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१२०, वर्ष ३३, किरण
अनेकान्त
भगवती प्राराधना की एक गाथा में भद्रबाहु को दिया। मुनि चन्द्रगुप्त (प्रभाचन्द्र) के अनुरोध पर समाधि का निम्नलिखित रूप में उल्लेख किया गया है- केवल वे ही उनकी सेवा के लिए वहा पर रुके रहे। प्रोमोवरिये घोराए भद्दबाहू य संकिलिटुमदी।
भद्रबाहु गुफा मे समाधिमरण-पूर्वक उनका देह त्याग हुमा। घोराए तिगिच्छाए पडियष्णो उत्तमं ठाणं ॥
उस समय चन्द्रगुप्त उनके पास ही थे। स्मृतिस्वरूप उस
गुफा में उनके चरण-चिह्र स्थापित है जिनकी पूजा की पर्थात् भद्रबाहु ने अवमोदर्य द्वारा न्यून माहार की जाती है। घोर वेदना सहकर उत्तम पुण्य की प्राप्ति की।
स्वामी भद्रबाह के प्रादेश पर विशाखाचार्य उस संघ दिगम्बर साहित्य में स्वामी भद्रवाहु के जन्म प्रादि के नेता हए और उस विशाल मनिसघ ने दक्षिण के पान्डय का परिचय हरिषेण कृत बृहत् कथाकोष, श्रीचन्द्र कथाकोष प्रादि देशो मे विहार कर धर्म प्रचार किया। तथा भद्र बाहु चरित प्रादि में मिलता है। श्वेताम्बर-साहित्य में उन पर सामग्री के श्रोत है कल्पसूत्र, आवश्यकसूत्र, नंदि बारह वर्ष के दुर्भिक्ष के समाप्त हो जाने के पश्चात् सूत्र, पार्षमंडलसूत्र तथा हेमचन्द्र का परिशिष्ट पर्व । दि० उस साधु संघ का मूल एव अधिकतर भाग स्थायी रूप से परम्परा में स्वामी भद्रबाहु द्वारा साहित्य रचना का कोई दक्षिण मे ही रह गया। श्रवणबेलगोल को प्रधान केन्द्र उल्लेख प्राप्त नही होता किन्तु श्वेताम्बर परम्परा के बनाफर दिगम्बर जैन साधु दक्षिण भारत के विभिन्न पनसार व्यवहारसूत्र, छेदसूत्र, प्रादि ग्रंथ श्रुतकेवली क्षेत्रो मे तथा सागर के निकट द्वीपों में भी जैनधर्म का भद्रबाहु द्वारा रचित माने जाते हैं। दिगम्बर परम्परा में प्रचार एवं प्रसार करने में लगे रहे। भद्रबाहु का पट्ट काल (प्राचार्य पद) २६ वर्ष (ई०पू० ३६४ से ई० पू० ३६५) तथा श्वेताम्बर परम्पग मे
भगवान महावीर के अहिंसा धर्म के अनुयायी मगध १४ वर्ष (ई० पू० ३७१ से ई० पू० ३५७) बताया गया
तथा उत्तर-पूर्वी भारत मे तो अनेक राजवंश थे ही, है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार उनका निधन ई० पू०
प्राचार्य भद्रबाह की धर्म प्रभावना के फलस्वरूप शताब्दियों ३६५ मे हपा जबकि श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार उनका
के अन्तराल के पश्चात् भी दक्षिण के अनेक प्रसिद्ध देवत्याग भगवान महावीर के निर्वाण वर्ष से १७०वे
राजवंश जैनधर्म से प्रभावित रहे और अनेक नरेश, मंत्री,
मामंत, अधिकारी, उच्च श्रेष्ठी प्रादि जैन धर्म के प्रनवर्ष मे अर्थात् ई० पू० ३५७ मे हुमा । ऐतिहासिक
. मान्यता के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्यकाल यायों बने रहे। तथा उनके दाग बविध पो ई० पू० ३२१ से ई० पू० २६८ पर्यन्त रहा है। स्वामी धर्म को संरक्षण मिलना रहा । भद्रबाह के प्राचार्य काल मे चन्द्रगुप्त उनके शिष्य रहे
दक्षिण मे ही अधिकांशतः वह महान जैनाचार्य हए अतएव जैन परम्परा एव इतिहास सम्मत काल के अनुसार
जिन्होंने अपने अगाध ज्ञान से शास्त्रार्थ मे अनेक प्रमुख उनके जीवन काल सम्बन्धित लगभग ७० वर्ष का अन्तर
जैनेतर विद्वानों पर विजय प्राप्त कर जैन धर्म के यश प्राता है। विद्वान उनका ऐतिहासिक काल निश्चित करने
को और उज्जवल किया तथा उसके महत्त्व एवं श्रेष्ठता की शोध-खोज में लगे हुए है ।
को स्थापित किया। जैन वाङ्मय का अधिकांश भाग अपना अन्तकाल निकट प्राया जानकर, कटवा पर्वत भी दक्षिण के महान जैनाचार्यों द्वारा सृजित हमा है। (चन्द्रगिरि) पर, स्वामी भद्रबाहु ने अपने समस्त संघ को दक्षिण मे जैन धर्म के विकास का श्रेय इस प्रकार मूलतः दक्षिण के पाण्ड्य प्रादि राज्यों की पोर जाने का आदेश प्राचार्य भद्रबाहु को ही प्राप्त होता है।