था । की यह प्रतिमा पहाड़ की सबसे ऊंची चोटी पर माज एक वर्तमान विद्वानों की गणनानुमार उस दिन २३ मार्च हजार वर्षों से खडी भारतीय और विदेशी भक्तो का तीर्थ १०२८ ई. सन था। धाम बनी हुई है। यह घाम पाज अन्तर्राष्ट्रीय तीर्थस्थल है। पोदनपुर के महाराजा बाहुबली को सुन्दरता के
प्रतिमा के मस्तकाभिषेक की परम्परा प्रतिमा के कारण गोम्मट कहा जाता था, प्रतएव गोम्मट को प्रतिमा स्थापना दिवस से (कुभ के सदृश्य) १२ वर्षोंमे को है। परन्तु गोम्मटेश्वर के नाम से विश्व में प्रख्यात हुई, पोर वह इस विधान मे अक्सर व्यवधान उपस्थित होता रहा है। अपनी बहुमुखी प्रतिभा, शिल्प की मद्भतता विना माघार २०वीं शती का मस्तकाभिषेक का क्रम इम प्रकार रहा है, की ५७ फुट ऊँची प्रतिमा सभी ऋतुषों के विविध १९०६, १९२५, १९४०, १९५२ पौर १९६७ । पब झझावातों का वरण करते हए जैनधर्म के मूल सिद्धान्तों मे २२ फनवरी १६८१ को हो रहा है।
प्रत्यक्ष प्रतीक रूप में अनुभव करा कर जन-जन का सन १९५२ ई० के मस्तकाभिषेक के अवसर पर कल्याण कर रही है। मैसर नरेश बीमन्त महाराजा कृष्णराज ने कहा था-- माज हम सहस्राब्दी महा महोत्सव की पवित्र देला "जिस प्रकार भगवान बाहुबली के अग्रज चक्रवर्ती भरत के में भगवान बाहबली गोम्मटेश्वर के चरणों में अपनी साम्राज्य के रूप में इस देश का नाम भरत वर्ष (बाद में भावभीनी श्रद्धाञ्जलि अर्पण करते हुए प्रधा नहीं भारतवर्ष) कहलाया, उसी प्रकार यह मैसूर राज्य की रहे हैं। भमि भी भगवान गोम्मटेश्वर के माध्यात्मिक-साम्राज्य की
बनारसी माल के व्यापार, वसन्ती कटरा, प्रतीक है।
ठठेरी बाजार, वाराणसी-२२१००१
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श्रवणबेलगोल के शिलालेख
2 श्री सतीशकुमार जैन, नई दिल्ली
श्रवणबेल्गोल एवं उसके अचल मे भी तक ५७३ शिलालेख संकलित थे। ऐपिग्राफिया कर्माटिका भाग दो शिलालेख ज्ञात हुए है। इन शिलालेखों के कारण श्रवण- का सन् १९७३ मे अन्य परिवर्तित संस्करण प्रकाशित होने बेल्गोल तथा जैन धर्म के दक्षिण मे प्रसार का प्राचीन पर उस में तब तक प्राप्त ५७३ शिलालेखो का सकलन इतिहास तो मिलता ही है इसके अतिरिक्त यह शिलालेख किया गया है। कन्नड विद्या संस्थान, मैसूर विश्वविद्यालय वहाँ के स्थापत्य, निर्माण, निर्माताओं, राज-परिवारों, धर्म मानस गंगोत्री, मैसूर ने इम परिवदित संस्करण का परायण व्यक्तिगों पादि पर भी यथेष्ट प्रकाश डालते है। प्रकाशन कर पुरातत्व प्रेमियों एवं शोधकर्तामों पर विशेष मैसूर राज्य में शिलालेखों से संबंधित खोज एवं उनके
उपकार किया है। इन ५७३ शिलालेखों में केवल पाषाण
पर अकित लेख ही सम्मिलित हैं। कागज पर लिखी सनवें संकलन के कार्य का प्रारंभिक श्रेय एक अंग्रेज विद्वान
अथवा काष्ठो र उत्कीर्ण लेख शिलालेखो के प्रमतर्गत न मि० बी० एल. राइस को प्राप्त होता है जिन्हें सन् १८५०
माने का कारण उनमे नहीं दिए गए हैं । मे मैसूर राज्य के पुरातत्व विभाग का अंशकालिक निदेशक
इन ५७३ शिलालेखों मे से२७१ चन्द्रगिरि पर, १७२ नियुक्त किया गया था। उन्होने अपने बारह वर्ष के सेवा
बिध्यगिरि पर, ८४ प्रवणबेल्गोल नगर में तथा ५० काल में, सन् १९०६ तक, उस समय तक मंसूर राज्य में सम्मिलित पाठ जिलो तथा कुर्ग से जो उस समय एक
समीपस्थ ग्रामों में उत्कोग हैं। समीपस्थ ग्रामों में उत्कीर्ण स्वतन्त्र रियासत थो, ८८६६ मिलालेखों का सकलन
५० लेखों का विवरण इस प्रकार है : बस्तिहल्लि-१, किया । इन शिलालेखों को उन्होने Transliteration एवं
बेका-४, धोम्मेण हल्लि - २ चलया-२, है लेबेलगोल
१, हालुमत्तिगत्ता-२, हिन्दलहल्लि-१, हिरेबेल्टीअग्रेजी में अनुवाद सहित ऐपिग्राफिया कर्नाटिका नामक
१, होमाहल्लि-३, जिननाथपुर-१६ जिण्णेहल्लिपुस्तक के बारह भागों में प्रकाशित करवाया। भाग दो में केवल श्रवणबेल्गोल एवं उसके अंचल के शिलालेखों का
२, कम्बलु-१, कन्तराजपुर-१, कन्धिरयापुर-२,
कुम्बेणहल्लि -१, म काले-१, परमा-१, रागो. ही संकलन है। सन् १९०६ मे श्री राइस के सेवा निवृत्त
बोम्मणहल्लि-१, साणेहलि-४, सुन्दाहल्लि-१, होने पर रामानुजापुरम् नरसिंहाचार्य (१८६०-१९३६)
बद्दरहल्लि -२। उस पद पर भारूढ़ हुए। अपने सोलह वर्ष के सेवाकाल में उन्होने ५००० पौर शिलालेखों की खोज की। उनमें से इन ५७३ शिलालेखों में १, लेख छठों-सातवी शताब्दी महत्वपूर्ण शिलालेखों को उन्होंने राज्य के पूरातत्व विभाग
का, ५४ लेख सातवी शताब्दी के २०लेख पाठवीं शताब्दी की वार्षिक रिपोटों में भी प्रकाशित करवाया। मि. राइस
के तथा १० लेख नौवी शताब्दी के केवल चन्द्रगिरि पर ने ऐपिग्राफिया कर्नाटिका के दूसरे भाग मे, जिसका
ही उत्कीर्ण हैं। दसवी शताब्दी तथा उसके पश्चात् १६वी प्रकाशन सन् १८८६ में हुमा था, श्रवणबेलगोल में उस शताब्दा तक के शेष लेख चन्द्रगिरि के माथ-साथ विध्यसमय तक प्राप्त केवल १४४ शिलालेखो का ही संकलन गिरि, श्रवण बेल्गोल एव समोषम्य ग्रामों में भी मिलते है। किया था। पुरातत्व के धुरन्धर विद्वान श्री नरसिंहाचार्य इन ५७३ लेखों में से १०० लेख मुनियों, प्रायिकामों ने अथक परिश्रम करके जब सन् १९२३ मे इसका पौर श्रावक-श्राविकामो के समाधिमरण से, ४. लेख परिवदित संस्करण प्रकाशित किया तब उसमें ५०० योद्धामों की स्तुति, पाचार्यों को प्रशस्ति अथवा कुछ
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१२ वर्ष ३३, किरण ४
विशेष स्थानों के उल्लेख से, १६० लेख सघों एवं यात्रियों को समृद्धि से (जिनमे १०७ लेख दक्षिण से पाए हुए तथा ५३ लेख उत्तर भारत से आए हुए संघों अथवा यात्रियो के सम्बन्ध मे है) १०० व मन्दिरो के निर्माण, मूर्ति लेख प्रतिष्ठा, दानशाला, सरोवर, उद्यान आदि के निर्माण, मूर्ति प्रतिष्ठा, दानशाला, सरोवर, उद्यान यादि के निर्माण से तथा १०० दान तथा दातारों से सम्बन्धित है। शेष ७३ लेख अन्य विषयो पर है ।
प्रनेकान्त
प्राचीन तमिल और कन्नड, तेलगु, मलयालम, मराठी भाषाधों के यह लेख अधिकतर तमिल की प्राचीन लिपि प्रत्थ-तमिल, कन्नड लिपि, मलयालम लिपि नागरी लिपि मे हैं। सम्कृत एव मराठी भाषा के लेग कन्नड लिपि में उत्कीर्ण है। कमलयालम, तमिल व तेलगु लिपि के लेखों के परि ३६ मेल देवनागरी लिपि मे तथा कुछ लेख हिमाचल के पहाड़ी क्षेत्रों की टोकरी विधि मे भी उत्कीर्ण है । प्राचीन होने के कारण बहुत से शिलालेखो के अक्षर बिस गए हे अथवा मिट गए है कुछ लेखों को प्रज्ञानतावश मूल स्थान से उठा कर प्रन्यत्र भी जड़ दिया गया है जिससे उनका सन्दर्भ निकालना कठिन हो गया है कि वह शिनाख वस्तुतः किस स्थान के प्रति है। शिलालेखों मे अक्षर घिस जाने के कारण कही-कही पर स्थानो एव साधुग्रो व प्राचार्यो का नाम स्पष्ट हो गया है उन स्थानों अथवा महापुरुषो का प्रत्यत्र भी उल्लेख होने के कारण सम्दर्भ जोड कर उनके नाम पूरे पढे जा सके है, धथवा पूरे किये जा सके है। इन शिलालेखो द्वारा तद्वर्ती काल घथवा पूर्वकाल के दक्षिण क्षेत्र के जैन धर्मावलम्बी तथा जैन धर्म से प्रभावित नरेशो धमास्यों सेनापतियों श्रेष्ठियो आदि के विषय मे तथा विध्यगिरि पर निर्मित एक ही विषय को सबसे ऊंची ५७ फीट द्वितीय मूर्ति के श्रम त्य चामुण्ड द्वारा उत्कीर्ण कराने तथा विध्यगिरि एवं चन्द्रगिरि पर अनेक जन बस दियो स्तम्भों प्रादि के निर्माण के विषय में ऐतिहासिक सामग्री प्राप्त हुई है। इनमें यह भी ज्ञात होता है कि किस राजा या सेनापति के कान में कौन से जैन भाचार्य ये धौर कौन सा नरेश, प्रमात्य अपना श्रेष्ठी किन जैन प्राचयं अथवा साधु का शिष्य था ।
विविध भाषात्रों एवं लिपियों में उत्कीर्ण इन शिलालेखों से तथा उनके विषय से यह भी सष्ट होता है कि
काल से ही श्रवणबेलगोल समस्त भारत का पवित्र तीर्थस्थल रहा है तथा यातायात के साधनों के प्रभाव मे भी इस दूरस्थ तीर्थ के प्रति उत्तर भारत तक के धर्मी बन्धु की श्रद्धा रही है और यात्रा के कष्ट उठा कर भी बह निरन्तर ही वहाँ गोम्मटेश्वर बाहुबली की मूर्ति के दर्शन के लिए आते रहे हैं इन नामो से यह भी स्पष्ट शिलालेखो होता है कि जैन संस्कृति पक्की भांति पूर्व मे भी भारत थी तथा जैन धर्म घने नरेशो द्वारा सम्मानित था। ऐतिहासिक महत्व होने के प्रतिरिक्त इन शिलालेखो द्वारा पूर्व काल मे जैन साधुम्रो के धार्मिक कृत्यो जैसे सहखनाव्रत प्रथवा समाधिमरण, व्रत, उपवास, तर ध्यान यादि के भी वर्षष्ट उल्लेख मिलते है जिनसे ज्ञात होता है कि मोक्ष मार्ग पर अग्रसर होने के लिए जैन साधु कितना अधिक शारीरिक परिषद झेलते थे तथा धारम चिन्तन में लीन रहतेचे साधु के मन व्रत धारण । साधुम्रो सल्लेखना करने अर्थात् समाधि मरण पूर्वक देह त्याग करने सम्बन्धी अनेक उल्लेख इन विलास मे मिलते है। धर्म भावना को बन्लर में सुरक्षित रखते हुए सयम एव साधना पूर्वक यागेर स्याय को ही सहलेखना (समाधि मरण) कहा गया है ।
इन जिलों में अनेक बहुत महत्वपूर्ण है और उनमे भी सर्वाधिक महत्वपूर्ण है इनमें सबसे प्राचीन छठी शताब्दी का चन्द्रगिरि पर पार्श्वनाथ बसदि के दक्षिण की पोर बालो दिन पर पूर्व कन्नड़ लिपि में उत्कीर्ण क्रम यह गोम्मटेश्वर मूर्ति की प्रतिष्ठा से लगभग ४० वर्ष पूर्व उत्कीर्ण किया हुआ है । इसमें उल्लेख है कि त्रिकालदर्शी भद्रबाहु स्वामी को प्रष्ट निमित्त ज्ञान द्वारा यह विदित होने पर कि उज्जयिनी तथा उत्तरावल मे १२ वर्ष का दुर्भिक्ष पड़ने वाला है वह अपने संघ को उत्तरापथ से दक्षिण की ओर ले गए धौर क्रम-क्रम से जनपद, नगर, ग्राम पार करते हुए 'कटव' अर्थात् चन्द्रमिरि पर पहुंचे । अन्त समय निकट जानकर उन्होने अपने सब को अन्यत्र चले जाने का निर्देश दिया और वहां पर उनके साथ केवल एक शिष्य प्रभाचंद्र
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प्रवणबेलगोलशिलालेख
( इतिहास नाम सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य) हो रह गए, भद्रवाह में प्रतिष्ठा प्राप्त करने तथा उत्तर-मध्य भारत में जन स्वामी को वहां समाधिमरण हमा और उनके पश्चात ७०० धर्म को व्यापकता एवं दक्षिण में जैन धर्म प्रसार के विषय अन्य साधुषों को भी वहाँ मे समाधि मरमहमा । मिनालेबो मे ऐतिहासिक स य प्रस्तुत करते है। इन शिलालेखो से का काव्य सरस तथा प्रवाहमय भाषा में सुन्दरतम शमा. संशलिष्ट है जैन सस्कृति को सार्वभौमिकता के सवाहक तथा वली मे रचा गया है। घटनामों व दृश्यो का चित्रण बहुत उस समय के महान धर्मगुरु प्राचार्य भद्रबाहु तथा महान सजीव हुमा।
प्रतापी गम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य विधान, कटनीति एवं प्रथंसन् १९५३ में उत्कीर्ण लेखक्रमाक ७१ मे भद्रबाहको व्यवस्था के महान प्राचार्य चाणक्य का जीवन वृत्त एवं श्रत के वली एवं चनगुप्त को उनका शिष्य कहा गया है। कृतित्य भी जो वस्तुतः चन्द्रगुप्त माय के साम्राज्य के सन ११२६ मे उत्कीर्ण लेख क्रमांक ७७ मे जो पाश्वनाथ निमोता थे। बदि के एक स्तम्भ पर अकित है लिखा है कि स्वामी मूलमघ एवं कुन्दकुन्द प्राम्नाय के प्राचार्यों को पट्राभद्रबाहु का शिष्य बनने के कारण चन्द्रगुप्त की इतनी वली श्रवणबेल्गोल के माधार पर ही तैयार की गई है। पुण्य महिमा हुई कि वन देवता भी उनकी सूषा करने शिलालेख क्रमाक ? में भगवान महावीर के प्रमख गणवर लग । लगलग सन ६५० में अकित शिलालेख क्रमाक ३४ गौतम से लेकर भाबाह स्वामी तक प्राचार्यों के नाम मे उल्लेख है कि जो जैन धर्म मनि भद्रबाह और चन्द्र गुप्त क्रमबद्ध रूप मे यहाँ दिए गए हैं जिसे सम्मिलित है लोहाय, के तेज में भारी समृद्धि को प्राप्त हमा था उसके किचित जम्बू स्वामी, विष्णु देव, अपराजिन, गोवर्धन, भद्रबाह, क्षीण हो जाने पर शातिसेन मनि ने उसे पुनरुत्थापित विशाम्ब, प्रोष्ठिल कृतिकाय, जयनाम सिद्धार्थ घनसेन. किया। नागरी लिपि के ११वी शताब्दी के शिलालेख बधिला । होयसल नरेश विष्णवर्धन द्वारा दिमम्बर ११२४ क्रमांक २५१ मे जो चन्द्रगिरि पर भद्रबाहु गुफा मशिला
मे उत्कीर्ण लख क्रमाक ५६६ म भो गौतम गणवर स पर उत्कीर्ण है उल्लेम्व है कि जिनचन्द्र स्वामी ने भद्रबाह
लेकर श्रीपाल विद्यदेव तक की परम्परा दी गई है। कुछ स्वामी के चरणों को नमस्कार किया। (श्री भावाह
शास्त्रकारी तथा उनकी रचनामों के विषय मे भी उल्लेख स्वामिय पादुमं जिन चन्द्र प्रणमता) चद्रगिरि पर्वत के
किये गये है। लेख क्रमाक ३६०, ७७, ७१, ५६६, ३६४ शिविर पर भी चरण-चिह्न अंकित है। चरणो के नीच
पादि मे कुछ शास्त्रकारो तथा उनकी रचनामो के विषय १३वी शताब्दी मे उस्कोणं लग्व क्रमांक २५४ मे उल्लेख
में उल्लेख किये गये है। है कि यह चरण भद्रबाहु स्वामी के है (भद्रबाह भलि अनेक शिलालेखो मे जिनमें जैनाचार्यों को जीवन की स्वामिय पाद)। उल्लेखनीय है कि कर्नाटक राज्य मे घटनामों का उल्लेख है प्रथवा जो उनको प्रशस्ति प मे प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान श्री रगपट्टन के सन ९०० मे अंकित है उल्नख किया गया है कि वे शास्त्राय मति उत्कीर्ण एक लेख मे जो श्रवणबेलगोल से सम्बन्धित निपुण थे और उन्होने प्रतिवादियों को प्रनेको बार ज्ञान उल्लेख है कि कलबप्पू शिवर (चन्द्रगिरि) पर महामनि एव तकं द्वारा परास्त किया। दक्षिण वाले महानवमि भद्रबाह और चनगुप्त के चरण चिह्न बने हैं। सन १४३२ मण्डा के एक स्तूप पर अकित लेख क्रमाक ७० में उल्लेख के विस्तृत लेख क्रमाक ३६४ में जो विध्यगिरि पर निर्मित
है कि १२वीं शताब्दी मे महामण्डलाचार्य कीति पंडित सिद्धरबसदि के बाएं स्तम्भ पर अकित है एवं भद्रबाहु
ने चार्वाक, बौद्ध, नयायिक, कापालिक एवं वैशेषिको को तथा चंद्रगुप्त की प्रशस्ति रूप में है, उल्लेख है कि चद्रगुप्त
शास्त्रार्थ में पगस्त किया। श्रुतकेवली भद्रबाह कि शिष्य थे।
जैन मुनि महिलसेण की नषिद्धया रूप मे सन् ११२८ जैन इतिहास की दष्टि में यह शिलालेख बहुत महत्व में अंकित विस्तत लेख क्रम संख्या ७७ मे जो पाश्र्वनाथ पूर्ण है। यह सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के जैन धर्मावलम्बी के स्तंभ पर अकित है उल्लेख है कि मुनि महेश्वर ने ७७ होने, स्वामी भाबा के उस समय विशालतम साम्राज्य में जो पाश्र्वनाष के स्तर पर प्रकित है उल्लेख है कि मनि
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महेश्वरने ७० बार शास्त्रार्थ में प्रसिद्ध प्रतिवादियों पर विजय रानी, उनकी दूसरी पत्नी लक्ष्मी देवी, पोयसल सेठ को प्राप्त की। लेख क्रमांक ३६० मे कहा गया गया है कि माता शान्ति कम्बे, गंगराज की माता पोचब्बे प्रथवा पोचि. पण्डिताचार्य चारुकीति का यश इतना प्रशस्त था कि चार्वाकों कब्बे, गंगायी, चन्द्रमोलि मंत्री की माता प्रक्कम्वे, नागदेव को अपना अभिमान , सांख्य को अपनी उपाधिया, भट्ट को की पत्नी का कामल देवी के नाम विशेष उल्लेखनीय है। अपने सब साधन एवं कणाद को अपना हठ छोड़ना पड़ा। श्रवणबेलगोल के शिलालेखों मे उत्कीर्णकर्ताओं ने
कत्तले बसदि के लेख क्रमांक ७६ में प्राचार्य गोपनन्दि शूरवीर तथा रण-कुशल एव रण-बांकुरे वीरों को अनेक को शास्त्रार्थ प्रतिमा के विषय में कहा गया है। प्रन्य मतों उपाधियो से विभूषित कर उनके प्रति अपने हृदय का के विद्वानों की अपेक्षा में उन्हें मनि पुंगव कहा गया है। प्रादर प्रदर्शित किया है। अनेक शूरवीरो को तो एक साथ शिलालेख का भावार्थ है कि उस प्रखर विद्वान के सम्मुख कई-कई उपाधियों से विभूषित किया गया है। जो मत्तगज के समान है जैमिनी, सुगत, प्रक्षपाद, लोकायत अनेक शिलालेखो मे उन करो के नाम भी दिए गए एवं सांख्य जैसे विरोधी हाथी भी मातंकित हो गए, परास्त हैं जिन्हें श्रवणबेल्गोल की तीर्थ रक्षा, मन्दिरो के जीर्णोद्धार,
ए. लज्जा से मुंह बचा कर भाग गए प्रादि । प्रचुर प्रहरियों व कर्मचारियों के वेतन भुगतान तथा तीर्थसिद्धान्त-ज्ञान एवं विशेष तर्क शक्ति पर आधारित जैन व्यवस्था प्रादि के लिए लगाया गया था। साधनों को शास्वार्थ श्रेष्ठता ही उनकी ११वी से १४वी श्रवणबेल्गोल के इन शिलालेखों में दक्षिण के अनेक शताब्दी के मध्य पनपे प्रबल धार्मिक विरोध से उनकी राजवशों राष्ट्रकट वश, गंगवश, कल्याण के चालुक्य वंश, रक्षा कर सकी। कहा जाता है कि उनके तप एवं ध्यान द्वारसमुद्र के होयसल वश, विजयनगर के राजवश, मैसूर के प्रभाव से सिद्धि रूप में प्रलोकिक चमत्कार भी उत्पन्न नगर के प्रोडेयार राजवंश, चगलव वंश, नुग्गेहल्लि के हो जाते थे। सन् १३६८ में सिद्धर बसदि के स्तंभ पर तिरूमल नायक कदम्ब वश के नरेश कदम्ब, नोलम्ब एव उत्कीर्ण प्रत्यन्त विस्तृत शिलालेख क्रमांक ३६० मे वर्णन पल्लव वंश, चोलवंश, निडगलवंश पादि के नरेशों तथा है कि चारुकीति पण्डित मृतप्रायः राजा बल्लाल को स्वस्थ उनके प्रमात्यो, सेनापतियो एव श्रेष्टियों के सम्बन्ध मे कर "बल्ला जीव रक्षक" उपाधि से विभूषित हुए थे। सन भनेक उल्लेख मिलते है जिनसे उनके जैनधर्म प्रेम, १४३२ के एक अन्य विस्तृत शिलालेख क्रमांक ३६४ मे, पराक्रम, साहस, शौर्य, समरकुशलता, विद्वत्ता, दानशीलता जो सिद्धर बसदि के बाए स्तभ पर उत्कीर्ण है, कहा गया प्रादि पर यथेष्ट सामग्री उपलब्ध होती है। है कि उनके शरीर को छूकर जो वायु प्रवाहित होती थी होयसल वंश से सम्बन्धित शिलालेखों की संख्या इस बह रोगों को शान्त कर देती थी। किन्तु यह उल्लेखनीय प्रकार के शिलालेखों में सबसे अधिक है। विष्णवर्धन के है कि जैन साधकों तथा साधुषों ने धर्म प्रचार अथवा काल के सन् १९१३ से ११४५ के मध्य उत्कीर्ण १० लेख, अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए कभी भी चमत्कार जिन पर समय अकित नहीं है उसके समय के ८ लेख, अथवा मंत्र-तंत्र को साधन नहीं बनाया। यह दूसरी बात नरसिंह प्रथम के काल के सन् ११५६ एवं ११६३ मे है कि उनके तप एवं ध्यान के प्रभाव के कारण अलौकिक उत्कीर्ण ३ लेख, जिन पर समय अकित नही है उसके काल चमत्कार घटित हो जाते थे जिससे राजा तथा प्रजा के ऐसे-ऐसे लेख, बल्लाल द्वितीय के काल के सन् ११७३, प्रभावित होते थे।
११८१ एवं ११९५ मे उत्कीर्ण ५ लेख तथा जिन पर शिलालेखों में अनेक महिलापों का उल्लेख भी हमा काल अंकित नहीं है उसके समय के ऐसे तीन लेख. है जो राजवंश, सेनापतियों, मंत्रियों, तथा अष्ठियों के नरसिंह देव द्वितीय के काल के सन् १९१७ से १२७३ के परिवारों से सम्बन्धित थीं। इनमें उनके द्वारा किये गए मध्य उत्कीर्ण ६ लेख, तया १२वीं शती में उत्कीर्ण २३ निर्माण कार्य, पार्मिक कृत्यों समाधिमरण मादि का वर्णन तथा १३वीं शती में उत्कीर्ण ४ अन्य लेख यहां मिलते हैं। है। इनमें होयशल नरेश विष्णवधन की पलि शान्तशा राष्ट्रकूट वंश के नरेशों, कम्बय्य एवं इन्द्र चतुर्थ के माठवीं
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भवणबेलगोल के शिलालेख
तथा दसवीं शताब्दी के २ लेख, गंगवंश के सत्यवाश्य यातनाएं दी गई तथा उनका वध भी कराया गया किंतु यह पेरमानडि, रायमल्ल द्वितीय, एरेगंग द्वितीय तथा मारसिंह सत्य प्रतीत नही होता। उनके धर्म परिवर्तन के पश्चात भी द्वितीय मादि के नौवीं एवं दसवीं शताब्दी के १० लेख, उनकी प्रमुख पत्नी रानी शांतला जैन धर्मावलम्बीही बनी विजयनगर साम्राज्य के शासकों बुक्कराय प्रथम, हरिहर रही पौर अपने पति की स्वीकृति से अनेक जैन मन्दिरों द्वितीय, देवराय प्रथम तथा देव राय द्वितीय के ६ लेख, तथा जैनों को भेंट मादि देती रहीं। उनके जैन धर्मावमैसूर के प्रोडेयार राजवंश के चामराज सप्तम, दोडदेव- लम्बी मत्री गगराज भी उनके विशेष कृपापात्र बने रहे राज, चिक्कदेवराज, दोडुकृष्णराज प्रथम, तथा कृष्णराज तथा उनसे भेंट में वाप्त गांवों को गंगराज ने जैन बसदियों तृतीय के ६ लेख, चंगल्व वश के चगल्व महादेव का सन् की व्यवस्था के लिए सौप दिया। जह! शांतला रानी ने १५८६ का १ लेख, नुग्गेहाल के तिरुमल नायक का हैलेबिड मे तीन सुन्दर जैन मन्दिरों पाश्र्वनाथ बसदि, सोलहवीं शती का १ लेख, कदम्ब वंश के कदम्ब राजा प्रादिनाथ बसदि तथा शातिनाथ बसदि का निर्माण कराया का नोवी शताब्दी का एक लेख, शकर नायक (पल्लव) उन्होने अपने पति के साथ हेलेबिड में ही विश्व प्रसित के १३वी शती के २ लेख, चोलवंश के चोल पेमंडि का होयसलेश्वर - शांतलेश्वर नामक प्रत्यन्त कलात्मक सयुक्त १८वी शती का १ लेख तथा १२वी शताब्दी के ३ लेख शैव मन्दिर का भी लगभग सन् ११२१ मे निर्माण पूर्ण तथा निगम वंश के इरुगोल के १२वी शती के २ लेख करवाया। यह उन पति-पत्नी की धर्म सहिष्णुता का यहा उत्कीर्ण है।
भली-भांति परिचायक है। यह धर्म सहिष्णुता न केवल उपरोक्त शिलालेखो के प्रतिरिक्त सैकड़ो ऐसे शिला- उन दोनो के काल तक ही विद्यमान रही भपितु उनके लेख भी है जिनमे उपरोक्त वणित वंशों के साथ-साथ वैष्णव उत्तराधिकारियों, नरसिंह प्रथम (सन् ११४३अन्यान्य अनेक वंशो के नरेशो, मंत्रियों, सेनापतियो भादि
७३), वीर बल्लाल द्वितीय (११७३-१२२०) तथा के नामो, कृतित्व प्रादि का उल्लेख हुमा है।
नरसिंह तृतीय (मन् १२५४ - ६१) प्रादि ने भी जैन होयसल काल के लेखो में सबसे अधिक वर्णन हुप्रा है मदिगे के निर्माण में सहयोग तथा जैन प्राचार्यों के संरक्षण नरेश विष्णुवर्धन, उनकी पत्नी शान्तला, उनके मंत्री द्वारा उसका भली-भांति निर्वाह किया। गंगराज तथा नरेश नरसिंह देव द्वितीय का। प्रतापी शिलालेख क्रमसंख्या ८२ एवं ५०२ में विष्णुवर्षन को होयसल नरेश जैन धर्म के पालन एव स रक्षण के लिए महामण्डलेश्वर, त्रिभुवन मल्ल, तलकाविजयेता, भुजबलप्रसिद्ध रहे है। विनयादित्य द्वितीय (१०४७ -११००) वीरगंग-विष्णवर्घन होयसल देव प्रादि उपाधियों से इस वंश का ऐतिहासिक रूप से प्रसिद्ध प्रथम नरेश था विभूषित किया गया है। अनेक शिलालेखों में जैसा कि जिसे राज सता, शक्ति एव यश जैन साधु शातिदेव के ऊपर वर्णन किया गया है, उनसे प्राप्त गांवों को उनके पाशीर्वाद से प्राप्त हुए थे। वह जैन धर्मावलम्बी शासक प्रत्यन्त विश्वामपात्र तथा स्नेहपात्र मंत्रि एव सेनापति था। माने राज्यकाल (११११-११४१) के प्रारभिक गंगराज ने जैन बसदियों की व्यवस्था केलिए भेंट कर वर्षों में होयसल वश के सबसे प्रतापी एव यशस्वी नरेश दिया था। विष्णवर्धन जैन धर्मावलम्बी ही थे और उनका नाम था प्रनेक शिलालेखो मे शातला रानी के विषय मे विविध बिट्रिगदेव अथवा विट्टिदेव । रामानुजाचार्य के प्रभाव से उल्लेख हुए हैं। उनसे उसके सीदयं, नत्य एवं कला प्रेम, शैव धर्म अंगीकार कर लेने के पश्चात् उन्होंने विष्णवर्धन जैन धर्म एव साधुनो मे प्रास्था तथा उसके द्वारा मन्दिर नाम धारण किया। उनसे पूर्व सभी होयसल नरेश जैन निर्माण प्रादि के विषय में जानकारी प्राप्त होती है। धर्मानुयायी ही थे। कहीं-कहीं पश्यत्र यह उल्लेख हुमा है अपनी प्रतिभा, कला प्रेम तथा सौन्दर्य के कारण बह कि धर्म परिवर्तन के पश्चात वह रामानुजाचार्य के प्रभाव विष्णुवर्धन को सभी रानियो में सबसे अधिक प्रिय पी। से जनों के प्रति कठोर रहे उनके द्वारा जैनों को शारीरिक अन्य रानियों (सोतों) में मत्तगज के समान उसका
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१६, वर्ष ३३, किरण
उपनाम ही मवतिगधवारण पड़ गया था।
इनका सारा परिवार धामिक वृत्ति का तथा शुभचन्द्र शातला रानी के पिता शेव थे एवं माता जैन । उसने सिद्धांतदेव का शिष्य था। लेख सख्या ८२ में ही उल्लेख अपने गुरु प्रभावन्द्र सिद्धांतदेव को प्रेरणा से जैन धर्म के है कि गगराज ने गमवाड़ी में सभी जैन बसदियों उन्नयन के लिए अनेक कार्य किए। श्रवणबेल्गोल में (जिनालयों) का जीर्णोद्धार करवाया, गोम्मटेश्वर मूर्ति के सतिगंधवारण मंदिर का निर्माण करवाया तथा सन चारों मोर परकोटे का निर्माण करवाया तथा जहाँ-जहाँ ११२३ में वहाँ तीर्थकर शातिनाथ की मूर्ति स्थापित की। भी गंगराज का प्रभाव रहा और वह जिस स्थान से शिलालेख क्रमांक १७६ एवं १६२ मे उसकी धर्म परायणता प्रभावित हुए वहां शिलालेखों का निर्माण करवाया। इस एक पातिव्रत की भरि-भूरि प्रशसा की गई। इस अत्यन्त लेख में यह भी वर्णन है कि तिगूलो को गंगवाड़ी से धामिक महिला ने मल्लखना व्रत द्वारा सन ११३१ मे निष्काषित कर उन्होने उसे विष्णुवर्धन को वापिस ममाधिमरण किया।
दिलवाया। कर्नाटक में अनेक जैन मन्दिरों के निर्माण का अनेक शिलालवा में नरेश विष्णवघंन के निपुण मत्री श्रेय गगराज की प्राप्त होता है। एव वीर सेनापति जैन धर्मावलम्बो गगराज के वीरोचित गगराज ने अपने बड़े भाई बम्मदेव की पत्नी जक्कमब्बे गुणो, विष्णवर्धन के प्रति निष्ठा, धर्म-प्रेम, जैन माधुप्रो की स्मृति मे लेख उस्कोणं करवा कर उसमे उनके द्वारा के प्रति प्रादर एवं भक्ति, उनक द्वारा जैन मन्दिरी के किए गए सूकार्यो का वर्णन किया है। मिमणि, उनमे निर्माण कार्य, जार्गाद्वार एव सरक्षण के गगराज की माता पोचब्बे (पोच्चल देवी) तथा विषय मे विस्तार से उल्लेख हमा है। शिलालय क्रमांक पनि लक्ष्मी धर्म पगयण महिलाए थी। लक्ष्मी ने एरडक्ट्रे ८२ एवं ५६१ मे उल्लेख है कि जिम प्रकार इन्द्र के लिए बदि का निर्माण करवाया, पति की माता पोचब्बे की उनका श्य, बलराम के लिए उनका हल, विष्णु के लिए स्मृति में फत्तले बमदि तथा शासन बसदि का निर्माण उनका , गतिघर के लिए शक्ति तया वीर अर्जुन के करवाया। उसने अपने बड़े भाई बच एव बहिन देमेति लिए गांडीव धनूष उनके सहायक रहे है उसी प्रकार की मृत्यु को स्मृति मे शिलालेख उत्कीर्ण करवाया तथा गगराज भी विष्णवघंन के राज्य सचालन, संन्य-विजय जैनाचार्य मेघचन्द्र को स्मृति में भी लेख प्रकित करवाया। प्रादि मे सहायक रहे। वह विष्णुवघंन क राज्य कार्य का इन शिलालेखो द्वारा होयसल राजवंश के प्रतिरिक्त कुशलता एव निष्टा मेनचालन करते थे।
अन्य राजवंशों के अनेक नरेशो, अमात्यों, सेनापतियो तथा शासन बदि के द्वार के दाहिनी पोर एक पाषाण धष्ठियो प्रादि के विषय में भी जानकारी प्राप्त होती है। खर पर उत्कीर्ण विस्तृत शिलालेख क्रम संख्या ८२ मे यह जहा उड़ीसा में भुवनेश्वर के निकट उदयगिरि पहाडी पर उल्लेख है कि कन्नेगल के युद्ध मे चालुक्य नरेया त्रिभुवन हाथी गुम्फा में महाराजा खारवेल द्वारा ईसा पूर्व प्रथम मल्ल परमादिदेव को अनेक बार सामंतो सहित परास्त शताब्दी मे उत्कीर्ण १७ पक्तियों वाला शिलालेख जन करने पर विष्णवर्धन मे प्रसन्न होकर गगराज को कोई भी शिलालेखों में सबसे प्राचीन है एवं जैन इतिहास की दष्टि इच्छित वस्तु मागने के लिए कहा किन्तु धर्म प्रेमी गगराज से विशेष ऐतिहासिक महत्व का है, श्रवणबेल्गोल एवं ने केवल परमा नामक ग्राम भेंट में लेकर उन मन्दिरो की उसके अचल में अभी तक ज्ञात यह ५७३ शिलालेख एक व्यवस्था के लिए प्रोपत कर दिया जिमका निर्माण उनकी ही स्थान पर पाये जाने वाले शिलालेखों में संख्या की माता पोचवे (पोच्चाल देवी) तथा पत्नी लक्ष्मी द्वारा दृष्टि से सबसे अधिक है । कटवा (चन्द्रगिरि) पहाड़ी पर हमा था। बन्य विजय करने के उपलक्ष में उन्होने विष्णु. छठी सातवीं शताब्दी का उपरोक्त वणित शिलालेख क्रम
न से गोविन्दगडी ग्राम भेंट लेकर उसे गोम्मटेश्वर मूर्ति संख्या १ तो इन सभी में सबसे अधिक ऐतिहासिक महत्व की व्यवस्था के लिए पर्पित कर दिया।
का है।
000
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1(
मन
भुरमाड चामुण्डरा
जो गंगवंशीय राजा राजमहल के प्रधान मंत्री और सेनापति पं और बाहुबली प्रतिमा की प्रतिष्ठापना कराई।
जिन्होंने
विश्व के प्रेरक एवं संस्कृति के समर्थ उपयो एमवाय निधी विद्यानन्द जी महाराज जिनकी सरप्रेरणा चोर सतत सान्निध्य में फरवरी १९०१ में प्रतर्राष्ट्रीय स्तर पर गोल (जिला हासन) भगवान् बाहुबली प्रतिमा प्रतिष्ठापना सहस्राबि समारोह मनाया जा रहा है।
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and
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AL
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हने वि दक्षिण भारत के विजय पाश्र्वनाथ
पोदनेश भगवान बावली, श्रवणबेलगोन
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श्रवणबेल्गोल-स्तवन
श्री कल्याणकुमार जैन 'शशि' तुम प्राचीन कलाओं का आदर्श विमल दरशाते। पशु-रक्षा पर प्राण दिये जिन लोगों ने हँस-हँस कर। भारत के ध्रुव गौरव-गढ़ पर जैन केतु फहराते॥ वीर-वधू सायिबे लड़ी पति-संग समर के स्थल पर। कला-विश्व के सुप्त प्राण पर अमत रस बरसाते। चन्द्रगुप्त सम्राट मौर्यका जीवन अति उज्ज्वलतर। निधियों के हत साहस मे नवनिधि-सौरभ सरसाते॥ चित्रित है इसमें इन सबका स्मृति-पट महामनोहर ।। आओ इस आदर्श कीति के दर्शन कर हरपाओ। आ-आ एक बार तुम भी इसके दर्शन कर जाओ। वन्दनीय हे जैनतीर्थ तुम युग-युग में जय पाओ॥१॥ वन्दनीय हे जैनतीर्थ तुम युग-युग में जय पाओ ॥५॥
शुभस्मरण कर तीर्थराज हे, शुभ्र अतीत तुम्हारा। मन्दिर अति-प्राचीन कलामय यहां अनेक सुहाते। फूल-फूल उठता है अन्तस्तल स्वयमेव हमारा॥ दुर्लभ मानस्तम्भ मनोहर अनुपम छवि दिखलाते। मुरसार-सदृश बहा दो तुमने पावन गौरव-धारा। यहा अनेकानेक विदेशी दर्शनार्थ है आते। तीर्थक्षेत्र जग में तुम हो दैदीप्यमान ध्रुवतारा। यह विचित्र निर्माण देख आश्चर्यचकित रह जाते ॥ खिले पुष्प की तरह विश्व म नवसुगन्ध महकाओ। अपनी निरुपम कला देखने देशवासियों ! आओ। वन्दनीय हे जेनतीर्थ तुम यग-युग मे जय पाओ ॥२॥ वन्दनीय हे जैनतीर्थ तुम युग-युग में जय पाओ॥६॥
दिव्य विध्यगिरि भव्य चन्द्रगिरि की शोभा हे न्यारी। प्रतिमा गोम्मटदेव वाहुबलि की अति-गौरवशाली। पुलकित हृदय नाच उठता है हो वरवस आभारी॥ देखो कितनी आकर्षक है चित्त-लुभानेवाली।। श्रुत-केर
केवली मभदवाद सम्राट महा यश-धारी। बढ़ा रही शोभा शरीर पर चढ लतिका शभशाली। तप-तप घोर समाधिमरण कर यहीं कीति विस्तारी॥ मानों दिव्य कलाओं ने अपने हाथों ही ढाली।। उठो पूर्वजों को गाथाए जग का मान बढ़ाओ। इस उन्नति के मूल केन्द्र में जीवन ज्योति जगाओ। वन्दनीय हे जेनतीर्थ तुम युग-युग में जय पाओ॥३॥ वन्दनीय हे जैनतीर्थ तुम युग-युग में जय पाओ॥७॥
सात-आठ सौ शिलालेख का है तुममें दुर्लभ धन। ऊचे सत्तावन मुफीट पर नभसे शीश लगाए। श्रावक-राजा-सेनानी श्राविका-आर्यिका मनिजन ।। शोभा देती जैनधर्म का उज्ज्वल यश दरशाए॥ धीर-वीर-गम्भीर कथाएं धर्म-कार्य संचालन। जिसने कौशल-कला-कलाविद के सम्मान बढ़ाए। उक्त शिलालेखों में है इनका सुन्दरतम वर्णन ॥ देख-देख हैदर-टीपू-मुल्तान जिसे चकराए॥ दर्शन कर इस पूण्य क्षेत्र का जीवन सफल बनाओ। आओ इसका गौरव लख अपना सम्मान बढ़ाओ। वन्दनीय हे जैनतीर्थ तुम यग-युग में जय पाओ॥४॥ वन्दनीय हे जैनतीथं तुम यग-युग मे यश पाओ ॥८॥
(शेष पृष्ठ २१ पर)
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करुणामूर्ति बाहुबली
- उपाध्याय श्री अमरमुनि
जैन-इतिहास का पहला अध्याय भगवान ऋषभदेव रूप में सेवा लेने का अधिकार है। मैं भरत से छोटा हैं । मे प्रारम्भ होता है। वही से जीवन की कला उद्भत मैं हजार बार सेवा करने को तैयार हैं। परन्तु, भाई बनहोती है । भगवान् ऋषभदेव के समय में ही उनके ज्येष्ठ कर ही सेवा करूंगा, दास भोर गुलाम बनकर नहीं। पुत्र भरत के चक्रवर्ती बनने का प्रसंग पाया। वे लड़ाइयां बाहुबली की वृत्ति में यही चिन्तन था। उन्होने लडते रहे । भारत की समस्त भूमि पर उनका स्वामित्व, सोचा--भरत हैं, जो चक्रवर्ती बनने को उत्सुक है और मैं, प्राधिपत्य स्थापित हो गया। किन्तु उनके भाइयों ने उनका अपने स्वाभिमान को तिलांजलि नही दे सकता। हम दोनो माधिपत्य स्वीकार नहीं किया। तब भरत ने सोचा, जब अपनी-अपनी बात पर अटल रहने के लिए तलवार लेकर तक भाई भी मेरे सेनाचक्र के नीचे न पा जायें, तब तक युद्ध के मैदान मे पाये है। प्रश्न है-मेरा और भरत का। चक्रवर्ती का साम्राज्य पूरा नहीं होगा। यह सोचकर भरत बेचारे सनिक एवं यह गरीव प्रजा क्यों कट-कट कर मरे ? ने अपने ६६ भाइयो के पास दूत भेजा । बाहुबली विशेषरूप हम दोनों के झगड़े मे हजारों-लाखो व्यक्ति दोनों ओर के से महान भुजबल के धनी और स्वाभिमानी थे। उन्होने कट मरेंगे, कितना भीषण नरसंहार होगा ? न मालूम, भरत की अधीनता स्वीकार करने से साफ इनकार कर कितनी सुहागिनों का सिदूर पुंछ जायगा? कितनी मातायें दिया। परिणामतः भरत और बाहुबली की विशाल सेनायें अपने कलेजे के टकड़े के लिए विलाप करेंगी और कितने मैदान में प्रा डटी। जब दोनों पोर की सेनायें जूझने को पत्र अनाथ होकर अपने पितामों के लिए हजार-हजार तयार थी, सिर्फ शंखनाद करके पादेश देने की देर थी कि प्रांम बहायेंगे? बाहुबली के चित्त में करुणा की मधुर लहर उद्भूत हुई। अत: बाहुबली ने भरत के पास सदेश भेजा-"प्रानो,
वैसे तो इस प्रसंग पर इन्द्र के प्राने की बात कही भाई ! इस लड़ाई का फैसला मैं और प्राप दोनों प्रापम जाती है। अनेक युद्धों में इन्द्र को बुलाने के प्रसग भी मे कर लें। यह उचित नहीं है कि सैनिक लड़ें और हम मिलते है। किन्तु, इतिहास के मूल में यह बात नहीं है। लोग अपने-अपने कैम्पो में बैठे दर्शकों की तरह युद्ध देखते ऐसा कोई कारण नही है कि युद्ध में होने वाली हिंसा को रहें। अच्छा हो, सिर्फ हम दोनो परस्पर मल्ल-युद्ध करें परिकल्पना करके इन्द्र का अन्तःकरण तो करुणा से परि- प्रौर व्यर्थ के नरसंहार को समाप्त करें। इसका प्रर्थ पूर्ण हो जाए और बाहुबली जैसे अपने जीवन की भीतरी
हुमा-युद्ध कराना नहीं, स्वयं करना है। कराने में जो तह मे विरक्ति-भाव, मनासक्ति-भाव और करुणा-भाव
विराट हिसा थी, उसे स्वय के करने में सोमित कर दिया धारण करने वाले के चित्त में इन्द्र के बराबर भी करुणा गया। इस विचार से दोनों भाई युद्ध-मैदान में उतर पाये। न हो। प्राचार्य जिनदेव महत्तर ने प्रावश्यक चुणि में इन्द्र आंखों का युद्ध हमा, मष्टि-प्रहार का युद्ध हुमा । इस युद्ध के प्रागमन का उल्लेख नही किया है। उन्होंने स्वयं बाह. मे हिसा की उल्लेखनीय सीमा यह थी कि किसी को बली के हृदय में ही करुणा-स्रोत का उमड़ना लिखा है। मरना-मारना नही था, केवल जय-पराजय का निर्णय करना दिगंबर-परम्परा भी इस बात को मानती है।
था। और यह निर्णय खून की एक बूंद बहाये बिना उक्त वस्तुतः बाहुबली ने सोचा कि भरत को चक्रवर्ती बनना तरीके से हो सकता था, जिसे किया गया। विश्व के इतिहै और मैं उसके पथ का रोडा हूं। तब मेरा स्वाभिमान हास मे वह युद्ध सर्वप्रथम अहिंसक युद्ध था। मुझे पादेश देता है कि मैं भरत की प्राज्ञा स्वीकार न प्रस्तुत प्रसंग में जैन-धर्म का पहिसा एवं करुणा का करूं। क्योंकि यह अनुचित है। भाई को भाई से भाई के
(शेष पृ० २१ पर)
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बाहुबली और महामस्तकाभिषेक
0 डा० महेन्द्र सागर प्रचंडिया, अलीगढ़
श्रमण और ब्राह्मण संस्कृतिया मिल कर भारतीय प्रथमानुयोग मे अनेक पुराणों का उल्लेख मिलता है। संस्कृति को स्थिर करता है। ब्राह्मण से वैदिक और श्रमण पुराण परम्परा में महापुराण का स्थान बड़े महत्व का है। से बौद्ध तथा बौद्ध से बहुत पहिले जैन संस्कृति का अभि- महापुराण मे चौबीसों तीर्थंकरों के विषय में पर्याप्त चर्चा प्राय लिया जाता है। वैदिक वाङ्मय के लिए वेद, बौद्ध हुई है। प्रथम तीर्थकर से सम्बन्धित यहाँ संक्षेप में चर्चा वाङ्मय के लिए पिटक पोर जैन बाद मम के लिए पागम करना हमारा मूलाभिप्रेत रहा है। कहते है कि अयोध्या शब्द का प्रयोग प्रारम्भ से ही होता आ रहा है। के महाराजा नाभिराय और महारानी मरुदेवी के यशस्वी
पुत्र ऋषभदेव उत्पन्न हुए । युवराज ऋषभ का नन्दा मोर प्रागम को विषय की दृष्टि से चार भागों में विभाजित सनन्दा नामक राजमारियों के साथ मंगल परिणय हमा किया गया है। प्रत्येक भागको अनुयोग की संज्ञा दी गई है। महारानी नन्दा के ज्येष्ठ पुत्र भरत थे जिनके नाम पर इस प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग पीर द्रव्यानुयोग विशाल देश का नाम भारत पड़ा। भरत के उपरान्त नामक ये चार पूरे पागम के रूप को स्वरूप प्रदान करते उनके निन्यानवें भाई और हए। वे सभी प्रतापी थे। भरत है। प्रथमानुयोग मे जिनेन्द्र देवो पर प्राधृत अनेक कथाएं की बहिन का नाम बाह्मी था। महादेवो सुनन्दा के महाऔर पुराण रचे गए है। करणानुयोग में कम-सिद्धान्त प्रतापी पत्र बाहबलो तथा सुन्दरी नामक सुपुत्री का जन्म और लोक व्यवहार, चरणानुयोग से जीव का प्राचार- हा था । विचार तथा द्रव्यानुयोग से चेतन-प्रचेतन द्रव्यो का स्वरूप तथा तत्वो का निर्देश सम्बन्धी बातों की विशद विवेचना
बाहुबली के विषय मे महापुराण में विशद विवेचन सम्बद्ध है।
विद्यमान है। बाहुबली के नाम की सार्थकता सिद्ध करते
हुए महापुराणकार को मान्यता है कि उन तेजपुंज विशाल नागम के अनुसार जनतत्त्व चिन्तन प्रणाली वस्तुतः
बाहु की दोनो भुजाएँ उत्कृष्ट बल परिपूर्ण थी, इसीलिए अनादि है। इस अवसपिणी काल मे जैन धर्म का प्रवर्तन
उनका नाम बाहुबली वस्तुतः सार्थक था । यथाभगवान ऋषभदेव के द्वारा हुग्रा । चौबीस तीर्थकरो मे भगवान ऋषभदेव प्राद्य तीर्थकर है अज्ञानता से कुछ लोग बाहु तस्य महावाहोः प्रधाना बल मजितम। कभी-कभी प्रतिम और चौबीसवें तीर्थकर महावीर भगवान यतो बाहुबलीस्यासीत् नामास्य करुणानिधेः॥ को ही जन धर्म का प्रवर्तक घोषित कर देते है।
महापुराण-१६-१७ वास्तविकता यह है कि जैन धर्म एक प्राकृत धर्म है। उसका कोई व्यक्ति विशेष निर्माता या कर्ता नही है। महाराजा ऋषभ अपनी सतति को विविध शास्त्रो किसी व्यक्ति द्वारा धर्म विशेष का नहीं अपित किसी का अध्ययन कराते ! और उन्हें लोक पोर लोकोत्तर ज्ञान मत का प्रवर्तन हुमा करता है। हाँ समय-समय पर से विभूषित करने । इसी क्रम में भरत जी को अर्थशास्त्र तीर्थंकरों द्वारा जन साधारण के लाभ हेतु धर्म का उन्नयन और नृत्य शास्त्र का और बाहुबली को काम नीति, स्त्रीअवश्य हुमा करता है। उनके द्वारा धर्म की प्रभावना पुरुष के लक्षण, मायुर्वेद, तंत्र शास्त्र तथा रत्नपरीक्षा भवश्य होती है।
मादि के अनेक शास्त्रों का अध्ययन कराया गया। कुछ ,
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२०,
१३, किरन ४
अनेकारत
हो समय में ऋषभ सतति सुयोग्य-शक्तिशाली तथा प्रशासन के काम-क्रोधादिक सभ्यन्तर कापायिक शत्रभों को जीतने पट हो गई। मयोगवश नीलाजना के नत्य के समय भायु की अनुमोदना कर उठे। उन्हे सासारिक ऐश्वयं नीरस समाप्ति के निमित्त में भगवान को वैराग्य उत्पन्न हुमा और निरर्थक प्रतीत हो उठा। वे वैराग्योम्मख हए । फलस्वरूप अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को साम्राज्य पद पर उन्होने एक वर्ष का प्रतिमायोग धारण कर घोर तप अभिषेक कराया पौर बाहुबली को युवराज पद पर घलकृत किया। उनके इस निर्णय ने पराजित भरत के मनोरथ किया। भरत अयोध्या क राजा हुए और शेष पुत्रों को को पूर्ण किया फलस्वरूप भरत जी निर्वाष चक्रवर्ती बन विभिन्न राज्यों का प्रशासक बनाया गया। बाहुबली जी कर राज्य भोगने लगे। पोदनपुर के राजा बनाए गए।
महातपस्वी बाहुबली जी प्राध्यात्मिक-साधना में जुट कालान्तर में भारत ने दिग्विजय हेतु देश-देशान्तरों गए महातपश्चरण करते हुए वे सिद्धि-शीणं तक पहुंच रहे में गमन करना प्रारम्भ किया । जहाँ-जहां वे गए उन्हे थे कि उनके मन में एक शल्य ने जन्म लिया। शल्य यह सफलता प्राप्त होती गई। उन्होंने चक्रवर्ती यश मजित कि वे भरत-भमि पर अध्यात्म-साधना कर रहे है। किया। दिग्विजयी होकर जब वे अपनी राजधानी मे वापस निःशल्य हुए बिना केवलज्ञान की प्राप्ति सम्मव नही प्राए तब उनका चक्र रत्न गोपुर द्वार के पास रुक गया। होती। उधर महाराजा भरत अपार राज-वैभव को भोगते इसका अर्थ यह होता है कि भरत जी को अभी भी कोई हए ऊबने लगे। मंयोगवश जब उन्हें यह ज्ञात हुपा कि जीतना शेष है। निमित्त ज्ञानियों के सहयोग से यह महातपस्वी बाहुबली जो शल्यशील होने से अघर मे है तो स्पष्ट हमा कि बाहुबली द्वारा उनकी अधीनता स्वीकार वे उनके दर्शनार्थ उपस्थित हुए। नमोस्तु करते हुए उन्होंने नहीं हुई है। यह जान कर महाराजा भरत का उद्विग्न निवेदन किया किहोना स्वाभाविक था। उन्होंने क्रमशः अपने सभी भाइयो भरत चक्रवर्ती बनकर जब कोनि-शिला पर अपना नाम के पास राजदूत भेजे । बाहुबली के अतिरिक्त सभी अकित करने हेतु मेरा जाना हुमा तो शिला को देख कर बन्धुषों ने अपने-अपने अग्रज भरत जी की शरण स्वीकार मैं दंग रह गया। पूरा शिला खड चक्रवतियो के नामो से करली। बाहबली जी अपने को सर्वथा स्वाधीन शनुभव भरा पड़ा है। किसी नए नाम को उस पर लिखना सम्भव कर निर्वाध राज करते रहे।
नही दिखा फलस्वरूप मैंने अंतिम नाम को मिटा कर ऐसी स्थिति में दोनों राजाम्रो की शक्ति सामथ्र्य का
अपना नाम उत्कीर्ण कराया है। नाम तो उत्कीणं करा भएनी-अपनी शक्ति परीक्षण करने कराने के अतिरिक्त लिया किन्तु मेरे मन मे चक्रवर्ती होन का उत्साह प्रायः अन्य कोई मार्ग अथवा उपाय शेष नही रहा। परिणाम समाप्त हो गया और वह भारी छोभ से भर गया । क्षोभ स्वरूप इनमे युद्ध प्रतियोगिताएं स्थिर ।। नर-संहार से इस बात का कि चक्रवर्ती पद कोई निराला नहीं है। पौर बचने के लिए व्यक्तिशः जल, मल्ल, तथा दष्टि नामक इस प्रकार मेरा सारा पुरुषार्थ निरर्थक ही रहा । सोचकर युद्ध प्रतियोगिताए इन उभय बन्धु राजामो कंबल-विक्रम में पापको इस शरण मे चला पाया हूं। का निर्णायक-निकर्ष सर्वमान्य हुना। दोनो पार की प्रजा, महामने भरत जैसे प्रगणित चक्रवर्ती राजा इस भूमि प्रभु मोर प्रागत दर्शनार्थियो के समक्ष युद्ध प्रतियोगिताएं के स्वामो बनने का मिथ्या दावा करते गए-किसी ने प्रारम्भ हुई। दिग्विजयी भरत इन प्रतियोगितामो में अभी तक वास्तविक स्वामित्व प्राप्त करने का सकल्प ही क्रमशः पराजित होने लगे। प्रायोजित इन प्रतियोगितामो नही किया, वस्तुतः भाश्चर्य का विषय है। मुनिवर-यह ने उपस्थित अपार जन समूह को पाश्चर्य अन्वित कर भूमि कभी किसी को नहीं हुई है। कहा भी है-जहां देह दिया और महाराजा बाहुबली का बल-विक्रम सर्वोपरि अपनी नही वहां न अपना कोय ।-मन्यत्व भावना । घोषित किया गया।
उद्बोधन सुनते हुए महामुनि बाहुबली ने पर्दनिमोलित इस भौतिक विजय से उनका मन क्षुब्ध हो उठा पोर नेत्रो से देखा और देखते-ही-देखते वे नि:शल्प हो गए,
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बाहुबली पोर महामस्तकाभिषेक मावागमन से मुक्त हो गए । वे केवल्यज्ञान को पा गए। नमोस्तु निवेदित है।
बाहुबली जो वस्तुतः जीत को जीत कर मजीत बन गए । ससार सागर से तिरने का प्रमोध साधन सुझा गए।
एक हजार वर्ष पूर्व की घटना है। गंगवशीय नरेशों
के धर्मप्राण सेनापति श्रीमान् चामुण्डराय ने विध्यगिरि, तथा बुझा गए वह रहस्य जिसको जाने बिना राजा पोर
(श्रवणबेलगोला, कर्णाटक) पर माध्यात्मिक, सांस्कृतिक रक अनादि काल से मानवीयपर्याय पाकर निरर्थक ही
पोर कलात्मक चेतना को प्राणप्रतिष्ठित करने के लिए गवाता रहा। कल का बाहुबली वस्तुतः माज का बोधबली
बाहुबली की प्रतिमा स्थापित की । सिद्धांताचार्य श्री नेमि बन गया। प्राचार्य नेमिचन्द्राचार्य की शब्दावली मे श्री
चन्द्राचार्य जी द्वारा प्रतिष्ठा-अनुष्ठान सम्पन्न हुमा। गोम्मटेश हमारी स्तुति के स्तुत्य बन गए । यथा
सत्तावन फीट ऊची एक ही शिलाखंड से उकेरी गई इस उपाहिमत्तं धण-धाम वज्जिय,
प्रतिमा की भव्यता तथा शान्तिदायिनी प्रभा माज भी सुसम्मजतं भय-मोह हारयं ।
सन्मार्ग को प्रशस्त करती है। बस्सेयपज्जत भव वास-जुत्तं, संगोम्मटे संपणमामि णिच् ॥
विश्वव्यापी कला-कीति को अधिष्ठात्री इस प्रतिमा अर्थात् जो समस्त उपाधि परिग्रह से मक्त है, धन का महत्रादि महामस काभिषेक दिनांक २२ फरवरी मोर धाम का जिन्होने अन्तरग से ही परित्याग कर दिया, उनोस सौ इक्यासी को होने जा रहा है। भक्त समुदाय मद और मोह, राग दोष को जिन्होने तप द्वारा जीत कर अपनी वर्तमान पर्याय में पहली और प्रकली बार इस क्षायिक भाव में स्थित हुए तथा पूरे एक वर्ष तक जिन्होन मागलिक अवसर पर श्रवणबेलगोला पहुच कर कलशाभिषेक प्रखड उपवास व्रत लिया है, ऐसे श्री गोम्मटेश महा. कर भगवान के श्री चरणो मे अपनी श्रद्धाजलियां मर्पित तपस्वी के श्री चरणों में मन, वचन मोर काय से मेरा कर सकते है ।
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(पृ०१७ का शेषाश) गग-वंश के राचमल्ल नृप विश्व-कीति-व्यापक है।
(पृ० १८ का शेषांश) नप-मन्त्री चामुण्डरायजा जिसके संस्थापक हे। महान इष्टिकोण परिलक्षित होता है, जिसके लिए बारजा निर्माण हआ नोसे नब्बे में यशवर्द्धक है। वली को हजारो-हजार धन्यवाद हैं। उनके मन मे करुणा राज्य-वश मैसूर आजकल जिसका सरक्षक है। की, अहिंसा की वह उज्ज्वल-धारा प्रवाहमान हुई कि उसकी देख-रेख रक्षा में आना यांग लगाओ। उन्होंने हजारों-लाखो व्यक्तियो को गाजर-मली की तरह वन्दनाय ह न ताथं तुम युग-युग म जय पाआ॥६॥ कटने से बचा लिया। उन्होंने स्वय न लड़कर दूसरों को
लड़वाने मे, युद्ध की माग में झोकने में अपने जीवन को काह लखना पुण्य-तोयं क्या गारव कथा तुम्हारी।
अधिक कलुषित होते देखा। जन-धर्म का वह यूग-पुरुष, विस्तृत काति-सिन्धु तरन म है असमय विचारा॥ जब दूसरो से युद्ध करवाने की प्रपेक्षा स्वयं युद्ध करने को नतमस्तक अतस्तल तन-मन-धन तुम पर बलिहारी।।
उद्यत हुमा, तो उस महान् ऐतिहासिक निर्णय की तेजस्विता मन-शत नमस्कार तुम का हे नमस्कार अधिकारी ।।
से उसका मंग-प्रग मालोकित हो उठा, चमकने लगा। फिर सम्पूण विश्व में अपना विजय-ध्वजा फहराआ। वन्दनाय ह जैनतार्थ तुम युग-युग में जय पाना॥१०॥
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उत्तरभारत में गोम्मटेश्वर बाहुबली
a डा. मारुति नन्दन प्रसाद तिवारी, वाराणसी बाइबली गोम्मटेश्वर प्रथम जैन तीर्थकर (या जिन) महामस्तकाभिषेक महोत्सव का आयोजन किया जा रहा प्रादिनाथ के पुत्र हैं। जैन परम्परा में इनका गोम्मट, है। यह धार्मिक महोत्सव विशाल स्तर पर आयोजित है। गोम्मटेश्वर भुजबली, एवं कुक्कटेश्वर प्रादि नामो से भी इस अवसर पर हम प्रस्तुत लेख के माध्यम से यह बतलाना उल्लेख हपा है। बाहुबली की जैन परम्परा में वर्तमान चाहते है कि बाहुबली मूर्तियों का निर्माण उत्तर भारत मे भवसपिणी युग का प्रथम कामदेव भी कहा गया है। भी पर्याप्त लोकप्रिय रहा है। इस क्षेत्र में प्रभास पाटण कैवल्य प्राप्ति के लिए बाहुबली ने एक वर्ष तक जो कठिन (गुजरात), खजुराहो, (पार्श्वनाथ मंदिर-मध्य प्रदेश), तपस्या की थी, उमी कारण उन्हें जैन देवकूल में विशेष बिल्हारी जबलपुर, मध्य प्रदेश) एवं देवगढ़ (उत्तर प्रदेश) प्रतिष्ठा मिली। मूतियों में बाहुबली को सदैव कायोत्सर्ग जसे स्थलों से नवी से १२वी शती के मध्य की कई मद्रा में दोनों हाथ नीचे लटकाकर सीधे खडा दिखाया मूर्तियाँ मिली है। एक मूर्ति राज्य संग्रहालय, लखनऊ गया है। यह मुद्रा स्वतः उनकी कठिन तपस्या को मूर्त (क्रमांक ६४०) में भी है। विशालता की दृष्टि से उत्तर रूप में व्यक्त करती है। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनो भारत के दिगबर स्थलो की उपयुक्त मूर्तियां दक्षिण भारत परम्परा के ग्रन्थों में बाहुबली के जीवन और उनकी को श्रवणबेलगोला, कारकल, वेणर एवं गोम्मट गिरि जैसे तपस्या का विस्तार से उल्लेख हुप्रा है। पर शिल्प मे स्थलो की १८ से ५७ फीट ऊँची मूर्तियो की समता नही बाइबली की सर्वाधिक मूतिया दिगंबर स्थलो पर बनी। करती. पर उनमे कुछ ऐसे मौलिक प्रतिमालाक्षणिक तत्वो उनमें भी सर्वाधिक मूर्तियां दक्षिण भारत में बनी। के दर्शन होते है, जो इस क्षेत्र की बाहवली मूर्तियो की
श्वेतावर स्थलों पर १४वी शती ई. के पूर्व बाहुबली निजी विशेषताएँ रही है। भाशय यह कि बाहुबली मूर्तियो की कोई स्वतन्त्र मूर्ति सम्भवतः नही बनी। १४वी शती के लक्षणो के विकास में उत्तर भारत के दिगबर स्थलो ई०की श्वेत वस्त्रधारी बाहुबली की श्वेताबर मूर्ति की मूर्तियो का अग्रगामी योगदान रहा है। इस क्षेत्र में गुजरात के शत्रुजय पहाड़ी पर है। श्वेताबर स्थलो पर कलाकार का सारा प्रयास इस बात पर केन्द्रित था कि माविनाष के जीवन दृश्यों के प्रकन के प्रसंग में भी किस प्रकार बाहबली की तीर्थकरों के समान प्रतिष्ठा कुंभारिया (गुजरात) मोर माबू (विमलवसही-राजस्थान) प्रदान की जाय । यह बात देवगढ़ की वाहुबली मूर्तियो के मे भरत-बाहुबली की तपस्या का निरूपण हुमा है। दिगंबर मध्ययन से पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है। प्रस्तुत विषय स्थलों पर छठी-सातवीं शती ई. में ही बाहुबली की पर लेखक की एक पुस्तक भी प्रकाशन में है। मूतियों का निर्माण प्रारम्भ हो गया, जिसके प्रारम्भिकतम देवगढ की बाहुबली मूर्तियों की चर्चा के पूर्व यहाँ उदाहरण कर्नाटक स्थित बादामी पौर प्रयहोल मे है । ग्रन्थो में बाइबली के जीवन एवं उनकी तपस्या से संबंधित
बाहुबली गोम्मटेश्वर की ज्ञात भूतियों में विशालतम विवरणो का उल्लेख पृष्ठममि सामग्री के रूप में मावश्यक पौर श्रेष्ठतम प्रवणबेलगोला (हसन जिला, कर्नाटक) की होगा। इस पृष्ठमि के बिना हम उन मूतियों के स्वरूप मूति है। ५७ फीट ऊँची यह दिगंबर प्रतिमा न केवल एक महत्व का वास्तविक निरूपण नही कर सकेंगे। जैन भारत वरन् विश्व की भी सम्भवत: विशालतम धार्मिक परम्परा में बाहबली प्रसग का प्रारम्भिकतम उल्लेख मूर्ति है। इस मूति में बाहुबली के मुख पर मन्दस्मित भोर विमलसूरिकृत पउमचरियम (तीसरी शती ई.) में हुमा गम्भीर चिन्तन का भाव व्याक है। बाहुबली की कायोत्सर्म है। तदनन्तर दोनो परम्परा के कई प्रन्यो में बाहुबली की महा पूर्ण पास्मनियंत्रण का भाव व्यक्त करती है। इसका कथा का विस्तृत उल्लेख प्राप्त होता है, जिनमें वसुदेव निर्माण काल ६९१ ई० मे गग शासक के मन्त्री चामुणराय हिण्डी (छठी शती ई०), हरिवंशपुराण (८वीं शती ई.), पारा कराया गया था। फरवरी ८१ में स्थापना के १००० पपपुराण (७वी शती ई०), पादिपुराण (वौं शती ई.) वर्ष पूरा करने के अवसर पर इस प्रतिमा के सहस्राब्दि एवं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र (१२वीं शती ई.) मुख्य
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उत्तर भारत में गली गोम्मटेश्वर
हैं। संक्षेप में इन अन्धों में गणित बाहुबली कथा इस होने के बाद ही वाहवली केवब-जान प्राप्त कर सके। प्रकार है:
दिगंबर परम्परा में इस प्रसंग का पहलेख है। एक वर्ष बाहुबली के पिता प्रादिनाथ और माता सुनन्दा थीं। की कठिन तपस्या की अवधि में बाहुबली ठण्ड, सूर्य को पादिनाथ के १०० पुत्रों ओर २ पत्रियो मे भरत सबमे ताप, वर्षा, वायु और बिजली की कड़क को शान्तभाव से बड़े थे । जैन परम्परा मे भरत को प्रथम चक्रवर्ती बनालाया महत रहे । उनका सम्पूर्ण शरीर लता वल्लरियों से घिर गया है प्रादिनाथ के दीक्षा ग्रहण करने के बाद भरत गया, और उस पर सर्प, वृश्चिक पौर छिपकली जैसे चक्रवर्ती विनीता और बाहुबली तक्षशिला के शामक हा। जन्तुमो का निवास बन गया। चरणों के समीप वल्मीक दिगबर परम्परामें बाहुबली को पोदनस या पोदनपूर
मे ऊपर उठते सपं विचरण करते थे। किन्तु ध्यान निमग्न शासक बनाया गया है। दिग्विजय के उपरान्त चक्रवर्ती बाहयली इन सबसे प्रविचलित पौर प्रभावित रहे, जो भरत ने अपने ६८ भाइयो रे पत्ता बोकार करने को बाहुबली की तपस्या की कठोरता का परिचायक है। कहा। इस पर सभी ६८ भाइयों ने राज्य का त्याग कर उपयुक्त परम्परा क अनुरूप हा मूातया
उपर्युक्त परम्परा के अनुरूप ही मूर्तियों में बाहुबली दीक्षा ग्रहण कर ली। भरत ने वाहबली में भी यही
कायोत्सर्ग मद्रा में निरूपित हए और उनके शरीर पर प्रस्ताव किया, जिसे बाहुबली ने अस्वीकार कर दिया। माधवी, सर्प, वृश्चिक एवं छिपकली पादि का प्रदर्शन फलतः दोनों भाइयों के मध्य युद्ध अवश्यम्भावी हो गया। हुमा। युद्ध की विभीषिका को कल्पना करते हुए उसमे होने वाले उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले में स्थित देवगढ़ भीषण नरसहार को रोकने के उद्देश्य से बाहचली ने भरत प्राचीन भारतीय स्थापत्य एव मूर्तिकला का एक प्रमुख से शस्त्रविहीन द्वन्द्व युद्ध का प्रस्ताव किया। इस द्वन्द्व युद्ध केन्द्र रहा है। देवगढ़ के गुप्तकालीन दशावतार मन्दिर मे जब भरत किसी प्रकार राहुबली पर नियत्रण नही कर का महत्व सर्वविदित है। ब्राह्मण धर्म के साथ ही नवी मके, तब निराशा में उन्होंने देवनाप्रों से प्राप्त दालचक्र मे १२वी शती ई. के मध्य देवगढ जैन-धर्म का भी एक से बाहुबली पर प्रहार किया। भरत की राज्यलिप्सा और प्रमुख केन्द्र रहा है, जिसको साक्षी यहां की अपार जैन उसके कारण अपने वचन से विमख होने की इस घटना मूर्तिया और मंदिर है। यह दिगबर परम्परा का कलासे बाहुबली इतने दुःजी हर कि नक्षग उन्होंने समार केन्द्र था। जैन प्रतिमागास्त्र के अध्ययन की जितनी प्रभूत त्यागकर दीक्षा लेने का निर्णय ले लिया। बाइबली ने मामग्री यहाँ है, उतनो सम्भवतः मथुरा के प्ररिरिक्त अन्य केशों का लुचन कर वस्त्राभूषणो का परित्याग किया। किसी एक स्थल पर नहीं मिलती है। २४ यक्षियों के बाद में भरत को भी अपनी भून का अहसास हमा, पौर मामूहिक चित्रण का प्रारम्भिकतम प्रयास यहीं किया वे सेना सहित राजधानी लौट गये।
गया। २४ यक्षियों की मूर्तियां मन्दिर १२ (शांतिनाथ दीक्षा ग्रहण करने के बाद बाहबलो ने अत्यन्त कठिन मंदिर, ८६२ ई.) की भित्ति पर बनी हैं। यक्ष पौर तपस्या की पौर पूरे एक वर्ष तक कायोत्सर्ग मदा में खडे यक्षियों के निरूपण में जितनी विविधता यहां प्राप्त होती रहे। ज्ञातव्य है कि कायोत्सर्ग मुद्रा कठिन तपस्या की है, वह अन्यत्र दुर्लभ है । यही स्थिति भरत चक्रवर्ती और मुद्रा है। इसी मुद्रा मे सभी तीर्थको नेस्या की थी। बाहुबली की मूर्तियों की भी रही है। वर्तमान सन्दर्भ में बाहुबली की मूर्तिया केवल इसी मुद्रा में बनी है। एक वर्ष हमारे लिए केवल बाहुबली मूर्तियों की ही प्रासंगिकता है। की कठिन तपस्या के बाद बाहुबली को कैवल्य प्राप्त हुमा। देवगढ़ मे बाहबली की कुल ६ मूर्तियां हैं। ये मूर्तियां पर श्वेतांबर परंपरा के अनुसार दर्प के कारण बाहुबली कुछ १०वीं से १२वीं शती ई. के मध्य की है। उदाहरणों में समय तक कंवस्य प्राप्ति से वचित रहे। इस पर पादिनाथ ने वक्षस्थल में श्रीवत्स चिह्न से युक्त बाहुबली के शरीर से बाहवमी को दोनों सुन्दरी, बहिनों ब्राह्मी और को उनके पाम माधवी लिपटी है। मंदिर १२ की छोटी मूर्ति में दोनों दपं दूर करने के लिए भेजा। इस प्रकार दर्प से मुक्त पोर दो स्त्री प्राकृतियां बनी है, जिनमें से एक के हाथ में
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२४.
५ कि.४
चामर है, और दूसरे के हाथ में कलश । शेष चार मूर्तियों अंकन हुमा है। बीवस्स से युक्त बाहुबली की केश रचना में से एक स्थानीय साहू जैन संग्रहालय मे है। यह मूर्ति गुच्छकों के रूप में निर्मित है, जिसने मध्य में उष्णीष बना पहले मंदिर १२ में थी। अन्य तीन उदाहरणों, में से दो है एक उदाहरण में बाहुबली के वाम पाश्र्व में नमन को मंदिर २ में हैं और एक मदिर ११ मे है।
मुदा में सम्भवतः उनके अग्रज भरत का निरूपण हुमा है। ___ साहू जैन संग्रहालय को मूर्ति मे बाहुबली सामान्य उपयुक्त दोनों मूर्तियों में से एक मे बाहुबली के साथ दो पीठिका पर कायोत्सर्ग मे खड़े है, और उनके पैरों एवं अन्य तीथंकरों (शीतलनाथ पौर अभिनंदन) को भी हाथों में माधवी को लताएं लिपटी है। पैरों पर वृश्चिक मूर्तियाँ उत्कीर्ण है। दो तीथंकरों के साथ बाहुबली का पौर छिपकली तथा उदर पर सर्प प्रदर्शित है। बाहबली अंकन पुनः हमारी उपयुक्त धारणा का ही समर्थक की के रचना पीछे को पोर संवारी गयी है, और कुछ प्रमाण है। जटाएं कन्धों पर लटक रही हैं। सिर के ऊपर एक छत्र मंदिर ११ की तीसरी मूति १२वीं शती ई० को है। है, और पीछे की ओर प्रभामण्डल भी उत्कीर्ण है। ज्ञातव्य यह मूर्ति देवगढ और साथ ही अन्यत्र को भी जात है कि तीर्थकर मूर्तियों में सिर के ऊपर एक छत्र के स्थान बाहुबलो मूर्तियों में प्रदर्शित लक्षणों के विकास की परा. पर विछत्र के प्रदर्शन की परम्परा रही है। हरिवंशपुराण काष्ठा दरशाती है। इस मूर्ति में मंदिर २ की ऊपर एवं मादिपुराण जैसे दिगबर परम्परा के ग्रथों के उल्लेख विवेचित मूर्तियों को ही विशेषताएं प्रदर्शित हैं। केवल के अनुरूप ही इस मूर्ति मे दोनो भोर विद्याधारियों को दो चामरधर सेवकों के स्थान पर विद्यापारियों का प्रकन माकृतिया खड़ी है, जिनके हाथो में माधवी की छोर हना है, जिन्हें बाहुबली के शरीर से लिपटी माधवी का प्रदशित है।
छोर पकड़े हुए दिखाया गया है। इस मूर्ति की प्रमुख मंदिर-२ को दोनो भूतिया ११वी शती ई० की है। विशेषता सिंहासन के छोरो पर द्विभुज गोमुख यक्ष पौर इन मूर्तियों में बाहनी के लक्षणों में एक स्पष्ट विकास यक्षी का प्रकन है। यक्ष पोर यक्षो का अंकन तीर्थकर परिलक्षित होता है। विकास की इस प्रक्रिया में बाहुबली मूर्तियों की नियमित विशेषता रही है। यहाँ परम्परा के के साथ तीर्थकर मूर्तियों की कुछ अन्य विशेषतायें प्रदर्शित विरुद्ध बाहुबली के साथ यक्ष और यक्षी युगल का निरूपण हुई। इनमे सिंहासन, चामरधर सेवकों, त्रिछत्र, देवदुन्दुभि, स्थानीय कलाकारों या परम्परा को अपनी देन रही है। उड़ीयमान मालाघरों तथा उपासकों से वेष्टित धर्मचक्र इस प्रकार कलाकार ने देवगढ में बाहबली को पूरी तरह मरूप हैं। धर्मचक्र एव उपासको के अतिरिक्त अन्य तत्त्व तीर्थकरों के समान प्रतिष्ठा प्रदान करने का कार्य इस मूर्ति तीपंकर मूर्तियों में प्रदर्शित होने वाले प्रष्टप्रातिहार्यों का के माध्यम से पूरा किया था। प्रग है। एक पोर महत्वपूर्ण बात यह रही है कि इनमें उपर्युक्त अध्ययन से यह सर्वथा स्पष्ट हो जाता है कि बाहुबली के दोनों पोर परम्परासम्मत विद्याधारियों को बाहवली मतियों के विकास की दष्टि से देवगढ़ की मूर्तियों प्राकृतियां भी नही बनी है। विद्याधारियों के स्थान पर का विशेष महत्व है। ये मूर्तियां बाहुबली के लक्षणों में चामरधर सेवकों की मूर्तियां बनी है जो, तीर्थकर मूर्तियों एक क्रमिक विकास दरशाती हैं । इस विकास की प्रक्रिया को एक प्रमुख विशेषता रही है। यह तथ्य पुनः हमारी मे बाहुबली की मूर्तियों में तीर्थकर मतियों के तत्व जड़ते इसी धारणा को पुष्ट करता है कि देवगढ़ में बाहबली को गये जिसे १२वी शती ई० में बाहुबली के साप यक्ष पोर पूरी तरह तीर्थंकरों के समान प्रतिष्ठा प्रदान की गयी। यक्षी पुगल को सम्बद्ध करके पूर्णता प्रदान की गयी। इसी कारण बाहुबली की मूर्तियों में तीर्थकर मूर्तियों की
000 विशेषताएं प्रदर्शित हुई दोनों उदाहरणों में बाहुबली व्याख्याता, कला इतिहास विभाग, कला संकाय, निर्वस्त्र पौर कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हैं। हाथों और पैरों
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय पर मता-बल्लरियों, सो, वृश्षिकों एवं छिपकलियों का
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दिव्य चरित्र बाहुबली
श्री रतनलाल कटारिया, केकड़ी (अजमेर) १६६ विशिष्ट महापुरुशों में २४ कामदेव भी हैं इन १. बाहुबली मे किमले बोकालो ? २४ कामदेवों में सर्वप्रथम बाहुबली है । अतः इन्हे गोम्म
महापुराण पर्व ३६ श्लोक १.४ तया १०६शात टेश्वर-कामदेवों में प्रमख कहते है। "तिलोयपण्णत्तो" होता
होता है कि-गुरु (पूज्य पिता ऋषभ देव) के चरणों में
-TE ( पिता aa अधिकार ४ में लिखा है
में वे दीक्षित हुए थे और उनकी प्राशा मे रहकर शास्त्रा. काले जिणवराण, चउबीसाणं हवंति परवीसा। ध्ययन किया था फिर एकल विहारी होकर एक वर्ष का ते बाह बलिप्पमहा, कंवप्पा णिहबमायारा॥१४७२।। प्रतिमायोग धारण किया था। श्लोक १८६ मे बताया है
(चौबीस तीर्थ करों के समय में महान सुन्दर बाहुबली कि-"भरतेश्वर मुझसे संबलेश को प्राप्त हुए है" ये प्रमख चौबीस कामदेव होते हैं।)
विचार बाहुबली के केवलज्ञान में बाधक हो रहे थे। भरत कामदेव बाहुबली प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के सुपूत्र के द्वारा बाहुबली की पूजा करते ही बाइबली का हवय थे। हंडावसपिणी के तृतीय काल में महारानी सुनन्दा से एकदम पवित्र हो गया भोर उन्हे केवलज्ञान हो गया। उत्पन्न हए थे । सर्वार्थसिद्धि की प्रहमिन्द्र पर्याय से चल- विषष्टि शलाका पुरुष चरित में हेमचन्द्राचार्य ने कर पाये थे। चरमशरीगे पोर ५२५ धनुष को उन्नत लिखा है कि भगवान ऋषभदेव के पास बाहुबली दीक्षा जायकेवारी थे। जिनसेनाचार्य कृत महापुराण पर्व १६ लेने को इस विचार से नही गये कि--बह! उनके लघु में इनका पावन चरित्र दिया है वह लिखा है
भ्राता पहिले से ही दीक्षा लिए बैठे थे उनका विनय करना बाहू तस्य महाबाहोः, प्रधाता बलजितम् ।
पड़े। प्रतः बे स्वयं ही दीक्षित हो गये और एक वर्ष का यतो बाइबलीत्यासीत्, नामास्य महसा मिषः ॥१७॥
कायोत्सर्ग धार लिया। उन्होने यह सकल्प किया कितेषु तेगस्पिना पर्यो, भरतोऽक बाध्यतत् ।
केवलज्ञान होने पर ही मैं ऋषभदेव की सभा में जाऊंगा। शशीव जगत: का तो, युवा बाहुबली बभौ ॥१६ फिर जब वे केवली हुए तब ऋषभ की समवशरण सभा
(लम्बी मजा वाले तेजस्वी उन बाहुबली की दोनों में गये। भयायें उत्कृष्ट बल को धारण करती थी पतः उनका पहिले उनको घोर तपस्या करते भी केवलज्ञाम न "बाहुबली" नाम सार्थक था। उनके बड़े भाई भरत सूर्य हा तो भगवान को भेजी ब्राह्मी सुन्दरी ने पाकर उनसे के समान तेजस्वी थे तो वे चन्द्र के समान सारे जगत के कहा-"तुम मान के हाथी पर चढ़े रहोगे तबतक तुम्हे प्रिय थे।
केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं होगी।" यह सुना तो उन्हे १. सबसे प्रथम मोम किनका ?
