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________________ ११६, ३३, किरण गुरुफल परन्तु यह तुला राशि का है। इसलिए उच्च का शनि यह लग्न से चतुर्थ है पोर चतुर्थ बृहस्पति अन्य पाप हपा प्रतएव यह धर्म की वृद्धि करने वाला पौर शत्रमों ग्रहों के परिष्टों को दूर करता है तथा उस पुरुष के द्वार को वश में करता है। क्षत्रियों मे मान्य होता है और पर घोड़ों का हिनहिनाना, बन्दोजनों से स्तुति का होना कवित्व शक्ति, धार्मिक कार्यों में रुचि, ज्ञान की बद्धि मादि मादि बातें हैं। उसका पराक्रम इतना बढ़ता है कि शत्रु शुभ चिह्न धर्मस्थ उच्च शनि के है। लोग भी उसकी सेवा करते हैं; उसकी कीर्ति सर्वत्र फैल जाती है और उसकी मायु को भी बृहस्पति बताता है । राहुफल शरता, सौजन्य, धीरता भादि गुणों की उत्तरोत्तर वृद्धि होती है।' यह लग्न से तृतीय है प्रतएव शुभग्रह के समान फल का देने वाला है। प्रतिष्ठा समय . राह तृतीय स्थान मे होने से, हाथी या सिंह पराक्रम मे उसकी बराबरी नही यह लग्न से तृतीय और राहु के साथ है। प्रतएव कर सकते; जगत् उस पुरुष का सहोदर भाई के समान इसका फल प्रतिष्ठा के ५वें वर्ष में सन्तान-सुख को देना हो जाता है। तत्काल ही उसका भाग्योदय होता है । सूचित करता है। साथ ही साथ उसके मुख से सुन्दर वाणी भाग्योदय के लिए उसे प्रयत्न नही करना पडता है।' निकलती है। उसकी बुद्धि सुन्दर होती है। उसका मुख सुन्दर होता है और वस्त्र सुन्दर होते हैं। मतलब यह है कि इस प्रकार के शुक्र होने से उस पूजक के सभी कार्य केतु का फल सुन्दर होते हैं।' यह लग्न से नवम मे है अर्थात धर्म-भाव में है। इसके शनिफल होने से क्लेश का नाश होना, पुत्र की प्राप्ति होना, दान यह लग्न से नवम है और इसके साथ केत भी है, देना, इमारत बनाना, प्रशसनीय कार्य करना प्रादि बातें शुक्रफल २. गृहद्वारतः श्रूयतेवाजिहषा द्विजोच्चारितो वेदघोषोऽपि तद्वत् । प्रतिस्पर्षितः कुर्वते पारिचर्य चतुर्थे गुरौ तप्तमन्तर्गतञ्च । --चमत्कारचिन्तामणि सुखे जीवे सुखी लोकः सुभगो राजपूजितः । विजातारि: कुलाध्यक्षो गुरुभक्तश्च जायते ।। - लग्नचन्द्रिका मर्ष-सुख प्रर्थात् लन्न से चतुर्थ स्थान में बृहस्पति होवे तो पूजक (प्रतिष्ठाकारक) सुखी राजा से मान्य, शत्रमों को जीतने वाला, कुलशिरोमणि तथा गुरु का भक्त होता है। विशेष के लिए बहज्जतक १९वां अध्याय देखो। ३. मुख चारुभाष मनीषापि चार्वी मुखं चारु चारूणि वासांसि तस्य । -बाराही साहिता भार्गवे सहजे जातो धनधान्यसुतान्वितः । नीरोगी राजमान्यश्च प्रतापी चापि जायते ।। - लग्नचन्द्रिका अर्थ-शुक्र के तीसरे स्थान मे रहने से पूजक धनघान्य, सन्तान प्रादि सुखो से युक्त होता है। तथा निरोगी, राजा से मान्य और प्रतापी होता है । बहज्जातक मे भी इसी भाशय के कई श्लोक है जिनका तात्पर्य यही है जो ऊपर लिखा गया है। ४. न नागोऽथ सिंहो भजो विक्रमेण प्रयातीह सिंहीसुते तत्समत्वम् । विद्याधर्मधनयुक्तो बहुभाषी च भाग्यवान् ॥ इत्यादि अर्थ-जिस प्रतिष्ठाकारक के तृतीय स्थान में राहु होने से उसके विद्या, धर्म धन और भाग्य उसी समय से वृद्धि को प्राप्त होते हैं। वह उत्तम वक्ता होता है।
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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