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गोम्मटेश्वर बाहुबली का सहस्त्राब्दी महामस्तकाभिषेक
[] श्री गणेश प्रसाद जैन
भगवान गोम्मटेश्वर बाहुबली की श्रमणबेलगोला की चन्द्रगिरि पहाड़ी पर स्थित उत्तग प्रतिमा का महामस्तकाभिषेक २२ फरवरी १६८१ को होने जा रहा है। वर्षो पूर्व से इस महामस्तकाभिषेक की तैयारी श्री १०५ भट्टारक alonifa जी के निर्देशन में चल रही है । सम्पूर्ण धार्मिकमनुष्ठान एलाचार्य मुनि श्री १०८ विद्यानन्द जी महाराज के तत्वाधान में विधिपूर्वक सम्पन्न होगे । अनुमान है कि इस महोत्सव के अवसर पर कम-से-कम दस लाख भक्तजन जुड़ेंगें। उनके निवास के लिये अनेक उपनगर निर्माण कराये जा रहे है ।
उक्त मस्तकाभिषेक के निमित्त देश के अनेक भागो मे "जन मंगल महाकलश" का विहार होगा। इस " जनमगलमहाकलश' के विहार का शुभारंभ प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरागांधी के हाथों २६ सितम्बर १६८० के दिन दिल्ली मे | हुआ है। यह जनमगलमहाकलश देश की परिक्रमा करते हुए २१ फरवरी १६८१ तक 'श्रमणवेलगोला' पहुंचेगा ।
"गोम्मटेश्वर मोर श्रमणबेलगोला" दोनो ही शब्द कन्नड़ भाषा के है । गोम्मटेश्वर का अर्थ है 'कामदेव ' ( प्रतिसुन्दर ) धौर श्रमणबेलगोला का अर्थ है - "जैनमुनियों का घवल सरोवर । इस भूमि पर प्रसख्य साधकों ने तपस्या कर लक्ष्य प्राप्त किया है ।
विन्ध्यगिरि के दक्षिण विस्तार मे इन्द्रगिरि (दोडुवेट ) और चन्द्रगिरि (विवर वेट) नाम की पहाडियों की तलहटी में स्थित वसती ( वस्ती) का नाम श्रपणवेलगोला है । कोईकोई इसे श्रमणबेलगुल' भी कहते है । इसका शान्त वातावरण समशीतोष्ण ऋतुएं साधको के लिये प्रति अनुकूल हैं। इसे दक्षिणकाशी, जैनबद्री, देवलपुर भोर मोहम्मदपुर भी कहा जाता है ।
उत्तरभारत में जब महादुष्काल के १२ वर्षों की
सम्भावना श्रुतकेवली भद्रवाह को लगी तो १२००० बारह हजार मुनियों के संघ सहित वह दक्षिण भारत चले गये । मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त ने भी मुनि दीक्षा ग्रहण कर ली, और मुनि संघ के साथ वह दक्षिण चला गया ।
भद्रबाहु ने विशाल मुनि को मुनि संघ का श्राचार्य पद देकर मुनि संघ को घोलपाण्डय प्रादि राज्यो की यात्रा के निमित्त भेज दिया, और स्वयं नव प्रवजित मुनि चन्द्रगुप्त के साथ कटवत्र पर्वत पर रुक गये । वहाँ उन्होने तपस्याये तपी और प्रायू के प्रन्त में समाधिमरण पूर्वक प्राणविसर्जन किया। गुरु के पश्चात् भी चन्द्रमुनि उसी पहाड़ी पर १२ वर्षो तक कठिन तपस्यानों की साधना करते रहे। उन्होने भी समाधि मरण द्वारा मुक्ति लाभ लिया। जिस पहाड़ी पर श्रुतकेवली भद्रवाह घोर चन्द्रमुनि ने तपस्या की उसका नाम ग्राज चन्द्रगिरि और जिस गुफा में वे निवास करते थे । उसका नाम चन्द्रगुफा प्रख्यात है ।
श्रादि तीर्थकर श्री ऋषभदेव (प्रादिनाथ ) युवराज थे, तब उनका विवाह कच्छ और महाकच्छ राजा की राजकुमारियों यशस्वी और सुनन्दा से हुआ था । यशस्वी से भरतादि एक सौ पुत्र और ब्राह्मी नाम की कन्या, एव सुनन्दा से एक पुत्र बाहुबली और सुन्दरी नाम की एक कन्या थी । महाराज ऋषभदेव ने वैराग्य होने पर युवराज भरत को उत्तराखण्ड ( उत्तर-भारत) का, और राजकुमार बाहुबली को दक्षिणपथ का शासन सौप दिया। प्रोर स्वय मनि दीक्षा लेकर तपस्या करने वन खण्ड को चले गए ।
महाराजा भरत की प्रायुधशाला में चक्ररल प्रगट हुआ। उन्होंने चतुरंगिणी सेना के साथ छ: खण्ड पृथ्वी पर दिग्विजय किया। लौटने पर राजधानी प्रयोध्या के प्रवेश द्वार पर चरत्न अटक गया। एक भी शत्रु शेष रहने पर चक्र-रश्न राजधानी में प्रवेश नहीं करता । विचार-विमर्श पश्चात् ज्ञात हुआ कि महाराज भरत के