अपनी उस गलती (पपने मधुभ्राता मुनियों का विनय महापुराण पर्व ३६ श्लोक २०४ में सर्वप्रथम मोक्ष नहीं करने का भान हुमा तोके जाने को उबत हुए कि इन बाहुबली स्वामी का ही बताया है। पपपुराण पर्व ४ उन्हें केवलशाम हो गया। पउमरिय मोर पपुराण में श्लोक ७७ में भी ऐसा ही कथन है। महापुराण पर्व २४ यपि इतना कोई विवरण नही है तथापि वहां भी बाहश्लोक १८१ में भरत के छोटे भाई मनन्तवीर्य का भी बली को भगवान् से दीक्षा लेने का कपन नहीं है। (उन सर्वप्रथम मोम बताया है। वे. हेमचनाचार्य ने मरुदेवी दोनों में पिसा कि-मरत की नीति को देशबा:का बताया है।
बली उसी समय दीक्षित हो गये। हरिवंशपुराण को
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२६, कि.४ लिखा है कि उनको केवलज्ञान हुए बाव में भगवान् की यहां 'जामी' शब्द का प्रयोग किया है जिसका संस्कृत सभा में गये।
टिप्पणकार ने भगिनी (बहन) प्रर्य किया है। इस तरह ३. बाहुबली के नगर का नाम
कच्छ महाकच्छ भगवान् ऋषभदेव के साले लगे यह सिद्ध महापुराण, पपपुराण, हरिवंशपुराणादि में "पोदनपुर" होता है। कोशग्रन्थों में 'जामी' शब्द का अर्थ पूत्री भी लिखा है। किन्तु पउमरिय में तक्षशिला लिखा है । यही दिया है। तदनुसार पुष्पदन्त ने अपभ्रश महापुराण के हेमचन्द्र ने भी लिखा है।
प्रथम खण्ड पृ० ६२ पोर २५५ में भगवान् की राणियो ४. भरत बाहुबली के युद्धों का नाम को कच्छ महाकच्छ को पुत्रियां बताई हैं। हरिवंशपुराण महापुराणादि में दृष्टियुद्ध, जलयुद्ध पौर बाहयुद्ध ये मोर पपपुराण इस विषय में मौन है। भगवान की दीक्षा तीन युद्ध लिखे हैं। किन्तु पउमचरिय में दो ही युद्ध लिखे के साप ही कच्छ महाकच्छ ने भी दीक्षा ली थी अतः ये है-वृष्टियुद्ध और मुष्टियुट । पपपुराण में ये दो लिख- भगवान के समवयस्क होने से भगवान की रानियां इनकी कर पादिशब्द दे दिया है। हेमचन्द्र ने तीन लिखे हैं। बहनें थीं यह मानना हो संगत बैठता है। पुत्रियां मानने से ५. ऋषभदेव की राणियों के नाम
तो इनकी उम्र नाभिराजा के तुल्य होगी। जो ठीक नहीं है। महापुराण में यशस्वती भोर सुनन्दा ये दो राणियां
९. श्रेयांस किसका पुत्र था? बताई है। पउमपरिग और श्वे० ग्रन्थों में सुमंगला मोर हेमचन्द्राचार्य ने श्रेयांस को बाहवली का पोताव भन्दा नाम दिये हैं। पपपुराण पोर हरिवशपुराण तथा सोमप्रभ का पुत्र लिखा है। पउमरिय के पचम उद्देश्य पउमचरित में नंदा सुनंदा दिये हैं। पद्मपुराण पर्व २० में सोमवंश की उत्पत्ति बताते हुए लिखा है कि-बाहइलोक १२४ में भरत की माता का नाम यशोवती भी बली के पुत्र सोमप्रभ से सोमवश का प्रारम्भ हमा है। लिखा है।
किन्तु सोमप्रम के बाद श्रेयास का नाम नही लिखा है। ६. ऋषभदेव के पुग्म-पुत्र
पउमचरिय, पपपुराण, हरिवंशपुराण तीनो मे सोमवश हरिवंशपुराण पर्व लोक २१-२२ में भरत पोर की उत्पत्ति बाहुबली के पुत्र सोमयश प्रयवा सोमप्रभ से नाही का तथा बाहबली और सुन्दरी का युगल जाम बताई है और सोमप्रभ का पुत्र महाबल लिखा है किन्तु लिखा है। वे ग्रंथों में लिखा है कि- ऋषभदेव की एक महापुराण में सोमवंश नाम का कोई वंश ही नहीं बताया राणी तो बहो थी जो ऋषभ के साथ ही जन्मी थी भोर है। इसी से वहां "बाहुबली ने दीक्षा लेते वक्त राज्य अपने दूसरी राणी किसी दूसरे युगलिया के साथ पंदा हईपी। पुत्र महाबल को दिया" ऐसा लिखा है। इससे जाना जाता युगलिया के मरने के बाद उसे ऋषभदेव ने अपनी रानी है कि-महापुराण के मतानुसार बाहुबली के सोमप्रभ बनाई थी। उनसे भरत और ब्राह्मी व बाहवली पोर नाम का कोई पुत्र ही न पा । महावल नाम का पुत्र था। सुन्दरी को युगल जम्म तथा शेष ९८ पूत्रों के भी युगल- इस प्रकार इन अनुच्छेदों से बाहवली स्वामी के जन्म हए थे। महापुराण में ऐसा कथन नहीं है। किसी जीवन-चरित्र पर शास्त्रों में जो परस्पर थोड़ा बहत मत का युगल-जन्म नहीं लिखा है।
वैभिन्य पाया जाता है उसका सम्यक् परिज्ञान संभव है। ७. ऋषभदेव के कितने पुष थे?
उन्हीं भगवान् बाहुबली को एक सातिशय विश्व पपपुराण, हरिवंशपुराण, पउमरिय, पौर श्वे० विश्व ५७ फोट उत्तुंग विशाल प्रतिमा श्रवणबेलगोला के ग्रन्थों में १०० संस्था लिखी है किन्तु महापुराण में १०१ विष्यगिरि पर्वत पर श्रीरामुण्डराय नपति ने सन् ९८२ पुष बताये हैं।
में प्रतिष्ठित की थी। इस प्रतिमा की एक विशेषता बास भवेब सापकच्छ महाकच्छ का क्या रिक्तापा? तौर सेलय में लेने योग्य है कि-यह पर्वत पर एकही महापुराण पर्व १४ श्लोक ७० में ऋषभदेव की दोनों पत्थर में काटकर निर्माण की गई है। अलग पत्थर में राणियों को कच्छ महाकन्छ राजामों की बहनें बताया है।
(शेष पृ० २९ पर)
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भगवान् बाहुबली को शल्य नहीं थी
प्रायिकारल ज्ञानमती माताजी
भगवज्जिसेनाचार्य ने महापुराण में भगवान् बाहुबली किसी-न-किसी ऋद्धि से समन्वित मुनि केही होता है।" के ध्यान के बारे में जैसा वर्णन किया है, उसके माधार माने भगवान जिनसेन सभी प्रकार की ऋद्धियों की से उनके शल्य मानना उनका प्रवर्णवाद है। सोही प्रगटता मानते हुए कहते हैंदेखिये
"उनके तप के प्रभाव से पाठ प्रकार की विकयऋषि "एकल विहारी अवस्था को प्राप्त बाहुबली ने एक प्रगट हो गई थी भामर्शोषषि, जल्लोषषि, वेलोषधि वर्ष तक के लिये प्रतिमायोग धारण किया।" वे रस मादि मौषषियों के हो जाने से उन मुनिराज की समीपता गौरव, शब्द गौरव और ऋद्धि गौरव इन तीनों से रहित जगत का उपकार करने वाली थी यद्यपि वे भोजन नहीं थे, अत्यन्त निःशल्य थे' पोर दश धर्मों के द्वारा उन्हें करते थे तथापि शक्तिमात्र से ही उनके रसऋधि प्रगट मोक्षमार्ग में प्रत्यन्त दृढ़ता प्राप्त हो गई थी।
हई थी। उनके शरीर पर लतायें चढ़ गई थीं। सो में ___ "तपश्चरण का बल पाकर उन मुनिराज के योग के बामियां बना ली थी और वे निर्मीक हो कीड़ा किया निमित्त से होने वाली ऐसी अनेक ऋद्धियां प्रगट हर्दबी, करते थे। परस्पर विरोधी तिथंच भी करभाव को छोर जिससे कि उनके तीनों लोकों में क्षोभ पैदा करने की करवातपित्त हो गए थे। विद्याधर लोग गतिभंग हो शक्ति प्रगट हो गई थी। मसिज्ञान को वृद्धि से कोष्ठबुद्धि जाने से उनका सदभाव जान लेते थे और विमान से पादि ऋद्धियां एवं श्रुतज्ञान की वृद्धि से समस्त मंगपूर्वी उतरकर ध्यान में स्थित उन मनिराज को बार-बार पूजा के जानने की शक्ति का विस्तार हो गया था। वे प्रषि
करते थे। तप की शक्ति के प्रभाव से देवों के पासन भी ज्ञान में परमावषि को उल्लंघन कर सर्वावषि को पौर बार-बार कम्पित हो जाते थे जिससे ये मस्तक झुकाकर मनः पर्यय में विपुलमति मनः पर्यायज्ञान को प्राप्त नमस्कार करते रहते थे। कभी-कभी कीड़ा के लिये पाई
हुई विद्यापारियां उनके सवं शरीर पर लगीहईलतामों सिद्धान्त अन्य का बह नियम है कि भावलिपीव को हटा जाती थीं। वृद्धिगत चरित्र वाले मुनि के ही सर्वावषिशान होता है "इस प्रकार धारण किये समीचीन धर्मध्यान के बल तया "विपुलमति मनः पर्यय तो वर्षमान परित्र वाले एव से जिनके तप की शक्ति उत्पन्न हुई है ऐसे में मुनि लेश्या १. प्रतिमायोगमावर्षमातस्थे किल संवृतः।
५. विक्रियाष्टतयी चित्रं प्रादुरासीतपोबलात् ।
महापुराण ३६.१०६ प्राप्तोष रस्यासीत् संनिधिजंगते हितः ।। २. गौरतस्विमिसन्मुक्तः परा निःशल्यतां गतः।वही, १३७ पामर्शवेल बल्लाः प्राणिनामुपकारिणः। ३. मतिज्ञानसमुत्कर्षात् कोष्ठबुद्धयादयोरमबम् ।
पनाशुषोपपि तसयासीद, रविशक्तिमात्रतः ।। श्रुतज्ञानेन विश्रयागपूर्वाविम्स्वादि विस्तारः॥
तपोबल समझता बलविरपि पप्रथे। परमावधिमुल्लंध्य स सर्वावषिमासरत् ।
-महापुराण ३६.१५२-५४ मनः पर्यय बोधेव संप्रापत् विपुला मतिम् ।।
६. विद्यापर्यः कदाधिबीगहेतोपागता।।
पही, १४.४७ पम्मीलावेष्टयामासुर्मुनेः सर्वांगसंगिनीः ।। ४.तरवार्य रामपातिक, १.२५
-महापु०, ३६.१८१
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२८, बर्ष ३३, किरण ४
अनेकान्त
की विशुद्धि को प्राप्त होते हुए शुक्लध्यान के सम्मुख हुए। ही, साथ ही सिद्धान्त की दृष्टि से भी बाषित हो। एक वर्ष का उपवास समाप्त होने पर भरतेश्वर ने भाकर जैले कि शल्य तीन होती हैं-माया, मिथ्या पोर निदान। जिनकी पूजा की है ऐसे महामनि बाहबली केवलज्ञान ज्योति
माया का पर्व है बंचना-उगना, शल्य-मिथ्यात्व का को प्राप्त हो गये। वह भरतेश्वर मझये सक्लेश की प्राप्त हो
कहते है "मैं भारत की भूमि पर खड़ा हूँ" यह विपरीत गया है यह विचार बाहुबली के हृदय मे रहता था, इसलिये
ही मिथ्या शल्य कही जा सकती है सो भी बाहुबली के केवलज्ञान ने भरत की पूजा की अपेक्षा की थी। प्रसन्नबुद्धि
मानना सम्भव नहीं है क्योंकि मिथ्यादृष्टि साधु के सम्राट्, भरत ने केवल ज्ञान उदय के पहले और पीछे
सर्वाधिज्ञान, मनः पर्ययज्ञान और अनेकों ऋद्धिया प्रगट विधिपूर्वक उनकी पूजा की थी। भरतेश्वर ने केवलज्ञान
नहीं हो सकती थीं। निदान शल्य का अर्थ है प्रागामा के पहले जो पूजा को पी वह अपना अपराध नष्ट करने के
काल में भोगों की वांछा रखते हुए उसी का चिन्तन लिये की थी और केवलज्ञान के बाद मे जो पूजा की थी वह
करना सो भी उन्हें नही मानी जा सकती है। केवलज्ञान की उत्पत्ति का अनुभव करने के लिए की थी।"
__ दूसरी बात यह है कि तत्वार्थ सूत्र मे श्री उमास्वामो इस प्रकार महापुराण के इन उबरणों से स्पष्ट हो ।
हा प्राचार्य ने कहा है कि "निःशल्पो व्रती" जो माया, जाता है कि भगवान् बाहुबली को कोई शल्य नहीं थी।मात्र
मिथ्यात्व और निदान तीनों शल्यों से रहित होता है वही इसमा बिकल्प अवश्य था कि "भरत को मेरे द्वारा सक्लेश
व्रती कहलाता है। पुनः यदि बाहुबली जैसे महामनि के हो गया है।" सो भरत को पूजा करते ही वह दूर हो गया।
भी शल्य मान ली जाये तो वे महाव्रती क्या प्रणवती भी ___"माप जाइये, कहां जायेंगे।" भरत की भूमि पर ही
नहीं माने जा सकेंगे। पुनः वे भावलिंगोमुनि मही हो तो रहेंगे। ऐसे मंत्रियों के द्वारा व्यंग्यपूर्ण शब्द के कह सकते और न उनके द्धियों का प्रादुर्भाव माना जा जाने पर बाहुबलो कुछ मुन्ध से हुए भोर मान-कषाय को सकता है। यदि कोई कहे कि पुनः एक वर्ष तक ध्यान पारण करते हुए चले गये तथा दीक्षा ले ली उस समय
करते रहे मोर केवल ज्ञान क्यों नही हुपा, सो भी प्रश्न से लेकर उनके मन में यही शल्य लगी हुई थी कि "मैं उचित नहीं प्रतीत होता। भरत की ममि में खड़ा हमाहूं।" प्रतः उन्हे केवलज्ञान एक वर्ष का ध्यान तो अन्य महामुनियो के भी माना नही हो रहा था। तब भरत ने जाकर भगवान् ऋषभदेव गया है। जैसे कि उत्तरपुराण में भगवान् शांतिनाथ के से प्रश्न किया कि बाहुबली को एक वर्ष के लगभग होने पूर्वभवों में एक उदाहरण प्राता है-- पर भी अभी तक केवलज्ञान क्यो नही हुपा है ? भगवान् वायुष ने विरक्त हो सहस्रायुध को राज्य दिया ने कहा-भरत | उसके मन में शल्य है। पतः तुम जावो पनः क्षेमकर तीर्थंकर के पास जैनेश्वरी दीक्षा ले ली और पौर समझामो कि भला यह पृथ्वी किसकी है। हमारे बाद में उन्होंने "सिदिगिरि" पर्वत पर जाकर एक वर्ष जैसे तो पनन्तों पक्रवती हो चुके हैं। फिर भला यह पृथ्वी के लिए प्रतिमायोग धारण कर लिया। उनके चरणों का मेरी कैसे है !"इत्यादि समाधान करते हुए बाहुबली भगवान् भाश्रय पाकर बहुत से वमोठे तैयार हो गये। उनके चारो की शल्य दूर हुई और उन्हें केवलज्ञान प्रकट हो गया।" तरफनगी हई लतायें भी मुनिराज के पास जा पहुंची।
यह किवदन्ती महापुराण के प्राधार से तो गलत है इधर बजायुष के पुत्र सहस्रायुध ने भी विरक्त हो अपना
केवलार्कोदयात् प्राक्य पश्वाच्च विधिवद व्यावात् । सपर्या मरतापोशो योगिनोडस्य प्रसन्नधीः ।।
१. इत्युपास्तुसध्यान बलोद्भूतं तपोबलः । स लेश्या शुद्धिमास्कंदन, शुक्लध्यामोन्मुखोरभवत् ॥ वत्सरानशनस्यान्ते भरतेशेन पूजितः । स भेजे परमज्योतिः केवलाल्यं यदक्षरम् ॥ सक्लिष्टो भरताधीशः सोमस्मतः इति बस्किल । हृदयस्य हा तेनासीत्, तत्पूजाऽपेक्षि केवलम् ॥
स्वायः प्रमार्जनाज्या प्राक्तनी भरतेशिनः । पाश्चात्यारत्ययताडपीज्या केवलोत्पत्तिमन्वभूत् ।।
महापुराण ३६.१८४.८८
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भगवान बाहुबली की शल्य नहीं बी
राज्य शतबली को दिया और दीक्षा ले ली। पब एक दीक्षा ले पद प्राप्त किया एवं सुन्दरी ने भी दीक्षा लेती। वर्ष का योग समाप्त हुमा तब वे अपने पिता बजायच के इसके बाद चक्रवर्ती ने पर पाकर बकरन की पूजा पास जा पहुंचे। अनंतर पिता-पुत्र दोनों ने चिरकाल तक करके दिग्विजय के लिये प्रस्थान किया जहां उन्हे साठ तपस्या की। पुनः भंभार पर्वत पर पहुच कर अन्त मे हजार वर्ष लग गये। तदनतर वापिस पाम पर बाहुबली सन्यास विधि से मरण कर महमिन्द्र हो गये।
के साप युट हुमा है। यह प्रकरण भगवान् शातिनाथ के पाचवें भव पूर्व का पतः भगवान बाह बली का मादर्श जीवन महापुराण है। यह घटना पूर्व विदेह क्षेत्र की है। इससे यह स्पष्ट के माधार से लेना चाहिये। चूंकि यह संपराज ऋषिप्रणीत हो जाता है कि विदेहादि क्षेत्र मे ऐसे-ऐसे महामुनि एक- होने से "प्रार्षप्रय" माना जाता है। अतः वह समस्त एक वर्ष का योग लेकर ध्यान किया करते थे।
विवादो से गहन पूर्णतया प्रमाणिक है इसमे किसी को भगवान बाहुबली चतुथं काल के मादि में क्या तृतीय
रचमात्र भी सदेह नही होना चाहिए। ...
000 काल के अन्त में जन्मे थे। मोर ध्यान मे लीन हुए थ
(पृ० २६ का शेषांष) तथा मक्ति भी तृतीय काल के मन में प्राप्त की थी। मनः उनमे एक वर्ष के ध्यान की योग्यता होना कोई नही गढ़कर फिर स्थापित नही की गई है। अत: इमका पत्थर बात नहीं है। पुन: "शल्य थी इसलिए केवलज्ञान नही पर्वत का अंग होने से सचित्त है। हपा" यह कथन संगत नहीं प्रतीत होता है।
इसको एक हजार वर्ष हो गये है प्रतः इसका सहस्राणि रविषणाचार्य ने भी बाहुबली के शल्य का वर्णन नही महोत्सव मनाया जा रहा है। २२ फरवरी मन् १९८१ किया है। यथा--"उन्होने उस समय सकल भोगों को को हमका १००८ विशाल कलशो में महामस्तकाभिषेक स्याग दिया और निबंत्र दिगम्बर मुनि हो गये तथा एक सम्पन्न होगा जिसमे ९.१० लाख मनुरुप कठे होंगे। वर्ष तक मेरु पर्वत के समान निष्प्रकप खड़े रहकर प्रतिमा- वैदिक कुम्म पर्व की तरह हो.यह जन कुम्भप होगा । योग धारण कर लिया। उनके पास भनेक वामियों लग जनो में तीर्थकर मूर्तियां ही बनाने का प्रचलन है। गई जिनके बिलो से निकले हा बड़े-बड़े सांपों पौर श्यामा बाइबली स्वयं कोई तीथंकर नही थे किन्तु तीर्थकर पत्र मादि की हरी-हरी लतामो ने उन्हे वेष्टित कर लिया, व कामदेव होने से साथ हो एक वर्ष तक कोर तपस्या कर इस दशा मे उन्हे केवलज्ञान प्राप्त हो गया।
केवली बन मुक्ति प्राप्त करने के कारण उनकी मूर्तियां प्रतएव भगवान् बाहुबली के शल्य नही थी।
बनाई गई है। श्रवणबेलगोला, कारकल, वेणूर प्रादि अनेक कोई कहते है कि भरत के साथ ब्राह्मी-सुन्दरी बहनो स्थानो पर उनकी विशाल मोर, प्राचीन मूर्तियां पाई ने भी जाकर उन्हे संबोषा तव उनकी शल्य दूर हुई। जाती है।
यह कएन भी नितान्त पसगत है। क्योकि भगवान् इस लेख द्वारा उन विश्वप गोम्मटेयर भगवान् वर्षभदेव को केवलज्ञान होने के बाद पुरिमताल नगर के बाहबलि के चरणारविन्दो मे सहस्त्रशः प्रणामावलि प्रस्तुत मगर के स्वामी भरत के छोटे भाई वषमसेन ने भगवान से दीक्षा ले ली और प्रथम गणघर हो गये। ब्राह्मो ने भी
केकड़ी (अजमेर-प्रजस्थान) १.मय बनायुघाधीशो नतृकंवल्यदर्शनात् ।
योगाबमाने मप्रापत् बज्रायुधमुनीश्वरम् ।। लम्बोधि: महस्रायुधाय राज्यं प्रदाय तत् ।।
तावुभो सुचिर कृत्वा प्रवज्या मह दुःसहा । दीक्षां क्षेमकराख्यान् नीर्थकर्तगाम्तगः ।
उत्तरपुराण, १३.१३१.१४० । प्राप्यः सिदिगिरी वषप्रतिमायोगमास्थितः ।। २. संत्यज्य स ततोभोगान् भूत्वा निर्वस्त्रभूषणः । तस्य पादौ समालम्ब्य बाल्मोकं बहवतंत ।
वर्ष प्रतिमया तस्थौ मेरुवन्तिः प्रकम्पकः । तिन त व्रतस्योऽपि मार वा समोप्सवः ।।
वस्मोक विवरोधातरस्यु स महोरगः । गादं सदा समासेदुर कण्ठमभितम्तनम् ।
श्यामादीनां चबस्लीभिःविम्दिा प्राप केबमम् । किविस्कारणमद्दिश्य बजायुधसुतोऽपि तत् । सयमं सम्यगादाय मुमोन्द्रात् पिहितासात् ।
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३. महापुराण, पर्व.२४ . . .पपुराण, ४.७५०७६
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२८, वर्ष ३३, किरण ४
अनेकान्त
की विशुद्धि को प्राप्त होते हुए शुक्लध्यान के सम्मुख हुए। ही, साथ ही सिद्धान्त की दृष्टि से भी बाधित हो। एक वर्ष का उपवास समाप्त होने पर भरतेश्वर ने प्राकर जैले कि शल्य तीन होती हैं-माषा, मिथ्या पोर निदान । जिनकी पूजा की है ऐसे महामनि बाहुबली केवलज्ञान ज्योति माया का अर्थ है बंचना-ठगना, शल्य-मिथ्यात्व का को प्राप्त हो गये। वह भरतेश्वर मुझपे सक्लेश को प्राप्त हो कहते हैं "मैं भारत की भूमि पर खड़ा हूं" यह विपरीत गया है यह विचार बाहुबली के हृदय मे रहता था, इसलिये ही मिथ्या शल्य कही जा सकती है सो भी बाहुबली के केवलज्ञान ने भरत की पूजा की अपेक्षा की थी। प्रसन्नबुद्धि ,
मानना सम्भव नही है क्योंकि मिथ्यादष्टि माधव सम्राट, भरत ने केवल ज्ञान उदय के पहले और पीछे
सर्वाधिज्ञान, मनः पर्ययज्ञान और अनेकों ऋद्धिया प्रगट विधिपूर्वक उनकी पूजा की थी। भरतेश्वर ने केवलज्ञान
नहीं हो सकती थी। निदान शल्य का अर्थ है प्रागामा के पहले जो पूजा की थी वह प्रपना अपराध नष्ट करने के
काल मे भोगों की वांछा रखते हुए उसी का चिन्तन लिय की थी और केवलज्ञान के बाद मे जो पूजा की थी वह
करना सो भी उन्हे नही मानी जा सकती है। केवलज्ञान को उत्पत्ति का अनुभव करने के लिए की थी।"
दूसरी बात यह है कि तत्वार्थ सूत्र मे श्री उमास्वामी इस प्रकार महापुराण के इन उतरणो से स्पष्ट हो
भाचार्य ने कहा है कि "निःशल्यो व्रती" जो माया, जाता है कि भगवान् बाहुबली को कोई शल्य नही थी। मात्र
मिथ्यात्व और निदान तीनों शल्यो से रहित होता है वही इतना विकल्प अवश्य था कि "भरत को मेरे द्वारा सक्लेश
व्रती कहलाता है। पुनः यदि बाहूबली जैसे महामनि के हा गया है।" सो भरत को पूजा करते ही वह दूर हो गया।
भी शल्य मान ली जावे तो वे महाव्रती क्या प्रती भी "पाप जाइये, कहां जायेंगे।" भरत की भूमि पर ही
नहीं माने जा सकेंगे। पुनः वे भावलिंगोमनि नहीं हो दोरहेगे। ऐसे मत्रियो के द्वारा व्यंग्यपूर्ण शब्द के कह सकते और न उनके द्धियो का प्रादुर्भाव माना जा जान पर बाहबलो कुछ क्षध से हुए पोर मान-कषाय को सकता है। यदि कोई कहे कि पून: एक वर्ष तक ध्यान धारण करते हुए चले गये तथा दीक्षा ले ली उस समय
करते रहे और केवलज्ञान क्यों नही हपा, सो भी प्रश्न मलकर उनके मन मे यही शल्य लगी हुई थी कि "मैं अमितनों प्रतीत होता। भरत की भूमि मे खड़ा हुमा हूं।" प्रतः उन्हे केवलज्ञान एक वर्ष का ध्यान तो अन्य महामनियो के भी माना नही हो रहा था। तब भरत ने जाकर भगवान् ऋषभदेव गया है। जैसे कि उत्तरपुराण में भगवान् शातिनाथ के से प्रश्न किया कि बाहुबली को एक वर्ष के लगभग होने पूर्वभवों में एक उदाहरण माता है-- पर भी प्रभी तक केवलशान क्यो नही हुमा है ? भगवान् वायुघ ने विरक्त हो सहस्रायुध को राज्य दिया ने कहा- भरत ! उसके मन मे शल्प है। अतः तुम जावो पनः क्षेमकर तीर्थंकर के पास जैनेश्वरी दीक्षा ले ली भोर पौर समझामो कि भला यह पृथ्वी किसकी है। हमारे बाद में उन्होंने "सिद्धिगिरि" पर्वत पर जाकर एक वर्ष जैसे तो अनन्तों पक्रवती हो चुके हैं। फिर भला यह पृथ्वी के लिए प्रतिमायोग धारण कर लिया। उनके चरणों का मेरी कसे है ! "इत्यादि समाधान करते हुए बाहुबली भगवान् प्राश्रय पाकर बहुत से वमोठे तैयार हो गये। उनके चारों को शल्य दूर हुई और उन्हें केवलज्ञान प्रकट हो गया।" तरफ लगी हुई लतायें भी मुनिराज के पास जा पहषी।
यह किवदन्ती महापुराण के माधार से तो गलत है इघर वनायुष के पुत्र सहस्रायुध ने भी विरक्त हो अपना १. इत्युपारूढसध्यान बलोद्भुतं तपोबलः ।
केवलार्कोदयात् प्राक्य पश्चाच्च विधिवद् व्याधात् । स लेश्या शुद्धिभास्कदन्, शुक्लध्यानोन्मुखोगभवत् ॥ सपर्या भरताघोशो योगिनोडस्य प्रसन्नधीः ।। बस्सरानशनस्याम्ते भरतेशेन पूजितः । स भेजे परमज्योति: केवलास्यं यदक्षरम् ।।
स्वागः प्रमार्जनाज्या प्राक्तनी भरतेशिनः । सक्लिष्टो भरताषीयाः सोडस्मतः इति यस्किल ।
पाश्चात्याडत्ययताडपोज्या केवलोत्पत्तिमन्वभूत् ।। हृदयस्य हावं तेनासीत्, तत्पूजाऽपेक्षि केवलम् ॥
महापुराण ३६.१६४.८०
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भगवान बाहुबली को शल्प नहीं यो
राज्य शतबली को दिया पौर दीक्षा ले लो। पब एक दीक्षा ले पद प्राप्त किया एवं सुन्दरी ने भी दीक्षा ले लो। वर्ष का योग समाप्त हुमा तब वे अपने पिता बज्रायुध के इसके बाद चक्रवती ने घर पाकर चकरन की पूजा पास जा पहुंचे। मनंतर पिता-पुत्र दोनों ने चिरकाल तक करके दिग्विजय के लिये प्रस्थान किया जहां उन्हे साठ तपस्या की। पुनः भैभार पर्वत पर पहुच कर पन्त मे हजार वर्ष लग गये। तदनतर वापिस पाने पर बाहुबली सन्यास विधि से मरण कर प्रहमिन्द्र हो गये।
के साथ युद्ध हुपा है। यह प्रकरण भगवान् शातिनाथ के पाचवें भव पूर्व का प्रतः भगवान बाह ३लो का प्रादर्श जोवन महापुराण है। यह घटना पूर्व विदेह क्षेत्र की है। इससे यह स्पष्ट के प्राधार से लेना चाहिये । चकि यह पंधराज ऋषिप्रणीत हो जाता है कि विदेहादि क्षेत्र मे ऐसे-ऐसे महामुनि एक होने से "प्रार्ष प्रथ" माना जाता है। पत. वह समस्त एक वर्ष का योग लेकर ध्यान किया करते थे।
विवादो से रहिन पूर्णतया प्रमाणिक है इसमे किसी को भगवान बाहुबली चतुर्थ काल के प्रादि में क्या तृतीय
रचमात्र भी सदेह नही होना चाहिए। 000 काल के अन्त में जन्मे थे । और ध्यान में लोन हुए थे
(पृ० २६ का शेषाष) तथा मुक्ति भी तृतीय काल के अन्त में प्राप्त की थी। प्रन: उनमें एक वर्ष के ध्यान की योग्यता होना कोई बड़ी गहकर फिर स्थापित नहीं की गई है। अत: इसका पत्थर बात नही है। पुनः 'शल्य थी इसलिए केवलज्ञान नही पर्वत का पंग होने में सचित है। हपा" यह कथन सगत नही प्रतीत होता है।
को एक हजार वर्ष हो गये है प्रतः इसका सहस्रान्ति रविषणाचार्य ने भी बाहुबली के शल्य का वर्णन नही महोत्सव मनाया जा रहा है । २२ फरवरी सन् १९८१ किया है। यथा-"उन्होने उस समय सकल भोगो को को इसका १००८ विशाल कल शो मे महामस्तकाभिषेक स्याग दिया पोर निर्वस्त्र दिगम्बर मुनि हो गये तथा एक सम्पन्न होगा जिसमे ८.१० लाख मनुष्य इकट्ठे होगे। वर्ष तक मेरु पर्वत के समान निष्प्रकप खड़े रहकर प्रतिमा- वैदिक कम्भ पर्व की तरह ही यह जन कृम्मपर्व होगा। योग धारण कर लिया। उनके पास अनेक वामियों लग जैनो मे तोयंकर मूर्तिया ही बनाने का प्रचलन है। गई जिनके बिलो से निकले हुए बड़े-बड़े सांपों पौर श्यामा बाहबली स्वयं कोई नोर्थ कर नही थे किन्तु तीर्थकर पुत्र प्रादि को हरी-हरी लतामो ने उन्हे वेष्टित कर लिया, व कामदेव होने से साथ हो एक वर्ष तक घोर तपस्या कर इस दशा में उन्हे केवलज्ञान प्राप्त हो गया।
केवली बन मुक्ति प्राप्त करने के कारण उनकी मूर्तियां प्रतएव भगवान् बाहुबली के शल्य नही थी। बनाई गई है। श्रवणबेलगोला, कारकल, वेणर प्रादि भनेक
कोई कहन कि भरन के साथ ब्राह्मी-मन्दरी बनो स्थानो पर उनकी विशाल और प्राचीन मूतियां पाई ने भी जाकर उन्हे मंबोधा तव उनको शल्य दूर हुई।
जाती है। यह वशन भो नितान्त प्रसगत है। क्योकि भगवान
इस लेम्ब द्वारा उन विश्ववच गोम्मटेश्वर भगवान वषभदेव को केवलज्ञान होने के बाद पुरिमनाल नगर के बाहबलि के चरणारविन्दो में सहस्त्रशः प्रणामांजलि प्रस्तुत मगर के स्वामी भरत के छोटे भाई वृषभसेन ने भगवान से दीक्षा ले ली और प्रथम गण घर हो गये। ब्राह्मी ने भी
केकड़ी (प्रजमेर-राजस्थान) १. अब बच युधाधोशा नप्तृकंवल्यदर्शनात् ।
योगावमाने म प्रापत् बचायुध मुनीश्वरम् । लब्धवोधि महस्रायुधय राज्य प्रदाय तत् ।।
ताव भी मुचिरं कृत्वा प्रवज्या यह दुःमहा। दीक्षा क्षेमकगल्यान तीथकर्तुगाम्नगः ।
उत्तरपुराण, ६३.१३१-१४० । प्राप्य: सिद्धिगिरी वषनिमायोगमाम्धिनः ।।
२. संत्यज्य म तना भोगान् भूत्वा निर्वस्त्रभूषणः । तस्य पादौ समालम्ब्य बाल्मोक बहवतंन ।
वर्ष प्रतिमया तस्थो मेरुवनिः प्रकम्पकः । वतिन त व्रतस्योऽपि मार्दव वा समीप्सवः ।।
वल्मीक विवरोधातैरत्युप्रे स महोरगः। गाढं रुदा समासे दुर कण्ठमभितम्तनुम् ।
श्यामादीनाचवल्लीभिःविष्टि प्राप केबलम्॥ किंचित्कारणमुद्दिश्य बजायुधसुतोऽपि तत् ।
पपपुराण, ४.७५-७६ सयम सम्यगादाय मनोन्द्रात् पिहितानगात् ।
३. महापुराण, पर्व-२४
करता हूँ।
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बाहुबलि-स्तवन
0 श्री भगवत जैन
जिस वीरने हिंसा की हुकूमत को मिटाया। थी ताब, यह किसकी कि जो चक्री से आ लडे? जिस वोरके अवतार ने पाखण्ड नशाया ॥ यों आके मिले आप ही राजा बड़े-बड़े ॥ जिस वीरने सोती हुई दुनिया को जगाया। फिर हो गया छह-खण्ड में भरतेश का शासन । मानव को मानवीयता का पाठ पढ़ाया ॥ पुजने लगा अमरों से नरोत्तम का सिंहासन ॥ उस वीर महावीर के कदमों में झुका सर । जय बोलियेगा एक बार प्रेम से पियवर! था सबसे बड़ा पद जो हकमत का वो पाया।
था कौन बचा, जिसने नहीं सिर था झुकाया ? कहता है कहानी मैं सुनन्दा के नन्द की। दल देव-व-दानव का जिसे पूजने आया। जिसने न कभी दिल में गुलामी पसन्द की । फिरती थी छहों खण्ड मे भरतेश की छाया ।। नौबत भी आई भाई से भाई के द्वन्द्व की। यह सत्य हर तरह है कि मानव महान् था। लेकिन न मोड़ा मुह, न जुबां अपनी बन्द की॥ गो, था नहीं परमात्मा; पर, पुण्यवान् था । आजादी छोड़ जीना जिसे नागवार था। बेशक स्वतन्त्रता से महब्बत थी, प्यार था। जब लाटा राजधाना का चक्राश
जब लौटा राजधानी को चक्रीश का दल-बल ।
जिस देश में आया कि वही पड़ गई हल-चल ।। थे 'बाहुबलि' छोटे, 'भरतराज बड़े थे।
ले-लेके आए भेट-जवाहरात, फूल-फल । छह-खण्ड के वैभव सभी पैरों में पड़े थे। नरनाथ लगे पूछने-भरतेश को कुशल ।। थे चक्रवति, देवता सेवा में खड़े थे। स्वागत किया, सत्कार किया सबने मोद भर । लेकिन थे वे भाई कि जो भाई से लड़े थे। था गूजता भरतेश की जयघोष से अम्बर।। भगवान ऋषभदेव के वे नौनिहाल थे। सानी न था दोनों ही अनुज बे-मिसाल थे॥ था कितना विभव साथ में, कितना था सैन्य-दल ।
कैसे करूं बयान, नहीं लेखनी में बल ।। भगवान तो, दे राज्य, तपोवन को सिधारे। हां इतना इशारा ही मगर काफी है केवल । करने थे उन्हें नष्ट-भ्रष्ट कर्म के आरे । सब कुछ था महेया, जिसे कर सकता पण्य-फल ।। रहने लगे सुख-चैन से दोनों ही दुलारे। सेवक करोड़ों साथ थे, लाखों थे ताजवर । थे अपने-अपने राज्य में सन्तुष्ट बिचारे । __ अगणित थे अस्त्र-शस्त्र; देख थरहरे कायर ।। इतने में उठी क्रान्ति की एक आग विषली। जो देखते ही देखते ब्रह्माण्ड में फैली॥ उत्सव थे राजधानी के हर शख्स के घर में।
खुशियां मनाई जा रही थी खूब नगर में ॥ करने के लिए दिग्विजय भरतेश चल पड़े। थे आ रहे चक्रीश, चक्ररत्न ले कर में। कदमों में गिरे शत्रु, नहीं रह सके खड़े॥ चर्चाएँ दिग्विजय की थी घर-घर में डगर में ॥
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इतने में एक बाधा नई सामने आई। 'रे, दूत ! अहंकार में खुद को न जुबा तू। दम-भर के लिए सबको मुसीबत-सी दिखाई॥ स्वामो की विभव देख कर मत गर्व में आ तू॥
वाणी को और बुद्धि को कुछ होश में ला तू। जाने न लगा चक्र नगर-द्वार के भातर। इन्सान के जामे को न हैवान बना तू।। सब कोई खडे रह गए जैसे कि हों पत्थर ।।
सेवक की नही जैसी कि स्वामी की जिन्दगी । सब रुक गई सवारियां, रास्ते को घेर कर । क्या चीज है दुनिया में गुलामी की जिन्दगी॥ गोया थमा हो मत्र को ताकत से समुन्दर ।। चक्रोश लगे सोचने-'ये माजरा क्या है ? है किसकी शरारत कि जो ये विघ्न हआ है ?' स्वामी के इशारे पै जिसे नाचना पड़ता।
ताज्जुब है कि वह शख्स भी, है कैसे अकड़ता? क्यो कर नहीं जाता है चक्र अपने देश को? मुर्दा हुई-सी रूह में है जोश न दृढ़ता। है टाल रहा किसलिये अपने प्रवेश को? ठोकर भी खा के स्वामी के पैरों को पकड़ता। आनन्द मे क्यो घोल रहा है कलेश को ? वह आ के अहंकार की आवाज में बोले । मिटना रहा है, शेष कहाँ के नरेश को ? अचरज की बात है कि लाश पुतलियां खोले ।' वाकी बचा है कौन-सा इन छहों खण्ड में ? जो डूब रहा आज तक अपने घमण्ड में ।।
सुनकर ये, राजदूत का चेहरा बिगड़ गया। जब मंत्रियों ने फिक्र मे चक्रोश को पाया। चुपचाप खड़ा रह गया, लज्जा से गड़ गया । माथा झका के सामने आ भेद बताया ।।
दिल से गरूर मिट गया, परों में पड़ गया। 'बाहुबली का गढ नही अधिकार मे आया।
हैवानियत का डेरा ही गोया उखड़ गया। है उसने नही आके अभी शोश झकाया ।।
पर, बाहूबली राजा का कहना रहा जारी। जबतक न वे आधीनता स्वीकार करेंगे।
वह यों, जवाब देने की उनकी ही थी बारी॥ तवतक प्रवेश देश में हम कर न सकेंगे।
बोले कि-'चक्रवति से कह देना ये जाकर । क्षण-भर तो रहे मोन, फिर ये वन उचरा।- बाइबलो न अपना झकाएँगे कभी सर॥ 'भेजो अभी आदेश उन्हे दूत के द्वारा' ॥ भी तो लाल उनका हो जिनके तम पिसर । आदेश पा भरतेश का तव भृत्य सिधारा। दोनों को दिए थे उन्होंने राज्य बराबर।। लेकर के चक्रवर्ती की आज्ञा का कुठारा ।। सन्तोष नही तुमको ये अफसोस है मुझको । वाचाल था, विद्वान, चतुर था, प्रचण्ड था।
देखो जरा से राज्य पै, क्या तो है मुझको। • चक्री के दूत होने का उसको घमण्ड था ।
बोला कि-'चक्रवति को जा शीश झुकाओ। अब मेरे राज्य पर भी है क्यों दांत तुम्हारा ? या रखते हो कुछ दम तो फिर मैदान में आओ। क्यों अपने बड़प्पन का चलाते हो कुठारा? मैं कह रहा हूँ उसको शीघ्र ध्यान में लाआ। मैं तुच्छ-सा राजा हूँ, अनुज हूँ मैं तुम्हारा। स्वामी का शरण जाओ, या वीरत्व दिखाओ।।' दिखलाइयेगा मुझको न वैभव का नजारा॥ सुनते रहे बाहुबली गभीर हो वानी। नारी की तरह होती है राजा की सल्तनत । फिर कहने लगे दूत से वे आत्म-कहानी ॥ यों, बन्धु की गृहणी पं न बद कीजिए नीयत ॥
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अनेकान्त
छोटा हूँ, मगर स्वाभिमान मुझमे कम नही। ये सुन पड़ा-न वोरों के अब खून बहेगे । बलिदान का बल है, अगर लड़ने का दम नहीं ॥ भरतेश व बाहूबली खुद आके लड़गे ।। 'स्वातन्त्र' के हित प्राण भी जाएं तो गम नहीं। दोनो ही युद्ध करके स्वर-बल आजमालगे। लेकिन तम्हारा दिल है वह जिसमे रहम नहीं। हारेंगे वही विश्व की नजरो मे गिरंग ।। कह देना चक्रधर से झुकेगा ये सर नही। दोनो ही बली, दोनों ही हैं चरम-शरोरी। , बाहुबली के दिल पै जरा भी असर नहीं । धारण करेग बाद को दोनो हो फकीरी॥
वेचूगा न आजादी को, लेकर मैं गुलामी। क्या फायदा है व्यर्थ में जा फौज कटाए' भाई है बराबर के, हो क्यो सेवको स्वामी ? बेकार गरीबों का यहाँ खन बहाए । मत डालिए अच्छा है यही प्यार में खामो। दोजख का सीना किसलिए हम मामने लाए ? आऊँगा नही जीते-जी देने को सलामी ॥' क्यों नारियो को व्यर्थ मे विधवाए बनाए सुन कर वचन, गजदत लोट के आया। दोनों के मंत्रियों ने इसे तय किया मिलकर । भरतेश को आकर के मभी हाल सुनाया ।। फिर दोनों नरेशों ने दी स्वीकारता इस पर ।।
चप सुनते रहे जब तला, काबू में रहा दिल। तब युद्ध तीन किस्म के होते है मुकरर । पर देर तक खामोशी का रखना हआ मुश्किल ॥ जल-यद्ध, मल्ल-यद्ध, दप्टि-यद्ध, भय कर ।। फिर बोले जग जोर मे, हो क्रोध मे गाफिल। फिर देर थी या ? लड़ने लग दानो बिरादर । 'मरने के लिए आएगा, घया मेरे मुकाबिल? दर्शक है खडे देखते इकटक किए नजर ।। छोटा है, मगर उसको बडा-मा गार है। कितना यह दर्दनाक है दुनिया का रवंया। मुझको घमण्ड उमका मिटाना जरूर है। लड़ता है जर-जमी को यहां 'भैया में भैया ।।
फिर क्या था, गमर-भूमि में बजने लगे वाजे। अचरज मे सभी डूबे जब ये मामने आया। हथियार उठाने लगे नग थे जो विराजे ॥ जल-युद्ध में चक्री को वाहवाल ने हराया ।। घोडे भी लगे हीमने, गजगज भी गाजे। झझला उठ भरतेश कि अपमान था पाया। कायर थे, छिपा आंग्ब वे रण-भूमि मे भाजे ॥ था सब्र, कि है जग अभी और बकाया ।। सुभगों ने किया दुर जब इन्सान का जामा ।
'इस जीत मे बाहबली के कद की ऊचाई।घन-घोर मे संग्राम का तब सज गया सामां ।।
लोगों ने कहा-खब ही वह काम मे आई !!"
दोनों ही पक्ष आ गए, आकर अनी भिडी। भततेश के छीटे सभी लगते थे गले पर। सबको यकीन यह था कि दोनों में अब छिडी॥ बाहबली के पडते थे जा आँख के अन्दर ।। इतने में एक बात वहा ऐसी सुन पडी। दुखने लगी आँखें, कि लगा जैसे हो खजर। जिसने कि युद्ध-क्षेत्र में फैला दी गड़बड़ो। आखिर यों, हार माननी ही ड गई थक कर ॥ हाथों मे उठे. रह गए जो शस्त्र उठे थे। ढाईसौ-धनुष-दुगनी थी चक्रीश की काया। मुह रह गए वे मौन जो कहने को खुले थे। लघु-भ्रात की पच्चीस अधिक, भाग्यको माया।
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बाहुबली-स्तवन
फिर दृष्टि-युद्ध, दूसरा भी सामने आया । अचरज, कि चक्रवति को इसमें भी हराया ॥ लघु-भ्राता को इसमें भी सहायक हुई काया । सब दंग हुए देख ये अनहोनी-सी माया । चक्रीश को पड़ती थी नजर अपनी उठानी । पड़ती थी जबकि दृष्टि बाहूबली को झुकानी ॥
गर्दन भी थकी, थक गए जब आँख के तारे । लाचार हो कहना पड़ा भरतेश को - 'हारे' | गुस्से में हुई आँखें, धधकते से अगारे । पर दिल में बड़े जोर से चलने लगे आरे ॥ तन करके रोम-रोम खड़ा हो गया तन का । मुह पर भी झलकने लगा जो क्रोध था मन का ।।
सव कांप उठे क्रोध जो चक्रीश का देखा । चेहरे पर उभर आई थी अपमान की रेखा ॥ सब कहने लगे 'अब के बदल जायेगा लेखा । रहने का नही चक्री के मन, जय का परेखा ॥' चक्रीश के मन में था - 'विजय अबके मैं लूगा । आते ही अखाड़े, उसे मद-हीन करूँगा || '
वह वक्त भी फिर आ ही गया भीड़ के आग । दोनो ही सुभट लड़ने लगे क्रोध में पागे ॥ हम भाग्यवान् इनको कहें, या कि अभागे ? आपस में लड़ रहे जो खड़े प्रेम को त्यागे । होती रही कुछ देर घमासान लड़ाई । भरपूर दाव पेच में थे दोनों ही
भाई ॥
थर-थर । अम्बर ॥ परस्पर ।
दर्शक ये दंग - देख विकट युद्ध - थे देवों से चिर रहा था समर भूमि का नीचे था युद्ध हो रहा दोनों में बाहूबली नीचे कभी ऊपर थे चक्रधर । फिर देखते ही देखते ये दृश्य दिखया । वाहूबली ने भरत को कंधे पे उठाया ।।
।
यह पास था कि चक्री को धरती पे पटक दे अपनी विजय से विश्व की सीमाओं को ढक दे ॥
"T
रण-थल में बाहुबल से विरोधी को चटक दें । भूले नही जो जिन्दगी-भर ऐसा सबक दें । पर, मनमें सौम्यता की सही बात ये आई।'आखिर तो पूज्य हैं कि पिता-सम बड़े भाई !!'
उस
ओर भरतराज का मन क्रोध में पागा । 'प्राणान्त कर दूं भाई का यह भाव था जागा || अपमान की ज्वाला में मनुज-धर्म भी त्यागा । फिर चक्र चलाकर किया सोने में सुहागा ॥ वह चक्र जिसके बल पं छहों खण्ड झुके थे । अमरेश तक भी हार जिससे मान चुके थे ।
कन्धे से ही उस चक्र को चक्री ने चलाया । सुरनर ने तभी 'आह' से आकाश गुंजाया ॥ सब सोच उठे - 'देव के मन क्या है समाया ?" पर चक्र ने भाई का नहीं खून बहाया ॥ वह सौम्य हुआ, छोड़ बनावट की निठुरता । देने लगा प्रदक्षिणा धर मन में नम्रता ॥
फिर चक्र लौट हाथ में चक्रीश के आया । सन्तोष-सा, हर शख्स के चेहरे पे दिखाया || श्रद्धा से बाहुबलि को सबने भाल झुकाया । फिर कालचक्र दृश्य नया सामने लाया ॥ - भरतेश को रणभूमि में धीरे से उतारा। तत्काल बहाने लगे फिर दूसरी धारा ॥
धिक्कार है दुनिया कि है दमभर का तमाशा । भटकता, भ्रमता है पुण्य-पाप का पाशा ॥ कर सकते वफादारी की हम किस तरह आशा ? है भाई जहाँ भाई ही के खून का प्यासा ॥ चक्रीश ! चक्र छोड़ते क्या यह था विचारा ? मर जाएगा बेमोत मेरा भाई
दुलारा ॥
भाई के प्राण मे भी अधिक राज्य है प्यारा। दिखला दिया तुमने इसे, निज कृत्य के द्वारा ॥
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M
३३, कि. ४
तीनों ही युद्ध में हुआ अपमान तुम्हारा।
हार गए न्याय से हट चक्र भी मारा। देवोपुनीत शस्त्र न करते हैं वंश-धात । भूले इसे भी, आ गया जब दिल में पक्षपात ॥
तपव्रत किया कि नाम जहां में कमा लिया। कहते हैं तपस्या किसे, इसको दिखा दिया । कायोत्सर्ग वर्ष भर अविचल खड़े रहे। ध्यानस्थ इस कदर रहे, कवि किस तरह कह।
मिट्टी जमी शरीर से सटकर, इधर-उधर । बस बच गया पर तुमने नहीं छोड़ी कसर थी।
फिर दूब उगी, बेलें बढ़ो बाहों पै चढ़ कर ॥ सोचो, जरा भी दिल मे मुहब्बत की लहर थी?
बांबी बना के रहने लगे मौज से फनघर ।। दिल में था जहर, आग के मानिंद नजर थी।
मृग भी खुजाने खाज लगे ठूठ जानकर ।। थे चाहते कि जल्दी बधे भाई की अरथी॥
निस्पह हए शरार से वे आत्मध्यान में। अन्धा किया है तुमको, परिग्रह को चाह ने ।।
चर्चा का विषय बन गए सारे जहान मे ।। सब कुछ भुला दिया है गुनाहों की छाह ने ।
सोचो तो, बना रह सका किसका घमण्ड है ? पर, शल्य रही इतनी गोमटेश के भीतर । जिसने किया उसी का हुआ खण्ड-खण्ड है। ये पैर टिके हैं मेरे चक्र की भूमि पर ।'
अपमान, अहंकार की चेष्टा का दण्ड है। इसने ही रोक रखा था कैवल्य का दिनकर । किस्मत का बदा. बल सभी बल में प्रचण्ड है । वरना वो तपस्या थी तभो जाते पाप झर ।। है राज्य की ख्वाहिश तुम्हें लो राज्य संभालो। यह बात बढ़ी और सभी देश में छाई ।। मही पै विराजे उसे कदमों में
इतनी कि चक्रवति के कानो में भी आई।
सामान याकाला।।
उस राज्य को धिक्कार कि जो मद में डबा दे। सुन, दौड़े हुए आए भक्तिभाव से भरकर । अन्याय और न्याय का सब भेद भला दे। फिर बोले मधुर-वैन ये चरणों में झका सर । भाई की मुहब्बत को भी मिट्टी मे मिला दे। 'योगीश ! उसे छोड़िये ! जो द्वन्द्व है भीतर । या यों कहो-इन्सान को हैवान बनादे। हो जाय प्रगट जिससे शीघ्र आत्म दिवाकर ।।
दरकार नही ऐसे घणित राज्य की मन को। हो धन्य, पुण्यमूर्ति ! कि तुम हो तपेश्वरी । __ मैं छोडता हूँ आज से इस नारकीपन को॥ प्रभु ! कर सका है कौन तुम्हारी बराबरी
मुझसे अनेकों चक्री हुए, होते रहेगे। यह कहके चले बाहुबलि मुक्ति के पथ पर। यह सच है कि सब अपनी इसे भूमि कहेगे । सब देखते रहे कि हुए हों सभी पत्थर ।।।
पर, आप सचाई पै अगर ध्यान को देगे। भरतेश के भीतर था व्यथाओं का बवण्डर।
तो चक्रधर की भूमि कभी कह न सकेगे। स्वर मौन था, अटल थे कि धरती पै थी नजर ।।
मैं क्या हूँ 'तुच्छ !भूमि कहाँ ?यह तो विचारो। आँखों में आगया था दुखी-प्राण का पानी। कांटा निकाल दिल से अकल्याण को मारो। ___ या देख रहे थे खड़े वैभव की कहानी ॥ x x x x
चक्री ने तभी भाल को धरती से लगाया। जाकर के बाहुबली ने तपोवन में जो किया। पद-रज को उठा भक्ति से मस्तक पै चढाया । उस कृत्य ने ससार सभी दंग कर दिया ।।
(शेष पृष्ठ ३८ पर)
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जैन काशी : मूडबिद्री
- श्री गोकुल प्रसाद जैन, नई दिल्ली मूडविद्रो यह क्षेत्र 'जैन काशी' के नाम से प्रसिद्ध है। बी. (क्षयरोगी का हास्पिटल खोला है। यह स्थान मंगलूर से उत्सर को मोर कार्कल तालूक ई० पूर्व ततोय शताब्दी में श्रुतकेपली भद्रबाहुं के
कन्नड जिले) में प्रवस्थित है। मूडबिद्री जैनों को उत्तर भारत से श्रवणबेलगोला पदार्पण से पूर्व ही मूडबिद्री मगर धामिक दृष्टि से पवित्र है तो प्रम्य लोगों को यहाँ के चारों मोर के प्रदेशों मेजनों का अस्तित्व था। ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान है। इसका पपर यद्यपि कि. २०७वीं शती से पूर्व का ऐतिहासिक पाचार नाम संस्कृत में 'बंशपुर' प्रथवा वेषपूर' भी है। यहां का प्राप्त नहीं होता, फिर भी दक्षिण कन्नड जिले के बहमाग प्राचीन मन्दिर 'गुरुवसदि' (गुरुमन्दिर) या सिद्धांतबसदि' में प्राप्त जनस्व के अवशेषो से यह बात सिद्ध होती है। एक समय उन्नत स्थिति में था। एक समय इस गांव का इतिहास का प्रमाण है कि ई० पूर्व चौथी शताजी में तथा इस मन्दिर का अधिकांश भाग जैनों के प्रभाव से श्रुतकेवली श्री भद्रबाहुजी ने मौर्य सम्राट पनगुप्त एवं पौर भन्य बाधामो से बरण्यमय होकर पेड़ों पर बसों १२००० शिष्यों के साथ दक्षिण मे भाकर श्रवणबेलगोला (वंशवक्ष) से व्याप्त हो गया था। इन्ही बातों के कारण में निवास किया। उनके इन शिष्यों मे छ ने तमिल, इसका नाम 'बिदिरे' या 'वेणपुर' पड़ा। कन्नड भाषा में तेलुगु कर्नाटक एवं तौलव देशों में जाकर धर्म का प्रचार बांस को बिदिह' कहते है। इस विदिर' शब्द से ही पोर यत्र तत्र निवास किया तब से मूहविद्रो में भी जैन बिदिरे' बना है। विद्र' या 'विद्रो' इसका अपभ्रंश है। लोगों ने पाकर वाणिज्य-व्यवसाय करते हए अनेक जैन चुकि यह स्थान मूलकि, मगलूर मादि समीपस्थ बन्दरगाह मन्दिर बनवाये, ये द्वीपांतर में व्यापार करते पिल या व्यापार स्थलों से 'मर' (पूर्व) दिशा मे स्थित है। पनार्जन कर प्रसिद्ध थे। प्रतः 'मुडविदिरे' 'मबिडी' माम से पुकारा जाने लगा। परन्तु कालदोष से धन-जन-संपन्न इस मूडबिद्री में भी
परन्त कालदोष से धन-जन-संपन्न जो भाजतक प्रसिद्ध व मान्य बन गया है। इसके पलावा जैनों का प्रभाव हो गया भोर यहाँ का जिममन्दिर चारों यहाँ भनेक जन प्रतिक (साधु, गुरु, श्रमण) रहने के कारण, मोर पेड़ों और वशवक्षों से घिर गया। लगभग ७वीं इसे शिला शासन में 'व्रतपुर' भी कहा गया है। शताब्दी मे श्रवणबेलगोला मे इधर पाये हुए एक मुनि.
यपि मूडवित्री 'तुलुनाई (यहां तुल बोली बोलो महाराज ने एक जगह अन्योन्य स्नेह से खेलते हर एक जाती है, अत: इस प्रदेश को 'तुलुनाह' कहते हैं, बाष
वाष भोर गाय को देखा। इस पूर्व दृश्य को देखकर नाह-प्रदेश) या दक्षिण कन्नर जिले का एक छोटा-सा मुनि जान यह निश्चय किया कि इस स्पान मकुछ-न-कुछ नगर है तथापि चारों बोर के प्राकृतिक दृश्यों से यह पातशय म
र अतिशय अवश्य है। जब घिरे हुए पेड़ो को कटवाया तब मतीव सुन्दर है। यहां बेशुमार फल-मरित हरे-भरे खेत श्री भगवान पाश्र्वनाथ प्रभु को विशालकाय, भतीव सुन्दर हैं, बाग-बगीचे है। यत्र तत्र तालाब। यहां पर बमनोश मूर्ति दृष्टिगोचर हुई। पाषाणमयी यह मति नारियल, सुपारी, काज, पान, कालीमिर्च प्रादि विशेष रूप हजारों वर्ष प्राचीन है। उस मूर्ति की प्रतिष्ठा करायो से पैदा होता है। यहां का राज महल, जनमंदिर शिल्प गयी। कला की दृष्टि से विशेषाकर्षक है । इस क्षेत्र की बमवायु मूविद्रो की प्रसिद्धि यहाँ ‘गुरुवसदि' या सियाप्त समोनोग्ण है इसी कारण यहां पर सरकार ने भी टी. मन्दिर' में सुरक्षित मूमागम व परमागम पबलादि अपर
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३६, ३३, किरण ४
अनेकान्स
अनध्यं नवरत्न प्रतिमाम्रों से हैं। घबलादि ग्रंथ कन्नड लिपि मे लिखे हैं, इनको करीब ८५० वर्ष हो गये हैं । जब उत्तर भारत में शास्त्र ग्रंथ कागज पर लिखे जाते थे, तब दक्षिण में द्राविड लिपि के प्रथ ताडपत्र में सुई से कुरेद कर ऊपर से स्याही भरे जाने की प्रथा थी। लेकिन प्राचर्य यह है कि ये तीनों ग्रथ सुई से न लिखे जाकर लेखनी द्वारा लाख की स्याही से लिखे गये हैं । यह नयी खोज उक्त लिपिकारों की अपनी ही है। बाद के किसी भी लिपिकार ने इस प्रथा को नहीं अपनाया। इस जिले में प्राप्त सहस्रशः ताडपत्रीय ग्रंथों में ये तीन मात्र ग्रंथ स्याही से लिखे गये हैं ।
इसी 'गुरुबसदि' में वज्र, मरकत, माणिक्य, नील, वे प्रादि बहुमूल्य रत्नों से निर्मित प्रद्वितीय व धनुपम जिन प्रतिमाएं है। मूडबिद्री के प्राचीन श्रावक जहाजों के द्वारा द्वीपान्तर जाकर वाणिज्य करने में प्रसिद्ध थे । वे रेडिया, अफ्रीका प्रादि पश्चिम देशों मे धौर मलाया, जावा, इन्डोनेसिया, चीन प्रादि सुदूरपूर्व देशो मे जाकर व्यापार करते थे प्रतएव जिराफ चैनीस ड्रागन प्रादि प्राणियों से परिचित इन लोगों ने 'त्रिभुवनतिल कचूडामणिमन्दिर की प्राधारशिला में इन विचित्र प्राणियों को धाकृतियाँ विभिन्न ढगो मे भाकर्षक भगियों मे खुदवाई । 'त्रिभुवनतिलकचूडामणि मन्दिर' के 'भेरोदेवी मण्डप' के निचले भाग के पत्थर मे जिराफ मृग पोर चीनि गन के चित्र चित्रित हैं। यह जिसका मृग ग्राफिका मे जाता है। मोर डूंगन तो चीन देश मे पाया जाता है । यह वहाँ का पुराण प्रसिद्ध प्राणि है । यह मकर (मगर) प्राकृति का जलचर है। विदेश के यह प्राणि यहाँ पर चित्रित होने से सहज ही धनुमान लगा सकते हैं कि उस समय के जैन श्रावक व्यापारार्थ इन देशों में भी गये होगे व व्यापारिक संपर्क बढ़ जाने से वहाँ के रहने वाले प्राणि यहाँ पर चित्रित हुए होगे ।
पाया
मूडबिद के मन्दिर क्या है ? शिलालेखों, शिल्पकला ब शिलापat का प्रागार ही हैं। एक मज्ञात कवि ने शिलालेख मे तत्कालीन 'वंशपुर' ( मूडबिद्रो) का निम्न प्रकार से वर्णन किया है :
"सुम्दर बाग-बगीचे, विकसित पुष्पों की सुगन्ध से,
व्याप्त हवा से चारों मोर से सुशोभित, बाह्य प्रदेशों मे घिरा हुम्रा, उत्तम जिनमन्दिरों से पवित्र एवं रम्य प्रावास गृहों से सुशोभित यह मूडबिद्री देवांगनाओंों के समान पुण्य स्त्रियों के विराजने से सुन्दर हैं ।"
fat के एक और शासन मे तत्कालीन 'वेणुपुर' का जीता जागता चित्रण निम्न रूप में है :
" तुलुदेश मे वेणुपुर नाम का एक विशिष्ट नगर सुशोभित है। यहाँ पर जैन धर्मानुयायी सुपात्र दानादि उत्साह से करने वाले भव्यजीव विराजमान है । साधु-सतो से वे श्रद्धापूर्वक शुद्ध मन से जैन शास्त्र का श्रवण करते हैं। इस प्रकार यह वेणुपुर सुशील सत्पुरुषों से शोभित है ।" मूडबिद्री का गुरुपीठ या भट्टारक का गादी पीठ :
यहाँ के गुरुपीठ की स्थापना ई० सन् १२२० मे श्रवणबेलगोला के मठ के स्वस्ति श्री चारुकीर्ति पण्डिताचार्य स्वामीजी ने की थी । द्वारसमुद्र ( हेळे बीड) क राजा बिष्ट्ठिदेवने (सन् १९०४ - ११४१ ) जैन धर्म को छोड़कर वैष्णव धर्म स्वीकार किया और विष्णुवर्धन कहलाया । मतांतरी राजा विष्णुवर्धन ने भनेको जैन जिनालयों को तुड़वाया, मौर बन्धुनों को मरवा डाला । इस प्रत्याचार के फलस्वरूप मानो वहाँ की जमीन पर बड़ी-बड़ी दरारें पड़ गयी। लोगों और प्राणियों की बड़ी हानि हुई । क्रि० श० ११७२ से १२१६ तक यहाँ के शासन करने वाले वीर बल्लाल राय ने उस घोर उपसगं से बचने के लिए श्रवणबेलगोला के श्री चारुकीति स्वामी जी से प्रार्थना की। राजा की प्रार्थना मान कर स्वामीजी द्वारसमुद्र प्राये । भगवान् पार्श्वप्रभु की 'कलिकुण्ड धाराधना' करते हुए मन्त्रपूत 'कूष्माण्डो (कुम्हडों) से दरारें पाट दी, जमीन पूर्ववत् हो गई ।
वहाँ से श्री स्वामीजी सोधे दक्षिण कन्नड जिले के कार्कल तालूक के 'नल्लूर' माये मोर वहाँ एक मठ की स्थापना की। वहाँ से मूडबिद्री के सिद्धान्त दर्शन करने यहाँ घाये और यहाँ पर मी सन् १२२० में एक मठ की स्थापना की। इस तरह यह दोनों मठ श्रवणबेलगोला के शाखा मठ होने के कारण यहाँ के मठाधिपति भी 'बाह कीर्ति' अभिधान से प्रसिद्ध हुए। इससे यह सिद्ध होता है कि बाज से ७६० वर्ष पहले यहाँ के मठ की स्थापना हुई थी।
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बैन कासो : मूति
इस समय जैन मठ के भट्टारक गही में विराजमान स्थान विद्यमान है। कहा जाता है कि इस मंडप में सोनों स्वस्ति श्रीमद्भिनव भट्टारक प. पूज्य बास्कोति पन्डिता के न्याय-प्रन्यय का विचार भोर निर्णय होता। इसी चार्यवयं स्वामीजी एम.ए. (हिन्दी), एम० ए० (संस्कृत) कारण से मंडप का नाम 'न्यायबसदि' नाम पड़ानो साहित्यशास्त्री, सिद्धान्तशास्त्री, उपाध्याय (एचपी. सार्थक ही है। इसके पास ही श्री चन्द्रकीतिमुनि (१० सन् दर्शन) का पट्टाभिषेकोत्सब दि. ३०-४--१९७६ को १६३७) का एक समाधिस्थान और सति सहगमन करने सम्पन्न हुपा था। अनेक भाषामों के ज्ञाता, उदमट विधान का एक स्थान "महासतिकट्टे (मास्तिक) भी है। ५० पू० भट्टारकजी के संचालकत्व व सफल नेतृत्व मे क्षेत्र ३. चोटर राजमहल : रात्रि-दिन प्रगति के पथ पर अग्रसर है। मूडबिद्री के दक्षिण कन्नड जिले के न राजामों मे पोटरबंशीय अठारह मन्दिर पोर भमध्य रत्नप्रतिमाएं प्रापके पापीन राजा बड़े प्रसिद्ध थे। इनकी राजधानी पहले "उल्लाम" हैं । पाप इन सब के मेनेजिंग दस्टीव सर्वाधिकारी में थी। इळे बोडके राजा विष्णुवर्षन के प्रपीन रहने वाले मडबिद्री के अठारह भव्य जिनमंदिर :
राजागण स्वतन्त्र होने के बाद बोटर बंशीय राजापों ने मूरचिती मे कुल मिला कर मठारह भव्य जिनमन्दिर अपनी राजधानी को मुडविद्रो पोर इसके निकटवर्ती हैं। इसमें श्री पार्श्वनाथ बसदिको विमवन तिलक 'तुतिगे" मे स्थापित किया। इन राजामों ने लगभग चुडामणि बसदि' भी कहते है। इन मन्दिरों के अलावा
७०० वर्ष तक (११६० से १८६७ ई. सन्त क) स्वतंग अन्य मन्दिरों मे भी शिल्पकला की उच्चकोटि की गरिमा रूप से शासन किया। इनके वंशज माज भी महविद्री खुल कर सामने आई है। 'बसदि' यह सस्कृत वसति' (चोटर पंलेस) मे रहते है जिनको सरकार से मालिकामा शब्द का तद्भव है। इसी प्रकार होसबसदि, गवसदि. Poltical Pension) मिलता है। यह राजपर पापि घोहरबसदि, हिरेबसदि, वेटकेरी बसवि, कोटिबसदि,
जीर्ण-शीर्ण है फिर भी इसे देखकर इसकी महत्ता का विक्रमशहिवसदि, कल्लूबसदि, लेप्पद बसवि, देरम्मोहि अनुभव कर सकते हैं। राजसभा के विशाल स्तंभों पर वसदि, चोलशेहिबमदि, महादेवशेहिबसदि, वैकतिकारि- खुवे हए चित्र दर्शनीय हैं। इनमें चित्रकला की दृष्टि में बसदि, केरेबसदि, पहबसदि, श्री जैनमठबसविन. "मबमारीकुंजर" पोर “पचनारीतुरग" की रचना और पाठशालेयबसदि मादिसदि विद्यमान है जो प्रतिबिम्बों- शिल्पकला अत्यन्त मनोज है। जिनलतामों से शोभायमान है और जहा नित्य भनेक ४. भी बीरवाणी विलास न सिखात भवन: धर्मानुष्ठान सम्पन्न होते रहते हैं।
यह एक शास्त्रभंडार है। स्व. पं० लोकमावली मूडबिद्री के अन्य दर्शनीय स्थल
शास्त्री ने इसका निर्माण किया और सैकड़ों तापनीय
ग्रंथों को अन्याय गांवों में जाकर संग्रहित किया और यहाँ १. समापिस्वान (निविषियो):
सुरक्षित रखा है। इसकी पलग ट्रस्टी है। मुद्रित बंबों का यहाँ स्वर्गीय मठाधिपतियों की १८ समाधियों के
भी संग्रह मच्छा है। अतिरिक्त प्रबुसेट्टी एवं प्रादुसेट्टो नामक दो बीमान् श्रावकों
५ श्रीमती रमारानी जंग शोध संस्थान : की समाधियां बेटकेरी बसवि से १ फांग पर विद्यमान
इस भवन का निर्माण स्वनामधन्य, श्रावशिरोमणि, है। परतु यह जानना कठिन है कि ये समापियो किन
स्व. साह श्री शांतिप्रसाद जी ने लाखों रुपये व्यय करके किन को हैं ? पोर कब निर्माण हुई है। केवल दो एक
किया है। इस संस्थान या भवन में परम पुनीत अमूल्य समाषियों में शिललेख विद्यमान है।
तारपनों पर लिखे सहस्रशः जैन पुराण, दर्शन, धर्म, २. कोसंकल्सुम्याय बसवि:
सिद्धांत, प्याय, ज्योतिष, प्राचारपरक जिनवाणी मा' का मुरविडी से करीब १ मोल पर 'कोकल्लु' मापक संबह । इन तारपत्रीय जैन शास्त्रों के अध्ययना। स्थान में 'न्यायवसाबि' नामक एक मंदिर एवं एक समावि. प्रलोकनार्य देश-विदेश के विधान यहाँ पधार कर, इन
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-१८ वर्ष ३३, हिरण ४
अनेका
अनमोल ग्रंथ रत्नों का दर्शन कर पुनीत हो जाते हैं। अनेक प्रतियों का समुद्धार, पुनर्लेखन, संशोधन, संग्रह, प्रकाशन आदि कार्य प० पू० भट्टारकजी के नेतृत्व में संपन्न हो रहा है। देश-विदेश के जैन-जनेतर विद्वानों के लिए तो यह संग्रहालय मानों ज्ञान का प्रजस्र स्रोत है और है सरस्वती का वरद बोर पुनीत प्रक्षुण्ण भंडार । मूवी की अन्य संस्थाएँ और सामाजिक स्थिति :
अब तक ऐतिहासिक मूडबिद्री का अवलोकन हुमा । We wiधुनिक मूडबिद्री का अवलोकन करेंगे ।
मूडबिद्री मे तीन हायस्कूल है - १) जैन हायस्कूल, २) बाबू राजेन्द्र प्रसाद हायस्कूल, ३) कान्वेन्ट गर्ल्स हायस्कूल जैन हायस्कूल रजत जयति मना कर भव जैन ज्यूनियर कालेज के रूप में परिवर्तित हो गया है ।
सन् १६६५ मे 'समाज मंदिर सभा' नामक सांस्कृतिक संस्था द्वारा यहाँ पर "महावीर पाटस, सायन्स एण्ड कमर्स कालेज" खोला गया है ।
सन् १९७९ में दक्षिण क्रशर जिला जैन समाज के सत्प्रयत्न से "श्री घवला कालेज" मूडबिद्री में प्रारंभ हुआ है।
कैवल्य मिला, देवता मिल पूजने आए। नर नारियों ने खूब ही आनन्द मनाए ॥ चको भी अन्तरंग में फूले न समाए । भाई की आत्म-जय पे अश्रु आँख में आए | है वंदनोय, जिसने गुलामी समाप्त की । मिलनी जो चाहिए, वही आजादी प्राप्त की ॥
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गोम्मटेश प्रभु के सौम्य रूप की झांकी । वर्षों हुए कि विज्ञ शिल्पकार ने आंकी ॥ कितनी है कलापूर्ण, विशद, पुण्य की झांकी। दिल सोचने लगता है, चूमू हाथ या टांकी ? है श्रवणबेलगोल मे वह आज भी सुस्थित । जिसको विदेशी देख के होते हैं चकितचित ॥
'भरतेश वैभव' 'रस्माकर शतक' प्रादि श्रेष्ट कृतियों के रचयिता महाकवि रत्नाकर वर्णी की जन्मभूमि भी यही मूडबिग्री है। इसी कवि के नाम से मूडबिद्री का एक भाग 'रश्नाकर वर्णी नगर' के रूप में नामकरण पाकर सुधोमित है ।
मूडबिद्री की जनसंख्या लगभग १०-१२ हजार है। लोगों की प्रार्थिक स्थिति सामान्य है। जैन भाइयों के लगभग ६० घर हैं । जैनों की प्रार्थिक स्थिति ( २-४ घर को छोड़ कर ) सामान्य है। प्रायः सब लोगों का जीवनधार कृषि पर ही निर्भर है। नारियल, सुपारी, धान, काजू, प्रादि ही यहाँ की प्रमुख कृषि या उपज है । परंतु इस समय 'भू सुधारणा कानून' पास होकर लागू होने से सब खेतिहर जंनों के ऊपर और जैन मंदिरों के ऊपर भीषण संकट प्राया है ।
(१० ३४ का शेषांश गोया ये तपस्या का ही सामर्थ्य दिखायापुजना जो चाहता था वही पूजने आया | फिर क्या था, मन का द्वन्द्व सभी दूर हो गया । अपनी ही दिव्य ज्योति से भरपूर हो गया ।
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कहते हैं उसे विश्व का वे आठवां अचरज । खिल उठता जिसे देख अन्तरग का पंकज ॥ झुकते हैं और लेते है श्रद्धा का चरणरज । ले जाते हैं विदेश उनके अक्स का कागज ॥ वह धन्य, जिसने दर्शनों का लाभ उठाया । बेशक सफल हुई है उसी भक्त की काया || उस मूर्ति से है शान कि शोभा है। हमारी । गौरव है हमें, हम कि हैं उस प्रभु के पुजारी ॥ जिसने कि गुलामी की बला सिर से उतारी । स्वाधीनता के युद्ध की था जो कि चिंगारी ॥ आजादी सिखाती है गोम्मटेश की गाथा | झुकता है अनायास भक्तिभाव से माथा ।।
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'भगवत्' उन्ही-सा शौर्य हो, साहस हो, मुबल हो । जिससे कि मुक्ति-लाभ ले, मर जम्म सफल हो ।
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बाहुबलि की प्रतिमा गोम्मटेश्वर क्यों कही जाती हैं ? ।
___D डा. प्रेमचन्द जैन, जयपुर
चामुण्डराय ने मसूर के श्रवणबेल्गोल नामक पाम के फीट ऊंची है। मैमूर राज्य के अन्वेषण विभाग ने हाल सन्निकट छोटी-सी पहाड़ी पर एक विशाल प्राकृति मौर ही में इसका अन्वेषण किया है। एक कारकल में सन् अत्यन्त मनोहर मूर्ति निर्माण कराई थी। यह बाहुबलि जी १४३२ मे १४३ फीट ऊँची और दूसरी बेगूर में सन् की मूर्ति है और गोम्मटेश्वर कहलाती है।
१६०४ ईस्वी मे ३५ फीट ऊँची मूर्तियां स्थापित हुई और श्रवण-बेल्गोल के शिलालेख नं० २३४ (८५) मे भवण वे भी गोम्मट' 'गोमट' 'गोमट्ट' 'गुम्मट' पषवा गोम्मटेश्वर बेस्गोल को बाहुबलि प्रतिमा पर प्रतिष्ठा सम्बन्धी एक ___ कहलाती है। प्रतः इस लेख में यह निष्कर्ष निकालने का कहानी दी गई है, जो बहु प्रचलित हो चुकी है। इसके प्रयास है कि ये मूर्तियां गोम्मट क्यों कही जाती है? वर्णनानुसार गोम्मट, पुरुदेव अपरनाम ऋषभदेव (प्रथम कुछ विद्वानों का मत है कि इस मूर्ति के निर्मापक का तीर्थकर) के पुत्र थे। इनका नाम बाहुबलि या भूजबलि पपरनाम 'गोम्मट' या गोम्मट राय था। क्योंकि 'गोम्मटथा। ये भारत के लघु भ्राता थे। इन्होंने भरत को युद्ध सार' नामक ग्रन्थ मे उन का उल्लेख इसी नाम से हमा है, परास्त कर दिया, किन्तु संसार से विरक्त हो राज्य गरत पत: उनके द्वारा स्थापित मनि 'गोम्मटेश्वर' अर्थात् के लिए ही छोड़ उन्होंने जिन-दीक्षा धारण कर ली। (गोम्मटस्य)+ईश्वर: कहलाना उपयुक्त है। साथ ही वे भरत ने पोदनपुर के समीप ५२५ धनुष प्रमाण बाहुबलि यह भी कहते हैं कि जब श्रवणबेलगोल स्थित बाहुबलि की की मूर्ति प्रतिष्ठित कराई। कुछ काल बीतने पर मूति के मति उपर्युक्त कारण से गोम्मटेष्वर के नाम से प्रसिब हो भासपास की भूमि कुक्कुट सर्पो से व्याप्त भौर बीहड़ वन गई इसके पश्चात् में ही अन्यत्र भी तत्साम्य से बाहुबलि से भाच्छादित होकर दुर्गम्य हो गई।
की मूर्तियां 'गोम्मट' 'गोमट' गोमट्ट' गोम्मटेश्वर पादि । राचमल्ल नप के मन्त्री पामहरायको बाहुबली के कही जाने लगीं। किन्तु निम्नलिखित कारणों से यह मत दर्शन की अभिलाषा हुई, पर यात्राके हेतु अब वे तैयार हुए । तब उनके गुरु ने उनसे कहा कि वह स्थान बहादुर मोर (१) चामुण्डराय के खास प्राश्रय मे रहे हए कवि रत्न पगम्य है । इस पर चामुण्डराय ने स्वयं वैसा ही मति की नम
की ने अपने 'जितपुराण' में उनका उल्लेख इस नाम से कहीं प्रतिष्ठा कराने का विचार किया और उन्होंने उसकी पर भी मही किया है। जितपुगण का समय ६३.है प्रतिष्ठा करायी जो गोम्मटेश्वर के नाम से प्रसिबर्ग। पत: इस दशा में यह मानना उचित ही है कि सन १३ इसके पूर्व भी भोर पश्चात् भी दक्षिण में गोम्मटेश्वर की ई. तक चामुण्डराय का 'गोम्पट' अथवा 'गोम्मटेश्वर' पौर विशालकाय मतियां निर्माण हई। चालुक्यों के समय ऐसा कोई नाम नहीं था। मे ई. सन् ६५० मे निमित योम्मट की एक मूर्ति (२)कवि दोड्य ने अपने संस्कृत प्रग्य 'भुजवलि शतक' बीजापुर के बादामी में है। मैसूर के समीप ही गोम्मटगिरि सन (१५५०) में लिखा है कि श्रवणबेलगोल की छोटी में १४ फीट ऊंची एक मोम्मट मूति है जो १४वी सदी मे पहाड़ी चन्द्रगिरि पर खड़े होकर चामुणराय ने बड़ी निमित है, इसके समीप ही कम्बादी (कृष्णराजसागर) पहाडी इन्द्रागिरि पर तीर मारा था जिससे इस बिन्ध्यके उस पार १२ मील दूरी पर स्विटसर होसकोटे गिरि पर पोदनपुर के गोम्मट प्रकट हो गये थे। मोर इखल्ली मेगाकालीन एक 'गोम्मट' मति है जो १८ सनकी पूजा के लिए चामडारायने कई ग्राम भेंट किये थे।
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अनेकान्त
भबकि 'भुजबल शतक' में भी चामुण्डराय का उल्लेख का ही अपर नाम 'गोम्मट' 'गुम्मट' था। वह ही मागे चल 'गोम्मट' नाम से नही है; अतः यह नहीं कहा जा सकता कर गोम्मटेश्वर हो गया। जिसके लिए निम्न तव्य प्रस्तुत कि श्रवणबेलगोल की मूर्ति का नाम उनके संस्थापक की किये जाते हैंअपेक्षा से गोम्मटेश्वर पड़ा था।
गोम्मट शब की मृत्पत्ति-५० के० बी० शास्त्री ने (३) बाहुबलि की मूर्ति के संस्थापक स्वय चामुण्डराय अपने एक लेख में गोम्मट शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए ने जो गोम्मट-मति के पाद-मूल मे तीन लेख अंकित बताया है कि प्राकृत भाषा के त्रिविक्रम व्याकरण के कराये हैं, उनमे भी उन्होंने अपने को 'गाम्मट' अथवा “गुम्म गुम्मडौ मुहेः" ३-४.१३१) इस सूत्रानसार 'मोहक' 'गोम्मटेश्वर' नही लिखा है। वे ये है
अर्थ मे णिजन्तार्थ में 'मह' धातु को गुम्मड' प्रादेश होता लेव नं०१७५-श्री चामुण्डराय ने निर्मापित है। इस शब्द के उकार के स्थान मे उसी व्याकरण के कराया।" कब और किम यह नहीं लिखा है। यह लेख के गजडदव बढषम कचटतप खछठयफाल (३.२.६५) कन्नड़ भाषा मे है।
सूत्रामसार इकार प्राकर 'गुम्मट' शब्द बनता है। इस मूल २ लेख नं० १७६--"श्री चामुण्डराय ने निर्मापित रूप में हो उच्चारण भेद से गोमट पोर गोम्मट शब्द बन कराया।" पोर किसे यह नही लिखा है। यह लेख गये हैं। समिल भाषा में है।
परन्तु एक अन्य प्रकार से -कात्यायन की प्राकृत ३. लेखनं० १७६-"श्री चामुण्डराय ने निर्मापित मंजरी के मो मः' (३.४२) सूत्र के अनुमार सस्कृत का कराया।" इसमें भी कब पोर किस को इसका उल्लेख नहीं 'मम्मथ' शब्द प्राकृत मे 'गम्मह' हो जाता है। उधर है। यह लेख मराठी भाषा पोर नागरी लिपि में अकित कन्नड़ भाषा में संस्कृत का 'प्रन्थि' शब्द 'गस्टि' और 'प' है। उपर्युक्त तीनों प्राचीन लेखों से भी स्पष्ट है कि स्वय शब्द 'बट्ट प्रादि में परिवर्तित हो जाते है । पतएव सस्कृत चामण्डराय भी गोम्मट नाम से परिचित नही थे। के 'मन्मय' शब्द का 'ह' उच्चारण जो उस प्राकृत रूप में
४. श्रवणबेलगोल के शिलालेखो मे (एपीग्राफिया नसीब होता है, वह कन्नर में नही रहेगा, बल्कि वह 'ट' कर्णाटिका, भाग-२ अनुक्रमणी (Index) पृष्ठ १३ प्रकट में बदल जावेगा। इस प्रकार सस्कृत 'मन्मथ' प्राकृत
कि उनमे से जिन लेखो मे गोम्मट नाम का उल्लेख गम्मका कन्नड तय गम्मट' हो जायगा । और उसी हमा सर्व-प्राचीन रूप मन् १११८ के न० ७३ व 'गम्मट' का 'गोम्मट' रूप हो गया है, क्योकि बोलचाल १२५ के शिलालेख है। इनमे मति को गोम्मटदेव लिखा
की कन्नड में 'म' स्वर का उच्चारण धीमे भो' की ध्वनि है और चामुण्डराय 'राय' कहे गये है। इससे भी स्पष्ट
में होता है, जैसे-'मृगु'='मोगुः'; 'सप्पु'-'सोप्पु' इत्यादि । होता है कि मूर्ति का नाम ही गोम्मटदेव कहा जाने
उधर कोंकणी पौर मराठी भाषाम्रो का उद्गम लगा था।
क्रमशः अर्घमामधी भोर महाराष्ट्रो प्राकृत से हुमा प्रकट है ५. श्रवणबेलगोल स्थित बाहुबली का नाम मूर्ति
और यह भी विदित है कि मराठी, कोकणी एवं कन्नड स्थापक की अपेक्षा से यदि गोम्मटेश्वर पड़ा होता तो भाषामों का शब्द-विनिमय पहले होता रहा है। क्योंकि अन्यत्र विभिन्न स्थानों पर स्थापित बाहुबलि की प्रतिमापों इन भाषा-भाषी देश के लोगो का पारस्परिक विशेष का नाम अन्य स्थापकों (निर्मापकों) की अपेक्षा से भिन्न- सम्बन्ध था । पब कोंकणी भाषा का एक शब्द 'गोमटो' या भिन्न क्यों नही पड़ा? वास्तविकता तो यह है कि श्रवण- या 'गोम्मटो' मिलता है और यह संस्कृत के 'मम्मच' शब्द बेस्गोल के बाहबलि की स्थापना के पूर्व भी बाहुबलि का का ही रूपान्तर है। यह ययपि सुन्दर पर्थ मे व्यवहृत है। गोम्मट प्रर्य में उल्लेख हुमा है जिसका मागे प्रसंगानुसार कोंकणी भाषा का यह शब्द मराठी भाषा मे पहुंच कर वर्णन है।
कन्नर भाषा में प्रवेश कर गया हो-कोई पाश्चर्य नहीं। उपर्युक्त तथ्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि बाहुबलि
(शेष पृष्ठ ४२ पर)
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मैं रहूं पाप में प्राप लीन
0 पं० पचन शास्त्री, नई दिल्ली ममाणं बोवादो देहं पुग्गलमयं बुनितु मभी। माघारो को उनकी पूज्यता में कारण कहा जा सकता है? भाग संपयोतिको मये केवली भव ।।'
उक्त बातें तो पन्य बहुतों में भी हई, कामदेव पन्य भी
--समयसार, २८ हए, स्वाभिमान की रक्षा शक्ति भर अन्य बहुतों ने मी जीव से भिन्न, इस पुद्गलमयो देह की स्तुति करके की। इन सब बातों को करके भी वे सभी पूज्य न हो मनि वास्तव में ऐया मानता है कि मैन केवली भगवान सके । प्रतः बाहबली की पूज्यता में मूल कारण कोई अश्य की स्तुति की और वन्दना की।
ही होना चाहिए पोर वह कारण प्रलौकिक ही होना विभाव हमारा स्वभाव जैसा बन गया है। हम अपने चाहिए। जिन धर्म की दृष्टि से विचारने पर यह कारण को विभावरूप अनुभव करने के प्रयासी जैसे तो बन ही समक्ष प्राता है--उनकी वीतराग-परिणति तपा वीतरागगए है, पर हम अपनी पहम्मन्य चतगई समरो को भी परिणति मे साधन-मन कठोर तपश्चर्या । विभावरूपों के माधार से परखने है। कहने को हम यद्यपि अभिषक, तीर्थकर-सम्बन्धी पचकल्पाणकों में वीतराग की वीतरागता के पुजारी है, उनकी उपासना से उनके जन्मकल्याणक की एक किया का अनुकरण है। बोतराग के प्राश्रय से करते है, हमारा घमं वीतरागत। के बाहुबली तीर्थकर नही भोर उनकी ममि व परहत मूलाधार मे ही पनपा है। पर, हम वीतरागता की उपासना प्रवस्थाएं भी अभिषक योग्य नही तथापि बाइबली-प्रतिमा में वीत गगता से विपरीतसरागता मे मग्न होत है।
का अभिषेक प्रपना विशेष महत्व रखता है। ये पहिले ही इससे स्पष्ट होता है कि जिस विभाव को हमे छोड़ना कहा जा चुका है कि छपस्थ को सहारा चाहिए भोर वह चाहिए हम उसी में बढ़ होने का प्रयत्न करते है, जबकि सहारा पागामी महारे की दृष्टि से सुरक्षित भी रहना पाचार्यों ने मूर्ति को पाधार मात्र मान कर केवली को चाहिए । यदि सहारा रूप प्रतिविम्ब सुरक्षित न होगा तो बन्दना का संकेत दिया है, न कि मूति को प्राराधना का। उपस्थ को साधना ही समाप्त हो जायगी। भक्त, सहारे.
