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अनेकान्त
जापों से होती बाहों में लिपटती कानो तक पहुंच रही प्रतिमा का दर्शन न कर लंगी तब तक दूध मोर दूध से थीं। पावों के पजों के निकट विच्छ प्रों सपो पौर चीटिया निर्मित वस्तुणों का उपभोग न करूंगी। चामण्डराय को बिल बना बसेरा ले रही थीं। परन्तु वह पडिग तपस्वी माता की प्रतिज्ञा ज्ञात हई, उन्होने नगर और निकटवती उग्र साधना मे दत्तचित्त लगा था।
स्थलों में घोषणा करवा दी कि जो भगवान बाहुबली को तीर्थकर श्री ऋषभदेव के समवसरण में जाकर तीर्थ यात्रा को चलना चाहे नि:सकोच भाव से चल पक्रवर्ती भरत ने प्रगहन भगवान से जिज्ञासा प्रगट को- सकता है। भगवन् तपस्वी बाहुबली को इतनी कठोर तपस्या के बाद गगावंशीय नरेश राचमल के प्रधान सेनापति पौर भी मोक्ष क्यों नही हो रहा है? तीथंकर की वाणी मत्री वीरवर चामुण्डराय सघ सहित नित्य मागे बढते खिरी । वस्स । तपस्वी बाहबली के मन में एक भारी मंजिल पार कर रहे थे। एक दिन ऐसा माया, कि उस शल्य चुभ रही है, कि जितनी भूमि खण्ड पर खड़ा होकर दुर्गम षष पर अनेक प्रयासो के बाद भी भागे बढ़ना में तपस्या कर रहा हूं, वह भी पक्रवर्ती भरत की है। प्रसम्भव हो गया, तब वह इन्द्रगिरि पहाडी के तलहटी मे जिस समय उन्हे इस पाल्य का ममाधान मिल जायेगा, पड़ाव डाल कर भागे बढ़ने के कार्यक्रम पर विचार-विमर्श उसी समय उन्हे मोक्ष हो जायेगा।
के लिये रुक गये। दिन भर के विचार-विनिमय के पश्चात चक्रवर्ती भरत ने समवसरण से सीधे बाहुबली के भी कोई समाधान न निकला। तपस्या भूमि पर हुंच कर तपस्वी बाहुबली के चरणों मे तभी रात्रि में जब सब लोग निद्रा में मलमस्त थे, साष्टांग नमस्कार करते हुए कहा। भगवन् पाप कहा भूले शासन देवी ने प्राचार्य नेमिचन्द्र, चामडराय और उनकी जए हैं। यामापके मन में कसी शल्य लगी हुई है? मैं माता जी को एक साथ स्वप्न देकर कहा कि कल प्रातः तो पापके बरणों का सेवक । पृथ्वी न कभी किसी को काल उषाबेला से पूर्व प्रपने सब नित्य कर्मों से निवृत्त रही है, न कभी रहेगी। महामुने ! शल्प का त्याग करें। होकर इन्द्रगिरि की सबसे ऊंची चोटी पर चढ़ कर इतना सनते हो तपस्वी बाहुबली को मोक्ष प्राप्त हो गया। चामण्डराय सामने वाली बडी पहाड़ी की सबसे ऊँची चोटी इन्द्र ने देवपरिषद के साथ पाकर भगवान बाहुबली का की बड़ी शिला का छेदन स्वर्ण वाण से कर दें। भगवान मोक्ष कल्याणक महोत्सव उस भूमि पर मनाया। बाहुबली की प्रतिमा का सघ को दर्शन होगा।
चक्रवर्ती भरत ने उस महातपस्वी बाहबली की शासनदेवी के मादेशानुसार पुलकित मन मे चामुण्डउस तपस्या भूमि पर रश्नो से उनके कद की प्रतिमा राय ने स्वर्ण बाण से सामने वाली पहाड़ी की सव से ऊंची निर्माण करा कर उस भूमि पर उसकी स्थापना कर उस मोर बड़ो चट्टान को बोध दिया। दशो दिशायें प्रतिध्वनित स्थल को तीर्थधाम बना दिया। दूर पतिदूर से भक्त जन हो उठी। वीबी शिला को परतें करने का क्रम कुछ देर वहां की यात्रा के लिए पाने लगे। क्रम-क्रम काल ने इस तक चला, और उस शिला मे कामदेव सरीखा प्रति सुन्दर तीर्थ धाम पर अपनी काली छाया विखेरना प्रारम्भ कर एक मुख बाहुबली भगवान का प्रगट हो पड़ा। सघ ने दिया, और वह तो दुर्गम बन गया। वन-वृक्षों, कटीली भगवान बाहुबली की प्रतिमा के मुख का दर्शन कर अपने लतानों के मण्डपो से घिरा, कंकडीले प्रगम मार्ग पर जनों का सराहा। भगवान गोम्मटेश्वर के जयकार से दोनो पहाका जाना असम्भव हो गया। उस तीर्थ की यात्रा बन्द ड़िया गुजरित हो उठी । जय गोम्मटेश्वर, जय बाहब ली। हो गई और तमो एक दिन ....
शिपकारो की छनी उस बड़ी चट्टान को काट कर बी पाचार्य नमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने अपने शिष्य मानव प्राकृति के विधान में जुटी पहिनिग पूर्ण योग दे बीरबर चामराय को माता को उस तीर्थ की महानता रही है। चामुण्डराय शिल्पियो के निर्देशन पोर अन्य का वर्णन सुना दिया। माता प्रतिज्ञा ले बैठी कि मैं जब व्यवस्थाप्रो मे दत्तचित्त हो कार्य सम्पन्न कर रहे है। तक उस ती की यात्रा कर उस बाहवली भगवान की
(शेष पृ० १० पर)