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________________ गोम्मटेश्वर बाहुबली का सहस्राब्दी महामस्तकाभिषेक-महोत्सव पनुज पोदनपुर के महाराज बाहुबली ने अभी तक महाराजा हो उन्द युद्ध किया। सामाजिक व्यवहार में भी अनुज भरतको प्राधीनता स्वीकार नहीं की है। जिससे उनका प्रग्रज का सेवक है। मझे उनके पक्रोस्व यज्ञ में सहायक चक्रीत्व पूर्ण न होने से 'चक्ररत्न' राजधानी में प्रवेश नहीं होना चाहिये था, किन्तु मैंने विघ्न डाला। मेरे पिता ने कर पा रहा है। जिस राज्य सम्पदा को तृणवत् स्यागा या उपोका मैं भरत ने अनुज बाहुबली को कहलाया--बाहुबली लोभी बना । धिक्कार है मुझे मैं पर इस मायावी का प्राकर मेरे चक्रीत्व-यज्ञ का स्वय ममापन करें। महाराजा त्याग कर मुनि दीक्षा लगा। कठिन तपस्यामों की बाहबली को महाराजा भरत के इस सन्देश मे चुनौती का भाराधना साध मोक्ष सम्पदा को वरण करूंगा। प्राभास मिला। उन्होंने दूत से उत्तर मे कहला दिया। बाहवली प्रग्रज भरत के चरणों से लिपटे निवेदन पोदनपुर का शासन स्वतन्त्र है और रहेगा । उसे प्राधीनता कर रहे थे, अग्रज! पाप मुझे अमा प्रदान करें। मेरे स्वीकार नहीं है। वह अपनी महत्ता युद्धभूमि मे स्वीकार 'प्र'ने मभसे ये सारे , 'अहं' ने मुझसे ये सारे प्रकृश्य कराये। पापको शारीरिक करायें। पौर मानसिक क्लेश मैंने दिया। हमारे ६९ भाइयों मोर दोनों मोर की चतुरंगिणी सेनायें रण-भमि में प्रा दोनों बहिनों ने पिता के महान विचारो को समझा और जटी। मंत्रीपरिषद, सेनाध्यक्ष और सेनापतियों का मण्डल उनका पथ अनुसरण किया। उस प्रादर्श को मेरे अहंकार वहां एकत्रित हो गया युद्ध प्रारम्भ होने वाला ही था, तभी ने मझे भुलवा दिया था। पाज दृष्टि खुल गई है। मैं बन सेनापतियो ने कहा--सगे भाइयों के युद्ध मे हम सैनिक को जारहा हैं। निता धारण कर मोक्ष प्राप्त करूंगा। सम्मिलित नहीं होगे। द्वन्द्व युद्ध से वे लोग जय-विजय स्वयं निर्णय करें। मन्त्रीपरिषद सेनापतियों के बात से स्वयं चक्रवर्ती भरत, उपस्थित मन्त्रिपरिषद, सेमासमथित हो भाइयों ने द्वना-युद्ध की घोषणा कर दी। तीन नायक, सैनिक उपस्थित प्रजा-मण सभी द्वारा वाहवली प्रकार के द्वन्द्वयुद्ध निश्चित हुए। जलयुद्ध, दृष्टियद्ध, के जयकार से गगन गुजित हो उठा। पड़ोसी को बोली मल्लयुद्ध। तीनों युद्धों मे बाहुबली विजयी रहे। पराजित सुनना दुश्वार था। चारों भोर बाहुबली के त्यागकी भरत ने बाहुबली पर चक्र से घात कर दिया। चक्र चर्चायें चल रही थी। तीनो द्वन्द-युद्धों में विजय प्राप्त बाहबली की प्रदक्षिणा देकर भरत की पोर लौट रहा था। करने के पश्चात भी सर्व का त्याग कर मनियत की चक्र परिवार का पात नहीं करता। प्राकाक्षा ? पाश्चय्यं महान पाश्चर्य । उपस्थित जन समूह अनोति-नीति कह कह चिल्ला तभी वह कामदेव की माक्षात् प्रतिमूर्ति, माजामवाह उठा था। परन्तु जब चक्र बाहुबली की प्रदक्षिणा कर रहा सारे राजसी ठाठ-बाटो को वही छोड़ एकाकी निग्रंथ मन था, तभी सबने बाहुबली की जय जयकार में प्राकाश को से उतावलीपूर्वक कदम बढ़ाना वन-वण को प्रस्थान कर गुजरित कर दिया। भरत ग्लानि से क्षुब्ध मलीन मुख गया। गहन वन के मध्य पहुंच कर महाराजा बाहवली ने पृथ्वी को देखते खडे थे। वह चाह रहे थे कि पृथ्वी फट अपने राजसी वस्त्राभूषणो को उतार फेंका । दिगम्बर बन जाय और वह उसमें समा जाय। कर एक बड़े शिलाखण्ड पर पालथी मार कर बैठ गये। दुसरी मीर बाहुबली के मष्तिष्क मे द्वन्द्व मचा था। हाथो की मट्टियो से बुन्तल केश राशि उखाड़ फेंकी। और ज्येष्ठ-भ्राता ने सत्ता के लोभ में विवेक को भुला दिया वहीं भूमि पर खड़ासन मे बडे हो गये। है। यही महत्त्वकाक्षा विनाश की मूल है। बनें भरत चक्र- तीन बार ॐ नम: सिकहकर ध्यानस्थ हो गये। वर्ती, मेरा मार्ग तो पिता वाला है। मुनि दीक्षा लेकर दिन पर दिन, सप्ताह पर सप्ताह, पक्ष पर पक्ष, मास पर मोक्ष प्राप्त करने का। हमने भी इसी राज्य सम्पदा के मास बीतते रहे। ऋतूपों जाहा, गर्मी, वर्षा के झम बात लोभ में प्राकर प्रग्रज भरत का अपमान कर अपकीति ह। प्राये चले गये । परन्तु वह तपस्वी मचल-प्रटल बना उसी तो कमाया। अपने अहं, बाहुबल के महकार से वशीभूत भूमिखण्ड तपस्या में लीन बना रहा कटीली बन सतायें
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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