पाज म बाहुबली को अनुपम, प्राश्चर्यकारी, विशाल रूप मूर्ति के द्वारा मूर्तिमान को देखता है-मूतिमाम की प्रस्तरमूर्ति के सहस्रान्दि महामस्तकाभिषेक समारोह वीतराग प्रतिकृति का अपने मे साक्षात्कार करता हैमनाये जाने का उपक्रम है। इसके लिए हम जी-जान से
उनकी पूजा करता है। अभिषेक व्यवहार-पूजा का जटे है। जिस साक्षात् शरीर को भ. बाहुबली ने क्षण
प्रावश्यक प्रग है-इसके बिना पूजा अधूरी रहती है। यह
सब प्रधान रह जाय प्रत: अभिषेक पोर मति की भंगुर समझ छोडने का उपक्रम किया-~हम उसी के अनु
सुरक्षा सभी पावश्यक है। वाचार्य ने कहारूप स्थापना निक्षेप द्वारा स्थापित प्रस्तरभूत-मूति के
'तं पिछये जमविणसरीर गुणा हि होति मेलिनो। संवारने में लगे हैं। इसमें तप क्या है ? यदि इसे विचार
केलिगणं बनविबो सो त केलि पुति।।' तो सहज हो यह तथ्य सामन पायगा कि-चूकि हम
-समयसार, २९ उपस्प और नशक्त है, हमें भक्ति के लिए सहायक प्रव- मूति का स्तवन ठीक नही है (म मूर्ति के स्तवन का लनान वाहिए और वह अवलम्बन मूर्तरूप होना चाहिए। विधान है। स्तवन तो केवली-बीतरागी का किया जाता यत: पमूतं पात्मा में हमारी गति नही है प्रादि । हम है-केवली के गुणों का किया जाता है। परमार्थ सेशानी मृतकप प्रतिकृति के पाधार, प्रेरणा पाते हैं मोर वीतराग पुरुष, निमित्त के माश्रित होते भी मक्य बिन्दु केबलीकी वीतरागमा द्वारा प्रारमा का मनन-चितवन करते हैं। वीतरागी को ही बनाता है। क्योंकि-बीतराग के द्वारा
बाहुबली कामदेव थे, उनका दिव्य-शरीर स्वस्थ हो वीतरागता प्राप्त की जा सकती है। शरीर के गुणों सुडौल और अनुपम था, उन्होंने अपने स्वाभिमान को ठेस का वर्णन करने केवमी-बीतरागी की स्तुति नहीं महीपावी पर, क्या? बीतराग धर्म की दष्टि में उक्त होती
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४२,
७, कि०४
'जयरम्मिणिबहनदि रमोबण्णणा कवा होवि से सफल रहा। ऐसे निमित्त भाग्य से ही मिलते है। हमले पते केवलिगुणा पवा होति ॥
ऐसे व्यबहारी प्रसग जनसाधारण के लिए पूण्य बन्ध में
-समयसार, ३० विशेष सहायक हो सकते है और व्यवहारियों का मार्ग भो जैसे नगर का वर्णन करने पर राजा का वर्णन किया नहीं यहा
ववहार देसिदा पुण जेदु प्रपरमे ठिबा भावे।' होता, उसी तरह देह के गुणों का स्तवन होने से केवली
जो जीव प्रपर भाव में है प्रति श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र के के गुण स्तवन रूप किए नहीं होते ।
पूर्ण भाव को नहीं पहुंच सके है, साधक अवस्था में ही उक्त प्रकाश में स्पष्ट है कि भ० बाहुबली की मूर्ति
स्थित है, वे व्यवहार द्वारा ही उपदेश योग्य है । मोर ये हमारा ध्येय लक्ष्य नही, वह तो मात्र निमित्त (माघार)
सब जो उपक्रम है, सब व्यवहार ही है--प्रर्थात् प्रस्तुत रूप है, वह कुछ करती नहीं, कर सकती नहीं, अपितु
प्रसग मे मब पुण्य ही है । उसके माधार से सब कुछ हमी को करना है। प्राइए, हम
वास्तव मे-निश्चय शुद्धरूप से तो बाहुबली स्वामी बाहबली के अन्य रूपों मे मोहित न हो, उनके जीवन से
की मुद्रा का प्रवलम्बन-निमित्त प्राप्त करने से जीव पाश्म-जागमिमीखें-मतिमात्र में ही अपने को न खो दें।
परम्परित समार के पार का मार्ग ढ सकेगे। अनुभव कहने को वर्तमान युग खोज का युग है । लोग खोजो
तो उनका अपना ही होगा :में लगे है भौतिक पदार्थों की। वे खोज रहे है एटमशक्ति
'मादा खु मज्झ जाणे अावा मे बंमणे चरित। को, नक्षत्रों के घरों को। कोई खोज रहे है प्रस्तरखण्डों
मावा पच्चक्खाणे मादा मे संबरे जोगे ।' पौर प्रन्यों में अपनी प्राचीनता को। भला, अध्यात्म में
ये सब जो बाह्य मे कहे जाने वाले दर्शन-ज्ञान चारित्र, भी कोई खोजने की वस्तुयें है। जैन मान्यतानुसार तो
प्रत्याख्यान, संवर योग मादिक है, वे भी सब वास्तव में अन्य ये सब अनादि है-पुद्गल खण्ड है पोर इनमे परिवर्तन
कुछ नही-प्रास्मरूप ही है। बहिरग तो मात्र व्यवहार चलता रहता है। ये सभी पात्मा से भिन्न-स्वतन्त्र द्रध्य
भिन्न-स्वतन्त्र द्रव्य है और यह व्यवहार मेरे शुद्ध स्वरूप में प्रयोजनी भूत नही है. प्रात्मा से इनका या इनसे प्रात्मा का कोई बिगाड़- है। जहां तक
: काइ बिगाड़ है। जहां तक मन-वचन काय की प्रवृत्ति का प्रश्न है वह सधार नही। पदार्थ स्व-चतुष्टय की अपेक्षा अपने मे ही प्रास्तब की कारणभूत ही है और अन्ततोगत्वा प्रानव ससार विद्यमान रहता है। ऐसे में जब हमे बाहुबली भगवान को को परिपाटी ही है। मोक्ष के साधनभूत तो केवल शुद्ध निमित मान कर अपने को खोजना है तब इन पर-कथाम्रो एकाकी-प्रात्म-भाव-बीतगगता मात्र है, जिसमें प्रास्त्रव. की वास्तविक उपयोगिता कोई नही।
बंध नही । इसीलिए ज्ञानी जीव की प्रवृत्ति ज्ञानमयो होती व्यवहार दृष्टि से माज जिस सहस्राब्दि महामस्तका- है-वह प्रात्मा-परिणामो का चितवन करता है पोर भिषेक का प्रसग है उसमें मुनिश्री विद्यानन्द जी का प्रमुख उसके लिए अन्य सब बाह्य-निमित्त बाह्य ही होते है - वह हाय है। २५००वां निर्वाण उत्सव भी इन्हीं की कर्मठता उनमे लीन नही होता । जैनागमों का सार भी यही है कि
(पृष्ठ ४० का शेषांश) कुछ भी हो, यह स्पष्ट है कि गोम्मट सस्कृत के 'मन्मथ' भाषा के कवि पप कृत 'प्रादि-पुराण-८६५२-५३) में, शब्द का तद्भव रूप है पोर यह कामदेव का द्योतक है। चामुडपराय पुराण में भी उनको कामदेव कहा गया है।
अब एक प्रश्न उठता है कि बाहुबलि की विशाल श्रवणबेलगोल के न० २३४ (सन् १९८०) के मूर्ति 'मम्मप' या कामदेव क्यो कहलायो? क्या बाहबलि शिलालेख मे भी उनको कामदेव कहा गया है। इसलिए कामदेव कहलाते थे? इसके उत्तर में कहना होगा-हो। श्रवण-बेल्गोल मे या अन्यत्र स्थापित उनकी विशाल जैनधर्मानुसार बाहुबलि इस युग के प्रथम कामदेव माने मतिया उसके (मम्मय के) तद्भवरूप 'गोम्मट' नाम से गये है। सस्कृत भाषा के 'मादि-पुराण' (१६९) मे, कन्नड प्रस्यात हुई है।
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में पापमान
पापा-पर की पहिचान पूर्वक पात्म-लाभ का उद्यम करे। वास्तव में जिस जीव के परमाण मात्र-लेशमात्र भी
व्यवहारत: जैनागम प्रथमानुयोग, करणानुयोग, रागादिक वर्तता है, वह जीव भले ही सर्वागम का पारी चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग इन चार अनुयोगो मे हो तथापि प्रात्मा को न जानता हमा वह मनात्मा को भी विभक्त है। इसमे कथाएँ है, लोक तथा जीवो के नहीं जानता। इस प्रकार जो जीव और मजीव को नहीं विविध भावो का वर्णन है, प्राचार-विधि है भौर षट्- जानता वह सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है ? जो चेतयिता द्रव्यो का विस्तृत विवेचन है। पर, इस सब विविध कर्मों के फलों के प्रति तथा सर्व धर्म के प्रति कांक्षा नहीं प्रक्रिया मे मूलभूत प्रयोजन मात्र एक ही है-मात्म-करता उसको निष्काम सम्यग्दृष्टि जानना चाहिये। क्योंकि निरीक्षण, परीक्षण द्वारा प्रात्मावलोकन करना। यदि इतने सम्यग्दष्टि टकात्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयता के कारण सभी बड़े महामस्तकाभिषेक का उपक्रम कर भी हम प्रात्म-लाभ कर्मफलो के प्रति तथा समस्त वस्तु धर्मों के प्रति कांक्षा का न करें-ससार को ही बढ़ाएँ और बाहरी उठा-धरी में ही प्रभाव होने से निष्काक्ष है। लगे रहें तो इससे बड़ा हमारा दुर्भाग्य क्या होगा, कि इन स्वामी बाहुबली मे जब राग पौर कांक्षा का प्रभाव महापुरुष के पुण्यस्मरण को भी हम ससार में ही खोदें। हुपा, तभी उन्हें भगवान पद मिल सका । यद्यपि पागमा.
कहने को सभी कहते है कि एक दिन मरण निश्चित नुसार उन्हे मिथ्यात्वरूप कोई शल्य नहीं थी तथापि जितने है, सब यही छट जायगा, मैं किसी का नही और कोई काल उनके परिणाम भरत पोर या अन्य किसी के प्रति मेरा नही। पर, इस सब कथनी पर बाहबली की भाति विद्यमान रहे-उन्हे दीक्षित होने वलम्बी तपस्या के कितने अमल करते हैं, यह देखना है ? जसे हम कितने बावजूद भी, केवलज्ञान न हो सका। अतः सबसे बड़ी पौष्टिक पदार्थो का और कितने परिमाण मे सेवन करते मावश्यकता इस बात की है कि हम प्रस्तुत महामस्तकाहै ? इसका मूल्य नहो । मूल्य उतने मात्र का है भिषेक के बहाने अशुभ से निवृत्ति कर शुभ-संकल्प लें और जितने पदार्थ हम सुखद-रीति से पा पाते है। वैसे ही क्रमश. उन शुभो के भी त्याग का विकल्प रखें। यही न बाह्य में हम कितना क्या करते हैं ? इसका मूल्य नही। वस्तु की शुद्ध विचार श्रेणी है-जिसे हमे प्राप्त करना। मूल्य उस तथ्य का है जिसे हम अपने अन्तर मे उतार लेते क्योकि हम अनादि से संसार भ्रमण मे व्यवहाररूप में हैं। यदि हम इस दृष्टि को लेकर चलग तो हमारा भ. सुखी भोर दुखी होते रहे है-पौर होते रहेंगे-कोई नई बाहुबली के प्रति सच्चा प्रादर-भाव होगा और उनके बात नही । हमे तो 'जो सुख भाकर न जाए' उस सुखको महामस्तकाभिषेक का उपक्रम सार्थक होगा।
प्राप्त करना है मोर सुख को परिभाषा भी यही है। माशा जैन दर्शन में राग का नहीं विराग का, प्रवृत्ति का है भव्य जीव इस पुण्य अवसर से लाभ उठाएंगे पोर पर नही नित्ति का मूल्य है। भ० बाहबली ने ऐमा हो किया। को भार बढ़ेंगे। जरा विचारिए -क्या हम इन दष्टियों में ख उतरने का भ० बाहुबली वर्ष तक पडिग रहे, उम पर लताएँ किचित् भी प्रयत्न करते है ? क्या हम बाह्य दुव्यादि का चढ़ गई, दोमको ने बामियो बना ली, उनमें सपं रखने त्याग करके भी प्रकारान्तर से उसकी संभाल मे ही तो लगे। क्या इसका मूल्य है या ये ध्यानमग्न रहे इसका मूल्य नहीं लगे हैं ? हम पापो से निवृत्ति कर किन्ही बहानो से है ? ये गम्भीर प्रश्न है, जिसका उत्तर हमें सोचना है। सर्वथा-पुण्य प्रवृत्तियो मे ही लोन होना तो नहीं चाहते? प्रध्यात्मदृष्टि मे तो ये सब कुछ उपादेय नही चलेगा। हमारा त्याग नि:काक्षित तो है मादि । शास्त्रो मे तो वहां तो वह वात्म-ध्यान ही ग्राह्य होगा जिसन भरत.
मनुज बाहुबली को साधक से सिना बिया, उनको 'परमाणु मित्तय पि रायावीणं तु विज्जवे बस्त ।
ससार से मुक्त करा दिया और जिस सबमें मूल निमित्त वि सो जाणवि अप्पाणं तु सबागमधरोनि ।' थी उनकी उत्कट अन्तरग भावना'बोदुनकरेवि सं कम्मलेसु तह सम्बषम्मेसु ।
'मैं रहं भापमे माप लीन।' सो निक्कसो वा सम्माविट्रो मुयम्बो।।'
-वीरसेवामदिर, २१ दरियागज, नई दिल्ली-२
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श्री गोम्मटेश संस्तवन
श्री नाथूराम डोंगरीय जैन, न्यायतीर्य 'अवनीन्द्र', इन्दौर पिरमपूज्य आचार्य श्रीमन्नेमिचन्द्र सिद्धातचक्रवर्ती विरचित प्राकृत गोम्मटेस थुदि के आचार्य श्री विद्यानद जी महाराज कृत हिदो गद्यानुवाद पर आधारित पद्यानुवाद]
शत-शत बार विनम्र प्रणाम ! विकसित नील कमल दल सम है जिनके सुन्दर नेत्र विशाल । शरदचन्द्र शरमाता जिनकी निरख शात छवि, उन्नत भाल। चम्पक पूष्प लजाता लख कर ललित नासिका सुषमा धाम । विश्ववंद्य उन गोम्मटेश प्रति शत-शत बार विनम्र प्रणाम ॥१॥
पय सम विमल कपोल, झूलते कर्ण कध पर्यत नितान्त । सौम्य, सातिशय, सहज शांतिप्रद वीतराग मुद्राति प्रशांत । हस्तिशुड सम सबल भुजाएँ बन कृतकृत्य करें विश्राम ।
विश्वप्रेम उन गोम्मटेश प्रति शत-शत बार विनम्र प्रणाम ।।२।। दिव्य संख सौदर्य विजयिनी ग्रीवा जिनकी भव्य विशाल । दढ़ स्कध लख हआ पराजित हिमगिरि का भी उन्नत भाल । जग जन मन आकर्षित करती कटि सुपुष्ट जिनकी अभिराम । विश्ववंद्य उन गोम्मटेश प्रति शत-शत बार विनम्र प्रणाम ॥३॥
विध्याचल के उच्च शिखर पर हीरक ज्यों दमके जिन भाव । तपःपूत सर्वाग मुखद है आत्मलीन जो देव विशाल । वर विराग प्रसाद शिखामणि, भुवन शातिप्रद चन्द्र ललाम ।
विश्ववंद्य उन गोम्मटेश प्रति शत-शत बार विनम्र प्रणाम ॥४॥ निर्भय बन बल्लरियाँ लिपटी पाकर जिनकी शरण उदार । भव्य जनो को सहज सुखद है कल्पवृक्ष सम सुख दातार । देवेन्द्रों द्वारा अचित है जिन पादारविद अभिराम । विश्ववद्य उन गोम्मटेश प्रति शत-शत बार विनम्र प्रणाम ।।।।
निप्कलंक निर्गथ दिगम्बर भय भ्रमादि परिमूक्त नितांत । अम्बरादि-आसक्ति विजित निविकार योगीन्द्र प्रशांत । सिंह-स्याल-शडाल-व्यालकृत उपसर्गों में अटल अकाम ।
विश्ववंद्य उन गोम्मटेश प्रति शत-शत बार विनम्र प्रणाम ॥६॥ जिनकी सम्यग्दृष्टि विमल है आशा-अभिलाषा परिहीन । संसृति-मुख बाँछा से विरहित, दोष मूल अरि मोह विहीन बन संपुष्ट विरागभाव से लिया भरत प्रति पूर्ण विराम । विश्ववंद्य उन गोम्मटेश प्रति शत-शत बार विनम्र प्रणाम ॥७॥
अंतरंग-बहिरंग-संग धन धाम बिवजित विभु संभ्रांत । समभावी, मदमोह-रागजित कामक्रोधउन्मूक्त नितांत । किया वर्ष उपवास मौन रह बाहबलो चरितार्थ सुनाम । विश्ववंद्य उन गोम्मटेश प्रति शत-शत बार विनम्र प्रणाम ।।
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भगवान् गोम्मटेश्वर की प्रतिमा का माप
D श्री कुन्दनलाल जैन, दिल्ली
भ० गोमद स्वामी को प्रतिमा १३ मार्च सन् १८१ सो मशीनो का सर्वथा प्रभाव था तथा स्थापत्य कला एवं ई० मे मंसूर नरेश राचमल्ल के प्रधान सेनापति श्री मूर्तिकला जैसी माधुनिक शिल्प सुविधापों का सर्वथा प्रभाव चामण्डराय ने अपनी मातु श्री के दर्शनार्थ निमित कराई था उस सक्रातिकाल मे ऐमी विशाल प्रतिमा, सर्वागीण घो। पाज से ठीक हजार वर्ष पूर्व यह अपूर्व कलाकृति कसे सुन्दर एवं समचतुरस्र संस्थान वाली उच्चकोटि को ऐसी मिमित हई होगी, यह अपने प्राप मे एक महान पाश्चर्य महान कलाकृति का निर्माण कर भारतीय शिल्पियों ने की बात है या देवी अनुकम्पा कहना चाहिए। इसके प्रमुख निश्चय ही भारतीय मूर्ति निर्माण एवं शिल्पकला के शिल्पी श्री त्यागद ब्रह्मदेव थे ।
इतिहास में स्वर्णमय पृष्ठ अंकित कर दिए हैं ! धन्य हैं वे संसार मे ताजमहल, ईजिप्ट (मित्र) के पिरामिह शिल्पी मोर घन्य है उनको शिल्प विज्ञता, जिनके सहए मादि सात प्रद्भुत (Seven Wonders) प्रसिद्ध हैं पर सुघड हाथों से एव अपने कलावान् छनी हपौड़ों से ऐसे बडे खेद की बात है कि हमारे प्रचार के प्रभाव में सुन्दर विराट स्वरूप को उत्कीर्ण किया पौर विश्व को ऐसी प्रथवा जाति धर्मगत भेदभाव एव द्वेष के कारण इस पपूर्व अनुपम सर्वोत्कृष्ट कलाकृति भेंट की जो अपने वैशिष्ट्य कलाकृति की विशेषज्ञों ने परवाह ही नही की अन्यथा यह एव सौन्दर्य तथा कलात्मकता के लिए संपूर्ण विश्व मे बहे सात प्रदभनों में अवश्य ही सम्मिलित की जाती। अब anter मा जी aurat जब विदेशी पर्यटक प्राते है और इस अनुपम कलाकृति के उपर्युक्त प्रतिमा को निमित हुए हजार वर्ष हो रहे हैं दर्शन करते हैं तो भाव विभोर हो उठते है पोर भारतीय फरवरी १९८१ मे इस मूति का हजारवां वर्ष बड़े समारोह शिल्पियो की शिल्पकला को प्रशसा एव सराहना करते के साथ मनाया जा रहा है और सदा की भांति महाहुए नहीं प्रघाते है।
मस्तकाभिषेक भी होगा और सुना है प्रथम कला भारत फरवरी १९८१ मे इस कलाकृति का हजारवा वर्ष की प्रधानमत्री श्रीमती इदिरागाधी भर्पित करेंगी (ढोरेगी) बडे समारोह से सम्पन्न किया जा रहा है इस अवसर पर यह महामस्तकाभिषेक इस युग की एक महनीय प्रभत देश-विदेश के प्रनेको दर्शनार्थी पधारेंगे सम्भवत: सयुक्तराष्ट्र घटना सिद्ध होगी जबकि ससार की प्राधुनिक सारी संघ के विशेषज्ञ भी पावें हमारी प्रधानमन्त्री भी पहचेंगी। वज्ञानिक उपलब्धिया इसक पागे सर्वथा तुच्छ और नगण्य मेरा सझाव है तथा जैन समाज से अनुरोध है कि भारत सिद्ध होगी। सरकार के शिक्षा एवं सास्कृतिक मंत्रालय के माध्यम से उपयुक्त प्रतिमा का माप विभिन्न विद्वानों ने विमान मयक्त राष्ट्र संघके शिक्षा सांस्कृतिक विभाग द्वारा प्रकार से दिया है। सर्व प्रथम प्राचीन विदेशी मूर्ति ( UNFSCO) इसे (Seven Wonders) मे सम्मिलित विशेषज्ञ डा. बुबनन ने इसकी ऊचाई ७० फीट ३ इंच कर Richt Wonders (पाठ पदभत) के रूप में इस लिखो है। इसके बाद सर प्रार्थर बेन्जली ने हमकी ऊंचाई कलाकृति को सम्मिलित किया जावे। यह एक महत्वपूर्ण ६० फी० ३० लिखी है। सन् १८६५ में मैसूर राज्य उपलब्धि जैन समाज के लिए होगी!
के तत्कालीन चीफ कमिश्नर श्री वोग्गि ने इस प्रतिमा का उस युग मे जब कि माधुनिक वैज्ञानिक उपलब्धियां ठीक-ठोक माप कगकर केवल ५७ फी० ही लिया है। सन मीथीं यातायात के साधन सीमित और धीमेथेन १८७१ मे महामस्तकाभिषेक के समय मैसूर के सरकारी
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बनेकान्त
अफसरों ने इस प्रतिमा के प्रत्येक भाग का नाप लिया था
पश्चाद्भुजबलीशस्य तियंग्भागोस्ति कर्णयोः। जो निम्न प्रकार है
प्रष्टहस्तप्रमोछायःप्रमाकृभिः प्रकीर्तित ॥५॥ चरण से कर्ण के प्रधोभाग तक ५० फो। कर्ण
सोनन्देः परितः कष्ठ तिर्यगस्ति मनोहरम् । प्रधोभाग से मस्तक तक लगभग ६ फीट ६ इ०। परण
पादत्रयाधिक दशहस्तप्रमिनदीर्घतर ॥६॥ की लम्बाई फी० । चरण के अग्रभाग की चौडाई ४ फी० सुनन्दातनुजस्यास्ति पुरस्तात्कण्ठ रुच्छयः । ६ इन। चरण का प्रमुष्ठ २ फो.6 इंच। पाद पृष्ठ के पादत्रयाधिक्य युक्त हस्त प्रमिति निश्चयः ॥७॥ ऊपर की गुलाई ६ फो० ४ इच । जघा की मर्घ गुलाई भगवद्गोमटेशस्यासयोरन्तरमस्य वै । १० फो० । नितम्ब से कर्ण तक २० फो० । नाभि के नीचे तिर्यगायतिरस्यैव खलु षोडश हस्तमा ॥६॥ उबर की चौडाई १३ फो० । कटि की चोड़ाई १० फो० । वसश्चचुक सलक्ष्य रेखा द्वितय दीघता। कटि और टेहुनी से कणं तक ७ फो। वक्षस्थल की चौड़ाई नवांगुलाधिक्ययुक्त चतुर्हस्तप्रमेशितुः || २६ फीट । ग्रीवा के प्रधोभाग से कर्ण तक २ फी० ६ इंच। परितोमध्यमेतस्य परोतत्वेन विस्तृतः । तर्जनी की लम्बाई ३ फी० ६ इच। मध्यमा का लम्बाई प्रस्ति विशतिहस्ताना प्रमाण दाबलोशिन.॥१०॥ ५ फी० ३ इ० । मनामिका की लम्बाई ४ की. ७६० । मध्यमांगुलिपर्यन्त स्कन्धाद्दोघत्वमीशितुः। कनिष्ठिका की लबाई २ को ८ इ० ।
बाहयुग्मस्य पादाम्या युताष्टादश हस्त मा॥११॥ पर इससे भी अधिक प्रामाणिक नाप हमे 'सरस जन
मणिबन्धस्यास्य तियंपरीतत्वासमन्तत.। चिन्तामणि' काव्य के कर्ता कवि चक्रवर्ती पंडित शान्तराज
द्विपादाधिक षडहस्त प्रमाण परिगण्यते ॥१२॥ द्वारा निर्मित १६ इलाको स प्राप्त होता है जो निम्न
हस्तागुष्ठोच्छयोस्त्यस्य कागुष्ठात्यद्विहस्त मा। प्रकार है। यह नाप पाडत शान्तराज जी ने पद से लगभग
लक्ष्यते गोम्मटेशस्य जगदाश्चर्यकारिणः ॥१३॥ सौ वर्ष पूर्व सन् १८२५ म तत्कालीन मंसूर नरेश
पादागुष्ठस्यास्य देय द्विपादाधिकता भुजः । कृष्णराज पोडयर तृतीय के पादेश पर किया था यह नाप
चतुष्टयस्य हस्ताना प्रणामिति निश्चिनम् ॥१८॥ हस्त और अंगुलो मे है जो पूर्णतया प्रामाणिक है माज भी
दिव्य श्रीपाद दीर्घत्वं भगवद्गोमटेशिनः । प्रत्येक भाग श्लोक मे वणित हस्त और अगुलो में बिल्कुल
सैकांगुल चतुहंस्त प्रमाणमिति दणितम् ॥१५॥ ठीक-ठीक उतरता है केवल चरण के अंगुष्ठ में कुछ पतर
श्रीमत्कृष्णन साल कारित महाससक पूजोत्सवे, है। विशान्तराज द्वारा निमित २ श्लोक निम्न प्रकार है। शिष्टया तस्य कटाक्षरोचिर मृत स्नातन शान्तेन । जयति बेलुगुल श्री गोमटेशस्य मतिः,
पानीत कवि चक्रवयु कतर श्री शान्त र जेन तद, परिमितिमधुनामहच्मि सर्वत्र हर्षात ।
बोक्ष्यस्थ परिमाण लक्षणमिहाकारीदमेतद्विभोः ॥१६॥ स्व समय जनाना भावनादेशनार्थम्,
उपर्युक्त पं० शान्तराजकृत १६ श्लोको का सारांश पर समय जनानामभृतार्थ च साक्षात् ॥१॥
निम्न प्रकार हैपादान्मस्तकमध्यदेश चरम पादाचं युग्मात्त षट्,
चरण से मस्तक तक ३६ हस्त । चरण से नाभि तक विसहस्तमिताच्छयास्तिहिं यथा श्री दो लिस्वामिनः । २० हस्त । नाभि से मस्तक तक १६. हस्त । चिवक से पावविशतिहस्तसन्निमिति भ्यन्त मस्त्युच्छय,
मस्तक तक ६ हस्त ३ अगुल । कण को लबाई२४ हस्त ! पादान्वित षोरशोच्छय भरो नाभेशिशरोरान्त वा ॥२॥ एक कर्ण से दूसरे कर्ण तक चोड़ाई ८ हस्त। गले की
अबुकन्मूर्षपर्यन्त श्रीमहाबलोशिन; गुलाई १०.३/४ हस्त । गले की लंबाई १-३/४ हस्त/एक प्रस्त्यगुलित्रयो युक्तहस्तषट्कप्रमोचयः ॥३॥ को से दूसरे तक चोड़ाई १६ हाथ। स्तनमुख की पादत्रयाधिक्य युयुक्त दिहस्त प्रमितामयः । मोस रेसा ४ हस्त । कटि को गुलाई २० हस्त । कन्धे से प्रत्येक कर्णयोरस्ति भगवहोलीशिनः ॥४॥ मध्यमा मंगुली तक १८-१/२ हतस्त । कलाई की गुलाई
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भगवान गोम्मटेश्वर की प्रतिमा का माप
६.१/४ हस्त । अगुष्ठ की लम्बाई २.१/४ हस्त । चरण क्षमा करेंगे और यदि कही कोई त्रुटि हो तो मुझे अवगत का अंगुष्ठ ४.१/२ (१) चरण की लम्बाई ४ हस्त । अंगुल। कराने की महती अनुकम्पा करें मैं पति अनुग्रहीत होऊंगा।
उपर्युक्त विभिन्न नापों में पं० शान्तराज का मार सिस्टर एषानन के अनुसार यह २१ मी. पर से है। श्री बहुत अधिक प्रामाणिक और ऐतिहासिक है अब प्रावश्यकता पार्थर वेल्सली के अनुमार १८ मी० ३६ सें. है। मि. है। इसे मीटर प्रौर , मेंटीमीटरों में बदलने की जिससे ___ वोरिंग के अनुसार १७ मो० ३७ सं० है। डा० जैनेन्द्र माधुनिक गणित विशेषज्ञ इस प्रतिमा की निर्माण पद्धति से जैन इंदौर के अनुसार १७ मी० २ से है और पं० शान्त परिचित हो सके और उन शिल्पियो और कलाकार के राज के अनुसार १६ मी० ६, से निकलती है। गणित ज्ञान को सराह मके जिन्होंने मति के समचतुरन कि मि. वोरिंग १८६५ का माप प्राय: प्रचलित है निर्माण में कही भी त्रुटि नहीं की और जो भाग जिस इसलिए उनके अनुमार विभिन्न अंगों का माप मोटर जगह जितना लंबा-चौडा, ऊँचा-मोटा होना चाहिए पा सेंटीमीटर मे निम्न प्रकार है। चरण से कर्ण के पषोभाग उसे उतना ही रखा उममे रंच मात्र भी अंतर नहीं माने तक १५ मी० २४ से० । कर्ण के प्रधोभाग से मस्तक तक दिया। पोर मति की सुघडाई एवं मौन्दर्य में तनिक सी भी लगभग १ मो०१८ से० । चरण की लम्बाई २ मी. पटि नहीं प्राने दी। अन्यथा मनुष्य तो भूलो का पुतला है ७४ से। चरण के अग्रभाग की चौडाई १ मी० ३७ से। कही भी भूल हो सकती थी पर इसे देवी अनुकम्पा और प्रभु चरण का अंगुष्ठ ८४ से० । पादपृष्ठ को ऊपर की गुलाई का वरदान समझना चाहिए और शिपियो की भगवद्भक्ति १ मी ६३ से। जघा की प्रर्घ गुलाई ३ मी० ५ से। एवं मनोयोग पूर्वक की गई साधना और तपस्या ही उन्हे नितम्ब से वणं तक ७ मी०४७ से। पृष्ठ पस्थिके इम शुभ कार्य में सफलता दिला सकी। मोर वे शिल्पी अधोभाग से कणं तक ६ मो० १. से। मानि ग्राज हजार वर्ष बाद भी कोटि-कोटि जनों के बंदनीय है के नीचे उदर की चौड़ाई ३ मी० पौर भविष्य में भी जब तक भ. बाहुबली की प्रतिमा कटि की चौड़ाई ३ मी० ०५ से० । कटि पोर विद्यमान रहेगी वे गिल्पो कोटिशः वन्दनीय रहेंगेमोर भारत टेहुनी से कणं तक ५ मो० १८ से० । बार मल का मति निर्माण का इतिहास उन्हे कदापि न भुला सकेगा। से कर्ण तक २ मी० १३ मे० । वक्षस्थल की घोडाई ७
उपर्यक्ल पं० शान्त गज के हस्त एवं प्रांगुल माप को मो० ९२ से० । ग्रीवा के मधोभाग में कर्ण तक ७६ से। फट इंच मे बदलने के लिए १८ इच का (हस्त) तथा तर्जनी को लम्बाई १ मी. ०७ स० । मध्यमा की लम्बाई १.४ अंगुल का एक इंच यदि मान लें तो करीब-करीब १मी०६० से० । प्रनामिका की लम्बाई १ मी. ४.से. प्रतिमा की ऊंचाई का मेल खा जाता है। प्रभी डा.जमेन्द्र कनिष्ठिका की लम्बाई ५१ से० । जैन इन्दोर ने साप्ताहिक हिन्दुस्तान के वर्ष ३१ अंक में
इतने पर भी मेरा विश्वास प. शान्तराज के माप (७ मे १३ दिसवर ८०) में बावनगजा का लेख लिखते पर प्रषिक है प्रत: उस कोई गणित विशेषज्ञ विद्वान मौ० हुए इस प्रतिमा की ऊचाई १७.२ मीटर दी हुई है पं० से.में परिवर्तित कर नई पीढ़ी के लिए विशेष मार्गदर्शन शान्तराज के अनुसार इसकी ऊंचाई १६.६६६ मीटर करेगा। मैं श्री लखमीचंद जी सीहोर से अनुरोध करूंगा निकलती है बहरहाल पुरातत्व विदों से पनुरोध है कि इस कि वे इस कार्य को सुगमता से कर सकेंगे। वर्ष में इस प्रतिमा का स्टेन्ड माप प्राचीन मापों का अंत: मैं इस लेख के लिए स्व.हा. हीरालाल बी तुलनात्मक अध्ययन कर सृनि हिचत अवश्य ही करमा
मागपुर का प्राभारी हूं जिनके द्वारा मकलित सामपीका पाहिए जिमसे पाने वाली भावी पीढ़ी किसी तरह के प्रम
000 मेन रहें। मैंने विभिन्न मापों को मीटर सेंटीमीटर मे
श्रुतकुटीर, ६८ कुम्ती मार्ग, बावल का जो दुस्साहस किया है उसे सुविज्ञ सुधी पाठक
विश्वासनगर, शाहदरा दिल्ली-११००३२
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बाहुबली : स्वतन्त्र चेतना का हस्ताक्षर
0 युवाचार्य महाप्रज्ञ
श्रवणबेलगोला मे भगवान बाहुबली की विशाल सेनापति ने विनम्र स्वर मे कहा-'सम्राट, मैं नहीं प्रतिमा एक प्रश्नचिह्न है और एक अनुचरित कहता, वह प्रवरोष पैदा करेगा। यह मैं कह सकता ह प्रश्न का समाधान भी है। क्या मनुष्य शरीर इतना चकमायुधशाला में प्रवेश नहीं कर रहा है? उसका विशाल हो सकता है ? हजारो-हजारों वर्ष पहले कोई कारण बाहुबली का पापके चक्रवतित्व मे विश्वास न होना मौर मण्डल का ऐसा प्रभाव रहा होगा, मनुष्य ने विशाल ही है। शरीर पाया होगा। उसकी पुष्टि में प्रभी कोई तर्क
भरत ने सेनापति से विमर्श कर बाहुबली के पास प्रस्तुत नही करना है। वर्तमान की ममस्या का वर्तमान
अपने दूत को भेजा। दूत तक्षशिला मे पहच बाहुबली के
सामने उपस्थित हो गया। बावली ने भरत का कुशल उपकरण मनुष्य को अन्तरात्मा का प्रतिनिधित्व करते हैं। और
रत है। क्षेम पूछा । दूत बाहुबली के तेज से अभिभूत हो गया।
वह मोन रहा। कहना चाहते हुए भी कुछ न कह पाया। प्रस्तरात्मा की विशालता में खोजा जा सकता है। बाहबली ने उसकी प्राकृति को पढ़ा। स्वय बोले-"भाई स्वाभिमान, सतन्त्रता भोर त्याग की विशालता मे बाहु. भरत में मोर मुझ मे प्राज प्रेम और सोहार्द है पर क्या बली प्रसाधारण है। यह विशाल प्रतिमा उसी विशाल करें? हम दोनो के बीच देशान्तर प्रा गया जिस प्रकार व्यक्तित्व का एक प्राण वान दर्शन है।
प्रेम से भीगी हुई पाखों के बीच नाक पा जाता है दूत ! भरत दिग्विजय कर अपनी राजधानी प्रयोध्या में पहले मैं भाई के बिना महत भर भी नही रहा सकता पहुचा। मेनापति सुषेण न कहा, "चक्र प्रायुधशाला में था। किन्तु प्राज मेरी माखे उसे देखने को प्यासी है। वे प्रवेश नही कर रहा है।" भरत ने जिज्ञासा के स्वर मे उपवास कर रही है। उसे देख नही पा रही है। इसलिए कहा- 'क्या कोई राजा प्रभी बचा है, जो भयोध्या के ये दिन मेरे व्ययं बीत रहे हैं। मैं उस प्रीति को स्वीकार अनुशासन को शिरोधार्य न करे? सेनापति बोला- नहीं करता जिसमे विरह होता है। यदि हम वियक्त "कोई बचा है इसीलिए चक्र आयुषशाला में प्रवेश नही होकर भी जी रहे है तो इसे प्रीति नही रोति ही समझना कर रहा है" कौन बचा है वह ? अपनी स्मति पर दबाव चाहिए"-दूत बाहुबली की बातें मुन पुलकित हो उठा। डालते हुए भरत ने कहा । सेनापति फिर भी मौन रहा। उसने सोचा -मुझे भरत का सन्देश बाहुबली को देना हो भरत को उसका मोन अच्छा नही लगा। उसने झंझलाहट नही पड़ा। यह भरत से प्यार करता है। मुझे पूरा के साथ कहा- लगता है, तुम मुझ से कुछ छिपा रहे विश्वास है कि मुझे अकेला नही लौटना पड़ेगा। मैं हो। तुम सकुचा रहे हो । मौन भग नही कर रहे हो"। बाहुबली के साथ ही भरत के चरणो मे उपस्थित होऊंगा। सेनापति बोला-"क्या कहू ? समस्या पर की है। पराए दूत नहीं जानता था कि प्रेम और स्वतन्त्रता दोनो अलगसब राजे जीत लिए गये हैं। कोई बाकी बचा है तो वह अलग हैं। बाहुबली प्रेम करना जानता है, पर स्वतन्त्रता अपना ही है" 'क्या बाहुबली बचा है" भरत के मुख से को बेचना नहीं। बाहुबली ने दूत के स्वप्न को भग करते अचानक यह नाम निकल गया। "मेरा वह भाई है। फिर हुए कहा "दूत, पिताश्री ने मुझे एक स्वतन्त्र राज्य सौंपा वह कैसे अवरोष पैदा करेगा मेरे चक्रवर्ती होने मे? है, इसलिए मैं मायोध्या जा नहीं सकता। मेरा हृदय यहां
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बाहुबली : स्वतन्त्रतमाका हस्ताभर
जाने के लिए वैसे ही उत्कंठित है, जैसे रात के समय होने दंगा। मैं उनकी भांति सीधानहीं, पपना पराकम पकवा कवी से मिलने के लिए उत्कठित रहता है। दिखाने के बाद जाऊंगा । दूत | तुम शीघ्र जामो पीर दूत! तुम बोलो, मौन क्यों बैठे हो? भरत ने तुमको भरत से कहो-हम अपनी मर्यादा कालोपन करें। यदि किस लिए यहां भेजा है, उसे स्पष्ट करो" । बाहुबली की तुमने युर लाद दिया तो में पीछे नहीं रहूंगा। जय वाणी से दूत कुछ प्राण-संचार हुप्रा वह साहस बटोर कर पराजय की कथा दुनिया कहेगी। में संघर्ष में नहीं बोला -"महाराज ! पापको पता है प्रापके भाई भरत बड़ाता। मुझे केवल एक ही चिन्ता है कि भगवान दिग्विजय कर अयोध्या लौट चुके हैं। उनकी सभा मे ऋषम ने सारे संसार को मर्यादा, व्यवस्था और अनुशासन संसार के सभी राजे है वे सभी सम्राट के सामने का पाठ पढ़ाया। हम दोनों युद्ध में उतरेंगे तो लोग क्या नतमस्तक है, सम्राट को प्राज्ञा को शिरोधार्य किए हुए कहेंगे। इतिहास लिखा जाएगा, भगवान ने व्यवस्था दी हैं। उनकी उपस्थिति में प्रापकी अनुपस्थिति मम्राट को और उनके पुत्रों ने ही सबसे पहले उस व्यवस्था को बल रही है। वे चाहते है पाप उम महापरिषद में तोड़ा। भाई-भाई को लड़ाई के लिए भरत-बाहबली की उपस्थित हों उनकी प्राज्ञा शिरोधार्य करें"। परामर्श मांगे लहाई उदाहरण बन जाएगी। बिना ही दूत प्रपना परामर्श दे बैठा - "मम्राट ने जो दूत हतप्रभ हो बाहुबली की उदात्त वाणीको सुनता कहलाया है, उसे मैं भी उचित मानता हूं। पापके हित रहा। वह बाहुबली से विदा ले मरत के पास पहुंच गया। की दृष्टि से कहना चाहता हूं कि माप उनकी इच्छा का बाहुबली ने जो कहा, वह भरत को बता दिया। मूल्याकन करे। प्राप यह सोचकर निश्चित है कि भरत क्या भरत बाहुबली से युद्ध करना नहीं चाहता था। मेरा भाई है, किन्तु ऐसा सोचना उचित नहीं है । क्योंकि नहीं क्यों चाहता था, पक्रवर्ती बनने को पाकामा है तो वह राजापो के साथ परिचय करना अन्ततः सुखद नहीं होता। युद्ध चाहता ही। भरत ने विजय यात्रा के लिए यद्यपि प्राप बलवान है, फिर भी कहाँ सावं भौम सम्राट प्रयाण कर दिया। बाइबली भी रणमि में भा गया। भरत पौर कहा एक देश के अधिपति पाप । दीपक दोनों की सेनाएं पामने-सामने हट गई। परस्पर युद्ध कितना भी बड़ा हो, वह एक ही घर को प्रकाशित करता हमा। मानवीय हित के पक्ष में सेना का यह है. सारे जगत को प्रकाशित करने वाला तो सूर्य हो स्थगित हो गया । भरत पोर पाहुबली दोनों
ने परस्पर युट करने का निर्णय लिया। उन्होंने दष्टि दूत की वाचालता ने बाहुबली की शौर्य ज्याला को युद्ध मुष्टि पट, शब्द युद्ध और गष्टि युद्ध-ये पार यस प्रदीप्त कर दिया। वे बोल-ऋषभ के पुत्रों के लिए निश्चित किए । भरत पोर बाहुबली की का वष्टियन राजामो को जीत लेना कौन सी बड़ी बात है? मुझे कुछ प्रहरों तक चला। उनकी अग्निमय पांखें एक सरे जीते बिना ही भरत सार्वभौम चक्रवर्ती बनकर ६६ कर को घूर रही थी। भीगो हुई पलकों के अन्तराल मे रहा है, यह बहुत माश्चर्य की बात है। बाज तक मरे तारा बरही थी। भरत को दोनों पा बात हो गई। लिए प्राईभरत पिता की भांति पूज्य था, किन्तु पाज से बाहुबली से ही एकटक निहारते रहे। भरत पराजित बहमरा विरोषी है। वह अपने छोटे भाइयो के राज्यो हो गया। मुष्टि पुर, सम्म युद्धपोर गष्टि युद्ध में भी का हड़प कर भी सन्तुष्ट नही हुमा । पब मुझ पर अपनी मरत को पराजय मिली। पराजित भरत ने मर्यादा का माझा वोपना चाहता है भोर मेरे राज्य को अपने अधीन पतिकमण कर बाहुबली पर पक अस्त्र का प्रयोग किया। करना चाहता है। पर, में ऐसा नहीं होने दूंगा। मेरे पक्रबाहुबली के पास गया । प्रथिना कर भरत के पास निन्यानवे भाई राज्य को छोड़ पिता के पास चले गए- मोट पाया। पकबह पात्मीय बनों पर प्रहार नहीं मुनि बन गए। वैसे ही मैं भी चला जाऊंगा? उन्होंने करता। संघर्ष को टालने के लिए वंसा किया, किन्तु में ऐसा नहीं
( १.५३ पर)
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बाहुबली और दक्षिण को जैन परम्परा
0 श्री टी० एन० रामचन्द्रन्
मसर में श्रवणबेल्गोल नगर मे विध्यगिरि पर्वत पर पूर्णता पौर प्रध्यक्त मानन्द की जनक है और मूर्ति की जो गोम्मटेश्वर की विशाल मूति है, वह प्रथम तीर्थंकर अग्रभूमि काल, अन्तर, भक्ति और नित्यता की उद्बोधक ऋषभदेव की महारानी सुनन्दा के पुत्र बाहुबली की है। है । यद्यपि दक्षिण भारत में कारकल पौर वेणर में भी दक्षिण भारत में जैन धर्म का स्वर्णयुग साधारणतया मौर बाहुबली की विशाल मूर्तियां एक ही पाषाण में उत्कीर्ण कर्नाटक में विशेषतया गंगवंश के शासको के समय में था, की हुई हैं तथापि श्रवणबेल्गोल की यह भूति सबसे अधिक जिन्होंने जैन धर्म को राष्ट्र-धर्म के रूप में प्रमीकार किया प्राकर्षक होने के कारण सर्वश्रेष्ठ है। था। महान् जैनाचार्य सिंहनन्दी गंगराष्ट्र की नीव डालने बाहुबली की मूर्ति का इतिवृत्त हमे दक्षिण भारत के केही निमित्त न थे, बल्कि गंगराष्ट्र के प्रथम नरेश जैनधर्म के रोचक इतिहास की भोर ले जाता है। श्रवणकोगुणिवर्मन के परामर्शदाता भी थे। माधव (द्वितीय) बेल्गोल में उत्कोणं शिलालेखों के प्राधार पर इस बात ने दिगम्बर जैनों को दानपत्र दिये। इनका राज्यकाल का पता लगता है कि मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के समय मे ईसा के ४५०-५६५ रहा है। विनीत को वन्दनीय पूज्य. अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु १२००० जैन श्रमणों का सघ पादाचार्य के चरणो मे बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुमा। लेकर उत्तरापथ से दक्षिणापथ को गये थे। उनके साथ इनका राज्यकाल ई० ६०५ से ६५० रहा है। ई० ६५० चन्द्रगुप्त भी थे । प्रोफेसर जेकोबी का अनुमान है कि यह में दुविनीत के पुत्र मशकारा ने जैनधर्म को राष्ट्रधर्म देशाटन ईसा से २६७ वर्ष से कुछ पूर्व हुमा था। भद्रबाहु घोषित किया। बाद के गंग-शासक जैनधर्म के कट्टर ने अपने निर्दिष्ट स्थान पर पहुंचने से पूर्व ही मार्ग में चन्द्रसंरक्षक रहे हैं। गगनरेश मारसिंह (तृतीय) के समय मे पिरि पर्वत पर समाधिमरण-पूर्वक देह का विसर्जन किया। उनके सेनापति चामुण्डराय ने बवणबेल्योल मे गोम्मटेश्वर इस देशाटन की महत्ता इस बात की सूचक है कि दक्षिण की विशाल मूर्ति का निर्माण कराया। मारसिंह का राज्य- भारत में जैनधर्म की व्यापक प्रभावना इसी समय मे हुई काल ईसा की ६६१.९७४ रहा है। जैनधर्म मे जो अपूर्व है। इसी देशाटन के समय से जैन श्रमण-संघ दिगम्बर स्वाग कहा जाता है, मारसिंह ने उस सल्लेखना द्वारा प्रौर श्वेताम्बर दो भागों में विभक्त हुमा है। भद्रवाह के पोत्सर्ग करके अपने जीवन को अमर किया। राजमल्ल संघ गमन को देखकर कालिकाचार्य भोर विशाखाचार्य के (प्रथम) ने मद्रास राज्यातयंत उत्तरी भारकोट जिले में संघ ने भी उन्हीं का अनुसरण किया। विद्याखाचार्य जंग गुफाएँ बनवाई। इनका राज्यकाल . ८१७-८२८ दिगम्बर सम्प्रदाय के महान् भाचार्य थे जो दक्षिण भारत रहा है। इनका पुत्र नीतिमार्ग एक अच्छा न था। के चोस पोर पांग्प देश में गये। महान् प्राचार्य कूदकर
बाहुबली के त्याग और गहन तपश्चर्या की कथा को के समय मे तामिल देश मे जैनधर्म की ख्याति मे और गुणप्राही जनों ने बड़ा महत्व दिया है और एक महान् भी वृद्धि हुई। कुन्दकुन्दाचार्य द्वाविण ये भोर स्पष्टतया प्रस्तर खण की विशाल मूति बना कर उनके सिद्धान्तों दक्षिण भारत के जैनाचार्यों में प्रथम थे। कांचीपुर मोर का प्रचार किया है, जो इस रात का द्योतक है कि बाहु- मदुरा के राजदरबार तामिल देश मे जैनधर्म के प्रचार मे बली की उक्त मूर्ति स्याग, भक्ति, अहिंसा भौर परम विशेष सहायक थे। जब चीनी यात्री युवान वांग ईसा मानन्द की प्रतीक है। उस मूर्ति की पृष्ठभूमि विस्तीर्णता, की मीं पताम्दी में इन दोनों नगरों मे गया तो उसने
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बाहुबली और दक्षिण की परम्परा
कांची में अधिकतर दिगम्बर जैन मन्दिर पाये घोर मदुरा में दिगम्बर जैन धर्मावलम्बी ।
इतिहास इस बात को स्वीकार करते हैं कि ईसा से १२वी शताब्दी तक दक्षिण भारत मे जनधर्म सबसे अधिक शक्तिशानी, धाकर्षक और स्वीकार्य धर्म था उसी समय वैष्णव प्राचार्य रामानुज ने विष्णुवर्द्धन को जैनधर्म का परिश्याग कराकर वैष्णव बनाया था।
( प्रथम )
बालुव चालुक्य,
कांचीपुर के एक पहलव नरेश महेन्द्रवर्मन राज्यकाल ६०० से ६३० ई०, पांड, पश्चिमी मग राष्ट्रकूट, कलचूरी घोर होयसल वंश के बहुत से राजा जंन थे। महेन्द्रवर्मन के सम्बन्ध मे यह कहा जाता है कि वह पहले जैन थे, किन्तु बरमसेन मुनि जब न को स्याग कर हो गये तो उनके साथ महेन्द्रवर्मन भी शव शंव हो गया। शैव होने पर घरमसेन ने अपना नाम
मप्पड़ रखा ।
पाठवी शताब्दी का एक पांडय नरेश नेदुमारन पर नाम कुणपाडया जैन धर्मावलम्बी था और तामिल भाषा केशव प्रथो के अनुसार शवाचार्य सम्बन्ध के ने उससे जनधर्म छुड़वाया ।
कर्नाटक मे बनवासी के कादम्ब शासकों में कुकुस् वर्मन मेन (४३० से ४५०६०) मृगेशवर्मन ( ४७५ से ४६० ६०), रविवर्मन (४९७ से ५३७) और हरीवर्मन (५३७ से ५४७ ) यद्यपि हिंदू थे तथापि उनकी बहुत-सी प्रजा के जैन होने के कारण वे भी यथाक्रम जैनधर्म के धनुकूल थे। स्वपने एक लेख के अन्त में प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव को नमस्कार किया है। उसके पोते मृगेशवर्मन मेजयन्ती में महंतो के अर्थ बहुत-सी भूमि प्रदान की। अन्य धौर समय मे कालवंग ग्राम को तीन भागों मे विभक्त किया। पहला भाग उसने जिनेन्द्र भगवान को अर्पण किया, दूसरा भाग श्वेतपथ बालों घोर तीसरा भाग निर्धन्य को पानासिका (हालसी) मे रविवर्मन ने एक ग्राम इसलिए दान मे दिया कि उसकी आमदनी से हर वर्ष जिनेमा भगवान् का उत्सव मनाया जाय। हरि
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मेयों को बहुत दानपात्र दिये। पश्चिमी चालुक्य वश के शासक धर्म की संरक्षकता के लिए प्रस्थात थे। महाराज जयसिंह (प्रथम) ने दिगंबर
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जैनाचार्य गुणचन्द्र, बासु चन्द्र 'गुणचन्द्र, बासुचन्द्र धौर वादिराज को अपनाया पुलकेशी ( प्रथम ) ५५० ई० पोर उसके पुत्र कीर्तिवर्मन ( प्रथम ) राज्यकाल ४६६ से १७६० ने जंन मन्दिरों को कई दानपत्र दिये। कीर्तिवर्धन का पुत्र पुलकेशी (द्वितीय) (राज्यकाल ६० से ६४२ ई०) प्रख्यात जैन कवि रविकीर्ति का उपासक था, जिन्होंने ऐहोल नामक ग्रंथ रचा । इसमें रविकीर्ति को कविताचातुरी के लिए कालिदास और भैरवि से उपमा दी। ऐहोल पंप के कथनानुसार रवि। कीर्ति ने जिनेन्द्र भगवान् का एक पाषाण का मन्दिर भी बनवाया। रविकीर्ति को सत्याश्रम (पुलकोशी) का बहुत संरक्षण था और सत्याश्रम के राज्य की सीमा तीन समूद्रों तक थी। पूज्यपाद के शिष्य निरवद्य पंडित (उदयदेव) जयसिंह (द्वितीय) के राज्यगुरु थे और विनयादित्य ( ६८० से ६६७ ६० ) धौर उनके पुत्र विजयादित्य (१९६ से ७३३ ई०) ने निरवद्य पंडित को जैन मन्दिर की रक्षा के लिए एक ग्राम दिया। उसके पुत्र विक्रमादित्य (द्वितीय) ने ( राज्यकाल ७ ३३ से ७४७ ई०) एक जैन मंदिर की मसी प्रकार मरम्मत कराई धौर एक दूसरे जैन साधु विजय पंडित को इस मन्दिर की रक्षा के लिए कुछ पान दिया । किन्तु वास्तव में जनधर्म का स्वर्णयुग गग राष्ट्र के शासकों के समय में पा भौर यह पहले ही बताया जा चुका है कि श्रवणबेलगोल में मारसिंह (तृतीय) के सेनापति चामुण्डराय ने बाहुबली को अविनश्वर मूर्ति बनवाई। सक्षेप मे यह कहा जा सकता है कि गंगराष्ट्र के शासक कट्टर जैन थे।
राष्ट्रकूट वंश के शासक भी जैनधर्म के महान संरक्षक रहे हैं। गोबिंद (तृतीय) (राज्यकाल ७९८ से ५१५ ई०) महान् जैनाचार्य परिकीति का संरक्षक था। उसके पुत्र प्रमोषवर्ष ( प्रथम ) राज्यकाल ८१४ से ८७८ ई० को जियसेनाचार्य के चरणों में बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । प्राचार्य जिनसेनाचार्य के चरणों में बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। प्राचार्य जिनसेन गुणभद्र के गुरु थे। इन्होंने सन् ७८३-६४ में गोविंद (तृतीय) के समय में भादिपुराण के प्रथम भाग की रचना की घोर उसका उत्तरार्द्ध गुणभट्टाचार्य ने सन् ८१७ में अमोध के उत्तराधिकारी कृष्ण (द्वितीय) के राज्यकाल ८८० से १२ में पूर्ण
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किया। प्रमोषवर्ष प्रथम के समय में राष्ट्रकर की राज- उसकी बहुत सहायता की थी। विष्णवद्धन की रानी पानी में 'हरिबशपुराण', 'पादिपुराण' पोर उत्तर पुराण, शान्तलादेवी जैनाचार्य प्रभाचन्द्र की शिष्या यी पौर पकलंक चरित, जयघवला टीका मादि ग्रंथों की रचना विष्णुवर्द्धन के मत्री गगराज पोर हल्ला ने जैनधर्म का
जयपवला टीका दिगम्बर जैन सिद्धांत का एक बहुत प्रचार किया प्रत: इसमे कोई सन्देह नही है कि पहले
है। यहीं पर वीराचार्य ने गणित शास्त्र का होयसल नरेश जैन थे। विष्णबद्धंन अपरनाम 'विट्रो' मारपर' नाम का एक प्रथ रचा। प्रमोघवर्ष ने स्वय रामानुजाचार्य के प्रभाव मे पाकर वैष्णव हो गये। विट्रो
निसार एक प्रश्नोतर रत्नमालिका' बनाई । वैष्णव होने से पहले कदर जैन था और वैष्णव शास्त्रों मे संप मे, प्रमोषवर्ष (प्रथम) के समय में यह कहा जाता उसका वैष्णव हो जाना एक पाश्चर्यजनक घटना कही है कि उसने दिगम्बर जैनधर्म स्वीकार किया था पोर वह जाती है। इस कहावत पर विश्वास नही किया जाता कि नने समय में दिगम्बर जैनधर्म का सर्वश्रेष्ठ संरक्षक था। उसने रामानुज का पाना स जैनो को सन्ताप दिया: जातीय) के राज्यकाल में उसकी प्रजा पोर सर- क्योकि उसकी रानी शान्तलादेवी जैन रही मोर विष्णवद्धन होने या तो स्वय मन्दिर बनवाये, या बने हुए मन्दिरों को प्रनमति में जनता
किया। क सवत ८२० मे गुणभद्राचार्य के शिष्य के मंत्री गगराज की सवाएँ जैनघम के लिए प्रस्य त है। लोकसेन ने महापुराण की पूजा की।
विष्णवद्धन ने वैष्णव हो जान के पश्चात स्वय जैन मंदिरो यपि कल्याणी के चालुक्य जैन नही थे, तथापि हमारे को दान दिया, उनकी मरम्मत कराई मोर उनकी मतियो पास सोमेश्वर (प्रथम) १०४२ से १०६८ ई० का उत्तम भोर पुजारियो की रक्षा की। विष्णुवर्द्धन के सम्बन्ध में उदाहरण है, जिन्होंने प्रवणबेल्गोल के शिलालेखानुसार यह कहा जा सकता है कि उस समय प्रभा को धर्म सेवन
जैनाचार्य को 'शम्बचतुर्मुस' की उपाधि से विभूषित की स्वतत्रता था। विष्णवद्धन के उत्तराधिकारी यद्यपि कियावास शिलालेख मे सोमेश्वर को 'पाहबमल्ल' वैष्णव थे तो भी उन्होन जैन मदिर बनाये मोर नाचार्यों
की रक्षा की। उदाहरण के तौर पर नरसिंह (प्रथम) तामिल देश के चोल राजापों के सम्बन्ध में यह
राज्यकाल ११४३ से ११७३, वीरवल्लभ (द्वितीय) निराधार है कि उन्होंने जैनधर्म का विरोध किया। राज्यकाल ११७३ से १२२० और नरसिंह (तृतीय) जिनकांची के शिलालेखों से यह बात भली प्रकार विदित
राज्यकाल १२५४ से १२६१। होती है कि उन्होंने प्राचार्य चन्द्रकीति पोर भनवस्यवीर्य
विजयनगर के राजाप्रो की जनधर्म के प्रति भारी बर्मन की रचनामो की प्रशसा की। चोल राजापो द्वारा महि
सहिष्णता रही है। अतः वे भी जैनधर्म के सरक्षक थे। जिनकाची के मन्दिरो को पर्याप्त सहायता मिलती रही है।
बुक्का (प्रथम) राज्यकाल १३५७ स १३७८ ने अपने कलचूरि वंश के संस्थापक त्रिभुवनमाल विज्जल समय में जनो भीर बंष्णवो का समझौता कराया। इससे राज्यकाल ११५६ से ११६७ ई.के तमाम दान-पत्रो मे यह सिद्ध है कि विजयनगर के राजामा की जैनधर्म पर एक बन तीर्थंकर का चित्र मकित बा। वह स्वयं जन अनुकम्पा रही है। देवराय प्रथम को सनी विम्मादेवी पा। प्रनंतर वह अपने मत्री वासव के दुप्रयत्न से मारा जैनाचार्य अभिनवचारुकीति पहिताचार्य को शिष्या रही है गया; क्योकि उसने वासव के कहने से नियों को संताप चोर उसोन श्रवणबेलगोल मे शातिनाथ की मूर्ति स्थापित देने से इनकार कर दिया था। बासव लिंगायत सम्प्रदाय कराई। का संस्थापक था।
बुक्का (द्वितीय) राज्यकाल १३८५ से १४०६ के मैसर केहोरयल शासक जैन रहे हैं। विनयादिश्य सेनापति इरुगुप्पा ने एक सांची के शिलालेखानुसार सन् (द्वितीय) राज्यकाल १०४७ से ११.०० तक इस वंश १३८५ ईस्वी मे जिनकाची मे १७वं तीपंकर भगवान् का ऐतिहासिक व्यक्ति रहा है। बंगाचा शान्तिदेव ने बनाय का मन्दिर और संगीतालय बनवाया। इसी
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बाहुबली पोरदक्षिणी परम्परा
मन्दिर के दूसरे शिलालेख के अनुसार विजयनगर के नरेश ईश्वर में पूर्ण विश्वास है और बंगधर्म अनुष्ठान बारा कृष्णदेवराय सन् १५१० से १५२६ को जैनधर्म के प्रति अनेक जीव परमात्मा बने हैं। जैनधर्म के मठिम ठीकर सहिष्णता रही पोर उसने जैनमदिरों को दान दिये पोर भगवान महावीर पर्म का २५.. वर्षों का एक लम्बा उनकी जैनधर्म के प्रति प्रास्था रही।
इतिहास है। यह भारत में एक कोने से दूसरे कोने विजयनगर के शासको का और उनके अधीन सरदारों तक रहा है। पाज भी गुजरात, मधुरा, राजस्थान, विद्यार,
के का, भोर मैसूर राज्य का प्राज तक जैनधर्म के प्रति यही बगाल, उड़ीस, दक्षिण मंसूर और दक्षिण भारत
प्रचार के कम है। इस वर्म साधु और विधानों ने इस दष्टिकोण रहा है। कारकल के शासक गरसोप्पा पौर
धर्म को समुज्वल किया और जैन व्यापारियों ने भारत भैरव भी जनधर्मानुयायी थे और उन्होंने भी जैनकला को प्रदर्शित करने वाले अनेक कार्य किये।
में सर्वत्र सहमों मंदिर बनवाये, जो पाजभारत की पार्मिक
पुरातत्वकला की अनुपम शोभा है। श्रवणबेल्गोल और अन्य स्थानों को बाहुबली को महावीर और डका प्रवतार एक ऐसे समय में हमा विशाल मूतियो एव अन्य चोबास ताथकर का प्रातमाए जब भारत में भारी राजनीतिक उथल-पुथल हो रही पी। ससार को विशेष सन्देश देती हैं।
महावीर ने एक ऐसी साधु-संस्था का निर्माण किया, जैनधर्म के प्रवर्तको ने मनुष्य को सम्यक् श्रद्धा, जिसकी मित्ति पूर्ण पहिसा पर निर्धारित की। उनका सम्यक बोध, सम्यक् ज्ञान पोर निर्दोष चारित्र के द्वारा 'पहिंसा परमो धर्म:' का सिद्धांत सारे संसार को पालोकित परमात्मा बनने का प्रादर्श उपस्थित किया है । जैनधर्म का करता है।
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(पृ० ४६ का शेषांश) इस चक्र प्रयोग को घटना से बाहुबली का क्रोध सीमा तपस्या की यात्रा का प्रस्थान पावर्श बन गया। स्वतन्त्रता पार कर गया। उन्होंने मुट्रि दुद उठाई पोर पाक्रमण के प्रेम की गाथा अमर हो गई। की मुद्रा मे दौड़े। उपस्थित रणमेदिनी ने हा-हा कार किया। एक साथ भूमि पोर प्राकाश से प्रार्थना का स्वर
त्याग ही कर सकता है, जिसकी चेतना स्वताप
होती है। विजय के सण में बमा बही कर सकता है, फूटे ऐसा मत करो। बाहुबली यदि तुम भी अपने बड़े। भाई को मारना चाहते हो तो बड़े भाई की पाज्ञा मानने
जिसको चेतना स्वतन्त्र है। बीते हुए साम्राज्य को पही वाला दूसरा कौन होगा? राजन् इस क्रोध का संहरण
त्याग सकता है, जिसकी चेतमा स्वतन्त्रबाहुबली की करो। जिस मार्ग पर तुम्हारे पिता चले हैं, उसी मार्ग का
विशाल प्रतिमा में उस विशाल स्वताप चेतना का दर्शन अनुसरण करो। भरत को क्षमा करो। बाहुबली का
पालिखित है हबारों-हजारों लोग उस दर्शन का पालन
पा अन्तर विवेक जागा। क्रोध को शान्त कर बोले-मेरा
करने के लिए उत्सुक हैं। उठा हमा हाथ खाली नही जा सकता। अपने हाथ को
प्रेषक-कममेश चतुर्वेदी अपनी मोर मोडा केश का लुंचन कर तपस्या के लिये
प्रबन्धक-पाव साहित्य संघ प्रस्थान कर दिया। विजय की बेला में किया जाने वाला
पो.पूर (राजस्थान)
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जय चागद जय गुल्लिकाज्जि
0 श्री कुन्दनलाल जैन,
भावाबलियपि तीर्थकर नहीं थे, ये तो चौवोस सम्द से संबोषित किया जाता है। इस विचारे बागद को कामों में से प्रथम कामदेव सर्व सुन्दर थे इसी-माज कौन जानता है जिसने कामदेव बाहमि को साक्षात लिए कन्नर भाषा में इनको मोमटस्वामी हासिक
भगवान का रूप प्रदान कर माज हजार वर्ष बाद भी गोमट्र का प्रथं कन्नर में सर्वाधिक सुन्दर होता है, अस्तु । भारतीय पुरातत्व को ही नहीं अपितु संसार के समस्त परन्त श्रद्धालु भक्तजनों ने उनके त्याग तपस्या एवं साधना पुरातत्ववेत्तामों को ऐसा सर्व सुम्बर कला-वैभव धुनौती को देख कर उन्हे भगवान सश ही मान लिया भोर वे के रूप में प्रदान किया है जिसके पागे Seven Wonders युग-युगो से भगवान बाहुबलि नाम से विख्यात हो गए। सर्वथा तुच्छ प्रतीत होते हैं। तथा जब तक यावच्चद्र
भ. बाहुबलि का प्रपोरषेण एव महामानवीय बसिष्ट दिवाकरो यह मूर्ति विद्यमान रहेगी तब तक उस भेष्ठतम व्यक्तित्व विभिन्न कषियों कलाकारों एवं सरस्वती पूनों कला साधक महान् शिल्पी चागद को कोई भी नही भूक को मूर्त रूप प्रदान करने के लिए विवशता पूर्वक प्रेरित सकेगा मोर सभी लोग उसकी बशोगाथा गाते हुए उसकी करता रहा। भ० मादिनाथ के समय से ही वे चर्चा और कमा की सराहना करते रहेंगे। विवेचना के केन्द्र बने रहे। संस्कृत के प्राचार्य जिनसेन, भ. बाहुबलि की मूर्ति के निर्माण कराने वाले श्री अपभ्रंश के श्रेष्ठतम कवि पुष्पदंत तथा कलिकाल सर्वज्ञ चामुण्डराय राजपुरुष ये विख्यात विद्वान् पौर प्राकृत के हेमचन्द्र प्रति उत्तर भारत के तथा दक्षिण भारत के श्रेष्ठ कवि थे उन्हें तो सभी लोग जानते हैं पोर पाब तक कवियों ने विभिन्न भाषामों में उनका चरित्र-चित्रण बरे इतिहास में वे पूर्णतया विख्यात है। पर उस तपस्वी मूक कलापूर्ण ढंग से अपनी-अपनी कृतियों में बड़े अनूठे ढंग से साधक, श्रेष्ठ शिल्पी उच्च कलाकार चागद को कौन किया है।
जानता है जिसको प्रमर साधना और मूक तपस्या ने ऐसे
विराट स्वरूप को उत्कीर्ण कर इतिहास मोर पुरातत्व को भ. बाहुबली का परिव पडालु पाठकों को युग-युगों
एक अनूठी पमर पुण्य विभूति प्रदान की। जिससे सेपाकर्षित करता पा रहा है। सभी लोग पठन-पाठन,
पामुण्डराय का यश भी चिरस्थायी हो गया है। पर्चा, स्तुति, पूजा, ग्रंथ रचना; मूर्ति निर्माण बादि के रूप में उनके प्रति बंदा-सुमन समर्पित करते रहे है, जो
शिल्पोषागद कोई पढा-लिखा प्रसिद्ध पुरुष न पा पर भाव तक ममर और विध्यातहै। पर श्रवणबेलगोल उसके हाथ में कला पी उसके छनी हपोडेको प्रमका स्थित भ. बाहुबलि की प्रतिमा बो १३ मार्च १में
पाशीष पोर वरदान प्राप्ता । उसके वय में उसकी तत्कालीन गङ्गनरेश राचमल्ल के महामात्य एवं प्रधान
मां ने भगवद्भक्ति उत्पन्न की थी भोर दिया था उसे
त्याग एवं तपस्या का उपदेश जिसके बल पर बह ऐसा सेनापति श्री समायराय ने निमित कराई थी वह भाज भारतीय इतिहास और पुरातत्व की ही नहीं अपितु संपूर्ण
भक्षुण्ण अनुपम स्वरूप उत्कीर्ण कर सका और स्वयं विश्वको स्पिात श्रेष्ठतम कलाकृति है।
इतिहास पुरुष बन गया।
म. बाहुबली की मूर्ति के निर्माण के बाद शिल्पी म. बाहुबलि की इस श्रेष्ठतम कलाकृति के प्रमुख पागद को जो यश पोर सम्मान मिला उसकी गौरव गारा शिल्पी (तमक) त्यागद ब्रह्मदेव थे जिन्हें कन्नर में पागद दक्षिण के जैन मंदिर पाज तक माते हैं। पागद
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अपचालिका
उत्तराधिकारी शिल्पियों ने उसे सम्मान देने के लिए कहा- मैं पा कि यह सब क्या हो रहा है? वह मन ही मन वहां जिनालयों का निर्माण हमा वहीं-वहीं घोड़े पर बैठे व्याकुल हो उठा, उसका हृदय सहर्ष और उल्लास की हए पागद शिल्पी की मूर्ति भी उत्कीर्ण की जाती रही है वेला में खेद खिन्न भौर दुखी था, तभी शिल्पी की मातु जिनके बाएं हाथ में चाबुक होता है जो इस बात का भी पधारी पौर कलाकार पुत्र की दुर्दशा देख बड़ी प्यषित प्रतीक है कि धर्म विरोषियों को उचित दण्ड विधान किया हुई, लोभी शिल्पी ने अपनी रामकहानी अपनी मां को बाये तथा दाएं हाथ में श्रीफल होता है जो इस बात का प्रथ विखेरते हुए सुना दी, वागद की मां ने अपने कलाप्रतीक है कि प्रभु कृपा सदा बनी रहे, एवं पाबों में खड़ाऊं कार पुत्र को धीरज बधाया और समझाया हे वत्स ! क्या उत्कीर्ण होती है जो जिनालय की पवित्रता की प्रतीक है। कला स्वर्ण के तुग्छ टुकड़ों में बिका करती है ? तुममें यह
म. बाहुबलि की श्रवणबेलगोल स्थित इस विराट दुष्प्रवृत्ति कहां से वामी? कला तो पाराधना और पर्चना कलाकृति के निर्माण के लिए इसी पागद शिल्पी को की वस्तु है, तूने तो इसे बेच कर निर्मल्य पौर कलंकित पामणराय ने मामंत्रित किया था, और अपनी माता की कर दिया है। उस चामुणराय को तो देख जो मातृसेवा अगववभक्ति उसके समक्ष प्रस्तुत की थी पर पागद उस पौर प्रभु भक्ति के वशीभूत हो तुझे इतना सब कुछ विशालकाय विन्ध्यगिरि के प्रस्तरखड को देख कर विस्मय निलोभ भाव से सहर्ष दे रहा है। अपनी श्रेष्ठतम क्ला विमग्ध हो गया था जिस पर उसे अपनी छनी हपौड़े की के पीछे इन तुच्छ स्वर्ण खंडों का लोभ तू त्याग और प्रभु कला प्रदर्शित करनी थी, उसे अपनी शिल्पकला पर को प्रणाम कर इस स्वर्ण राशि को वापिस कर पा तथा अभिमान वा पर इतने विशाल कार्य के लिए वह क्या कर अपना शिल्प वैभव निष्काम भाव से प्रभु बाहुबलि के सकेगा? उसको लोभ कषाय ने उसके अन्तस्तल को चरणों में समर्पित कर दे।
कमोर दिया। उसने प्रधानामात्य को अपने पारिश्रमिक भ. बाहबलि के शिल्पी चागद को अपनी मातु भी केप में उतनी ही स्वर्ण राशि की याचना की जितना
का उपदेश भा गया, उसके भाव बदले, लोभ कषाय का प्रस्तरक्षणवह विध्यगिरि से छीलेगा।
उसने दहन किया, माता के उपदेश और प्रभुभक्ति ने भ. बाहबलि ने भक्त चामुण्डराय ने शिल्पी पागद उसकी काया कल्प कर दी। शिल्पी चागद ने उसी समय को शतं सहर्ष स्वीकार ली और मूर्ति का निर्माण प्रारम्भ प्रतिज्ञा की कि इस मूर्ति का निर्माण निस्वार्थ पोर सेवा हमा। संध्या काल में तराजू के एक पलड़े पर शिल्पी भाव से करूंगा कोई पारिश्रमिक नहीं लूंगा और जब तक पागद के विकृत शिलाखंरथे और दूपरे पलड़े पर भगवद्- प्रतिमा का निर्माण नहीं हो जाता एकाशन व्रत धारण भवन एवं मातृ सेवक चामुणराय की दमकती हुई स्वर्ण करूंगा। शिल्पी की अंतरंग विशुद्ध ने तथा लोभ निवृत्ति राशि। पामणराय ने शिल्पी को बड़ी श्रद्धापूर्वक वह ने उसके हाथों से चिपका सोना छुड़ा दिया वह तत्काल स्वर शि समपित की, वे कलाकार की कला के मर्म को ही मागा-मागा प्रधानामात्य के चरणों में जा गिरा पौर समझते थे। तक्षक चागद पाज अपनी कला की मूल्य सारी स्वर्ण राशि मोटाते हुए बिलख-विलख कर बोला है रतनी विशाल स्वर्ण राशि के रूप में पाकर हर्ष से फला प्रभु! मेरी रक्षा करो, मेरी कला का मोल-भाव मत नहीं समा रहा था, खुसी के मारे उवे पर पहुंचने में कुछ करो और मुझे बावलि की सेवा निस्वार्थ भाव से करने विलंब से माभास होन विदित इमा। घर पहुंच कर । प्रमले दिन से शिल्पी म. बाहुबलि की प्रतिमा का कलाकार से ही अपनी कला के मूल्य को सहेज कर धरने निर्माण पूर्णतया निर्विकार भाव तथा बड़ी श्रद्धा निष्ठा लगा कि यह राशि उसके साथ सेट नहीं रही थी और एवं संयम पूर्वक करने लगा। यह त्याग मूति तक्षक चागद न उसके हस्त उस स्वर्ण प्रसग हो रहे थे दोनों एक ही १२ वर्ष की सतत तपस्या पोर साधना का पुण्य मरे से चिपके हुए थे।
फा है कि ऐसी प्रसौकिक एवं सर्वश्रेष्ठ प्रतिमा का निर्माण प.बाविकी प्रतिमा का प्रधान घिल्पी पसमंजस हो सकागोजार वर्ष बाद भी भाज संसार के भक्तजनों
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जय धागद जय गल्लिकाज्जि
D श्री कुन्दनलाल जैन,
भ. बाहुबलि यद्यपि तीर्थकर नही थे, वे तो चौबीस सद से संबोधित किया जाता है। इस विचारे पागद को कामदेवों में से प्रथम कामदेव के पतः सर्व सुन्दर थे इसी. माज कौन जानता है जिसने कामदेव बाइबलि को साक्षात लिए कन्नड भाषा में इनको मोमटस्वामी कहा है क्योंकि
भगवान का रूप प्रदान कर माज हजार वर्ष बाद भी गोमट का पर्थ कन्नर में सर्वाधिक सुन्दर होता है, मस्तु । भारतीय पुरातत्व को ही नहीं अपितु संसार के समस्त परन्तु श्रद्धालु भक्त जनों ने उनके त्याग तपस्या एवं साधना
पुरातत्व वेत्तामों को ऐसा सर्व सुम्बर कला-वैभव चुनौती को देख कर उन्हे भगवान सदृश ही मान लिया घोर वे के रूप में प्रदान किया है जिसके मागे Seven Wonders युग-युगो से भगवान बाहुबलि नाम से विख्यात हो गए। सर्वथा तुच्छ प्रतीत होते हैं। तथा जब तक यावच्चद्र
भ. बाहुबलि का प्रपौरषेय एक महामानवीय बलिष्ट दिवाकरो यह मूर्ति विद्यमान रहेगी तब तक उस पेष्ठतम व्यक्तित्व विभिन्म कवियों कलाकारों एवं सरस्वती पूचों कला सापक महान् शिल्पी चागद को कोई भी नहीं मन को मूर्त रूप प्रदान करने के लिए विवशता पूर्वक प्रेरित सकेगा मोर सभी लोग उसकी यशोगाथा गाते हुए उसकी करता रहा। भ० पादिनाथ के समय से ही वे चर्चा और कला की सराहना करते रहेंगे। विवेचना के केन्द्र बने रहे। संस्कृत के पाचार्य जिनसेन, भ० बाहुबलि को मूर्ति के निर्माण कराने वाले श्री अपभ्रश के श्रेष्ठतम कवि पुष्पदंत तथा कलिकाल सवंश चामुण्डराय राजपुरुष थे विख्यात विद्वान् पोर प्राकृत के हेमचन्द्र प्रभुति उत्तर भारत के तथा दक्षिण भारत के श्रेष्ठ कवि थे उन्हें तो सभी लोग जानते हैं और पाज तक कवियो ने विभिन्न भाषामों में उनका चरित्र-चित्रण बरे इतिहास में वे पूर्णतया विख्यात हैं। पर उस तपस्वी मूक कलापूर्ण ढग से अपनी-अपनी कृतियो मे बड़े अनुठे ढंग से साधक, श्रेष्ठ शिल्पी उच्च कलाकार चागद को कौन किया है।
जानता है जिसको पमर साधना पौर मूक तपस्या ने ऐसे
विराट स्वरूप को उत्कीर्ण कर इतिहास मोर पुरातत्व को भ. बाहुबली का चरित्र पडालु पाठकों को युग-युगों से पाकर्षित करता पा रहा है। सभी लोग पठन-पाठन,
एक अनूठी अमर पुण्य विभूति प्रदान की। जिससे
चामुण्डराय का यश भो चिरस्थायी हो गया है। पर्चा, स्तुति, पूजा, ग्रंथ रचना, मूर्ति निर्माण प्रादि के रूप मुस में उनके प्रति श्रद्धा-सुमन समर्पित करते जा रहे है, जो
शिल्पोषागद कोई पढा-लिखा प्रसिद्ध पुरुष न पा पर भाष तक प्रमर और रिश्यात है। पर प्रवणबेलगोल में
उसके हाथ में कला थी उसके छनी हथोडेको प्रभु का स्थित भ. बाहुबलि की प्रतिमा बो १३ मार्च १८१ में
पाशीष पोर वरदान प्राप्त पा। उसके हृदय में उसकी तत्कालीन गङ्गनरेश राचमल्ल के मझमात्य एवं प्रधान
मां ने भगवद्भक्ति उत्पन्न की थी और दिया था उसे सेनापति श्री चामुग्राप ने निर्मित कराई थी वह माज
त्याग एवं तपस्या का उपदेश जिसके बल पर वह ऐसा भारतीय इतिहास मोर पुरातत्व को ही नहीं अपितु संपूर्ण
अक्षुण्ण अनुपम स्वरूप उत्कीर्ण कर सका पौर स्वयं विश्व की विस्पात श्रेष्ठतम कलाकृति है।
इतिहास पुरुष बन गया।
म. बाहुबली की मूर्ति के निर्माण के बाद शिल्पी म. बाहुबलि की इस श्रेष्ठतम कलाकृति के प्रमुख पागद को जो यश और सम्मान मिला उसकी गौरव गाथा शिल्पी (तक्षक) त्यागद ब्रह्मदेव थे जिन्हें कन्ना में चागद दक्षिण के जैन मंदिर पाज तक माते हैं। पागद के
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जय बागलपल्लिकालि
राधिकारी शिल्पियामे उसे सम्मान देने के लिए जहां- में था कि यह सब क्या हो रहा है? वह मन ही मन वहां जिनालयों का निर्माण हुमा वही-वहीं घोड़े पर बैठे व्याकुल हो उठा, उसका हृदय इस हर्ष मोर उल्लास की
चागव शिल्पी की मूर्ति भी उत्कीर्ण की जाती रही है वेला मे खेद खिन और दुखी था, तभी शिल्पी की मातु जिनके बाएं हाथ में चाबुक होता है जो इस बात का भी पधारी और कलाकार पुत्र की दुर्दशा देख बड़ी व्यषित प्रतीक है कि धर्म विरोधियों को उचित दण्ड विधान किया हुई, लोभी शिल्पी ने अपनी रामकहानी अपनी मा को बावे तथा दाएं हाथ में बीफल होता है जो इस बात का प्रश्र विखेरते हए सुना दी, चागद की मां ने अपने कलाप्रतीक है कि प्रभु कृपा सदा बनी रहे, एवं पावों मे खड़ाऊं कार पुत्र को धीरज बचाया पोर समझाया हे बरस ! क्या रत्कीर्ण होती है जो जिनालय की पवित्रता की प्रतीक है। कला स्वर्ण के तुन्छ टुकड़ों में विका करती है? तुममें वह
भ. बाहुबलि की श्रवणबेलगोल स्थित इस विराट दुष्प्रवृत्ति कहां से जामी? कला तो पाराषना पोर पर्चना कलाकृति के निर्माण के लिए इसी चागद शिल्पी को की वस्तु है, तूने तो इसे बेच कर निर्मूल्य धौर कलंकित चामराय ने मामत्रित किया था, और अपनी माता की कर दिया है। उस चामुणराय को तो देख जो मातृसेवा भगवभक्ति उसके समक्ष प्रस्तुत की थी पर चागद उस पौर प्रभु भक्ति के वशीभूत हो तुझे इतना सब कुछ विशालकाय विध्यगिरि के प्रस्तरखण्ड को देख कर विस्मय निलोभ भाव से सहर्ष दे रहा है। अपनी श्रेष्ठतम क्ला विमग्ध हो गया था जिस पर उसे अपनी छनी हपोड़े को के पीछे इन तुच्छ स्वर्ण खंडों का लोभ तू त्याग पोर प्रम कला प्रदर्शित करनी थी, उसे अपनी शिल्पकला पर को प्रणाम कर इस स्वर्ण राशि को वापिस कर पा तथा अभिमान वा पर इतने विशाल कार्य के लिए वह क्या कर अपना शिल्प वैभव निष्काम भाव से प्रभु बाहुबलि के सकेगा? उसको लोम कषाय ने उसके अन्तस्तल को चरणों में समर्पित कर दे। झकझोर दिया। उसने प्रधानामात्य को अपने पारिश्रमिक
भ० बाहुबलि के शिल्पी चागद को अपनी मातु श्री के रूप में उतनी ही स्वर्ण राशि की याचना की जितना
का उपदेश मा नया, उसके भाव बदले, लोभ कषाय का प्रस्तरसमबह विध्यगिरि से छी लेगा।
उसने दहन किया, माता के उपदेश और प्रभुमक्ति ने भ० बाहबलि ने भक्त चामुण्डराय ने शिल्पी पागद उसकी कायाकल्प कर दी। शिल्पी चागद ने उसी समय को शतं सहर्ष स्वीकार ली और मूर्ति का निर्माण प्रारम्भ प्रतिज्ञा की कि इस मूर्ति का निर्माण निस्वार्थ भोर सेवा हमा। संध्या काल में तराजू के एक पलड़े पर शिल्पी भाव से करूंगा कोई पारिश्रमिक नही लंगा पौर जब तक चागद के विकृत शिलाखंडचे प्रौर दूपरे पलड़े पर भगवद्- प्रतिमा का निर्माण नहीं हो जाता एकाशन व्रत धारण भवन एवं मातृ सेवक चामुण्डराय की दमकती हुई स्वर्ण करुंगा। शिल्पी की अंतरंग विद्धि ने तथा लोभ नित्ति राशि। चामुण्डराय ने शिल्पी को बही श्रद्धापूर्वक वा ने उसके हाथों से चिपका सोना छुड़ा दिया वह तत्काल स्वर्ण र शि सपित की, के कलाकार को कला के मर्म को ही भागा-भागा प्रधानामात्य के चरणो मे जा गिरा भोर समझते थे। तक्षक पागद माज अपनी कला को मूल्य सारी स्वर्ण राशि लौटाते हुए विलख-विलख कर बोला है रतनी विशाल स्वर्ण राशि के रूप में पाकर हर्ष से फला प्रम! मेरी रक्षा करो, मेरी कला का मोल-भाव मत नहीं समा रहा था, खुशी के मारे उसे घर पहुंचने में कुछ करो और मुझे बाहुबलि की सेवा निस्वार्थ भाव से करने विलंब से पाभास हो न विदित हुपा । घर पहुंच कर दें। अगले दिन से शिल्पी भ. बाहुबलि की प्रतिमा का कलाकार से ही अपनी कला के मूल्य को सहेज कर धरने निर्माण पूर्णतया निर्विकार भाव तथा बड़ी श्रद्धा निष्ठा लगा कि यह राशि उसके साथ से छट नहीं रही पी पौर एवं संयम पूर्वक करने लगा। यह त्याग मूर्ति तमक चागद न उसके हस्त उस स्वर्ण पसग हो रहे थे दोनों एक. मेही १२ वर्ष की सतत तपस्या और साधना का पुण्य मरे से चिपके हुए थे।
फल है कि ऐसी अलौकिक एवं सर्वश्रेष्ठ प्रतिमा का निर्माण प. बाइबलिको प्रतिमा का प्रधान शिल्पी पसमंजस होसका जो हजार वर्ष बाद भीमाज संसार के भक्तजनों
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५१ वर्ष ३३, किरण ४
को प्राकृष्ट पोर माध्यामित किए हुए है तथा विश्व इतिहास एव पुरातत्व की बहुमूल्य धरोहर बन गई है । जय हो उस चागव की जय हो उस शिल्पी की जय हो, जय हो उस स्यागमूर्ति तक्षक कलाकार की।
अनेकान्स
भ० बाहुबलि की इस विराट प्रतिमा के प्रतिष्ठाचार्य ये सिद्धान्त चक्रवर्ती प्राचार्य श्री नेमिचन्द्राचार्य जो प्रधानामात्य चामुण्डराय के गुरु थे। उन्हीं के निर्देशन में यह सब कुछ हुआ था जब प्रतिमा का निर्माण हो चुका तो इसकी प्रतिष्ठा के लिए सर्वप्रथम महामस्तकाभिषेक का प्रायोजन किया गया जिसके लिए हजारों मन दूध से प्रतिमा का अभिषेक किया गया पर प्राइवयं की बात कि सारा दूध नाभि से नीचे नहीं पहुंच रहा था। प्रतिष्ठाचार्य प्रधानामाय एवं अन्य सभी विशिष्ट उपस्थित पुरुष विस्मय विमुग्ध थे कि यह सब क्या हो रहा है। सभी चिन्तित थे तभी नेमिचन्द्राचार्य श्री ने अपने निमित ज्ञान से जाना कि म० महावीर के समोशरण में अपनी कमल पां लेकर प्रभु धर्चा के लिए फुदक कर जाने वाले उपेक्षित मण्डराज की भांति यहां भी कोई उपेक्षित बुद्धा श्रीफल की छोटी-सी गुल्लिका (कटोरी में दूध लिए प्रभु का अभिषेक के लिए भक्तिपूर्वक एक मास से लगातार घा रही है पर इस विशाल जन समूह में उसे कही भी कोई स्थान नहीं मिल पा रहा है। यह सर्वच उपेक्षिता है इसीलिए यह दुग्धाभिषेकपूर्ण नहीं हो पा रहा है।
म० बाहुबलि के प्रतिष्टाचार्य ने तुरन्त हो अपने शिष्य प्रधानामात्य को प्रादेश दिया कि उस बुद्धा को बादर पूर्वक लाभो तभी अभिषेक सम्पन्न हो सकेगा। गुरु भक्त चामुण्डराय तुरन्त ही नगे पांव अजिज (बुद्धा) के पास पहुंचे और बादर पूर्वक प्रार्थना करके उस प्रजिमा देसी मेधावी दादी मां को प्रभु प्रतिमा के पास से ) बाये घोर दुग्धाभिषेक के लिए अनुरोध किया, जैसे ही afra ने गुल्लिका भर दूध से प्रभु का भक्तिभाव से अभिषेक किया वैसे ही दूध की नदियाँ बह निकली धोर
विन्ध्यगिरि तथा चन्द्रगिरि के मध्य स्थित सरोवर दूध के लबालब भर गया तभी से उस वृद्धा का नाम गुल्लिकाज्जि पर गया। कहते हैं गुलकाजि के रूप में स्वयं कूष्माण्डकी देवी ही थी जिन्होंने चामुण्डराय को स्वप्न दिया था कि गिरि से स्वर्ण बाण छोड़ो भ० बाहुबलि के दर्शन होगे।
भ० बाहुबलि का प्रथम महामस्तकाभिषेक समारोह पूर्वक सानन्द सम्पन्न हुआ पर प्रधानामात्य चामुण्डराय के प्रन्तस्तल मे उपर्युक्त दो भक्त सायको ( चागद मौर गुल्लि काज्जि) की श्रद्धा और निष्ठा के प्रति एक प्रतीव रागात्मक सद्भाव उत्पन्न हुधा तः उन्होंने भ० बाहुबलि के चिरस्थायीत्व की भांति इन दोनो साधको की भक्तिभावना को चिरस्थायीत्व देने के लिए प्रतिमा के पास ही छह फुट ऊंचा चागदस्तभ तथा गुल्लिकाउिज की प्रतिमा का निर्माण कराया जा श्राज भी उनकी यशोगाथा गा रहे हैं।
भ० बाहुबलि की प्रतिमा के शिल्पी वागद के स्तंभ की एक बड़ी भारी विशेषता है कि यह घर मे विद्यमान है इसके नीचे से एक रूमाल जैसा पतला कपड़ा अभी भी निकल जाता है। उस बागद स्तंभ पर चामुण्डरा की प्रशंसा मे छह लोक उत्कीर्ण है शेष को हेगडे कण्न ने बिसवा दिया वा प्रत्यया चामुण्डराय तथ्य इस प्रतिमा के निर्माण संबंधी कुछ और ऐतिहासिक तथ्य हस्तगत हो जाते जिससे भारतीय इतिहास और पुरातत्व और अधिक गौरवान्वित हो जाता, पर विधि को यह सब मजूर न था । इस स्तंभ पर प्रधान शिल्पी त्यागद ब्रह्मदेव ( चागद) की प्रतिमा विराजमान है। जय हो गुल्लिकाज्जि की और जय हो बागद शिल्पी जैसे भक्त साधको की जो उपेक्षित होते हुए भी भारतीयों को ही नहीं सपूर्ण विश्व को ऐसी बहुमूल्य धरोहर दे गये।
"जय चागद जय गुल्लकाज्जि"
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घुतकुटीर, ६० कुम्तीगार्म विश्वासनगर, शाहदरा, दिल्ली- ११००३२
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बाहुबली मूर्तियों की परम्परा
श्रीमार्तण्ड चामुण्डराय ने भगवान बाहुबली की विश्व वन्द्य मूर्ति की प्रतिष्ठापना करके जिस विशालता, भव्यता और वीतरागता को लोकिक कला में रूपान्तरित किया, उसने प्रागे की शताब्दियों के श्रीमन्तो और कलावन्तों को इतना अधिक प्रभावित किया कि बाहुबली की विशाल मूर्ति का नव-निर्माण उनके जीवन की साथ बन गयी। बाहुबली यद्यपि तीर्थकर नहीं थे, किन्तु उपासको ने उन्हें तीर्थंकर के समकक्ष पद दिया ऐसा ही धनुषम रहा है उनका कृतित्व जिसे हम अनेक ग्रन्थो में देख चुके है। कर्नाटक में जन-सामान्य के लिए ता वह मात्र देवता हैतीर्थंकर, जिन, कामदेव के नामो और उपाधियों से परे !
