________________
अंतिम श्रुतकेवली महान् प्रभावक प्राचार्य भद्रबाहु
- श्री सतीशकुमार जैन, नई दिल्ली
श्रवणवेल्गोल के अनेक शिलालेखों में प्राचार्य भद्रबाह रहे है । सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य की ही भांति वे ऐतिहासिक का उल्लेख हुअा है। भगवान महावीर की प्राचार्य महापुरुष हुए हैं । यद्यपि भद्रबाहु नामक कई प्राचार्य हुए परम्परा में स्वामी भद्रबाह अंतिम श्रुतकेवली हए है। हैं किन्तु यहां तात्पर्य उन्हीं प्रतिम श्रुतकेवली भद्रबाह से मुनियों प्रायिकानों, श्रावकों एवं श्राविकाओं का विशाल है जो प्राचार्य गोवर्धन के शिष्य तथा सम्राट चन्द्रगुप्त समुदाय भगवान महावीर का चतुर्विध संघ कहलाता था। मौर्य के गुरु थे। हरिषेण के बृहत् कथाकोष के अनुसार मुनिसंघ नो गणों अथवा वन्दो में विभक्त था जिनके चतुर्थ श्रुतकेवली गोवर्धनाचार्य ने ब्राह्मण दम्पति सोममध्यक्ष थे भगवान महावीर के ग्यारह गणधर अथवा शर्मा एवं सोमश्री के पुत्र को, उसकी प्रतिमा के कारण, प्रमुख शिष्य इन्द्रभूति (गौतम), अग्निभूति, वायुभूति, अपना योग्य शिष्य बनाने तथा प्रपना उत्तराधिकार सौंपने ध्यक्त, सुधर्म, मंडिकपुत्र, मौर्यपुत्र, प्रकम्पित, प्रचल, मेतार्य का निश्चय किया था। एवं प्रभास । ये सभी गणघर ब्राह्मण तथा उपाध्याय थे एवं ग्यारह अंग और चौदह पूर्व के ज्ञाता थे। महासती
गोवर्धनाचार्य द्वारा भद्रबाह को अपना उत्तराधिकारी चन्दना पायिका संघ की नेत्री थी और श्राविका संघ का
चयन करने को कथा उल्लेखनीय है। गिरनार की यात्रा संचालन होता था मगध की साम्राज्ञी चेलना द्वारा।
के पश्चात् विहार करते हुए पुद्रवर्षन देश के कोटिपुर उनके प्रथम समवशरण के मुख्य श्रोता थे मगध सम्राट
नामक नगर के समीप गोवर्धनाचार्य ने एक बालक को बिम्बिसार श्रेणिक । भारत के लगभग प्रत्येक भाग मे
अन्य बालकों के मध्य चौदह गोलियों को एक पर एक भगवान महावीर के अनुयायी होने के अतिरिक्त गान्धार,
पंक्तिबद्ध खड़ा करते हुए देखा । प्राचार्य उसकी बुद्धिमत्ता कपिशा, पारसीक प्रादि देशो में भी उनके भक्त थे।
से प्रभावित हुए । निमित्तज्ञान द्वारा उनको स्पष्ट हुमा
कि यही मेधावी बालक भली प्रकार शिक्षित एवं दीक्षित भगवान महावीर के ग्यारह गणघरों मे से इन्द्रभूति होने पर उनके प्राचार्य पद का सुयोग्य उत्तराधिकारी एवं सुधर्म के अतिरिक्त नो को उनके जीवन काल में ही बनेगा। बालक से उसके माता-पिता का पता ज्ञात कर निर्वाण पद प्राप्त हो गया था। भगवान महावीर को उन्होंने ब्राह्मण दम्पति से उस बालक को उचित शिक्षा निर्वाण लाभ हमा १५ अक्तूबर, ई० पू० ५२७ के देने के लिए ले लिया। गोवर्धनाचार्य ने बालक को ययोप्रातःकाल मे। उनके पश्चात् संघ नायक रहे गणधर चित शिक्षाएं देकर विद्वान शिष्य बनाने के उपरांत माताइन्द्रभूति भोर उनके पश्चात् गणधर सुधर्म। सुधर्माचार्य पिता के पास वापिस भेज दिया। किशोर विद्वान ने माताके निर्वाण के पश्चात् संघनायक हए अन्तिम केवली जम्बू- पिता से मुनिधर्म में दीक्षित होने की अनुमति मांगी जो स्वामी । उनके पश्चात् संघनायक रहे क्रमशः श्रुतकेवलो उन्होंने सहर्ष प्रदान की। गोवर्धनाचार्य ने दीक्षा उपरांत विष्णुनन्दि, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धनाचार्य एवं नाम दिया भद्रबाहु । मुनि भद्रबाह का जीवन मुनिचर्या में भद्रबाहु । उन्हें सम्पूर्ण श्रुत का यथावत ज्ञान था इसी व्यतीत होने लगा। वह जैनधर्म के धुरधर विद्वान बन कारण वह पांचों श्रुतकेवली कहलाये।
गये। प्राचार्य ने उन्हें अपने पट्र पर प्रतिष्ठित कर संघ स्वामी भद्रबाह जैन धर्म के महान प्रभावक भाचार्य का सब भार उमीं को सौंप दिया। उनके देहत्याग के