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________________ होती है। पम्यत्र भी कहा है गोम्मट मूर्ति की कुण्डली 'शिखी धर्मभावे वदा क्लेशनाशः सुतार्थी भवेन्म्लेच्छतो भाग्यबुद्धि" इत्यादि मूर्ति और दर्शकों के लिए तत्कालीन ग्रहो का फल मूर्ति के लिए फल तत्कालीन कुण्डली से कहा जाता है। दूसरा प्रकार यह भी है कि चर स्थिरादि लग्न नवांश और त्रियां से भी मूर्ति का फल कहा गया है। लग्न, नवांशादि का फल लग्न स्थिर और नवांश भी स्थिर राशि का है तथा त्रिशांशादिक भी वर्ग के अनुसार शुभ ग्रहों के हैं। अतएव मूर्ति का स्थिर रहना और भूकम्प, बिजली आदि महान् उत्पातों से मूर्ति को रक्षित रखना सूचित करते है । चोर डाकू यादि का भय नहीं हो सकता। दिन प्रतिदिन मनोज्ञता बढ़ती है थोर शक्ति अधिक प्राती है । बहुत काल तक सब विघ्न-बाधाम्रों से रहित हो कर उस स्थान की प्रतिष्ठा को बढ़ाती है। विपनियों का प्राक्रमण नहीं हो सकता और राजा महाराजा सभी उस मूर्ति का पूजन करते हैं। सब ही जन-समुदाय उस पुण्य-शाली मूर्ति को मानता है और उसको कोति सब दिशाओं में फेस जाती है प्रादि शुभ बातें नवांश और लग्न से जानी जाती है। चन्द्रकुण्डली के अनुसार फल वृष राशि का चन्द्रमा है और यह उच्च का है तथा चन्द्रराशीश चन्द्रमा से बारहवां है मोर गुरु चन्द्र के साथ में है तथा चन्द्रमा से द्वितीय मंगल और दसवें बुध तथा बारहवें शुक्र हैं । प्रतएव गृहाध्याय के अनुसार गृह 'चिरंजीवी' योग होता है इसका फल मूर्ति को चिरकाल तक स्थायी रहना है। कोई भी उत्पात मूर्ति को हानि नहीं पहुंचा सकता है परन्तु यह स्पष्ट के अनुसार तात्कालिक लग्न से जब भायु बनाते है तो परमाणु तीन ५. एकोऽपि जीवो बलवांस्तनुस्थः सितोऽपि सौम्योऽयथवा बली चेत । दोषानशेषानिति सद्यः स्कंदो यथा तारकदेश्यवर्गम् ॥ गुणाधिकतरे लग्ने दोषपतरे यदि । सुराणां स्थापनं तत्र कर्तुरिष्टार्थसिद्धिदम् ॥ ૨. हजार सात सौ उन्नीस वर्ष ग्यारह महीने और १६ दिन जाते हैं। मूर्ति के लिए कुण्डली तथा चन्द्रकुण्डली का फल उत्तम है श्रीर भनेक चमत्कार वहाँ पर हमेशा होते रहेगे । भयभीत मनुष्य भी उस मनुष्य भी उस स्थान मे पहुच कर निर्भय हो जायगा । इस चन्द्रकुण्डली में 'डिम्भारूय' योग है। उसका फल अनेक उपद्रवों से रक्षा करना तथा प्रतिष्ठा को बढ़ाना है। कई अन्य योग भी है किन्तु विशेष महत्वपूर्ण न होने से नाम नही दिये हैं। प्रतिष्ठा के समय उपस्थित लोगो के लिए भी इसका उत्तम फल रहा होगा। इस मुहूर्त में बाण पचक पर्या रोग, चोर, अग्नि, राज, मृत्यु इनमे से कोई भी बाण नही है | अतः उपस्थित सज्जनों को किसी भी प्रकार का कष्ट नही हुआ होगा। सबको मगर सुख एवं शान्ति मिलो होगी। इन लग्न, नवांश पर्यादिक मे ज्योतिष शास्त्र की दृष्टि से कोई भी दोष नहीं है प्रत्युत मनेक महत्त्वपूर्ण गुण मौजूद है। इससे सिद्ध होता है कि प्राचीन काल में लोग मुहूर्त, लग्नादिक के शुभाशुभ का बहुत विचार करते थे। परन्तु प्राज कल की प्रतिष्ठाम्रो मे मनचाहा लग्न तथा मुहूर्त ले लेते है जिससे अनेक उपद्रवों का सामना करना पड़ता है। ज्योतिष शास्त्र का फल प्रसस्य नहीं कहा जा सकता क्योंकि काल का प्रभाव प्रत्येक वस्तु पर पड़ता है और काल की निष्पत्ति ज्योतिष-देवों से ही होती है । इसलिए ज्योतिषशास्त्र का फल गणितागत बिल्कुल सत्य है प्रतएव प्रत्येक प्रतिष्ठा में पञ्चाङ्ग शुद्धि के अतिरिक्त लग्न, नवांश, षड्वर्गादिक का भी सूक्ष्म विचार करना अत्यन्त जरूरी है। 000 । भवार्थ - इस लग्न में गुण अधिक है और दोष बहुत कम हैं अर्थात् नहीं के बराबर हैं। प्रतएव यह लग्न सम्पूर्ण परिष्टों को नाश करने वाला और श्री चामुण्डराय के लिए सम्पूर्ण प्रभीष्ट भय को देनेवला सिद्ध हुआ होगा।
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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