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दक्षिण कर्नाटक मे मूडबिद्री से उत्तर मे १५ कि०मी० की दूरी पर स्थित कारकल मे सन् १४३२ में लगभग ४१३ फुट ऊँची प्रतिमा प्रतिष्ठापित हुई जिसे राजपुरुष वीरपांड्य ने जैनाचार्य ललितकीति की प्रेरणा से निर्मित कराया ।
एक मूर्ति मूडबिद्री से लगभग १२ मील दूर वेणूर मे चामुण्डवशीय तिम्मराज न सन् १६०४ मे स्थापित की, जिसको ऊंचाई ३५ फुट है। इसके प्रेरणास्रान भी चारकोति पण्डित माने जाते हैं ।
कुछ वर्ष पहले मैसूर के पास वाले एक ने उजाड स्थान के ऊँचे टीले का उत्खनन करने पर बाहुबली की १८ फुट ऊँची मूर्ति प्राप्त हुई थी। मब उस स्थान को 'गोम्मटगिरि' कहा जाता है ।
कर्नाटक के बीजापुर जिले के बादाम पर्वतशिखर के उत्तरी दाल पर जो चारोस्को जन गुदा-मन्दिर है उनमे से नौं गुड़ा-मन्दिर के म मे कोने के एक देव प्रकोष्ठ में विभिन्न तीर्थंकर मूर्तियों के मध्य उत्कीर्ण मूर्ति सर्वप्रभु बाहुबलि की मूर्ति है। इस फुट ६ इंच ऊंची मूर्ति की भी दर्शनीय है जिसकी परम्परा दसवी शनी मे श्रवणबेलगोल की महामूर्ति मे ऊर्णा प्रर्थात् घुघराले केशों के रूप मे परिणत हुई।
श्री लक्ष्मीचन्द जैन, नई दिल्ली
बादाम बाहुबली की सजा की परम्परा घाठवींनोवी शती को उस मूर्ति मे विद्यमान है जो बाहुबली की प्रथम कास्य मूर्ति है । लगभग डेढ फुट ऊँचे प्राकार की यह मूर्ति मूलतः अवणबेलगोल की है और प प्रिंस ग्राफ वेल्स संग्रहालय, बम्बई मे (क्रमांक १०५ ) प्रदर्शित है। इसका वर्तुलाकार पादपीठ अनुपात में इससे कुछ बड़ा है और इससे टूट कर हो गया है। स्कन्ध कुछ प्रषिक चौड़े है किन्तु शरीर का शेष भान उचित धनुपात में है । मुख-मण्डल मण्डाकार है, कपोलपुष्ट है मोर नासिका उम्मत है। पोष्ठ मोर भौंहें उभरी होने से अधिक धावक बन पड़ी है। केवा राशि पीछे की ओर काढ़ी गयी है किन्तु अनेक घुंघराली जटाएँ कन्धो पर लहराती दिखायी गयी है । लताएं उनके पैरो से होकर हाथो तक ही पहुची है। कालक्रम से यह द्वितीय मानी जा सकती है।
कालक्रम से तृतीय बाल मूर्ति ऐहोल के इन्द्रसभा नामक तीन गुहामन्दिर को भयं निर्मित वीषि में उत्कीर्ण है। बीजापुर जिले के इस राष्ट्रकूट-कालीन केन्द्र का निर्माण पाठवी-नौवीं शती में हुआ था। इसी गुहा मन्दिर मे नोवो दसवी शती में जो विविध चित्रांकन प्रस्तुत किए गए उनमे से एक बाहुबली का भी है। बाहुबली का इस रूप में यह प्रथम पोर संभवतः प्रतिम चित्राकन है।
कर्नाटक में गोलकुण्डा के खजाना बिल्डिग सग्रहालय मे प्रदर्शित एक बाहुबली मूर्ति काने बेसाल्ट पाषण की है। १.७३ मीटर ऊंची यह मूति कदाचित् दसवी दातो की है।
पत्तनचेरुव में प्राप्त और राज्य संग्रहालय हैदराबाद में प्रदर्शित एक बाहुबली मूर्ति राष्ट्रकूट कला का अच्छा उदाहरण है। इसमे लताएँ कन्धो से भी ऊपर मस्तक के दोनों पोर पहुंच गयी हैं। दोनों घोर प्रकिन एक-एक लघु युवती प्राकृति की एक हाथ लता को अलग कर रहा है और दूसरा कटि तक प्रति मुद्रा मे है। बारहवी
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५८.
५ कि.४
अनेकान्त
की यह मूर्ति कई दृष्टियों से उल्लेखनीय है। श्रीवत्स वर्ष पूर्व स्थापित विशाल बाहुबली-मूर्ति प्रौर सागर न होने से यह उत्तर और दक्षिण को श्रृंखला जोड़ती प्र. के वर्णी भवन में स्थापित मूर्ति उल्लेखनीय है ।
स्तिक भोर कमलाकृति प्रभामण्डल है जो उत्तर भारत के प्रश्य मन्दिरों में भी बोन्ज मोर पीतल अन्य बाहुबलि-मूर्तियों में प्राय अप्राप्य है। कटि को की भनेक बाहुवली मूर्तिया विराजमान हैं। विवालि ने समूची मूर्ति के अनुपात को सन्तुलित किया है। कतिपय त्रिमूर्तियाँ:
बादामी तालुके में ही एक गाँव है ऐहोल, जिसके बाहुबली को भरत चक्रवर्ती के साथ ऋषभनाथ की पास गुफाएं हैं। गुफामों में पूर्व की पोर मेघटी नामक परिकर-मूर्तियों के रूप में भी प्रस्तुत किया गया है। बारा जैन मन्दिर है। इसके पास की गुफा में बाहुबली की ७ लता-वेष्टित बाहुबली की पोर दाएं नव-निधि से प्रभि फुट ऊंची मूर्ति उत्कीर्ण है।
ज्ञात भरत की मूति से समन्वित ऋषभनाथ की जटादक्षिण में ही दौलताबाद से लगभग १६ मील दूर मण्डित मूर्तियां भव्य बन पड़ी है। ऐसे अनेक मयंकन एलोरा की गुफाएं हैं। इन में पाच जैन-गुफाए है। इनमे देखे गये है। एक इनासभा नामक दोतल्ला मभागह है। इनकी बाहरी जबलपुर जिले में बिलहरी ग्राम के बाहर स्थित कल. दक्षिणी दीवार पर बाहबली की एक मूर्ति उत्कीर्ण है। चुरिकालीन, लगभग नौवी शती, जैन मन्दिर के प्रवेश उत्तर भारत की विशिष्ट वाहुबली मूर्तिया
द्वार के सिरदल पर इस प्रकार का सम्भवत: प्राचीनतम
मयंकन है। बहुत समय तक कला-विवेचकों में यह धारणा प्रच
उत्तरप्रदेश के ललितपुर जिले मे स्थित देवगढ़ के मित थी कि बाहवली की मूर्तिया दक्षिण भारत में ही
पर्वत पर एक मन्दिर मे जो ऐसा मृत्यंकन है वह कला की प्रचलित हैं। उत्तर भारत में इनक उदाहरण अत्यन्त
दृष्टि से सुन्दरतम है और उसका निर्माण देवगढ़ की बिरल है। किन्तु शोष-खोज के उपरान्त उत्तर भारत में
अधिकांश कलाकृतियो के साथ लगभग दसवी शती में उल्लेखनीय भनेक बाहुबली-मूर्तियो के अस्तित्व का पता
हुमा होगा। लगा है जिनका विवरण निम्न प्रकार है
खजराहो के केन्द्रीय संग्रहालय मे एक सिरदल (क्रमाक जमागढ़ संग्राहलय मे प्रदर्शित नौवी शताब्दी की
१७२४) है। उस पर विभिन्न तीर्थंकरों के साथ भरत मूर्ति जो प्रभासपाटन से प्राप्त हुई है।
पोर बाहुबली के मूयंकन भी है। यह दशवी शती की खजुराहों में पाश्र्वनाथ मन्दिर की बाहरी दक्षिणो दीवार पर उत्कीर्ण दशवी शताब्दी की मूर्ति ।
चन्देल कृति है। __ लखनऊ संग्रहालय को दशवी शताब्दी को बाहुबली
भरत पोर बाहुबली के साथ ऋषभनाथ की विशामूर्ति जिसका मस्तक भोर चरण खडित है।
लतम मूर्ति तोमर काल, पन्द्रहवी शती मे ग्वालियर की वगढ़ में प्राप्त मूर्ति, दशवी शताब्दीकी नाभी गुफापो में उत्कीर्ण की गयी। वहीं के 'साहू जैन संग्रहालय' मे प्रदर्शित है। इस मूर्ति
__इस प्रकार को एक पीतल की मति नई दिल्ली के का चित्र जर्मन पुरातत्ववेत्ता क्लोस ब्रून ने अपनी पुस्तक
राष्ट्रीय संग्रहालय में है। इसमे ऋषभनाथ सिंहासन पर में दिया है । देवगढ़ मे बाहुबली को ६ मूर्तिया प्राप्त है ।
प्रासीन है और उनकी एक मोर भरत तथा दूसरी पोर
बाहुबली कायोत्म गस्थ हैं। यह सम्भवत: चौदहवी शती बिमहारी, जिला जबलपुर, मध्यप्रदेश से एक शिला.
को पश्चिम भारतीय कृति है। पट प्राप्त हुमा है जिस पर बाहुबली की प्रतिमा उत्कीर्ण
इन पांचों के अतिरिक्त और भी कई मतियो पर बीसवीं शताम्मी की नयी मूर्तियो मे, जिन्हें ऊँचे माप ऋषभनाथ के साथ भरत पोर बाहुबली की प्रस्तुति होने पर बनाया गया है, पारा (बिहार) के जैन बालाश्रम मे का संकेत मिलता है । उड़ीसा के बालासोर जिले में भद्रक स्थापित मूति, उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद नगर में कुछ रेलवे स्टेशन के समीप चरम्पा नामक ग्राम प्राप्त और
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बाहुबली मूर्तियों को परम्परा प्रब राज्य संग्रहालय, भवनेश्वर में प्रदर्शित अनेक जैन छोडकर सम्भवत: पोर किसी में सांप को बाबिया नहीं मतियों में से कुछेक में इस प्रकार के मूत्यंकन है। दिखायी गयी है।
इसके अतिरिक्त एक ऐसा मयंकन भी प्राप्त हमा उत्सर भारत की मर्तियों बाहबली की बहिनोजो इन सभी से प्राचीन कहा जा सकता है। उडीसा के ब्राह्मी पौर सुन्दरी का अंकन नही है। जहाँ भी दो स्त्रियाँ क्योंझर जिले में अनन्तपुर तालुका मे बोला पहाड़ियों के दिखायी गई हैं वे या तो सेविकायें हैं, या फिर विचामध्य स्थित पोदसिगिदि नामक ऐतिहासिक स्थान है। धरियां जो जता गुच्छों का अन्तिम भाग हाथ में पामे यहाँ ऋषभनाथ की एक मूर्ति प्राप्त हुई है। उड़ीसा में हैं, मानो शरीर पर से लतायें हटा नही। एलोरा की प्राप्त यह प्रथम जैनमूर्ति है जिस पर लेख उत्कीर्ण है। गुफा की बाइबली मति मे जो दो महिलायें अंकित इस में प्रागन पर वृषभ लांछन के सामने दो बडांजलि मकुट पोर पाभूषण पहने हैं। बेनामी पौर सुन्दरी हो भक्त प्रकित हैं जो भरत और बाहुबली माने जा सकते हैं, सकती हैं। प्रोर तब यह इस प्रकार की मूर्तियों में मर्वामिक प्राचीन बिलहरी की दो मतियों में से एक में दो सेविका, होगी ।
जो विद्याधरी भी हो सकती हैं, लत्तावृत्त पामे हए एक पटली चित्रांकन :
हैं। ये त्रिभंग-मदा मे हैं। मति के दोनों पोर पोर बाहबली की गृहस्थ अवस्था का, भरत से युद्ध करते कन्धों के ऊपर जिन-प्रतिमायें है। मरी मति में भक्तममय का, मत्य कन तो नही किन्तु चित्रांकन अवश्य प्राप्त मेविकायें प्रणाम को मद्रा में लता-गुच्छ पाने दिसावी हमा है। प्राचीन हस्तलिखित शास्त्रो के ऊपर-नीचे जो गयी है। काष्ठ-निर्मित पटालियां बांधी जाती थी उनमें से एक पर ज्यों-ज्यों ममय बीतता गया, उत्तर भारत की कायोयह चित्रांकन है । मूलतः जैसलमेर भण्डार को यह पटली त्मर्ग पतिमानों मे बाहुबली को साक्षात् तीर्थकर की पहले साराभाई नवाब के पास थी और अब बम्बई के प्रतिष्ठा दर्शाने के लिए सिंहासन, धर्मचक, एक-दो या कुसुम और राजेय स्थली के निजी मप्रहालय में है। तीन छत्र भामण्डन, मालाघारी, दुन्दुभिवावक और यहां बारहवी शती की इस पटली की रचना सिद्धराज जयसिंह तक कि यक्ष-यक्षियो का भी ममावेश कर लिया गया। चालुक्य, १०९४-११४४ ई., के शासनकाल मे विजय. श्रीवत्स चिह्न तो अंकित है ही। सिंहाचार्य के लिए हुई थी। इसका रचनास्थल राजस्थान इसीलिए प्रथम कामदेव बाहुबली को अब सम्पूर्ण होना चाहिए । भरत-बाहुबली-युद्ध इस पटलो के पृष्ठभाग श्रद्धाभाव से भगवान् बाहुबली कहा जाता है, पर उनकी पर प्रस्तुत है जिस पर घुमावदार लतावल्लरियो के वृत्ता- मूर्ति को तीर्थकर-मूर्ति के समान पूजा जाता है। कारो मे हाथी, पक्षी पौर पौराणिक शेरो के प्राल कारिक धोती पहने बाहुबली को मतिया भी कतिपय स्वेतांबर अभिप्राय अंकित हैं।
मन्दिरो मे प्राप्त है । दिलवाड़ा (राजस्थान) मन्दिर की उत्तर और दक्षिण की बाहुबली-मूर्तियों में रचना-भेद विमलबसहि, शत्रुजय (गुजरात) के वादिना मन्दिर
बाहुबली की मूर्तियों को सामान्य विशेषता यह है और कुम्भारिया (उत्तर गुजरात) के शान्तिनाथ मन्दिर कि उनकी जंबामो, भुजानों और वक्षस्थल पर लताएँ मे लगभग ११-१२वी शताब्दी की इस प्रकार की मतियां उस्कोर्ण रहती है जो इस बात को परिचायक है कि बाह- प्राप्त है। इन मूर्तियों का यद्यपि अपना एक विशेष साँवयं बली ने एक स्थान पर खड़े होकर इतने दीर्घ समय तक है तथापि यह कहना अनुचित न होगा कि बाहुबली की कायोत्सर्ग ध्यान किया कि उनके शरीर पर बेलें चढ़ गयी। तपस्या और उनकी कायोत्सर्ग मुद्रा का समस्त माण
दक्षिण की मूर्तियों में परणों के पास साप की बीविया प्रभाव दिगम्बरत्व में हो है। (बमोठे) हैं जिनमे से सौप निकलते हुए दिखाये गए हैं ।
विदेशक, भारतीय ज्ञानपीठ, किन्तु उत्तर की मूर्तियों में, प्रभासपाटन की मूर्ति को
बी/४५.४७, कनाट प्लेस, नई दिल्ली-1
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इन्द्रगिरि के गोम्मटेश्वर
0 श्री राजकृष्ण जैन
इन्द्रगिरि यह पर्वत बड़ी पहाड़ी के नाम से प्रसिद्ध है। भारत के मूर्तिकारों का मस्तक सदैव गर्व से ऊंचा रहेगा। इसे दोडवेट और विध्यगिरि भी कहते हैं । यह समा तट बाहबली (गोम्मटेश्वर) की मूर्ति यद्यपि जैन है से ३३४७ फट और नीचे के मैदान से ४७० फुट ऊंचा है। तथापि न केवल भारत, अपितु सारे संसार का प्रलोकिक ऊपर चढ़ने के लिए कोई ६०० सीढ़ी है। इसी पहाड़ पर धन है। शिल्पकला का बेजोड़ रस्न है, प्रशेष मानव जाति विश्वविख्यात ५७ फुट ऊंची खड्गार्सन गोमटेश्वर की की यह प्रमूख्य घरोहर है। इतने सुन्दर प्रकृतिप्रदत्त सौम्य मूति है। यह मूति १४-१५ मील से यात्रियों को पाषाण से इस मूर्ति का निर्माण हुमा है कि १००० वर्ष से प्रथम तो एक ध्वजा के स्तम्भ के माकार में दिखाई देती।
अधिक बीतने पर भी यह प्रतिमा सूर्य, मेष, वायु प्रादि .. किन्त पास पाने पर उसे एक विस्मय मे डालने वाली, प्रकृति देवी की प्रमोघ शक्तियों से बात कर रही है। उसमे अपूर्व और पलौकिक प्रतिमा के दर्शन होते हैं। यात्री पगाघ किसी प्रकार की भी क्षति नही हुई और ऐसा प्रतीत होता शान्ति का अनुभव करता है और अपने जीव का सफल है कि शिल्पी ने इसे अभी टांकी से उत्कीर्ण किया हो। मानता है।
गोम्मटेश्वर को मूर्ति माज के अन्ध ससार को देशना गोम्मटेश्वर की भूति
दे रही है कि परिग्रह भोर भौतिक पदार्थों की ममता पाप यह दिगंवर, उत्तराभिमुखी, खड्गासन ध्यानस्थ का मूल है। जिस राज्य के लिए भरतेश्वर ने मुझसे संग्राम प्रतिमा समस्त संसार की पाश्चर्यकारी.वस्तुमों में से एक है किया, मैंने जीतने पर भी उम राज्य को जीर्णतृणवत समझ सिर पर केशों के छोटे-छोटे कंतल, कान बड़े और लम्बे, कर एक क्षण में छोड़ दिया । यदि तुम शांति चाहते हो वक्षःस्थल चौदा, नीचे लटकती हुई विशाल भुजाएं और तो मेरे समान निर्द्वन्द्व होकर प्रात्मरत हो। कटि किञ्चित क्षीण है। घुटनों से नीचे की घोर टांगें एक बार स्वर्गीय ड्यूक चाफ वैलिंगटन जब वे सर्वाकार हैं। मूर्ति को प्रखें, इसके पोष्ट, इसकी ठण्डी, सरिंगापाटन का घेरा डालने के लिए अपनी फौजों की पांखों की मौहें सभी अनुपम पोर लावण्यपूर्ण हैं। मुख पर कमाण्ड कर रहे थे, मार्ग में इस मूर्ति को देख कर अपूर्व कान्ति पौर अगाध शान्ति है। घुटनों से ऊपर तक प्रश्चर्यान्वित हो गए मोर ठीक हिसाब न लगा सके कि बांवियां दिखाई गई है, जिनसे कुक्कुट सर्प निकल रहे हैं, इस मूर्ति के निर्माण में कितना रुपया तथा समय व्यय दोनों पैरों और भूजाधों है माधवी लता लिपट रही है। हआ है। मुख पर प्रचल ध्यान-मुद्रा पङ्कित है। मूर्ति क्या है मानों गोम्मटेश्वर कौन थे और उनकी मूर्ति यहां किसके स्याग, तपस्या पौर शान्ति का प्रतीक है। दृश्य बड़ा ही द्वारा किस प्रकार भोर कब प्रतिष्ठित की गई, इसका कुछ भव्य पोर प्रमावोत्पादक है। पादपीठ एक विकसित कमल उल्लेख शिलालेख नं० २३४ (८५) में पाया जाता है। के पाकार का बनाया गया है। निःसंदेह मूर्तिकार ने यह लेख एक छोटा-सा सुन्दर कन्नड काव्य है जो सन् अपने इस अपूर्व प्रयास में सफलता प्राप्त की है। समस्त ११८० ई. के लगभग बोप्पनकवि के द्वारा रचा गया था, संसार में गोम्मटेश्वर की तुलना करने वाली मूर्ति कहीं भी वह इस प्रकार है। नहीं है। इतने भारी पौर विशाल पाषाण पर सिद्ध हस्त "गोम्मट, पुरुदेव अपर नाम ऋषभदेव प्रथम तीर्थकर कलाकार ने जिस कौशल से अपनी छनो चलाई है उससे के पुत्र थे। इनका नाम बाहबली या भुजबली भी था।
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हागिरिपोयटेक्चर
१
इनके ज्येष्ठ भ्राता भरत थे। ऋषभदेव के दीक्षित होने के है। तीनों लोको के लोगों ने यह माश्चर्यजनक बटमा पश्चात भरत मोर बाहुबली दोनों भाइयों में साम्राज्य के देसी।बकौन है जो इस तेजस्वी मति का ठीक वर्णन लिए युद्ध हुमा, इसमें बाहुबली की विजय हुई, पर ससार कर सकता है? की गति से विरक्त हो उन्होंने राज्य अपने ज्येष्ठ भ्राता नागराजों का प्रख्यात संसार (पाताललोक) जिसकी भरत को सौंप दिया और पाप तपस्या करने वन में चले नींव है, पृथ्वी (मध्यलोक) जिसका माधार है, परिषिषक गए। थोड़े ही काल में तपस्या के द्वारा उन्हे केवलज्ञान जिसकी दीवारें है. स्वर्गलोक (ऊर्वलोक) जिसकी छत, प्राप्त हुमा । भरत ने जो प्रब चक्रवर्ती हो गए थे, पोदन- जिसको भट्रारी पर देवों के रथ है, जिनका ज्ञान तीन पुर में स्मृति रूप उनकी शरीकृति के अनुरूप ५२५ घनुष लोको में व्याप्त है। पत: वही त्रिलोक गोम्मटेश्वर का प्रमाण की एक प्रतिमा स्थापित कराई, समयानुसार मूर्ति निवास है। के पासपास का प्रदेश कुक्कुट सो से व्याप्त हो गया, क्या बाइबली पनुपम सुन्दर है ? हो, वे कामदेव हैं। जिससे उस मति का नाम कुक्कुटेश्वर पड़ गया। घोरे. क्या वे बलवान हैं ? हां, उन्होने सम्राट् भरत को परास्त घोरे-धीरे वह मति लुप्त हो गई और उसके दर्शन केवल कर दिया है। क्या ये उदार है? हा, उन्होने जीता हमा मनियो को ही मत्रशक्ति से प्राप्त होतेथे। गगनरेश साम्राज्य भरत को वापिस दे दिया है। क्या वे मोह रहित रायमल्ल के मंत्री चामुण्ड गय ने इस मूर्ति का वृत्तान्त हैं ? हो. वे ध्यानस्थ हैं और उनको केवल दो पर पृथ्वी सना और उन्हें इसके दर्शन करने की अभिलाषा हुई। पर से सन्तोष है जिस पर देखो क्या केवलज्ञानी है? पोदनपुर की यात्रा प्रशक्य जान उन्होने उसी के समान हो, उन्होंने कमंबधन का नाश कर दिया है। एक सौम्य मूर्ति स्थाति करने का विचार किया और जो मन्मथ से पषिक सुन्दर है, उत्कृष्ट भुजबल को तदनुसार इस मूर्ति का निर्माण कराया ।" पागे कवि ने धारण करने वाले हैं, जिगने मम्राट् के ग को सण्डित अपने भावों को धम्पन्त रसपूर्ण सुन्दर कविता में वर्णन कर दिया, राज्य को त्यागने से जिसका मोहनष्ट हो गया किया है। जिसका भाव इस प्रकार है :
जिसने कैवल्य प्राप्त करके सिवत्व पा लिया, समस्त "यदि कोई मूर्ति प्रत्युम्नत (विशाल) हो, तो यह ससार ने जिन पर नमेरु पुष्पों की वर्षा देखी, उन पुष्पों प्रावश्यक नहीं कि वह सुन्दर भी हो। यदि विशालता की चमक मोर दिग्य सुगन्ध परिषिचक से भागे चली पौर सुन्दरता दोनों हो, तो यह प्रावश्यक नहीं, कि उसमें गई। ..गोम्मटेश्वर के मस्तक पर पुष्पवृष्टि देखकर प्रलोकिक वैभव भी हो। गोम्मटेश्वर की मूर्ति मे स्त्री, पुरुष, बालक और पशु समह भी हषित हो उठा। विशालता, सुन्दरता और प्रलोकिक वैभव, तीनों का बेल्गोल के गोम्मटेश्वर के चरणों पर पुष्पवृष्टि ऐसी प्रतीत सम्मिश्रण है । अत: गोम्मटेश्वर की मूति मे बढ कर संसार होती थी, मानो उज्ज्वल तारा समूह उनके परणों की में उपानना के योग्य क्या वस्तु हो सकती है?
वन्दना को माया हो । बाहुबली पर ऐसी पुष्पवृष्टि या तो यदि माया (शची) इनके रूप का चित्र न बना सकी, उस समय हुई थी, जब उन्होने द्वन्द्व युद्ध में भारत को १,००० नेत्र वाला इन्द्र भी इनके रूप को देखकर तप्त न परास्त किया या उस समय हुई जब उन्होंने कमंशत्रमों हमा और २००० जिह्वा वाला नागेन्द्र (अधिशेष) भी पर विजय प्राप्त की। इनका गुणगान करने में असमर्थ रहा, तो दक्षिण के अनुपम प्रय प्राणी! तू व्ययं जन्म रूपो बन में भ्रमण कर पौर विशाल गोम्मटेश्वर के रूप का कोन चित्रण कर रहा है। तू मिथ्या देवों मे क्यों प्रदा करता है? तू सर्वसकता है। कौन उनके रूप को देखकर तृप्त हो सकता है श्रेष्ठ गोम्मटेश्वर का निन्तन कर । तू जन्म, बढ़ापा पौर पौर कौन उनका गुणगान कर सकता है।
खेद से मुक्त हो जायगा । पक्षी भूलकर भी इस मूर्ति के ऊपर नही रहते। गोम्मटेश्वर की यह विशाल मूर्ति देशना कर रही है बाहुबली की दोनों काखों में से केशर की सुगन्ध निकलती कि कोई प्राणी हिमा झूठ, पोरी, कुशील और परिग्रह में
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१२, वर्ष १३, कि०४
सुख न माने अन्यथा मनुष्य जन्म बेकार जायगा । पोदन-पुरस्थ मूर्ति का वर्णन चामुण्डराय की माता कालल
बाइबली को निरपराध स्त्रियों का विलाप भी न रोक देवी को सुनाया। उसे सुन कर मातश्री ने प्रण किया कि सका। उनका रोना उनके कानो तक नहीं पहुंचा। बिना जब तक गोम्मटदेव के दर्शन न कर लूंगी, दुग्ध नही लुंगी। कारण परित्याग करने पर उनको बसन्त ऋतु, चन्द्रमा, मातृभक्त चामुण्डराय ने यह संवाद अपनीपत्नी प्रजितादेवी पुरुप धनुष 'पौर वाण ऐसे प्रतीत होते थे, जैसे नायक के के मुख से सुना और तत्काल गोम्मटेश्वर की यात्रा को बिना नाट्य मंडलो। बाबियां और शरीर पर लिपटी हुई प्रस्थान किया। मार्ग मे उन्होंने श्रवण बेल्गोल की चन्द्रगुत माधवी लता बतला रही है कि पृथ्वी बिना कारण परि. बस्ती मे भगवान पार्श्वनाथ के दर्शन किए और प्रन्तिप त्याग के सिमट गई हो और लतारूप शोकग्रस्त स्त्रियो ने श्रुतके वली भद्रबाहु के चरणों की वन्दना की। रात्रि का उनको प्रालिंगन कर लिया हो।
स्वप्न पाया कि पोदनपुर वाली गोम्मटेश्वर की मूर्ति वा बाहबली को भरतेश्वर की प्रार्थना भी न रोक सकी।
दर्शन केवल देव कर सकते है, वहा वन्दना तुम्हारे लिए
अगम्य है, पर तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न होकर गोम्मटेश्वर भरत ने कहा था कि "भाई! मेरे १८ भाइयो ने संसार
तुम्हे यही दर्शन देंगे। तुम मन, वचन, काय की शुद्धि में त्याग करके दीक्षा धारण कर ली है। यदि पाप भी
सामने वाले पर्वत पर एक स्वर्णबाण छोड़ो और भगवान तपश्चरण को जायगे, तो यह राज्य सम्पदा मेरे किम काम
के दर्शन करो। मातश्री को भी ऐसा ही स्वप्न हुमा । प्रायगी ?"
दूसरे दिन प्रातःकाल ही चामुण्डराय ने स्नान पूजन में शुद्ध गोम्मटदेव ! प्रापकी वीरता प्रशंसनीय है। जब
हो चन्द्रगिरि की एक शिला पर अवस्थित होकर, दक्षिण मापके बड़े भाई भरत ने प्रार्थना की, कि पाप यह विचार
दिशा को मुख करके एक स्वर्ण बाण छोडा, जो बड़ी पहाडी छोह दें कि प्रापके दोनों पांव मेरी पृथ्वी मे है। पृथ्वी न
(विध्यगिरि) क मस्तक पर जाकर लगा। बाण लगन मेरी हैन मापकी। भगवान ने बतलाया है कि सम्यग्दर्शन,
ही विन्ध्यगिरि का शिखर कार उठा, पत्थरो की पपड। ज्ञान और चारित्र ही मात्मा के निजी गुण हैं । ऐसा सुनते
टूट पड़ी मोर मंत्री, प्रमोद प्रौर करुणा का ब्रह्मविहार ही मापने सर्व गवं त्याग दिया और आपको कैवल्य की
दिखलाता हुमा गोम्मटेश्वर का मस्तक प्रकट हुप्रा। प्राप्ति हुई।
चामुण्डराय और उसकी माता की प्रांखों से भक्तिवश गोम्मटदेव यह प्राप ही के योग्य था। प्रापके
अविरल अश्रुधारा बहने लगी। तुरंत असंख्य मूर्तिकार तपश्चरण से आपको स्थायी सुख मिला तथा औरों को
वहां मा गए । प्रत्येक के हाथ मे हीरे की एक-एक छनी प्रापने मार्गप्रदर्शक का कार्य किया। प्रारने घातिया कर्मों
थी। बाहबली के मस्तक के दर्शन करते जाते थे और का नाश करके अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तवीर्य और
प्रास-पास के पत्थर उतारते जाते थे। कन्धे प्रकट हुए, मनन्तसुख प्राप्त किया और अधातिया कमो के नाश मे
छाती दिखाई देने लगी, विशाल बाहुमो पर लिपटी हुई अपने सिद्धत्व प्राप्त किया।
माधालता दिखाई दी। वे परों तक प्रा पहुंचे। नीचे हे गोम्मटदेव ! जो लोग इन्द्र के समान सुगन्धित
वामियों मे से कुक्कुट सर्प निकल रहे थे, पर बिल्कुल पुष्पों से पापके चरण कमल पूजते है, प्रसन्नचित्त हो र
अहिंसक। पैरों के नीचे एक विकसित कमल निकला। दर्शन करते हैं, आपकी परिक्रमा करते है और पापका गान
भक्त माता का हृदय-कमल भी खिल गया और उसने करते हैं, उनसे अधिक पुण्यशाली कोन होगा ?"
कृतार्थ और मानन्दित हो 'जय गोम्मटेश्वर' की ध्वनि यह वर्णन थोड़े-बहुत हेर-फेर के साथ 'भुजबलियतक'. की। प्राकाश से पुष्पवृष्टि हुई और सभी घश्य-धन्य कहने 'भजवलिचरित' गोम्मटेश्वर चरित्र', राजाबलिकथा' तथा लगे। फिर चामुण्डराय ने कारोगरों से दक्षिण बाज पर 'स्थलपुराण' में भी पाया जाता है।
ब्रह्मदेव सहित पाताल गम्ब, सन्मुख यक्षगम्ब, ऊपर का 'भजलिचरित' के अनुसार जैनाचार्य जिनसेन ने खण्ड, त्यागदकम्ब, प्रखण्ड वागिल नामक दरवाजा मोर
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इन्द्रगिरि के गोमटेश्वर
यत्र सीढ़िया बनवाई। दरवाजे पर ही एक भव्यात्मा रावण और रावण की रानी मन्दोदरी ने बल्लोष. गुल्लकाय देवी की मूर्ति है।
गोम्मटेश्वर की बन्दना की थी। इसके पश्चात् अभिषेक की तैयारी हई। उस समय
मनिवशाम्युदय काव्य मे लिखा है कि गोम्मट की एक वृद्धा महिला गल्ल कायजी नाम की, एक नारियल की मतिको राम और सीता लङ्का से लाए थे। वे इसका पूजन प्याली मे अभिषेक के लिए थोड़ा-सा अपनी गाय का दूध करते थे। जाते समय वे इस मति को उठाने में असमर्ष ले पाई मौर लोगों से कहने लगी कि मुझे अभिषेक के रहे इसी से वे उन्हें इस स्थान पर छोड़कर चले गए। लिए यह दूध लेकर जाने दो, पर विचारी बुढ़िया की कोन
उपर्युक्त प्रमाणों से यही विवित होता है कि इस मति सुनना ? वृद्धा प्रतिदिन सबेरे गाय का दूध लेकर माती
की स्थापना चामुण्डराय ने ही कराई थी। ५७ फुट की पोर प्रधेरा होने पर निराश होकर घर लौट जाती। इस
मूर्ति खोद निकालने योग्य पाषाण कहीं और स्थान से प्रकार एक मास बीत गया। अभिषेक का दिन भाया पर
लाकर इतने ऊंचे पर्वत पर प्रतिष्ठित किया जाना बुद्धिमम्म चामण्डराय ने जितना भी दुग्ध एकत्रित कराया उससे
नही है। इसी पहाड़ पर प्रकृति-प्रदत्त स्तम्माकार चट्टान अभिषेक न हुआ। हजागे घड़े घ डालने पर भी दुग्ध
काट कर इम मूति का निर्माण हुमा है। मूर्ति के सम्मुख मोम्मटेश्वर को कटि तक भी न पहुंचा। चामुण्डराय ने
का मण्डप नव सौन्दर्य से खचित छतों से सजा हुपा है। घबरा कर प्रतिष्ठाचार्य से कारण पूछा । उन्होने बतलाया
गोम्मटेश्वरको प्रतिष्ठा पोर उपासना कि मति निर्माण पर जो तुझमे कुछ गर्व की प्राभा-सोमा गई है इसलिए दुग्ध कटि से नीचे नहीं उतरता। उन्होंने बाहबली चरिष मे गोम्मटेश्वर की प्रतिष्ठा का समय प्रदेश दिया कि जो दुग्ध वृद्धा गुल्लि काया मपनी कटारी कल्कि सवत ६०० में विभवसवत्सर चंच शुक्ल ५ रविवार मे लाई है उससे अभिषेक कराम्रो। चामुण्डराय ने ऐसा को कम्भ लग्न, सौभाग्ययोग, मृगशिरा नक्षत्र लिखा है। हो किया. और उस प्रत्यल्प दुग्ध को धारा गोम्मटेश के विद्वानों ने इस संवत की तिथि २३ मार्च सन् १०२८ मस्तक पर छोड़ते ही न केवल ममस्त मूर्ति का अभिषेक
निश्चित की है। हपा बल्कि सारी पहाड़ी दुग्धमय हो गई चामुण्डराय को
प्रश्न हो सकता है कि बाहबनीको मति की उपासना ज्ञान हुप्रा कि इतनी मेहनत, इतना व्यय और इतना वैभव भक्ति भी एक दुग्ध को कटोरी के सामने तुच्छ है।
कसे प्रचलित हुई। इसका प्रथम कारण यह है कि इस
प्रवपिणी काल ये सब प्रथम भगवान ऋषभदेव से भो इसके पश्चात् चामुण्डगय ने पहाडी के नीचे एक पहले मोक्ष जाने वाले अत्रिय वीर बाहुबली ही थे। इस नगर बसाया भोर मूर्ति के लिए ६६,००० वरह को प्राय यग के प्रादि में इन्होने ही सर्वप्रथम मुक्ति-पथ प्रदर्षन के गांव लगा दिए। अपने गुरु प्रजितसेन के कहने पर उस
पाजतसन क कहन पर उस किया। दूसरा कारण यह हो सकता है कि बाहुबली के गाव का-नाम श्रमणबेल्मोल रखा और उस गुलकायज्जि
अपूर्व त्याग, अलौकिक पात्मनिग्रह और निज बाधु-प्रेम बृद्धा को मूर्ति भी बनवाई।
मादि प्रसाधारण एवं प्रमानुषिक गुणों ने सर्वप्रथम अपने गोम्मटेश्वर चरित' में लिखा है कि चामुण्डराय के बड़े भाई सम्राट भरत को इन्हें पूजने को बाध्य किया पौर स्वर्णवाण चलाने से जो गोम्मट को मूर्ति प्रकट हुई थी, तत्पश्चात् पौरों ने मी भरत का अनुकरण किया। चामण्डराय ने उसे मूर्तिकारों से सुघटित कराकर अभि
चामुण्डराय स्वयं वीरमार्तण्ड थे, सुयोग्य सेनापति थे। प्रतः षिक्त मोर प्रतिष्ठित कराई।
उनके लिए महाबाहु बाहुबली से बढ़ कर दूसरा कोई 'सलपुराण' के अनुसार चामुण्डराय ने मूर्ति के हेतु प्रादशं व्यक्ति न पा। यही कारण है कि अन्य क्षत्रियों ने एक लाख छयानवे वरह की प्राय के ग्रामों का दान दिया। भी चामुण्डराय का अनुसरण करके कारकल और वेलूर में
राजावलिकथा के अनुसार प्राचीन काल में राम, गोम्मटेश की मूर्तियां स्थापित कराई।
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अनेकान्त
मोम्मटेश्वर नाम क्यों पड़ा?
फुट इंच अब प्रश्न हो सकता है कि बाहुबली की मूर्ति का नाम चरण से कणं के प्रषोभाग तक गोम्मट क्यों पड़ा? संस्कृत मे गोम्मट शब्द मन्मथ कर्ण के अधोभाग से मस्तक तक (कामदेव) का ही रूपान्तर है। इसलिए बाहुबली की
चरण की लम्बाई
चरण के प्रग्रभाग की चौड़ाई मूर्तियां गोम्मट नाम से प्रख्यात हुई। इतना ही नहीं,
चरण का अंगुष्ठ बल्कि मूर्ति स्थापना के पश्चात इस पुण्य कार्य की स्मृति ।
हात पाद पृष्ठ को ऊपर को गोलाई को जीवित रखने के लिए सिद्धान्त चक्रवर्ती प्राचार्यप्रवर जंघा की पर्ष गोलाई श्री नेमचन्द्र जी ने चामण्डराय का उल्लेख 'गोम्मटराय'के नितम्ब से कणं तक नाम से ही किया और अपने शिष्य चामुण्डराय के लिए 2
पृष्ठ-अस्थि के प्रधोभाग से कर्ण तक रचे हए 'पंच संग्रह प्रथ का नाम उन्होंने गोम्मटसार
नाभि के नीचे उदर को चौड़ाई
कटि की चौड़ाई रखा । चामुण्डराय का घरू नाम भी गोम्मट था। इसलिए
कटि और टेहुनी से कर्ण तक भी कहा जाता है कि मति का नाम गोम्मटेश्वर पहा ।। बाहमल से कणं तक मति का प्राकार
वक्षःस्थल की चौड़ाई भगवान बाहुबली की इतनी उन्नत मूर्ति का नाप लेना
ग्रोवा के प्रधोभाग से कर्ण तक
तर्जनी की लम्बाई कोई सरल वार्य नहीं है। सन् १८६५ में मैसूर के चीफ
मध्यमा की लम्बाई कमिश्नर श्री वोरिंग ने मति का ठीक-ठीक माप करा कर पनामिका को लम्बाई उसकी ऊंचाई ५७ फूट दर्ज की थी। सन १८७१ ईस्वी में कनिष्ठका को लम्बाई महमस्तकाभिषेक के समय मैसूर के सरकारी अफसरों ने [स्व. श्री राजकृष्ण जैन कृत पुस्तक 'श्रवणबेल्गोल और मति के निम्न माप लिये
दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ' से उद्घत] 000
सम्यक्त्व-मति चामुण्डराय [मोमसार को कन्नरो टोका श्री केशव वर्णी ने शक सं० १२८१ में की थी उसको प्रशस्ति में चामुण्डराय के विषय में निम्न उल्लेख दृष्टव्य है (इसे पृष्ठ ५६ के लेख के शेषांश के रूप में भी पढ़ा जाए) -सम्पादक
भी माप्रतिहतप्रभाव स्थानावशासनगृहाम्यंतरनिवासि सिंहायमान सिंहनंदी मुनीमाभिनवित गंगवंश ललाम राजमायनेक गणनाममभागधेय श्रीमनाचमल्ल देव महीबल्लभ महामात्य पर विराजमान रणरग. मल्ल सहाय पराकम गणरत्नभषण सम्यक्त्वरत्न मिलायारिविषिषगणनामसमासाक्ति कोतिकान्त श्रीमच्चामपराय प्रानावतीणक चत्वारिंशत्पदनाम सत्वप्ररूपणाद्वारेणाशेवधिमेयखन निकुरवातबोषना नेमिचन्द्र सिद्धान्तमावर्ती शास्त्रमारोत। काटिकी वृत्तिगि केशवः कृतम्।"
-"स्याबाव-शासनरूपी गुफा के मध्य निवास करने वाले स्याहाद के अनुगामी मोर (वादियों में) सिंह के समान माचरण करने वाले प्रतिहत प्रभावी सिंहनंदी नामक मुनि से अभिनंदित, सर्वज्ञ (?) मादि ममेक गुण माम के पारक, भाग्यशाली गंगवंश के अवतंस रामा राचमस्ल के महामात्यपर पर पासीन, रणभूमि में मल्ल, पराकमरूपी, गुणरस्म के भूषण, सम्पपस्वरूपी रनके निवास मावि विविधगणों से यस्तोर कीति से दीप्यमान भीमद चामुगरायके प्रश्नों के कारणले-समस्तशिष्य समहमान के लिए सिवान्तवावर्ती भी नेमिचन्दबी द्वारा इकतालीस पदों वाली सत्-प्ररूपणा का प्रवतरण हुमा-शास्त्र (गोम्मटसार) बनाया गया। जिसकी कर्नाटकी वृत्ति (टीका) केशवपर्णी बारा बनाई गई।"
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जैन - परम्परा में सन्त और उनकी साधना-पद्धति
जैन सन्त: लक्षण तथा स्वरूप
सामान्यतः भारतीय सभ्त साधु, मुनि, तपस्वी या यतिके नाम से प्रभिहित किए जाते हैं । समय की गतिशील धारा मे साधु-सन्तों के इतने नाम प्रचलित रहे है कि उन सबको गिनना इस छोटे से निबन्ध मे सम्भव नहीं है । किन्तु यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जैन-परम्परा मे साधु, मुनि तथा श्रमण शब्द विशेष रूप से प्रचलित रहे है । साधु चारित्र वाले सन्तो के नाम है।' श्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु वीतराग, घनगार, भदन्त, दन्त या यति । बौद्ध परम्परा के श्रमण, क्षपणक तथा भिक्षु शब्दों का प्रयोग भी जैनवाङ्मय मे जैन साधुग्रो के लिए दृष्टिगत होता है। हमारी धारणा यह है कि साधु तथा श्रमण शब्द प्रत्यन्त प्राचीन है । शौरसेनी भागम ग्रन्थों में तथा नमस्कार मन्त्र मे 'साहू' शब्द का ही प्रयोग मिलना है । परवर्ती काल मे जैन भागम ग्रन्थो में तथा प्राचार्य कुन्दकुन्द प्रादि की रचनाओंों में साहू तथा सपण दोनों शब्दों के प्रयोग भली-भांति लक्षित होते है ।
साधु का पथ है? - श्रनन्त ज्ञानादि स्वरूप शुद्धात्म की साधना करने वाला | जो प्रनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य, अनन्त सुख भोर क्षायिक सम्यक्त्वादि गुणों का साधक है, वह साधु कहा जाता है। 'सन्त' शब्द से भी यही भाव ध्वनित होता है क्योंकि सत्, चित् भौर प्रानन्द को उपलब्ध होने वाला सन्त कहलाता है। इसी प्रकार जिसे शत्रु और बन्धुवर्ग, सुख-दुःख, प्रशंसा-निन्दा, मिट्टी के ढेने, स्वर्ण और जीवन-मरण के प्रति सदा समताका भाव बना रहता है, वह श्रमण है। दूसरे शब्दों में जिसके राग-द्वेष १. समणोति संजदोत्ति यरिमिमुणिसाधुत्ति बोदरागोत्ति । णामणि सुविहिदाण अणगार भदंत दत्तोत्ति || मूलाचार, गा० ८८६ २. "मनन्तज्ञानादिशुद्धात्मस्वरूपं साधयन्तीति साधवः ।” - घवला टीका, १, १, १
[] डा० देवेन्द्रकुमार शास्त्री, नीमच
का द्वैत प्रकट नहीं होता, जो सतत विशुद्ध दृष्टिज्ञप्तिस्वभाव शुद्धात्म-तत्व का अनुभव करता है, वहीं सच्चा साधु किवा सन्त है । इस प्रकार धर्मपरिणत स्वरूपवाला श्रात्मा शुद्धोपयोग में लीन होने के कारण सच्चा सुख प्रथवा मोक्ष सुख प्राप्त करता है । साधु-सन्तों की साधना
यही एकमात्र लक्ष्य होता है। जो शुद्धोपयोगी भ्रमण होते हैं, वे राग-द्वेषादि से रहित धर्म-परिणत स्वरूप शुद्ध साध्य को उपलब्ध करने वाले होते हैं, उन्हें ही उत्तम मुनि कहते है । किन्तु प्रारम्भिक भूमिका में उनके निकटवर्ती शुभोपयोगी साधु भी गौण रूप से श्रमण कहे जाते हैं। वास्तव में परमजिनकी प्राराधना करने में सभी जन सन्त-साधु स्व शुद्धात्मा के ही प्राराषक होते हैं क्योंकि निजात्मा की प्राराधना करके ही वे कर्म-शत्रुओंों का विनाश करते है ।
।
किन्तु उनमें मूल मूल गुण के बिना
साधु के अनेक गुण कहे गए गुणों का होना अत्यन्त अनिवार्य है। कोई जनसाधु नहीं हो सकता । मूलगुण ही वे बाहरी लक्षण है जिनके प्राधार पर जंन सन्त को परीक्षा की जाती है । यथार्थ में निर्विकल्पता मे स्थित रहने वाले साम्यदशा को प्राप्त साधु ही उत्तम कहे जाते हैं। परन्तु अधिक समय तक कोई भी श्रमण सन्त निर्विकल्प दशा में स्थित नही रह सकता । प्रतएव सम्यक् रूप से व्यवहार चारित्र का पालन करते हुए अविछिन्न रूप से सामायिक में मारूढ़ होते हैं | चारित्र का उद्देश्य मूल में समताभाव की उपासना है। क्या दिगम्बर मोर क्या श्वेताम्बर दोनों परम्पराम्रों में मुनियों के चारित्र को महत्व दिया गया है । चारित्र दो ३. समन्वग्गो समसुहदुक्खो पसंसनिदसमो । समलोकं बणो पुण जीविदमरणे समो समणो ॥ प्रवचनसार, गा० २४१
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६६, वर्ष १३, किरण ४
प्रनेकान्त
प्रकार का कहा गया है -सयक्त्वाचरण चारित्र और जाता है। जहाँ सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग है, वहां सभी सयमाचरण चारित्र । प्रयम मर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट जिनागम वस्त्रों का भी त्याग है। कहा भी है-सम्पूर्ण वस्त्रो का में प्रतिपादित तस्वार्थ के स्वरूप को यथार्थ जानकर श्रद्धान त्याग, अचेलकता या नग्नता, केशलोंच करना, शरीरादि करना तथा शकादि प्रतिचार मल-दोष रहित निर्मलता से ममत्व छोड़ना या कायोत्सर्ग करना और मयूरपिच्छिका महित नि:शंकित प्रादि अष्टाग गुणो का प्रकट होना घारण करना । यह चार प्रकार का प्रोत्सगिक लिंग है। सम्यक्रवाचरण चारित्र है। द्वितीय महावादि से युक्त श्वेताम्बरो के मान्य प्रागम ग्रन्थ में भी साध के पठाईस घाईम मूल गुणों का संयमाचरण है'। परमार्थ मे तो मूलगुणों में से कई बाते समान मिलती है । 'स्थानांग सूत्र श्रमण के निर्विकल्प मामायिकसयम रूप एक ही प्रकार में उल्लेख है-'प्रार्यों !'.. मैंने पाच महाव्रतात्मक, सप्रतिकाभेद चारित्र होता है। किन्तु उसमे विकल्प या भेद- क्रमण और प्रचेल धर्म का निरूपण किया है। पार्यो,
प होने में श्रमणों के मूलगुण कहे जाते हैं। दिगम्बर मैंने नग्नभावत्व, मण्डभाव, अस्नान, दन्तप्रक्षालन-वर्जन, परम्परा के अनुसार मभी काल के तीर्थकरो के शासन मे छत्र-वर्जन, पादुका-वर्जन, भूमि-शय्या, केशलोच पादि का मयिक संयम का ही उपदेश दिया जाता रहता है। निरूपण किया है। श्वेताम्बर-परम्परा मे साधु के मल गुणो किन्त अन्तिम तीर्थकर महावीर तथा प्रादि तीर्थंकर ऋषभ- को संख्या सामान्यत: छह मानी गई है। जिन भद्रगणि क्षमादेव ने छेदोष स्थापना का उपदेश दिया था। इसका कारण श्रमणने मूल गुणों की संख्या पांच और छह दोनो का उल्लेख मख्य रूप से बोर मिथ्यात्वी जीवो का होना कहा जाता है। किया है सम्यक्त्व से महित पांच महाव्रतों को उन्होने पांच पादि तीर्थ मे लोग सरल थे पोर अन्तिम मे कुटिल बुद्धि मूलगुण कहा है। इन पांच महाव्रतों के साथ रात्रिभोजनवाले। प्रठाईस मूलगुण इस प्रकार कहे गए है' : पांच विरमण मिला कर मूलगुणों की संख्या छह कही जाती है। महाव्रत, पांच समिति, पाँच इन्द्रियो का निरोध, छह वास्तव में जैन माधु-सन्तों का स्वरूप दिगम्बर मुद्रा मावश्यक केशलोंच, नग्नत्व प्रस्नान, भूमिशयन, दन्तधावन- में विराजित वीतरागता में ही लक्षित होता है प्रतएव वर्जन, खडे होकर भोजन और एक बार प्राहार। सभी भारतीय सम्प्रदायो मे समानान्तर रूप से दिगम्बरत्व श्वेताम्बर परम्परा में भी पांच महाव्रतो को अनिवार्य रूप का महत्व किसी-न किसी रूप में स्वीकार किया गया है। से माना गया है। पाच महावलो और पांच समितियों के योगियो में परमहम साधुनो का स्थान सर्वश्रेष्ठ समझा बिना कोई जैनमुनि नही हो सकता । 'स्थानांगसूत्र' मे जाता है। प्राजीवक श्रमण नग्न रूप में ही विहार करते दश प्रकार की समाधियो मे पांच महावत तथा पांच थे। इसी प्रकार हिन्दुको के कापालिक साघु मागाही होते समिति का उल्लेख किया गया है।
हैं जो प्राज भी विद्यमान है । यह परम्परा अत्यन्त प्राचीन पाच मह'वनों में सब प्रकार के परिग्रह का त्याग हो मानी जाती है। भारतीय सन्तों को परम्परा वैदिक और
१. जिणणाणदिट्टिसुद्ध पढम सम्मतचरणचारित्त । विदियं संजमचरण जिणणासदेसियं त पि॥
चारित्तपाहा, गा०५ २. बावीसं तित्यय गं सामाइयस जम उबदिसंति । छेदुवावणियं पुण भयवं उसहो य वीरो य ।।
मूलाचार, गा० ५३३ ३. वसमिदिदियरोषो लोवावस्सयमचेलमण्हाणं। खिदिसयणमवतघावणं ठिदिभोयणमेगमत्त ॥ एदे खलु मूनगुणा समणाणं जिणवरेहि पण्णत्ता ।।
प्रवचनसार, गा० २०८-२०६
४. ठाणांगसुत्त, स्था० १०, सूत्र ८ ५. मच्चेलक्कं लोचो वोसट्टसरीरदा य पडिलिहणं । एसोह्र लिंगप्पो चम्विहो होदि उस्सग्गे।।
भगवतो माराधना, गा००२ ६. मनि नथमल: उत्तराध्ययन-एक समीक्षात्मक अध्ययन,
कलकत्ता, १९६८, पृ० १२८ ७. विशेषावश्यक भाष्य, गा. १८२९ ८. सम्मत्त समेयाई महब्वयाणुप्वयाई मूलगुणा।
बही, गा० १२४४
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जन-परम्परा में सन्त और उसकी साधना-पडति
श्रमण इन दो रूपों में प्रत्यन्त प्राचीन काल से प्रवाहित कि भिक्षणों के पांच महावत या यम सर्वमान्य थे। रही है। इसे ही हम दूसरे शब्दों में ऋषि-परम्परा तथा जाबालोपनिषद' का यह वर्णन भी ध्यान देने योग्य है कि मुनि परम्परा कह सकते हैं। मुनि-परम्परा अध्यातिक निग्रंन्य, निष्परिग्रही, नग्न-दिगम्बर साधु ब्रह्ममार्ग में रही है जिसका सभी प्रकार से पाहत संस्कृति से सम्बन्ध सलग्न है। उपनिषद-माहित्य में तुरीयातीत' अर्थात् सर्व. रहा है। ऋषि-परम्परा वेदों को प्रमाण मानने वाली त्यागी संन्यासियों का प्रो वर्णन किया गया है, उनमे पूर्णतः बाहंत रही है। श्रमण मुनि वस्तु-स्वरूप के विज्ञानी परमहंम माधु की भांति मानो उतनवर्षा लिए हुए तथा प्रात्म-धर्म के उपदेष्टा रहे है। प्रात्म-धर्म की साधना प्रात्म-ज्ञान-पान में लीन दिगम्बर जैन साधु कहे जाते है। के बिना कोई सच्चा श्रमण नही हो सकता। श्रमण- सन्यासी को भी अपने शुद्धरूप मे दिगम्बर बताया गया है। परम्परा के कारण ब्राह्मण धर्म में वानरामा योर संपाम टीकाकारों ने 'प्रया' का अर्थ दिगम्बर किया है। को प्रश्रय मिला। जैनधर्म में प्रारम्भ से हो वानप्रस्थ के भर्तृहरि ने दिगम्बर मुद्रा का महत्त्व बताते हुए यह रूप में ऐलक, क्षल्लक (लंगोटी धारण करने वाले) साधकों कामना की थी कि मैं इस अवस्था को कर प्राप्त होऊंगा? का वर्ग दिगम्बर परम्परा मे प्रचलित रहा है। संन्यासी के क्योंकि दिगम्बरत्व के बिना कर्म-जजालों से मुक्ति प्राप्त रूप में पूर्ण नग्न साधु ही मान्य रहे है।
करना सम्भव नहीं है। केवल जैन साहित्य में ही नहीं, वेद उपनिषद्, साधना-पद्धति पुगणादि साहित्य में भी श्रमण सस्कृति के पुरस्कर्ता यथार्थ मे स्वभाव की पाराधना को साधना कहते हैं। 'श्रमण' का उल्लेख तपस्वी के रूप में परिलक्षित होता है। स्वभाव की प्राराधना के समय समस्त प्रलोकिक कर्म तथा इन उल्लेखों के प्राधार पर जैनधर्म व माहंत मत की व्यावहारिक प्रवत्ति गौण हो जाती है, क्योंकि उममें रामप्राचीनता का निश्चित होता है। इतना ही नहीं, इस काल द्वेष की प्रवृत्ति होती है। वास्तव में प्रवृत्ति का मूग राग चक्र की धारा मे अभिमत प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का भी कहा गया है। अतः राग-द्वेष के त्याग का नाम निवृत्ति सादर उल्लेख वैदिक गङ्मय तथा हिन्दू पुराणों में मिलता है। राग-द्वेष का सम्बन्ध बाहरी पर-पदाथों से होने के है। प्रतएव इनकी प्रामाणिकता मे कोई सन्देह नहीं है। कारण उनका भी त्याग किया जाता है, किन्तु स्याग का पूराण साहित्य के अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जाता है मूल राग-द्वेष-मोह का प्रभाव है। जैसे-जैसे यह जीव १. डा०वासदेवशरण अग्रवाल : जैन साहित्य का इतिहास, ३. अस्तेय ब्रह्मचर्यज प्रलोभस्त्याग एव च । पूर्वपीठिका से उघृत, पृ० १३
व्रतानि पच मिक्षणहिसा परमारिवह। २. "तृदिला प्रतृदिलासो प्रद्रयो धमजा प्रशृथिता अमृत्यवः।"
लिंगपुराण, ८६, २४ "श्रमणो श्रमणस्तापतो तापसो."
