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________________ अंतिम भुतकवली महान प्रभावक प्राचार्य भाबाट पश्चात् भद्रबाह ने प्राचार्य पद धारण किया। वे चतुर्दश चन्द्रगिरि पर निर्मित चन्द्र गुप्त बसदि में शिल्पकार पूर्वघर तथा अष्टांग निमित्तज्ञानी ब्रतकेवली थे। अनेक दासोज द्वारा उत्कीर्ण १० जालीदार पाषाण चित्रफलकों क्षेत्रों में बिहार करते हुए अपने उपदेशों द्वारा उन्होंने में से अनेक चित्रफलको मे उपरोक्त घटनामों को चित्रित धर्म प्रचार एवं जन-कल्याण किया। विहार करते हुए किया गया है। वह संघ सहित उज्जयिनी भी पधारे एवं क्षिप्रा नदी के ___स्वामी भद्रबाहु जैन धर्म के महान प्रभावक प्राचार्य किनारे उपवन मे प्रवास किया। सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य हुए है। कितनी अपूर्व रही होगी उनकी नेतृत्व शक्ति तथा उस समय अपनी उपराजधानी उज्जयिनी में ही राज्य जैन धर्म के प्रसार के लिए उत्कट कामना । यह जान कर संचालन कर रहे थे। वे महारानी सहित उनके दर्शनों के भी कि सुदूर दक्षिण में इतने विशाल सघ सहित जाने में लिए भाए पौर उनके संघ को पाहार के लिए निमंत्रित मार्ग में कितने ही कष्ट आयेंगे, साधूनों को कभी-कभी किया। विधिपूर्वक उनकं संघ ने नगरी में माहार ग्रहण निराहार भी रहना पड़ेगा, ऋतु सम्बन्धी तथा परीषह भी किया। प्राहार के निमित्त नगरी में पधारने पर वे एक झेलने पड़ेंगे उन्होने प्रस्थान का निश्चय लेकर कितने दिन जैसे ही एक मावास-गृह के प्रांगन में प्रविष्ट हए साहस का परिचय दिया। किन्तु जहा सघ ने सभी परीषहों झूले में झूलते हुए एक सर्वथा प्रकले शिशु ने उनको को समभाव से भला, उस विशाल संघ द्वारा समस्त मार्ग सम्बोधित कर कहा-"जामो-जामो।" प्राचार्य भद्रबाह । मे धर्म प्रभावना भी कम नही हुई। स्थान-स्थान पर ने निमित्तज्ञान से जाना कि भविष्य उस क्षेत्र मे शुभ नहीं दिगम्बर जैन साधुमो के कठोर प्राचरणमय जीवन तथा है, वहां बारह वर्ष का भारी दुर्भिक्ष पड़ने वाला है। उनको शान्त तपस्या मद्रास सहस्रो-सहस्रो व्यक्तियों के वर्षा न होने से अन्नादि उत्पन्न न होगे तथा मुनिसघ को हृदय मे जैन धर्म के उत्कट त्याग एवं सयम के प्रति मादर माहार मे भारी कष्ट होगा, सयम पूर्वक चर्या पालन तथा मास्था अवश्य ही उत्पन्न हुए। कठिन होता जायेगा । बिना माहार लिए वह वापिस पा गये तथा संघ को भावी संकट से सूचित करते हुए दक्षिण उनके कणटिक में सघ सहित कटवप्र पर्वत, वर्तमान की मोर जाने का निश्चित किया। चन्द्रागिरि पर पहुंचने के उपरान्त वह समस्त क्षेत्र जैन रात्री में सम्राट चन्द्रगुप्त ने भी सोलह प्रशुभ स्वप्न जयघोष से गुंजित हो उठा। श्रवणबेलगोल समस्त दक्षिणदेखे । वे उन स्वप्नों का फल ज्ञात करने के लिए प्राचार्य पथ में जैन धर्म के प्रसार के लिए केन्द्र-बिन्दु बन गया। भद्रबाह के पास पहुंचे। उन्होने स्वप्नों को भी पाने वाले कैसा अपूर्व रहता होगा उस समस्त स्थान का धार्मिक एवं संकट काल का सूचक बताया। स्वामी भद्रबाहु के सघ पवित्र वातावारण । प्राचार्य भद्रबाहु की ज्ञान-गरिमा से सहित दक्षिण में प्रस्थान करने के निश्चय को ज्ञात कर प्रभावित होकर अनेकों ने जैन धर्म अगीकार किया एवं सम्राट ने भी राज्य कार्य अपने पुत्र बिन्दुसार को सौंप वह मुनि धर्म में दीक्षित हुए। जैन धर्म का पालन करना पाचार्य से जैन मुनि दीक्षा ले ली। महान सम्राट एक तथा मृत्यु निकट होने पर सात्विक वृत्ति से सयम पूर्वक दिगम्बर साधु बन गये, सभी परीषहों को झेलने के लिए सल्लेखना-व्रत धारण कर ममाधिमरण पूर्वक देह त्याग सहर्ष तत्पर । धर्मोपदेश देते हुए प्राचार्य ने सष एवं करना उस काल में एक प्रचलित एवं धार्मिक महत्व को चन्द्रगुप्त सहित जिसमें लगभग बारह सहस्र साधु सम्मि- बात बन गई। चन्द्रगिरि के सर्वाधिक प्राचीन ६ठीं शती लित थे दक्षिण की भोर प्रस्थान करने की तैयारी की। के शिलालेख क्रमांक १ मे उल्लख है कि स्वामी भद्रबाहु यद्यपि राजपरिवार के अनेक सदस्यों एवं श्रेष्ठी वर्ग ने ने वहां से समाधिमरण पूर्वक देह त्याग किया तथा उनके उनसे वह क्षेत्र न छोड़कर जाने के लिए अनुनय की किन्तु पश्चात् उनके प्रमुख शिष्य चन्द्रगुप्त (दीक्षा नाम साधूमों की पर्या एवं संयम की रक्षा के लिए वह अपने प्रभाचन्द्र) तथा ७०० अन्य साधुनों ने समाधिमरण पूर्वक निश्चय पर अडिग रहे। द्वारा देह त्याग किया।
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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