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ऋषभदेव-सिम्पु : सम्यता के माराध्य ?
भरत शकुन्तला का पत्र था । हमें यह ध्यान रखना चाहिये उदाहरणार्थ नर-नारायण, कृष्ण-बलराम या ऋषभ पौर कि भरत जो चक्रवर्ती मम्राट थे वे ऋशभ के पुत्र थे। उनके पुत्र भरत जो ऋषभ के जीवन काल में ही सम्राट ऐसा प्रतीत होता है कि मिन्धु सम्पना के पतन के बाद बना दिये गये थे। एक और दृश्य जो बहुत अधिक मुद्रामों जब छठी शताब्दी ईसा पूर्व मे जैन धर्म समाप्तप्राय पर पाया गया है वह एक ऐसे जानवर का है जिसके हो गया और वैष्णव धर्म प्रारम्भ हवा तब भी जनमानस शरीर के प्रग विभिन्न जानवरों के शरीरों के अगों से मे भरत पोर शेरो मे माथ बराबर बना रहा, परन्तु क्योकि मिलकर दिखाये गये है, परन्तु हर मुद्रा पर अलग-अलग जनमानस जैन राजामो को भुलाना चाहता था इसलिये रूप में दिखाये गये है । यह कदाचित् सब जन्तुओं में शकुन्तला के पुत्र भरन के साथ गलती से इन शेरो का एक ही प्रात्मा का चित्रण है जो कि जैन धर्म का एक सम्बन्ध बना दिया गया। प्रतः हमे यह मा नकर चलना प्रमुख प्रग है। चाहिये कि यह राजा ऋषभ के पुत्र भरत होगे।
सिन्ध घाटी सभ्यता का जनधर्म नर्म?' अन्य चित्र
इस प्रकार हम देखते है कि सिन्धु घाटी सभ्यता जो कुछ अन्य मुद्रामो पर कुछ और दृश्य काफी संख्या कि माज स ५००० वर्ष पूर्व फली-फूली थी पोर जो माज से मिलते है, परन्तु उनका पर्थ वर्तमान समय मे समझ मे तक समझ मे नही पा पाई है, वह भारतीय संस्कृति और नही पाता है। एक दृश्य बहुत प्राता है। वह है देवी पुरुष इतिहास की प्राधार के रूप मे दखी जाये तो स्पष्ट रूप से के प्रतीक वृक्ष की सबसे नीचे की शाखा पर एक मनुष्य प्रकट होने लगती है। हम यह भी देखते है कि भारत का बंठा हुमा दिखाया है जिसके नीचे एक शेर पीछे की तरफ प्राचीनतम धर्म जैनधर्म इस सभ्यता में प्रारम्भ होकर देखता हुमा खहा है। यह अकेला मोहनजोदड़ो से प्राप्त फला-फुला और उसके मुख्य माधार इस सभ्यता की मुद्रा ३५७ भोर ५२२ (फरदर एक्स केवेशन एट मोहन- मुद्रामों पर प्रतिबिम्बित होते हैं। गौतम बुद्ध के समजोदडो-मैके) और हडप्पा से प्राप्त मुद्रा न० २४८ ३०८ कालीन, ईसा पूर्व छठी शताब्दी मे महावीर स्वामी जैनियों (एक्सकेवेशन एट हडप्पा-वन्स) मे पाया जाता है। अन्य के चौबीसवें तीर्थकर हुए थे। मगर दो तीचंकरों के बीच मुद्रामों पर अन्य दृश्य के साथ पायी जाने वाली मद्रायें में प्रोसतन १५० वर्ष का समय माना जाए तो ऋषमदेव नम्बर १, १३, २३ पोर हरप्पा से प्राप्त मुद्रा न० ३०३ का समय ईसा पूर्व ४००० वर्ष का हो जाएगा जो कि पर पाया गया है। वह एक दंवी पुरुष मोम् रूप का सिम्घ घाटी सभ्यता का लगभग मादि काल था। इसलिए मुकुट पहने हुए पीपल के पेड़ की भूमि से निकली दो यह पुष्टि हो जाती है कि ऋषभदेव जी मिन्ध घाटी शाखामों के बीच मे खडा है । उसके सामने एक अन्य देवी सभ्यता के पूजनीय पुरुष थे पोर उनके जीवन की महत्व. पुरुष प्रोम् रूपी मुकुट पहने एक पैर पर बैठा है पोर पूर्ण घटनाए सिन्धु घाटी से उत्खनित मुद्रामो पर चित्रित उसकी पूजा कर रहा है और उस बैठे हुए व्यक्ति दश्यो में प्रतिबिम्बित हो रही है। जो दृश्य प्रभी समझ मे के पीछे या पागे एक अजीब सा जन्तु दिखाया गया है नही पा रहे है वे कदाचिन उनके या उनसे सम्बन्धित जिसके शरीर के प्रग अलग-अलग जानवरो के शरीर के व्यक्तियो के जीवन की उन घटनामो को चित्रित करते हैं अंगों से मिलकर बने हैं। इनके साथ किसी मुद्रा पर मात जिन्हे हम इतने युग बीत जाने पर भूल गए। इससे यह व्यक्ति, किसो मे पाच, किमी में एक भी नहीं दिखाया भी स्पष्ट होता है कि सिन्धु घाटी सभ्यता का धर्म जैन गया है । यह दव्य मोहनजोदड़ो से प्राप्त मुद्रा न. ४३. धर्म या और मिन्ध घाटी सभ्यता जैन मभ्यता थी। यही (फरदर एक्स केवेशन-मके) भोर हड़प्पा से प्राप्त मुद्रा न. कारण था कि जब जैन धर्म को हटाकर ईमा से ५६ वर्ष ३१६ और ३१० (एक्म केवेशन एट हहप्पा-वत्स) मे पाया पूर्व वैष्णव धर्म, नवीन भारत के धर्म के रूप में प्रतिष्ठित जाता है। यह उन देवी पुरुषो के जोई हो सकते है जो हुमा तो उसने भी ऋषभदेव जी को भगवान विष्णु का कि पौराणिक गाथामो में अक्सर साप पाये जाते हैं। माठवा अवतार माना ।
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