४. "यथाजातरूपघरो नियंयो निष्परिग्रहस्तत्तद् ब्रह्ममार्ग..." वहदारण्यक, ४, ३, २२
-जाबालोपनिषद् पृ० २०६ वातरशना हवा ऋषयः श्रमणा ऊध्र्वमन्धिनो बभूवु" ५. “संन्यासः षविषो भवति-कूटिचक्र बहुदकहम परमतैत्तिरीय पारण्ययक, २ प्रपाठक, ७ अनुवाक, १-२ तथा हंस तुरीयातीत प्रवषश्रुति । सन्यासोपनिषद, १३
--- तत्तरीयोपनिषद. २,७ तुरीयातीत-सर्वत्यागी तुरीयातीतो गोमुखपत्या फला. "वातरसना यह्वषयधमणा उर्वमनिधनः ।"
हारी चेति गृहत्यागी देहमात्रावशिष्टो दिगम्बरः श्रीमद्भागवत ११, ६,४७ कुणपवच्छरोरवृत्तिकः। "यत्र लोका न लोका: "श्रमणो न श्रमणस्तापसो।" ६. एकाकी निस्पृहः शान्तः पाणिपात्रो दिगम्बरः।
-ब्रह्मोपनिषद् कदा शम्भो भविष्यामि कमनिममनक्षतः "प्रारभारामा: समदशः श्रमणा: जना।"
वैराग्यशतक, ५८ वि० सं० १९८२ का संस्करण -श्रीमद्भागवत १२, ३, १८
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६८, वर्ष ३३, किरण ४
अनेकान्त
पास्म-स्वभाव में लीन होता जाता है, वैसे-वैसे घामिक करता है। यह मान्यता प्रज्ञानपूर्ण है क्योंकि जिसे पुरुषार्थ का क्रिया प्रवृत्ति रूप व्रत-नियमादि सहज ही छूटते जाते है। पता होगा,वही अन्य द्रव्य की क्रिया को बदलकर उसे शक्तिसापक दशा मे साप जिन मुलगणों तथा उत्तरगणो को हीन कर सकता है। परन्तु सभी द्रव्य अपने-अपने परिणमन साध्य के निमित्त समझकर पूर्व में अंगीकार करता है, मे स्वतन्त्र है । उनको मूल रूप से बनाने और मिटाने का व्यवहार में उनका पालन करता हुमा भी उनसे साक्षात् भाव करना कर्तृत्व रूप अहंकार है, घोर अज्ञान' है। मोक्ष की प्राप्ति नही मानता । इसीलिए कहा गया है कि जैन दर्शन कहता है कि एकान्त से द्वत या प्रत नही व्यवहार में बन्ध होता है और स्वभाव मे लीन होने से माना जा सकता है। किन्तु लोक मे पुण्य-पाप, शुभ-अशुभ मोक्ष होता है। इसीलिए स्वभाव की प्राराधना के समय इहलोक-परलोक, अन्धकार-प्रकाश, ज्ञान-प्रज्ञान, बन्ध-मोक्ष गवहार को गौण कर देना चाहिए। जिनकी व्यवहार का होना पाया जाता है, अत: व्यवहार से मान लेना की ही एकान्त मान्यता है, वे सुख-दुखादि कमो से छुट कर चाहिए। यह कथन भी उचित नही है कि कर्मद्वैत, लीकद्वैत कभी सच्चे सुख को उपलब्ध नहीं होते। क्योकि व्यवहार प्रादि की कल्पना प्रविद्या के निमित्त से होती है क्योंकि पर-पदार्थों के माश्रय से होता है और उनके ही पाश्रय से विद्या प्रविद्या और बन्ध मोक्ष की व्यवस्था अद्वैत में नही गग-द्वेष के भाव होते है। परन्तु परमार्थ निज प्रात्माश्रित हो सकती है। हेत के द्वारा यदि अद्वैत की सिद्धि की जाए, है, इसलिए कर्म-प्रवृत्ति छुड़ाने के लिए परमार्थ का उपदेश तो हेतु तथा साध्य के सदभाव में वैत की भी सिद्धि हो दिया गया है। व्यवहार का माश्रय तो मभव्य जीव भी ग्रहण जाती है। इसी प्रकार हेतू के बिना यदि प्रत की सिद्धि करते हैं। व्रत, समिति, गुप्ति, तप और शील कापालन करते की जाये, तो वचपन मात्र से दंत की सिद्धि हो जाती है। हए भी वे सदा मोही, प्रज्ञानी बने रहते हैं। जो ऐसा मानते प्रतएव किसी अपेक्षा से दूत को और किसी अपेक्षा से है कि परपदार्थ जीव मे रागद्वेष उत्पन्न करते है तो यह प्रज्ञान अद्वैत को माना जा सकता है। किन्तु वस्तु-स्थिति वसी है। क्योंकि प्रात्मा के उत्पन्न होने वाले रागद्वेष का कारण होनी चाहिए क्योकि प्रात्मद्रव्य परमार्थ से बन्ध पौर मोक्ष अपने ही प्रशुद्ध परिणाम है। अन्य द्रव्य तो निमित्त मात्र हैं। मे अद्वत का अनुसरण करने वाला है। इसी विचार-सरणि परमार्थ में प्रात्मा अनन्त शक्ति सम्पन्न चैतन्य निमित्त की के अनुरूप परमार्थोन्मुखी होकर व्यवहार मार्ग मे प्रवृत्ति अपेक्षा बिना नित्य प्रभेद एक रूप है। उसमे ऐसी स्वच्छता का उपदेश किया गया है । प्राचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि दर्पण की भांति जब जैसा निमित्त मिलता है वैसा है- साध पुरुष सदा सम्यकदर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्. स्वयं परिणमन करता है, उसको पन्य कोई परिणमाता नहीं चारित्र का सेवन करें। परमार्थ मे इन तीनों को प्रात्मस्वरूप है। किन्तु जिनको प्रात्मस्वरूप का ज्ञान नही है, वे ऐसा ही जान । परमार्थ या निश्चय प्रभेद रूप है और व्यवहार मानते है कि पात्मा को परद्रव्य जैसा चाहे, यह परिणमन भेद रूप है। जिनागम का समस्त विवेचन परमार्थ और १. ववहारादो बंधो मोक्खो जम्हा सहावसंजत्तो।
गां दोग्धमिव ननमसो रसालाम् ।। तम्हा कुरु तं गउणं सहावमारापणाकाले ॥
- समयसार कलश श्लो० ५७ __ नयचक्र, गा० २४२ ४. कर्मवंत फलद्वतं च नो भवेत् । २. बदसमिदीगुत्तिमो सीलतवं जिणवरेहि पण्णत्त ।
विद्या विषादयं न स्याद् बन्धमोक्षद्वयं तथा ॥ कुम्वंतो वि प्रभव्यो अण्णाणी मिच्छदिट्टी दु॥
हेतोरवैतसिद्धिश्चेद् दंत स्याद्धेतुसाध्ययोः ।
समयसार, गा० २७३ हेतुना चेदिना सिविद्धतं वाङ्मावतो न किम् ॥ ३. पज्ञानतस्तु सतृणाभ्यवहारकारी ज्ञानं,
माप्तमीमांसा प० २, का० २५-२६ स्वय किल भवन्नपि रज्यते यः।
५. दंसणणाणचरित्ताणि सेविदर्वाण साहणा णिच् । सीत्वासानं दधीक्षमधुराम्लरसातिगत्या,
ताणि पूण जाण तिण्णि वि प्रप्पाणं चेव णिच्छयदो।
समयसार, गा० १६
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जैन-परम्परा में सन्त मोर उमको पापना-पाति
व्यवहार-दोनों प्रकार से किया गया है। ये ही दोनों पर अग्रसर हो सकता है। अनेकान्त के मूल है।
जैनधर्म की मूलधारा वीतरागता से उपलक्षित साधना : क्रम व भेद
वीतराग परिणति है। उसे लक्षकर जिस साधना-पद्धति जिस प्रकार ज्ञान, ज्ञप्ति, ज्ञाता पोर ज्ञेय का प्रतिपादन का निर्वचन किया गया है, वह एकान्तत: न तो ज्ञानप्रधान किया जाता है, उसी प्रकार से साधन, साधना, साधक भौर है, न चारित्रवान पोर न केवल मुक्ति-प्रधान । वास्तव साध्य का भी विचार किया गया है। साधन से ही साधना मे इसमे तीनों का सम्यक् समन्वय है। दूसरे शब्दों में यह का क्रम निश्चित होता है। साधना का निश्चय साध्य-साधक कहा जा स ता है कि यह सम्यक दर्शन-ज्ञानमूलक चारित्र सबंध से किया जाता है। सबध द्र०, क्षेत्र, काल और प्रधान साधन-पद्धति है। यथार्थ मे चारित्र पुरुष का दर्पण भाव के प्राधार पर निश्चित किया जाता है। जहाँ पर है। चरित्र के निर्मल दर्पण मे ही पुरुष का व्यक्तित्व अभेद प्रधान होता है और भेद गौण अथवा द्रव्य, क्षेत्र, सम्यक प्रकार प्रतिविम्बित होता है। वास्तव में चारित्र काल तथा भाव की प्रत्यासत्ति होती है, उसे संबध कहते ही धर्म है। जो धर्म है वह साम्य है-ऐसा जिनागम मे हैं। स्वभाव मात्र स्वस्वामित्वमयी संबंध शक्ति कही जाती कहा गया है। मोह, राग-द्वेष से रहित मात्मा का परिणाम है। साधना के मूल में यही परिणमनशील लक्षित होती साम्य है। जिस गुण के निर्मल होने पर अन्य द्रव्यों से है। जैन दर्शन के अनुसार मनुष्य मात्र का साध्य कर्म क्लेश भिन्न सच्चिदानन्द विज्ञानघनस्वभावी कालिक ध्रुव प्रात्मसे मुक्ति या प्रात्मोपलब्धि है। अपने ममाघारण गुण से चैतन्य को प्रतीति हो, उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं । सम्यग्दर्शन युक्त स्व-पर प्रकाशक प्रात्मा स्वयसाधक है। दूसरे शब्दो से के साथ प्रविनाभाव रूप से भेद-विज्ञान युक्त जो है, वही शुद्ध पात्मा को स्वतः उपलब्धि साध्य है पोर शुद्ध प्रात्मा सम्यग्ज्ञान है तथा राग-द्वेष योगों की निवृत्ति पूर्वक साधक है । प्रात्मद्रव्य निर्मल ज्ञानमय है जो परमात्मा रूप स्वात्म स्वभाव में संलीन होना सभ्याचारित्र है । ये तीनों है'। इस प्रकार साध्य को सिद्ध करने के लिए जिन अंतरग साधन क्रम से पूर्ण होते है। सर्वप्रथम सभ्यग्दर्शन की और बहिरंग निमित्तों का पालम्बन लिया जाता है, उनको पूर्णता होती है, तदनन्तर सम्यग्ज्ञान को अन्त में सम्यकसाधन कहा जाता है और तद्रूप प्रवृत्ति को साधना कहते चारित्र में पूर्णता होती है। प्रतएव इन तीनो की पूर्णता हैं। जैनधर्म को मूलधुरी वीतरागता की परिणति में जो होने पर ही प्रास्मा विभाव-भावो तथा कर्म-बन्धनों से मुक्त निमित्त होता है, उसे ही लोक मे मावन या कारण कहा होकर पूर्ण विशुद्धता को उपलब्ध होता है। यही कारण जाता है। वीतरागता की प्राप्ति मे सम्यग्ज्ञान प्रौर है कि ये तीनो मिल कर मोक्ष के साधन माने गए हैं। सम्यकचारित्र व तप साधन कहे जाते हैं। इनको ही इनमे से किसी एक के भी प्रपूर्ण रहने पर मोक्ष नहीं हो जिनागम में प्राराधना नाम दिया गया है। माराधना का सकता । मूल सूत्र है-वस्तु-स्वरूप की वास्तविक पहचान । जिसे जैनधर्म विशुद्ध प्राध्यात्मिक है। प्रतः जैन साधु-सन्तों मात्मा की पहचान नहीं है, वह वर्तमान तथा अनुभूयमान की चर्या भी प्राध्यात्मिक है। किन्तु प्राय सन्तों से इनकी शद दशा का बोध नहीं कर सकता। प्रतएव सकर्मा तथा विलक्षणता यह है कि इनका प्रध्यात्म चरित्र निरपेक्ष नहो प्रबध-दोनों ही दशाओं का वास्तविक परिज्ञान कर है। जन सन्तों का जीवन पथ से इति तक परमार्थ चारित्र साधक भेद-विज्ञान के बल पर मुक्ति की प्राराधना के मार्ग से भरपूर है। उनकी मभी प्रवृत्तियाँ व्यवहार चारित्र १. जेहउ णिम्मल भाणमउ सिद्धिहि णिवसइ देउ ।
दंस
तवाणमाराहणा भणिवा ।। तेहउ णिवसह बंभु पर देहहं म करि भेउ ।।
भगवती पाराधना, ०१, गा० २
३. चारितं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो ति णिहिट्रो। परमात्मकप्रकाश,१,२६ ।
मोहनखोह विहीणो परिणामो अपणो हु समो॥ २. उज्जोवणमुज्जवणं णिन्वहणं साहणं च णिच्छरणं ।
प्रवचनसार, गा०७
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७०,
३३, किरण ४
अनेकान्त
होती हैं। दूसरे शब्दों में जैन सन्त समन्वय पोर समता प्रात्मा की स्वच्छता का विकार है। किन्तु मोह के निमित्त के मादर्श होते हैं। उनमें दर्शन, ज्ञान और चारित्र का से यह जैसा-जसा परिणमन करती है, वैसी वैसी परिणति समन्वय तथा सुख-दुःखादि परिस्थितियों मे समताभाव पाई जाती है। जिस प्रकार स्फटिक मणि श्वेत तथा स्वच्छ लक्षित होता है। उनका चारित्र गग-द्वेष, मोह से रहित होती है, किन्तु उसके नीचे रखा हुप्रा कागज लाल या होता है इस प्रकार अन्तरग और बहिरग-दोनो से हरा होने से वह मणि भी लाल या हरी दिखलाई पड़ती पाराधना करते हुए जो वीतराग चारित्र के अविनाभूत है, इसी प्रकार प्रात्मा अपने स्वभाव में शुद्ध, निरञ्जन निश शुद्धात्मा की भावना करते है उन्हे साधु कहते है। चैतन्यस्वरूप होने पर भी मिथ्यादर्शन, प्रज्ञान और उत्तम साधु स्वसंवेदनगम्य परम निर्विकल्प समाधि में निरत प्रव्रत-इन तीन उपयोग रूपों मे अनादि काल से परिणत रहते हैं। जानानन्द स्वरूप का साधक माघ प्रात्मानन्द को हो रही है। ऐसा नही है कि पहले इसका स्वरूप शुद्ध प्राप्त करता ही है । प्रतः सर्व क्रियानों से रहित साधु को था, कालान्तर में प्रशुद्ध हो गया हो। इस प्रकार मिथ्याज्ञान का प्राश्रय ही शरणभूत होता है। कहा भी है--- दर्शन, अज्ञान और प्रविरति तीन प्रकार के परिणामजो परमार्थ स्वरूप ज्ञानभाव में स्थित नही है, वे भले ही विकार समझना चाहिए'। इनसे युक्त होने पर जीव जिस. व्रत, संयम रूप तप आदि का प्राचरण करते रहे. किन्तु जिस भाव को करता है, उस उस भाव का कर्ता कहा यथार्थ मोक्षमार्ग उनसे दूर है। क्योंकि पुण्य-पाप रूप जाता है। किन्तु प्रवृत्त मे चेतन-प्रवेतन भिन्न-भिन्न हैं। शुभाशुभ क्रियानों का निषेष कर देने पर कर्मरहित शुद्धो- इसलिए इन दोनों को एक मानना प्रज्ञान है और जो इन्हें पयोग की प्रवृत्ति होने पर साधु प्राश्रयहीन नहीं होते। (पर पदार्थों को) अपना मानते हैं, वे ही ममत्व बुद्धि कर निष्कर्म अवस्था में भी स्वभाव रूप निविकल्प ज्ञान ही महकार-ममकार करते हैं। इससे यही सिद्ध होता है कि उनके लिए मात्र शरण है। प्रत: उस निर्विकल्प ज्ञान मे कर्तत्व तथा अहंकार के मून मे भोले प्राणियों का प्रज्ञान तल्लीन साधु-सन्न स्वयं ही परम सुख का अनुलव करते हो है। इसलिये जो ज्ञानी है, वह यह जाने कि पर द्रव्य है। दुःख का कारण पाकुलता है और सुख का कारण मे प्रापा मानना ही प्रज्ञान है। ऐसा निश्चय कर सर्व है.-निराकूलता। प्रश्न यह है कि प्राकुलता क्यों होती कतत्व का त्याग कर दे" । वास्तव मे जैन साधु किसी का है? समाधान यह है कि उपयोग के निमित्त से प्राकुलता. भी, यहाँ तक कि भगवान को भी अपना कर्ता नहीं मानता निराकलता होती है। उपयोग क्या है ? ज्ञान-दर्शन रूप है। कर्म की धारा को बदलने वाला वह परम पुरुषार्षी ध्यापार उपयोग है। यह चेतन मे ही पाया जाता है, होता है। सतत ज्ञान-धारा में लीन होकर वह अपने प्रचेतन मे नही क्योंकि चेतना शक्ति ही उपयोग का कारण प्रात्म-पुरुषार्थ के बल पर मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। प्रनादि काल से उपयोग के तीन प्रकार के परिणाम है। प्रात्म-स्वभाव का वेदन करता हुमा जो अपने में ही १. "माभ्यन्स निश्चयचतुर्विधाराधनाबलेन च बाह्या- तदा ज्ञाने ज्ञान प्रतिचारतमेषा हि शरणम्
भ्यन्तर मोक्षमार्गद्वितीयनामाभिधेयेन कृत्वा यः कर्ता स्वय विन्दन्नेते परममृत तत्र विरत ॥ वीतरागचारित्राविनाभूतं स्मशुद्धात्मानं साधयति भाव
समयसारकलश श्लोक १-४। यति स साधर्भवति ।"
३. उवभोगस प्रणाइं परिणामा तिष्णिमोहजुत्तस्स । -वृहद्रव्यसंग्रह, गा० ५४ की व्याख्या
मिच्छत्तं अण्णाण अविरदिभावो य णायबो॥ तपा-- दसणणाणसमग्गं मम्मं मोक्खस्स जोह चारित्त ।
समयसार, गा० ८६ साधयदि णिच्चसुदं साह स मणी णमो तस्स ।।
४. एदेण दु सो कत्ता मादा णिच्छयविहि पारिकहिदो। २. निषिद्ध सर्वस्नि सुकृतदुरिते कर्मणि किल
एवं खलु जो जाणदि सो मुंचदि सम्बकत्तित्तं ॥ प्रवृत्ते नष्क न खलु मुनयः सन्स्यशरणाः।
वही, गा०६७
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जैन-परम्परा में सम्त और नकी साधना पद्धति
अचल ब स्थिर हो जाता है, सपने स्वभाव से हटता नही के प्रतिरिक्त अन्य कोई प्राथयभूत स्थान नहीं है, उसी है, वही साघु मोक्ष को उपलब्ध होता है।
प्रकार ज्ञान-ध्यान से विषप-विरक्त शुद्ध चित्त के लिए ___ जैन साधु का अर्थ है- इन्द्रियविजयी प्रात्म-ज्ञानो। प्रात्मा के सिवाय किमी द्रव्य का प्राधार नहीं रहता। ऐसे पात्मज्ञानी के दो ही प्रमुख कार्य बतलाए है - ध्यान प्रात्मा के निविकल्प ध्यान से ही मोह-अथि का भेदन होता और अध्ययन । इस भरत क्षेत्र में वर्तमान काल में साध है। मोह ----गांठ के टूटने पर फिर क्या होता है? इसे ही के धर्म ध्यान होता है। यह धर्मध्यान उस मनि के होता समझाते हुए प्राचार्य कहते है - जो मोह-प्रन्थि को नष्ट है जो प्रात्मस्वभाव में स्थित है। जो ऐमा नही मानता है, कर राग-द्वेष का क्षय कर पुष-दुख मे समान होता हुमा वह अज्ञानी है, उसे धर्मध्यान के स्वरूप का ज्ञान नही है। श्रामण्य या साधुत्व में परिणमन करता है, वही अक्षय जो व्यवहार को देखता है, वह अपने प्रापको नही लम्ब सुख को प्राप्त करता है। सकता है। इसलिये योगो सभी प्रकार के व्यवहार को जिनागम मे श्रमण या सन्त दो प्रकार के बताये गए छोड कर परमात्मा का ध्यान करता है । जो योगी ध्यानो है --- शुद्धोपयोगी और शुभोपयोगी। जो अशुभ प्रवृत्तियों मनि व्यवहार में सोता है, वह अात्मस्वरूप-चर्या मे जगता से राग तो नही करते, किन्तु जिनके वादि रूप शुभ है। किन्तु जो व्यवहार जागता है, वह प्रारमचर्या में प्रवत्तियो मे राग विद्यमान है वे सराग चारित्र के धारक सोता रहता है। स्पष्ट है कि साधु के लोकिक व्यबहार श्रमण कहे गए है। परन्तु जिनके विसी भी प्रकार का नही है और यदि है, तो वह माधु नही है। धर्म का राग नही है, वे वीतराग श्रमण है। किन्तु यह निश्चित व्यवहार सघ मे रहना, महाव्रतादिक का पालन करने में है कि समभाव और प्रात्मध्यान की चर्या पूर्वक जो साधु भी वह उस समय तत्पर नहीं होता। अत: सब प्रवृत्तियों वीतगगता को उपलब्ध होता है, वही कर्म-क्लेशो का नाश की निवृत्ति करके प्रात्मध्यान करता है। अपने प्रात्य- कर सच्चा सुख या मोक्ष प्राप्त करता है, मन्य नहीं । इस स्वरूप में लीन होकर वह देखता जानता है कि परम- सम्बन्ध में जिनागम का सूत्र यही है कि रागी प्रास्मा कम ज्योति स्वरूप सच्चिदानन्द का जो अनुभव है, वही मैं हूं बांधता है और राग रहित प्रात्मा कर्मों से मुक्त होता है। अन्य सबसे भिन्न है। प्राचार्य कुन्दकुन्द का कथन है -जो निश्चय से जीवों के बन्ध का संक्षेप यही जानना चाहिए। मोह दल का क्षप करके विषय से विरक्त हो कर मन का इसका अर्थ यही है कि चाहे गृहस्थ हो पा सन्त, सभी रागनिरोध कर स्वभाव मे समस्थित है. वह प्रात्मा का ध्यान द्वेष के कारण समार-चक्र म पावतंन करते हैं और जब करने वाला है। जो प्रात्माश्रयी प्रवृत्ति का प्राश्रय ग्रहण राग से छूट जाते है, तभी मुक्ति के कगार पर पहुंचते हैं। करता है, उसके ही परद्रव्य-प्रवृत्ति का प्रभाव होने से केवल साधु-मन्त का भेष बना लेने से या बाहर से दिखने विषयों की विरक्तता होती है। जैसे समुद्र में एकाकी वाली सन्तोचित क्रियानों के पालन मात्र से कोई सच्चा संचरणशील जहाज पर बैठे हुए पक्षी के लिए उस जहाज श्रमण-सन्त नहीं कहा जा सकता। जिनागम क्या है ? यह १. भरहे दुस्समकाले धम्मज्माणं हवेइ साहुस्त । ४. जो णिहदमोहगठी रागपदोसे खवीय सामणे । त अप्पसहावठिदे ण ह भण्णइ सो वि अण्णाणी।।
होज्ज समसुदुक्खो सो सोक्व प्रक्खयं लहदि ।। -मोक्षपाहुड, गा० ७६
वही, गा० १९५ २. जो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सकज्जम्मि। ५. असुहेण रायरहिमो वयाइयरायेण जोह संजत्ती। जो जग्गदि ववहारे सो सत्तो पप्पणो कज्जे ॥
सो इह भणिय सरामो मक्को दोहणं पि खलु इयरी ।। ~मोक्षपाड, गा० ३१
नयचक्र, गा० ३३१ ३. जो खविदमोहकलुसो विसयविरत्तो मणो णिरु भित्ता। ६. रत्तो बंधदि कम्मं मुच्चदि कम्मेहि रागरहिदप्पा। समवदिदो सहावे सो पप्पणं हदि मादा।। एसो बंधसमासो जीवाणं जाज णिच्छयदो॥ प्रवचनसार, गा० १६६
प्रवचनसार,गा. १७६
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समझाते हुए जब यह कहा जाता है कि जो विशेष नहीं समझते हैं, उनको इतना ही समझना चाहिए कि जो वीतराग का भागम है उसमें रागादिक विषय कषाय का प्रभाव और सम्पूर्ण जीवों की दया ये दो प्रधान हैं। फिर, हिंसा का वास्तविक स्वरूप ही यह बताया गया है कि जहाँ-जहाँ राग-द्वेष भाव है, वहाँ वहाँ हिसा है प्रोर जहाँ हिंसा है वहाँ धर्म नहीं है। श्रमण-सभ्य तो धर्म की मूर्ति कहे गए हैं। ये पूज्य इसीलिए है कि उनमें धर्म है। धर्म का प्राविर्भाव शुद्धोपयोग की स्थिति में ही होता है जो वीतराग चारित्र से युक्त साक्षात् केवलज्ञान को प्रकट करने वाली होती है । यथार्थ मे निश्चय ही साध्य स्वरूप है । यही कहा गया है कि बाह्य श्रौर प्रन्तः परमतत्व को जान कर ज्ञान का ज्ञान में ही स्थिर होना निश्चय ज्ञान है'। यथार्थ में जिस कारण से प द्रव्य में राग है, वह ससार का ही कारण है। उस कारण से ही मुनि नित्य प्रात्मा मे भावना करते है, प्रात्मस्वभाव में लीन रहने की भावना भाते हैं। क्योकि परद्रव्य से राग करने पर राग का संस्कार दृढ़ होता है और वह वासना की भांति जम्म जन्मान्तरों तक संयुक्त रहता है। वीतराग की भावना उस सरकार को शिथिल करती है, उसकी मासक्ति से वित्त परावृत्त होता है घोर पासक्ति से हटने पर ही जैन साधु की साधना प्रशस्त होती है। प्राचार्य समन्तभद्र न प्रत्यन्त सरल शब्दो मे जैन साधु के चार विशेषणो का निर्देश किया है जो विषयो की वांछा से रहित, छह काय के जीवों के घात के प्रारम्भ से रहित, प्रतरंग धौर बहिरग परिग्रह से रहित छह काय के जीवों के बात के प्रारम्भ से रहित मन्तरग मोर बहिरन परिषद से रहित तथा ज्ञानदान तप मे लीन रहते है, वे ही तपस्वी प्रशसनीय है। इस प्रकार अध्यात्म और आगम-दोनों की परिपाटी मे जैन सम्त को ध्यान व अध्ययनशील बतलाया है । ध्यान से ही १. बहितरंग परमतच्चं णक्वा णाणं खु ज ठिय णाणे । तं इच्छिणाणं पुरुष से मुणह बवहारं ॥ नयचक्र, गा० ३२७
धकांस
२. जेण रागो परे दब्बे संसारस्य हि कारणं । तेजवि जोइयो णिच्च कुज्जा धप्पे समावणं ॥ मोक्षपाहट, गा० ७१
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मन वचन घोर काय इन दोनों योगों का विशेष होकर मोह का विनाश हो जाता हैं।
जैन-परम्परा में संसार का मूल कारण मोह कहा गया है । मोह के दो भेद हैं- दर्शनमोह और चारित्रमोह | दर्शन मोह के कारण हो इस जीव की मान्यता विपरीत हो रही है । सम्यक् मान्यता का नाम ही सम्यक्त्व है । मिध्यात्व मशान और प्रसंयम के कारण हो यह जीव संसार में धनादि काल से भ्रमण कर रहा है। प्रतएव इनसे छूट जाने का नाम ही मुक्ति है। मुक्ति किसी स्थान या व्यक्ति का नाम नहीं है। यह वह स्थिति है जिसमे प्रतिबन्धक कारणो के प्रभाव से व्यक्त हुई परमात्मा की शक्ति अपने सहज स्वाभाव के रूप में प्रकामित होती है। दूसरे शब्दों में यह प्रात्मस्वभावा रूप ही है। इस अवस्था मे न तो मात्मा का प्रभाव होता है और न उसके किसी गुण का नाश होता है और न ससारी जीव की भाँति इन्द्रियाधीन प्रवृत्ति होती है किन्तु समस्त लौकिक सुखों से परे स्वाधीन तथा घनन्त चतुष्टयुक्त हो प्रक्षय निरावस, सतत अवस्थित सच्चिदानन्द परब्रह्म की स्थिति बनी रहती है।
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आध्यात्मिक उत्थानों के विभिन्न चरण
वर्तमान मे यह परम्परा दिगम्बर मोर श्वेताम्बर रूप से दो मुख्य सम्प्रदायों में प्रचलित है। दोनो ही सम्प्रदायों के साधु-सन्त मूलगुणो तथा छह प्रावश्यको का नियम से पालन करते है। दिगम्बर- परपरा मे मूल गुण प्रट्ठाईस माने गए हैं, किन्तु श्वेताम्बर-परंपरा मे मूल गुणों की संख्या यह है दोनो ही परंपराएं साधना के प्रमुख चार चार अंगो ( सम्बूदर्शन ज्ञान चारित्र मोर तप ) को समान रूप से महत्व देती है। इसी प्रकार दर्शन के पाठ पंग ज्ञान के पांच अंग, चारित्र के पाँच अंग और तप की साधना के बारह अंग दोनों में समान हैं । तप के प्रन्तर्गत २. विषयाशावशाततो निरारम्भो परिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरतस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥
-रत्नकरण्ड श्रावकाचार, १, १० ४. जं प्रप्सहावो मूलोसरपापडिसंघिय मुबइ । त मुक्लं प्रविरुद्धं दुविहं ससु दम्यभावगम ॥ नवचक, पा० १५०
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जन-परम्परा में सम्त और उनकी सापना-पति
पाह्य और अन्तरंग-दोनों प्रकार के तपों को दोनों केवल ज्ञान की स्थिति को उपलब्ध करा देती है - यही स्वीकार करते हैं । बहिरंग तप के अन्तर्गत काय-क्लेश को संक्षेप मे जैन अवस्थामों के पाधार पर चौदह गुणस्थानों भी दोनों महत्त्वपूर्ण मानती हैं । दश प्रकार की समाचारी के रूप में विशद एवं सूक्ष्म विवेचित किया है जो जैन भी दोनों में लगभग समान है। समाचार या समाचारी गणित के प्राधार पर ही भर्ती-भांति समझा जा सकता का अर्थ है-समताभाव । किन्तु दोनों को चर्यायो में है। इन सबका साराश यही है कि चित्त के पूर्ण निरोध प्रन्तर है। परन्तु इतना स्पष्ट है कि श्रमण-सन्तों के लिए होते ही साधक एक ऐसी स्थिति में पहुंच जाता है जहाँ प्रत्येक चर्या, समाचारी, प्रावश्यक कर्म तथा साधना के साधन साध्य और साधक में कोई भेद नही रह जाता। मूल मे समता भाव बनाये रखना अनिवार्य है। इसी इस स्थिति में ध्यान की सिद्धि के बल पर योगी अष्टकर्म प्रकार मोह प्रादि कर्म के निवारण के लिए ध्यान-तप रूप माया का उच्छेद कर अद्वितीय परब्रह्म को उपलब्ध अनिवार्य माना गया है।
हो जाता है जो स्वानुभूति रूप परमानन्द स्वरूप है। एक यह निश्चय है कि भारत को सभी धार्मिक परम्परामो बार परम पद को प्राप्त करने के पश्चात् फिर यह कभी ने साध-मतों के लिए परमतत्व के साक्षात्कार हेतु माया से लिप्त नहीं होता और न इसे कभी अवतार ही प्राध्यात्मिक उत्थान को विभिन्न भूमिकामो का प्रतिपादन लेना पड़ता है। अपनी शुद्धात्मपरिणति को उपलब्ध हुमा किया है। बौद्ध दर्शन में छह भूमियों का वर्णन किया गया
श्रमणयोगी स्वानुभति रूप परमानन्द दशा में अनन्त काल है। उनके नाम है-अन्धक्थग्जन, कल्याणक्यग्डन, तक निमज्जित रहता है। श्रमण-सन्तों की साधना का श्रोतापन्न, सकृदागमी, पौषपातिक या अनागामी और उद्देश्य शुद्धात्म तत्त्व रूप परमानन्द की स्थिति को उपलब्ध महत । वैदिक परम्परा में महर्षि पतंजलि ने योगदर्शन में होना कहा जाता है। उनके लिए परमब्रह्म ही एक उपादेय चित्त की पांच भमिकापों का निरूपण किया है। वे इस होता है, शुद्धात्म तत्त्वरूप परब्रह्म के सिवाय सब हेय है। प्रकार हैं-क्षिप्त, मूढ, विक्षिप्त, एकाग्र भोर निरुद्ध । इसलिये उपादेयता की अपेक्षा परमब्रह्म मद्वितीय है। शक्ति वही एकाग्र के वितर्कानुगत, विचारानुगत, अानन्दानुगत रूप से शुद्धात्मस्वरूप जीव और अनन्त शुद्धात्मामों के और प्रस्मितानुगत चार भेदो का वर्णन है । निरुद्ध के समूहरूप परब्रह्म में प्रश-अंगी मम्बन्ध है परब्रह्म में प्रशपश्चात कैवल्य या मोक्ष की उपलब्धि हो जाता है। अशी मम्बन्ध है। परब्रह्म को उपलब्ध होते ही 'योमवाशिष्ठ" मे चित्त को चौदह भूमिकाएं बताई गई जीवन्मुक्त हो जाते हैं, उनमे पोर परब्रह्म में कोई अन्तर हैं। प्राजीविक सम्प्रदाय मे पाठ पेडियो के रूप में उनका नही रहता है। यही इस साधना का चरम लक्ष्य है। उल्लेख किया गया है, जिनमे से तीन प्रविकास की तथा सन्तों की अविछिन्न परम्परा पांच विकास की अवस्था को द्योतक हैं। उनके नाम है- सक्षेप मे, जैन श्रमण-सन्तों की परम्परा भात्मवादी मन्दा, खिड्डा, पदवोमंसा, उजगत, सेख, समण, जिन पोर।
तप-त्याग की अनाद्यन्त प्रवहमान वह पारा है जो प्रतीत, पन्न । जैन-परम्परा में मुख्य रूप से ज्ञान धारा का महत्त्व अनागत और वर्तमान का भी अतिक्रान्तकर सतत कालिक है क्योंकि सत्य के साक्षात्कार हेतु उसको सर्वतोमुखेन । विद्यमान है। भारतीय सन्तों की साधना-पद्धति मे त्याग उपयोगिता है। जिनागम परम्परा में ज्ञान को केन्द मे का उच्चतम प्रादर्श, अहिंसा का सूक्ष्मतम पालन, व्यक्तित्व स्थान दिया है। प्रत. एक पोर ज्ञान सत्य को मान्यता से का पूर्णतम विकास तथा संयम एवं तप की पराकाष्ठा पाई संयुक्त है मोर दूसरी भोर सत्य को मूल प्रवृत्ति से सम्बद्ध जाती है। साधना की शुद्धता तथा कठोरता के कारण है। इसे ही मागम मे सम्यकुदर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप रत्नत्रय छठी शताब्दी के पश्चात भले ही इसके अनुयायिभो को कहा गया है। दर्शन, ज्ञान और चारित्र की साधना मे संख्या कम हो गई हो, किन्तु माज भी इसकी गोरवविवेक को जागृति पावश्यक है । प्रात्मानुभूति से लेकर गरिमा किसी भी प्रकार क्षीण नहीं हुई है। केवल इस देश स्वसंवेद्य निर्विकल्प शान की सतत धारा किस प्रकार में ही नही, देशान्तरों में भी जैन सन्तोक विहार करने के
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७४, वर्ष ३३, किरण
भनेकान्त
उल्लेख मिलते है। पालि-ग्रन्थ "महावंश" के अनुसार की परम्परा के प्रवर्तक जिन चौबीस तीथंकरों का लंका में ईस्वीपूर्व चौथी शताब्दी में गिग्रन्थ साधु विद्यमान वर्णन मिलता है, उससे निश्चित है कि सभी तीर्थकर थे। सिंहल नरेश पाण्डकामयने मनुरुद्धपुर में जैन मन्दिर क्षत्रिय थे। केवल तीर्थकर ही नही, समस्त शलाकापुरुष का निर्माण कराया था। तीर्थकर महावीर के सम्बन्ध में क्षत्रिय कहे जाते है। प्रत्येक कल काल मे तिरेसठ शलाका कहा गया है कि उन्होंने धर्म-प्रचार करते हुए वकार्थक, के पुरुष होते है। इसी प्रकार जैनधर्म के प्रतिपालक अनेक वाह्रोक, यवन, गन्धार, क्वाथतोय, समुद्रवर्ती दशो एव चक्रवर्ती महाराजा हुए। जहाँ बड़े-बडे चक्रवर्ती राजानों उत्तर दिशा के ताण, कार्ण एव प्रच्छाल प्रादि देशों मे ने इस देश की अखण्डता को स्थापित कर शान्ति की विहार किया था। यह एक इतिहासप्रसिद्ध घटना मानी दुन्दुभि बजाई थी, वही महाराजा बिम्बसार (श्रेणिक), जाती है कि सिकन्दर महान् के साथ दिगम्बर मुनि सम्राट चन्द्रगुप्त, मगधनरेश सम्प्रति, कलिंगनरेश खारबेल, कल्याण एवं एक अन्य दिगम्बर सन्त ने यूनान के लिए महाराजा अाषाढ़सेन, प्रविनीत गग, विनीत गंग, गंगनरेश विहार किया था। यूनानी लेखकों के कथन से बेक्ट्रिया ___ मारसिंह, वीरमार्तण्ड चामण्डराय, महारानी कुन्दब्बे, पौर इथोपिया देशों में श्रमणो के विहार का पता चलता । सम्राट अमोघवर्ष प्रथम, कोलुत्तुंग, चोल, साहसतुग, है। मिश्र मे दिगम्बर मूर्तियों का निर्माण हुमा था। वहां
लोक्यमल्ल, पाहवमल्ल, बोपदेव, कदम्ब, सेनापति गग
राज, महारानी भीमादेवी, दण्डनायक बोप्प पोर राजा की कुमारी सेन्टमरी प्रायिका के भेष में रहती थी। भगु
सुहेल आदि ने भी इस धर्म का प्रचार व प्रसार किया है। कच्छ के श्रमणाचार्य ने एथेन्स मे पहुंच कर अहिंसा घम
पांचवी-छठी शताब्दी के अनेक कदबवंशी राजा जैनधर्म का प्रचार किया था। हुएनसांग के वर्णन से स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है कि सातवी शताब्दी तक दिगम्बर मुनि
के अनुयायी थे। राष्ट्रकूट-काल में राज्याश्रय के कारण अफगानिस्तान में जैनधर्म का प्रचार करते रहे है। जा०
इस धर्म का व्यापक प्रचार व प्रसार था। भनेक ब्राह्मण एफ० मूर का कथन है कि ईसा की जन्म शती के पूर्व विद्वान् जनदर्शन की विशेषतानो से प्राकृष्ट होकर जैनईराक, शाम भोर फिलिस्तीन म जैन मुनि और बाद्ध धर्मावलम्बी हए। मूलसघ के अनुयायी ब्रह्म सेन बहुत बड़े भिक्ष सैकड़ो की सख्या में चारो ओर फैलकर अहिंसा का विद्वान तथा तपस्वी थे। 'सन्मतिसूत्र' तथा 'द्वात्रिशिकामो' प्रचार करते थे। पश्चिमी एशिया, मिश्र, यूनान मोर के रचयिता सिद्धसेन ब्राह्मण कूल मे उत्पन्न हुए थे जो इथोपिया के पहाड़ों व जंगलो म उन दिनो मगणित
उन दिना भगाणत मागे चल कर प्रसिद्ध जैनाचार्य हए । वत्सगोत्री ब्रह्मशिव भारतीय साधु रहते थे। वे अपने प्राध्यात्मिक ज्ञान मोर
त्मिक ज्ञान मार ने सम्पूर्ण भारतीय दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन कर
के त्याग के लिए प्रसिद्ध थे जो वस्त्र तक नहीं पहनते थे।
नहा पहनत थ । 'समय परीक्षा' ग्रन्थ की रचना की जो बारहवी शताब्दी मेजर जनरल जे. जी. मार० फलांग ने भी अपनी खोज
की रचना है। भारद्वाज गोत्रीय प्राचण्ण 'वर्द्धमानपुराण' मे बताया है कि भोकसियन केस्पिया एव बल्ख तथा
के रचयिता बारहवी शताब्दी के कवि थे। दसवी शताब्दी समरकन्द के नगरी में जैनधर्म के केन्द्र पाए गए है, जहाँ
के अपभ्रश के प्रसिद्ध कवि धवलका जन्म भी विप्रकूल में से महिंसा धर्म का प्रचार एवं प्रसार होता था। वर्तमान
हमा था। कुतीथं पोर कुधर्म से चित्त विरक्त होने पर म भी मुनि सुशीलकुमार तथा भट्टारक चारुकीति के
उन्होने जैनधर्म का प्राश्रय लिया भोर 'हरिवंशपुराण' की समान सन्त इस जायित रखे हुए है।
रचना की। दिगम्बर परम्परा के प्रसिद्ध प्राचार्य कर्नाटक. विगत तीन सहन वर्षों में जैनधर्म का जो प्रचार व हाय पज्यपाद का जन्म भी बाह्मणकल में इur प्रसार हमा, सम वंश्यों से भी अधिक ब्राह्मणो तथा प्रकार से अनेक विप्र साधको ने वस्तु-स्वरूप का ज्ञान कर क्षत्रियों का योगदान रहा है । भगवान महावीर के पट्टधर जैन साधना-पद्धति को अगीकार किया था। 000 शिष्यो में ग्यारहगणघर थे जो सभी ब्राह्मण थे। जैनधर्म
शासकीय महाविद्यालय, नीमच (म०प्र०) १ प्राचार्य जिनसेन : हरिवशपुराण, ३, ३-७
इन्डियन प्रेस, प्रयाग, १९२६, पृ० ३७ २. डा० कामताप्रसाद जैन : दिगम्बरस्व और दिगम्बर ४. हुकमचन्द अभिनन्दन प्रन्य, पृ० ३७४ ___ मुनि, द्वितीय संस्करण, १० २४३
५. साइन्स भाव कम्पेरेटिव रिलीजन्स, इन्ट्रोडक्शन,१९९७, ३. ठाकुरप्रसाद शर्मा : हुएनसांग का भारत भ्रमण, पृ०८
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षड्-द्रव्य में काल-द्रव्य
मुनि श्री विजयमुनि शास्त्री
पड़-मध्य में काल:
परस्पर एक-दूसरे में नही मिलते, उसी प्रकार कालाण भी जैन-मागम-साहित्य मे लाक को षड-द्रव्यात्मक कहा एक-दूसरे में नही मिलते हैं। परन्तु रत्नों की तरह न तो है। षड्-द्रव्य-धर्म, मघम, प्राकाश, काल, जीव और उनका प्राकार ही होता है, और न उनमें वर्ण, गन्ध, रस पुद्गल में सम्पूर्ण लोक मे स्थित समस्त पदार्थ समाविष्ट प्रौर स्पर्श ही होता है। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श-उन हो जाते है। दुनिया में, विश्व मे ऐसा एक भी पदार्थ शेष पदार्थों में होता है, जो मतं हैं, पाकार प्रकार से युक्त हैं। नही रहता, जो षड्-द्रव्य से बाहर रहता हो। षड-द्रव्यों इस प्रकार काल, प्रदेशों के समूह से रहित है। प्रतः उसे मे से काल के प्रतिकिन पांच द्रव्यों के लिए प्रागमों में पागमों में प्रस्तिकाय नहीं कहा है। पंचस्तिकाय शब्द का भी प्रयोग मिलता है। प्राचार्य श्री जन-दर्शन मे द्रव्य को सत् कहा है और सत् वह हैउमास्वातिने तत्त्वार्थ सूत्र मे और प्राचार्य कुंदकुदने पचास्ति- जो उत्पन्न होता है, नष्ट होता है और सदा स्थित भी कायसार मे उक्त पांच द्रव्यों को प्रस्तिकाय कहा है। अन्य रहता है। उत्पाद, पय एवं ध्रौव्य तीनों एक ही समय में प्राचार्यों ने भी इनके लिए अस्तिकाय कहा है। अस्तिकाय होते है। इस प्रकार लोक में स्थित सभी द्रव्यों के उत्पाका अर्थ है-प्रदेशों का समूह। पाँच द्रव्यों में धर्म, अधर्म दादि रूप परिणमन में अथवा उनके पर्यायान्तर होने में जो मौर जीव असंख्यात प्रदेशो से युक्त द्रव्य हैं। प्राकाश अनन्त द्रव्य सहायक होता है, उसे 'काल-द्रव्य' कहते हैं। यह स्वयं प्रदेशों से युक्त है । क्योंकि प्रलोक मे जो प्राकाश है, वह अपनी पर्यायों मे परिण मन करते हुए, अन्य द्रव्यो के मनन्त प्रदेशी है और लोक मे स्थित प्राकाश प्रसख्यात परिवर्तन या परिणमन में तथा उन द्रव्यों में होने वाले प्रदेशी है। इसलिए प्राकाश को साम्त भी कहा है और उत्पाद, व्यय पर स्थायित्व में सहायक होता है, निमित्त अनन्त भी। पुदगलों के स्कन्धों का प्राकार एक जैसा नही बनता है, माध्यम (Medium) बनता है और विश्व मे है, उनके विभिन्न प्रकार है। इसलिए उन में प्रदेशो की सकेंड, मिनिट, घण्टा, दिन-रात, सप्ताह, महीना, वर्ष, यम, संख्या भी एक-सी नही है। परन्तु इन पांच द्रव्यो की तरह शताब्दी भादि व्यवहार रूप काल में निमित्त बनता है। काल द्रव्य भी स्वतन्त्र है, परन्तु वह प्रदेशों के समूह रूप यह धर्म-प्रधर्म द्रव्यों की तरह लोक व्यापी एक प्रखण्ड नहीं है। अन्य द्रव्यो की तरह काल भी सम्पूर्ण लोक में द्रव्य नही है। क्योंकि समय-भेद की अपेक्षा से इसे प्रत्येक व्याप्त है और लोक के एक-एक प्राकाश प्रदेश पर एक. भाकाश प्रदेश पर एक कालाणु के रूप मे भनेक माने एक कालाणु रहे हुए हैं। ये कालाणु प्रदश्य (Invisible) बिना काल का व्यवहार हो नहीं सकता। क्योकि भारत हैं, माकार रहित हैं और निस्क्रिय (Inactive) हैं। और अमरीका में दिन-रात एवं तारीख मादि कामलगमागमों में एवं द्रव्यसंग्रह तथा तत्त्वार्थसार प्रादि ग्रथो में अलग व्यवहार उन-उन स्थानों के काल-भेद के कारण ही एक उपमा देकर बताया है कि कालाण रत्नों की राशि होता है। यदि काल एक प्रखण्ड द्रव्य होता, तो सर्वत्र की तरह प्रत्येक प्राकाश प्रदेश पर रहे हुए हैं, और सख्या सदा एक-सा ही समय रहता और दिन-रात भी सर्वत्र एक को दृष्टि से वे प्रसख्य (Countless in number) है। ही समय पर होते । एक और प्रखण्ड द्रव्य स्वीकार करने रत्नों की राशि की तरह की उपमा केवल समझाने के पर काल-भेद कथमपि संभव नही हो सकता। परतु लिए एवं यह बताने के लिए दी है कि जिस प्रकार रल काल-भेद स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। भारत में
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जिस समय दिन होता है, उस समय अमरीका में रात असंख्यात समय बीत जाते हैं। दूसरा उदाहरण यह भी होती है, और जिस समय भारत में रात होती है, दे सकते हैं-कमल के हजार पत्तों को क्रमश: एक-दूसरे के तब अमरीका में सूर्य चमकता है। २२ जून को जब ऊपर रखकर एक तीक्षण नोक वाली बड़ी सुई को उन भारत में चौदह घन्टे का दिन और दश घण्टे पर रखकर जोर से दबाएं तो पलक झपकते ही या क्षण की रात होती है, तब ना देश के पोखलो प्रदेश मे भर में वह सुई हजारो कमल-पत्रों को छेद कर एक सिरे चौबीस घण्टे सयं की मुनहली धूप नजर पाती है, से दूसरे मिरे पर पहुंच जाती है। परन्तु जैन-दर्शन की और २२ दिसम्बर को जब भारत मे पौदह घण्टे को मान्यता के अनुसार इस प्रक्रिया में एक दो या दस-बीस रात और दस घण्टे का दिन होता है, तब पोखलो चौबीस नहीं, असंख्यात समय लगते है। समय इतना सूक्ष्म है कि ही घण्टे रात्रि के अन्धकार में दुबा रहता है। जब वायु- हम उसे देख नही सकते । परमाण रूपी है. मूर्त है,वर्ण, यान एवं पानी के जहाज यूरोप से भारत की ओर भाते गंध, रस एवं स्पर्श से युक्त है, फिर भी हम उसे पांखो हैं या भारत से यूरोप की यात्रा पर जाते है, तब जिस से देख नही सकते । तब समय, जो कि मरूपी है, प्रमूर्त है समय वे भूमध्य रेखा पर पहुंचते हैं, उस समय तुरन्त वे मौर वर्णादि से रहित है, उसे तो हम तब तक देख नहीं अपनी-अपनी घड़ियों के समय और केलेण्डर की तारीख सकते, जब तक सर्वज्ञ नहीं बन जासे । केवल ज्ञान में को बदल लेते है । इस प्रकार का भेद प्रधान व्यवहार कोई भी पदार्थ एवं द्रव्य-भले ही वह कितना ही सूक्ष्म काल को प्रखण्ड न मानकर खण्ड रूप मानने पर ही हो । क्यो न हो, प्रज्ञात नहीं रहता अदृश्य नहीं रहता प्रतः पाता है।
समय को हम देख नहीं सकते, पर सर्वज्ञ देख सकते है । कालोर समय:
पागम-साहित्य में काल के लिए दो शब्दों का प्रयोग काल का लक्षण : मिलता है-काल मौर समय । काल स्थूल है और समय प्रागम मे काल का लक्षण 'वर्तना' कहा है। जीव, सूक्ष्म है। काल प्रवाह रूप है, समय प्रवाह से रहित है। पुदगल प्रादि द्रव्यों के परिणमन में, परिवर्तन मे काल काल अनन्त है और समय उसका सबसे छोटा हिस्सा है, सहायक (Helper) द्रव्य है । प्राचार्य उमास्वाति ने जिसके दो भाग नहीं हो सकते । प्रतीत की अपेक्षा से तत्वार्थ सूत्र मे कहा है कि जीव और पुद्गल पर वर्तना, मनन्त-काल व्यतीत हो चुका और अनागत की दृष्टि में परिणाम, क्रिया, परत्व, अपरत्व भादि मे काल का उपमनन्त-काल धीरे-धीरे क्रमशः पाने वाला है । परन्तु समय कार है।' द्रव्य में परिवर्तन, परिणमन प्रादि जो कार्य में भूत और भविष्य अथवा अतीत और अनागत के भेद होते है वे सब काल के निमित्त से होते हैं । गोम्मटसार में को अवकाश ही नही है । समय, वर्तमान काल का बोधक भी लिखा है कि द्रव्य काल के कारण ही निरन्तर अपने है। वर्तमान काल मात्र एक समय का होता है। प्रागमो स्वरूप मे रहते हुए द्रवित होते है, प्रवाहमान रहते हैं। में समय का माप इस प्रकार बताया है-एक परमाणु को विश्व मे स्थित षड्-द्रव्यो में जो सत् हैं, उनका सतत एक प्रकाश प्रदेश पर से दूसरे पाकाश-प्रदेश पर जाने में प्रवाह रूप में रहते हुए भी अपने स्वरूप में स्थित रहना जितना समय (Time) लगता है, वह एक समय है। और सभी द्रव्यो में निरंतर परिवर्तन होना-जो परिलक्षित इसे समझाने के लिए प्राचार्यों ने यह उदाहरण भी दिया होता है, वह काल के कारण हो होता है। यह काल द्रव्य है कि हमारी प्रांखो की पलकें झपकती रहती हैं, वे खुलती का ही गण है कि उसके कारण अन्य द्रव्यों में परिवर्तन पौर बन्द होती रहती हैं। प्रांख के झपकने में प्रथवा (Change) होता है । परन्तु यह ध्यान रखना खलने और बाद होने में जो समय लगता है, उसमें चाहिए कि काल (Time) कभी भी अन्य द्रव्यो में
१. वत्तना लक्खड़ो कालो। -उत्तराध्ययन सूत्र, २८.१०. २. तत्वार्थ सूत्र, ५ २२. ३. गोमट्टहार, जीवकाण्ड ।
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द्रव्य में कालद्रव्य
परिवर्तित नहीं होता और न वह अन्य द्रयो को अपने रूप में बदलता है । क्योंकि प्रत्येक द्रव्य अपने आप में स्वतंत्र है, वह अपने से भिन्न किमी भी द्रव्य में न स्वय मिलता है और न दूसरे द्रव्य को अपने रूप में परिणित करता है । कोई भी द्रव्य अपने से भिन्न द्रव्य को बदल नही सकता, उसमें परिवर्तन नहीं कर सकता । प्रत्येक द्रव्य अपनी ही पर्यायों में परिणमन करता है।
द्रवित होना, परिणमन करना यह द्रव्य का स्वभाव है। हाल उस परिणमन एवं परिवर्तन में सहायक बनता है, निमित्त रूप से रहता है । काल के कारण पदार्थ नये से पुराना होता है. पुरानेपन के बाद नष्ट होकर पुनः नया बनता है प्रर्थात् वस्तु का पूर्व प्राकार नष्ट होता है घोर वह नये कार को ग्रहण करती है । परन्तु इससे द्रव्य का विनाश नही होता - वह दोनों प्रकारों में विद्यमान रहता है । जैसे धा-कर्म का क्षय होने पर मनुष्य-वर्याय नष्ट होती हैं और देव प्रायु का उदय होने के कारण देव पर्याय उत्पन्न होती है। परन्तु मनुष्य पर्याय के समय जो जीव द्रव्य था, देव पर्याय के समय भी उसका अस्तित्व बना रहता है। कहने का अभिप्राय यह है कि द्रश्य की पर्यायों के परिवर्तन में काल- द्रव्य सहायक है, परन्तु काल द्रव्य का निमित्त पाकर सभी द्रव्यों की पूर्व पर्याय का नाश होता है मोर उत्तर- पर्याय उत्पन्न होती है, इसके साथ द्रव्य अपने स्वरूप मे सदा विद्यमान रहता है। कर्मयोगी श्री कृष्ण ने भी गीता में यही कहा है कि धारमा की न तो कभी मृत्यु होती है और न उसका जन्मोत्सव होना है । मृत्यु प्रौर जन्म भव का परिवर्तन मात्र है। जैस वस्त्रों के जीणं होने पर व्यक्ति जीर्ण वस्त्र को उतार कर फेंक देता है और नये वस्त्र को धारण कर लेता है । उसी प्रकार म्रायु कर्म के समाप्त होते ही भ्रात्मा एक भव के शरीररूप वस्त्र का परित्याग करके, दूसरे भवरूपी नये वस्त्र को धारण करती है । परन्तु भवनाश के साथ प्रात्मा का नाश विनाश नहीं होता । उसका मस्तित्व इस भव के पूर्व धनन्त प्रतीत काल में भी था, इस भव में वर्तमान में है और इम भव के अनन्तर धन्य भवों में प्रथवा प्रनन्त अनागत काल में भी रहेगा। चार्वाकदर्शन को छोड़कर शेष सभी भारतीय दर्शन मारमा के
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अस्तित्व को तीनों काम मे स्वीकार करते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि द्रव्य अपने द्रव्यत्व अथवा घपने स्वरूप की अपेक्षा ध्रुव है, नित्य है, परन्तु पर्यायस्व की प्रपेक्षा प्रतिक्षण परिवर्तित होता रहा है प्रोर अनन्त प्रनागत काल में भी परिवर्तित होता रहेगा ।
काल अपने स्वभाव के अनुरूप किमी द्रव्य के प्रवाह को निरन्तर प्रमान करने की योग्यता नहीं रखता । द्रव्य की पर्यायों में परिणन कराना यह काल का स्वभाव नही है। जैन दर्शन उसी द्रव्य को काल कहता है, जो द्रव्य अपने स्वभाव के अनुरूप अपनी पर्यायों में निरन्तर परिणत होता रहता है, उसमें सहायक बनना काल का कार्य है। जिस प्रकार मशीन के चक्र के मध्य में लगी हुई कोल (Pin ) चक्र ( Wheel) को चलाती नही है, फिर भी उसका होना आवश्यक ही नही, अनिवार्य है । यदि चक्र में पिन न हो, सहायक के रूप में उसकी उपस्थिति न हो, तो चक्र घूम हो नहीं सकता। पिनचक्र को चलाती एवं घूमती नहीं है, पर उसके घूमने में वह सहायक है। इसी प्रकार काल-द्रव्य, द्रव्य में होने वाले निरन्तर परिवर्तन में सहायक है। C. R. Jain ने Key of knowledge में लिखा है
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'विश्व में ऐसा कोई दर्शन नहीं जो पदार्थ में रहे हुए निरन्तरता के तत्त्व से अनभिज्ञ हो, फिर भी इस रहस्य एव पहेली को हल करने में सफल नही हो सका । विश्व के अधिकाश दर्शन काल (Time) को केवल पर्यायवाची शब्द (Synonymous) के रूप में जानते है, परन्तु उसके वास्तविक स्वभाव (True nature ) को समझन में वे प्रायः असफल (Fail) रहे है। आज भी बहुत से विचारक एव दर्शन तो द्रव्यों के अस्तित्व की सूची के माधार पर कान की लम्बाई को नापते है, धौर उसे उसी रूप में जानने है परन्तु वे इस बात को भूल जाते है कि सिर्फ काल के कारण पदार्थ निरन्तर अपनी पर्यायों में बहुता रहता है, द्रवित होता रहता है और उसके प्राकार में भी परिवर्तन घाता है। काल का प्रथम गुण यह है कि वह निरन्तर पत्र का स्रोत है, परिणमन में सहायक कारण है। इसको दूसरी विशेषता यह है कि काल एक प्रकार की शक्ति है, जो पदार्थों में होने वाले परिवर्तन को क्रमबद्ध
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७८, वर्ष ३३, कि० ४
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रखती है।" फेंच दार्शनिक बोसिन ने घोषणा की थी, शेर के सद्भाव में ही करते हैं। ठीक इसी प्रकार भत, "पदार्थों में जो क्रान्ति एवं परिवर्तन प्राता है, उसमें काल भविष्य और वर्तमान कालिक व्यवहार से मुख्य काल का मावश्यक तत्त्व है। काल के बिना (Without time सद्भाव स्पष्ट सिद्ध होता है। अन्य द्रव्यों की तरह वह element) वस्तुषों में परिवर्तन होना पूर्णतः असंभव है।' भी एक स्वतन्त्र द्रव्य है और उत्पाद, व्यय और नौग्य से जैन-दर्शन भी इस सत्य तथ्य को स्वीकार करता है कि युक्त है। काल-द्रव्य केवल समय-नापने का ही साधन या माध्यम काल के भेव : नहीं है, उसका गुण एवं स्वभाव यह है कि द्रव्य के द्रवित
हम काल को सैकिन्ड, मिनिट, घण्टे, दिन-रात, वर्ष होने में, परिणमन होने में एव द्रव्य की पर्यायों के परि. प्रादि के रूप में जानते हैं । भत, भविष्य और वर्तमान के बर्तन में सहायक होना।
रूप में उसे तीन भागों में भी विभाजित करते है। प्रारमों बैशेषिक-वर्शन को मान्यता :
में अन्य प्रकार से भी काल का विभाजन किया हैवैशेषिक-दर्शन अपने द्वारा मान्य नव द्रव्यो में काल निश्चय-काल और व्यवहार-काल । व्यवहार-काल चन्द्र को भी एक द्रव्य मानता है। उसकी मान्यता के अनुसार और सूर्य की गति पर प्राधारित है, उसी के अनुसार काल एक नित्य और व्यापक द्रव्य है । परन्तु यह मान्यता सकन्ड, मिनिट, घण्टे, दिन-रात, पक्ष, महीना, वर्ष, युग, युक्ति-युक्त नहीं है, न तर्क सगत ही है और न अनुभव शताब्दी पल्योपम, सागरोपम, प्रवपिणी प्रादि के रूप में सिद्ध ही हैं। क्योंकि नित्य और एक होने के कारण उसमे काल-चक्र का विभाजन करते हैं। वैदिक परम्परा में स्वयं में प्रतोत, वर्तमान और अनागत त्रि-काल बोधक सतयुग, द्वापर त्रेता एवं कलियुग मादि के रूप में व्यवहारभेद नही हो सकता और तब उसके निमित्त को माध्यम काल का वर्णन मिलता है । इस व्यवहार-काल की अपेक्षा मानकर अन्य द्रव्यो एवं पदार्थों में प्रतीतादि भेदों को कैसे से ही इसे मनुष्य क्षेत्र अथवा ढाई-द्वीप में ही माना है। नापा जा सकता है? द्रव्य में जो परिणमन होता है, वह व्यवहार-काल लोक-व्यापी नही है। क्योंकि जितने लोक किसी समय में ही होता है, जो परिणमन हो चुका, वह में सूर्य और चन्द्र गतिशील है, उतने ही क्षेत्र में व्यवहारभी किसी समय विशेष में हमा था और जो परिणमन काल का उपयोग होता है, उसके बाहर नहीं है। परन्तु होगा, वह भी किसी समय विशेष में ही होगा। समय के लोक का एक भी ऐसा प्राकाश-प्रदेश नही है, जहाँ कालबिना परिणमन को वर्तमान, प्रतीत और अनागत काल से द्रव्य न हो। व्यवहार-काल भले ही वहां न हो, निश्चयसंबद्ध कैसे कहा जा सकता है ? कहने का अभिप्राय यह काल लोक में सर्वत्र व्याप्त है। है कि प्रत्येक माकाश-प्रदेश पर द्रव्यों में जो विलक्षण जिसे हम काल कहते है, वह व्यवहार जगत की परिणमन हो रहे है, उसमें साधारण निमित्त काल है, वह वस्तु है। परन्तु काल का जो सबसे छोटा प्रश है, जिसके भण रूप है । उसका सबसे छोटा रूप समय है। दो विभाग नही होते, उसे समय कहा है। एक परमाणु बौद्ध-वर्शन को मान्यता:
लोक-प्रवकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश पर जाता है, बौद्ध-दर्शन काल को स्वभाव सिद्ध स्वतन्त्र द्रव्य नहीं उसमें जितना समय लगता है, उसे एक समय कहा है। मानता, उसको मान्यता के अनुसार काल मात्र व्यवहार समय, पाश्चयं जगत को वस्तु है। वह लोक में सर्वत्र के लिए कल्पित है, वह प्रज्ञप्ति मात्र है। परन्तु हम व्याप्त है। लोक में व्याप्त षड्-द्रव्यो को पर्यायों में प्रतीत, वर्तमान और अनागत का जो व्यवहार करते हैं, प्रतिक्षण जो परिणमन होता है, उसमें समय ही सहायक वह केवल काल को कल्पना मात्र नही हो सकती। क्योकि है। यदि समयरूप काल का ढाई-दीप या मनुष्य-क्षेत्र से मुख्य काल-द्रव्य के बिना हम उसका व्यवहार भी नही कर बाहर प्रभाव मान लिया जाए, तो वहां किसी भी द्रव्य सकते । जैसे व्यक्ति में शेर का उपचार करते हैं, वह मुख्य का मस्तित्व ही नहीं रहेगा। क्योकि द्रव्य का स्वभाव ही १. भट्टशालिनो, १, ३, १६.
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षड़-तम्य में काल-व्य
ऐसा है कि वह अपने स्वरूप में स्थित रहते हए अपनी हो कान नियमानमार है।" ज्योतिष-विज्ञानवेता रोयल पर्यायों में द्रवित होता रहता है। उममें प्रतिक्षण परिवर्तन का कहना है --"Time i. Time de-facto) काल कार्य होता रहता है, उसकी पुरातन पर्याय का नाश होता है से प्रथवा यथार्थ में काल है।" महान वैज्ञानिक पाइन्स्टीन
और नयी पर्याय उत्पन्न होती है। परिणमन द्रव्य का भी काल को वास्तविक स्वीकार करता है और वह उसके स्वभाव है और समय के माध्यम के बिना वह कथमपि अस्तित्व को सम्पूर्ण लोक मे मानता है। काल के सम्बन्ध संभव नहीं है। प्रतः समय सर्वत्र व्याप्त है।
में प्राइस्टीन को मान्यता यह है-"Time and spaca जैन-दर्शन इस बात को स्वीकार करता है कि समय are mixed up in a rather strange way"-काल रूप कालाण प्रसंरूपात प्रदेश वाले लोक-आकाश के एक. प्रोर माकाश वास्तव में प्राश्चर्यजनक रास्ते से एक-दूसरे एक प्रदेश पर स्थित है, सभी कलाण स्वतन्त्र है, वे एक- मे मिल गए है।" वास्तव में कोई भी द्रव्य अपने मे दूसरे मे मिलते नहीं है। यदि एक कालाण दूसरे कालाणु मे भिन्न दूसरे द्रव्य मे नही मिलता है। जेन-दर्शने की अथवा एक समय दूसरे समय में मिल जाए, तो फिर वे मान्यता के अनुसार एकद्रव्य को प्रनम्त-मनन्त पर्यायें भी एक ही हो जाएंगे, उनमे अनेकत्व नही रहेगा। प्रतः अपने से भिन्न दूसरी पर्याय में नही मिलती। ससार प्रव. स्वभाव से वे एक-दूसरे से अलग है। मम्पूर्ण विश्व स्था में प्रात्मा और पुद्गल का संयोग सम्बन्ध एक-सा कालाणम्रो से परिपूर्ण है, लोक-प्राकाश का एक भी ऐसा दिखाई देता है, फिर भी प्रारमा का एक भी प्रदेश, एक प्रदेश नही, जो इससे शन्य हो। पदार्थ-विज्ञान की दृष्टि भी गुण पोर एक भी पर्याय पुद्गल के परमाणनों, उसके से (In a static condition) ये कालाण दष्टिगत नही गुणा और उसके पर्याय में नही मिलते है। पतः पाकाशहोते है, प्राकार रहित है, निष्क्रिय है और सख्या मे गिन द्रप न तो काल के रूप में परिणत होना है और न काल. नही जा सकते (Countless) है। इस प्रकार निश्चय
द्रव्य आकाश के रूप में। दोनो का परिणमन अपनी-अपनो काल सर्वत्र है और वह अनन्त है। क्योकि पर्यायो में परि- पर्याया में ही होता है। फिर भी प्राकाश का एक भी णमन मनन्त काल से होता पा रहा है, वर्तमान समय म ऐसा प्रदेश नही है, जो कालाणु से शुन्य हो। इस दष्टि हो रहा है और अनन्त अनागत काल में होता रहगा।
से काल प्राकाश में मिला हुमा-सा परिलक्षित होता है। पर्यावों में होने वाला परिवर्तन प्रनादि-अनन्त है, इस
इस अपेक्षा से माना जाए, तो जैन-दर्शन भी इसे स्वीकार अपेक्षा से समय भी अनन्त है। समय का अस्तित्व अथवा
करता है कि ग्राकार का एक-एक प्रदेश न तो भूत काल
में कालाण से शून्य रहा है, न वर्तमान में वह कालाणु से काल-द्रव्य का अस्तित्व लोक में ही है. प्रलोक में नही । प्रलोक में केवल शुद्ध प्राकाश (Only purespace) है, शून्य
शुन्य है और न भविष्य में वह कालाण से शून्य होगा। फिर भी चारों पोर से लोक को घेरे हुए है, अतः उमके काल, पुदगल और जीव : लिए भी यह प्रयोग किया जाता है कि प्रलोक में स्थित मैं प्रापका पहले बता चुका है कि षड-नयों में जीर पाकाश त्रिकालवर्ती है अनन्त ममय से वह है और अनन्त और अजीव, चेतन पोर जड़-दो द्रव्य मुख्य है। जीव के समय तक रहेगा।
अतिरिक्त पांचो द्रव्य अजीब है, प्रचेतन हैं। प्रागम में जानिक वृष्टि में-काल :
प्रजीव को दो प्रकार का बताया है-रूपी मोर प्ररूपी जैन-दर्शन की तरह विज्ञान भी इस बात को स्वीकार या मूर्त और अमूर्त । धर्म, अधर्म, प्राकाश और कालकरता है कि प्रत्यक्ष या व्यवहार-काल (Apparent- ये चारों द्रव्य प्ररूपी हैं, प्रमूर्त है। केवल पुद्गल-द्रव्य हो time) के पीछे निश्चय अथवा यथार्थ-काल (Real- रूपी एवं मूर्त हैं। मैं प्रमी पापको काल के सम्बन्ध में Time) भी है। प्रो० एडिनाटन का कहना है- बता रहा था कि परूपी एवं अमूर्त द्रव्यों की पर्यायों में "Whatever may be time dedure)--जो कुछ भी जो परिणमन होता है, उसमें काल-द्रव्य सहायक है. परंत
1. The Nature of the Physical world P. 36.
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५०, पर्व ३३, कि०४
अनेकान्त
उसका सीधा असर जीव पौर पुदगल पर होता है। है । प्रायु-कर्म के क्षय होते ही उस भव की पर्याय का व्यवहार काल का प्रभाव जीवों और प्रगलो पर ही नाश हो जाता है और दूसरे भव के बान्धे हुए पाय-कर्म पड़ता है। इसलिए महान् वैज्ञानिक पाइन्स्टीन ने कहा के अनुरूप उस भव की पर्याय उत्पन्न होती है। इसी को है-"यदि विश्व में पदार्थ (Matter) नहीं होता, तो लोक-भाषा में मृत्यु कहते है और व्यक्ति सदा इससे भय. माकाश पौर काल-दोनों नष्ट हो जाते । पदार्थ के भीत बना रहता है। रात-दिन व्यक्ति काल से, मृत्यु से प्रभाव में हम काल और प्राकाश को स्वीकार नहीं करते। बचने का प्रयत्न करता है। वैज्ञानिक भी व्यक्ति को यह पदार्थ है, जिसमें से (Space) प्रकाश प्रौर (Time) मृत्यु से बचाने के लिए प्रयत्नशील । फिर भी वे अब काल प्रारम्भ होते हैं । और हमें इनसे विश्व (Universe) तक उसमे सफल नहीं हो सके हैं। परन्तु जिस व्यक्ति ने का बोध होता है। जैन-दर्शन इस बात को नही मानता अपने स्वरू, को जान लिया और जिसे स्व-रूप पर कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को उत्पन्न करता है। पदार्थ, जो विश्वास है, वह मृत्यु से या काल से भयभीत नहीं होता। कि मूतं है, अपने से भिन्न काल एवं प्राकाष द्रव्यो को क्योकि काल, पुद्गल के आकार में ही परिवर्तन करता कथमपि उत्पन्न नहीं कर सकता, जो कि प्रमूर्त है। भार
है। प्रात्मा के प्रस्तित्व का नाश करने की ताकत काल मे तीय-दर्शन और उसमें विशेष रूप से जन-दर्शन यह भी नही है । वीतराग एवं प्रबुद्ध-साधक यह भली-भांति जानते नही मानता कि काल एवं ग्राकाश का अस्तित्व एवं मूल्य है
हैं कि काल अपनी गति से चलता रहा है और चलना पदार्थ (Matter) के कारण है। सभी द्रव्यो का अपना रहेगा। वह न तो कभी समाप्त हुमा है और न कभी स्वतन्त्र मूल्य एव महत्त्व है। यदि विश्व में किसी को समाप्त होगा । वह अपने स्वभाव के अनुरूप अपना कार्य सर्वश्रेष्ठ स्थान दिया जाए, तो वह जीव है, जो अपने करता है । परन्तु इसके निमित्त को पाकर जो मुझे भवज्ञान के द्वारा अपने से भिन्न द्रव्यो के स्वरूप का यथार्थ भ्रमण करना पड़ता है, उसका मूल कारण काल नही, रूप से जानने का प्रयत्न करता है और उन्हें जान भी प्रत्युत राग-द्वष प्रादि वंभाविक भावो में होने वाली मेरी लेता है। परन्तु विज्ञान की इस बात से जन-दर्शन सहमत परिणति ही है। विभाव से हटकर स्वभाव में स्थिर है कि पदार्थ का अस्तित्व होने के कारण काल का स्वरूप हो जाऊँ, स्वरूप म रमण करता रहूं, तो उससे कभी भी क्या है, उसकी शक्ति क्या है ? यह स्पष्ट रूप से ज्ञात
बन्ध नहीं होगा और नये कमों के बन्ध के प्रभाव के हो जाता है।
कारण वर्तमान भव के प्रायु-कर्म का क्षय होने के बाद जीव-द्रव्य प्रमूर्त है और वह अपनी पर्यायो मे ही मन्य भवों को पर्याय भी उत्पन्न नहीं होगी। प्रतः परिपरिणमन करता है। उस परिणमन में काल सहायक है
णाम स्वरूप मृत्यु का स्वतः ही अन्त हो जायेगा। माध्यम मात्र है । परन्तु ससार अवस्था में राग-द्वेष प्रादि वस्तुत: राग-द्वेष एव कषाय प्रादि विकारों के कारण वभाविक-भावों में परिणति होने के कारण प्रात्मा कर्मों मात्मा का पुद्गलों के साथ संयोग सम्बन्ध होने के कारण से भाबद्ध होकर चार गति एव चौरासी लाख योनियों में ही उसे ससार मे जन्म-मरण के प्रवाह मे प्रवाहमान होना परिभ्रमण करता है। जब कार्माण-वर्गणा के पुद्गलों का पड़ता है। प्रतः काल को नष्ट करने का नहीं,प्रत्युत रागबन्ध होता है, उस समय प्रकृति, अनुभाग एवं प्रदेश बन्ध द्वेष को हटाकर वीतराग-भाव जो पास्मा का स्वभाव हैं के साथ स्थिति-बध भी होता है और जितने काल की
पौर प्रात्मा का निज गुण है, उसमें स्थिर होने का प्रयत्न स्थिति का बध होता है, उसी के अनुरूप कर्म उदय में करे। जितनी-जितनी राग-द्वेष की परिणति कम होगी, माकर अपना फल देकर फिर प्रारम-प्रदेशो से अलग हो पात्मा उतनी ही जल्दी भव-भ्रमण के चक्र से मुक्त हो जाता है। इसी प्रकार जिस भव का जितने समय का सकेगा। प्रतः काल के कारण मूर्त पुद्गलों के प्राकारमायु-कर्म का बध होता है, उतने समय तक पायु-कर्म का प्रकार में परिवर्तन होता है। पूगल की स्थूलता एवं भोग करने के बाद उस भव का जीवन समाप्त हो जाता
(शेष पृ० ६७ पर)
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विष्णुसहस्रनाम और जिनसहस्रनाम
D श्री लक्ष्मीचन्द्र सरोज, जावरा, (म० प्र०)
हिन्दुप्रो के विष्णमहस्रनाम स्तोत्र के समान जैनो स्तात्र संस्कृत भाषा के उस मनुष्टुप छन्द में है जो पाठ मे भी सहस्रनाम स्तोत्र प्रसिद्ध है। प्रायः दोनो समाज में अक्षगे के चार चरणो से बना है। दोनो सहस्रनाम स्तोत्रों भक्तजन प्रतिदिन सहस्रनाम स्तोत्र पढ़ते है। अन्नर केवल मे अपनी प्रस्तावना है और अपना समापन है। पर जहाँ इतना है कि हिन्दू समाज मे यह स्तोत्र पूजन के पश्चात् विष्णसहस्रनाम स्तोत्र की प्रस्तावना मे तेरह मोर समापन पढते है और जैन समाज में यह स्तोत्र पूजन की प्रस्तावना में बारह श्लोक है वही जिन सहस्रनाम स्तोत्र की प्रस्तावना में पढ़ते है। प्रसूविधा या शीघ्रता के कारण जो जिनमहम्र में तेतीस पोर समापन में तरह श्लोक है। विष्णु सहस्रनाम नाम पद नही पाते है वे भी प्रतिदिन जिन सहस्र नाम के में कुल १४२ श्लोक है और जिन सहस्रनाम में कुल १६७ लिये अर्घ्य तो चढाते ही है । पर्यषण या दशलक्षण पर्व मे श्लोक है। तो प्रायः सभी स्थानों पर पूजन की प्रस्तावना में जिन- दोनो सहस्रनाम अपने-अपने धर्म और देवता की सहस्रनाम पढ़ने को प्रोर उसके प्रत्येक भाग को सपाति देन को संजोये है। दोनो की अपनी शिक्षा और संस्कृति पर प्रऱ्या या पुष्प चढाने को भी परम्परा है। यद्यपि है, पर विष्णसहस्रनाम में जहा लौकिक प्रवृत्ति भी लक्षित जिनसहस्रनाम मे जिन भगवान के और उनके गुणो को होती है, वहीं जिनसहस्रनाम में प्रलोकिक निवृत्ति ही व्यक्त करने वाले एक हजार पाठ नाम है, तथापि इसकी लक्षित हो रही है। जहा विष्णुसहस्रनाम में कर्तृत्वभाव रूपाति सहस्र नाम के रूप में वस ही है जमे माला में एक मुखरित हो रहा है, वहाँ जिनसहस्रनाम प्रस्तुत प्रसंग में सो प्राठ मोती या दाने होने पर भी हिन्दू लोग उन्हें सो मौन है। उसमें माद्योपान्त वीतरागता का ही गुंजन हो ही गिनते हैं, अथवा उपलब्ध सतसइयो में सात सौ से रहा है। चूंकि दोनो स्तोत्र भक्तिमूल है और भक्ति में अधिक छन्द होने पर भी उन्हे सात सौ ही गिनते है। भगवान का प्राश्रय लेना ही पड़ता है। प्रतएव विचार के
प्रस्तुत प्रसंग में उल्लेखनीय यह भी है कि हिन्दू धर्म धरातल में दोनों ही सहस्रनाम भक्ति के प्रवाशस्तम्भ हैं। मे विष्णु सहस्र नाम के समान शिवसहस्र नाम या गोपाल- जहा विष्णु सहस्र नाम में एकमात्र विष्णु ही सर्वोपरि सहस्रनाम और सीतासहस्रनाम भी मिलते है। इसी प्रकार शीर्षस्थ है, वहाँ जिनसहस्रनाम में सभी जिनेन्द्रों को जंनो मे भी जिनवाणी में संग्रहीत लघुसहस्रनाम भी पूर्णतया सर्वशक्तिसम्पन्न मनन्तदर्शन-ज्ञान-बल-सुख सम्पन्न पठनाथं मिलता है।
समझने को सुस्पष्ट स्वीकृति है। विष्णुसहस्रनाम में दशित संज्ञा और रचयिता : दोनो सहस्र नामो की सजा एक हजार नाम भीष्म-युधिष्ठिर को सुनाते हैं, जिन मार्थक है। विष्णुसहस्रनाम में भगवान विष्णु के एक महस्त्रनाम में उल्लिखित एक हजार प्राट नाम जिनसेन हजार नाम है और जिनसहस्र नाम में भगवान जिन के एक पाठको के लिये लिखते है, पर उन्होंने भी समापन के दसवें सहस्र नाम हैं। विष्णुसहस्रनाम के रचयिता महपिवर श्लोक में संकेत किया है कि इन नामो के द्वारा इन्द्र ने वेदव्यास हैं। यह उनके प्रमर ग्रन्थ महाभारत के प्रात्मान- भगवान की स्तुति की थी। शासन पर्व में भीष्म-यषिष्ठिर-सम्वाद के अन्तर्गत है। विष्णुसहस्रनाम की प्रस्तावना में कहा गया है कि जिनसहस्रनाम-स्तोत्र के रचयिता पाचार्य जिनसेन है, जो विष्णु जन्म, मृत्यु ग्रादि छह विकारों से रहित है, सर्वव्यापक कीतिस्तम्भ के सदृश अपने प्रादि पुराण के लिये सुप्रसिद्ध है। है, सम्पूर्ण लोक-महेश्वर है, लोकाध्यक्ष है। इनकी प्रतिदिन
छन्द प्रस्ताव और समापन : दोनों सहस्रनाम स्तुति करने से मनुष्य सभी दुखो से दूर ही जाता है :
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अनेकान्त
प्रनादिनिधनं विष्णुं सबलोकमहेश्वरम् । व्यक्ति, एक साहित्य, एक संस्कृति अपने प्रभ्य समीपस्थ लोकाप्यक्षं स्तवन्नित्यं सर्वदुःखातिगो भवेत् ॥ धर्म, व्यक्ति, साहित्य पोर संस्कृति से प्रभावित हुये बिना जिन सहस्रनाम की प्रस्तावना में कहा गया है कि नहीं रह सकती है। फिर यह तो भाषा है। जिनेन्द्र भगवान वीतराग, क्षायिक सम्यकदृष्टि हैं । पाप नामावली की समानता के सूचक कतिपय उदाहरण मजर पोर प्रमर, अजन्म भोर मचल तथा अविनाशी है, यहाँ सतकं, सजग होकर देखें। प्रत्येक उदाहरण में प्रथम प्रतः प्रापके लिये नमस्कार है। पापके नाम का स्मरण पंक्ति विष्णुसहस्रनाम की है और द्वितीय तृतीय पंक्ति करने मात्र से हम सभी परम शान्ति और प्रतीत सुख- जिनसहस्रनाम की है। भगवान के नामों के प्राधार पर सन्तोष तथा समृिद्ध को प्राप्त होते हैं। आपके अनन्त भक्तों में भावनात्मक एकता की अभिवद्धि की बात भी गुण हैं :
देश और काल को दृष्टि में रखते हये निस्संकोच कही जा प्रजराय नमस्तुभ्यं नमस्ते प्रतीतजन्मने । सकती है। प्रमत्यवे नमस्तुभ्यं प्रचलायाक्षरात्मने ।
(१) स्वयम्भू शम्भुरादित्य: पुष्पकराक्षो महास्वनः । अलमास्ता गुणस्तोत्रमनन्तास्तावका गुणा ।
श्रीमान् स्वयम्भू वृषभूः सम्भवः शम्भुरात्मन: । स्वन्नाम स्मतिमात्रेण परमं श प्रशास्महे ।। (२) अप्रमेयो हृषीकेशः पद्मनाभोऽमरप्रभुः । विष्णसहस्रनाम के समापन में कहा गया है कि जो स्तवना हषोकेशो जितेन्द्रियः कृतक्रिय. ॥ पुरुष परम श्रेय और सुख पाना चाहता हो, वह भगवान् (३) अनिविष्णः स्थविष्ठोऽमघंमयूपो महामखः । व्यास द्वारा कहे गये विष्णसहस्रनाम स्तोत्र का प्रतिदिन बर्मयूपो बयारागो धर्मनेमिर्मनीश्वरः ।। पाठ करे:
(४) अनन्तगणोऽनन्तश्रीजितमन्यर्भयापहः इमं स्तवं भगवतो विष्णोयासेन कीतितम् ।
जितकोषो जितामित्रो जितक्लेको जितान्तकः । पठेत् य इच्छेत्पुरुषः श्रेयः प्राप्तुं सुखानि च।।
मनोहरो जितकोषो वीरबाहविवारण: जिनसहस्रनाम के समापन में भी प्राचार्य जिनसेन ने (५) श्रीवः शोश: श्रीनिवासः श्रीनिषिः श्रीविभावनः । लिखा है कि इस स्तोत्र का प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक पाठ करने श्रीनिवासश्चतुर्वपत्रः चतुरास्यः चतुर्मुखः।। वाला भक्त पवित्र भौर कल्याण का पात्र होता है । विष्णु- प्रबुद्ध पाठक देखेंगे कि पांचवें उदाहरण की प्रथम सहस्र नाम स्तोत्र का समापन अनुष्टुप् छन्द मे ही हुमा पंक्ति मोर चतुर्थ उदाहरण की द्वितीय पक्ति पढ़ते हये है। दोनो ही स्तोत्र सार्थ मिलते है, प्रतएव संस्कृतविद् लगता है कि एक ही पोशाक मे सड़क पर दो विद्यालयो सधी पाठक ही नहीं, अपितु हिन्दी भाषी भी दोनो स्तोत्रों के विद्यार्थी जा रहे हैं पीर साहित्य की दष्टि से अनुप्रास का प्रानन्द ले सकते हैं।
अलङ्कार तो सुस्पष्ट है ही। समानता, असमानता एवं कलात्मकता
विष्णुसहस्रनाम को नामावली में विभाजन नहीं है, दोनों सहस्रनामों में जहाँ कुछ समानता और प्रसमा- पर जिनसहस्रनाम को नामावली दस विभागों में विभाजित नता है, वहां कुछ कलात्मक न्यूनाधिकता भी है। यह है। विष्णुसहस्रनामकार ने शायद इसलिये विभाजन नही उनके रचयितामों की अभिरुचि है, पर दोनों की भगवद्- नहीं किया कि विष्णु के सभी नाम पृथक्-पृथक् हैं ही, भक्ति मनन्य निष्ठा की अभिव्यक्ति करती है। स्थविष्ठ, परन्तु जिन सहननामकार ने शायद इसलिये सौ-सौ नामों स्वयंभू, सम्भव, पुण्डरीकाक्ष, सुव्रत, हृषीकेश, शंकर, घाता, का विभाजन कर दिया कि जिमसे श्लोक पाठ से थकी हिरण्यगर्भ, सहस्रशीर्ष, घमंयूप जैसे शब्द दोनों स्तोत्रो में जनता को जिह्वा को कुछ विश्राम मिले और मध्यं चढ़ाने मिलते है । देवतागों की नामावली में ऐसे शब्द पा जाना में भी यस्किचित् सुखानुभूति हो। अस्वाभाविक नही है। कारण, एक तो प्रत्येक भाषा के हिन्दू धर्म की एक प्रमुख विशेषता समाहार शक्ति भी अपने शब्दकोष की सीमा है और दूसरे एक धर्म, एक है। उसमें एक ईश्वर के तीन रूप-ब्रह्मा, विष्णु महेश की
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विष्णुसहस्रनाम और बिनसहस्रनाम
शक्ति में हैं प्रोर विष्णु भगवान के चौबीस भवतार भी हैं। इनमें ऋषभदेव भोर बुद्ध भी हैं। इसी उदात्त भावना का सूचक विष्णु सहस्र नाम का निम्नलिखित श्लोक है जिसमें अनेक लोगों का एकत्रीकरण या पुण्यस्मरण किया। गया है :
चतुर्मूतिश्चतुर्वाश्चतुर्व्यूहइचतुर्गतिः । चतुरात्मा चतुर्भावश्चतुर्वेदः विवेकवान् ॥ इस श्लोक मे राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, वासुदेव, सकर्षण, प्रद्युम्न तथा प्रनिरुद्ध को जहाँ स्मरण किया, वहाँ सालोक, सामीप्य, सायुज्य सारूप्य गति के साथ मन, बुद्धि हकार धौर चित्त को भी दृष्टि मे रखा तथा धर्म, पर्थ काम और मोक्षपुरुषार्थी के साथ ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद को भी नहीं भुलाया । यह श्लोक मनुप्रास अलंकार का भी ज्वलन्त निदर्शन है।
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बब हस्कृशः स्थूलो गुणभून्निर्गुणो महान् । प्रभूतः स्वतः स्वास्यः प्राग्वंशो वंशवर्धनः ॥ प्रणु, बृहत् कृश, स्थूल, गुणभूत, निर्गुण, भघृत, स्वघुत जैसे विरोधी सार्थक शब्दों को अपने में समेटे हुये यह श्लोक विरोधाभास अलंकार प्रस्तुत कर रहा है, यह कौन नही कहेगा ? विष्णु सहस्रनाम में तीर्थकर, श्रमण, वृषभ, वर्धमान शब्दो का प्रयोग हिन्दी और जैन विद्वानों के लिये विशेषता दर्शनीय, पठनीय और चिन्तनीय है :
वृषाही वृषभो विष्णुवृषपर्वा वृषोदरः । वर्धनां वर्ष मानश्च विविक्तः श्रुतिसागरः । मनोजवस्तोथंकरो वसुरेता वसुप्रवः प्राश्रमः धमणः क्षामः सुपर्णो वायुवाहनः ॥
जिनसहस्रनाम स्तोत्र में स्थविष्ठादिशतकं का चतुर्थ लोक पुनः पुनः पठनीय है। इसमें भगवान जिनेन्द्र का गुणगान करते हुये कहा गया है कि जिनेन्द्रदेव पृथ्वी से क्षमावान है, सलिल से शीतल हैं, वायु से अपरिग्रही हैं, और अग्निशिखा सदृश ऊर्ध्वधर्म को धारण करने वाले हैं। सुप्रसिद्ध उपमानों से अपने प्राराध्य उपमेय की afrofen की यह विशिष्ट शैली किसके हृदय को स्पर्श नहीं करेगी ?
शान्तिर्मा पृथ्वी मूर्तिः शान्तिर्मा सलिलात्मकः । बायूमूर्तिरसंगात्मा मूर्तिश्वधृक् ।।
६३
इसी प्रकार श्रीवृक्षादिशतं के प्राठों से ग्यारहवें लोकों में और महामुन्यादिशत्त के प्रारम्भिक छह श्लोकों में कवि कुल भूषण जिनसेन ने 'म' वर्ण के शब्दों की झड़ी लगा कर प्रबुद्ध पाठकों को भी चमत्कृत कर दिया है । उदाहरणस्वरूप महामुनि तीर्थंकर विषयक निम्नलिखित श्लोक देखिये, जो अनुप्रास अलंकार का एक श्रेष्ठतम उदाहरण है :
महामुनिर्महामोनी महाध्यानी महावमः । महाक्षमो महाशीलो महायज्ञो महामखः ॥ जिनसहस्रनाम स्तोत्र में जितने भी इलोक है, वे जिनके ही विषय में है, उनमें योगमूलक निवृत्ति है भोगमूलक वह लोक प्रवृत्ति नहीं हैं जो विष्णुसहस्रनाम के पुष्यहस, ब्राह्मणप्रिय जैसे शब्दो के प्रयोग में है ।
दिग्वासादिशत का प्रथम श्लोक जिनचर्या का एक उत्कृष्ट उदाहरण है :
दिग्वासा वातरशनो निर्गन्धो निरम्बरः । fafonest निराशसो ज्ञानचक्षुर मोमुहः ॥
दिशायें जिनके वस्त्र है और जिनका हवा भोजन है, जो बाहर भीतर की ग्रन्थियो (मनोविकारों) से रहित है, स्वयं प्रात्मा के वैभव सम्पन्न होने से ईश्वर है और वस्त्रविहीन है, अभिलाषाम्रो और श्राकाक्षाओ से रहित हैं, ज्ञानरूपी नयनवाले है घोर अमावस्या के अन्धकार सदृश प्रज्ञान- मिथ्यात्व दुराचार से दूर है, ऐसे जिन ज्ञानाब्धि, शीलसागर, ममलज्योति तथा महाभ्यकारभेदक भी हैं । जिन सहस्रनाम में ब्रह्मा, शिव, बुद्ध, ब्रह्मयोनि, प्रभविष्णु, प्रच्युत, हिरण्यगर्भ, श्रीगर्भ, पद्मयोनि जैसे नाम भी जिन (जितेन्द्रिय) के बतलाए गये है ।
जिनसहस्रनाम में जिनको प्रणवः, प्रणयः, प्राणदः, प्रणतेश्वरः " कहा गया है। इसके अनुरूप ही विष्णु सहस्रनाम में "वैकुण्ठः पुरुषः, प्राणः प्राणदः प्रणवः पृथुः " कहा गया है । जिनसह नाम स्तोत्र में जहाँ "प्रधानात्मा प्रकृतिः परम:, परमोदयः" कहा गया है, वह विष्णुसहस्रनाम स्तोत्र में जहाँ "प्रधानात्मा प्रकृतिः, परमः परमोदय: " गया है, वहाँ विष्णुसहस्रनाम स्तोत्र म " योगायोगविदा नेता प्रधानपुरुषेश्वरः " कहा गया है। जिनसहस्रनाम में
कहा
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८४ वर्ष ३३, ०४
"सदागतिः, सत्कृतिः सत्ता सद्भूतिः सत्यपरायणः " कहा गया। “सदायोगः सदाभोगः सदातृप्तः सदाशिवः " भी कहा गया है ।
इस प्रकार दोनों स्तोत्रो के शब्दो, प्रथ प्रोर भावो में पर्याप्त साम्य उपलब्ध होता है और यह सकुचित स्वार्थ पर प्राधारित साम्प्रदायिक व्यामोह से ऊपर उठ कर भावनात्मक एकता और धार्मिक सहिष्णुता की ओर इंगित करता है । धर्म की धरा पर जाति का नही, गुण और कर्म का ही महत्त्व | जैनधर्म के प्रचारक तीथकर जैन (वैश्य) नहीं, अपितु क्षत्रिय ही थे । अन्यभक्ति निष्ठा
स्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव
१ रचयिता २ श्लोक संख्या
अनेकान्त
त्वमेव बन्धुश्च ससा त्वमेव । त्वमेव सर्वं मम देव देव ||
३ प्रस्तावना में श्लोक
४ समापन में श्लोक
५ छन्द
६ प्रलंकार
७ नाम
उद्देश्य बिभाजन १० प्रभिव्यक्ति
यह श्लोक विष्णुसहस्रनाम का प्रामुख ही है पर यह उसमें नही है । इसमें जैसे भक्त की भगवान विषयक अनन्य निष्ठा की अभिव्यक्ति हुई है, वैसे ही जिनसहस्रनाम के निम्नलिखित श्लोकों में भी जिनसेन या जिन भक्त की अनन्य निष्ठा प्रगट हुई है :
स्वमतोऽसि जगद्वन्धुः स्वमतोऽसि जगद्भिषक् । न्यमतोऽसि जगद्धाताः स्वमसोऽसि जद्द्द्धितः ॥
सक्षेप में दोनो ही सहस्र नाम अपने में अनन्य निष्ठा की आत्मसात किये हैं और भगवान के एक नहीं अनेक नामो के लिये स्वीकृति दे रहे है। दोनो ही प्रतिदिन पढ़े जान पर भक्तो के लिये लोक-परलोक के कल्याण की बात कह रहे है । सारिणी १ मे उपरोक्त विवेचन का सक्षेपण किया गया है ।
सारिणी १. जिनसहस्रनाम ओर विष्णुसहस्रनाम
जिनस०
विष्णुस ०
जिनसेन
वेदव्यास
१६७
१३
१३
अनुष्टुप्
उपमा, अनुप्रास बहुल
१००८
परमश्रेय, लौकिक निवृत्ति
दश अध्याय वीतरागता
00
१४२
१३
१२
अनुष्टुप्
उपमा अनुप्रास बहुल
१००८
परमश्रेय, किंचित् शुभलोकिक प्रवृत्ति
ईश्वर के प्रति कर्तव्यभाव
बाहुबली की मूर्ति
बाहुबली अथवा गोम्मटश्वर का जीवन चरित्र किसी भी महाकाव्य का विषय हो सकता है । सन् १९२५ मे मै कारकल गया था, वहा की पहाड़ी पर बाहुबली की ४७ फुट ऊंची मूर्ति देखी थी । श्रवणबेलगोल की ५७ फुट ऊंची मूर्ति देख आय हूँ । एक ही पत्थर में से खादी हुई ऐसा सुन्दर मूर्ति ससार में कोई दूसरी नही। इतनी बड़ी मूर्ति भी इतनी सलौनी और सुन्दर है कि भक्ति के साथ-साथ प्रेम की अधिकारी हो गई हैं ।
इस प्रदेश के गाव-गाव में बिखरी मूर्तिया और कारीगरी से खडित पत्थरो को इकट्ठा करके किसी भी राष्ट्र के गर्व करने याग्य अद्भुत संग्रहालय तयार हो सकता है ।
- काका कालेलकर
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तीर्थकर महावीर को निर्वाण-भूमि ‘पावा'
→ श्री गणेशप्रसाद जैन, वाराणसी
तीर्थकर महावीर का निर्वाण ७२ वर्ष की प्रायु मे का उपदेश सुनने के लिए विभिन्न देशों से राजा एवं प्रजा ई. सन से ५२७ वर्षांपूर्व पावा में हुआ था। दिगम्बर- जन 'पावा'पधारे थे। ती० महावीर-उपस्थित जन-समूह शास्त्रो के अनुसार उन्तीस वर्ष पाच मास और बीस दिन को छह दिनों तक उपदेश करते रहे। सातवें दिन रात्रितक केवली भगवान महावीर चार प्रकार के अनागारो भर उपदेश देते रहे । जब रात्रि के पिछले प्रहर में तथा बारह प्रकार के गणों (सभानों) के साथ विहार करते सब श्रोता नीद मे थे, भगवान महावीर पयंकासन से हुए अन्त मे 'पावा' में पधारे, और दो दिनो तक योग शुक्ल ध्यान में स्थित हो गये । जैसे ही दिन निकलने का निरोध करके अन्तिम गुण स्थान को प्राप्त कर लिया। समय हुमा । तीर्थकर महावीर प्रभु ने निर्वाण लाभ कर इनके चारो प्रघातिया कर्म नष्ट हो गये। कार्तिक मास लिया। जब उपस्थित जन समूह की तन्द्रा भंग हुई तो की कृष्ण चतुर्दशी को रात्रि पूर्णकर प्रात: की उषा वेला उन्हे दिखा कि वीर प्रभु निर्वाण लाभ कर चके है। उस मे स्वाति नक्षत्र के रहते हुए निर्वाण प्राप्त कर मोक्ष चले समय ती. केवली भगवान के प्रधान गणधर इन्द्रभूति गये। यह कार्तिक कृष्णा अमावस्या का प्रात:काल था। गौतम को केवल ज्ञान भी प्राप्त हुप्रा । 'हस्तिपाल' राजा,
श्वेताम्बर परम्परा में कार्तिक कृष्णा अमावस्या मल्लगण राज्य केनायक तथा १८ गण नायकों ने उस पौर शक्ला एकम के प्रभात में स्वाति नक्षत्र के रहते उषा दिन प्रोषध रखा था। यह निर्वाण मध्यमा-पक्षिा वेला में मोक्ष प्राप्त किया है। दोनों सम्प्रदाय में महावीर में गणतन्त्री मल्ल राजा हस्तिपाल के शल्कशाला में के मोक्ष-काल में २४ घण्टे (एक दिन एक रात्रि) का हुआ। अन्तर है । परन्तु निर्वाण-स्थल दोनो का 'पावा' ही है। प्राज २५०७ वर्षों से समस्त भारत तथा कुछ विदेशों
कि ARMI की प्रथवा १५ की रात्रि को में भी प्रतिवर्ष कार्तिक कृष्ण प्रमावस्या को ती. महावीर महान अन्धकार की रात्रि कहा जाता है। इन्द्र निर्वाण. के निर्वाण दिवस की स्मृति में दीपावली का महापर्व महोत्सव मनाने के लिये अपने देव परिषद के साथ 'पावा' मनाया जा रहा है । इसे सभी सम्प्रदाय भिन्न प में
मनाने लगे हैं किन्तु सभी दीपोत्सव करके ही मनाते पाया था, और वहा उसने असंख्य दीपो की दीप मालिका संजोकर महान प्रकाश किया था। प्रागन्तुक देवो के उच्च मधर स्वर के जयकार के बारम्बर के घोष से 'पावा' भारत और विदेशो में मिला कर लगभग एक सौ का प्राकाश गजित हो गया था। पावा नगर के नर-नारी सवत्सरों का प्रचलन है सम्भवत उनमे सर्व प्राचीन संबत उस घोष को सुनकर जाग गए और ती० महावीर का ती० महावीर का निर्वाण सवत ही है। विक्रम संवत निर्वाण जान समस्त परिवारों के लोग हाथों में दीपक महावीर-निर्वाण सवत से ४७० वर्षों बाद का है, शालि. लिए निर्वाण स्थल पर पाये थे, इसी प्रकार से वहा वाहन शकसवत ६०५ वर्ष ५ माह बाद का है, और प्रसस्य दीप एकत्रित हो गये। इन्द्र, देव-परिषद पावा के ई० सन् ५२७ वर्षों पश्चात प्रचलित हुभा है। तथागत नागरिको ने बड़े ही धूमधाम से ती. महावीर का निर्वाण बूद्ध ती० महावीर के समकालीन थे, और उनके जीवन महोत्सव मनाया।
काल में ती० महावीर निर्वाण प्राप्त कर चुके थे। श्वेताम्बर परम्परा में ती. केबली भगवान महावीर प्राज जिस 'पावा' का तीर्थकर महावीर की निर्वाण
द
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८६, वर्ष ३३, कि० ४,
अनेकान्त भमि मानकर वहां निर्वाण महोत्सव प्रति वर्ष दिगम्बर और 'पावा' माग्नेय दिशा में, दूसरी 'पावा' वायव्य-कोण मे श्वेताम्बर धूमधाम से मनाते है, वह इतिहासकारो और स्थित थी, अत: तीसरी पावा मध्यमा के नाम से प्रख्यात शोषको की दष्टि में विवाद की वस्तु बन गई है। उनका ' थी। भगवान महावीर का निर्माण और अन्तिम चातुर्मास कहना है कि यहां के स्थल में एक भी ऐसे चिन्ह प्राप्त इसी पावा में हपा था। (श्रवण भगवान महावीर-प० नहीं होते हैं, जो यह सिद्ध करने में समर्थ हों कि यह ३७५) । तीर्थकर महावीर की निर्वाण भूमि है।
यह प्रचलित 'पावा' जिसे पूरी भी कहा जाता है डा० राजबली पाण्डे का.-"भगवान महावीर की विहार शरीफ स्टेशन से नौ मील दूर है । दिगम्बर और निर्वाण भूमि' शीर्षक एक लेख (निबन्ध) प्रकाशित श्वेताम्बर दोनो सम्प्रदाय इस निर्वाण स्थल को कई हुआ है। आपने उसमे 'कुशीनगर से वैशाली' की पोर सदियों से श्रद्धा पूर्वक पूजते पा रहे है । इस ‘पावापुरी' मे जाती हुई सड़क पर कुशीनगर से ६ मील की दूरी पर निर्वाण-स्थल पर एक जल-मन्दिर निर्मित है। यह मन्दिर पूर्व-दक्षिण दिशा में 'सठियाव गाँव' के 'भग्नावशेष' पूर्ण संगमरमर से बना हुआ है, और एक बडे सरोवर के (फाजिलनगर) को ही निश्चित किया है। मध्य स्थित है। मन्दिर तक पहुचने के लिए ६०० फुट यह भग्नावशेष लगभग डेढ मील विस्तृत है, और लस्वा लाल पत्थरों से निर्मित पुल है । सरोवर कमल पुष्पो योगनगर तथा कुशीनगर के मध्य में स्थित है। यहां पर से सदा माच्छादित रहता है। चांदनी रात्रि में मन्दिर जैन-मतियों के वसावशेष अभी तक पाये जाते है । बौद्धका प्रतिबिम्ब जब सरोवर के स्वच्छ जल मे झिलमिलाता साहित्य में जो पावा की स्थिति बतलायी गयी है कभी दीखता है तब वह शोभा और भी अनुपम बन दर्शको को इसी स्थान पर घटित होती है। मोह लेती है । 'वास्तु-कला' की दृष्टि से भी यह विहार
हा० मेमिचन्द्र जी शास्त्री (पारा) ने लिखा है कि प्रान्त की एक अनुपम निधि है। यहा धर्मशालायें और।
–तीनों पावानों की स्थिति पर विचार करने से ऐसा पन्य मन्दिर भी हैं।
मालूम होता है कि ती. महावीर की निर्वाण-भूमि 'पावा' मुनि कल्याण विजय गणी ने लिखा है कि प्राचीन
डा. राजबली द्वारा निरुपित ही है। इसी स्थल पर भारत में 'पावा' नाम की तीन नगरिया थी। जैन सूत्रो
था। जन सूना काशी-कोशल के नौ, लिच्चवी, तथा नौ मल्ल, एव अठारह के अनुसार एक 'पावा' मंगि देश की राजधानी थी। यह
या । यह गणराजानों ने दीपक प्रज्वलित कर भगवान महावीर का प्रदेश पार्श्वनाथ पर्वत (सम्मेद-शिखर) के प्रासपास के
निर्वाणोत्सव मनाया था। 'नन्दि वर्धन (वर्धमान के अग्रज) भूमि भाग में फैला हुआ था। जिसमे हजारीबाग पौर
द्वारा ती० महावीर की निर्वाण भूमि पर उनकी पुण्यस्मृति मानभूमि जिलों के भाग शामिल थे । बौद्ध-साहित्य के
में जिस मन्दिर का निर्वाण किया था, पाज वही मन्दिर मर्मज्ञ कुछ विद्वान इस 'पावा' को मलय देश की राजधानी
फाजिल नगर का ध्वंसावशेष है । इस मन्दिर का निर्माण बतलाते हैं, परन्तु जैन-सूत्र ग्रन्थों के अनुसार यह मंगि देश
एक मील के घेरे में हुआ था, और यह ध्वंसावशेष लगभग की ही राजधानी सिद्ध होती है। दूसरी 'पावा' कोशल से
एक-डेड़ मील का है। ऐसा अनुमान होता है कि मुसलउत्तर-पूर्व कुशीनारा को मोर मल्ल राज्य की राजधानी
मानी सलतनत की ज्यादतियों के कारण इस प्राचीन थी। जिसे महापडित 'राहुल सांकृत्यादन' गोरख जिले के 'पपडर' प्राम को मान्यता देते है। यह पडरौना के निकट
तीर्थ को छोड़कर 'मध्यम-पावा' को ही तीर्थ मान लिया
गया है। यहा पर क्षेत्र की प्राचीनता का द्योतक कोई भी और कसाया से १२ मील उत्तर-पूर्व मे है। 'मल्ल' लोगों
चिन्ह नहीं है। अधिक से अधिक तीन सौ वर्षों से इस क्षेत्र के गणतन्त्र का सभा भवन भी इसी नगर में था।
को तीर्थ स्वीकार किया है। ती० महावीर के काल में तीसरी 'पावा' मगध जनपद मे थी, जो प्राजकल तीर्थ सोलह जनपद थे। जिसमे काशी, कोशल, मगध, वज्जि ग पने मान्य है। इन तीनों 'पाबाचों' में पहली और मल्ल प्रमुख थे। काशी की राजधानी बाराणसी,
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तीर्थंकर महावीर की मान-मुनि-पावा' कोवाल की भाषस्ती, मगध की राजगृह, पोर मल्लों की वाली महलों की राजधानी 'पावा' कैसे हो सकती है? 'पावा' और 'कुशी नगर' थी। वैशाली वज्जियो की राजगही का राज्य साम्राज्यवादी' था, मोर अन्य मल्लराजधानी थी। यह एक प्रसिद्ध महत्वपूर्ण नगर था। मन्य राज्य स्वतन्त्र गणतन्त्र राज्य' थे । उनका इस भूभाग में सभी राजधानियों भी विस्तृत समृद्ध पौर युग की श्रेष्ठ होना असम्भव है। प्रसिद्ध नगरियां थी।
श्वेताम्बर-सम्प्रदाय के जन-साहित्य से स्पष्ट मात गणतन्त्र के प्रमुख नगर 'पावा', कुशीनगर, भंडग्राम, माव ली भगवान ती. महावीर ने वालाहार, वनखण्ड, मोगनगर और पाम्र ग्राम थे।
चातुर्मास 'पावा' के मल्ल गणतन्त्री राज्य हस्तीपाल की 'पावा' एवं कुशीनगर के मध्य तीन नदिया बहती थी,
रज्जुग सभा में बिताया था। और उनका निर्वाण 'पावा' जिनमें तुकुत्था (घाधी) और हिरणावती के नाम पोर ।
- में हुअा था, जो मल्ल राजा हस्तीपाल की राजधानी पी। चिन्ह मिलते हैं।
दिगम्बर प्राग्नाय के ग्रंथ पुष्पदन्तकृत महापुराण भगवान बुद्ध के यात्रा मार्ग की चर्चा बौद्धग्रस्थ
(सन्धि १०२ कडवक १०-११) तथा उत्तरपुराण (७६, निव्वानसुत्त मे पाती है। वंशाली और कुशीनगर के बीच
५०८-५१२) में और अन्य ग्रंथों में भी केवली ती. भण्डग्राम, जम्बूग्राम, हत्त्तिग्राम , माम्रग्राम भोगनगर,
भगवान महावीर ने अपने विहार का क्रम समाप्त कर 'पावा' और कुशीनगर उन्हें मिले थे। 'कुशीनगर' से
'पावा' नगर में अनेक सरोवरो के बीच उन्नत भूमि पर पावा कुल तीन गव्युति अर्थात् १२ मील दूरी पर था।
महामणि शिला पर प्रासन ग्रहण लिया था और वही से गणराज्य की राजधानी 'पावा' का प्रसार साक्यराज वह मोक्ष पधारे थे । की सीमा तक फैला था। ती. महावीर के अनुयायियो डा० हीरालाल जी जैन और डा०मा० ने० उपाध्याये की बस्ती 'कुशीनारा' में थी। प्राचीन मल्लराष्ट्र के ही
।। प्राचान मल्ल राष्ट्र क भी अपनी रचना 'महावीर युग और जैन दर्शन' में भूभाग में अब भी मल्लों के राज्य (स्वाधीनता से पूर्व) पष्ठ ३० पर लिखते है कि -'कल्पमूत्र तथा परिशिष्ट पर्व विद्यमान हैं । किन्तु इन राज्यों के मल्ल शासक शायद
के अनुसार जिस पावा में भगवान का निर्वाण हमा पा, अपने को उस पुरातन मल्लो का वशज न मान कर अन्य
वह मल्ल क्षत्रियो की राजधानी थी। ये मल्ल बंशाली के क्षत्रिय मानते है।
वज्जिसंघ व लिच्छवि संघ में प्रविष्ट थे। और मगध के महापंडित 'राहुल सांकृत्यादन' का कहना है कि सत्तात्मक-राज्य से उनका वैर था। मतएव गंगा के पडरौना के राज्य जो प्राजकल अपने को 'संथवार', दक्षिणवर्ती प्रदेश जहा वर्तमान पावापुरी' क्षेत्र है, वहां तमरवही के राजा "भूमिहार'-'ब्राह्मण' एवं मझोली के उनके राज्य होने की सम्भावना नही है। राज्य के विमने राजपूत' कहते हैं ये सभी 'मल्ल-क्षत्रियो' इसके अतिरिक्त बौद्ध ग्रंथो जैसे 'दीघ-निकाय, मंझिम. के वंशधर हैं। १३वी शताब्दी के प्रारम्भ मे 'कुशीनगर निकाय' मादि से भी सिद्ध होता है कि 'पावा' की स्थिति प्रोर पावा' के बौद्ध और जैन-विहार, स्तम्भ तथा मन्दिर शाक्य-प्रदेश' में ही थी, और वह वैशाली से पश्चिम की मुसलमानो द्वारा नष्ट कर दिये गये थे।
पोर कुशीनगर से केवल दस बारह मील की दूरी पर थी। भरतसिंह उपाध्याय 'बुद्धकालीन भारतीय भूगोल' शाक्यप्रदेश के
शाक्य-प्रदेश के 'सामग्राम' में जब भगवान बुद्ध का निवास मे लिखते हैं कि जैन-लोग महावीर की निर्वाण भमि था, तभी उनक
था, तभी उनके पास सन्देश पहुंचा था कि अभी-२ अर्थात् 'पावा' को मानते हैं, जो विहार शरीफ से करीब ७ मील
एक दिन के भीतर पावा में भगवान महावीर का निर्वाण 'दक्षिण पूर्व दिशा में नालन्दा के निकट स्थित है। 'पावा' हुमा है । तीर्थ यह स्थान कदापि नही हो सकता है, क्योंकि राजगृह उक्त बातों पर विचार विनमय , पश्चात् इतिहास के इतने निकट 'शाक्य' तथा 'कुशीनगर' और गणतन्त्रों इस निर्णय पर पहुंचे हैं कि जिस पावापुरी में भगवान
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३३ कि. ४,
महावीर का निर्वाण हुमा था, वह यथार्थतः उत्तर प्रदेश महावीर की जीवन पटनागों को प्रतिष्यमित करने वाली के देवरिया जिले में व कुशीनगर के समीप वाला 'पावा' है। एक धर्मशाला भी निर्माण कराई जा रही है। भारत नामक ग्राम है, जो प्राजकल सठियांव (फाजिलनगर) वर्षीय दि. जैन २५००वां निर्माण समिति, दिल्ली ने भूमि कहलाता है, और जहां बहुत से प्राचीन खण्डर व भग्नाव. खरीदने के लिये १५००० रुपये तथा श्रावक शिरोमणि शेष पाये जाते हैं । अतएव ऐतिहासिक दृष्टि से इस स्थान दानवीर साहू शान्तिप्रसाद जी ने पांच हजार नगद को स्वीकार कर उसे भगवान महावीर को निर्वाण भूमि और एक वैगन सीमेंट द्वारा सहायता की है। अन्य भक्तो योग्य तीर्थ बनाना चाहिये।
___ की प्रोर से मित्य कार्य प्रगति पर है। वर्तमान में वहां एक 'श्री पावानगर निर्वाण क्षेत्र २५०० सौवीं तीर्थंकर महावीर के निर्वाणोत्सव पर समिति' कार्य कर रही है। जिसके राय देवेन्द्रप्रसाद जैन, वहाँ महाविद्यालय (डिग्री कालेज) भी स्थापित हो चुका अध्यक्ष (नन्दभवन, गोरखपुर, २७३००१) और प्राचार्य है। सरकार और विश्व विद्यालय-मान्यता उसे प्राप्त हो श्री अनन्त प्रसाद जैन, मंत्री (जन मन्दिर गली, अलीनगर, चुकी है। हम सब का कर्तव्य है कि इस दीपावली पर गोरखपुर २७३००१) हैं । आप लोगो के सत् प्रयत्न से तीर्थकर महावीर के २५०७वं निर्वाण पर हम फाजिलनगर वहां भारी कार्य हुआ है और बराबर हो रहा है । इन जाने का निर्णय करें और वहां यात्रा कर पुण्य उपार्जन दोनों महानभावों के परिश्रम का प्रतिफल है कि उस करें तथा यह भी देखें कि यथार्थ क्या है ? दीपावली के निर्वाण भूमि पर ती महावीर के एक विशाल मन्दिर का अतिरिक्त भी वहा की यात्रा की जा सकती है। निर्माण हो रहा है, जिसका नाप ७२ फुट X ३० फुट है,
पूर्वोत्तर (ई. एन.) रेलवे के गोरखपुर अथवा देवरिया और जिसमें १२ फुट का गर्भ गृह की वेदी में ती० महावीर स्टेशन पर उतरें, वहां से बस-टैक्सी मादि सवारी से की प्रतिमा स्थापित होगी।
पावानगर (वर्तमान फाजिलनगर) पहुचे। गोरखपुर से ७२ वर्ष की आयु मे ती. तहावीर का निर्वाण हा ४४ पौर देवरिया से ३५ मील दूर है, और पक्की सडक पा, ३० वर्ष की प्रायु मे प्रवज्या ली थी, और १२ वर्ष पर है। धर्मशाला मे ठहर कर वहां का भज निरीक्षण उनका तपस्या काल था। मन्दिर की नाप तीर्थकर सुविधापूर्वक किया जा सकता है।
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मनेकान्त'के स्वामित्व सम्बन्धी विवरण
प्रकाशन स्थान-बीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली । मुबक-प्रकाशक वीर सेवा मन्दिर के निमित्त प्राकशन अवधि-मासिक श्री प्रोमप्रकाश जैन, पता-२३, दरियागंज दिल्ली-२
लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होता है। राष्ट्रीयता - भारतीय सम्पादक--गोकुलप्रसाद जैन
| यह मावश्यक नहीं कि सम्पादन-मण्डल के सभी राष्ट्रीयता-भारतीय पता-वीरसेवामन्दिर २१, | विचारों से सहमत हो।
दरियागंज, नई दिल्ली-२ | स्वामित्व-बीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
मैं भोमप्रकाश जैन, एतद्द्वारा घोषित करता हूं कि | मेरी पूर्ण जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपयुक्त विवरण सत्य है।
-मोमप्रकाशन, प्रकाशक
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नागछत्र-परंपरा और पार्श्वनाथ
D डा. भगवतीलाल पुरोहित, उज्जन (म० प्र०)
इस देश और संसार मे, लोक में नाग-महिमा व्याप्त विष्णकी पहली ऐसी प्रतिमा बनवायी हो। पोर उसके है । नागो के बारे में अनन्त अनन्त लोक कथा प्रचलित संरक्षण मे वैष्णव-धर्म का पल्लवन हुआ हो। उस प्रतीक हैं। इन लोककथानों में नागो का मान करण भी हो गया के माध्यम से अपनी राजक्षमता व्यक्त करने के लिए उसने है। नाग स्वभाव से ही क्रोधी माने गए । इसीलिए गोधी यह भी घोषित करवा दिया कि शेष के सिर पर ही धरती लक्ष्मण, बलराम इत्यादि को शेष कानार माना गया। टिकी है। शेष के बिना धरती रसातल में चली जाती। शेष के सहस्र फणों पर पथ्वी टिकी है, यह भी मान्यता
कहते है पार्श्वनाथ ने पूर्वजन्म में नाग की रक्षा की रही है। शेष बहुल भी माना गया है।
थी। फलतः इस जन्म में पार्श्वनाथ पर कठिनायी माने विष्ण को शेष फणो में छात्र किा ननाए जाने है।
। पर नाग ने उन्हें संरक्षण प्रदान किया। नाग के सरक्षण ऐसी प्रतिमाएं गप्तकाल तक की प्राताती है जिनम
के कारण ही पार्श्वनाथ की रक्षा हो सकी। इस कथा से देवगढ़ की शेषगायी प्रतिमा मर्वप्रसिद्ध है। गिव के
यही ज्ञात होता है कि किसी समकालीन नागनप अथवा प्राभपण ही नागा के है । गत जल नागवा में उतान्न होने
नाग जाति के वीर ने पावनाथ की संकट में रक्षा की से तथा बहलता के कारण शेष के अवतार माने जाते है
तथा वह उनका प्रमुख सहयोगी बना। बल्कि अधिक और उनका महाभाग्य कणिभाष्य कहलाता है।
मीचीन यही प्रतीत होता है कि किसी नाग के संरक्षण नागनपों का स देश में पर्याप्त वर्चस्व रहा।
मही पाश्र्वनाथ के विचारों का प्रचार-प्रसार हमा। तक्षशिला, अहिच्छत्र, नागपुर, उरगपुर (उरेयु -- मदुरं) पादरीनाथ के प्रति अत्युपकार के कारण ही नागछत्र उनके इन्यादि नागरमाग तथा नागवचम्व ही अयशप है माश सदा के लिए सम्पक्त हो गया। मम्भव है नागफणों से काशी में नागनगो ने ही दम अश्वमेघ किए थे । वह स्थल गुवन पार्श्वनाण की प्रतिमा का प्रचार भी उस संरक्षक नाग ग्राज भी दशाश्वमेध घाट के नाम से प्रसिद्ध है । जनमेजय अथवा उमके उनगाधिकारियो के द्वारा ही हमा हो। का नागयज्ञ लोकविश्रत है जिसमे जनमेजय ने नागतिनाथ क्योंकि यह उनके स्वभाव के अनुरूप प्राचरण है। का वीटा ही उठा लिया था।
पार्श्वनाथ को अधिक लोकप्रिय बनाने में किसी नाग का नागा का इस देश के माहित्य, कला और संस्कृति में हाथ था या उनके तयुगीन अनुयाइयों ने भी महर्ष पर्याप्त योगदान रहा है । विदिशा मे मथग तक का क्षेत्र स्वीकाग और तभी इनके साथ उपयुक्त अन्य देवों के इनके ही वर्चस्त्र में था जहा मे अनन्त अनन्न नागमूर्तियां ममान नागछत्र स्थायी रुप से जुड़ ही नही गया, बल्कि भी प्राप्त होती है। इन्होने भारतीय परम्परा के अनुरूप वह उनका प्रतीक चिन्ह भी बन गया। अपने राज्य क्षेत्र में विभिन्न धर्मो तथा उनकी परम्परामों वस्तुतः नागो के अवदान को बिसारा नहीं जा सकता को प्राथय तथा प्रश्रय दिया । अशोक ने ग्राजीवको को
अर्थशास्त्र के रचयिता कौटिल्य का एक नाम मल्लनाग गहादान किया था और ब्राह्मण सातवाहनो ने बौद्धों को
था। छदशास्त्र का प्रथम प्रणेता पिमलनाग था । योगसूत्र गहादान किया था। नागानो ने भी ऐसी ही उदारता
तथा महाभाष्य के रचयिता पतंजलि भी नाग ही थे। दर्शायी थी। परन्तु एक चातुर्य अवश्य किया था। जिम
भावातक रचयिता गप्तयुगीन गणपतिनाग था जो सम्प्रदाय को मरक्षा प्रदान कर उन्होंने पल्लवित किया
ममुद्र गप्त से पराजित हुप्रा था। और इसी प्रकार अनेकानेक उमे उन्होंने नागचिन्ह में अवश्य मम्पक्त कर दिया जिसमें
विद्वान हुए हैं। नाग-नपो ने साहित्य और कला के साथ उनका नागसम्बन्ध चिरविज्ञात रहे।
ही भारतीय स्वयगीन विभिन्न धर्मों को भी समान प्रादर ही विष्ण की शेषशायी प्रतिमा नागो के ही राज्य क्षेत्र -
नही दिया उनके साहित्य-कलादि के द्वारा प्रसार-प्रचार में देवगढ़ से प्राप्त हुई है। असभव नहीं, यह तथा रोसी भी पर्ण सहयोग दिया। भारत को नागों के अवदान सम्बन्धी प्रतिमा के निर्माण का प्रथम प्रयास नागो ने ही किया हो। विस्तृत अध्ययन से और भी अनन्त प्रहात तथ्य प्रकाशित शेष नामक नागराजा भी हुमा है । सम्भव है उसने ही होने की सम्भावना को अस्वीकार नही किया जा सकता।
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'अनागत चौबीसी' : दो दुर्लभ कलाकृतियां
0 श्री कुन्दन लाल जैन, दिल्ली
जैन शास्त्रों में तीन चौबीसी प्रचलित हैं। वर्तमान, जिससे मैं अपनी अल्पज्ञता में कुछ संशोधन कर सक । भूत (प्रतीत) और भविष्यत (अनागत)। वर्तमान
अभी इस दशहरा अवकाश पर लगभग दो हजार चौबीसी में ऋषभदेव, अजितनाथ आदि से लेकर भ०
कि. मी. के प्रवास पर सपरिवार निकला था। दिल्ली महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थकर हैं जिनको पहिचान उनके
लौटते हुए दो दिन को करेग भी चला गया था क्योकि लांच्छन (चिन्ह) बैल, हाथी, घोडा प्रादि से लेकर सिंह
वहा रिश्तेदारी है। यहाँ श्री मक्खनलाल जी वया कपडे पर्यन्त चौबीस चिन्हो से होती है। यद्यपि यह चिन्ह
के व्यापारी है तथा मि. बद्रीप्रसादजी दोनो ही बड़े धार्मिक परम्परा छठी शताब्दी के बाद प्राप्त होने वाली प्रतिमानों
एव श्रद्धालु श्रेष्ठ श्रावक है उन्होंने मुझे यहां के प्राचीन में ही दृष्टि गोचर होती है इससे पूर्व की प्रतिमाएँ बिना
दि० जैन बडे मंदिर में महज भाव से मात्र धार्मिक चर्चा लांछनो (चिन्हो) की ही मिली हैं।
हेतु प्रामत्रित किया । मदिर शिखर बध एव प्राचीन है। भूतकाल (प्रतीत) के २४ तीर्थकरो के नाम पहले भी कई बार दर्शन कर पाया ह । अब की बार जब इस शास्त्रानुसार १ निर्वाण २. सागर ३ महासाधु ४. विमल मंदिर में गया तो अचानक दो प्राचीन कलाकृतियो पर दृष्टि प्रभु ५. शुद्धाय ६ श्रीधर ७ मुदत्त ८. विमल प्रभु: उद्धर गड गई और ऐसा अनभव हमा किये कोई विशिष्ट प्रतिमा १० अगिर ११. सन्मति १२. सिंधु १३ कुसमाजलि हैं। मैंने श्री मवखनलालजी से इनको देखने तथा इनमें १४. शिवगण १५ उत्साह १६. ज्ञानेश्वर १७. परमेश्वर उत्कीर्ण लेख को पढ़ने की उत्कण्ठा प्रकट की। च कि भाई
कीर्ण लेख को पढने की सत्कार कर १८. विमलेश्वर १६. यशोधर २०. कृष्णमति २१. ज्ञान
मक्खनलालजी ने भोजन का प्रायोजन कर रखा था। प्रतः मति २२. शुद्धमति २३. श्रीभद्र २४. श्मतः प्रादि है।
इस शुभ कार्य को भोजनोपरान्त ही सम्पन्न करने की भविष्यत (अनागत) काल के २४ तीर्थकगे के नाम स्वीकृति दी। मै तो गोधार्थी ठहग मुझे भाई मवखन लाल १. महापद्म २ मुरदेव ३. सुपार्श्व ४. स्वयप्रभु ५. सर्वात्म- जी का प्राग्रह स्वीकारना पडा । इस बीच वध जमकर भूत ६. देवपुत्र ७. कुलपुत्र ८. उद६. प्रोप्टिल १०. धार्मिक एवं प्राधुनिक समाज की विकृतियों के सम्बन्ध में जयकीति ११. मुनिसुव्रत १२. पर १३. निरपाप १४. खुलकर चर्चा हुई। निराकाय १५. विपुल १६. निर्मल १७. चित्रगुप्त १८.
भोजनोपरान्त श्री मवखनलालजी ने पुन: स्नान कर समाधिगुप्त १६. स्वयंभू २०. मनिवृत्तक २१. जय २२.
शुद्ध वस्त्र धारण कर मूतियो को बाहर प्रकाश में निकाला विमल २३. देवपाल और २४. अनन्तवीर्य प्रादि है।
और सिं. बद्रीप्रसादजी व श्री मक्खनलालजी के सहयोग से वर्तमान चौबीसी की अनेको मूर्तियां व प्रतिमाएँ उन मतियो का सूक्ष्म निरीक्षण किया और उनसे अंकित पूरातत्त्व एव इतिहास की दृष्टि से उपलब्ध है । चन्देरी लेख नोट किए। यहाँ जो उल्लेखनीय ऐतिहासिक एव की चौबीसी तो प्रसिद्ध हो है पर है वह वर्तमान २४ पूरातत्व की दृष्टि से महत्वपूर्ण दो अनागत चौबीसी, एक तीर्थकरो की । पर प्रतीत और प्रनागत चौबीसी की कोई पंचमेरु तथा एक ताम्रयत्र हैं । ग्वालियर के पुरातत्त्व के प्रतिमा या मूर्ति किसी अनुसंधित्सु विज्ञ पाठक या लेखक विभाग ने उन्हे रजिस्टर्ड कर लिया है नियमानुसार को कहीं प्राप्त हुई हो तो कृपया लेख के संदर्भ में प्रागे रजिस्ट्रेशन पत्र भी दिया है तथा उपयुक्त प्रतिमानों के प्रकाश डालें और मुझे भी सूचित करने की कृपा करें चित्र भी दिए है। पर लगता है पुरातत्त्व विभाग के
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'मनागत चौबीसी' :पो संभ कलाकृतियां अधिकारियों ने या तो लेख पढें नही या वे 'अनागत पं० श्रकलाश पन्द जी शास्त्री वाराणसी, डॉ. श्री. चौबीसी के महत्व को समझे नही।
ज्योतिप्रसादजी जेन लखनऊ, पं० श्री प्रगरचन्द नाहटा, जैसे ही मैंने स. १६७४ वाली चौबीसी में पूर्ण विवरण दुर्गावती पुरातत्व संग्रहालय जबलपुर के अध्यक्ष श्री बाल के साथ, जो प्रागे उल्लिखित है, 'अनागत चौबीसी' शब्द चन्द जी एम. ए., लखनऊ पुरातत्व संग्रहालय के विद्वान् पढा तो मेरा मन हर्ष से प्रफल्लित हो उठा और मस्तिष्क श्री शैलेन्द्र रस्तोगी, जैन परातत्व के पडित श्री गोपीलाल में खलबली मच गई कि यह तो एक सर्वथा दुर्लभ प्रौर जी अमर, पं. श्री हीरालाल जी साढ़मल, ज्ञानपीठ के डॉ., अप्रकाशित एव अज्ञात कलाकृति है । यद्यपि अब तक मैंने गुलाब चन्द जी, पं. श्री हीरालाल जी कौशल प्रभृति दस पाच या सौ पचास नहीं पितु हजार से अधिक मूति विद्वानों से 'अनागत चौबीसी' के बारे में चर्चा की पर सभी
ने शास्त्रानुसार 'अनागत चौबीसी' का अस्तित्व तो स्वीकार किया पर प्रमाणस्वरूप कोई प्रतिमा या कही किसी शास्त्र में ऐसी प्रतिमा के निर्माण के उल्लेख के बारे में कोई ऐतिहासिक या परातात्विक प्रमाण के विषय में कोई प्राधिकारिक उत्तर नही लिखा । इन सभी विद्वानो का मैं हृदय से प्राभारी है।
यद्यपि श्रद्धालु रूढ़िवादी पाठक इस विषय में शंका कुशंका या तर्क-वितर्क करेंगे कि इस पचमकाल में अनागत बीबीसी का निर्माण कैसे हो सकता है यह तो चौथे काल (आने वाले) की बात होनी चाहिए। पर यह एक ऐतिहासिक सत्य है तथा पुरातत्व की दृष्टि से सिद्ध हो गया है कि लगभग चार सौ वर्ष पूर्व सं० १२८३ में निर्मित ऐसी ही चौबीसी उपलब्ध हैं । 'अनागत चौबीसी' के निर्माण के पीछे प्राचार्यों की तथा विद्वानों की क्या परिकल्पना रही होगी और किस भक्ति-भाव से उन्होने ऐसा किया कुछ नही कहा जा सकता जबकि प्रायः वर्तमान चौबीसी के ही निर्माण की प्रथा प्रचलित रही है। प्रनसंधित्स् विद्वान इस पर विचार विमर्श करें और ऐमी मूर्ति निर्माण के कारण खोजें । पर यह निर्विवाद सत्य है कि यह एक नई खोज है जोपाज तक अन्यत्र उपलब्ध नही हुई है और न कही चर्चा भी है, प्रतः इस पर विस्तार से चर्चा होनी चाहिए।
अभी १५ दिसम्बर, ८० को ज्ञानपीठ पुरस्कार के अवसर (संवत् १६७४)
पर पं. श्री कैलाश चन्द जो से चर्चा हुई थी तो उन्होंने इस लेख, यंत्रलेख, चौबीसी वगैरह देख चुका हूं और उनके
प्रतिमा को अद्भुत बताया साथ ही उन्होने बताया कि लेख संग्रहीत एवं संकलित कर प्रकाशित कराए है पर अब
विदेह क्षेत्र स्थित विद्यमान बीस तीर्थकरों की प्रतिमानों में तक 'अनागत चौबीसी' के नाम से कोई भी प्रतिमा या
से प्रथम तीर्थकर सीमंधर स्वामी की प्रतिमा के विषय में चौबीसी दृष्टि गोचर नही हुई, प्रत: अपनी अल्पज्ञता की
लोग शंकास्पद थे, जब स्व पू कानजी स्वामी ने सोनगढ़ शांति हेतु मैंने अनेकों विद्वानों में पुरातत्वविदों से, तथा जैन इतिहासकारों से पत्रव्यवहार किया जिनमें से कछ समोशरण में सोमंधर स्वामी की प्रतिमा प्रतिष्ठित कराई निम्न प्रकार है:
लोगों ने इसका विरोध किया था पर अब खोज शोध के
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१२, वर्ष ३३, कि० ४,
अनेकान्त
A
बाद बवाना में सीमधर स्वामी की प्रतिमा प्राप्त हो गई समय के बड़े प्रतिष्ठित विद्वान और प्राचार्य थे इन्होंने है। ऐसी जनश्रुति है कि सीमधर स्वामी के समोशरण मे अनेकों मूर्तियों की प्रतिष्ठा कराई थी तथा आश्विन कृष्णा कुम्बकुन्दाचार्य जी को कोई देव ले गया था जो वहा बहुत ५ स. १६७१ मे हरिया पुगण की रचना की थी विशेष ही छोटे से जीव प्रतीत हुए थे।
जानकारी के लिए भट्टारक संप्रदाय के पृ. २०३-२०४ पर
देखें। अब उन 'अनागत चौबीसी' का विवरण करता है। पहली चौबीसी धातु पीतल की निर्मित है और अत्यधिक पंच मेरु प्रतिमा -तीसरी कलाकृति पीतल की चौकोर कमापूर्ण ढंग से ढाली गई है चित्र संलग्न है । यह लगभग मेरु प्रतिमा है जो लगभग एक फूट ऊँचा गोल गुम्मदकार एक फट लम्बी, ऊंची होगी और लगभग ८३ इन्च चौड़ी है प्रत्येक और पाच-पाच प्रतिमाएँ विगज है इस तरह कुल होगी । प्रायः चौबीस में पद्मासन प्रतिमाएं होती है पर इसमें कुछ खड्गामन भी है । मूलनायक प्रतिमा कुछ बड़ी है बाकी २३ प्रतिमाएँ छोटी-छोटी है यहाँ तक को नाक नक्श भी स्पष्ट दिखाई नहीं देते पर शिल्पी ने जिस पालात्मक ढंग से इसे सजाया है । वह सर्वथा दर्शनीय है। • इसमें जो पृष्ठ भाग में उत्कीर्ण है वह निम्न प्रकार है.---
'संवत् १२८३ वर्षे मूलसंधे वैसाख सुदी ६ साधुलाल गज • सिंह सल्लेखना नमति' यद्यपि इस प्रतिमा मे 'अनागत । चौबीसो' का उल्लेख नही है पर इसकी आकृति तथा कला
एवं रचना पद्धति दूसरी चौबीसी जो स. १६७४ की है और जिसमें 'मनागत चौबीसी' उत्कीर्ण है उससे बिल्कूल मिलती जुलती है और ऐसी प्रतीत होती है कि उसी साच की ढली हो यद्यपि प्राकार में कुछ बड़ी है।
दूसरा चौबीसी का लेख-यह पहली चौबीसी की भांति पीतल की बनी है इसकी मूल नायक प्रतिमा
मिनाथ की है जिसमे शख का चिन्ह अंकित है इसके साथ । २३ प्रतिमाएँ पद्मासन और खड्गासन की है। इसमें जो लेख पृष्ठ भाग मे अकित है वह इस प्रकार है :----
संवत १६७४ जेठ सुदी नौमी सोमे मूलसंघे सरस्वती गन्छे भट्टारक श्रीयश कीति भट्टारक तत्पष्टुं भ. ललितकीति सन्पट्टे म. धर्मकीर्ति उपदेशत जैसवाल जातौ कोटिया गं,बी. गोपालदास भार्या कपूर के पुत्र दो ज्येष्ठ संघपति।
(संवत् १२८३) । श्री चितामणि भार्या बसाइकदे पूत्र त्रयाः धनराज भार्या
बीस प्रतिमाएँ इस मेरु मंदिर में विराजमान हैं। इसमें
जो लेख उत्कीर्ण है वह निम्न प्रकार हैं----'संवत् : मपराबती, सागरचन्द भार्या किसुनावती भूपति भायो १७२५ वर्षे पौष सूदो १५ गरुवासरे श्रीमूलसंघ वलात्कार :दशम, दितीय संघपति किसुनदास भार्या परभावती पुत्र गणे सरस्वती गच्छे कुन्दकुन्दान्वये सकलकीति उपदेशात् त्रयाः सराय भार्या पन्हपदे धर्मदास महिमा एते नमति । स वसते कुजमणी नित्य प्रणमति सकुटम्बः यह भट्रारक
नागत चौबीसी' उपर्युक्त भट्टारक बलात्कार गण की सकलकोति भी उपर्युक्त वलात्कार गण की गेरहट शाखा जोर शास्त्र के अन्तर्गत पाते हैं। भ.धर्मकीति अपने के ही भट्टारक प्रतीत होते हैं।
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'मनागत चौबीसो' : दो दुर्लभ कलाकृतियां ताम्र यन्त्र-यह एक चौकोर ताम्बे का यत्र है जो तथा किस कारण से यह अद्भुत परम्पग प्रचलित हुई। किमी प्रतिष्ठा या प्रप्टान्हिका व्रत प्रादि के उद्यापन के यद्यपि खोज शोध करने पर ऐसी कलाकृतियां पोर भी समय तैयार कराया गया होगा । इसमे उल्लिखित लेख से उपलब्ध हो सकेगी पर अावश्यकता है त्याम एवं साधना की। ज्ञात होता है कि सिंघई अमरसिह ने कर्ममल दहन हेतु यद्यपि कलाकृति में भविष्यत काल के २४ तीर्थंकरों इसकी प्रतिष्ठा कराई थी तभी यह यंत्र प्रतिष्ठित के नाम का उल्लेख नहीं है क्योकि प्रतिमाएं इतनी छोटी हना था। पूर्ण लेख निम्न प्रकार है -- प्रारम्भ मगला हैं कि जिन पर नामोत्कीर्ण नही हो सकता था पौर चिह चरणात्मक श्लोक से होता है जो अपूर्ण और अस्पष्ट है या लाछन का प्रश्न ही नही उठता है क्योंकि शास्त्रों में तथा ठीक से पढ़ा नहीं गया, जो कुछ पढ़ा गया वह निम्न भूत भविष्यत् (मतीत अनागत) काल के २४ तीर्थकरों के प्रकार है : श्रद्धालु विज्ञ जन इसमे सशोधन कर लें- चिन्ह या लाहनों का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है प्रतः
तत्वं निर्विकल्प सर्ववृत्ति तात्पर्य परिग्रहं प्रतिष्ठाचार्य भट्टारक महोदय ने श्रावक धर्मदास को यही
सम्मान निधः विवहार न सधर्म ..... मलाह दी होगी कि पूर्ण चौबीसी का निर्माण काबर पन्त संवत् १५२६ वर्षे वैसाप सुदी सप्तमी दिन बुधवासरे
मे इसका मूल शीर्षक 'अनागत चौब.सी' व दिया जाये।
और प्राज मदियों बाद हमे ऐसी दुर्लभ कृति उपलब्ध हो मुलसंघे बलात्कार गणे सरस्वती गच्छे पनदोदेवा स्तपट्टे
सकी। दोनों चौबीसियों के चित्र प्रस्तुत हैं। इसके लिए शुभचन्द्रदेवास्तत्प? जिनचन्द्रदेवा मिधकीति देवा ।'
भाई मवखन लाल जी विशेष धन्यवाद के पात्र है। तम्या - पोरवालवशे स. धनपति स उद्धरण च मद्गणि स चाद स. राव देवा सं विजयसिंह सं कर्मसिंह सं. मही
करैरा ग्वालियर राज्य की एक प्रसिद्ध तहसील थी पति स. रतन स. मनसूख स सामन्त या स मन्ना भार एक मजवृत किला था। जो पब ध्वंशावशेष मात्र
arth, स. धन्ना पुत्र मन् स. अमरमी पूत्र स होरिल द्वितीय पत्र रह गया है। इसके भीतर इतनी अधिक स. वीरभान श्री स वदेव भार्या जसोवह। तत्पुत्र श्री
एक बडा गहरा तालाब है जिसमें जनश्रति के अनुसार विजयसिंह भार्या हमा स भीक भार्या दुणीघा स अमर प्रतिवर्ष किसी न किसी व्यक्ति की मृत्यु होती ही है।
जिस काम. विजय मिट यहां के राज्य ने झासी की रानी महारानी लक्ष्मीबाईको स मक्षिम स. अमरसिह कर्मदहन मल इति ।
अंग्रेजों के विरुद्ध लडाई लड़ने मे बड़ी मदद की थी। . उपर्यक्त प्राचार्य परम्पग वलात्कार गण दिल्ली-जयपुर स्व० डा० वृन्दावन लाल जी वर्मा ने अपने उपन्यासों में शास्त्र की अटेर शाखा से सबधित हैं । भ जिन चन्द्र के करैरा का बडा महत्त्वपूर्ण वर्णन किया है। करंग जाने के दो शिष्य थे रत्नकीति और सिंहकीति जिनमें से इम लिए झासी से बसें चलती है । इतिहास एव पुरातत्व के प्रशस्ति का नामोल्लेख है वहीं इस प्रतिष्ठा के प्रमुख प्ररणा विशषज्ञ एक बार इस गाव क मादर में स्थित 'न बहुमूल्य स्रोत रहे होगे, इसीलिए भ. रत्नकीति का उल्लेख छुट कृतियो को देखें और उनका गभीर अध्ययन कर इस पर गया है क्योकि उन्होंने नागौर शास्त्र की पृथक स्थापना विशेष चर्चा करें। और 'अनागत चौबीसी' र विशेष कर ली थी। विशेष विवरण के लिए भट्रारक सम्प्रदाय के प्रकाश डालें । हो सकता है किसी ने 'प्रतीत चौबीसी' भी पृष्ठ ६७ से १०४ तक विभिन्न उद्धरणो मे उपयुक्त बनवाई हो जो भविष्य में शोध खोज करने पर यत्र तत्र भट्रारकों का उल्लेख है। विस्तारमय के कारण उन सबका कही प्राप्त हो सके । जैसी की सीमंधर स्वामी की प्रतिमा परिचय यहां अभीष्ट नहीं है।
बयाना में मिल गई है। इस प्रकार 'अनागत चौबीसी' की दो कलाकृतियों की अन्त में इतना ही उल्लेख करना चाहता है कि शोध सर्वथा नवीन है और विद्वानों को विशेषतया सिद्धांत शिवपुरी जिला जैन पुरातत्व एवं कला की दष्टि से बहत तथा तत्वशास्त्र के वक्तामों को चिन्तन के लिए एक ही महत्वपूर्ण है । इस जिले में कोलारस, मगरीनी, नरवर, प्रमाण उपलब्ध हुअा है कि तेरहवी सदी में 'अनागत करेरा, शिवपुरी स्वयं, प्रमाला, पामोल, सखाया प्रादि चौबीसी' के निर्माण की कल्पना कैसे उद्धत हई और क्यों
(शेष पू० ६६ पर)
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कुन्दकुन्द की कृतियों का संरचनात्मक अध्ययन
*
जैन धर्म के इतिहास मे बा० कुन्दकुन्द का महत्वपूर्ण प्रा० स्थान है। दिगम्बरों के प्राचीन जैन सिद्धान्त के प्रस्तोता के रूप मे उनकी अच्छी स्वाति है। वेताम्बर सप्रदाय मे भी इनकी मान्यता है । ये दक्षिण भारत के संभवत: अन्य क्षेत्र में लगभग तीसरी-चौथी सदी में हुए थे। इनके ८४ ग्रंथ बताये जाते हैं, लेकिन वर्तमान में इसके केवल १५ ग्रंथ उपलब्ध है जिनगे लगभग २००० गाथाये है इन ग्रन्थो की वियवस्तु विविध एव व्यापक है । इनमें से लगभग पाठ ग्रन्थ 'अष्टपाहुड के रूप में प्रकाशित है । इनमें से बी को हु' कहते है। इनका मानोचनात्मक अध्ययन किंग (कुन्दकुन्द एट ए उनेष्ट ZDMG, १०७, १६५७) उनके (कैस्टर जेकोबी, १९१०) तथा लायमान (उपरशिष्ट) ने किया है।
इन पन्द्रह ग्रन्थों में हमें निश्चय नय ( शुद्ध और ( शुद्ध और परमार्थ नय) तथा व्यवहार नय शब्द मिलते है। समयसार, धनुप्रेक्षा और नियमसार में इन पदो का उपयोग पर्याप्त मात्रा मे है। ये नय-युगल सामान्य सात नयो से भिन्न हैं। यह नय युगल कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में प्रत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस दृष्टि से इनका अध्ययन पूर्व मे नही किया गया है। सर्वप्रथम मैने हो अपने जर्मनी के प्रयास में इस रूप में इनका अध्ययन प्रकाशित किया था । (ZDMG, Suppt. ॥। १९७२ ) अन्य विद्वानों की सुविधा के लिए मैं इस अध्ययन को पुनः प्रकाशित कर रहा हू लेकिन इसमें घनेक नई सूचनायें कुछ सक्षेप मे तथा कुछ विस्तार से दी गई है।
डा० बी० भट्ट पटियाला (पंजाब)
०
अध्ययन का संक्षेपण भी करूंगा।
।
अष्टपाहुड में विभिन्न गायों में एक-दूसरे की अनुवृत्ति है। इसकी लगभग ५०० गाथाओंों में केवल सान श्लोक हैं और कुछ गीतिया है। इनमें उत्तमग्ग निया, ४, तिल प्रोमे ४ पावण (प्रत्रज्या), ३ के समान अनेक भाषायी अनियमितायें, रयणन्त ( (रत्नत्रय ) ४, के समान संक्षेपण एवं अन्यपूति के लिये दु (तु) य और म (प्रत्यय) प्रादि के कालगरिमा के प्रतिकूल उपयोग सहय उपपन्ना १, कम्मलय कारण-निमित्त १ बोरा पौर चतदेहा यादि के समान पुनरुक्तिया, सच्चिता और धज्जीया आत्तावन ( आतावन ), ५, श्रायत्त न ( श्रायतन ) ८, ग्गनं २, निम्गोय, ५, ग्गमनं १, ३ में जिनमग के बदले दंसणमा के समान विचित्र द्वि-गतिया, भये ( भ्रमयेले ) य (य) सोपान, कान्तार, महादेव चादि के समान प्राकृत में सस्कृतीकरण के प्रयोग पाये जाते है ।
इन पाहुडों की शैली भी अत्यन्त कमजोर है । इनके के अनुसार, इसकी प्राकृत अपभ्रंश से प्रभावित है। उदाहणार्थ इनमें श्रमण के स्थान पर सवन (३, ५, ६,८), तथा तम-जम ( ८ ) तव जव (८), जहा तहा ( ८ ) आदि शब्द पाये जाते है । उपाध्ये का विचार है कि ये पाहू जनसाधारण में पर्याप्त लोक प्रिय थे । सभवतः इन अपअंशभाषी लोगों के कारण ही इनमें मिश्रण हो गया है। लेकिन इस सुझाव के समय उन्हें यह ध्यान नही रहा कि पों में इस प्रकार के परिवर्तन सभव नहीं होते । इन तथा अन्य अनेक कारणों से (जिनका विवरण देना आवश्यक नहीं है, अन्यथा हम शूबिंग के तर्कों को नही समझ पायेंगे) यह कहा जा सकता है कि ऐसे दुर्बल पाहुड़ कुन्दकुन्द के समान विद्वान् साधु के द्वारा रचित नही हो सकते ।
शूविंग ने बन्दभेद भादि के आधार पर भाठ पाहुड़ों के मिश्रित रूप को निदर्शित किया था । कुदकुन्द के पन्द्रह ग्रन्थों में वर्णित नय-सम्बन्मी विषयवस्तु की परीक्षा तथा मूल्यांकन के प्राधार पर मैं भी विंग के मत का समर्थन करूंगा । ऐसा करने से पहले में शूबिंग के पाहुड. *कै० च० शास्त्री प्रभि समय में पठित मूल अंग्रेजी शोधपत्र को मन्दलाल जैन द्वारा धनदित कर प्रस्तुत किया गया है ।
कुन्दकुन्द के द्वारा रचित दो हजार गाथाओं के विश्लेषण से पता चलता है कि इनमें निश्चय व्यवहार
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कुन्दकुन्द की कृतियों का संरचनात्मक अध्ययन
नय-युगल को दो रूपों में वर्णित किया गया है-रहस्यवादी नय व्यवहार नय को अस्वीकार करता है। समयसार की और यथार्थवादी । ये दोनों रूप एक-दूसरे से भिन्न है और गाथा ११ और २७२ के अनुसार व्यवहार नय की किसी भी परस्पर विरोधी दृष्टिकोण प्रस्तुत करते है। इस तथ्य पर मान्यता को निश्चय नय अस्वीकार कर देता है । इस मत अभी तक किसी भी विद्वान गवेषक ने प्रकाश नही डाला की तुलना समयसार, गाथा, ५६, अनुप्रेक्षा, ६०, ६५ तथा
नागार्जुन की 'मूलमाध्यमिक कारिका' (१७, २४) से की रहस्यवादी रूप का उद्देश्य स्वानभूति है। यह जीव जा सकती है : और प्रात्मा को मानता है, परमार्थ मानता है।
ध्ययहारा विरुध्यन्ते सर्व एष, न संशय..........
तथा तत्थेको विच्छिदो जीवो (समयसार, ४८)
सर्व संध्यवहारांश्च लौकिकान् प्रतिवाषते ॥ २४, २६ ॥ अहमिक्को (समयसार, १६६)
रहस्यवादी दष्टिकोण मे व्यवहार नय संसार से इमके विपर्यास मे, संसार किमी शुद्ध क्रिस्टल में वस्तु
मबंधित है। वह इसे वास्तविक मानता है। वह जीव और के प्रतिबिम्ब के समान आभासी तत्व है (समयसार, २७८
अजीव के सम्पर्क एव उनके सांसारिक अनुभवो को भी ७६)। रहस्यवादी विचारधारा केवल प्रात्मा की प्रकृति
वास्तविक मानता है (समयसार, १०७)। साथ ही, समयपर विचार करती है और उसकी अजीब (संसार) मे कोई
सार की गाथा ८ मे कहा गया है कि जिस प्रकार प्रनार्य विशेष रुचि नहीं है । जीव और अजीव का सम्पर्क केवल
को उसकी भाषा जाने बिना नही समझा जा सकता, उसी कल्पना (उपचार, समयसार, १०५) है । समयमार (२६६)
प्रकार परमार्थ वास्तविक तत्त्व को व्यवहार के बिना नही में बताया गया है कि यह सम्पर्क वास्तविक नही है, लेकिन
समझा जा सकता इस गाथा की नागार्जुन के शिष्य यह मंमार को वास्तविकता के मायाजाल को प्रकट करता
मार्य देव के चतुरशतक की गाथा ८.१६ से तुलना की जा है। यहाँ तक की गाथा ७ तथा १५२.५३ के प्रमुमार व्रत. उवामादि चारित्र और रत्नत्रय भी मासारिक वास्त.
सकती है (भाषान्तर कार : विधुशेखर भट्टाचार्य, कलकत्ता, विकता के क्षेत्र में समाहित होते है । यद्यपि शास्त्रो मे
१९३१):
नाम्यया भाषया शक्यो प्राहयितुं यथा । इनका विधान किया गया है फिर भी ये अज्ञानी के मिथ्या
न लौकिका ऋते लोकः शक्यो प्राहयितुं तथा ॥ गण है। समयमार की गाथा ३६० के अनुसार शास्त्र भी
चतुरशतक की यह गाथा अप्रामाणिक प्रतीत होती है। परम तत्व के विषय में अज्ञान है । इस गाथा की तुलना
व्यवहाग्नय निश्चय नय की इस प्रकार सहायता करता गाथा २०१ तथा प्रवचनमार की गाथा ३, ३६ की जा
है जिससे अन्त में वह नष्ट हो जावे । यह उत्तरवर्ती वेदात सकती है। इस प्रकार, रहस्यवादी के अनुसार ससार तब
दर्शन के कन्टक न्याय के समान व्यवहार का व्याहार तक वास्तविक है जब तक प्रात्मा इसकी प्रकृति के विषय
करता है । यह मत रत्नावली (नागार्जुन) के विशेषणानि में अज्ञान में हैं। इसे वह ज्ञान पीर स्वानुभूति से ही
विसंहन्यात तथा 'मूलमाध्यमिक कारिका' के २४.८ तथा जानता है।
१० मे भी तुलनीय है : १. उपरोक्त विवरण मे पाहड़ो को निम्न प्रकार
दे सत्ये समुपाश्रित्य, बुद्धानां धर्मदेशना । क्रमाकित किया गया है :
लोकसंवृति-सत्यं च, सत्यं च परमार्थतः॥ १. दर्शनपाहुड ४ बोधपाहुड ७. लिंगपाहु
व्यवहार प्रनाश्रित्य, परमार्थो न विद्यते । २ चरित्रपाहुड ५. भावपाहुड़ ८. शीलपाहुड़
परमार्थमनागम्य, निर्वाणं नाधिगम्यते ॥ ३. मूत्रपाहुह ६. मोक्षपाहुड़
रहस्यवादी धाग के निश्चय और व्यवहार नय रहस्यवादी दष्टिकोण में निश्चय नय केवल प्रात्मा माध्यमिक दर्शन के परमार्थ और व्यवहार (सवति या से ही सबंधित है । यह अनन्यक, शुद्ध, नियत, मुक्त, अवर लोक संवृति) के समानान्तर हैं । यही नहीं, इनकी तुलना पौर अस्पष्ट होता है। (समयसार, १४)। यह निश्चय शंकर वेदान्त दर्शन से भी की जा सकती है। लेकिन
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६६, बर्ष ३३, कि० ४,
मनोरंजक तथ्य यह है कि कुन्दकुन्द के अनेक ग्रन्थों में से करनी पड़ती है। इससे संवर और निर्जरा (समयसार केवन समयमार में ही यह रहस्यवादी निरुपण विस्तार मे १६६-६७, १९.) होते हैं । इस यथार्थवादी दृष्टिकोण के किया गया है।
विवरण में ही हमें जैन-धर्म की पारिभाषिक शब्दावलीयथार्थवादी दृष्टिकोण दार्शनिक सिद्धान्तो के निदर्शन उपयोग, परभाव, स्वभाव आदि मिलती है । यह कहना के लिये है। इसमें रत्नत्रय और उससे सबधित दार्शनिक तर्कसंगत होगा कि इस दृष्टिकोण का उद्देश्य प्रात्मानभूति धारणामों पर बल दिया गया है। इस दष्टिकोण को जनों नही, प्रात्म-सुधार है। के सभी संप्रदाय मानते है । इस मत में जीव और अजीव- इम विचारधारा के निश्चय नय में जीव स्वाभाविक दोनों ही वास्तविक है। इनमें परम्पर संपर्क होता है: परिवर्तनो का कर्ता और भोक्ता है (दर्शन, पाहह, ३०. इनकी प्रकृति में परिणमन होता है जैसा कि प्रवचनसार शीलपाड़, २७, समयसार, २३)। जीव और अजीव की गाथा १, ४६ में तथा समयसार की गाथा १२२ में दोनों ही स्वक-भाव मे शुद्ध और प्रसंदूषित रहते है। जीव बताया गया है । इसके अनुसार जीव का कतृत्व-भोक्तत्व शद होता है, स्वभाव में परिणत होता है और अनेक तथा भौतिक जगत सभा वास्तविक है। (रत्न वय इत्यादि परिवर्तनों का कर्ता होता है। (समयसार, ८२-३।। के विषय में नियमसार, प्रष्ट पाहूड, समयसार, प्रवचनसार यही तथ्य प्रवचनमार (११.६२) तथा पंचास्तिकाय प्रादि देखिये)।
(६७) में भी कहा गया है। यथाथवादी विचारधारा प्रात्मा का अनेकता में प्रात्मा का शुद्ध स्वभाव रत्नत्रय है। उपयोग इससे विश्वास करती है। इसके अनुसार, प्रत्येक प्रात्मा का समीपत: संबंधित है अथवा इसे रत्नत्रय हेतु प्रयुक्त किया विस्तार शरीर के परिमाण तक मीमित होता है (पचास्ति- जाता है (प्रवचनसार, ११६३, नियममार, १०, समयकाय २७.३४ तथा भावपाहड, १४८)। जीव-प्रजाव के सार १६.६४.६५)। समयसार (३५६) के अनसार, संपर्क में आने से कर्म और कषायों के प्रास्रव के कारण
प्रात्म निश्चय नय सेदृष्टा भी होता है । इसी प्रकार षित हो जाता है (समयसार, ४५, १६४.६५, १०६ पदगल भी प्रसदृषित अवस्था में स्वभाव स्थित होता है। प्रादि) । इससे जीव स्वय अपने को सासारिक क्रियायो का यह भी स्वय के परिवर्तनों का कर्ता है (समयसार, ७६, कर्ता और भोक्ता समझने लगता है । इस प्रकार जीव सुख ११२-१३ और पंचास्तिकाय ६८, ७) । और दव के समार में बध जाता है। जीव अपनी प्रकृति यथार्थवाद में व्यवहार नय का संबन्ध पर भान या के विषय में अज्ञानी बना रहता है (ममयमार, ६६)। द्वितीयक दशानों में रहता है। जीव और अजीव जब स्वय जीवन के सुख-दुख से मुक्ति के लिये तपस्या और साधना के या एक-दूसरे के सम्पर्क में रहते है, तब परभाव
(पृ० ८० का शेषाश) रूपोपन के कारण वह परिवर्तन परिलक्षित होता है और नाश नही होता। क्योंकि प्रत्येक द्रव्य अपने स्वा में बह भी पदगल-द्रव्य के स्वभाव के कारण उनकी पर्याय स्थित रहते हुए अपनी पर्यायो मे परिणमन करता है। बदलती रहती है। काल-दम्य उस परिणमन एवं परिवर्तन दम्य के उस यथार्थ स्वरूप को समझना ही सम्यक ज्ञान है मे सहायक होता है। परन्तु पुद्गल-द्रव्य का कभी भी पौर वही प्रात्म-विकास का मही मार्ग है।
000
(१० ६३ का शेषांश) अनेकों स्थान हैं जहां पर शोध खोज एव खुदाई की चाहिए । जैन पुरातत्वविदो को शिवपुरी जिला शोष खोज प्रावश्यकता है। मगरौनी में तो मुझे अपभ्रंश के महाकवि के लिए निश्चय ही वरदान स्वरूप सिद्ध होगा। रद्दध की कुछ रचनामों के उपलरध होने की भी प्राशा है।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु अनामयाः । जब मैं नरवर से मगरौनी जाना चाहता था तो लोगो ने सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् भवतु दुःखमाण ॥ बताया था कि वहां कुछ हस्तलिखित ग्रंथ है पर वहां के
श्रुत कुटीर चौधरी किसी को दिखाते नही हैं । समाज को इस दिशा
६८, कुन्ती मार्ग, विश्वास नगर मे सतर्क पोर सजग होकर इस शोध कार्य को कराना
दिल्ली-११००३२ 000
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कन्दकुन्द की कृतियों का संरचनात्मक अध्ययन
२७
वह बिना किसी यही नहीं, इस समभाव का ही दाने समयसाबाद में ब्राह्मण रहार निरूपित
(विभाव) में होते हैं । इस विचारधारा में पुद्गल का यह दर्शनों में रहस्यवादी विचारधारा का पाविर्भाव प्रारम्भ से स्वभाव ही है कि वह बिना किसी की सहायता के भी ही दक्षिण भारत में हुपा था। तृतीय शताब्दी के नागार्जुन दूसरे पदार्थों के संपर्क में पाये । यही नहीं, इस संपर्क में ने बौद्ध रहस्यवाद का प्रसार किया। यह संभवतः मान्ध्र संदूषण के बावजूद भी जीव और मजीव अपना स्वभाव का ही दार्शनिक था। इसे ही पान्ध्र केही कुन्दकुन्द नहीं छोड़ते। यथार्थवादी व्यवहार नय में रत्नत्रय में भी (३-५ सदी) ने समयसार के रहस्यवाद में विकसित यह तथ्य समाविष्ट रहता है कि जीव ज्ञाता है पोर दृष्टा किया। यही रहस्यवाद बाद में ब्राह्मण रहस्यवाद के रूप है और यह अन्य पदार्थों से किया करता है। यही स्थिति पाठवीं शताब्दी में शंकर ने अपनाया और निरूपित गर्यायों पर भी लागू होती है (समयसार, ३६१-६५)। किया । शंकर भी संभवतः मालाबार या मान्ध्र के समीप
निश्चय नय के अनुसार, पुद्गल स्वभावतः परमाणरूप वर्ती दक्षिण भारत क्षत्र में जन्मे थे। होता है और व्यवहार नय के अनुसार, इसकाविभाव स्कन्ध में यहां यह भी बता देना चाहता हूं कि कुछ रूप होता है। यह परभाव स्वभाव में विकृति या संदूषण दिगम्बराचार्यों ने उत्तरवर्ती काल में भी कुन्दकुन्द की इस का परिणाम है (नियमसार, २६ पौर पंचास्तिकाय, ८२)। रहस्यवादी विचारधारा को न्यूनाधिक परिवर्तित रूप में
उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि रहस्यवादी और निरूपित किया है। इसके विपर्यास में श्वेतांबर विद्वान् यथार्थवादी दृष्टिकोगों में मौलिक अन्तर है । जिन ग्रन्थों कुन्दकुन्द की इस विचारधारा को शास्त्रविरुद्ध मानते हैं। पर हम चर्चा कर रहे है, उनमें से केवल समयसार में ही नयोपदेश (८०-८२)के कर्ता यशोविजय समान उत्तरवर्ती रहस्यवादी धारा का विशद निरूपण है। इसे हम समय- श्वेताबराचार्यों ने इस विचारधारा की मालोचना भी की सार का रहस्यवाद कह सकते हैं । फिर भी, यह ध्यान में है। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि बाद में वे इस विचाररखना चाहिये कि समयसार की ४३६ गायानों में से धारा से प्रभावित भी हो गये थे। लेकिन यह एक तथ्य है ३०३ में यथार्थवादी विचाराधारा निरुपित हुई है। हमारी
कि श्वेताबरों में इस रहस्यवादी विचारधारा को विशेष संरचनात्मक विश्लेषण से हम यह कह सकते हैं कि समय
स्थान नहीं मिला है। इस दृष्टि से हम मोपपातिक की सार का वर्तमान रूप समांग नहीं है। यह संभव है कि
गाथा १६ (सुत्तंगम् ४, पृष्ठ ३६) और मावश्यक निर्यति समयसार की रहस्यवादी विचारधारा की १३६ गाथायें
(हरिभद्र-संस्करण, पृष्ठ ४४६) की गाथा ९५३ को एक व्यक्ति ने रची हों जो कुन्दकुन्द थे । एक-दूसरे की
समयसार की गाथा ८ तथा चतुरशतक की गाथा ८.१९ से विरोधी दो विचारधानों को समाहित करने वाले अन्य का
तुलना कर सकते हैं। समयसार की गाथा ३२७ तथा एक ही कर्ता नही माना जा सकता।
पावश्यक नियुक्ति के मत परस्पर तुलनीय हैं। ये प्रन्थ ऐसा प्रतीत होता है कि मूल समयसार निम्न प्रकार
श्वेताबराचार्यों के हैं। इसके विपर्यास में, यथार्थवादी से तीन अध्यायों में विभाजित हो :
विचारधारा दोनों ही समुदायों में एक समान रूप से प्रथम अध्याय गाथा १-१४४
अभिस्वीकृत की गई है। द्वितीय अध्याय गाथा १५१-२७२ ततीय अध्याय गाथा २७६-४१५
-जैन विद्या विभाग, पंजाबी यूनिवर्सिटी यहां यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि भारतीय
पटियाला (पंजाब)
संदर्भ समयसार सं. प. कैलाशचद्र शास्त्री, कन्दकन्द प्राकृत संग्रह में जीवराज ग्रन्थमाला, शोलापुर, १९९. २. अनुप्रेक्षा पूर्वोक्त ३. पाठ भक्तियां पूर्वोक्त ४. नियमसार एस. बी.जे.सीरीज , जे. एल: जौनीट्रस्ट, १९३१ ५. अष्टपाहु हिम्मतनगर प्रकाशन, संवत् २०२५ ६. रयणसार हिम्मतनगर, १९६७ ७. प्रवचनसार सं. ए. एन. उपाध्ये, रामचन्द्र जैन ग्रन्थमाला, १९६४ ८. पंचास्तिकाय सार, सं. ए. चक्रवर्ती नायनार, एस. वी. मे. जे, १९२०
एस. वी: जे.-सेकेण्ड बुक्स माफ दी नाज, पारा लखनऊ ZDMG-जीड रिक्रफ्ट डेट हयूशेन मोगेनलेन्डिशेन गैशामशन ४२ बीजबेडेन (४० जर्मनी)
DAD
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बाहुबलि-चरित्-विकास एवं तद्विषयक वाङ्मय
D डा० राजाराम जैन, पारा भगवान् बाहुबलि प्राच्य भारतीय संस्कृति के पनन्य सम्बद्ध थे, तो उन्हें धवल यश एवं प्रतिष्ठा मिली दक्षिणप्रतीक है। उनके चरित के माध्यम से संस्कृत, प्राकृत, भारत मे । उत्तर भारतीय उस महापुरु अपभ्रंश, कब, राजस्थानी एव हिन्दी के कवियों ने सम• अंकन, चाहे वह साहित्यिक हो पौर चाहे शिल्पकलात्मक, कालीन राजनैतिक, सामाजिक एव पारिवारिक विविध उसे प्रथमतः एवं अधिकांशत: दक्षिण भारतीयों ने ही पक्षों को मार्मिक-शैली मे मुखरित किया है। राजनैतिक विशेष स्पेण किया है। उनकी लेखनी एवं छनी से ही दृष्टि से पोदनपुर में उनकी प्रादर्श राज्य-व्यवस्था, सामन्ती उनका काव्यात्मक, कलात्मक, पाकर्षक एवं धवल रूप युग में भी प्रजातन्त्रीय विचारधारा तथा शत्रु राजामों के इतना भव्य बन सका कि उनको देखते, सुनते एवं पढ़ते समक्ष बल, वीर्य, पुरुषार्थ एवं पराक्रम का प्रदर्शन अपना ही भावुक हृदय पाठक भाव विभोर हो उठता है। पाठवीं विशेष महत्त्व रखता है। सामाजिक दृष्टि से ब्राह्मी एवं सदी के गंग नरेश राचमल्ल के परम विश्वस्त मन्त्रो महासुन्दरी नाम की अपनी बहिनों के साथ उनका ७२ कलामो मति चामुण्डराय प्रथम महापुरुष थे, जिन्होने अपनी का प्रहण वस्तुतः उनको स्वस्थ, बलिष्ठ, सुरुचि सम्पन्न तीर्थस्वरूपा माता की कल्पना को साकार बनाने हेतु सवेएवं समृद्ध समाज की परिकल्पना को प्रतीक है। इसी प्रथम ५७ फीट ऊँची बाहुबलि की भव्य मूर्ति का निर्माण प्रकार उनका पारिवारिक जीवन भी बड़ों के प्रति प्रादर- श्रमणबेलगोल (कर्नाटक) में करवाया। कला के क्षेत्र मे सम्मान की भावना के साथ-साथ स्वतन्त्र एवं स्वाभिमानी यह युक्ति सुप्रसिद्ध है कि- "मति जब बहुत विशाल होती जीवन जीने का एक पादशं उदाहरण प्रस्तुत करता है। है, तब उसमे सौन्दर्य प्राय: नहीं हो मा पाता है। यदि अध्यात्म-साधना की दृष्टि से भी उनका विषम-उपसर्ग- विशाल मति में सौन्दर्य मा भी गया तो उसमें देवीसहन तथा कठोर तपश्चरण करने का उदाहरण अन्यत्र चमत्कार का प्रभाव रह सकता है, किन्तु गोम्मटेश्वर खोजे नहीं मिलता। विश्व में इस प्रकार के उदात्त एवं बाहुबलि की मति मे तीनों तत्वों के मिश्रण से उसमे अपूर्व सर्वागीण जीवन बिरले ही मिलते है। जो होंगे भी, उनमे छटा उत्पन्न हो गई है।" (दे० श्रवणवेल्लोल शिलालेख बाहुबलि का स्थान निस्सन्देह ही सर्वोपरि है। यही कारण सं० २३४)। है कि एक पोर जहाँ युगों-युगों से साहित्यकार अपनी हमारा जहाँ तक अध्ययन है, बाहुबलि की (मर्थात् साहित्यिक कृतियों में उन्हे महानायक के रूप में चित्रित गोम्मटेश्वर की) यही सर्व प्रथम निर्मित एवं उत्तुंगकाय कर अपनी भावभीनी श्रद्धाञ्जलिया व्यक्त करते रहे, तो सन्दरतम प्राचीन मूर्ति है। इससे प्रेरित होकर धीरे-धीरे दूसरी मोर शिल्पकार भी अपने शिल्प-चातुर्य पूर्ण विशाल. पन्यत्र भी बाहुबलि की मूर्तियों का निर्माण होने लगा। मतियो का निर्माण कर उनके चरणों में निरन्तर अपनी दक्षिण भारत को इस परम्परा ने उत्तर-भारत को भी पूज्य बुद्धि व्यक्त करते रहे।
पर्याप्त प्रेरित प्रभावित किया है और अब यत्र-तत्र बाहुबलि पानिक भाषा मे कह सकते है कि भ. बाहलि की मर्तियों का निर्माण होने लगा है। प्रारम्भ में ये भारतीय भावात्मक एकता के प्रतीक रहे हैं। यदि वे मूर्तिया पाषाण से निर्मित होती थी किन्तु अब पातु की उत्तर भारत के अयोध्या में जन्मे पोर पोखमपूर, जो कि भी प्रतिमाएं बनने लगी हैं। वर्तमान में सम्भवतः पाक्स्तिान में कहीं पर स्थित है,से बाहुबलि-चरित के लेखन के प्रमाण ईस्वी की प्रथम
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बाहुबलि-परित-विकास सीवयक बाम सी से उपलम्ब होते हैं किन्तु उस समय वह सर्वथा अम्पकार
अन्य
काल विकसित था। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने मावपाहुड की ४४वीं जिनसेन (वि.) प्रादिपुराण (संस्कृत) वि. सं. १४६ पाथा में कठोर तपश्चर्या के प्रसग में उनका उल्लेख किया पम्प मादिपुराण (कर) वि.सं.१९८ है किन्तु बह विकसनशील अवश्य बना रहा । ७वी सदी पुष्पवत महापुराण (अपभ्रंश) वि. सं. १०२२ तक उसको कथा में पर्याप्त विकास हुमा । उसे पालकारिक जिनेवरसरि कथाकोषप्रकरण (संस्कृत) वि. सं. ११०८ रूप भी प्रदान किया गया, यद्यपि कथा "प्रकरण" के रूप
(प्राकृत) में बनी रही । १३वी सदी से वाहुबलि पर स्वतन्त्र काम्पों सोमप्रभसूरि कुमारपालप्रतिबोष (संस्कृत) वि.सं. १२५२' की रचनाएँ लिखी जाने लगी। प्राधुनिक शैली में भी
(प्राकृत) उनके ऊपर पर्याप्त लिखा जा रहा है किन्तु प्राश्चर्य यही शालिभद्रसूरि भरतेश्वर बहुबलिरास वि.सं. १२९८ है कि तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक शैली से बाहुबलि
(राजस्थानी) साहित्य पर स्तरीय शोधकार्य करने की पोर प्रभी किसी हेमपदाचार्य माभेय नेमि विसधामका ध्यान नहीं गया है और इसी कारण बाहुबलि-सम्बन्धी
काव्य (संस्कृत) १३वीं सदी हिकमी एक विशाल भारतीय-वाङ्मय एवं तत्सम्बन्धी पुरातत्त्व अमरबन्द्र पपानन्द महाकाव्य १४वीं सदी विक्रमी प्रभी उपेक्षित जैसा हो पड़ा है। साहित्य के शोषाथियों के बनेश्वर शत्रुञ्जय महामास्य १४वीं सदी रिमी लिए तविषयक सन्दर्भो तथा प्रकाशित एवं प्रप्रकाशित कुछ
(संस्कृत) अप्रकाषित प्रमुख प्रन्थों की एक सूची यहाँ प्रस्तुत की जा रही है :- राधू तिसट्टिमहापुराण प्रथकार. अन्य काल विशेषज्ञ
पुरिसचरिउ(अपभ्रंश) १५वीं सदी विक्रमी प्राचार्य भावपाहुड वि. स. की बाहुबलि का
पप्रकाशित कुन्दकुन्द (प्राकृत) प्रथम सदी नामोल्लेख मात्र रलाकर पी भरतेश वैभव (कन्न) १५वीं सदी विक्रमी तथा कठोर तपस्या कुमुदचन्द्र बाहुबलि
१५वीं सदी विक्रमी की प्रशंसा भाचार्य उमरिय ईस्वी की सक्षिप्तकथा- दोडय भुजवलि शतक १६ सदी विक्रमी विमलसूरि (प्राकृत) तीसरी मदी विस्तारवया
सकलकीति वषमदेव चरित १६वीं सदी विक्रमी दृष्टि एवं मुष्टि
कालदगोम्मटेश्वर युद्ध का सर्वप्रथम
चरिते (कन्नर) १६वी सदी विक्रमी वर्णन
पंचवष्ण बाहमिचरिते १७वीं सदी विक्रमी पतिवृषभ तिलोयपण्णत्ती ईस्वी की नमोल्लेख मात्र
(कन्नर) (प्राकृत) ४.५वीं सदी
पुण्मकलशगणी भरतबाहुबलिमधमाषी ६वी सदी सामान्य कथा
महाकाव्यम् (संस्कृत) १७वीं सदी विक्रमी (प्राकृत) विस्तार एवं पामो
भरतभूजवलि परितम् १८वीं सदी विकमी दृष्टि, वाणी एवं मल्ल पुरके अज्ञात भरतराजदिग्विजय उल्लेख
(वर्णन भाषा (हिन्द) १८वीं सदी विक्रमी संबदासमणी वसुदेव हिण्डी (गकत) ५वी-छठी सदी लक्ष्मीबन्द्र जैन प्रस्तान्द्रों के पार २०ीपी विक्रमी धर्मदासगणी उपदेशमाला (संस्कृत)
. पक्षय कुमार, जयोम्मटेश रविषेण पपपुराण , वि.स ७६१ न बाहुबनि
२०ीं सदी विकमी
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१००,
३३, किरण
उक्त बाहुबलि-वाङ्मय के प्राचार पर बाहुबलि-कथा (क) प्रकरण-साहित्य- (ज्ञान एवं प्रकाशित-प्राकृत, विकास सम्बन्धी निम्न तथ्य सम्मुख पाते हैं
संस्कृत, अपभ्रश, कन्नड़ १. प्रारम्भ में अर्थात् दूसरी सदी तक के बाहुबलि.
राजस्थानी एवं हिन्दी मे चरित के विषय में सामान्यतया यही बताया मया है कि
लिखित ग्रन्थ सस्या)-२१ वे (बाइबलि) महान बलिष्ठ एवं तपस्वी थे। यह चर्चा (ब) स्वतन्त्र-साहित्य-(जात एवं प्रकाशित-प्राकृत, मात्र १-२ गाधामों में ही मिलती है।
संस्कृत, अपभ्रश, कन्नड, २. तीसरी सदी से कथा में कुछ विस्तार मिलने
राजस्थानी एवं हिन्दी मे लगता है। दृष्टि एवं मुष्टि युद्ध का सर्वप्रथम उल्लेख
लिखित ग्रन्थ संख्या)-१४ विमलसूरि कृत पउमचरिय में मिलता है।
(ग) स्वतन्त्र-साहित्य-ज्ञात, अप्रकाशित)-३० ३. छठवीं सदी में दृष्टि एवं मष्टि के साथ-साथ
(घ) प्रकरण प्रषवा स्वतन्त्र साहित्य--(विविध मल्लयुद्ध की चर्चा मिलने लगती है। फिर भी कथावस्तु
भाषात्मक प्रज्ञात प्रकाशित संक्षिप्त ही बनी रही।
अथवा अप्रकाशित ग्रन्थ) ४. पाठवीं सदी के प्रारम्भ में बाहुबलि का पाल
-प्रनेक कारिक वर्णन मिलने लगता है। इस दिशा मे महाकवि (३) बाहुबलि विषयक समीक्षात्मक शोष-निबन्धरविषेण अग्रगण्य हैं।
(विविध भाषात्मक, ज्ञात एव ५. १३वीं सदी से बाहवलि पर स्वतन्त्र रचनाएं
प्रकाशित)-३१ लिखी जाने लगी। इसमें शालिभद्रसूरि द्वारा लिखित (छ) बाहुबलिविषयक समीक्षात्मक शोष-निबन्धभरतेश्वर-बाहुबलिरास बाहुबलिचरित की दृष्टि से तो
(विविध भाषात्मक अज्ञात महत्वपूर्ण है ही, रासा साहित्य भी यह मायग्रन्थ है।
प्रकाशित)- अनेक ६. अपभ्रंश मे पाय स्वतन्त्र बाहुबलिचरित महाकवि . बाहुबलि-वाङ्मय एवं पुरातत्व पर अभी तक कोई घणवाल कृत है जो अपभ्रश के महाकाव्यों मे वीररस भी स्तरीय शोध कार्य नही हुमा हे। बहत सम्भव है कि प्रधान होने के कारण अपनी विधा की दृष्टि विशेष सिन्धुघाटी सभ्यता में कायोत्सर्ग-मुद्रा को बो नग्न महत्वपूर्ण है।
मूर्तियां मिली हैं वे भगवान बाहुबलि को हो ? श्रमण ७. अद्यावधि ज्ञान एवं उपलब्ध बाहुबलि-चरितों में संस्कृति, सभ्यता एवं साहित्य को नए मायाम प्रदान करने १५वीं सदी के महाकवि रत्नाकर वर्णी द्वारा कन्नड-भाषा के लिए इस अद्यावधि उपेक्षित एवं सर्वथा चित वाङ्मय में लिखित "भरतेश-वैभव" सर्वाधिक सशक्त, मार्मिक तथा एवं पुरातत्व पर स्तरीय शोध कार्य हेतु शोधाथियो को पाठकों को झमा देने वाली महाकाव्य शैली की रचना प्रोत्साहित करने को तत्काल पावश्यकता है। सर्वश्रेष्ठ सिद्ध हुई है। सुनते हैं कि उनके समकालीन किसी १०. म. बाहुबलि भारतीय भावात्मक एकता के राजा ने उस कृति को सुन कर कवि एव कृति दोनों को प्रतीक हैं । अतः उसका सुन्दर एवं सर्वोपयोगी प्रकाशन तो ही सम्मानित कर हाथी पर उसकी सवारी निकाली थी। होना हो चाहिए साथ ही उसे चित्रात्मक एवं प्रल्पमोली
८. प्रो. डा. विद्यावती जैन (पारा) के एक भी बनाया जाय जिससे वह महलों के साथ-साय झोंपड़ों बाइबलि-साहित्य सर्वेक्षण के अनुसार' अभी तक तविषयक में भी समान रूप से पहुंच सके। भनेक रचनामों (मूल एवं सामान्य समीक्षात्मक) की
रीडर एवं विभागाध्यक्ष, संस्कृत-प्राकृत विभाग, जानकारी मिली है। मेरी दृष्टि से उनका वर्गीकरण निम्न
दिन कालेज, पारा प्रकार किया जा सकता है:
निवास : महाजन टोली नं. २, पारा (बिहार) १.०बारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली द्वार प्रकाश्यमान-बाहुबलि स्मारक ग्रन्थ का-"युगों-युगों में बाहुबलि : बाहुबलि
चरित विकास, इतिहास, समीक्षा एवं साहित्यिक सर्वेक्षण नामक शोष निवन्ध ।
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महाकवि पुष्पदंत का बाहुबलि-पाख्यान
डा. देवेन्द्रकुमार जैन, इन्दौर
९८१ ई० मे चामुण्डराय को प्रेरणा से श्रवणवेलगोला उसकी सेना के मार्च से बढ़ेगा पहाड़ समतल हो गए, में बाहबलो की विशाल प्रतिमा की प्रतिष्ठापना हुई। इससे कौन जल कोचर नहीं हमा? तेरह वर्ष पूर्व ६६८ में मंत्री भरत के अनुरोष पर महा
होह गिरिवल बिबिसें समरल। कवि पुष्पदत अपभ्रंश में महापुराण की रचना कर चुके
किणकिण किर कमियउबलु॥ थे। जो बहुत बड़ा काव्यात्मक प्रयोग था। इससे पहले
कि किंग संघरियड वर्ष। संस्कृत को ही पुराण काव्य लिखने के लिए उपयुक्त समझा
किण किम ली पायर तनु।। आता था। पुष्पदंत ने अकेले सठशलाका पुरुषों के चरितों को अपभ्रश जैसी लोकभाषा में कलात्मक अभि
भरत के स्वागत में चहल-पहल का क्या पूचना । व्यक्ति देकर सिद्ध कर दिया कि व्यक्ति पर किसी कुमकुम का छिड़काव कपूर की रंगोली मोरों से गंजतेरा भाषा का अधिकार नहीं माना जा सकता। महापुराण के
पुष्यों की वर्षा, कल्पवृक्षों के बंदनवार, घर-घर गाए बाते 'नाभेयचरित'। प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ का वर्णन है,
हए, भरत के गीत । कुछ स्त्रियों के द्वारा दूब, वही सरसों बाहवलि पाख्यान उसी का एक प्रश है, जो तीन संषियों।
पौर चन्दन ग्रहण किया जा रहा है जबकि अन्यों वारा में सीमित होने पर भी कवि की सृजनशीलता का श्रेष्ठ
पंण । सुरकन्या मंगल गान कर रही है:नमूना है, जो सामतवाद की पृष्ठभूमि पर लिखित है। 'कुंकुमेण छाल दिया। सामंतवाद, मूल्य विहीन राजनीति का सबसे घिनौना रूप
कम्पूरे रंगावलि किया। पा। पुष्पदंत का खुद, यह भोगा हमा सस्य था। एक पोर
धिप्पा कुसुमकरं समस्यषु। महम्मद बिनकासिम के प्राकमण के साथ सिंष पर विदेशी
बमा सुरतरु-पल्लव बोर।। पाक्रमणों को इसकी चिन्ता नहीं थी। वे प्रापसी चढाइयों
परिपरि गाइण्ड विणवण । में एक-दूसरे को नीचा दिखाने पोर लटपाट में लगे थे।
बोब बहिय-सिखात्यय ॥ महापुराण, मोर खासकर बाहुबली का पाख्यान लिखते
इंम्पनु कलसु परिवबह उहि ।। समय कवि के मन में यह चेतना थी।
उम्बोसित मंगल सुरकग्नहि। बाहबलो का पाख्यान-प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ के
यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि भरताविप समस्त परित से संबद्ध है, क्योंकि वे उनकी दूसरी पत्नी सनंदा परती जीत कर, और साठ हजार वर्षों तक दिग्विजय की के इकलौते बेटे थे। पहली पत्नी यथोवती से सो पत्र और क्रीड़ा कर पयोध्या में प्रवेश कर रहा है। उसकी चोदा पुत्री थी-जाह्मी। बाहुबली की बहन की संदरी। बाइबलि जरूर पूरी हो चुकी होगी, परन्तु उसके पारलकी कीड़ा भास्यान तब प्रारंभ होता है जब भरत दिग्विजय से लोट अभी पूरी नहीं हुई। वह अयोध्या की सीमा पर माता कर अपने भाइयों के पास यह संदेश भेजता है कि क्योंकि देवी विधान के अनुसार पक्रवर्ती सम्राट् बनने उसकी अधीनता मान लें। पश्वी सम्राट् बन कर भरत के लिए अपने ही घर के भाइयों को बीतना बाकी है। अपनीमूह नपरी सौट रहा है। कैलाश पर्वत पर अषम स्थिर होने पर कवि की कल्पना सकियो तीर्थकर की वंदनाभक्ति कर, अब भरत चलता है, तो उठती है:
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'सुइघरि पन्नाय वित्त ।
बहकर अंबर सिब संविधा। परपुरिसाणराइ सरचितुव
एक णाई मह हासउ दिज्जह ॥ परदासत्तबम्मि सबसित्तु .
जो बलवंतु बोहतो रामः । मायाणेहणि बंषणि मित्र
जिम्बल पुणु किम्माणिप्राणउ ॥ प्राणिपाविड चित्त .
हिप्पा मगह भगेण जि पामिसु । पणय-विलीणा विष्णउ भतुव
हिप्पा मणुयह मणएण जि वसु ।। हरसतुरिया गवउ कसत्तु।।
रस्साकसह जूह एप्पिण। चक पयोध्या में वैसे ही प्रवेश नहीं करता, जैसे,
एषकह फेरी प्राण लएप्पिण ॥ पवित्र घर मे अन्याय से कमाया हुमा धन, दूसरे पुरुषों के
ते णि वसंति लिलोइ गविट्ठउ । अनुराग में सती का चित्त, जैसे दूसरों की दासता में
सीह हु केरउ बंदु ण विदुर । स्वाधीन वृत्ति (चित्त), जैसे मित्र छल-कपट पूर्ण स्नेह
माणभंगि वर मरण ण जीवित। बग्घन में, जैसे पापी का चित्त पात्रदान में, जैसे दिया
एहय दूप सुट्ठ मई भाविउ ॥ हुमा भात (भोजन) पचि से पीड़ित व्यक्ति में, जैसे नई
पावउ भाउ घाउ तह बंसमि। दुलहिन रतिरस से चंचल व्यक्ति के मन में प्रवेश नहीं
संझाराज व अणि विवंसमि ॥ नहीं करती।
तर्क देकर कामदेव बाहुबली कहते हैं-चाहे वे यहा
पैदा हुए हों या पौर कही, जो दूसरो के धन का अपहरण ठहरा हुमा बक ऐसा प्रतीत होता है जैसे कोपाग्नि का ज्वला मंडल हो। जैसे नगर की सक्ष्मी के कान का
करने वाले और झगड़ा करने वाले हैं, वे इस दुनिया मे '
राजा होते हैं। बूढा सियार लोककल्याण की बात करता कुंडल हो, जैसे भरत के प्रताप से कायर हुमा सूर्य बिब हो।
है यह देखकर मुझे हंसी भाती है। निर्बल को और जं कोबाणल जामा मंड।
निष्प्राण बनाया जाता है, पशु के द्वारा पशु के मांस का जं पुरलच्छिह परिहिट कुंडल ॥
अपहरण किया जाता है, और मनुष्य के द्वारा मनुष्य के भरहपथावें फायरिखापर।
बन का । रक्षा की माकांक्षा के नाम पर गिरोह बना कर, माणुवित्र नं ॥२/१६॥
और किसी एक की प्राज्ञा मान कर ये लोग निवास करते भरत के दूत, भाइयों के सामने बड़े भाई को अधीनता ने तीनों लोकों की छानबीन कर ली है। सिंहों का मान लेने का प्रस्ताव रखते है, भरत के सगे निम्या भाई गिरोठ कहीं दिखाई नहीं दिया। मान के भंग होने पर, गुलामी जिन्दगी जीने के बजाय सन्यास प्रहण कर लेते हैं। मर जाना पच्छा, जीना अच्छा नहीं, हे दूत, मुझे यह परन्तु सुनंदा का बेटा बाहुबली म तो प्रस्ताव स्वीकार अच्छा लगता है। भाई माए मैं उसे घात दूंगा, मोर करता है और न अषीनता मानता है, वह भाई की प्रभु संध्या को लाखिमा की तरह एक क्षण मे ध्वस्त कर दूंगा। सत्ता को चुनौती देने से नहीं चूकता। उसका मुस्ख तर्क है बाहुबली के उत्तर को दूत भरत के सम्मुख इन शब्दो कि दुखों का नाश करने वाले महीश्वर (ऋषभ तीकर) में खाता है: मे नगर मोर देश से सोभित जो प्रभुसत्ता मझे दी है वह
'विसमुदेव बाहुबलि परेसा । मेरा लिखित शासन है-उसका प्रमहरण कौन कर सकता
बड़े संघसंबड पनि स है? अपने स्वार्थ और सत्ता की घिनौनी प्रवृत्तिको राज
कम्नुमबह बंद परिवा। नीति का रूप देने वाले भाई के दूत से वह कहते हैं?
संकि इन संग ।। सामणि सहेलना मपरकेउमा एत्यहि मिला। बेपरवविणहारियो कलह कारिलो ते बमिराया।
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महाकवि पुष्पाताबाहुबलि-मास्यान माणु ण छंडह छंद भयरम् ।
रहा है। कामरत जोड़ों के पसीने की बूंदें, उमसे पालोकित बवणचितइ चिता पोरिसु॥
होकर इस तरह चमक उठती है जैसे सौप के मणि हों। हे देव बाहबली अत्यन्त विषम राजा है, वह स्नेह का इसके बाद कवि सामतों की रतिक्रीड़ा का वर्णन करता है। सधान नहीं करता, होरी पर तीर का संधान करता है, वह सर्योदय होने पर जैसे-जैसे सूर्य बिम्ब ऊपर उठता है, कार्य नहीं साधता, अपना परिकर साधता है, वह संधि उसकी लालिमा (उषाराग) कम होती जाती है इस प्रकार नहीं चाहता, युद्ध चाहता है वह तुम्हें नही देखता, अपना वह समस्त राग चेतना का त्याग करने वाले परहंत की बाहुबल देखता है। वह तुम्हारी प्राज्ञा नहीं मानता अपने तरह परम उन्नति को प्राप्त होता है। छल का पालन करता है। वह मान नहीं छोडता, भयरस
'राउ मयंतु विगुणसंजत्तर । छोड़ता है!
पाहतुब रवि उठण पत्तउ ॥ दूत के इस कथन के साथ सूरज बता है और कवि रागचेतना की दो ही प्रवृत्तियां हैं या तो वह दिन में डूबती किरणो की रक्ताभा, विदूरी क्षितिज, माकाश- सूर्य की तरह विश्व को भाकात करेगी, या रात को कामिनी रजनी और सूर्य को लेकर, अपनी पार कल्पना चांदनी में प्रात्मरति मे बी रहेगी प्रकृति के दृश्य शक्ति से प्रकृति के बिम्ब खड़े करता है जिनमे पाकाश की
बदलते हैं, विश्व का घटना चक्र घूमता है, जीवन चेतना लक्ष्मी सूर्य के प में अपना शिरोमणि मस्ताचल को राग-विराग की धरी पर घूमती है। निवेदित कर रही है कि लो जब भाग्येशा ही नही रहा, तो माज फिर सबेरा है, प्ररहत की तरह सूर्य रक्ताभा तो उसके प्रतीक का क्या करूगी, निशा वधू ने मानो छोडकर सिर के ऊपर है। परन्तु बाहुबली मनुष्य के द्वारा दिवस के सामने शिखाम्रो से संतप्त, पत्यंत प्रारक्त दीप मनुष्य के अधिकारों को इस्पे जाने की प्रवृत्ति के खिलाफ प्रज्ज्वलित कर दिया कि जिससे वह प्रवेश न कर सके। है, भले ही हड़पने वाला उसका भाई हो। वह लड़ने का मानो सामने भाई हुई उत्तर दिशा रूपी वधू का चन्द्रमुख निश्चय करते हैं, दोनों भाइयों को सेनाएं युद्ध के मैदान में खोलकर जल रूपी लक्ष्मीने सिंदूर का पिटारा दिया हो। तैयार है। होने वाले नरसहार को टालने के लिए बढे धीरे-धीरे संध्याराग फैलता है पहाइ नदिया और पाटिया मंत्री तयुद्ध द्वारा हारजीत का फैसला करने का अनुरोध उसमे डब जाती हैं, लगता है सब कुछ लाक्षारस में हुब करते हैं। लेकिन जब चक्रवर्ती सम्राट् देखता है कि तीनगया हो। सध्यराग को कामदेव की प्राग समझता हुमा तीन युद्धों में पराजित होकर उसके सम्राट बनने का कवि कहता है कि सहनशीलता को समाप्त करने वाला मह धूल में मिल चुका है, विश्व को जीतने वाला वह अपने तयस्वियों भोर युवतियों को अब्ध करने वाला कामदेव पर ही में हार गया, तो उसे लगा उसकी शक्ति, वह स्वयं चंकि मानव मन में नहीं समा सका, इसलिए दशों दिशामों नहीं, उसका चक्र है, वह उसे बाहुबली पर चलाता है? मे दौड़ रहा है, अब उस संध्याराग की ज्वाला को अंधकार वह वार भी खाली जाता है। बड़े भाई की करतूत-पौर रूपी जल की लहरें शांत कर रही हैं, जिस संध्याराग को हारे की मुद्रा से बाहुबली प्रात्मग्लानि से अभिभूत है। केशर समझा जा रहा था उसे प्रकार के सिंह ने उखाड़ क्या गिरोह का मुखिया बनकर जनसेवा मोर जनकल्याण फैका जिसे संध्याराग रूप वृक्ष समझा जा रहा था, नसे की डींग हाकने वाले राजनेतामो का यही परित है? अंधकार के गजराज ने उखाड़ कर फेंक दिया ॥२४/१६ सत्ता की तामझाम मे प्रादमी इतना गिर जाता है ? वह
संध्याराग के विजेता प्रषकार को हरा कर चन्द्रमा ने पाश्म-विश्लेषण करते हुए कहते हैं-हाय मैं ही नीच कि संसार पर अपना भाधिपत्य जमा लिया। उसका प्रकाश जो मैंने अपने गोत्र के स्वामी चक्रवर्ती सम्राट को नीचा गोखों में घुसता है, स्तन तल पर प्रादोलित होता है, वह विक्षाया ? मेरे बाहुबम के द्वारा यह क्या किया गया, जो वधु के हार के समान दिखाई देता है। रंध्रों के पाकार मसुधीजनो के प्रति अन्याय करने वाला हमारण्या की का होकर, मार्जारों के लिए दूध की पाशंका उत्पन्न कर तरह इस धरती (सत्ता) का उपभोग किसने नहीं किया ?
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बनेकात
कुलकर?
राज्य पर गाज गिरे-यह उक्ति बिल्कुल ठीक है, राज्य चूकते कामदेव होकर अब वह प्रकाम साधना में लीन हैं। के लिए पिता को मार दिया जाता है और भाइयों को भी वर्ष भर ध्यान योग में खड़े हुए उनकी देह लतामों में घिर जहर दे दिया जाता है, जब भट मामंत और मंत्री के वर्ग
हो जाती है, हिरन उससे सींग घिसते हैं, लेकिन वह प्रविचल विभाजन पर विचार करता हूं तो वह सब पराया प्रतीत
हैं। लेकिन तपस्या का बाहरी रूप अंतरग को शुद्ध करने
में असमर्थ है। उनका मन उधेड़-बुन में लगा है। एक होता है।
दिन भरत सपत्नीक उनके दर्शन करके कहता है: "महिपुण्णालि व केण ग भुत्ती।
तुम्हारे समान संसार मे दूसरा भद्रजन नही है, तुमने रमह पडउ बज्ज सम सुत्ती॥
कामदेव होकर मकाम साधना प्रारम्भ की है, तुमने राग रज्जह कारणि पिउ मारिज्जह ।
मे प्रगग को मल रहित कर दिया, तुमने बाहुबल से मुझे बंधव ई मि विसु संचारिजा। भडसामंत मंतकियभायउ ।
निस्तेज (मलिन) किया, फिर तुम्ही ने करुणा से मेरी
रक्षा की फिर अपने हाथ से मुझे घरती दी। इस दुनिया चितिज्जंउ सम्वु परायउ ॥" १/१८
मे वास्तव मे परमेश्वर तुम ही हो (मैं नही)। बाहबली पारमचिन्तन के क्षणों में सोच रहे है..- यदि राज्य में सूख होता, तो पितृदेव ऋषभ उसका परित्याग भाई और सम्राट भरत के इन शब्दों से बाहबली का क्यों करते ? कहां है सुखों की निधि वह भोग-भूमि, कहां
अह गलता है, और अन्त में उन्हे कवल प्राप्त होता है। हैं संपत्ति पंदा करने वाले कल्पवृक्ष ? कहा गए वे देवों और मनुष्यों की भीड़ में देवेन्द्र उनकी स्तुति मे
कहता है: राजचक्र को तुमने तिनका समझा, और कमकालरूपी महानाग से कोई नहीं बच सकता है केवल एक चक्र को ध्यान की माग ने झोंक दिया। सुजनता है कि उसके सामने टिकी रहती है। वह बड़े भाई को देवचक्र (मडल) तुम्हारे पागे-मागे दौडता है, चक्रक्षमायाचना पूर्वक राज देकर तप ग्रहण करना चाहता, परन्तु वर्ती (भरत) को अपना चक्र अच्छा नही लगता, हे मुनि भरत पराभव से दूषित गज्य नहीं चाहता। वह कहता प्रापके साक्षात्कार से राग नही बढ़ता, तुम्हें छोड़ कर और है-हे भाई तुमने रनिवास के सामने मुझे अपने हाथों से कौन नरक में निकाल सकता है। पृथ्वीश्वर ने काम की उठाया और तह करके धरती पर पटक दिया। तब क्या प्रासक्ति से दीक्षा लेकर काम को जीत लिया। इस चकरन ने मेरी रक्षा को? तुमने अपने अमाभाव से अन्त मे कवि-ऋषभ तीर्थकर के समवसरण में बैठे भमा (धरती को भी जीत लिया है। (तुम्हारे क्षमा मांगने हुए बाहुबलि से कहता है-हे बाहुबली मुझे बोध पोर से क्या?) तुम्हारे समान तेजस्वी सूर्य भी नहीं है, तुम्हारे ज्ञान दीजिए ? समान गभीर समुद्र भी नही है, तुमने अपयश के कलंक को महाकवि के महापुराण (दो रचनाएं और है, धो डाला है, तुमने नाभि राजा के कुल को उज्ज्वल किया णायकुमार चरिउ जसहरचरिउ) जैन चरणानुयोग का है, इस दुनिया मे तुम अकेले पुरुषरत्न हो, कि जिसने मेरे ही नहीं समूचे भारतीय मृजनात्मक साहित्य की प्रमूल्य बल को विकल कर दिया? दुनिया मे तुम्हें छोड़ कर बरोबर.
धरोहर है, एक मोर उसमे लोकभाषा और शास्त्रीय भाषा
मोर उसमें लोकभाषामा किसके यश का डंका बजता है? तुम्हारे समान त्रिभुवन का सरी पोरन
। मे कौन भला है ? दूसरा कोन साक्षात कामदेव है ?
प्रयोग है, काम चेतना भोर राग चेतना का द्वंद्व है, उसके जिनवर के चरणों की सेवा करने वाला और नपशासन
सजन में अपभ्रंश की प्राणवत्ता और अभिव्यक्ति-शक्ति की नीति की रक्षा करने वाला दूसरा कोन है ? शशि सूर्य
मुखरित हुई है, कवि पौराणिक व्यक्तित्वों के माध्यम से से.मंदर मदराचल से और इन्द्र इन्द्र से तुलनीय है अपने युग यथार्थ मूल्यों की अनुभूतिमय झांकी प्रस्तुत करता परन्तु सुनंदा देवी के पुत्र एक तुम हो कि तुम्हारे समान है, भाषिक अध्ययन की दृष्टि से उसका महत्व सृजन से दूसरा नहीं ? हे भाई, लो यह राज्य तुम सम्हालो, मैं अब भी अधिक है। कुल मिलाकर पुष्पदत का बाहुबलिदीक्षा ग्रहण करूंगा।"
माख्यान भारत की पुराणमूलक प्राध्यात्मिक चेतना की कहते हैं सज्जन की करुणा से सज्जन ही द्रवित होता पृष्ठ भूमि पर दसवीं सदी के भारतीय समाज के सामंतहै, बाहबीब भाई की बात से अभिभूत हो उठते हैं, बादी मूल्यों के विश्लेषण की सर्जनात्मक अभिव्यक्ति है। लाख-लाख अनुरोध करने पर, वह सन्यास लेने से नहीं
शाति निवास, ११४ उषानगर, इंदौर-४५२००२
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गोम्मटेश्वर बाहुबली स्वामी और उनसे संबंधित साहित्य
0 श्री वेदप्रकाश गर्ग, मुजफ्फरनगर पत्यन्त प्राचीन युग में इस पार्य भमि पर महाराजा उपस्थित कर 'कर्म' का उपदेश दिया और उसकी महत्ता मामि राज्य करते थे, जो १४वें कुलकर थे। वे भाग्नीध्र का प्रतिपादन किया। ऋषभ ने जिन कार्यों की व्यवस्था के नो पुत्रों में ज्येष्ठ थे। वे अपने विशिष्ट ज्ञान, उदार को, उन्हें लौकिक षट्कर्म कहा जाता है। इनके द्वारा गुण और परमेश्वयं के कारण कुलकर अथवा मन कहलाते सामाजिक जीवन को एक व्यवस्थित प्राधार प्राप्त हमा। थे।' उन्हें हुए कितना समय बीता कुछ कहा नहीं ना इसके साथ हो धार्मिक षट्कर्मों का उपदेश भी दिया। सकता।
कश्रिय से क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र के रूप मे श्रम-विभाजन का उनका युग एक सक्रान्ति काल था। उनके जीवन- भी निर्देश दिया । वे स्वयं इक्ष्वाकु कहलाये। इससे उन्हीं काल मे ही भोग-भूमि की समाप्ति हई और कर्मभमिका से भारतीय क्षत्रियों के प्राचीनतम इक्वाकुवंश का प्रारम्भ प्रारम्भ हुमा । उन्होंने धैर्यपूर्वक इन नवीन समस्याग्रो का हुमा । कृषि कर्म मे 'वृषभ' को प्रतिष्ठा प्रतिपादित करने समाधान प्रस्तुत कर युग-प्रवर्तन किया। उनके नाम पर के कारण वे स्वयं 'वृषभदेव' कहलाए और 'वृषभलांछन' ही इस पार्य भूमि को अजनाभ वर्ष कहा गया। उनकी पहचान का विशेष चिह्न बना । पाज पुरातत्वश
उदयाचल और पूर्व दिशा के रूप में क्रमशः सबोधिन इसो चिह्न से उनकी मूर्तियों को पहचानते हैं। वे क्षात्रधर्म प्रयोध्या-नरेश महाराजा नाभिराय योर मरुदेवी मे सर्य. के प्रथम प्रवर्तयिता थे।" अनिष्ट से रक्षा तथा जीवनीय समान भास्वर तीर्थंकर ऋषभदेव का जन्म हया था। उपायों से प्रतिपालन ये दोनो गुण प्रजापति ऋषभदेव में उनका जन्म दो यूगों की संधिवेला प्रर्थात मानव-सभ्यता होने से उनको 'पुरुदेव' संशा भी हुई।" के प्रथम चरण में हुअा था, जब भोगभूमि का अन्त और ऋषभ का विवाह सुनन्दा भोर सुमंगला से हुमा था। कर्मभूमि का प्रारम्भ हो रहा था।
उनके सौ पुत्र थे। उनमे दो विशेष प्रसिद्धथे-भरत पोर कुलकर-व्यवस्था से जब सामाजिक जीवन विकमित बाहबली२ भरत को कलापों और बाहुबली को प्राणीहोने लगा तो कुलकर के पुत्र होने के नाते ऋषभ पर उन लक्षण का ज्ञान कराया । इनके अलावा उनकी दो पुत्रियों व्यवस्थापों का दायित्व प्राया। उन्होंने बहुत मूक्ष्मता एव भी थी। एक ब्राह्मी और दूसरी सुन्दरी ऋषभ ने अपनी गम्भीरता से समस्यापों का विचारोपरान्त ममाघन पुत्री ब्राह्मीको लिपि तथा सुन्दरी को प्रक विद्या सिखाई।" १. त्रिलोकसार ७६२-६३ ।
(प्रादि पुराण १६।१७९) २. भागवत पुराण १११२।१५ ।
८. देवपूजा, गुरु-भक्ति, स्वाध्याय, संयम तप और दान । ३. तिलोयपण्णत्ति ४१४६।६ ।
६. महा पुराण १६।२६५ । ४. स्कन्द पुराण ११२।३७१५५; महा पुराण ६२।८। १०. महापुराण ४२१६ तथा महाभारत, शान्ति पर्व ५. महापुराण १४१५१।
१२०६४।२०। ६. वही १६६१३३-३४ । (कुलकर उसे कहते हैं, जो
जनता के जीवन की नई समस्याओं का सही समाधान ११. ब्रह्माण्ड पुराण २०१४ । देता है।
१२. वसुदेव हिण्डो, प्र० ख० पृ० १८६ । ७.सि, मसि, कृषि, विषा, शिल्प तथा वाणिज्य। १३. पभिधान, राजेन्द्र कोश भाग २, पृ० ११२६ ।
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१०६, बर्ष ३३, किरण
अनेकान्त
पा भी विश्व में ब्राह्मी लिपि प्राचीनतम मानी जाती है। ३. दोनों पहलवानों की तरह एक-दूसरे को पछारें।
ऋषभदेव के शतपूत्रो मे भरत ज्येष्ठ थे। वही उनके जो चित्त हो जाये, वह हारा । इसे मल्लयुद्ध कहा गया। उत्तराधिकारी बने । प्रत: भरत को राज्य पद पर अभि- बाहुबली का शरीर मरत की अपेक्षा विशाल था। षिक्त कर ऋषभ स्वयं सन्यस्त हो तपश्चर्या में लीन हो वे उन्नतकाय भी थे। तीनों युद्धों में बाहुबली विजयी गए। ऋषभ ने भरत को हिमवत् नामक दक्षिण देश हुए। भरत अपनी इस हार से खीझ उठे। बदले को शासन के लिए दिया था। उसी के नाम से यह देश भावना से उन्होंने अपने भाई पर चक्र चलाया, किन्तु 'प्रजनाभवर्ष के स्थान पर 'भारतवर्ष' कहलाया' पौर देवोपुनीत प्रस्त्र परिजनों पर नहीं चलते। वह वाहवली प्राचीन मार्यो का भरतवश चला। भरत प्रथम चक्रवर्ती के चरणों में जा गिरा। वह उन्हें कोई हानि न पहुंचा थे। पोर उनके पीछे उनके पितामह तथा पिता शादि सका । इस प्रकार भरत की एक और पराजय हुई। तीर्थंकर ऋषभदेव की प्रतापी परम्परा थी। उन्होंने षट्- बाहुबली को विजयी होने पर भी संसार-दशा का खण्ड पृथ्वी को जीता और संपूर्ण भारत को राजनैतिक बड़ा विचित्र अनुभव हुमा। इस घटना से उनका मन एक सूत्रता मे बांधने का प्रयन्न किया।
बहुत विचलित हो गया। वे सोचने लगे कि भाई को जिम ममय भारत का राज्याभिषेक हुमा था तभी परिग्रह की चाह ने अंधा कर दिया और अहंकार ने उनके बाहबली ने पोदनपुर (लक्षशिला) का शासन सूत्र संभाला विवेक को भी नष्ट कर दिया है। धिक्कार है इस तष्णा था। वे भी भरत की भांति प्रतापी थे। उनका जन्म को ! जो ग्याय-अन्याय का विवेक भला देती है। पब मैं ऋषभदेव की पत्नी मनन्दा से हपा था। उनका शरीर इस राज्य का त्याग कर पारम-साधना का अनुष्ठान करना कामदेव के समान सुन्दर था। इसी से वे 'गोम्मटेश' चाहता हूं पोर बाहुबली संन्यस्त हो गये। कहलाते थे। वे दह तपस्वी और मोक्षगामी महासत्त्व थे। बाहुबली संन्यस्त होने के बाद कायोत्सर्ग-मुद्रा मे
इधर जब ऋषभ-साधना मे उत्कर्ष प्राप्त कर रहे थे, ध्यानमग्न हो गए। वे लगातार लम्बे समय तक तपस्या. उधर तब भरत ने अपने शासन का विस्तार किया। रत रहे । भूमि के लता-गुल्म बढ़ कर उनके उन्नत स्कन्धों उन्होंने चारों ओर की सभी प्रशासनिक इकाइयों को अपने तक पहुंच गए। मिट्टी की ऊंची-ऊंची बांबियां उनके पैरों अधीन कर लिया। स्वाभिमानी बाहुबली ने, जो पराधीन के चारों मोर उठ पायीं। इस प्रकार उन्होंने कठोर जीवन को मृत्यु से कम नही मानते थे, भरत की अधीनता तपश्चर्या द्वारा पात्म-साधना की और अन्त में पूर्ण ज्ञानी स्वीकार करने से इन्कार कर दिया । युद्ध अवश्यम्भावी बन स्वात्मोपलब्धि को प्राप्त हुए। उन्हें कैवल्य ज्ञान हो हो गया। ऐसी स्थिति में विचारवान् ज्ञान वृद्धों ने इसका गया।' समाधान निकाला कि "दोनों भाई प्रापस मे शक्ति-परीक्षण ध्यान-मग्न कायोत्सर्ग मुद्रा में वाहबली स्वामी की करले। व्यर्थ ही जन-धन का विनाश न हो। शक्ति भनेक खड़गासन मूर्तियां मिलती हैं, जिनमें सबसे प्राचीन परीक्षण के लिए तीन प्रकार चने गए :-
प्रतिमा बादा की गुफा की है। यह सातवीं सदी में निर्मित १. दोनो एक-दूसरे को भोर प्रपलक देखें। जिसकी हुई थी। इसकी ऊंचाई साढ़े सात फुट है। दूसरी प्रतिमा पलक पहले झपके वही हारा। इसे दृष्टि-युद्ध कहा गया। एलोरा के छोटे कैलाश नामक जैन शिला मन्दिर की इन्द्र
२. सरोवर मे एक-दूसरे पर जल उछालें । जो माकुल सभा की दक्षिणी दीवार पर उत्कीर्ण है। इस गुफा का होकर बाहर निकल पाये, वह हारा इसे जल-युद्ध कहा निर्माण काल लगभग ८वीं शती माना जाता है। तीसरी
१. 'पग्नि', 'मार्कण्डेय', 'ब्रह्माण्ड', ,नारद, लिंग', तथा जिनप्रभसूरि रचित 'विविष तीर्घकल्प' पृ००। ___ 'भागवत', मादि पुराण इस संबंध मे साक्ष्य रूप है। ४. दे० कवि धनपाल रचित-बाहुबली परिव' । २. महा पुराण ३७।२०-२१ ।
५.३० वही 'बाहुबली परित। ३. दे. कवि पनपाल रचित 'बाहुबली परिउ' तथा
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गोम्मटेइबर बाहुबली स्वामी पोर उनसे संबंधित साहित्य
मूति देवगढ़ के शातिनाव मन्दिर में है, जिसकी विशेषता दृश्य भी शिल्प-चित्रों में दिखाए गए है। यह है कि इसमें बामी, कुमकुट, सर्प व लतामों के अतिरिक्त बाहबली स्वामी के उदात्त चरित्र को लेकर साहित्यमूर्ति पर रेंगते हुए विच्छ, छिपकली प्रादि जीव-जन्तु मी रचना भी हुई है। कई कवियों पोर लेखको ने उनके मंकित किए गए हैं और इन उपसर्गकारी जीवों का चरित्र को अपनी रचनामों का माध्यम बनाया है। श्री निवारण करते हुए एक देव युगल भी दिखाया गया है।' लालचंद भगवान गांधी ने अब तक भरत-बाहुबली पर
सबसे विशाल मोर सुप्रसिद्ध मैसूर राज्य के श्रवण- प्राधारित साहित्य पर विस्तार से विचार किया है। सक्षेप बेलगोला'विष्यगिरि पर विराजमान वह पाषाण मूर्ति है,' मे यह साहित्य इस प्रकार है . जिसको दक्षिण के गंग नरेश के महामात्य चामुण्डराय ने (१) विमलसूरि कृत 'पउम चरिउ' के चौथे उद्देश्य १०.. वर्ष पूर्व उस्कोणित करवाया था। एक ही शिला में ऋषभ चरित के साथ भरत और बाहुबली के अधिकार को काट कर इसका निर्माण किया गया था। यह मनोज की सक्षेप मे सूचना मिलती है। प्रतिमा ५७ फुट ऊंची है और उस पर्वत पर दूर से दिखाई (२) घनेश्वर सूरि के ग्रथ 'शत्रुजय महावलभी' के देती है। मूर्ति की सुडौलता, मनोज्ञता तथा शांत मुखमुद्रा तृतीय सर्ग में दोनो के युद्ध का वर्णन है। देखते ही बनती है। यह 'गोम्मटेश्वर' भी कहलाती है। (३) वि० स० ७३३ मे जिनदास गाणी की प्राकृतदूसरे अंगों का संतुलन, मुख का शान्त पौर प्रसन्नभांव, भाषा मे चूर्णि नामक व्यख्या में दोनों का चरित्र वर्णित है। वल्मीक व माधवी लता की लपेटने इतनी सुन्दरता को लिए (४) रविषेणचार्य रचित पपचरित पुराण में दोनों हुए हैं कि जिनकी तुलना अन्यत्र कही नहीं पाई जाती। का युद्ध वर्णन है।
सीलिए इसके वीतराग अंग-सौष्ठव और मनोज्ञता को (५) दिगम्बर कवि जिनसेन के 'मादि पूरा कवि भारतीय तथा पाश्चात्य सभी विद्वानो ने सराहा है। पुष्पदंत के 'त्रिसद्धि महापुरिस-गुणाल कार' तथा हेमचन्द्र के इसके महामस्तकाभिषेक का मंगलानुष्ठान प्रायोजित कर 'त्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्र' के प्रथम पर्व भो इस सबध धर्मानुरागी जन-व्याषियों को पराभूत करने में समर्थ होते में उल्लेखनीय है। यह मतिं विश्व का माठवां पाश्चर्य मानी जाती है। (६) सोमप्रभाचार्य के 'कुमारपाल प्रतिबोध', (१२४१)
समति के अनुकरण पर कारकल में एक पर्वत पर विनय चन्द्रसूरिकृत 'प्रादिनाथ चरित'; जिनेन्द्र रचित सन १४३२ ई० मे ४२ फुट ऊंची तथा बेणूर में १६०४ 'पद्मनन्त महाकाव्य', मेरुतुंग रचित (१४०१) 'स्तमनेन्द्र ई० में ३५ फुट ऊंची प्रन्य दो विशाल पाषाण प्रतिमाएं प्रबंध'; जयशेखर सूरि कृत (१४३६) 'उपदेश चिन्ताप्रतिष्ठित की गई थीं। कारीगरी की दृष्टि से ये भी मणि' को टीका; (१४वी शती) गुणरत्नमूरि (१५३०) दर्शनीय हैं। बीरे-धीरे बाहबली जी की मूर्तियो का प्रचार के 'ऋषभ चरित्र' तथा 'भरतश्वर बाहुबली पवाड़ा'; उत्तर भारत में भी होता जा रहा है।"
श्रावक ऋषभदास (१६७८) के 'भरतेश्वर रास' तथा उपर्युक्त मूर्तियों के अतिरिक्त पाबू को सं० १०८८ जिनहर्षगणि (१७५५) के 'शत्रुजय रास' मे भरत-बाहबली को विमल सही की शिल्पकला में भरत बाइबली-युद्ध के चरित वर्णित हैं।। १.दे.डॉ.हीरालाल जन का 'जैन मूर्ति कला' शीर्षक लेख। ५.३० श्री लालचद भगवान गांधी द्वारा सपादित २. यह कन्नड़ी शब्द है। विन्ध्यगिरि पौर चन्द्रगिरि
भरतश्वर वाहुबली राम, प्रस्तावना पृ० ५७-५८ । पर्वतों के मध्य एक चौकोर तालाब है, जहाँ श्रमण
६. उपर्यस्त रचनापो के विशेष विस्तार के लिए दे. ठहरा करते थे। इसी से यह नाम पड़ गया।
श्री लालचंद भगवान गांधी द्वारा सपादित-भरतेश्वर ३. जिस पर्वत पर यह मूर्ति है, उसे विविध तीर्थ कल्प मे
बाहुबली राम को प्रस्तावना, पृ. ५३-५६ । वस्तुतः ___ 'अष्टापद गिरि कहा गया है । (३० पृ० ६६,२०८ । इन दोनो चरितनायकों पर ख्यातक्त लिखने की ४... मतिं का शीर्षक लेख, वर्षमान, पृ. १०३। परम्परा क्रमशः १८वीं शती तक सुरक्षित मिलती है।
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१०८, वर्ष ३३, कि
अनेकान्त उपर्युक्त रचनामों के अतिरिक्त भो कई अन्य रचनाएं किया गया है। कवि न इस ग्रंथ का नाम 'काम चरिउ' 'भरत-बाहबली' चरित से संबंधित प्राप्त होती है। (कामदेव चरित) भी प्रकट किया है । इस ग्रंथ की भाषा
वजसेनसूरि रचित 'भरतेश्वर-बाहुबलि घोर' पुरानी हिन्दी-भाषा के बहुत कुछ विकसित रूप को लिए हुये है। राजस्थानी की प्राचीनतम रचना है, जिसका प्रकाशन श्री रचना सरस, गभोर और रुचिकर प्रतीत होती है।' मगरचन्द नाहटा ने 'शोध-पत्रिका' में कराया था। यह
उपर्युक्त रचनामो के अतिरिक्त कुछ ऐसी रचनाएँ भी वीर और शान्त रस का ४६ पदो को छोटा-सा काव्य है।' मिलती है, जो सीधे बाहुबली स्वामी के चरित्र से तो
सं० १२४१ मे शालिभद्र सूरि ने भरतेश्वर-बाहुबली- सबध नही रखती, किन्तु प्रसगवश बाहुबली के चरित्र का रास' नामक खण्डकाव्य की रचना की, जिसको पुरानो भी पर्याप्त उल्लेख हमा है। ऐसी रचनामों में देवसेन कृत राजस्थानी का सबसे महत्वपूर्ण प्रथ कहा जा सकता है। 'महेसर चरिउ' तथा कवि रइघ का 'मेहेपर चरिउ मुख्य यह प्रादिकालीन हिन्दी-साहित्य का सर्व प्रथम रास माना है, जिनमे भरत चक्रवर्ती के सेनापति जयकुमार (मेघेश्वर) जा सकता है।'
और उनकी धर्मपत्नी सुलोचना के चरित्र-चित्रण के साथमालदेव रचित'भरत बाहुबलि गीत' व 'खदक बाहुबली साथ प्रासंगिक हा मे भरत-बाहुबली-युद्ध, बाहुबलो का गीत" के अतिरिक्त 'भरत बाहुबली रास' नाम एक तपश्चरण पोर कैवल्य-प्राप्ति पादि का भी वर्णन किया अपभ्रश की अन्य रचना भी प्राप्त होती है।' सिद्धान्त गया है। इस प्रकार देखा जाए तो स्पष्ट होता है कि चक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य को प्राकृत भाषा की रचना भरतेश्वर-बाहुबली-वृत्त प्राकृत, सस्कृत अपभ्रश, प्राचीन 'गोम्मटसार' भी बाहुबली-चरित्र से संबघित प्रतीत होता राजस्थानी, गुजरातो प्रादि मे निस्तृत रूप में मिलता है। है। सभवत. तेजबद्धन कृत 'भरत बाहुबनी रास' का सभव है, खोज करने पर अन्य ग्रन्थों में भी उनके उल्लेख भी मिलता है।
चरित्रोल्लेख प्राप्त हो जाय । विद्वानो को अन्वेषण द्वारा स० १४५४ मे कवि धनपाल द्वारा रचित 'बाहुबली उनके पावन चरित्र से सबधित साहित्यका प्रकाश मे लाना चरिउ' मे पूर्णतया बाहुबली स्वामो के चरित्र का हो वर्णन चाहिए।'
CO) महामस्तकाभिषेक श्री गोम्मटेश्वर के महामस्तकाभिषेक का श्रवणबेलगोल स्थित सन १५०० के शिलालेख नं० २३१ में जो वर्णन है उसमें अभिषेक कराने वाले प्राचार्य, शिल्पकार, बढ़ई और प्रग्य कर्मचारियों के पारिश्रमिक का ब्यौरा तथा ग्ब और बही का भी खर्वा लिखा है। सन् १६८ के शिलालेख न० २५४ (१०५) में लिखा है कि पण्डिताय ने गोम्मटेश्वरका ७बार मस्तकाभिषेक कराया था। पञ्चवाण कवि ने सन १६१२ में शान्ति वर्णी द्वारा करायेहए मस्तकाभिषेक का उल्लेख किया है व अनन्त कवि ने सन् १६७७ में मैसूर नरेश चिक्कदेवराज मोडेपर के मंत्री विशालाक्ष पंडित द्वारा कराये हुए और शान्तराज पडित ने सन् १८२५ के लगभग मैसर नरेश करणराज प्रोडेयर ततीय द्वारा करायेहए मस्तकाभिषेक का उल्लेख किया है। शिलालेख नं. २२३ (8) में सन १९२७ोने वाले मस्तकाभिषेक का उल्लेख है। सन १९०६ में भी मस्तकाभिषेकामा पा। मार्च सन १९२५ में भी मस्तकाभिषेकपा था, जिसे मैसूर नरेश महाराजा कृष्णराजबहादुर ने अपनी तरफ से कराया था। महाराजा ने अभिषेक के निर ५०००)60 प्रदान किये थे। उन्होंने स्वयं गोमास्वामी की प्राक्षिणाकी यो नमस्कार किया था तबाप से पूजन किया था। ताम्बर भी पशतमा महा समाभिकहोने
मRIBERT. भिक्षेकर नरोकेग, रिवनका चरा घ.. बान,
सारस, लालन, बाबा, बारक.. शकर, सबसपारस्पों से और जल से अभिषेक कराया जाता है। १.दे. शोष-पत्रिका, वर्ष ३, अंक ४।
५. दे. जैन प्रथ दशास्तिसंग्रह, भाग २ प्रस्तावना, २.दे० श्री गांपी द्वारा संपादित उक्त राम प्रय तथा
पृ० ७८.८०। स.हरीश का 'रास-परम्परा पीर भरतेपर बाहवली
६.३० जन-प्रथ-प्रशस्ति-संग्रह, प्रस्तावना, पृ०६६-६७ । शीर्षक लेख। ३. दे० रनम्यानी भाषा और साहित्य डा. होरालाल ७. इस लेख के लिखने मे जिन विद्वान लेखकों के ग्रंथों माहेश्वरी, पृ. २६३ ।
तथा लेखों से सहायता ली गई है, उनके प्रति मैं ४.३० पाभ्रश सहस्पसकोछ, पृ. ३६३.६४ । हादिक मामार व्यक्त करता हूं।
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बाहुबली : पुष्पदंत के सृजन के प्राइने में
0 डॉ० देवेन्द्र कुमार जैन, इन्दौर
बूढा सियार कल्याण की बात करता है-यह देख करता है, परन्तु उसका चक वर्तन नहीं करता। वह मरत कर मुझे हंसी पाती है। दुनिया में जो ताकतवर चोर है की महत्वाकाक्षा के लिये विराम चिह्न बन कर खड़ा हो वह राजा है दुर्बल को और प्राणहीन बनाया जाता है। जाता है। बढे मत्रो उसे बताते हैं कि जब तक उसके भाई मोर पशु के द्वारा पशु का धन छीना जाता है और प्रादमी प्रधानता नही मानते तब तक चक्र भीतर नही जा सकता। के द्वारा प्रादमो का धन छीना जाता है पोर प्रादमो के भरत, भाइयो के पास दूत के जरिए प्राज्ञा मानने का संदेश द्वारा भादमी का धन । सुरक्षा के नाम पर लोग गिरोह भेजता है दूसरे भाई प्रवीन होने के बजाय अपने पिता बनाते हैं, मोर एक मुखिया की प्राज्ञा में रहते है। मैंने तीर्थंकर ऋषभ से दीक्षा-ग्रहण कर लेते हैं लेकिन बाहुबली सारी दुनिया छान मारी, सिहो का गिरोह नही होता। इसे समस्या का हल नही मानता इमलिये जब दूत से बड़े मान खंडित होने पर जीने के बजाय मर जाना अच्छा है भाई का अभिमान जनक प्रस्ताव सुनता है तो उसका दूत मुझे यही भाता है भाई यदि माता है तो प्राए मैं उसे स्वाभिमान प्राक्रोश भरी चुनौती दे डालता है बिना इसके प्राघात दूंगा पौर पल भर मे संध्याराग की तरह ध्वस्त परवाह किये कि एक चक्रवर्ती सम्राट से जूझने का नतीजा कर दूंगा। चुनौती भरे ये शब्द किसी माधुनिक राजनेता क्या होगा? बाहुबलो का विरोध भाई से नही बल्कि या वामपर्थी के राजनैतिक पार्टी के नही बल्कि अपभ्रश के उसमे रहने वाले राजा स था जिसमे सत्ता को राक्षसो महान कवि पुष्पदंत के महापुराण से उद्धृत बाहुबलो के भूख यो जो दूसरों के स्वत्वो मोर स्वतन्त्रता को छीनता कथन के कुछ अंश हैं। जिनमें वे बड़े भाई भरत के है, मानवीय मूल्य का हनन करती है। अधीनता मान लेने के प्रस्ताव पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त राज्य पोर मनष्य : कर रहे हैं। पौराणिक सन्दर्भ : जैन विश्वास के अनुसार दूत लौटकर सम्राट को बताता है कि बाहुबली विषय मोगभूमि के समाप्त होने पर जब कम भूमि प्रारम्भ हुई है मेल-मिलाप के बजाय वह लड़ेगा। दूसरे दिन न दोनो तो लोगों के सामने नई-नई समस्याएं पा खड़ी हुइ । प्रथम पक्ष की सेना प्रामने सामने उठ खड़ी होती है। मानव तीर्थंकर ऋषभदेव ने उनका हल खोजा, पोर इस प्रकार संस्कृति का प्रारम्भिक इतिहास कही खून से न लिखा वे कर्ममूलक मानव सस्कृति के निर्णयाक बने । उनके १०१ जाप इस प्राशंका से बूढ़े मन्त्री दोनो को समझाते है पाप पुत्र और दो पुत्रियां थी। पहली रानी से भरत प्रादि सो कुल-मद्र है, यह पाप लोगो का घरेलू झगड़ा है पाप भाई तथा ब्राह्मी थी दूसरी से बाहुबली और सुनंदा । लब प्रापम मे युद्ध कर निपट लें व्यर्थ खून खराबा क्यों ? दोनों प्रशासन के बाद ऋषभनाथ पुत्रों में राज्य का बटवारा भाई इस सुझाव का सम्मान करते हुए कुछ युट करते हैं। कर तप करने के लिये चले गये। सब भाई बटवारे से दष्टि युद्ध, जल पोर मल्लयुद्ध, एक के बाद एक यूर सन्तुष्ट हैं परन्तु भरत महत्वाकांक्षी है वह चक्रवर्ती सम्राट लगातार हारने के बाद सम्राट भरत अपना संतुलन सो बनने के लिये दिग्विजय करता है साठ हजार वर्ष के बैठता है कुल पोर युद्ध की नीति को ताक पर रखबह सफल पभिनय के बाद वह घर लोटता है। गृह नगरी छोटे भाई पर चक्र से प्रहार करता है। वारसालो जाते भयोध्या दुलहिन की तरह सजाई जाती है। मगल वाद्यो देख कर वह नीचा मुख करके रह जाता है। पौर जयगान के बीच सम्राट नगर की सीमा में प्रवेश सत्ता की भूख इतनी कर मोर प्राणलेवा हो सकती
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११०,
१३,किरम
भनेकान्त
है ? यह देख कर बाहुबली का प्राक्रोश घिन उठा है। भाग में भस्म कर दिया, देवचक तुम्हारे मागे-पीछे घूमता मात्मसंताप से अभिभूत वह सयं को विहार सा है हाय है तुम्हें चक्रमुक्त देख कर चक्रवर्ती को भी अपना चक मेरी बाहुबल ने क्या किया? मैंने अपने कुल के स्वामी अच्छा नहीं लग रहा है। सम्राट चक्रवर्ती को नीचा दिखाया किसके लिए ? क्या उस बाहुबली को गोम्मटेश्वर इसलिए कहा गया कि एक परती के लिए जो वेश्या की तरह अनेक राजामो के द्वारा तो साधना काल में लतागुल्मों के चढ़ने से उनकी देह भोगी गई है पोर यह राज्य इस पर वज गिरे किसी की गुल्मवत् हो गई थी दूसरे वह गोमत् का अर्थ है प्रकाशवान् यह उक्ति ठीक है इसके लिए पिता की हत्या की जाती है, दोनो का प्राकृत मे गोम्मट बनता है। भाइयों को जहर दिया जाता है, समाज और राष्ट्र में समय की दूरी सृजन मूल्यों को निकष : विषमता विद्वेष और घृणा के बीज राज्य ही बोता है पुष्पदंत १०वी सदी मे हुए और राष्ट्रकूटों के मंत्री राजा मन्त्री सामत सुभट शासक और शासित -यह सारा भरत के अनुरोध पर उन्हीं के शुभतेश भवन में रहते हुए वर्गविभाजित बनावटी है पराधीन बनाने की दुरभिसधि कवि ने महापुराण की रचना की, बाहुबली पाख्यान उसी है। अपने बड़े भाई और चक्रवर्ती से क्षमा मांगते हए वह का एक अंश है। इसमें संदेह नहीं कि पुष्पदंत मोर कहता है --प्रो अग्रज, यह राज्य ले, मैं दीक्षा लेकर प्रारम- बाहुबली के बीच समय को बहुत दूरी है। कल्याण करूंगा। मैंने भाज तक जो भी प्रतिकूल प्राचरण इस अन्तराल में कई मानव संस्कृतियां बनीं और किया है उसके लिए क्षमा मांगता हूं।
मिटी । इतिहास मे कई उतार-चढ़ाव पाए फिर भी स्मृति भरत की प्रतिक्रिया:
और कला ने उस "पुराण पुरुष" को प्रतीक रूप में जीवित लेकिन भरत यह स्वीकार करने को तैयार नहीं वह रखा उनके पावन व्यक्तित्व की याद मानव मूल्य की कहता है मुझे पराभव से दूषित राज्य नही चाहिये जिम याद है ये मूल्य प्रत्येक युग की परिस्थितियों से टकराते चक्र का मुझे गर्व था, क्या वह मेरे सम्मान को बचा है। कभी वे परिस्थितियों को नया मोड़ देते हैं और सका? हे भाई तुमने अपने क्षमा मात्र से जीत लिया तुम कभी परिस्थितियाँ उन पर हावी होती हैं खासकर सूर्य की तरह तेजस्वी और समुन्द्र की तरह गंभीर हो भारत मे ऐसा इसलिए भी होता रहा है कि इन मूल्यों को सज्जन की करुणा से सज्जन ही द्रवित होता है। प्रात्म- सामाजिक स्तर पर नहीं परखा गया, हमने परलोक के ग्लानि, विरक्ति में बदलती है, और बाहुबली राजपाट सदर्भ मे उनका महत्व समझा यह प्रजीब संयोग है। गंगवंश छोड़कर तप करने चल देते हैं। वर्ष भर, वन मे वे कायोत्सर्ग के प्रधान मन्त्री पोर सेनापति चामुण्डराय की प्रेरणा से में खड़े रहे, हिम प्रातप और वर्षासे बेपरवाह लताएं देह ६१ ईसवी में जब श्रवणबेलगोला मे गोम्मटेश्वर बाहुबली से लिपट गई। उस विशाल शरीर से वन्य प्राणी खाज की विराट मूर्ति निर्मित भोर प्रतिष्ठापित हुई उसके १५खुजलाते रहे । एक दिन सम्राट भरत सपत्नीक पाता है १६ वर्ष पहले पुष्पदत महापुराण के अन्तर्गत अपना और उनकी स्तुति मे कहता है।
बाहुबली पाख्यान लिख चुके थे। उन्होंने बाहुबली के ... हे भद्र, विश्व मे तुम्ही हो जिसने कामदेव होकर राग को अपनी उन अनुमतियों के माइने में देखा जिनका को पराग से जीता, जीत कर भी क्षमाभाव का प्रदर्शन प्राचार युग की सामंतवादी पृष्ठभूमि थी। उन्होंने सत्ता किया।
के लिए राजामों को लड़ते देखा था। युद्ध के खूनी दृश्य सम्राट भरत के इस कथन से तपस्वी बाहुबली के उनके सामने थे, राजनीति की घिनौनी हरकतों से चिढ़ मन का यह भ्रम टूट जाता है कि मैं दूसरे की धरती पर कर ही वह किसी दूसरे राज्य से राष्ट्रकूटों की राजधानी खड़ा हूं और वह कर्मजाल से मुक्त होते हैं।
मान्यखेट में पाए थे । पुष्पदंत बाहुबली के समग्रचरित को उनकी मुक्ति के अभिनन्दन में इन्द्र ने कहा हे भद्र हम राज्य समाज, परिवार और व्यक्ति के संदर्भ में देखते तुमने राजचक को तिनका समझा कर्मचक्र ध्यान की
(शेष पृष्ठ ११३ पर)
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बाहुबली की कहानी : उनकी ही जुबानी
0 डा० शिवकुमार नामदेव, होशंगाबाद
"स जयति हिमकाले यो हिमानी परोतं, भरत से संघर्ष : वपुश्चल इवोपविभ्रवार्वभूव ।
भरत पौर मेरे मध्य हुए संघर्ष की कहानी पुराणों मवषनसलिलोपर्यश्च घौतोऽम्ब काले,
मे वणित है। भरत ने चक्रवर्ती पद प्राप्त हेतु दिग्विजय खरणिकिरणानय्यष्ण काले विषेहे ॥ किया । दिग्विजय-यात्रा यद्यपि सकुशल सम्पन्न हुई, परन्तु मेरे पिता का नाम ऋषभदेव तथा माता का नाम
चक्र-रत्न अयोध्या के द्वार पर प्राकर रुक गया। चारों सुनन्दा था। जब मेरे पिता प्रयोध्या के राजसिंहासन पर
पोर प्राश्चर्य का वातावरण व्याप्त हो गया। अनेकों प्रकार प्रारूढ़ हुए तब उन्होंने अपने राज्यकाल मे अनेक जनो.
के तर्क-वितर्क होने लगे। तब भरत ने इस कारण की पयोग कार्यों के साथ ही साथ प्रजा को प्रसि, ममि, कृषि,
खोज-बीन करने के लिए मन्त्रियो को नियुक्त किया। विद्या, वाणिज्य एवं शिल्प इन षट्कर्मों से प्राजीविका
कारण शीघ्र ही ज्ञात हो गया मन्त्रियों ने भरत से इसका करना सिखाया । उन्हें प्रजापति, ब्रह्मा, विधाता
कारण बताते हुए कहा कि चक्र-रत्न अयोध्या के द्वार पर पुरुष प्रादि नामो से भी स्मरण किया जाता है। मेरा
भाकर इस कारण स्थिर हो गया है कि अभी प्रापके शारीरिक गठन अति सुन्दर था, लोग मेरे रूप को
भाइयों ने अधीनता स्वीकार नहीं की है। भरत संतुष्ट कामदेव से भी सुन्दर कहते थे। मेरी भुजाएं बलिष्ट एव
हो गए। उन्हें यह पाशा थी कि मेरे लघु-म्राता मेरी प्रसाधारण थीं। गुणानुरूप ही मेरा नामकरण बाहुबली
प्राशा की अवहेलना नही करेंगे। उन्होंने अपने समस्त रखा गया।
भ्रातामों के पास अधीनता स्वीकार करने के लिए प्रस्ताव
भेजा । उनका राजदूत मेरे पास भी पाया। इस प्रस्ताव जब पिताजी ने प्रव्रज्या ग्रहण की:
को सुनकर मेरे अन्य भाइयों को तो संसार की स्वार्थचंत्र कृष्ण नवमी का दिन था मेरे पिता ऋषभदेव परता देख कर वैराग्य हो गया और उन्होंने पिताजी के सैकड़ों नरेशों सहित अपने राजसिंहासन पर विराजमान पास दिगम्बरी दीक्षा धारण कर ली, किन्तु मझे भरत थे, अप्सरा नीलांगना का नृत्य चल रहा था। सभी मंत्र का उक्त प्रस्ताव रुचिकर नही प्रतीत हमा। पिताजी मग्ध से उस नत्य का मानन्द ले रहे थे, तभी देवांगना द्वारा प्रदत्त मेरी इस अल्प भूमि पर भी भरत, जो महान को प्रायु पूर्ण हो गई। उसके दिवंगत होते ही इन्द्र ने साम्राज्य का भोक्ता है, अपना वर्चस्व चाहता है। मेरा तत्काल उसी के अनुरूप अन्य देवांगना से नृत्य प्रारम्भ अन्तःकरण भरत के प्रस्ताव को स्वीकार न कर सका। करा दिया। इन्द्र का यह कृत्य मेरे सूक्ष्मदर्शी पिता की मैंने राजदूत के द्वारा भरत को यह सन्देश भेजा कि यद्यपि दष्टि से भोझल न हो सका। उन्हें इहलोक की क्षण- भरत मुझसे ज्येष्ठ है, तथापि यदि मस्तक पर खड्ग भंगुरता एवं नश्वरता का स्मरण पाया मोर उन्हें वैराग्य रखकर बात करना पसन्द करते हैं, तब उन्हें प्रणाम उत्पन्न हुमा। उन्होंने अपना समस्त राज-पाट अपने पुत्रो करना क्षत्रियोचित शोल के प्रतिकूल है। में विभाजित कर प्रवज्या ग्रहण कर ली। मेरे ज्येष्ठ भरत को मेरा जब उक्त सन्देश प्राप्त हुप्रा तब उन्होंने माता भरत को प्रयोध्या का और मुझे पोदनपुर का राज्य चतुरंगिणी सेना के साथ मेरे दमन के लिए तक्षशिला को प्राप्त हुमा । मुझे अपनी पैतृक सम्पति से संतोष था, किन्तु प्रस्थान किया। मैंने भी अपनी सेना के साथ भरत से भरत की लौकिक लालसा अभी भी प्रतृप्त थी। युद्धार्थ रणभूमि की पौर प्रस्थान किया। समरांगण में
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११२, वर्ष ३३, कि०४
अनेकान्त
हम दोनों भाइयों की सेनाएं जब प्रामने-सामने तैयार मदोन्मत हस्ति से नीचे उतरो। इसने ही तुम्हारी खड़ी थी तब मस्त्रियों ने हमसे प्राग्रह किया कि द्वन्द्व युद्ध तपश्चर्या को निरर्थक बना दिया है। इतना श्रवण करते द्वारा जय-पराजय का निर्णय कर लें तो निरापराध ही मुझे ज्योति मार्ग प्राप्त हो गया तथा मुझे केवल ज्ञान सैनिकों का रक्तपात होने से बच जाए। यह उनका प्राग्रह की प्राप्ति हो गई। केवल ज्ञान प्राप्त करने के उपरान्त तर्कसंगत था, जिसे हम लोगों ने स्वीकार कर लिया। मैं विहार करते हुए अपने पिता के दर्शनार्थ कैलाश पर्वत जय-पराजय के निर्णय के हेतु हमारे लिए तीन प्रकार की पर पहुंचा। और इसी स्थान पर ही मैंने अपने देह को प्रतियोगिताएं-दृष्टि युद्ध, मल्ल युद्ध एवं जल यद त्याग कर मोक्ष को प्राप्त किया। निश्चित की गई। मैंने तीनो प्रतियोगितामों में भरत को देवालय एवं प्रतिमायें : पराजित कर विजय श्री प्राप्ति की। भरत इस पराजय
मैंन घोर तपस्या के द्वारा मोक्ष को प्राप्त किया था। को सहन न कर सका। और अपनी पराजय को जय में मेरी इस तपस्या का वर्णन जिनसेन कृत 'महापुराण' एव परवर्तित करने के लिए युद्ध-मर्यादा का उल्लघन कर मेरे रविषणाचार्य ने पद्मपुराण में किया है। यद्यपि मेरी गणना ऊपर प्रमोध-प्रस्त्र चक्र चला दिया। इस पर भी मेरा तीर्थंकरों मे नही होती है, पर मध्यकालीन जैन परंपरामों कोई अहित न हुमा।
में मुझे बड़ा सम्मान प्राप्त हुप्रा है। मेरे मनेक देवालय सम्पदा का त्याग एवं दीक्षा :
एवं मूर्तियो का निर्माण भी हुप्रा है। दक्षिण भारत के अपने ज्येष्ठ भ्राता भरत के कर-कृत्य से मेरे मन मे तीर्थहल्लि के समीप हवच के पादिनाथ मंदिर के समीप ही विराग रूपी ज्ञान सूर्य का उन्मेष हुप्रा । मैंने नश्वर पार्थिव पहाडी पर मेग एक मदिर विद्यमान है। गर्भगह में मेरी सम्पदा को भरत के लिए त्याग कर अपने पिता ऋषभदेव
| ऋषभदव एक सुन्दर-सी मूर्ति है । देवगढ की पहाडी मे मेरी एक के पास जाने का निश्चय किया। वहा जाने के पूर्व मेरे मन्दर मति के मन में यह जिज्ञामा जागृत हुई कि क्यों न मैं पहले केवल- वादामी मे ७वी सदी मे निमित मेरी ७॥ फुट ऊंची ज्ञान की प्राप्ति कर लूं। इस हेतु मैं तप में लीन हो प्रतिमा विद्यमान है। एलोरा के छोटे कैलास नामक जैन गया। एक वर्ष से अधिक व्यतीत हो गया, मैं मूर्तिवत् शिला मंदिर की इन्द्र सभा की दक्षिणी दीवार पर, तथा सीधा खड़ा हा ध्यान में लीन रहा, वृक्षों में लिपटी हुई देवगढ के शातिनाथ मंदिर में भी मेरी प्रतिमायें उत्कीर्ण लताएं मेरे देह से लिपट गई, वे अपने वितान से मेरे सिर की गई। यद्यपि मेरी प्रतिमायें एलोरा, बादामी, मध्यपर छत्र सा बना दिया। पैरों के मध्य कुश उग पाए जो प्रदेश तथा अन्य स्थानों में है, किन्तु इन सबसे विशाल देखने मे बाल्मीक जैसे लगते थे। केश बढ़ गए. जिनमें
और सुप्रसिद्ध मेरी मति कर्नाटक के श्रवणबेलगोला में है। पक्षी नीड बनाकर रहने लगे। घुटनो तक मिट्टी के
यह विश्व की सबसे लबो प्रतिमा है, जिसका निर्माण वल्मीक चढ़ गए जिनमे विषधर सर्प निवास करने लगे।
एक वृहदाकार शिला को काट कर किया गया है। एक वर्ष की कठोर तपस्या के उपरांत भी मैं केवल.
कायोत्सर्ग मुद्रा में ५७ फुट लंबो तपोरत मेरी यह प्रतिमा शान से वंचित रहा। इसका कारण मेरा अपना मोह था,
दूर से ही दर्शक को अपनी मोर माकृष्ट कर लेती है। अज्ञानता थी। मेरे मानस-पटल में यह भावना घर कर
इसका निर्माण गंग नरेश राजमल्ल (राचमल्ल) चतुर्थ गई थी कि मुझे अपने पिताजी के पास जाकर अपने छोटे भाइयों की वन्दना करनी होगी। मेरा मोह था, यही
(६७४.८४ ई.) के मंत्री एवं सेनापति चामुण्डराय ने मेरी प्रज्ञानता थी, जिसने मुझे ज्ञान प्राप्ति के मार्ग मे
कराया था। चामुण्डराय ने 'चामुण्डराय पुराण' की
कन्नड भाषा में रचना भी की थी। मेरी इस प्रतिमा का बाधा पहुंचाई थी। इस प्रज्ञानता को दूर करने के लिए मेरी बहने-बुमा एव सुन्दरी मेरे पास प्राई ।
निर्माता शिल्पी मरिष्टनेमि है। उसने मूर्ति निर्माण में बब मुझे केवल ज्ञान प्राप्त हुमा:
अंगों का विन्यास ऐसे नपे तुले ढंग से किया है कि उसमें दोनों बहनें मेरे निकट पाकर बोली "भैया मोह के किसी प्रकार का दोष निकाल पाना किसी के लिए संभव
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बाहुबली की कहानी उनकी हो जुबानी
नहीं है। मेरे स्कंध सोधे हैं, उनसे दो विशाल भुजायें अपने स्वाभाविक ढंग से लंबित है। हाथ की उँगलियां सीधी एवं अंगूठा ऊर्ध्व को उठा था उंगलियों से विलग है । घुंघराले केश-गुच्छों का अंकन सुस्पष्ट है ।
मेरी इस विशालकाय प्रतिमा का निर्माण बेलगोला के इन्द्रगिरि के कठोर हल्के भूरे पाषाण से किया गया है। लोगों का ऐसा अनुभव है कि मेरा वजन लगभग २१७४ मन होगा। मेरे निर्माण काल के विषय में भी कला-ममंजों एव ऐतिहासिकों को मेरी तिथि ६८० ई० अथवा ६८२ ६० निश्चित की है ।
मेरी विश्व की सर्वोच्च ५७ फुट लंबी इस प्रतिमा के अंगों के विन्यास से आप विशालता का स्वतः ही धनुमान लगा सकते हैं
चरण से कर्ण के अधोभाग तक - ५० फुट कर्ण के अधोभाग से मस्तक तक- ६ फुट ६ इंच
चरण की लंबाई - ६ फुट
चरण के प्रभाग की बोड़ाई ४ फुट ६ इंच
( पृ० ११०
9
हैं। उनके बाहुबली केवल प्राध्यात्मिक पुरुष नहीं हैं बल्कि मानवी मूल्यों और अधिकारों के संघर्ष करने वाले लौकिक व्यक्ति भी है इसके लिए वे अपने बड़े भाई से भी लोहा लेने मे नहीं चूके छल कपट को राजनीति में उनकी व्यवस्था नही थी उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जीत के उन्माद में वह अपना विवेक नहीं खोते दूसरे घर की फूट को राष्ट्र की फूट नहीं बनने देते, दुनिया के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ कि जब कोई जोती हुई बाजी छोड़ दे जीत कर भी क्षमा मांगें, वे धयुद्ध पुरुष नहीं थे राय के खिलाफ युद्ध न करना उन्हें मान्य नहीं पश्चाताप के क्षणों में वे अपने भाई से जो कुछ कहते हैं वह महज घोपचारिकता नहीं बल्कि भारम-मंचन से उपजी व्यथा से लिखा गया, मनुष्य के सम्मान जीने धीर मुक्त होने का अत्यन्त धनुभूतिभय शब्द लेख है। चामुण्डराय के प्रादेश पर शिल्पियों द्वारा निर्मित बाहुबली की प्रस्तरमूर्ति भोर पुष्पदन्त द्वारा रचित शब्द मूर्ति को कलात्मक अभिव्यक्तियां है उनकी तुलना का न आाधार है और न प्रश्न एक विराट है तो दुसरी गहन, एक दूषय
११३
चरण का गूठा फुट ९ इंच पांव की उंगली - २३ फुट मध्य की उंगली फुट एडी की ऊंचाई - २१ फुट
कर्म का पारि ५३ फुट कटि - १० फुट ।
अवणबेलगोला की मेरी यह प्रतिमा जनमत में अधिक पूजित है प्रतिवर्ष लाखों यात्री दर्शन कर अपना ब्रहोभाग्य मानते हैं । मेरे विषय में प्राचार्य विमलसूरि ने 'उसभस्स वीयपुत्तो बाहुबली नाम प्रति चिवखाद्यो' उल्लेख किया है। मैं अपने पिता एवं भ्राताओं से उन्नत शरीर
प्रत: मुझे गोम्मटेश भी कहा जाने लगा । जैन परंपरा में मुझे अनेक स्थानों पर 'पौदनेश' शब्द से भी संबोधित किया गया है ।
-
प्राध्यापक, प्राचीन भारतीय इतिहास, शासकीय गृहविज्ञान महाविद्यालय, होशंगाबाद ( म०प्र०)
000 का शेषांश)
है दूसरी पाठ्य, एक खिलती है दूसरी के साक्षात्कार के लिए। कवि को सृजन प्रक्रिया में से गुजरना पड़ा है। यह सृजन ही वह श्राइना है जिसमें बाहुबली का करोड़ों वर्षों पुराना संवेदनशील व्यक्तित्व सभायकालीन चेतना के संदर्भ में मनुष्य की समस्त गरिमा के साथ उभर कर भाता है। चामुण्डराय द्वारा प्रतिष्ठापित मूर्तिशिल्प की स्थापना सहस्राब्दि धूमधाम से मनाई जाए यह प्रसन्नता का विषय है परन्तु उस कोलाहल पूर्ण समारोह में भरत पुष्पदन्त और उनके महापुराण का कहीं उल्लेख न हो, यह जरूर पीड़ाजनक है। एक पुष्पदन्त जिन्होंने लगातार १३ वर्षों तक भरत के शुभ तुङ्ग भवन में रहते हुए उपभ्रंश जैसी लोकभाषा मे महापुराण की रचना कर मानव मूल्यों की धरोहर के रूप में हमें सौंपा, मोर हम है उसकी याद में मंगलकलशों के अभिषेक जल की एक बूंद भी देने को तैयार नहीं है क्या इससे यह जाहिर नहीं होता कि सृजन के प्रति हम कितने उदासीन हैं ।
शान्ति निवास, १४ उषा नगर, इन्दौर- ४५२००२
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गोम्मट मूर्ति की कुण्डली -
'श्रवणबेलगोल' के गोम्मट स्वामी की मूर्ति की स्थापनातिथि १३ मार्च सन् १८१ मानी गई है। वस्तुत सम्भव है कि यह तिथि हो मूर्ति की स्थापना-तिथि हो, क्योंकि भारतीय ज्योतिष के अनुसार 'बाहुबलि चरित्र' में मोम्मट मूर्ति की स्थापना की जो तिथि, नक्षत्र, लग्न, संवत्सर प्रादि दिये गये है, ये उस तिथि में अर्थात् १३ मार्च, ९८१ में ठोक घटित होते है । प्रतएव इस प्रस्तुत लेख में उसी तिथि और लग्न के अनुसार उस समय के ग्रह स्फुट करके लग्न कुण्डली तथा चन्द्रकुण्डली दी जाती हैं और उस लग्न कुण्डली का फल भी लिखा जाता है। उस समय का पञ्चांग विवरण इस प्रकार है
ज्योतिषाचार्य श्री गोविन्द पं
चाहिए कि षड्वर्ग कैसा है और प्रतिष्ठा में इसका क्या फल है ? इस वर्ग मे चार शुभग्रह पदाधिकारी है और दो क्रूर ग्रह । परन्तु दोनों क्रूर ग्रह भी यहां नितांत प्रशुभ नहीं कहे जा सकते है क्योंकि शनि यहां पर उच्च राशि का है। अतएव यह सौम्य ग्रहों के ही समान फल देने वाला है। इसलिए इस धड़वर्ग में सभी सौम्य ग्रह है, यह प्रतिष्ठा मे शुभ है और सग्न भी बलवान है; क्योंकि पवर्गकी शुद्धि का प्रयोजन केवल लग्न की सबलता अथवा निर्बलता देखने के लिए ही होता है, फलतः यह मानना पड़ेगा कि यह लग्न बहुत ही बलिष्ठ है । जिसका कि फल धागे लिखा जायगा। इस लग्न के अनुसार प्रतिष्ठा का समय सुबह ४ भज कर ३८ मिनट होना चाहिए क्योंकि ये लग्न, नवांशादि की ठीक ४ बज कर ३८ मिनट पर ही भाते हैं। उस समय के ग्रह स्पष्ट इस प्रकार रहे होंगे ।
नवग्रह स्पष्ट चक्र
राशि, २६ अंश ३६ रविचन्द्र भोम बुध गुरु शुक्र शनि राहु केतु ग्रह उसकी षड्वर्ग-शुद्धि
श्रीविक्रम सं० १०३८ शकाब्द ६०३ चैत्र शुक्ल पचमी रविवार घटी ५६, पल ५८, रोहिणी नाम नक्षत्र, २२ घटी, १५ पल, तदुपरान्त प्रतिष्ठा के समय मृगशिर नक्षत्र २५ घटी ४६ पल, धायुष्मान् योग ३४ घटी, ४६ पल इसके बाद प्रतिष्ठा समय मे सौभाग्य योग २१ पटी, ४६ पल ।
उस समय की लग्न स्पष्ट १० कला मोर ५७ विकला रही होगी। इस प्रकार है
-
Lov
११ १ २ १० १ ० ६
७ २
३ ५
0
गृह शनि
इस लग्न मे अर्थात् वृश्चिक का २४ २५
१०।२६।३६।५७ लग्न स्पष्ट का हुआ और नवांश स्थिर लग्न पाठवा है, इसका स्वामी मंगल है। प्रतएव मंगल का नवांश हुआ। द्रेष्काण तृतीय तुलाराशि का हुधा जिसका स्वामी शुक्र है त्रिशांश विषम राशि कुम्भ मे चतुर्थ बुध १४ २५ ४८ ११ २१ ४२ ५१ ३७ ३७ विकला का हुआ और द्वादशाथ ग्यारहवां धनराशि का दुधा जिसका स्वामी गुरु है । इसलिए यह षड्वर्ग बना
५८ ७८२४५ १०८४ ५६ २ ३
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गति (१) गृह - शनि, (२) होरा - चन्द्र, (३) नामवंश - मंगल, (४) शि-बुध, (५) द्रेष्काण - शुक्र, (६) ४५ ५२ ३७ / ५९ ४१ ५२ | |३१ ११ ११ विमति द्वादशांश गुरु का हुवा । प्रब इस बात का विचार करना
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६
६
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राशि
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अश
४३ ४१ २६ ५० ११ ३६ १३२१ २१ कला
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यहाँ पर 'ग्रहलाघव के अनुसार महगंण ४७८ हैं तथा चक्र ४९ है, करणकुतूहलीय महर्गण १२३५-६२ मकरन्दीय १६८८३२६ और सूर्य सिद्धान्तीय ७१४४०३६८४६५६ है । परन्तु इस लेख में ग्रहलाघव के महगंण पर से ही ग्रह बनाए गए हैं घोर तिथि नक्षत्रादिक के घटघादि भी इसीके मनुसार हैं ।
राहु
१
शक्र
उस समय की लग्न कुण्डली
रवि १२
१०
भौम ३
गुरु २
चन्द्र
४
बुध ११
ء
उस समय की चन्द्र- कुण्डली
भौम
३ गुरु
२
चंद्रमा
राहु १
शुक
११
९
गोम्मट मूर्ति की कुण्डली
बुध
शनि ७
कत
१२
रवि
१०
११५
प्रतिष्ठाकर्त्ता के लिए लग्नकुण्डली का फल
सूर्य
जिस प्रतिष्ठापक के प्रतिष्ठा समय द्वितीय स्थान में सूर्य रहता है वह पुरुष बड़ा भाग्यवान् होता है। गो, घोड़ा प्रोर हाथां प्रादि चौपाये पशुत्रों का पूर्ण सुख उसे होता है । उसका धन उत्तम कार्यों में खर्च होता है। लाभ के लिए उसे अधिक चेष्टा नहीं करनी पड़ती है। वायु और पित्त से उसके शरीर में पीड़ा होती है । चन्द्रमा का फल
यह लग्न से चतुर्थ है इसलिए केन्द्र में है साथ-ही-साथ उच्च राशि का तथा शुक्लपक्षीय है। इसलिए इसका फल इस प्रकार हुधा होगा ।
चतुर्थ स्थान में चन्द्रमा रहने से पुरुष राजा के यहाँ सबसे बड़ा अधिकारी रहता है। पुत्र मोर स्त्रियों का सुख उसे पूर्व मिलता है । परन्तु यह फल वृद्धावस्था में बहुत ठीक घटता है। कहा है
" यदा बन्धुगोबान्धवं रत्रिजन्मा नवद्वारि सर्वाधिकारी सदैव" इत्यादि
भौम का फल
यह लग्न से पंचम है इसलिए त्रिकोण में है और पंचम मंगल होने से पेट की प्रग्नि बहुत तेज हो जाती है। उसका मन पाप से बिलकुल हट जाता है और यात्रा करने मे उसका मन प्रसन्न रहता है । परन्तु वह चिन्तित रहता है और बहुत समय तक पुण्य का फल भोग कर धमर कीर्ति संसार में फैलाता है ।
बुधफल
यह लग्न में है । इसका फल प्रतिष्ठा कारक को इस प्रकार रहा होगा
लग्नस्थ बुध कुम्भ राशि का होकर अन्य ग्रहों के अरिष्टो को नाश करता है और बुद्धि को श्रेष्ठ बनाता है, उसका शरीर सुवर्ण के समान दिव्य होता है और उस पुरुष को वैद्य, शिल्प प्रादि विद्याओंों में दक्ष बनाता है । प्रतिष्ठा के वें वर्ष में शनि और केतु से रोग प्रादि जो पीड़ाएं होती है उनको विनाश करता है ।'
शनि केतु
१. "बुधो मूर्तिगो मार्जयेदम्यरिष्ट गरिष्ठा षियो वैखरीवृत्तिभाजः । जना दिव्यचामीकरीभूतदेह विकित्सावि दो दुश्चिकित्स्या भवन्ति ।।" "लग्ने स्थिताः जीवेन्दु मार्ग वबुधाः सुखका सदाः स्युः ।"
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११६, ३३, किरण गुरुफल
परन्तु यह तुला राशि का है। इसलिए उच्च का शनि यह लग्न से चतुर्थ है पोर चतुर्थ बृहस्पति अन्य पाप हपा प्रतएव यह धर्म की वृद्धि करने वाला पौर शत्रमों ग्रहों के परिष्टों को दूर करता है तथा उस पुरुष के द्वार को वश में करता है। क्षत्रियों मे मान्य होता है और पर घोड़ों का हिनहिनाना, बन्दोजनों से स्तुति का होना कवित्व शक्ति, धार्मिक कार्यों में रुचि, ज्ञान की बद्धि मादि मादि बातें हैं। उसका पराक्रम इतना बढ़ता है कि शत्रु शुभ चिह्न धर्मस्थ उच्च शनि के है। लोग भी उसकी सेवा करते हैं; उसकी कीर्ति सर्वत्र फैल जाती है और उसकी मायु को भी बृहस्पति बताता है ।
राहुफल शरता, सौजन्य, धीरता भादि गुणों की उत्तरोत्तर वृद्धि होती है।'
यह लग्न से तृतीय है प्रतएव शुभग्रह के समान फल का देने वाला है। प्रतिष्ठा समय . राह तृतीय स्थान मे
होने से, हाथी या सिंह पराक्रम मे उसकी बराबरी नही यह लग्न से तृतीय और राहु के साथ है। प्रतएव
कर सकते; जगत् उस पुरुष का सहोदर भाई के समान इसका फल प्रतिष्ठा के ५वें वर्ष में सन्तान-सुख को देना
हो जाता है। तत्काल ही उसका भाग्योदय होता है । सूचित करता है। साथ ही साथ उसके मुख से सुन्दर वाणी
भाग्योदय के लिए उसे प्रयत्न नही करना पडता है।' निकलती है। उसकी बुद्धि सुन्दर होती है। उसका मुख सुन्दर होता है और वस्त्र सुन्दर होते हैं। मतलब यह है कि इस प्रकार के शुक्र होने से उस पूजक के सभी कार्य
केतु का फल सुन्दर होते हैं।'
यह लग्न से नवम मे है अर्थात धर्म-भाव में है। इसके शनिफल
होने से क्लेश का नाश होना, पुत्र की प्राप्ति होना, दान यह लग्न से नवम है और इसके साथ केत भी है, देना, इमारत बनाना, प्रशसनीय कार्य करना प्रादि बातें
शुक्रफल
२. गृहद्वारतः श्रूयतेवाजिहषा द्विजोच्चारितो वेदघोषोऽपि तद्वत् । प्रतिस्पर्षितः कुर्वते पारिचर्य चतुर्थे गुरौ तप्तमन्तर्गतञ्च ।
--चमत्कारचिन्तामणि सुखे जीवे सुखी लोकः सुभगो राजपूजितः । विजातारि: कुलाध्यक्षो गुरुभक्तश्च जायते ।।
- लग्नचन्द्रिका मर्ष-सुख प्रर्थात् लन्न से चतुर्थ स्थान में बृहस्पति होवे तो पूजक (प्रतिष्ठाकारक) सुखी राजा से मान्य, शत्रमों को जीतने वाला, कुलशिरोमणि तथा गुरु का भक्त होता है। विशेष के लिए बहज्जतक १९वां
अध्याय देखो। ३. मुख चारुभाष मनीषापि चार्वी मुखं चारु चारूणि वासांसि तस्य ।
-बाराही साहिता
भार्गवे सहजे जातो धनधान्यसुतान्वितः । नीरोगी राजमान्यश्च प्रतापी चापि जायते ।।
- लग्नचन्द्रिका अर्थ-शुक्र के तीसरे स्थान मे रहने से पूजक धनघान्य, सन्तान प्रादि सुखो से युक्त होता है। तथा निरोगी, राजा से मान्य और प्रतापी होता है । बहज्जातक मे भी इसी भाशय के कई श्लोक है जिनका तात्पर्य यही है जो ऊपर लिखा गया है।
४. न नागोऽथ सिंहो भजो विक्रमेण
प्रयातीह सिंहीसुते तत्समत्वम् । विद्याधर्मधनयुक्तो बहुभाषी च भाग्यवान् ॥ इत्यादि अर्थ-जिस प्रतिष्ठाकारक के तृतीय स्थान में राहु होने से उसके विद्या, धर्म धन और भाग्य उसी समय से वृद्धि को प्राप्त होते हैं। वह उत्तम वक्ता होता है।
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होती है। पम्यत्र भी कहा है
गोम्मट मूर्ति की कुण्डली
'शिखी धर्मभावे वदा क्लेशनाशः सुतार्थी भवेन्म्लेच्छतो भाग्यबुद्धि" इत्यादि
मूर्ति और दर्शकों के लिए तत्कालीन ग्रहो का फल मूर्ति के लिए फल तत्कालीन कुण्डली से कहा जाता है। दूसरा प्रकार यह भी है कि चर स्थिरादि लग्न नवांश और त्रियां से भी मूर्ति का फल कहा गया है। लग्न, नवांशादि का फल
लग्न स्थिर और नवांश भी स्थिर राशि का है तथा त्रिशांशादिक भी वर्ग के अनुसार शुभ ग्रहों के हैं। अतएव मूर्ति का स्थिर रहना और भूकम्प, बिजली आदि महान् उत्पातों से मूर्ति को रक्षित रखना सूचित करते है । चोर डाकू यादि का भय नहीं हो सकता। दिन प्रतिदिन मनोज्ञता बढ़ती है थोर शक्ति अधिक प्राती है । बहुत काल तक सब विघ्न-बाधाम्रों से रहित हो कर उस स्थान की प्रतिष्ठा को बढ़ाती है। विपनियों का प्राक्रमण नहीं हो सकता और राजा महाराजा सभी उस मूर्ति का पूजन करते हैं। सब ही जन-समुदाय उस पुण्य-शाली मूर्ति को मानता है और उसको कोति सब दिशाओं में फेस जाती है प्रादि शुभ बातें नवांश और लग्न से जानी जाती है। चन्द्रकुण्डली के अनुसार फल
वृष राशि का चन्द्रमा है और यह उच्च का है तथा चन्द्रराशीश चन्द्रमा से बारहवां है मोर गुरु चन्द्र के साथ में है तथा चन्द्रमा से द्वितीय मंगल और दसवें बुध तथा बारहवें शुक्र हैं । प्रतएव गृहाध्याय के अनुसार गृह 'चिरंजीवी' योग होता है इसका फल मूर्ति को चिरकाल तक स्थायी रहना है। कोई भी उत्पात मूर्ति को हानि नहीं पहुंचा सकता है परन्तु यह स्पष्ट के अनुसार तात्कालिक लग्न से जब भायु बनाते है तो परमाणु तीन
५. एकोऽपि जीवो बलवांस्तनुस्थः सितोऽपि सौम्योऽयथवा बली चेत । दोषानशेषानिति
सद्यः
स्कंदो यथा तारकदेश्यवर्गम् ॥ गुणाधिकतरे लग्ने दोषपतरे यदि । सुराणां स्थापनं तत्र कर्तुरिष्टार्थसिद्धिदम् ॥
૨.
हजार सात सौ उन्नीस वर्ष ग्यारह महीने और १६ दिन जाते हैं।
मूर्ति के लिए कुण्डली तथा चन्द्रकुण्डली का फल उत्तम है श्रीर भनेक चमत्कार वहाँ पर हमेशा होते रहेगे । भयभीत मनुष्य भी उस मनुष्य भी उस स्थान मे पहुच कर निर्भय हो जायगा ।
इस चन्द्रकुण्डली में 'डिम्भारूय' योग है। उसका फल अनेक उपद्रवों से रक्षा करना तथा प्रतिष्ठा को बढ़ाना है। कई अन्य योग भी है किन्तु विशेष महत्वपूर्ण न होने से नाम नही दिये हैं।
प्रतिष्ठा के समय उपस्थित लोगो के लिए भी इसका उत्तम फल रहा होगा। इस मुहूर्त में बाण पचक पर्या रोग, चोर, अग्नि, राज, मृत्यु इनमे से कोई भी बाण नही है | अतः उपस्थित सज्जनों को किसी भी प्रकार का कष्ट नही हुआ होगा। सबको मगर सुख एवं शान्ति मिलो होगी।
इन लग्न, नवांश पर्यादिक मे ज्योतिष शास्त्र की दृष्टि से कोई भी दोष नहीं है प्रत्युत मनेक महत्त्वपूर्ण गुण मौजूद है। इससे सिद्ध होता है कि प्राचीन काल में लोग मुहूर्त, लग्नादिक के शुभाशुभ का बहुत विचार करते थे। परन्तु प्राज कल की प्रतिष्ठाम्रो मे मनचाहा लग्न तथा मुहूर्त ले लेते है जिससे अनेक उपद्रवों का सामना करना पड़ता है। ज्योतिष शास्त्र का फल प्रसस्य नहीं कहा जा सकता क्योंकि काल का प्रभाव प्रत्येक वस्तु पर पड़ता है और काल की निष्पत्ति ज्योतिष-देवों से ही होती है । इसलिए ज्योतिषशास्त्र का फल गणितागत बिल्कुल सत्य है प्रतएव प्रत्येक प्रतिष्ठा में पञ्चाङ्ग शुद्धि के अतिरिक्त लग्न, नवांश, षड्वर्गादिक का भी सूक्ष्म विचार करना अत्यन्त जरूरी है। 000
।
भवार्थ - इस लग्न में गुण अधिक है और दोष बहुत कम हैं अर्थात् नहीं के बराबर हैं। प्रतएव यह लग्न सम्पूर्ण परिष्टों को नाश करने वाला और श्री चामुण्डराय के लिए सम्पूर्ण प्रभीष्ट भय को देनेवला सिद्ध हुआ होगा।
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अंतिम श्रुतकेवली महान् प्रभावक प्राचार्य भद्रबाहु
- श्री सतीशकुमार जैन, नई दिल्ली
श्रवणवेल्गोल के अनेक शिलालेखों में प्राचार्य भद्रबाह रहे है । सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य की ही भांति वे ऐतिहासिक का उल्लेख हुअा है। भगवान महावीर की प्राचार्य महापुरुष हुए हैं । यद्यपि भद्रबाहु नामक कई प्राचार्य हुए परम्परा में स्वामी भद्रबाह अंतिम श्रुतकेवली हए है। हैं किन्तु यहां तात्पर्य उन्हीं प्रतिम श्रुतकेवली भद्रबाह से मुनियों प्रायिकानों, श्रावकों एवं श्राविकाओं का विशाल है जो प्राचार्य गोवर्धन के शिष्य तथा सम्राट चन्द्रगुप्त समुदाय भगवान महावीर का चतुर्विध संघ कहलाता था। मौर्य के गुरु थे। हरिषेण के बृहत् कथाकोष के अनुसार मुनिसंघ नो गणों अथवा वन्दो में विभक्त था जिनके चतुर्थ श्रुतकेवली गोवर्धनाचार्य ने ब्राह्मण दम्पति सोममध्यक्ष थे भगवान महावीर के ग्यारह गणधर अथवा शर्मा एवं सोमश्री के पुत्र को, उसकी प्रतिमा के कारण, प्रमुख शिष्य इन्द्रभूति (गौतम), अग्निभूति, वायुभूति, अपना योग्य शिष्य बनाने तथा प्रपना उत्तराधिकार सौंपने ध्यक्त, सुधर्म, मंडिकपुत्र, मौर्यपुत्र, प्रकम्पित, प्रचल, मेतार्य का निश्चय किया था। एवं प्रभास । ये सभी गणघर ब्राह्मण तथा उपाध्याय थे एवं ग्यारह अंग और चौदह पूर्व के ज्ञाता थे। महासती
गोवर्धनाचार्य द्वारा भद्रबाह को अपना उत्तराधिकारी चन्दना पायिका संघ की नेत्री थी और श्राविका संघ का
चयन करने को कथा उल्लेखनीय है। गिरनार की यात्रा संचालन होता था मगध की साम्राज्ञी चेलना द्वारा।
के पश्चात् विहार करते हुए पुद्रवर्षन देश के कोटिपुर उनके प्रथम समवशरण के मुख्य श्रोता थे मगध सम्राट
नामक नगर के समीप गोवर्धनाचार्य ने एक बालक को बिम्बिसार श्रेणिक । भारत के लगभग प्रत्येक भाग मे
अन्य बालकों के मध्य चौदह गोलियों को एक पर एक भगवान महावीर के अनुयायी होने के अतिरिक्त गान्धार,
पंक्तिबद्ध खड़ा करते हुए देखा । प्राचार्य उसकी बुद्धिमत्ता कपिशा, पारसीक प्रादि देशो में भी उनके भक्त थे।
से प्रभावित हुए । निमित्तज्ञान द्वारा उनको स्पष्ट हुमा
कि यही मेधावी बालक भली प्रकार शिक्षित एवं दीक्षित भगवान महावीर के ग्यारह गणघरों मे से इन्द्रभूति होने पर उनके प्राचार्य पद का सुयोग्य उत्तराधिकारी एवं सुधर्म के अतिरिक्त नो को उनके जीवन काल में ही बनेगा। बालक से उसके माता-पिता का पता ज्ञात कर निर्वाण पद प्राप्त हो गया था। भगवान महावीर को उन्होंने ब्राह्मण दम्पति से उस बालक को उचित शिक्षा निर्वाण लाभ हमा १५ अक्तूबर, ई० पू० ५२७ के देने के लिए ले लिया। गोवर्धनाचार्य ने बालक को ययोप्रातःकाल मे। उनके पश्चात् संघ नायक रहे गणधर चित शिक्षाएं देकर विद्वान शिष्य बनाने के उपरांत माताइन्द्रभूति भोर उनके पश्चात् गणधर सुधर्म। सुधर्माचार्य पिता के पास वापिस भेज दिया। किशोर विद्वान ने माताके निर्वाण के पश्चात् संघनायक हए अन्तिम केवली जम्बू- पिता से मुनिधर्म में दीक्षित होने की अनुमति मांगी जो स्वामी । उनके पश्चात् संघनायक रहे क्रमशः श्रुतकेवलो उन्होंने सहर्ष प्रदान की। गोवर्धनाचार्य ने दीक्षा उपरांत विष्णुनन्दि, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धनाचार्य एवं नाम दिया भद्रबाहु । मुनि भद्रबाह का जीवन मुनिचर्या में भद्रबाहु । उन्हें सम्पूर्ण श्रुत का यथावत ज्ञान था इसी व्यतीत होने लगा। वह जैनधर्म के धुरधर विद्वान बन कारण वह पांचों श्रुतकेवली कहलाये।
गये। प्राचार्य ने उन्हें अपने पट्र पर प्रतिष्ठित कर संघ स्वामी भद्रबाह जैन धर्म के महान प्रभावक भाचार्य का सब भार उमीं को सौंप दिया। उनके देहत्याग के
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अंतिम भुतकवली महान प्रभावक प्राचार्य भाबाट
पश्चात् भद्रबाह ने प्राचार्य पद धारण किया। वे चतुर्दश चन्द्रगिरि पर निर्मित चन्द्र गुप्त बसदि में शिल्पकार पूर्वघर तथा अष्टांग निमित्तज्ञानी ब्रतकेवली थे। अनेक दासोज द्वारा उत्कीर्ण १० जालीदार पाषाण चित्रफलकों क्षेत्रों में बिहार करते हुए अपने उपदेशों द्वारा उन्होंने में से अनेक चित्रफलको मे उपरोक्त घटनामों को चित्रित धर्म प्रचार एवं जन-कल्याण किया। विहार करते हुए किया गया है। वह संघ सहित उज्जयिनी भी पधारे एवं क्षिप्रा नदी के
___स्वामी भद्रबाहु जैन धर्म के महान प्रभावक प्राचार्य किनारे उपवन मे प्रवास किया। सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य
हुए है। कितनी अपूर्व रही होगी उनकी नेतृत्व शक्ति तथा उस समय अपनी उपराजधानी उज्जयिनी में ही राज्य
जैन धर्म के प्रसार के लिए उत्कट कामना । यह जान कर संचालन कर रहे थे। वे महारानी सहित उनके दर्शनों के
भी कि सुदूर दक्षिण में इतने विशाल सघ सहित जाने में लिए भाए पौर उनके संघ को पाहार के लिए निमंत्रित
मार्ग में कितने ही कष्ट आयेंगे, साधूनों को कभी-कभी किया। विधिपूर्वक उनकं संघ ने नगरी में माहार ग्रहण
निराहार भी रहना पड़ेगा, ऋतु सम्बन्धी तथा परीषह भी किया। प्राहार के निमित्त नगरी में पधारने पर वे एक
झेलने पड़ेंगे उन्होने प्रस्थान का निश्चय लेकर कितने दिन जैसे ही एक मावास-गृह के प्रांगन में प्रविष्ट हए
साहस का परिचय दिया। किन्तु जहा सघ ने सभी परीषहों झूले में झूलते हुए एक सर्वथा प्रकले शिशु ने उनको
को समभाव से भला, उस विशाल संघ द्वारा समस्त मार्ग सम्बोधित कर कहा-"जामो-जामो।" प्राचार्य भद्रबाह ।
मे धर्म प्रभावना भी कम नही हुई। स्थान-स्थान पर ने निमित्तज्ञान से जाना कि भविष्य उस क्षेत्र मे शुभ नहीं
दिगम्बर जैन साधुमो के कठोर प्राचरणमय जीवन तथा है, वहां बारह वर्ष का भारी दुर्भिक्ष पड़ने वाला है।
उनको शान्त तपस्या मद्रास सहस्रो-सहस्रो व्यक्तियों के वर्षा न होने से अन्नादि उत्पन्न न होगे तथा मुनिसघ को
हृदय मे जैन धर्म के उत्कट त्याग एवं सयम के प्रति मादर माहार मे भारी कष्ट होगा, सयम पूर्वक चर्या पालन
तथा मास्था अवश्य ही उत्पन्न हुए। कठिन होता जायेगा । बिना माहार लिए वह वापिस पा गये तथा संघ को भावी संकट से सूचित करते हुए दक्षिण उनके कणटिक में सघ सहित कटवप्र पर्वत, वर्तमान की मोर जाने का निश्चित किया।
चन्द्रागिरि पर पहुंचने के उपरान्त वह समस्त क्षेत्र जैन रात्री में सम्राट चन्द्रगुप्त ने भी सोलह प्रशुभ स्वप्न जयघोष से गुंजित हो उठा। श्रवणबेलगोल समस्त दक्षिणदेखे । वे उन स्वप्नों का फल ज्ञात करने के लिए प्राचार्य पथ में जैन धर्म के प्रसार के लिए केन्द्र-बिन्दु बन गया। भद्रबाह के पास पहुंचे। उन्होने स्वप्नों को भी पाने वाले कैसा अपूर्व रहता होगा उस समस्त स्थान का धार्मिक एवं संकट काल का सूचक बताया। स्वामी भद्रबाहु के सघ पवित्र वातावारण । प्राचार्य भद्रबाहु की ज्ञान-गरिमा से सहित दक्षिण में प्रस्थान करने के निश्चय को ज्ञात कर प्रभावित होकर अनेकों ने जैन धर्म अगीकार किया एवं सम्राट ने भी राज्य कार्य अपने पुत्र बिन्दुसार को सौंप वह मुनि धर्म में दीक्षित हुए। जैन धर्म का पालन करना पाचार्य से जैन मुनि दीक्षा ले ली। महान सम्राट एक तथा मृत्यु निकट होने पर सात्विक वृत्ति से सयम पूर्वक दिगम्बर साधु बन गये, सभी परीषहों को झेलने के लिए सल्लेखना-व्रत धारण कर ममाधिमरण पूर्वक देह त्याग सहर्ष तत्पर । धर्मोपदेश देते हुए प्राचार्य ने सष एवं करना उस काल में एक प्रचलित एवं धार्मिक महत्व को चन्द्रगुप्त सहित जिसमें लगभग बारह सहस्र साधु सम्मि- बात बन गई। चन्द्रगिरि के सर्वाधिक प्राचीन ६ठीं शती लित थे दक्षिण की भोर प्रस्थान करने की तैयारी की। के शिलालेख क्रमांक १ मे उल्लख है कि स्वामी भद्रबाहु यद्यपि राजपरिवार के अनेक सदस्यों एवं श्रेष्ठी वर्ग ने ने वहां से समाधिमरण पूर्वक देह त्याग किया तथा उनके उनसे वह क्षेत्र न छोड़कर जाने के लिए अनुनय की किन्तु पश्चात् उनके प्रमुख शिष्य चन्द्रगुप्त (दीक्षा नाम साधूमों की पर्या एवं संयम की रक्षा के लिए वह अपने प्रभाचन्द्र) तथा ७०० अन्य साधुनों ने समाधिमरण पूर्वक निश्चय पर अडिग रहे।
द्वारा देह त्याग किया।
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१२०, वर्ष ३३, किरण
अनेकान्त
भगवती प्राराधना की एक गाथा में भद्रबाहु को दिया। मुनि चन्द्रगुप्त (प्रभाचन्द्र) के अनुरोध पर समाधि का निम्नलिखित रूप में उल्लेख किया गया है- केवल वे ही उनकी सेवा के लिए वहा पर रुके रहे। प्रोमोवरिये घोराए भद्दबाहू य संकिलिटुमदी।
भद्रबाहु गुफा मे समाधिमरण-पूर्वक उनका देह त्याग हुमा। घोराए तिगिच्छाए पडियष्णो उत्तमं ठाणं ॥
उस समय चन्द्रगुप्त उनके पास ही थे। स्मृतिस्वरूप उस
गुफा में उनके चरण-चिह्र स्थापित है जिनकी पूजा की पर्थात् भद्रबाहु ने अवमोदर्य द्वारा न्यून माहार की जाती है। घोर वेदना सहकर उत्तम पुण्य की प्राप्ति की।
स्वामी भद्रबाह के प्रादेश पर विशाखाचार्य उस संघ दिगम्बर साहित्य में स्वामी भद्रवाहु के जन्म प्रादि के नेता हए और उस विशाल मनिसघ ने दक्षिण के पान्डय का परिचय हरिषेण कृत बृहत् कथाकोष, श्रीचन्द्र कथाकोष प्रादि देशो मे विहार कर धर्म प्रचार किया। तथा भद्र बाहु चरित प्रादि में मिलता है। श्वेताम्बर-साहित्य में उन पर सामग्री के श्रोत है कल्पसूत्र, आवश्यकसूत्र, नंदि बारह वर्ष के दुर्भिक्ष के समाप्त हो जाने के पश्चात् सूत्र, पार्षमंडलसूत्र तथा हेमचन्द्र का परिशिष्ट पर्व । दि० उस साधु संघ का मूल एव अधिकतर भाग स्थायी रूप से परम्परा में स्वामी भद्रबाहु द्वारा साहित्य रचना का कोई दक्षिण मे ही रह गया। श्रवणबेलगोल को प्रधान केन्द्र उल्लेख प्राप्त नही होता किन्तु श्वेताम्बर परम्परा के बनाफर दिगम्बर जैन साधु दक्षिण भारत के विभिन्न पनसार व्यवहारसूत्र, छेदसूत्र, प्रादि ग्रंथ श्रुतकेवली क्षेत्रो मे तथा सागर के निकट द्वीपों में भी जैनधर्म का भद्रबाहु द्वारा रचित माने जाते हैं। दिगम्बर परम्परा में प्रचार एवं प्रसार करने में लगे रहे। भद्रबाहु का पट्ट काल (प्राचार्य पद) २६ वर्ष (ई०पू० ३६४ से ई० पू० ३६५) तथा श्वेताम्बर परम्पग मे
भगवान महावीर के अहिंसा धर्म के अनुयायी मगध १४ वर्ष (ई० पू० ३७१ से ई० पू० ३५७) बताया गया
तथा उत्तर-पूर्वी भारत मे तो अनेक राजवंश थे ही, है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार उनका निधन ई० पू०
प्राचार्य भद्रबाह की धर्म प्रभावना के फलस्वरूप शताब्दियों ३६५ मे हपा जबकि श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार उनका
के अन्तराल के पश्चात् भी दक्षिण के अनेक प्रसिद्ध देवत्याग भगवान महावीर के निर्वाण वर्ष से १७०वे
राजवंश जैनधर्म से प्रभावित रहे और अनेक नरेश, मंत्री,
मामंत, अधिकारी, उच्च श्रेष्ठी प्रादि जैन धर्म के प्रनवर्ष मे अर्थात् ई० पू० ३५७ मे हुमा । ऐतिहासिक
. मान्यता के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्यकाल यायों बने रहे। तथा उनके दाग बविध पो ई० पू० ३२१ से ई० पू० २६८ पर्यन्त रहा है। स्वामी धर्म को संरक्षण मिलना रहा । भद्रबाह के प्राचार्य काल मे चन्द्रगुप्त उनके शिष्य रहे
दक्षिण मे ही अधिकांशतः वह महान जैनाचार्य हए अतएव जैन परम्परा एव इतिहास सम्मत काल के अनुसार
जिन्होंने अपने अगाध ज्ञान से शास्त्रार्थ मे अनेक प्रमुख उनके जीवन काल सम्बन्धित लगभग ७० वर्ष का अन्तर
जैनेतर विद्वानों पर विजय प्राप्त कर जैन धर्म के यश प्राता है। विद्वान उनका ऐतिहासिक काल निश्चित करने
को और उज्जवल किया तथा उसके महत्त्व एवं श्रेष्ठता की शोध-खोज में लगे हुए है ।
को स्थापित किया। जैन वाङ्मय का अधिकांश भाग अपना अन्तकाल निकट प्राया जानकर, कटवा पर्वत भी दक्षिण के महान जैनाचार्यों द्वारा सृजित हमा है। (चन्द्रगिरि) पर, स्वामी भद्रबाहु ने अपने समस्त संघ को दक्षिण मे जैन धर्म के विकास का श्रेय इस प्रकार मूलतः दक्षिण के पाण्ड्य प्रादि राज्यों की पोर जाने का आदेश प्राचार्य भद्रबाहु को ही प्राप्त होता है।
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हिन्दी कवि उदयशंकर भट्ट की काव्य-सृष्टि में बाहुबलि
- श्री राजमल जैन, नई दिल्ली जैन शलाका पुरुषों के चरित्र ने न केवल जैन कवियों नहीं पाया है ऐसी मेरी धारणा है। इसके अतिरिक्त बहत को ही प्रपितु जनेतर लेखकों एवं कवियों प्रादि को भी सेविद्वान बौद्ध और जन-ग्रंथों के इन प्रकरणों को इतिहासप्रेरित किया है। इनमें हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि पोर सिद्ध नहीं मानते। उदाहरणार्थ कुणाल-स्तुप के विषय में नाटककार स्वर्गीय उदयशंकर भट की भी गणना की जा ऐतिहासिकों में मतभेद है. उनके विचार से तक्षशिला का सकती है। उन्होने 'तक्षशिला" नामक एक खण्डकाव्य की कुणाल-स्तूप नहीं है। इसी तरह बाहुबली की कथा कोई रचना की है। यद्यपि कवि को इसमें भारत की सुविख्यात ऐतिहासिक प्रमाण नही रखती। परन्तु मैं इनको ऐतिप्राचीन नगरी या विश्वविद्यालयस्थली का गुणगान ही हासिक मानता है। उसका कारण यह है कि जैन-ग्रंथों में अभीष्ट है तदपि इस काव्यके पांच स्तरों (अध्यायों)." त्रिषष्टिशालाकापुरुषचरित्र ग्रंथ जहां धार्मिक प्राधार पर द्वितीय एवं तृतीय मे से दो मे तक्षशिला शासक लिखा गया है वहां उसमे जैन-साहित्यका इतिहास भी बाहवली की यशोगाथा का गान भगवान प्रादिनाथ का सम्मिलित है। इसी के प्राधार पर जैन इतिहास की सृष्टि स्मरण निम्नलिखित शब्दों से प्रारम्भ करते हुए किया हुई है। उन्होंने पुन: इस बात को दोहराया है कि "सारांश
यह है कि पुस्तक को उपादेय बनाने की दृष्टि से मैंने पाहतगामी ऋणभस्वामी, जैनधर्म मतहरे । कथाभागों को ऐतिहासिक मानकर ही लिया है।" इस तीर्थकर ये सुष्टिपूज्य, पथ सविवेक मतपूरे ॥ प्रकार कवि ने अपनी काव्यगत प्रावश्यकता के अतिरिक्त
भट्ट जी ने "सृष्टिपूज्य" शब्द का प्रयोम कर यह अपनी ऐतिहासिक मान्यता भी स्पष्ट शब्दों में व्यक्त कर मान्यता पुष्ट की है कि किसी समय भगवान ऋषभदेव सारे यह मत प्रकट कर दिया है कि जैन ग्रंथों के कथानकों को भारत में पूज्य थे। इस प्रकार मादिदेव को एक सत्य। भी उसी प्रकार ऐतिहासिक मान्यता दी जा सकती है जिस मानकर उन्होंने भरत और बाहुबलि के शासन पोर युद्ध प्रकार कि अन्य संप्रदायों के ग्रंथों को दी जाती है। मादि का वर्णन किया है। इन दोनों भाइयों के कथानक भागवत पुराण के पांच प्रध्यायों में भगवान ऋषभदेव पौर को भट्टजी ने हेमचंद्राचार्य विरचित त्रिषष्टिशलाकापुरुष- चक्रवर्ती भरत के चरित्र को अथकार की मायन्ता के परित्र से ग्रहण किया है किन्तु उन्होंने यह भी स्पष्ट कर अनुसार स्थान मिला है किन्तु सभवत: "तक्षशिला" एक दिया है कि वे इसे केवल एक जैन पौराणिक आख्यान ही प्रधान रचना है जिसमे भरत-बाहुबलि द्वंद्व युद्ध प्रकरण नहीं मानते अपितु उसे एक ऐतिहासिक घटना मानते हैं। को ऐतिहासिक मान्यता प्रदान की गई है। इस दृष्टि से उक्त काव्य की भूमिका में उन्होंने लिखा है :-यह कहना इस खंडकाव्य का अपना महत्व है । कवि ने अपनी रचना कठिन है कि पुस्तक के सारे ही कथाभाग इतिहाससिद्ध के लिए एक मोर जहां सर जान मार्शल को तक्षशिला हैं। कवियों की दृष्टि से जो मुझे उचित जान पड़ा उमी संबंधी खोजों से सामग्री ली है, वहीं अनेक जैन ग्रंथों यथा के अनुसार कथा को मैंने लिखने का प्रयास किया है। मावश्यक नियुक्ति, प्रभाबक चरित्र, दर्शन रत्नाकर हरिवर्णन-प्रसंगों मे, बातचीत में, विचार-शृखला को मुख्यता सौभाग्य, शत्रुजय महात्म्य मादि जैन ग्रंथों से भी तथ्य दी गई है फिर भी पुस्तक का ऐतिहासिक रूप बिगड़ने संग्रह कर तक्षशिला की ऐतिहासिक गाथा को है। १. इंडियन प्रेस लिमिटेड, प्रयाग से १९३५ में प्रकाशित ।
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१२२, वर्ष ३३, किरण ४
अनेकान्त
क्षशिला की गौरवगाथा के गाने में मन्य कोई कवि स्वामी भरत के दूत से सभी की.ल पूछी। दूत ने भारत तक्षशिलाधिप बारबलि के बड़े भाई चक्रवर्ती भरत के की प्रजा, विशाल साम्राज्य मादि की चर्चा करते हुए चरित्र को सभवतः अपने नायक की तुलना मे हीन दिखाने चक्रवर्ती के मन का शुल इस प्रकार सुनाया-(सारे नप का प्रयास कर सकता था क्योंकि बाहुबलि का उनसे युद्ध उन्हे सिर नवा कर भेंट देकर अधीनता स्वीकार चुके हुमा था किंतु भट्ट जी ने ऐसा नहीं किया। भरत को किन्तु...) गुरुता को उन्होंने निम्न शब्दों में व्यक्त किया है
वा समान कठोर माप हो, भरत पयोध्या के राजा थे,
केवल निकट न पाये। मुकुट मोलि पृथ्वी के।
भ्रातभाव की रक्षा करने, मनोनीत सम्पन्न प्रजा के,
कोई भेंट न लाये। गुरु थे ज्ञान पनी के।
है अवज्ञा यह नप, इस प्रकार भरत का यह चित्रण जैन परंपरा से मेल
वर्षन अच्छा है। खाता है जिसके अनुसार चक्रवर्ती भरत की प्रजा सभी
दूत ने बाहुबलि से यह भी निवेदन किया कि उन्हें प्रकार से सुखी थी और वे स्वयं ज्ञान और तप की बड़े भाई का आदर करने की दृष्टि से भी प्रयोध्या बल मूर्ति थे।
कर चक्रवर्ती की प्रवीनता स्वीकार कर लेनी चाहिए । द्वितीय स्तर के प्रारम्भ में भट्ट जी ने अपनी काव्यमय दूत को चतुराई की प्रशंसा करते हुए बाहुबलि ने कहा कि भाषा में बाहुबलि के सुशासन का चित्र खींचते हुए लिखा "बड़े भाई उनके लिए पिता के समान पूज्य है" किन्तु है कि उनके राज्य में "कुत्सित पौर कुटिल" जैसे शब्द कौटिल्य शास्त्र के सब रहस्य सीखे हुए अपने बड़े भाई के केवल शब्दकोशों में ही पाए जातेथे । बाहुबलि के सभी विषय मे शंका व्यक्त करते हर कहा कि मेरे बड़े भाई ने प्रजाजन संपन्न भौर साक्षर थे। उनके शासनकाल में अन्य राज्यों का तो सर्वस्व हरण कर लिया है फिर मैं कैसे तक्षशिला इद्र की प्रपर या दूसरी नगरी ही लगती थी। यह मान लं कि मेरे प्रति उनका प्रेम खारा है । अंतर्यापी ऐसी नगरी मे
ऋषभ-स्वामी हमारे पिता हैं यह तो ठीक है मगर कहीं पाप का नाम नहीं था,
(भरत)कही न भेव बचन में।
दे स्वामी मैं अनुचर यह तो, कहीं न कटनीति का परिचय,
वाम्भिक नीति विषम है। कहीं न ईर्ष्या मन में।
यदि मैं बच समान पुरुष, पोर इस नगरी का शासक शौर्य-वीर्य की मूर्ति होने
हूं यह स्वभाव यदि मेरा। के साथ-ही-साथ रूप-राशि का भी धनी था। प्रजा का
तो अभेद्य प्रविजेय रहंगा, रजन करने में व्यस्त होने के साथ-ही-साथ यह शासक
व्यर्थ विवाद घनेरा।। शास्त्र-पाठ और चिन्तन-मनन में रत रहता था।
बाहुबलि का यह उत्तर सुन कर दूत तिलमिला कर इतने लोकप्रिय राजा के जीवन मे उस समय क्षुब्धता
चला गया। भरत ने जब अपने वीर-वृत्ति, उद्धृत बल उत्पन्न हुई जब चक्रवर्ती भरत के दूत ने अयोध्यापति का
छोटे भाई की कुशल और उत्तर पूछा, तो दूत ने उन्हें स देश उन्हें सुनाया।
बताया कि साम, दाम मादि उसकी सभी नीतियां विफल दूत के प्रागमन को कवि ने मानों शर का पागमन हो गई क्योंकि "उन्हें बांधना सिंह को बांधना" और वे तो बताते हुए नप बाहुबलि की कल्पना भी सदेह मनु के रूप केवल "संग्राम साध्य है। भरत ने स्वीकार किया कि मे की है। उधर बाहुबलि ने भी "नय की परंपरा से" उनका छोटा भाई स्वभाव से ही कड़ा है। मगर मत्री न "सुवेग नामक" कामादिक षट शत्र विजेता, छह खंडों के यह सलाह दी कि यदि वे चक्रवर्ती की अवज्ञा करने वाले
पा
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हिन्दी कवि उदयशंकर भट्ट को काव्य-सृष्टि में बाहुबलि
अपने अनुज को दंड नहीं देंगे तो कर्तव्यच्युत होंगे प्रतः "युद्ध-soft ही शुद्ध मंत्रणा " दी। जब भरत ने इस पर इति भर दी, तो युद्ध की तैयारियां शुरू हो गई। इस प्रसंग पर भट्ट जी ने लिखा है
इस प्रकार विवेकशून्य, भूपति ने रथ की हामी । भ्रातृभाव की हुई हानि विजयी सलामी ॥
परिणाम यह हुआ कि चक्रवर्ती की प्रगणित सेना प्रश्व पक्तियाँ, गजालियाँ सैन्य सागा-सी तक्षशिला की ओर चल पड़ीं कवि के कथानक के अनुसार देवता यह देख कर घबरा गए और उन्होंने भरत से निवेदन किया कि आप देवपति सम हैं और आप का कोई प्रतिस्पद्ध नहीं हैं और प्राप जरा यह विचार तो करते कि दो भाइयों के इस युद्ध में "विनाश जीव का होगा" किन्तु भरत ने कहा कि अभिमानी का मान तोड़ना भी तो राजा का कर्तव्य है । इस पर देवों ने प्रस्ताव रखा कि यदि युद्ध प्रावश्यक ही है तो दोनों भाई ही आपस में लड़ से मोर इस बात के लिए वे बाहुबलि को भी राजी कर लेंगे भरत ने जब यह प्रस्ताव मान लिया, तो भरत की सेना बड़ी निराश हो गई मगर बाहुबलि ने उत्तर दिया"विनय, नीति, मति, शुद्ध न्याय से किंचित भी न टरूंगा जंसी इच्छा हो भाई की मैं भी वही करूंगा"
क्योंकि "मनुजनाश से यही भला है ।" इस प्रकार तक्षशिला शासक बाहुबलि ने संसार के सामने एक हिंसक युद्ध का प्रथम उदाहरण प्रस्तुत किया ।
एक रम्य अखाड़े मे दोनो भाई अनगिनत दर्शकों के समक्ष इन्द्र युद्ध के लिए उतर पड़े। इस महल युद्ध का वर्णन करते हुए कवि ने लिखा हैहुई युद्ध की वृष्टि-सी गर्जना, महाताल-सी ताल की तर्जना । fear वज्रनिर्घोष यो लक्ष ने नंग स्फोट जाना प्रजापक्ष ने ।।
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किन्तु इस मल्ल युद्ध में विजयश्री बाहुबलि को मिली और भरत भूमि पर गिर पड़े ( कवि के अनुसार ) पौर चारों तरफ हाहाकार मच गया। यहाँ यह उल्लेख कर देना उचित होगा कि कवि ने जल बुद्ध, दृष्टि युद्ध और भरत द्वारा बाहुबलि पर पक चलाए जाने की घटनाओं को छोड़ दिया है। इसी प्रकार इस वर्णन में वह भी परिवर्तन है कि बाहुबलि ने अपने बड़े भाई को जमीन पर नहीं गिराया था भवितु उन्हें अपने दोनों हाथों में कार
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उठा लिया था प्रौर भरत को नीचे गिराने का भाव प्राते ही उन्हें वैराग्य हो गया था और वे इस प्रकार अपने बड़े भाई का अपमान करने के दोष से बच गए थे जो मो हो, कवि ने बाहुबलि की उस समय की मनःस्थिति का संक्षिप्त किन्तु सशक्त वर्णन किया है जो निम्न प्रकार है"विस्मृत हुई विजय की इच्छा वंश रक्त गरमाया । मोती से ] a [लके, भ्रातृप्रेम अकुराया ॥ हाय वहां विषरस घोला, इस कुल की परम्परा में । यौवन, राज्य विजय को, इच्छा है ये पाप घरा में || जग विश्रुत ऋषभस्वामी का मैं कुपुत्र सुप्रतापी । भ्रातृहनन को हुआ व्यय हा प्रत्युत्कृष्ट नशा पो । वनजन्य उपचारों द्वारा मूर्च्छा से वे जागे । विह्वल हृदय निरस भ्राता को स्वयं प्रेम गाढ भुजग से प्रालिंगन कर अपनी निन्दा लज्जा व विनय रस साने, स्नेह सुपा से भरके ।। प्रभु-बिंदु से चरण कमल घो, बाहुबलि यो बोले । भ्रान्ति हुई मम दूर ज्ञान ने चक्षु-पटलचई खोले । सब कुछ सौंप भरत भूपति को मिया विराग सभी से निस्पृह, निर्मम निभय हो सब त्यागा जग निज जी से ।। समाधिस्थ हो सत्पथ देखा, परब्रह्म पद पाया । जीवनभूति ज्वलन्त निरख सबजनेश भुकाया ।।
से
पायें |
करके ।
।।
यह ऊपर कहा जा चुका है कि उदयशंकर भट्ट ने अपना कथानक हेमचंद्राचार्य के त्रिशष्टिशलाका पुरुषचरित्र से लिया है किन्तु उसमे अंतिम प्रकरण इस प्रकार दिया गया है। बाहुबली ने जब रुष्ट होकर भरत पर प्रहार करने के लिए मुष्टि उठाई तब सहसा दर्शको के दिल कांप गए मौर सब एक स्वर में कहने लगे "- क्षमा कीजिए, सामर्थ्यं होकर क्षमा करने वाला बड़ा होता है। भूल का प्रतिकार भूल से नहीं होता। बाहुबली शान्त मन से सोचने लगे"ऋषभ की सन्तानों की परम्परा हिंसा की नहीं, ि महिसा की हैं। प्रेम ही मेरी कुल परम्परा है किन्तु उठा हुमा हाथ खाली कैसे जाए ?" उन्होंने विवेक से काम लिया। अपने उठे हुए हाथ को अपने ही सिर पर ना घोर वालों का लुंचन कर वे भ्रमण बन गए। उन्हो ऋषभदेव के चरणो मे बड़ी से भावपूर्वक नमन किया और कृत अपराध के लिए क्षमा प्रार्थना की।" इस प्रकार कवि ने कथा के प्रतिम भाग में भी किंचित परिवर्तन किया है।
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श्री पुण्य कुशल गणि और उनका 'भरतबाहुबलि-महाकाव्यम्'
- महामहोपाध्याय डॉ० हरीन्द्रभूषण जैन, उज्जैन
'भरतबाहुबलि महाकाव्यम्' विक्रम की १७वीं शती में केवल पदों का संक्षिप्त पर्थ होता है। यह प्रस्तुत काव्य के प्रभावक प्राचार्य, श्री पुण्यकुशलगणि की संस्कृत का व्याख्या-ग्रन्थ है। यह अपूर्ण उपलब्ध हुई है। इसमें भाषा में निबद्ध एक मनोहर रचना है। इसकी पञ्जिका भरतबाहुबलि महाकाव्यम् के ग्यारहवें सर्ग तक की नामक एक लघुटीका भी उपलब्ध है जिसका कर्तृत्व व्याख्या है। सुनिश्चित नही है। पत्रिका के साथ इस महाकाव्य का पंजिका के प्रत्येक सर्ग के अन्त में एक इलोक सुन्दर प्रकाशन सर्वप्रथम ई० १९४७ मे भगवान महावीर जिसके द्वितीय एवं चतुर्थचरण प्रायः भिन्न है और प्रथम की २५वी निर्वाण शती के उपलक्ष्य मे "विश्व भारती' एव तृतीय चरण सभी में समान है। तृतीय चरण में लाडन् (राजस्थान) से किया गया। इस प्रकाशन के प्रेरक 'पुण्यकुशल' शब्द का प्रयोग मिलता है। श्वेताम्बर तेरह पथ के पाचार्य श्री तुलसी गणि, सम्पादक कथाबस्तु : मुनि श्री नथमल भौर हिन्दी अनुवादक मुनि श्री महाराज भरत ने समस्त पार्यावर्त का राज्य अपने दुलहराज हैं।
सौ पुत्रों में विभक्त कर प्रवज्या ग्रहण की। ज्येष्ठ पुत्र काव्यकर्ता और उनका समय:
भरत को पयोध्या तथा द्वितीय पुत्र बाहुबली को बहलीसस्कृत साहित्य की परम्परा के अनुसार काव्यकर्ता प्रदेश (तक्षशिला) का राज्य प्राप्त हुमा । श्री पुण्यकुशलगणि ने काव्य मे अपना नाम कहीं पर भी
सम्राट भरत सम्पूर्ण भारत की दिग्विजय यात्रा करके नहीं लिखा है। तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि प्रत्येक
जब अपनी राजधानी लौटे तो उनका चक्ररत्न प्रायुधशाला सर्ग के अंतिम इलोक में 'पुण्योदय' शब्द का प्रयोग करके
में प्रविष्ट नही हुमा क्योंकि उनके मनुज महाराज बाहुबली उन्होंने अपने नाम का संकेत कर दिया है। यथा
ने चक्रवर्ती सम्राट् भरत के शासन को स्वीकार नहीं "भरतनपतिवारः सोऽथ संयोज्य प्राणी
किया था। भरत ने बाहुबली को अपना शासन स्वीकारने क्षितिपतिमवनम्यात्यन्तपुण्योदयादयम् ।" (७६) का संदेश देकर एक दूत को उनके पास भेजा। काव्य का (भरतबाहुबलि महाकाव्यम् -प्रथम सगं अंतिम इलोक) प्रारंभ यहीं से होता है।
पञ्जिकायुक्त प्रति में प्रत्येक सर्ग के प्रत में सर्गपूति जब महाराज बाहुबली ने भरत के शासन को को कुछ पंक्तियां लिखी हैं, उनसे ज्ञात होता है कि श्री स्वीकार नहीं किया तो भरत ने अपने सेनापति के परामर्श पुण्य कुशलगणि तपागच्छ के श्री विजयसूरी के प्रशिष्य से युद्ध की घोषणा कर दी। दोनों की सेनामों में घमासान भौर पं० सोमकुशलगणि के शिष्य थे। उन्होंने प्रस्तुत युद्ध हुमा। युद्ध की भीषणता को देख कर देवगण भूमि काव्य विजयसेन सरि के शासनकाल मे लिखा । विजयसेन पर पाए और दोनो को संबोधित किया। अंत मे निश्चय सूरी का पस्तित्व काल विक्रम की १७वीं शती है। प्रतः हुमा कि सर्व-सहारी हिंसा से बचाने के लिए दोनों योबा, यह मानना उपयुक्त होगा कि प्रस्तुत काव्य की रचना प्रापस मे दृष्टि, मुष्टि, शब्द मोर दण्ड युद्धों के द्वारा विक्रम को १७वीं शताब्दी के मध्य हुई।
विजय का निर्णय करें। पंजिका :
सम्राट् भरत चारों युद्धों मे बाहुबली से हार गए । 'पंजिका पद्धज्जिका' इस वाक्य के अनुसार पंजिका प्रतिशय कोष में भरत ने परत्न से बाइबलीको मष्ट
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मी पुण्य पुल मनि और उनका 'भरत बाहुबलि महाकाव्यम्'
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करने की धमकी दी और बाहुबली रोष से मुष्टि प्रहार इस संबंध में मेरा मत है कि यद्यपि इसमें नायक के करने के लिए भरत को भोर दौड़ पड़े। किन्तु देवतामों जीवन का सर्वाङ्गीण चित्रण न होकर केवल युद्ध का द्वारा प्रतिबद्ध होने पर उन्होंने अपनी मष्टि का प्रयोग केश- प्रसप्रधान रूप से वणित है, फिर भी य खंचन के लिए किया, और वे महाव्रतधारी मुनि बन गए। धारी शिव और अर्जुन के युद्ध को एकाङ्ग-घटना के होने यह देख सम्राट् भरत भी उनके चरणों में विनत हो गए। पर भी, 'किरातार्जुनीयम्' को महाकाव्य के प्रन्य उपादानों
तपः संख्द बाहुबली के मन में 'मह' का अंकुर के कारण सर्वसम्मत महाकाव्य माना जाता है तो फिर विद्यमान था। प्रतः कठोर तप करने पर भी एक वर्ष तक उसके ही समान 'भरत बाहुबलि-महाकाव्यम्' को महाउन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई। भगवान् ऋषभ द्वारा काव्य माने जाने में कोई मापत्ति नही होना चाहिए । प्रेरित प्रवजित वाह्मी पौर सुन्दरी (नामक वहिनों) के रस, अलङ्कार और छन्दोयोजना : द्वारा प्रतिबद्ध बाहुबली को 'अहं' का त्याग करते ही रस-यद्यपि काव्य मे 'वीर' और 'श्रृंगार' रस सर्वत्र निराबरण ज्ञान की उपलब्धि हुई। अन्त में भरत को भी दिखाई पड़ते हैं, फिर भी इन दोनों रसों का समापन, वैराग्य हपा और उन्होंने दीक्षा धारण कर केवलज्ञान को बाहबली भोर भरत के द्वारा तपः साधना कर कैवल्यप्राप्त किया।
प्राप्ति के रूप में होता है, प्रतः 'शान्त' ही इस काव्य का महाकाव्यत्व:
मङ्गी रस माना जाना उपयुक्त है। सर्वत्र वणित होकर 'भरत बाहुबलि महाकाव्यम्' शास्त्रीय-दृष्टि से एक भी 'बार' मार शृङ्गार' अङ्ग रस के रूप में समझना
चाहिए। महत्त्वपूर्ण महाकाव्य है । दण्डी (काव्यादर्श-१.१४-१९),
प्रलंकार-प्रस्तुत काव्य में कवि ने शब्दालंकार और विश्वनाथ कविराज (साहित्य दर्पण-६.१५-२५), हेमचन्द्र
मलकार का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया है। उपमा (काव्यानुशासन-८.६) मादि पालंकारिकों ने महाकाव्य
पौर उत्प्रेक्षा की अपेक्षा प्रान्तरन्यास का अधिक मात्रा की जो परिभाषाएँ दी हैं. तदनुसार प्रस्तुत काव्य महा- में प्रयोग है। काव्य की कसौटी पर खरा उतरता है।
शब्दालंकारों में यद्यपि अनुप्रास, इलेष मादि मलकार इसकी रचना पठारह सगों में की गई है। क्षत्रिय- सर्वत्र दिखाई देते हैं, फिर भी यमकालकार पर कवि का कूल के धीर-प्रशान्त पौर वीर शिरोमणि, बाहुबली इसके विशेष प्राग्रह प्रतीत होता है। पूरा पंचम सर्ग यमकानायक है। इसका मुख्य रस 'शान्त' है। 'वीर' एवं लकार से भरा है। इस सर्ग के ७५ इलोकों में यमका. 'श्रृंगार' इसके गौण रस हैं। प्रत्येक सर्ग के मत में छन्द
लंकार प्रयुक्त है। जैसे :लकार प्रयुक्त है। जस:
"इति चमूमवलोक्य चम्पतिः, का परिवर्तन किया गया है। वृत्त को अलंकृत करने के लिए प्रकृति वर्णन, चन्द्रोदय, वन विहार, जल कोडा, ऋतु
प्रगणित गणितांतक विग्रहाम् । वर्णन, वन, पर्वत, समुद्र, रात्रि, प्रदोष, अन्धकार मादि
नपतिमेवमुवाच तनूभवबसमय: समयः
शरवस्त्वयम् ॥" का मनोहारी वर्णन है। वीर रस के प्रसंग में दिग्विजय,
यहां पर, चमू गुणितां तथा समयः, विभिन्न प्रों युद्ध, मन्त्रणा, शत्रु पर चढ़ाई प्रादि विषयों का साङ्गोंपाङ्ग
वाले इन तीन शब्दों की प्रावृति होने से यमकालकार है। यर्णन है। काव्य का मुख्य उद्देश्य धर्म की विजय है।
पर्थालंकारों में प्रर्थान्तरन्यास कवि का प्रतिप्रिय कुछ पालोचक (मुनि श्री नथमल-भरत बाहुबलि
अलंकार है। इसमें सामान्य-विशेष कपनों का विशेषमहाकाव्यम'-प्रस्तुति, पृ० १३.१४) इसे न तो महा. सामान्य कथनों के द्वारा समर्थन होता है। विशेष सामान्य काव्यम्' प्रस्तुति, पृ०१३-१४) इसे न तो महाकाव्य मानते
द्वारा समर्थन का सुन्दर उदाहरण देखिए । मौर व खण्डकाव्य, किन्तु वे इसे दोनों काव्यों के लक्षणों "तात्मजेन्यो विहितानतिभ्यः प्रत्यपि पत्र भरतेन राज्यम् से समन्वित काव्य की किसी तुतीय विधा में रखने कोप:प्रणामात होसमानामनसमाना बननावविहि।" पक्षपाती है।
(म० वा. म०२-८०)
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(भाइयो के पुत्र भरत का प्राचिपत्य स्वीकार कर नत हो गए। उनको भरत ने छीना हुम्रा पैतृक राज्य पुनः सौंप दिया। क्योंकि उत्तम व्यक्तियों के कोच की अवधि प्रणाम न करने तक और प्रथम व्यक्तियों के कोष की अवधि जीवन पर्यन्त होती है।)
इसी प्रकार उपमा उत्प्रेक्षा, पोष दृष्टान्त पाटि अलंकारों का यथास्थान प्रतिमनोहर प्रयोग हुआ है ।
छन्द - प्रस्तुत काव्य में वर्ण विषय के अनुसार कवि ने छन्दों का प्रयोग किया है। इसमें १८ सगं और १५३५ श्लोक है । स मे मुख्य रूप से प्रयुक्त छन्द पाठ हैं :वंशस्थ, उपजाति, धनुष्टुप, वियोगिनी, द्रुतविलम्बित, स्वागता, रथोद्धता और प्रहर्षिणी उपजाति का सबसे अधिक प्रयोग है। सर्ग के अन्त में प्रयुक्त छन्द बड़े है । जैसे:-मालिनी, वसन्ततिलका हरिणी, पुष्पिताया, शार्दूलविक्रीड़ित, शिखरिणी मन्दकांता पोर गधरा इनमें वसन्ततिलका का प्रयोग सबसे अधिक है। भाषा और शैली
भाषा - काव्य में भाषा की जटिलता नहीं है । ललित पदावली में सरलता से गुम्फित अर्थ पाठक के मन को मोह लेता है । पद- लालित्य और अर्थ - गाम्भीर्य, ये दोनों काव्य की भाषा की विशेषताएं है।
शेली -- काव्य में तीन गुण मुख्य माने जाते हैमाधुर्य प्रसाद और भोज माधुर्य धौर प्रसाद वाली रचना में समासान्त पदों का प्रयोग नहीं होता। भोज गुण वाली रचना में समास बहुल पद प्रयुक्त होते हैं । प्रस्तुत काव्य में प्रसाद और माधुर्य, दोनों गुणों की प्रधानता है। कहीं-कही युद्ध यादि के प्रसंग में घोज गुण भी परिलक्षित होता है ।
रीति या शैली की दृष्टि से प्रस्तुत रचना वैदर्भी मोर पाचाली तो की है। कहीं-कहीं गोणी शैली फा भी प्रयोग है ।
दोष
नीरसता – कथानक के संक्षिप्त होने का कारण काव्य के कलेवर को बढ़ाने के लिए वर्णनों, वार्तालापों मादि का इतना अधिक विस्तार कर दिया है कि कहीं
कहीं पर नीरसता प्रतीत होने लगती है।
मनोचित्य - नेक देश के राजा-महाराजाओंों की सेना के साथ युद्ध के लिए प्रस्थान करने के पश्चात् षष्ठ एवं सप्तम सर्ग मे महाराज भरत का उपवन में प्रवेश कर, धन्तःपुर की रानियों के साथ वन विहार और जल फोड़ा के प्रसंग मे सेलियों का वर्णन रम-निवेश की दृष्टि से अनुचित प्रतीत होता है।
"
पूर्व कवियों का प्रभाव
प्रस्तुत काव्य पर दो महाकवियों का अत्यधिक प्रभाव परिलक्षित होता है- प्रथम भारवि और द्वितीय कालि
दास |
काव्य में भारवि के किरातार्जुनीयम्' से घनेक बातें प्रादर्श रूप में ग्रहण की गई है काव्य का प्रारम्भ दूत प्रेषण से प्रत्येक सर्ग के अन्त मे किसी विशेष शब्द का पुनः पुनः प्रयोग ( 'लक्ष्मी' शब्द का किरातार्जुनीयम् मे तथा 'पुण्योदय' शब्द का भरत बाहु० महा० मे) भादि ।
इसी प्रकार कालिदास में रघुवंश से भी प्रस्तुत काव्य में अनेक बातों की समानता है घुदिग्विजय (रघुवंश चतुर्थ सर्ग) से भरत के दिग्विजय (भरत वा० महा० द्वितीय सर्ग) की, मगध, अङ्ग प्रादि देशों के राजाओं के वर्णन ( रघुवंश षष्ठ सर्ग) से, श्रवन्ति, मगध, कुरु प्रादि देशों के राजी के वर्णन (भरत बा०] महा० द्वादश सर्ग) को, प्रादि ।
निष्कर्ष :
प्रस्तुत महाकाव्य संस्कृत साहित्य को एक पूर्व निधि है। यह प्रावधि विद्वानों से अपरिचित है। 'बृहत्त्रयी' किरातार्जुनीयम् से इसकी समानता है। मारवि अर्थ गौरव के लिए प्रसिद्ध हैं । प्रस्तुत काव्य में पद-पद पर उपलब्ध सूक्तियों के कारण यह काव्य भी धयं गौरव का अच्छा निदर्शन बन गया है ।
यह महाकाव्य रस, अलंकार, ध्वनि सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण है के महाकाव्यों की श्रेणी में महती योग्य है ।
रीति, भाषा, भाव, प्रतएव यह संस्कृत प्रतिष्ठा प्राप्त करने के
विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन
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साहित्य-समीक्षा
पावितीर्थ प्रयोध्या---लेखक : डा. ज्योतिप्रसाद जैन । प्रकाशक : उत्तर प्रदेश दि० जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी, लखनऊ। प्रथमावृत्ति १९७६%सचित्र, पृ० सं० ११४; मूल्य ३/- रु०।
विद्वान् लेखक प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता, इतिहासकार पौर अनेक गवेषणापूर्ण ग्रन्थो के रचयिता हैं। प्रस्तुत पुस्तक को १२ परिच्छेदो में विभक्त किया गया है जिनमे क्रमश. जैनधर्म और तोर्थ 'अयोध्या' स्थिति, नाम इतिहास, पुरातत्व, अयोध्या का मास्कृतिक महत्व, साहित्यगत वर्णन, तीर्थकरी की जन्मभूमि, महावीरोत्तर इतिहास, धर्मायतन
और दर्शनीय स्थल, विकास और व्यवस्था, अयोध्या तीर्थ, पूजन एव माहात्म्य, अयोध्या जिन स्तवन, दिगम्बरत्व तथा जन परम्परा की प्रधानता प्रादि विषयों पर सप्रमाण प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है। प्रादि तीर्थ अयोध्या के विषय मे यह प्राय: सर्वांगपूर्ण कृति है जो स्वविषय पर सभी दष्टियो से प्रकाश डालती है।
चेतना का अर्वारोहण-लेखक मुनि श्री नथमल। प्रकाशक प्रादर्श साहित्य संघ, चुरू (राजस्थान); पृष्ठ १९७; १९७८; मूल्य १३/- रुपये।
मुनिवर श्री नथमल जी की यह कृति चेतना के विकास पर एक प्रामाणिक और साद्यन्त पठनीय कृति है। समीक्ष्य कृति का १९७१ मे एक लघु संस्करण भी प्रकाशित हुपा था।
प्रस्तुत ग्रंथ में चेतना के ऊवारोहण की प्रक्रिया, उसे जानने के उपायों भौर विधियों, उसके व्यवहार्य स्वरूप आदि पर प्रकाश डाला गया है। इसके दो खण्ड हैचेतना का ऊर्ध्वारोहण तथा चेतना और कर्म । यह ग्रथ १७ अध्यायों में समाप्त हुआ है तथा इसका १०वां मोर ११वां अध्याय विशेष पठनीय है। इन अध्यायों में कर्म की रासायनिक प्रक्रिया पर विश्लेषणात्मक दृष्टि से विचार किया गया है।
यह मनीषियो, शोधाथियो एवं जन विधानों के मननशील अध्येतानो के लिए समान रूप से सर्वथा उपयोगी एव उपादेय है।
यह कृति अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखती है। मनोज्ञ सज्जा, प्राधुनिक प्रस्तुति, निर्दोष छपाई और उचित मूल्य के कारण इसकी उपयोगिता और उपादेयता बढ़ गई है।
मिथ्यात्वीका प्राध्यात्मिक विकास-लेखक : श्रीचन्द डा. ज्योतिप्रपाद जैन :कृतित्व परिचय-सम्पादक :
चौरडिया । प्रकाशक : जैन-दर्शन-समिति. कलकत्ता। श्री रमाकान्त जैन। प्रकाशक-ज्ञानदीप प्रकाशन, ज्योति
पृष्ठ ३६०; मूल्य : बीस रुपए मात्र । निकुंज, चारबाग, लखनऊ; १९७६; पृष्ठ १४७ ।
जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक भव्य-मात्मा में परमात्मप्रस्तुत कृति जैन इतिहाम, पुरातत्व एवं इतर जैन पद पाने की शक्ति विद्यमान है। जीव का संसार उसकी विधानों के उद्भट विद्वान् डा० ज्योति प्रसाद जैन की मिथ्यात्व-दशा पर्यन्त है। जब यह अपने पुरुषार्थ द्वारा विविध कृतियो की परिचायिका है। इसमे डा० साहब की प्रपना माध्यात्मिक-विकास कर लेता है तब मोक्ष कृतियो, समीक्षाओं, अभिमतादि, वर्गीकृत लेखसूची तथा भी प्राप्त कर सकता है। प्रस्तुत कृति मे जीव सांस्कृतिक सामाजिक प्रवृत्तियों का परिचय दिया गया है। के विकासको प्रक्रिया पर मिथ्यात्वी के स्वरूप, पुस्तक प्रत्यन्त उपयोगी एवं सर्वथा उपादेय है।
क्रिया, ज्ञान-दर्शन, व्रत, पाराधना-विराधना मादि
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१२८, पर्व, किरण
अनेकान्त
के विशद, सप्रमाण उद्धरणों के द्वारा सविस्तार प्रकाश मिल जाती है। फलतः यह कृति शोपापियों के लिए भी हाला गया है। लेखक ने इस प्रक्रिया में बिना किसी भेद परम उपयोगी सिद्ध होगी ऐसा विश्वास है। कुल मिला माव के जनों के सभी सम्प्रदायों तथा जनेतर उद्धरणों को कर कृति के लिए लेखक एवं प्रकाशक सभी धन्यवादाह हैं। ग्रहण किया है। यह लेखक को विशेषता ही है। पाशा है इसका अधिक-से-अधिक प्रचार-प्रसार होगा पौर
यह लोक में उपयोगी सिद्ध होगी। सोद्धरण विशद वर्णन में एक लाभ यह भी है कि यदि किन्हीं प्रसंगों में, किन्ही अंशों में किसी को मतभेद
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यह प्रनागत चौबीसी का पृष्ठभाग है जिसमें नीचे स्पष्ट शब्दों में अंत में "नागत चोवीसी"मों को प्रातिशी शीशे (Magnifying glass) द्वारा पढ़ा जा सकता है। इसमें यशकीति को परम्परा तथा मतिकार की बंश-परम्परा अंकित है जो "अनागत-चौबीसी:दो दुर्लभ कलाकृतियों" शीर्षक लेख (लेश इसी अंक में प०१० पर मरित है) में विस्तार से वर्णित है। इसका निर्माण संवत् १६७४ की बेठ सुबी नवमी को कराया गया था।
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R. N. 10591 82 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन परातन जनवाय-सूची प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-प्रन्थों की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादि ग्रन्थों में उद्धत दूसरे पद्यों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पहचाक्यों की सूची । संपादक : मुख्तार श्री जगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्त्व को ७ पृष्ठ की प्रस्तावना से अलंकृत, डा. कालीदास माग, एम. ए., डी. लिट. के प्राक्कथन (Foreword) ओर डा० ए. एन. उपाध्ये, एम. ए.,डी. लिट. की भूमिका (Introduction) से भूषित है। शोध-खोज के विद्वानों के लिए प्रतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द। २५.०० स्वयम्भू स्तोत्र : समन्तभद्र भारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद तथा महत्व
की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित । स्तुतिविद्या : स्वामी समन्तभद्र को मनोखी कृति, पापों के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद पौर श्री जुगल
किशोर मुख्तार की महत्त्व की प्रस्तावनादि से प्रलंकृत, सुन्दर, जिल्द-सहित। अपत्यनुशासन : तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण, समन्तभद्र को प्रसाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही
हमाया । मुस्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलंकृत, सजिल्द । ... २. . समीचीन धर्मशास्त्र : स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्री जगलकिशोर
जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । बनवम्ब-प्रशस्ति संग्रह, भाग १: संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मगलाचरण
सहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं०परमानन्द शास्त्री की इतिहास-विषयक माहित्य
परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द । नप्रन्य-प्रशस्ति संग्रह, भाग २: अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्त्वपूर्ण महान
प्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों महित । सं. प. परमानन्द शास्त्री। मजिल्द। १५.०० समाषितन्त्र मोर इष्टोपदेश : प्रध्यात्मकृति, १० परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका माहित पावणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जंन तीर्थ : श्री राजकृष्ण जैन ... म्याय-दीपिका : मा० अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० डा० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा रा. अन । १०.०० न साहित्य और इतिहास पर विशर प्रकाश : पृष्ठ सख्या ७४, सजिल्द ।
७.०० कत्तायपाइरसुत्त : मूल ग्रन्थ की रचना प्राज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
पतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे । सम्पादक प हीगलालजी सिद्धान्त-शास्त्री। उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में। पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द ।
२५०० जैन निबम्ब-रत्नावली : श्री मिलापचन्द्र तथा श्री रतनलाल कटारिया ध्यानशतक (ध्यानस्तव सहित) : संपादक पं० बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री
१२-०० भाषक धर्म संहिता : श्री दरयावसिंह सोषिया न लक्षणावली (तीन भागों में) : सं०५० बालचन्द मिदान्त शास्त्री
प्रत्येक भाग ४०.०० Reality : मा० पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अंग्रेजी प पनुवाद । बडे प्राकार के ३०० पृ., पक्की जिल्द Jaia Bibliography (Universal Encyclopaedia of Jain References) (Pages 2.5.'') (Under prin'
प्रकाशक -वीर सेवा मन्दिर के लिए रूपवाणी प्रिटिंग हाउस, दरियागज, नई दिनी पे मुद्रित ।
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